भारतीय हिंदी सिनेमा और बायोपिक
- वर्षा

बीज शब्द : भारतीय हिंदी सिनेमा, बायोपिक, फिल्म, बॉलीवुड, हॉलिवुड, दृश्य, रंगमंच, बायोग्राफ़िकल मोशन पिक्चर, राजा हरिश्चन्द्र, आरम्भ, अंत, दर्शक वर्ग।
मूल आलेख : भारतीय सिनेमा का आरम्भ वर्ष 1913 में दादा साहेब फाल्के द्वारा ‘राजा हरिश्चन्द्र’ मूक फिल्म को पर्दे पर लाने से हुआ। जिस प्रकार से शिशु का विकास समय अनुसार होता रहता है उसी प्रकार से भारतीय सिनेमा ने भी अपनी विकास यात्रा के एक सौ दस वर्ष भली प्रकार से पूर्ण किए हैं। चाहे वह वर्ष 1913 में दादा साहेब फाल्के द्वारा ‘राजा हरिश्चन्द्र’ मूक फिल्म का निर्माण हो या फिर निर्देशक अर्देशिर ईरानी द्वारा सन् 1931 में प्रथम सवाक अर्थात् बोलने वाली फिल्म ‘आलमआरा’ हो। कुछ विद्वान् सिनेमा को साहित्य और मनोरंजन दोनों से जोड़ते हुए नजर आते हैं- “जो भी हो साहित्य और सिनेमा कला और मनोरंजन जगत के दो महत्वपूर्ण माध्यम है। साहित्यकार और दिग्दर्शन समाज में ही जन्म लेते हैं, समाज में ही पलते हैं और समाज की आसपास की परिस्थितियों से प्रभावित होकर, व्यथित होकर अपना-अपना सर्जन करते हैं। साहित्यकार और दिग्दर्शक दोनों का धर्म है सामाजिक हितों की रक्षा करना। साहित्य और सिनेमा में जीवन उपयोग उपदेश देने की शक्ति होती है।”1
भारतीय हिंदी सिनेमा ‘बॉलीवुड’ के नाम से जाना जाता है। काफी विद्वानों में इसके नाम की उत्पति को लेकर विवाद है, कुछ सिनेमा वैज्ञानिकों का विचार है कि जिस प्रकार आरम्भ में भारत विदेश की वस्तुओं और विचारों का अनुकरण करता था तथा अमेरिका के कैलीफोर्निया में स्थित पाश्चात्य सिनेमाजगत हॉलिवुड के नाम से जाना जाता है, जहाँ पर अमेरिका का सिनेमा संसार विकसित हुआ। उसी प्रकार भारतीय हिंदी सिनेमा जगत ने बॉम्बे अर्थात् आज के मुंबई में विस्तार पाया। भारतीय हिंदी सिनेमा ने बॉम्बे का ‘बॉ’ और हॉलिवुड के ‘लीवुड’ शब्द के मेल से ‘बॉलीवुड’ नाम प्राप्त किया। जिस प्रकार हिंदी सिनेमा ने बॉलीवुड नाम प्राप्त किया उसी प्रकार से तेलुगू सिनेमा को ‘टॉलीवुड’ नाम प्राप्त किया। सम्पूर्ण विश्व में हॉलिवुड के उपरांत ‘बॉलीवुड’ सिनेमा जगत ने अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है। रंगमंच और नाटक को अगर सिनेमा का बीज कहा जाए तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। जिस प्रकार से साहित्य समाज का दर्पण है उसी प्रकार से सिनेमा भी समाज की प्रतिछवि को दर्शक वर्ग के सम्मुख उजागर करता है। साहित्य जहाँ आदिकाल से जनता के साथ जुड़ा हुआ है, वहीं सिनेमा आधुनिक जीवन की देन है। भारतीय सिनेमा के करीबन 110 वर्ष के इतिहास के विषय में विद्वानों का यह मानना है कि भारत के अंदर हिंदी सिनेमा ने अंगद के पांव के समान अपना स्थान बना लिया है जो किसी के हिलाने से नहीं हिल सकता। “कहा जाता है कि जिस देश का जैसा साहित्य होगा वैसा वहां का समाज बनेगा। आज के परिदृश्य में कह सकते हैं कि जिस देश का सिनेमा जैसा होगा वैसा वहां का समाज बनेगा।”2 सिनेमा अपने आरम्भिक समय से ही जनता को प्रभावित करता हुआ नजर आता है। ऐसे में सिनेमा जैसा जिस वर्ग को दिखाता है, भारतीय जनता भी उसे उसी नजर से देखने लगती है। इस सन्दर्भ में किशोर वासवानी का कथन है- “दृश्य-श्रव्य माध्यमों द्वारा झूठा-सच आसानी से स्थापित किया जा सकता है। अत: इन माध्यमों में निहित सम्मोहक शक्ति का प्रयोग कर भूमंडलीकरण के पक्षधर अपने मनचाहे विचारों को स्थापित करने के लिए इन माध्यमों पर पूरा नियंत्रण रखते है। साथ ही इन माध्यमों का प्रयोग अफीम के नशे की तरह समाज को स्वप्नील नींद सुलाने में करते हैं। जनसंचार माध्यमों में सबसे सशक्त माध्यम है सिनेमा।”3
वास्तव में सिनेमा जगत अन्य विधाओं की तुलना में जनता से अधिक जुड़ जाता है और जनता इसके अधिक निकट प्रतीत होती है। यदि हम सभी अपने बालपन की स्मृतियों को याद करें तो हमें भान होगा कि हम बालपन में सिनेमा में दिखाए गए प्रत्येक दृश्य को हम वास्तविक मानते थे। करीबन निन्यानवे प्रतिशत लोगों को फिल्मों में दिखाए गए हर एक दृश्य वास्तविक लगते होंगे, चाहे वह नायक नायिका का रोना हो, हँसना हो, गाना हो या फिर प्रेम आदि भाव हो, क्योंकि बालमन को एक्टिंग अर्थात् अभिनय आदि के विषय में जानकारी नहीं होती। बालक हमेशा अपने भावों और अन्य व्यक्तियों के भावों को वास्तविक मानकर चलता है। जिस प्रकार से प्रत्येक दृश्य बालमन पर अमिट छाप छोड़ता है, कुछ उसी प्रकार से दर्शकों के दिमाग पर भी किसी किरदार या कार्य विशेष की कुछ हद तक अमिट छाप छप जाती है। सिनेमा के द्वारा मन्त्रमुग्ध होने की दशा के विषय में बसंतकुमार तिवारी का कथन है- “सिनेमा एक बड़ा धोखा है। कुछ भी नहीं होकर वह चलचित्रों से दर्शक को इतना आत्मविभोर कर देता है कि कुछ समय के लिए वह अपने अस्तित्व को भी भूल जाता है।”4 फिल्मों के द्वारा जनता पर छोड़े गए प्रभाव के विषय में डॉ. गजेन्द्रप्रताप सिंह का कथन है- “फिल्म मनोरंजन के साथ साथ हमारे देश की संस्कृति, सभ्यता और नए युग को प्रदर्शित करती है। फिल्म ही एक ऐसा माध्यम है, जिसके जरिए लोग हर चीज से प्रभावित होते हैं।”5 दरअसल सिनेमा जगत समाज को देखने का एक चश्मा दर्शक वर्ग को देता है जिसके द्वारा जनता प्रत्येक व्यक्ति को नायक, खलनायक, सहायक किरदार, नायिका आदि रूपों में खोजती चलती है। कभी-कभी इसका सकारात्मक प्रभाव दर्शक वर्ग पर पड़ता है तो कभी-कभी नकारात्मक प्रभाव भी।
बायोपिक का शाब्दिक अर्थ 'जीवनी चलचित्र है। वास्तव में सिनेमा जगत के भारतीय हिंदी सिनेमा विषय में बात करना कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे हम समुद्र की किसी लहर का विश्लेषण तो करना चाहते हैं परन्तु उसकी लहर की पूर्ण बूंद को भी अपनी चर्चा के दौरान छू नहीं पाते। भारतीय हिंदी सिनेमा की बायोपिक के विषय में चर्चा करना भी कुछ ऐसा ही रहेगा। बायोपिक को यदि सरल शब्दों में समझाया जाए तो यही कहा जाएगा कि बायोपिक सिनेमा, सिनेमा का वह रूप है जहाँ फिल्म के द्वारा किसी वास्तविक, ऐतिहासिक, जीवंत व्यक्ति के जीवन को केंद्र में रख कर उसके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को फिल्म के द्वारा दिखाया जाता है। इन फिल्मों में मुख्यतः उन घटनाओं को दर्शाया जाता है जिसके कारण उस व्यक्ति को प्रसिद्धि मिली है या वह व्यक्ति जनता के केंद्र में आया है। यह फ़िल्में अन्य फिल्मों के स्थान पर वास्तविकता के अधिक निकट होती है। इन फिल्मों में व्यक्ति विशेष के वास्तविक नामों का, वास्तविक स्थानों का व वास्तविक चरित्रों आदि का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार की फ़िल्में उन चरित्रों पर आधारित होती हैं जो समाज को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं या उनके जीवन की किसी एक घटना ने समाज में हडकम्प मचा दिया हो। सिनेमा वास्तव में ऐसी विधा है जो कभी दर्शक से शिक्षित होने की मांग नहीं करती और सरलता से दर्शक वर्ग के दिलोदिमाग में बैठ जाती है। बायोपिक दर्शकों को मात्र मनोरंजित ही नहीं करती, बल्कि यह स्वप्नलोक और आदर्श से निकाल कर वास्तविक और यथार्थ जीवन में प्रवेश भी करवाती है।
भारतीय हिंदी सिनेमा ने विगत कुछ वर्षों में अनके बायोपिक बनाई है जिसकी सूची दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। उदाहरणत: ‘द लेजेंट ऑफ़ भगत सिंह’, ‘संजू’, ‘सरबजीत’, ‘द डर्टी पिक्चर’, ‘सुपर 30’, ‘बैंडिट क्वीन’, ‘गुरु’, ‘अजहर’, ‘साइना’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ़ झाँसी’, ‘मांझी: द माउंटेन मैन’, ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’, ‘मैरी कॉम’, ‘गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल’, ‘थलाइवी’, ‘नीरजा’, ‘सरदार उधम’, ‘मंगल पाण्डेय: द राइजिंग’, ‘बोस: डेड/अलाइव’, ‘जोधा अकबर’, ‘शूटआउट एट वडाला’, ‘छपाक’, ‘मेजर’, ‘शेरशाह’, ‘तेरासी’, ‘एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’, ‘गुल मकई’, ‘तानाजी’, ‘23 मार्च 1931: शहीद’, ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’, ‘सांड की आँख’, ‘सूरमा’, ‘गंगुबाई काठियावाडी’, ‘शकुंतला देवी’, ‘सम्राट पृथ्वीराज’, ‘मिशन रानीगंज’, ‘ठाकरे’, ‘भाग मिल्खा भाग’, ‘दंगल’, ‘गाँधी’, ‘श्रीकांत’ आदि बायोपिक फिल्म। वर्ष 2018 में संजय दत्त के जीवन पर बनी ‘संजू’ फिल्म में रणबीर कपूर ने संजय दत्त का किरदार निभाया, वर्ष 1994 में ‘बैंडिट क्वीन’ में सीमा बिस्वास ने फूलन देवी का किरदार निभाया, वर्ष 2013 में ‘भाग मिल्खा भाग’ फिल्म में फरहान अख्तर ने मिल्खा सिंह का किरदार निभाया, वर्ष 2014 में ‘मैरी कॉम’ फिल्म में प्रियंका चोपड़ा ने रेसलर मैरी कॉम का किरदार निभाया, वर्ष 2024 में राजकुमार राव ने श्रीकांत फिल्म में श्रीकांत बोल्ला का किरदार निभाया आदि-आदि फ़िल्में बायोपिक के अच्छे उदाहरण साबित हुए हैं।
कुछ आलोचक कुछ व्यक्तियों पर बनी बायोपिक पर सवाल उठाते हैं व उन फिल्मों के निर्माण पर नराज दिखते हैं। उनका मानना है कि जो व्यक्ति समाज में बदनाम हैं या फिर किसी न किसी आरोप में जेल जाते हुए दिखाई देते हैं उनके जीवन पर बायोपिक नहीं बननी चाहिए, जैसे अभिनेता संजय दत्त के जीवन पर आधारित ‘संजू’ फिल्म या फिर डाकू फूलन देवी के जीवन पर आधारित ‘बैंडिट क्वीन’ फिल्म आदि। ऐसे आलोचकों का मानना है कि ऐसी फ़िल्में दर्शक वर्ग पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। परन्तु वास्तव में इनके सकारात्मक पक्ष को देखा जाए तो शेखर कपूर के निर्देशन में वर्ष 1994 में बनी फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ की डाकू फूलन देवी अनेक प्रकार की हिंसा का शिकार होती है चाहे वह सवर्णों द्वारा अवर्णों का शारीरिक एवं मानसिक चोट पहुँचाना हो या फिर फूलन देवी के साथ हुए बलात्कार के मानसिक और शारीरिक घाव की अमिट छाप हो। इस फिल्म के द्वारा हम समाज के काले सच को देखते हैं, साथ ही स्त्री के दुर्गा रूप की कुछ झलकियाँ हमें फूलन देवी में देखने को मिलती है, जो अंत में सभी दोषियों का नाश करती हुई दिखती है। जिस प्रकार फूलन देवी कुछ स्थान पर स्त्री की आत्मरक्षा का झंडा उठाती हुई दिखती है उसी प्रकार से राजकुमार हिरानी के निर्देशन में वर्ष 2018 में बनी ‘संजू’ फिल्म में भी अभिनेता संजय दत्त का किरदार निभा रहे रणबीर कपूर भी अपने आप से लड़ते हुए दिखाई देते हैं जहाँ फूलन देवी की लड़ाई समाज से थी वहां संजय दत्त की लड़ाई स्वयं से थी। ड्रग्स की लत से वशीभूत संजय दत्त अपने आप से लड़कर, आख़िरकार नशे की लत से मुक्त हो जाता है, जिसमें उसका सच्चा मित्र और परिवार उसका सहयोग करता नजर आता है। स्वयं और समाज से लड़ने की मात्र यह दो बायोपिक ही नहीं है बल्कि इसकी अलग सूची बनी हुई है। कुछ नकारात्मक और कुछ सकारात्मक पक्षों के साथ इन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कलेक्शन किया है।
बायोपिक के द्वारा आम जनता समाज के लिए कल्याणकारी लोगों के चरित्र से अवगत तो होती ही है, साथ ही साथ बहुत सरलता से दर्शक वर्ग के दिलोदिमाग पर कब्जा भी कर लेती है। बायोपिक अनेक अनदेखे पहलुओं को दर्शक वर्ग के समुख उजागर करती है व इन समाजकल्याणकारियों का व्यक्तित्व आम जनता को प्रभावित भी करता है। वर्ष 2014 में चित्रकार राजा रवि वर्मा के जीवन पर ‘रंग रसिया’ बायोपिक बनी, वर्ष 2016 में भारतीय क्रिकेट के कप्तान एम. एस. धोनी के जीवन पर आधारित ‘एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’ बनी, वर्ष 2018 में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के राजनीतिक जीवन पर ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ फिल्म बनी, वर्ष 2019 में मुफ्त में गरीब एवं योग्य विद्यार्थिओं को कोचिंग देने वाले बिहार के शिक्षक आनंद कुमार के जीवन पर आधारित ‘सुपर 30’ फिल्म बनी, वर्ष 2019 में स्वतन्त्रता सेनानी रानी लक्ष्मी बाई के जीवन पर आधारित ‘मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झाँसी’ बायोपिक बनी, इसी प्रकार अनेक बायोपिक से भारतीय हिंदी सिनेमा जगत समृद्ध हुआ है। बायोपिक समाज के दर्पण के रूप में तो विख्यात है ही साथ ही वह परम्परावादी एवं रुढ़िवादी समाज में सुधार की जिम्मेदारी निभाता भी है इस विषय में राजेश कुमार लिखते हैं, “परंपरावादी और रूढ़िवादी समाज में सुधार, परिवर्तन और जागरूकता लाने का महत्वपूर्ण काम भी सिनेमा ने किया।”6
बायोपिक की इस सूची में यदि हम वर्ष 1982 में आई लोकप्रिय भारतीय स्वतन्त्रता सेनानी, अहिंसावादी, राष्ट्रनायक एवं सम्पूर्ण भारत के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले मोहनदास करमचंद गाँधी के जीवन पर आधारित बायोपिक ‘गाँधी’ का जिक्र नहीं करेंगे तो यह विषय अधूरा ही रह जाएगा। तीन घंटे ग्यारह मिनट की इस बायोपिक में अनेक दिग्गज कलाकारों ने अपना योगदान दिया। रिचर्ड एटनबरो के निर्देशन में बनी इस बायोपिक में रिचर्ड एटनबरो ने गाँधी का किरदार स्वयं निभाया, और काफी हद तक इस किरदार के साथ न्याय भी किया। बायोपिक्स समय और स्थान के बंधन को काटती हुई प्रतीत होती है, इन्हें देखने पर ऐसा लगता है जैसे सभी कुछ यथावत हमारे सामने हो रहा है और हम सरलता से उस समय और स्थान में प्रवेश कर जाते हैं। ‘गाँधी’ फिल्म के नायक रिचर्ड एटनबरो महात्मा गाँधी की याद दर्शकों को दिलाने में सफल होते हैं। इस सन्दर्भ में फिल्मकार कमलस्वरूप का कथन है- “किसी घटना के काल और दिक् के आयामों का रूपांकन है।”7 वर्ष 2002 में राजकुमार संतोषी द्वारा निर्देशित ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ फिल्म में अजय देवगन ने स्वतन्त्रता सेनानी भगत सिंह के किरदार को निभाया तथा भगत सिंह द्वारा दिए गए बलिदान को अपने अभिनय द्वारा दर्शक वर्ग तक पहुँचाया। डॉ. रमा सिनेमा द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारी के विषय में कहती हैं- “सिनेमा मात्र मनोरंजन और व्यवसाय नहीं है उसकी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी है।”8 बायोपिक की इस श्रृंखला से साहित्य भी अछूता नहीं रह पाया, 2018 में नंदिता दास के निर्देशन में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने साहित्यकार सआदत हसन मंटो का किरदार निभाया व मंटो के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को केंद्र में रख कर ‘मंटो’ फिल्म का निर्माण किया गया।
निष्कर्ष : भारतीय सिनेमा जगत बायोपिक के विषय में काफी समृद्ध है। प्रत्येक वर्ष करीबन तीन हजार से अधिक भारतीय फ़िल्में रिलीज होती हैं, जिनमें कई बायोपिक भी होती हैं, जिनको यदि सही रूप से दर्शाया जाए तो भारतीय दर्शक फिल्म को प्रेम भी देते हैं। भारतीय हिंदी बायोपिक सिनेमा की समृद्धि का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि संजू, सरबजीत, द डर्टी पिक्चर, एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी, गंगुबाई कठिअवाडी, तानाजी, शेरशाह, दंगल, छपाक आदि फ़िल्में ऐसी रही हैं जिन्होंने बॉक्स ऑफिस कमाई के रिकॉर्ड भी तोड़े हैं, परन्तु कुछ बायोपिक में बेकार निर्देशन, गलत फिल्म कास्ट आदि कारणों से फिल्म पर्दे पर कुछ खास कमाई नहीं कर पाती है। इसी उतार चढ़ाव के साथ भारतीय हिंदी बायोपिक दर्शक वर्ग के सम्मुख नई ऊर्जा, नई उम्मीद के साथ आती है। बायोपिक का मुख्य उद्देश्य दर्शक वर्ग को उन लोगों व उनके योगदान से अवगत कराना है जिन्होंने समाज में बदलाव लाने के लिए अनेक कष्ट झेले, परंतु आज का मीडिया बायोपिक के मुख्य किरदार अर्थात् जिनके जीवन को केंद्र में रख कर फिल्म का निर्माण हुआ है उनके चेहरे को जनता के सामने उजागर ही नहीं करता है। जनता फिल्म के मुख्य पात्र के वास्तविक जीवन को तो जान जाती है परन्तु उस किरदार को देख ही नहीं पाती जिसके जीवन पर फिल्म का निर्माण हुआ है। वास्तविक जगत के नायक व नायिका का चेहरा तो कहीं धूमिल होता जाता है, दर्शक बायोपिक से तो अवगत होते हैं परंतु बायोपिक के वास्तविक जीवन के नायक को जान ही नहीं पाते। बायोपिक जितनी वास्तविकता के अधिक होगी उतनी ही दर्शक वर्ग को पसंद आती है पंरतु कुछ निर्देशक व पटकथाकार उसे रोमांचक बनाने की जद्दोजहद में इतना अधिक अतिश्योक्ति वर्णन करते हैं जिससे कुछ किरदारों के प्रति अधिक सहानुभूति तो कुछ के प्रति क्रोध का भाव उमड़ पड़ता है। अत: बायोपिक निर्माताओं एवं पटकथाकार को अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए दर्शक वर्ग के सम्मुख सत्य उद्घाटित करना चाहिए व बायोपिक जिस व्यक्ति को केंद्र में रख कर बनी है उसका चलचित्र भी फिल्म के अंत या आरम्भ में अवश्य दिखाना चाहिए।
सन्दर्भ :
- साहित्य और समाज- सम्पा. प्रो. मुकेशकुमार कांजिया, पृष्ठ सं. 32
- साहित्य और सिनेमा : बदलते परिदृश्य में सम्भावनाएं और चुनौतियां – सम्पादिका डॉ. शैलजा भारद्वाज, पृष्ठ सं.- ‘भूमिका से’
- श्रव्य-दृश्य बनाम नवसाक्षरता- किशोर वासवानी (‘अनभो’ मीडिया विशेषांक, 2006), पृष्ठ सं. 31
- ये कहाँ आ गए हम, कहाँ जाएँगे- बसंतकुमार तिवारी (‘मिडिया विमर्श’, सिनेमा विशेषांक- 1, दिसम्बर 2012) पृष्ठ सं. 14
- फिल्मों की पृष्ठभूमि और युवाओं पर प्रभाव- डॉ. गजेन्द्र प्रताप सिंह, (‘मिडिया विमर्श’, सिनेमा विशेषांक- 2 मार्च 2013) पृष्ठ सं 37
- हिन्दी सिनेमा का अध्ययन: राजेश कुमार, तक्षशिला प्रकाशन, संस्करण-2017, पृष्ठ -108
- सिनेमा अभिव्यक्ति का नहीं अन्वेषण का माध्यम है- फ़िल्मकार कमलस्वरूप (‘हंस’, हिंदी सिनेमा के सौ साल, फरवरी, 2013), पृष्ठ सं. 122
- हिन्दी सिनेमा तथा उसका अध्ययन: डॉ. रमा, हंस प्रकाशन, संस्करण- 2020, पृष्ठ - 37
वर्षा
शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय
असिस्टेंट प्रोफेसर, रानी भाग्यवती देवी महिला महाविद्यालय, बिजनौर
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
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