- जितेंद्र कुमार यादव
शोध सार : भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री ने सिनेमा की दुनिया में लोक की महक को बिखेर कर किसानों, मजदूरों के जीवन को पर्दे पर उतारा है। भोजपुरी सिनेमा भोजपुरी संस्कृति का दस्तावेजीकरण कर रहा है। इनमें भोजपुरी समाज और संस्कृति के चित्र देखे जा सकते हैं. इन फिल्मों में भोजपुरीपन केवल विषय वस्तु तक ही सीमित नहीं है बल्कि इन फिल्मों की बिम्बात्मक भाषा में ऐसा जीवन वैशिष्ट्य है जिसमें भोजपुरी माटी की खुशबू महसूस की जा सकती है। इसमें भोजपुरी लोक जीवन का सहज चित्र है। देशीपन का जो तत्व इन फिल्मों में मिलता है, वह कोई उधार लिया हुआ नहीं है। यही खासियत भोजपुरी फिल्मों की अनेक त्रुटियों के बावजूद दर्शकों के मन को छूती है। भोजपुरी सिनेमा अपने सामाजिक परिवेश के साथ संगति बैठा रख कर चलता है। लोक भाषायी सौंदर्य, सहज और चटपटे संवाद भोजपुरी सिनेमा में प्राण भरने का कार्य करते हैं। भोजपुरी सिनेमा की पटकथा पारिवारिक ड्रामा के साथ कॉमेडी, एक्शन, रोमांस, त्रासदी आदि पर केंद्रीत है। इसे अभी सामाजिक और सांस्कृतिक आलोचना तक का सफर तय करना है।
बीज शब्द : संस्कृति, यथार्थ, दृश्य कला, निर्देशक, अभिनेता, फिल्म इंडस्ट्री, क्षेत्रीय सिनेमा, पटकथा, सिनेमैटोग्राफर, लोक कलाकार
मूल आलेख : सिनेमा यथार्थ की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। अन्य कलाओं की अपेक्षा यह यथार्थ से छेडछाड नहीं करता। आर्नल्ड हाउज़र ने ‘कला का इतिहास दर्शन’ में सिनेमा के बारे में ठीक ही लिखा है-‘‘फिल्म का चरित्र मूलतः फोटोग्राफिक होता है, अतः इसे यथार्थ के कुछ हिस्सों को अपरिवर्तनीय रखना होगा और किसी अन्य कला के मुकाबले अधिक प्रत्यक्ष ढंग से 'प्रकृति की आवाज' को सुनने देना होगा।…फिल्म एकमात्र कला है जो यथार्थ के एक बड़े हिस्से को जस का तस उठाती है; निस्संदेह यह उन्हें व्याख्यायित करती है पर व्याख्या भी फोटोग्राफिक ही रहती है। किसी भू-दृश्य का फोटो या सड़क का फोटो, किसी चेहरे या भंगिमा का फोटो बहुत कुछ वही होता है जो वह वस्तु स्वयमेव है।’’ आधुनिक कला माध्यमों में सिनेमा यथार्थ की अभिव्यक्ति का सबसे प्रभावी माध्यम है। इसमें कैमरे के द्वारा यथार्थ दृश्यों और घटनाओं को चित्रित करने की क्षमता है। सिनेमा अपने शुरुआती दौर में नाटकों/थिएटर के माध्यम से ही विकसित हुआ। सिनेमा के प्रारंभिक दौर में नाटक को ही कैमरे के द्वारा रिकॉर्डिंग करके दिखाया जाता था। धीरे-धीरे कैमरा गतिमान हो गया और दृश्य की जगह ‘शॉट’ महत्वपूर्ण होते गए। आज हजारों शॉट की शूटिंग करके एक फिल्म का संपादन किया जाता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण ही सिनेमा में यथार्थ की अभिव्यक्ति अन्य कला माध्यमों से ज्यादा होती है। हालांकि कैमरा भी तटस्थ नहीं है,. ‘‘फ़िल्म की भाषा का जो संकेत पटकथा में दिया गया होता है, उसे कैमरे के माध्यम से व्यक्त करना पड़ता है। कैमरे से ली गयी तस्वीरों को बाद में जोड़ने पर फिल्म में कहानी का एक समग्र चेहरा उभर आता है। कहानी में जो कुछ ब्योरा होता है, नायिका का रूप, नायक का पौरुष, गाँव की हरियाली, बस्ती की सीमा, घर-द्वार, रास्ता-घाट, युद्ध-विग्रह-इन सब चीजों को एक कैमरे की दृष्टि से देखना पड़ता है। मनुष्य की आँख जो कुछ देखती हैं, कैमरे की आँख उसकी अपेक्षा कुछ अधिक ही देखती हैं, कम नहीं। आवश्यकतानुसार छोटे को बड़ा, दूर को पास, असुन्दर को सुन्दर.... यहाँ तक कि दिन को रात तक दिखाना कैमरे की शक्ति के भीतर है। इसलिए कैमरा निर्देशक के हाथ में पहला और मुख्य हथियार होता है।’’ किसी भी समाज के तत्कालीन सामाजिक यथार्थ को जानने के लिए सिनेमा से बेहतर कोई माध्यम नहीं है. सिनेमा संस्कृति के अभिव्यक्त का भी सबसे सशक्त माध्यम है. यह न केवल तत्कालीन संस्कृति की अभिव्यक्त करता है बल्कि इस गतियमान समय में उनका ‘दृश्य-संग्रह’ भी करता चला जाता है. ‘‘फिल्म एक चाक्षुष माध्यम है। जब हम फिल्म को पर्दे पर देखते हैं तो जीवन हमें ठीक वैसा ही नजर आता है जैसा कि हम जीते हैं। अपनी इस शक्ति के कारण ही सिनेमा का प्रभाव किसी भी अन्य कला विधा के मुकाबले कहीं ज्यादा है। लोकप्रिय सिनेमा के प्रभाव की इस व्यापकता और शक्ति को देखकर यह जरूरी हो जाता है कि हम उस पर गंभीरता से विचार करें। सिनेमा समाज के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को कई रूपों में और कई ढंग से अभिव्यक्त और प्रभावित कर रहा है।’’ एक समय ‘‘प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे ने भारत के बारे मे कहा था कि –‘भारत में सादगी है, आकर्षण है और यह देश अपनी आदियुगीन प्राचीनता का उदाहरण भी है। यहां नाविकों का चलना, किसानों का खेत बोना और स्त्रियों का कुंए से जल निकालना- ये वे दृश्य हैं, जो अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलते।’’ लेकिन क्या ये दृश्य आज भारतीय सिनेमा में देखने को मिलते हैं। हॉलीवुड की नकल कर बॉलीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक जडों से कट गया है।
एक दौर था जब हिंदी सिनेमा में भारतीय समाज की छवियां, आम आदमी का जीवन आदि लोकरंग देखने को मिलता था. 90 के बाद का हिंदी सिनेमा यथार्थवाद से दूर होता गया। हिंदी समाज के भद्र जीवन के कला-दर्शन पर पाश्चात्य पॉलिश चढता गया। इस दौर के नायक सामान्य पृष्ठभूमि से ना आकर किसी व्यवसायिक या राजनीति घराने की पृष्ठभूमि से आने लगे। जीवन की सामान्य परिस्थितियों से जूझते हुए नायक की तस्वीर हिंदी सिनेमा से धीरे धीरे गायब होती गई। इस दौर के फिल्मों में भारतीय जनजीवन की छवियां नहीं दिखाई देती हैं। यह फिल्में महानगर से शुरू होकर महानगर में ही समाप्त हो जाती हैं। इन फिल्मों को देखकर भारतीय सामाज के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती है। 1990 के बाद भारतीय समाज बहुत तेजी से बदला। एक तरफ परंपराएं छूटती जा रही थी दूसरी तरफ नए मूल्य प्रभावित होते जा रहे थे। यह भारतीय समाज में सांस्कृतिक संक्रमण का दौर था। नई आर्थिक नीति ने भारतीय समाज को नए रास्ते पर लगाकर खड़ा कर दिया। ऐसे समय भारतीय संस्कृति को बचाना और नई पीढ़ी से उसका परिचय कराना, एक चुनौती पूर्ण कार्य हो गया था। इस दिशा में भोजपुरी फिल्मों के योगदान को बुलाया नहीं जा सकता है। भोजपुरी फिल्मों में भोजपुरी समाज और संस्कृति का चित्रण किया गया है। इस विपरीत दौर में भोजपुरी फिल्मों ने भोजपुरी मिट्टी की खूशबू को बिखेर कर किसानों, मजदूरों व अन्य सामान्य व्यक्तियों के जीवन को पर्दे पर उतारा। भोजपुरी सिनेमा भोजपुरी संस्कृति का दस्तावेजीकरण कर रहा है।
भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत 1963 में ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाइबो’ से हुई. 1963 में ही ‘बिदेसिया’, 1965 में ‘गंगा’ ‘बलम परदेसिया’(1979) ‘नदिया के पार’ (1982) आदि फिल्मों के द्वारा भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत हुई। इन फिल्मों को भोजपुरी समाज से अलवा हिंदी जगत के लोगों ने भी पसंद किया। भोजपुरी सिनेमा का सफर इसी तरह धीरे-धीरे चलता रहा. सन 1977 से 2001 के बीच लगभग डेढ़ सौ भोजपुरी फिल्मों का निर्माण हुआ. 2001 में मोहन प्रसाद द्वारा निर्देशित फिल्म 'सइयां हमार' (2003) ने भोजपुरी सिनेमा को एक नई ऊंचाई प्रदान की. इस फिल्म ने रवि किशन को भोजपुरी का सुपरस्टार बना दिया। 'पंडित जी बताई ना बियाह कब होई' (2004) रवि किशन की दूसरी महत्वपूर्ण फिल्म थी। इसी बीच मनोज तिवारी की फिल्म 'ससुरा बड़ा पइसा वाला' (2004) बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट हो गई और इसने भोजपुरी फिल्मों की कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. ‘‘कभी क्षेत्रीय समझे जाने वाले भोजपुरी फिल्म उद्योग की तस्वीर बदलने में सबसे बड़ी भूमिका रही 2004 में प्रदर्शित फिल्म ‘ससुरा बड़ा पइसा वाला’ की। इसने भोजपुरी सिनेमा के एक तीसरे दौर को जन्म दिया जो पहली बार बाजार की दृष्टि से नई संभावनाओं को जन्म दे रहा था। फिल्म व्यवसाय विश्लेषक तरन आदर्श इन संभावनाओं की पड़ताल करते हुए कहते हैं कि ज्यादातर भोजपुरी फिल्में छोटे बजट की होती हैं जिनमें 20 से 30 लाख रूपये लगाये जाते हैं और इनमें से कई एक से दो करोड़ रूपये तक का व्यापार कर लेती हैं। ज्यादातर फिल्में अपनी लागत से दस गुना ज्यादा का व्यवसाय करती हैं और एक अच्छी फिल्म दस से बारह करोड़ का मुनाफा कमा सकती हैं।’’ ससुरा बड़ा पैसा वाला (2004) का नायक काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में ऑनर्स करके अपने गांव आता है। उसे अपनी ग्रामीण संस्कृति से प्रेम है। अपने दोस्तों के साथ गांव का हालचाल लेता है। उनके साथ चुहलबाजी भी करता है. वह अपने हाथ से अपने दोस्त का टमटम भी चलता है। उसे एक सादे कुर्ते पजामे और साइकिल चलाते हुए परिधान में भी देखा जा सकता है। इस फिल्म में गांव खेत, मचान, खरिहान,बगीचे, नदी-पोखर आदि दिखाई देते हैं। यह एक पारिवारिक फिल्म है जिसमें नायक को उसका ससुर घर जमाई बना कर रखना चाहता है। नायक अपनी जिद और बुद्धिमत्ता से ससुराल के धन-वैभव को तिलांजलि देकर अपने पारिवार और भाई को वापस प्राप्त करता है।
दिनेश लाल यादव ने बिरहा गायक से अपने कैरियर की शुरुआत की। इनका पहला एलबम ‘निरहुआ सटल रहे’ इतना मशहूर हुआ कि वे निरहुआ नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इसी नाम पर उन्होंने ‘निरहुआ रिक्शावाला’(2008) में फिल्म बनाया। यह दिनेश लाल यादव निरहुआ की महत्वपूर्ण शुरुआती फिल्म है। इस फिल्म ने दिनेश लाल यादव को भोजपुरी का सुपरस्टार बना दिया। नायक रिक्शा चलाता है और उसे विधायक की बहन से प्रेम हो जाता है। फिल्म एक पारिवारिक ड्रामा है। एक रिक्शा वाले व्यक्ति का एक विधायक की बहन से प्रेम और शादी इस फिल्म के कथानक को विशेष बना देती है. इस फिल्म में पूर्वांचल की ग्रामीण और कस्बाई संस्कृति की झलक देखी जा सकती है।
दिनेश लाल यादव ने इधर कुछ सामाजिक फिल्में बनाई। 'विद्या' (2022) एक ऐसी ही एक महत्वपूर्ण फिल्म है। यह मूलत: दहेज समस्या को लेकर बनाई गई है। विद्या का पिता रिक्शा चालक है। विद्या बीएससी अच्छे अंक से पास हो जाती है। उसका पिता उसके रिश्ते को लेकर के एक रसूखदार परिवार के पास जाता है। लड़के वाले उसे दहेज के लिए बड़ी रकम मांगते हैं। अंत में फिल्म की नायिका विद्या (आम्रपाली दुबे) आईएएस की परीक्षा पास कर लेती है और जौनपुर की कलेक्टर बन जाती है। विद्या दहेज के खिलाफ अपने पूरे जिले में अभियान चलाती है। इस फिल्म में भोजपुरी प्रदेश के तीज-त्यौहार आदि का चित्रांकन बखूबी किया गया है। लड़कियां 'पीडिया' लगती हैं और उसके पारंपरिक गीत गाती हैं। इसमें भोजपुरी प्रदेश की लोक-विश्वास, मान्यताएं आदि देखी जा सकती हैं। भोजपुरी की इन फिल्मों में भोजपुरी लोक संगीत के वाद्य यंत्र, नृत्य आदि देखे जा सकते हैं। इसी भाव भूमि पर निरहुआ की एक और फिल्म 'कलेक्टर बहू' (2024) है. यह फिल्म राजनीतिक चेतना से भी लैश है। नायक इंटरव्यू पास करके प्रखंड विकास अधिकारी बन जाता है। एक कर्मचारी द्वारा एक समान्य व्यक्ति से रिश्वत मांगने और उसे धक्का देते हुए पकड़ लेता है। वह कहता है-"तू सरकारी नौकर, आ ई सरकार बनावे वाला. इनसे तू अइसे बात करब." वह उस कर्मचारी को सस्पेंड कर देता है. इस फिल्म में ग्रामीण चुनावी राजनीति का भी यथार्थपरक अंकन किया गया है। कृषि संस्कृति के तमाम यंत्रों जैसे ट्रैक्टर, पंप सेट, हल, कुदाल आदि इन फिल्मों में देखे जा सकते हैं। इस फिल्म की नायिका कहती है-" 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' का केवल नारा देने से नहीं होगा। इसे करना होगा." इन फिल्मों में भोजपुरी कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों का भी बखूबी प्रयोग किया गया है। बदसूरत दुल्हन को देखकर दुल्हे का चाचा व्यंग करता है-" एक त धिया रहली गोर, ऊपर से लेहली कमरी ओढ़"। दिनेश लाल यादव निरहुआ के लगभग सभी प्रमुख फिल्मों की पृष्ठभूमि पूर्वांचल ही है। इसलिए इन फिल्मों में भोजपुरी संस्कृति और समाज के चित्र स्पष्ट देखे जा सकते हैं। अपनी मातृभाषा भोजपुरी के स्वाभिमान को लेकर बनी फिल्म 'हम का अइसा वइसा ना समझ' (2006) का नायक (निरहुआ) अपनी अंग्रेजी की क्लास में भोजपुरी भाषा में उत्तर देता है। उसका शिक्षक गुस्सा होकर उसे क्लास से निकाल देता है। वह इसकी फरियाद लेकर कॉलेज के प्रिंसिपल से मिलता है। वह कहता है-' हमके अंग्रेजी समझ में नइखे आवत'। प्रिंसिपल कहते हैं कि तुम्हें क्या पढ़ना है बताओ। इसके जवाब में वह कहता है कि-' हम पढल चाहत बानी, एक विषय हिंदी साहित्य और दूसरा विषय भोजपुरी साहित्य और संस्कृति. उसके उत्तर पर प्राचार्य नाराज हो जाते हैं। वह अपने कॉलेज में भोजपुरी भाषा और संस्कृति की आवाज उठाता है। इसके लिए उसे दंडित भी किया जाता है लेकिन वह अंत तक अपनी जिद पर अड़ा रहता है। यह फिल्म दर्शकों के अंदर अपनी मातृभाषा और भोजपुरी के स्वाभिमान को जगाती है। नायक कहता है कि 'जब पूरी दुनिया के लोग अपनी -अपनी मातृभाषा में पढ़ेला, त हमनी के काहें नाहीं लिख पढ़ सकत बानी.'
भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में खेसारी लाल यादव ने अपनी एक नई मुकाम हासिल की है। मनोरंजन की दृष्टि से खेसारी लाल यादव की फिल्में काफी महत्वपूर्ण है। खेसारी लाल यादव भोजपुरी हाव-भाव और छाव के साथ अभिनय करते है। उनकी फिल्मों में एक नई मुहावरेदार भाषा का प्रयोग देखा जाता है। ‘चिरइन के जान जा, लइकन के खेलवना’., ‘पड़लन राम कुकुर के पले’. आदि भोजपुरी मुहाबरों का स्वाभाविक प्रयोग किया गया है। ‘ए बलमा बिहार वाला’ (2013) फिल्म में नायक अपने दोस्तों से कहता है-'हिम्मत के सीढ़ी पर चाप के चढ़ सन.' भेस बदलने और मनोरंजन के लिए खेसारी लाल यादव की तुलना बॉलीवुड अभिनेता गोविंदा से की जा सकती है. खेसारी आम भोजपुरिया लोगों का अच्छा मनोरंजन करते हैं। उनके स्टरपन का राज इसी अति-अभिनयता में छिपा हुआ है। इनकी फिल्में मार-धाड़ से भरपूर साउथ की फिल्मों से प्रभावित लगती हैं। ‘लिट्टी चोखा’ (2021) खेसारी लाल यादव का एक महत्वपूर्ण पारिवारिक ड्रामा फिल्म है। इस फिल्म के सभी पात्रों के नाम भोजपुरी के व्यंजनों के नाम पर हैं। जैसे नायिका लिट्टी, नायक चोखा, खलनायक जमींदार चटनी सिंह, दारोगा लहसुन पांडे आदि। इस फिल्म में छपरा और उसके आसपास के अंचल का दृश्यांकन किया गया है। ‘छपरा एक्सप्रेस’ (2014) और ‘जिला चंपारण’ (2017) में सामंतवादी व्यवस्था से संघर्ष करते हुए क्षेत्रीय तानाशाही और आतंक से आम जनता को मुक्ति प्रदान करता है।
पवन सिंह ने प्रतिज्ञा (2008), सत्या (2017) राजा (2019), मेरा भारत महान (2022) हर हर गंगे (2023) आदि प्रमुख फिल्मों के द्वारा भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान कायम की है। पवन सिंह की अधिकांश फिल्में भोजपुरी क्षेत्र से शुरू होकर तुरंत महानगर में पहुंच जाती हैं। इनकी फ़िल्में हिंदी फिल्मों का भोजपुरी रूपांतरण ज्यादा लगती हैं। पूरी फ़िल्म में दर्शक पवन सिंह को किसी पात्र की भूमिका में न देखकर पवन सिंह को ही देखता है। वे बीच में अपना नाम भी लेते हैं। एक ठसक उनके किरदार में दिखाई देता है। यह मार-धाड और एक्शन से भरपूर हैं। उनकी फ़िल्म की पटकथा ज्यादातर प्रेम प्रसंगों और देश प्रेम से पर ज्यादा आधारित हैं।
भोजपुरी सिनेमा बॉलीवुड और अन्य क्षेत्रीय फ़िल्म उद्योग से पिछड़ा हुआ है। लेकिन इसकी जिम्मेदारी आज फिल्म उद्योग से जुड़े हुए कुछ लोगों पर ही नहीं डाली जा सकती। सिनेमा एक सामूहिक कला है. पटकथा, गीत-संगीत, निर्माता-निर्देशक, सिनेमैटोग्राफर, अभिनेता अभिनेत्री तथा अन्य छोटे बड़े सैकड़ो कलाकार मिलकर के एक फिल्म का निर्माण करते है। शिक्षा और संसाधनों की दृष्टि से भोजपुरी समाज ऐतिहासिक रूप से पिछड़ा रहा है। सांस्कृतिक दृष्टि से देश की अन्य संस्कृतियों की तुलना में इसे कम महत्व मिलता है। समाज का कथित शिष्ट वर्ग भोजपुरी भाषा और संस्कृति को पिछड़ेपन के प्रतीक के तौर पर रेखांकित करता है। कुछ ऐसे ही पूर्वग्रहों के कारण भोजपुरी को आठवीं अनुसूची का दर्जा नहीं मिल पा रहा है। ऐसी परिस्थितियों में भोजपुरी सिनेमा की स्वस्थ आलोचना के साथ प्रशंसा की भी जरूरत है।
हिंदी मीडिया और महानगरी अभिरूचि में रचे-पगे कुछ एक समूह द्वारा भोजपुरी सिनेमा पर अश्लीलता का आरोप लगाया जाता है। भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर पर भी उनके प्रारंभिक दौर में कुछ इसी तरीके के आरोप लगे थे। उन्हें सामाजिक कुरुचि पैदा करने वाले, अश्लील और युवाओं को दिग्भ्रमित करने वाले आदि आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। भिखारी ठाकुर पर राहुल सांकृत्यायन की एक टिप्पणी भोजपुरी सिनेमा के संदर्भ में भी प्रासंगिक जान पड़ती है। “केहू के जो लमहर नाक होय आ ऊ खाली दोषे सूंघत फिरे त ओकरा खातिर का कहल जाय। हम इ ना कहतानी जे भिखारी ठाकुर के नाटकन में दोष नइखे। दोष बा त ओकर कारन भिखारी ठाकुर नइखन, ओकर कारन हवे पढुआ लोग। उहो लोग जो आपन बोली से नेह देखावत, भिखारी ठाकुर के नाटक देखत आ ओमें कवनो बात सुझावत त इ कुलि दोष मिट जात।'' आज भोजपुरी सिनेमा में केवल दोष ढूंढने वाले व्यक्तियों की जरूरत नहीं है। भोजपुरी सिनेमा अपने उन कलाकारों, बौद्धिकों की राह देख रहा है जो उसे नए मुकाम तक पहुंचाने में सफल होंगे। आधुनिक संस्थानों से प्रशिक्षित, तकनीकी कुशल, प्रतिभावान कलाकारों के द्वारा ही भोजपुरी सिनेमा अपने नए मंजिल को प्राप्त करेगी। उसे क्षेत्रीय सिनेमा से आगे बढकर अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करना है। भोजपुरी की परिधि अगर अंतरराष्ट्रीय है तो सिनेमा को भी क्षेत्रीयता की परिधि का लांध कर एक नई उडान भरनी होगी।
भोजपुरी का भाषायी भौगोलिक विस्तार, उसके प्रयोग और बोलने वालों की संख्या उसे भारत ही नहीं दुनिया की एक महत्वपूर्ण भाषायी समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित करती है। "उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर मध्यप्रान्त के सरगुजा रियासत तक उसका विस्तार है। बिहार प्रान्त में यह शाहाबाद, सारन, चम्पारन, रांची, जमशेदपुर रियासत, पलामू का कुछ हिस्सा और मुजफ्फरपुर जिले के उत्तरी पश्चिमी भाग में प्रचलित है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों- बनारस, गाजीपुर, बलिया, जौनपुर और मिर्जापुर जिलों के आधे से अधिक भागों में तथा आजमगढ़ और बस्ती जिलों में फैली हुई है।" भोजपुरी के भारतीय भूगोल के अलावा ‘दुनिया के 15 से ज्यादा देशों में बोली जाती है जिसमें मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी, गुयाना, त्रिनिनाद एंड टोबैको, हॉलैंड, नेपाल और दक्षिण अमेरिका के कई द्वीप शामिल हैं।...वहीं दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, सूरत और अहमदाबाद जैसे शहरों में काम की तलाश में गए प्रवासी लोग भोजपुरी भाषा बोलते हैं।’ भोजपुरी की फिल्में केवल भोजपुरी प्रदेश में ही रिलीज नहीं होती वे एक साथ देश के तमाम महानगरों और उपर्युक्त भोजपुरी बोलने वाले देशों में देखी जाती है। भोजपुरी का यह व्यापक रूप भोजपुरी सिनेमा को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय फलक प्रदान करता है। भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की बढती लोकप्रियता के कारण बॉलीबुड के कई प्रमुख अभिनेताओं ने भी भोजपुरी फिल्मों में अभिनय किया है। अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती, अजय देवगन, शक्ति कपूर, जैकी श्राप आदि प्रसिद्ध कलाकारों ने भोजपुरी फिल्मों में अपने अभिनय का जादू बिखेर चुके हैं। बॉलीवुड के मशहूर गीतकार डॉ सागर ने कोविड महामारी के दौरान ‘बंबई में का बा’ लिखा तो इसे देश-दुनिया में सराहा गया. अनुभव सिंहा के निर्देशन में मनोज वाजपेयी ने इस गाने पर रैप किया है. इस गीत से भोजपुरी भाषा की क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
भोजपुरी सिनेमा अपने नवजागरण के दौर से गुजर रहा है। जिस प्रकार हिंदी नवजागरण में भारतेंदु मंडल के लेखकों ने बहुआयामी प्रतिभा के द्वारा समाज को नई दिशा दी उसी प्रकार भोजपुरी सिनेमा के नायक कलाकारों ने भोजपुरी सिनेमा के लिए बहुआयामी उद्यम किया है। भोजपुरी सिनेमा के नायक मूलत गायक और लोक कलाकार हैं। फिल्मों के साथ-साथ ये अपने भोजपुरी 'एलबम' के लिए भी काफी मशहूर हैं। भोजपुरी के सुपरस्टार- दिनेश लाल यादव 'निरहुआ', मनोज तिवारी, खेसारी लाल यादव, पवन सिंह आदि ने अपने करियर की शुरुआत लोक गायक के रूप में की। अभिनय के लिए उनकी ट्रेनिंग किसी इंस्टिट्यूट में न होकर सीधे कैमरे के सेट पर हुई है। इनमें से कई लोगों ने प्रोडक्शन हाउस भी बनाया। इन नायकों के बहु आयामी व्यक्तित्व के कारण ही भोजपुरी सिनेमा आज इस मुकाम तक पहुंच पाया है। भोजपुरी सिनेमा के कारण ही सामान्य पृष्ठभूमि के लोक कलाकारों के बहुत बडे समूह को पर्दे पर आने का अवसर प्राप्त हुआ है। राहुल सांकृत्यायन ने अपने ‘नईकी दुनिया’ नाटक में अपनी भाषा भोजपुरी में अखबार छपने का सपना देखा था। इस नाटक की पात्र जगरानी का ‘सारण समाचार’ में कथा के साथ फोटो प्रकाशित होता है। कुछ इसी प्रकार भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री के बिना सैकडों कलाकारों की अभिनय प्रतिभा दफन हो जाती। भोजपुरी सिनेमा में इन सैकडों गुमनाम कलाकारों को मंच प्रदान कर अभूतपूर्व कार्य किया है।
बॉलीवुड से अलग स्वतंत्र अस्तित्व में भोजपुरी सिनेमा का यह पहला चरण है। भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री को अभी कई महत्वपूर्ण चरणों से गुजरना है। भोजपुरी सिनेमा में उच्च स्तर की कलात्मकता और गंभीर तथ्यों की अनुपस्थिति एक प्रमुख चुनौती है। भोजपुरी में फिल्मोपयोगी अच्छी कहानी और पटकथा लेखकों की जरूरत है। भोजपुरी सिनेमा अभी अभिनेता केंद्रित है। वह अपने अभिनेताओं के नाम से ही पहचाने जा रही है। बांग्ला और बॉलीवुड में स्टार अभिनेताओं के बावजूद सिनेमा अपने निर्माता-निर्देशकों के नाम से जानी जाती है। महबूब खान, गुरु दत्त, श्याम बेनेगल, सत्यजित रे, विमल राय, नितिन बोस, ऋत्विक घटक आदि निर्देशकों के नाम सैकडों फिल्में स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं। भोजपुरी सिनेमा के लिए वह समय काफी महत्वपूर्ण होगा जब वह अपने निर्देशकों के नाम से पहचानी जाएगी। चलचित्र की सभी दृष्टियों से प्रशिक्षित, जिम्मेदार और रचनात्मक निर्देशकों का अभाव भोजपुरी सिनेमा में अभी बना हुआ है
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