- सुमित पी.वी.
शोध सार : सिनेमा नजर से नजर का खेल है। तथ्यों के अनुसार मलयालम सिनेमा का इतिहास 1930 से शुरू होता है। सर्व प्रथम रिलीज़ मलयालम फिल्म की ख्याति 1930 की फिल्म विगतकुमारन को प्राप्त है तो पहली बोलती फिल्म 1938 की फिल्म बालन है। जिसका निर्देशन एस. नेट्टानी ने किया था। तब से लेकर 2024 तक की लगभग 66 साल की जो लंबी यात्रा सिनेमा ने तय की है, बिलकुल प्रभावकारी रही। उस यात्रा के वर्तमान संदर्भ को देखने-परखने का प्रयास यहां किया जा रहा है। अन्य भाषाओं के जैसे वर्तमान मलयालम फिल्म क्षेत्र उसकी विविधता और पीढ़ीगत अनोखापन से काफी चर्चित हुआ है।
बीज शब्द : मलयालम सिनेमा, कहानी, निर्देशक, कलाकार, नव सिनेमा, वर्तमान सिनेमा, परिवर्तन की झलक, कैमरा, कलात्मक मलयालम सिनेमा, भविष्य की फिल्में
मूल आलेख : “कहा जाता है कि एक विधा के रूप में सिनेमा, नाटक की कोख से ही जन्मा। लेकिन हर नाटक अपनी अगली ही प्रस्तुति में नया हो जाता है और फिल्म में ऐसा नहीं होता। नाटक में निर्देशक और अभिनेता की सशरीर जीवित उपस्थिति ही उसे पुनर्नवा बनाये रखती है। फिल्म में निर्देशक और अभिनेता के साथ एक कैमरा भी होता है यह कैमरा ही है जो एक निश्चित दृश्य बंध की सृष्टि के बाद चुपचाप विदा होता है और जाते-जाते अपने दर्शक के लिए एक निश्चित (दृष्टि) कोण अंतिम रूप से निर्धारित कर चुका होता है। नाटक में नश्वर जीवन होता है और फिल्म में कैमरे की मदद से निर्देशक द्वारा गढ़ी गयी अनश्वर जीवन छवि। यह अनायास नहीं है कि अपनी ही छवि में कैद कई कलाकार बार-बार जीवन में लौटने के लिए छटपटाते हैं।”1 नई पीढ़ी की कुछ फिल्में और उन फिल्मों को बनाने वाले लोग यह घोषणा कर रहे हैं कि मलयालम सिनेमा फिर कभी पहले जैसा नहीं रहेगा। उस बदलाव के सबसे शक्तिशाली कारण के रूप में हमें फिल्म तोंडिमुतलुम दृक्साक्षियुम (2017) की सफलता को देखना होगा। कहानी को प्रस्तुत करने की पुरानी रीति और पुरानी प्रथाएं अप्रचलित होती जा रही हैं। नए जमाने के सिनेमा में युवा शर्मनाक प्रवृत्तियों से मुंह मोड़ ले रहे हैं। नयी पीढ़ी के लोग फिल्मों में 'राजनीति' नहीं कह रहे हैं; लेकिन उनका बोलना अक्सर राजनीतिक हो जाता है। मलयालम में सिनेमा का एक नया युग शुरू हो गया है। नए युग की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के आधार पर मलयालम सिनेमा में पीढ़ीगत परिवर्तन का दस्तावेजीकरण भी हो रहा है।
दिलीश पोत्तन की तोंडिमुतलुम दृक्साक्षियुम नामक फिल्म का एक महत्वपूर्ण और नाटकीय दृश्य। श्रीजा का हार चुराने वाले चोर और श्रीजा के पति के बीच नहर के पानी में भयंकर झगड़े के बाद दोनों थक कर लेट जाते हैं, ऊपर की शॉट से कुछ ऐसा लगता है मानो दोनों एक-दूसरे को गले लगा रहे हों। चोर के चेहरे पर एक प्यार भरी मुस्कान, इसलिए कि जिसने उसे भगा कर पकड़ा, जान बूझकर उसको मार गिरा कर बच निकलने का मौका ही खत्म कर दिया था।
क्रूर शक्ति, गरीबी, असमानता, हिंसा और अस्तित्व को बचाने के लिए कमजोर व्यक्ति की भागदौड़ आदि सब कुछ आज के जीवन में सर्वत्र देखने को मिलते हैं। तब मुजरिम और उसका शिकार दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। वह चोर जो एक समय का खाना खाने के लिए दूसरे की शादी का हार चुराता है और वह आदमी जिसका केवल वह हार ही संपत्ति स्वरूप होता है, दोनों समान रूप से शिकार और पीड़ित हैं। देखिए, इन दोनों के नाम भी इत्तेफाक से समान है – प्रसाद।
इस सिस्टेम का एक और शिकार है। सत्ता के पदानुक्रम के सबसे निचले स्तर पर, सामान्य पुलिसकर्मी, जो कानून लागू करने के लिए जिम्मेदार होता है। पुलिस बल की बहुस्तरीय व्यवस्था में प्रत्येक पुलिसकर्मी की जिम्मेदारी अपने उच्च अधिकारी की आज्ञा का पालन करना और उसकी खुशामद करना होता है। उधर न्याय, नीति, सत्य और इन्सानियत की कोई अहमियत नहीं होती है। झूठ बोलकर, कहलवाकर, मार-पीट कर उस जिम्मेदारी को किसी तरह निभाने वाला पुलिसकर्मी के लिए खुद का ठिकाना ही सबसे महत्वपूर्ण होता है। कॉन्स्टबिल का सब-इंस्पेक्टर से, सब-इंस्पेक्टर का सर्किल इंस्पेक्टर से, सर्किल इंस्पेक्टर का उससे उच्च पद के अधिकारियों के प्रति ही जिम्मेदारी निभानी होती है। कितना भी अच्छे व्यवहार के होने पर भी निलंबन, गिना-चुना वेतन तथा उसी के भरोसे रहने वाला परिवार इत्यादि ही किसी कार्य को पूरा करते समय पुलिसकर्मी के दिमाग में होगा। नतीजा होगा, कपट अनुशासन और अधिकार का प्रयोग करने वाली सामाजिक व्यवस्था में मुजरिम, शिकायत करने वाला तथा पुलिसकर्मी सारे के सारे ‘शिकार’ हो जाते हैं। “इस इक्कीसवीं सदी में भारत में एक नया सिनेमा उभरा है जिसकी ठीक से पड़ताल होनी बाकी है। इस सिनेमा की नायिकाएं पेड़ों के चक्कर नहीं लगातीं, नायक महामानवों की तरह गुंड़ों की पिटाई नहीं करते, खलनायक नायिका को उठा ले जाने की साजिश नहीं करते – ये जीवन के कहीं ज्यादा करीब की फिल्में हैं जो सच और कल्पना के ऐसे तालमेल से बनी हैं जिस पर यकीन करने की इच्छा होती है। यह नया सिनेमा किसी शून्य से नहीं, बदलते हुए दौर की रील के बीच बना है। वह हंसाता भी है, रुलाता भी है, सोचने को मजबूर भी करता है। तकनीकी तौर पर भी यह बहुत समृद्ध सिनेमा है – एक स्मार्ट सिनेमा जिसमें ब्योरों के प्रति एक नयी संवेदनशीलता है।”2 यह उक्ति केवल मलयालम सिनेमा के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारतीय सिनेमा के लिए सही प्रतीत हो रही है।
प्रस्तुत फिल्म में इन तीनों पात्रों के एक साथ रहने वाली जगह यानी पुलिस स्टेशन ‘अधिकार’ नामक अनीति का प्रतीक बन जाता है। कोई सुस्पष्ट राजनीतिक प्रस्ताव, सूचना, नारा, सैद्धांतिक चर्चा, गलत बिंब आदि के बगैर कैसे हम मजबूत राजनीतिक सोच को अभिव्यक्त कर पाएंगे? लोकप्रिय मसालों के साथ, पर फोर्मुला एवं स्टीरियोटाइप फिल्मों को बिलकुल नजरअंदाज कर कैसे आम लोगों से बातचीत संभव है? बाहरी तौर पर सरलता, अन्य फिल्मों से बिलकुल अलग, प्रस्तुति की नयी शैली, हंसी-मजाक की रहस्यात्मकता, बेहतरीन अदाकारी आदि के द्वारा सत्ता, सामान्य सोच-विचार इत्यादि का खुलासा करने लायक राजनीति को फिल्म में प्रस्तुत कर पाएंगे? उपर्युक्त सारे सवालों के जवाब मलयालम सिनेमा क्षेत्र में वर्तमान फिल्मों के माध्यम से प्राप्त हो रहे हैं। “समाज और बाजार एक दूसरे से जुड़े हैं। बाजार समाज का ही एक अंग है। बाजार भी हमें चाहिए। आज का आधुनिक समाज ऐसा है, जिसके बाजार में सब कुछ बिक रहा है। अभी समाज में बाजार के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। आधुनिक समाज में मैटेरियलिज्म बढ़ रहा है। लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें। यह अच्छा है या बुरा, हमें तय करना है। हमारे पास ऐसी कसौटी होनी चाहिए, जिसके आधार पर हम मैटेरियलिज्म का मूल्यांकन कर सकें और उसी के आधार पर उसका विरोध भी।...हिन्दुस्तान में अभी जितनी भी फिल्में बन रही हैं, उनका पंचानवें प्रतिशत समाज के लिए कुछ नहीं कर रही हैं।”3
इस सदी के दूसरे दशक से लेकर मलयालम सिनेमा क्षेत्र में रूप एवं शिल्प संबंधी नवीनता भी हम देखने लगे हैं। नयी पीढ़ी के कलाकारों की फिल्म तोंडिमुतलुम दृक्साक्षियुम इस श्रेणी में सबसे अधिक विजय प्राप्त करने वाली रही है। उससे पहले की फिल्में जैसी 22 फीमेल कोट्टयम, साल्ट एंड पेप्पर, इयोबिन्टे पुस्तकम, अन्नयुम रसूलुम, किस्मत आदि के साथ इस फिल्म को भी दर्शकों की सराहना भरपूर मिली थी। दरअसल, “सिनेमा को कभी साहित्य के मापदंडों पर परखा गया, कभी इसे नैतिक मानदंडों के आधार पर नापा गया। लेकिन इसे एक स्वतंत्र कलात्मक अभिव्यक्ति समझते हुए इस पर समझदार विमर्श की आवश्यकता हिंदी में तो नहीं ही समझी गयी। सिनेमा वह रचनात्मक विधा है जिसके सृजन में जीवन के लगभग हर कार्य-व्यापार से संबंधित व्यक्ति जुड़ा होता है। भिन्न-भिन्न तरह के लोग। छोटे से बड़े तक, खरे से खोटे तक। यह किसी लेखक के वैयक्तिक सृजन से नितांत अलग तरह की निर्मिति है। वह निर्देशक के भीतर कितनी भी एकाग्रता में समेकित क्यों न हो, उसे प्रत्यक्ष रूपाकार अपने अनंत सहयोगियों के साथ मिलकर ही प्राप्त करना होता है। यह निस्संकोच स्वीकार करना चाहिए कि सिनेमा सबसे पहले उस आखिरी आदमी का माध्यम है जो पढ़ने-लिखने की हदों से दूर है।”4 वर्तमान मलयालम फिल्में इस बात की पुष्टि भरपूर कर रही हैं। सामान्य से सामान्य जनता की आवाज को बुलंद करना भी आज की फिल्में अपना कर्तव्य मान रही हैं। लेकिन उस दौरान चटुलता, तकनीक, शैली, अदाकारी आदि की अलग रीति-नीति भी हमें देखने को मिल रही है।
इस नई पीढ़ी की सबसे बड़ी खासियत है कि केरल के आम लोगों के समाज द्वारा नकार दी जाने वाली मुख्यधारा राजनीति को इन्होंने अपनी फिल्मों में जगह दी है। धर्म, जाति, लिंग, सत्ता, परिस्थिति और खाना इन बिन्दुओं से संबंधित राजनीति को वर्तमान मलयालम फिल्में अपना विषय बना रही हैं। परिवार, पतिव्रत, सदाचार, प्रेम, स्त्रीत्व, पुरषत्व, पुरुष सत्ता, लैंगिकता, विकास, आधुनिकीकरण आदि से संबंधित सामान्य-सी लगने वाली बातों को ये फिल्में चर्चा के लिए निकालती हैं। इसलिए पहले की राजनीतिक-सामाजिक फिल्मों से ये फिल्में बिलकुल अलग प्रतीत होती हैं। केरल में जो सांस्कृतिक, राजनीतिक, मूल्यपरक नए दृष्टिकोण का विकास हो रहा है उसकी सूचना देने वाली वर्तमान फिल्में नवीनता एवं नई राजनीति को अभिव्यक्त करने में भी सक्षम साबित हो रही हैं।
उदारीकरण की शुरूआत, विदेशों में रहने वाले केरल के लोगों की कमाई की मदद से अमीर होने वाले लोगों का उपभोग और शहरीकरण में भारत में प्रथम स्थान पर रहना, मध्य वर्ग के लोगों द्वारा सत्ता हासिल करने पर वह पुराने केरल का अप्रत्यक्ष हो जाना - इन तमाम बिंदुओं को वर्तमान मलयालम फिल्में अपना विषय बना रही हैं। उसी समय हिंदुत्व, आतंकवाद, अल्पसंख्यक मौलिकवाद, धर्मपरकता, कॉर्पेरेट पूंजीवाद, स्त्री विरुद्ध अभियानें, उपभोक्तावाद आदि के मजबूत होने की स्थिति तथा धर्म निरपेक्षता, सहिष्णुता, आदि नवीन मूल्यों के खत्म हो जाने के इस संदर्भ में इन सारी बातों पर सवाल खड़े करने की हिम्मत भी वर्तमान मलयालम फिल्में रखती हैं। समाज के विभिन्न कोनों से सवाल खड़े करने का साहस आज की फिल्मों में निरंतर दिखाया जा रहा है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं निर्देशक दिलीश पोत्तन की फिल्में। जिन्होंने केवल 3 फिल्मों का ही निर्देशन किया है, लेकिन उनके नाम को सूपर अभिनेताओं जैसी स्वीकृति दर्शकों के बीच मिल रही है।
आशिक अबु की सॉल्ट एंड पेपर (2011), 22 फीमेल कोट्टयम (2011) रानी पद्मिनी(2013), अरुण कुमार अरविंद की ई अडुत्ता कालत्तु (2012), राजीव रवि की अन्नयुम रसूलुम (2013), ञान स्टीव लोपस (2014), कम्मट्टिपाडम (2016), अमल नीरद की इयोबिन्टे पुस्तकम (2014), सनल शशिधरन की ओराल पोक्कम (2014), ओषिवु दिवसत्ते कली (2015), दिलीश पोत्तन की महेशिन्टे प्रतिकारम (2016), शानवास बावक्कुट्टि की किस्मत (2016) आदि कई फिल्में कहीं न कहीं उपर्युक्त सोच को उजागर करने वाली होती हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि भलाई और बुराई, ठीक और गलत, परंपरा और आधुनिकता इत्यादि मिलकर आगे बढ़ने पर उत्तराधुनिकता की एक नवीन शैली जो विकसित हो रही है, वही वर्तमान मलयालम फिल्म निर्देशकों की अपनी शैली बन पड़ी है।
समकालीन मलयालम फिल्मकारों की दैनिक जीवन पर विचार करते हुए अभिनेता विनय फोर्ट ने हाल ही में कहा था – “निर्देशक, पटकथाकार या शूटिंग के दौरान चाय देने वाला लड़का - सबका आज फिल्म क्षेत्र में समतुल्य स्थान है। लगता है, सबको एक जैसा देख-मानने वाले कई युवकों का एकजुट होने पर मलयालम फिल्म क्षेत्र में एक नया दृष्टिकोण उभर कर आया...।”5
हाल ही के वर्षों में जब मलयालम फिल्म क्षेत्र की अभिनेत्री पर जो लैंगिक अत्याचार हुआ था उस समय भी इस नई पीढ़ी की प्रतिक्रिया बिलकुल स्पष्ट और मजबूत थी। जिससे मलयालम सिनेमा क्षेत्र के समग्र सांस्कृतिक परिणाम की सूचना हमें प्राप्त होती है। असल में इस नयी पीढ़ी की फिल्मों की राजनीति का अब भी कोई स्पष्ट चित्र हमारे सामने उपस्थित नहीं हुआ है। परंपरागत फिल्मों के रास्ते से अलग हटकर अपना अलग रास्ता तय करने के कारण ऐसा हुआ होगा। मलयालम में पद्मराजन और भरतन जैसे निर्देशकों द्वारा अगुवाई करने वाला जो मध्यवर्ती सिनेमा था, वह वर्तमान के नव सिनेमा की कई बिन्दुओं को अपने में समेटता था। इस संदर्भ में राजेंद्र शर्मा का कथन संगत लगता है कि “यह एक सच्चाई है कि इन छवियों ने हमारे समाज को गहरे अर्थों में प्रभावित किया है। हमारा रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल, रीति-रिवाज और यहां तक कि विश्वासों को भी बदल डालने में फिल्मों का बड़ा हाथ रहा है। पिछली शताब्दियों की तुलना में बीसवीं शताब्दी में हुए सामाजिक परिवर्तनों की अप्रत्याशित तेज गति की कल्पना भी छाया-माया के इस खेल के बिना असंभव है। लेकिन इस बात को भी कैसे नकारा जा सकता है कि लुमिएर बंधुओं की यह जादुई लालटेन, प्रगतिशील कला और परिवर्तनकामी कलाकारों के अभाव में न जाने कब टिमटिमा कर बुझ चुकी होती।”6
औद्योगिक और कलात्मक मलयालम सिनेमा को तोड़ने वाली विलासिता और अपव्यय को आज पूरी तरह नकारा गया है। कहानियाँ, पात्र और कथाकार प्रमुख हो गए और कहानी के पारंपरिक सूत्र खारिज कर दिए गए। वास्तविकता से कोई संबंध न रखने वाली फंतासी की दुनिया के बजाय, जीवन का अंधेरा, बदसूरत, हिंसक माहौल को वर्तमान समय के स्क्रीन पर दिखाये जाने लगे। पिछले कुछ दशकों में, मलयालम सिनेमा पर अधिकार जमाने वाले सुशील, सुंदर, अमीर, सदाचारी, प्रतिभाशाली एवं रूढ़िवादी नायक, उनके अधीन रहने वाली एवं सब कुछ सहकर रोने-चिल्लाने वाली नायिकाएं मर गईं। इसके बजाय, हारने के लिए तैयार, कम आत्मविश्वास वाले नायक - नायिकाएं जो गुण, रूप, आर्थिक ताकत, मानसिक ताकत और एथलेटिक ताकत में पिछड़े होते हैं, आज फिल्म-मैदान में एंट्री कर रहे हैं। फिल्म से जुड़े तकनीकी क्षेत्र में भी स्थिति कुछ इतर नहीं है। “यह जानकारी बहुत नई या बहुत पते की नहीं है कि कला की उपलब्धियां और नुस्खे बाद में व्यावसायिक स्तर पर ‘एक्सप्लॉयट’ किए जा सकते हैं। इसी तरह से महान फिल्मकारों ने जिन तकनीकी-गैरतकनीकी चीजों का प्रभावशाली इस्तेमाल अपनी फिल्मों में किया है उन चीजों का इस्तेमाल कोई भी औसत या घटिया फिल्मकार बड़े मजे में कर सकता है (दूसरे किसी माध्यम में शायद इतने सतही इस्तेमाल की गुंजाइश भी नहीं है)।”7
शूरू से लेकर अंत तक की पुरानी कथन शैली भी अब ख़त्म हो गयी है। “पिछले एक दशक में अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा में यह बात एक अजीब ढंग से सामने आई है कि तथाकथित व्यावसायिक सिनेमा का मुकाबला करते हुए शुद्ध कलावादी या सैद्धांतिक बहसों में जूझ रही कोई भी ‘वादी’ फिल्में बनाकर डिब्बों में बंद कर दी जाती हैं और यह बात देखी गई है कि फिल्मकार फिल्म की दुनिया की बहसों के घोर सैद्धांतिक व्याकरण में डूबे रहते हैं। और फिर व्यावसायिक फिल्मकार इन फिल्मकारों को अपने लिए कोई सचमुच का खतरा न पाकर बड़ी आसानी से ऐसा कोई प्रस्ताव सामने रख देते हैं कि तुम प्रयोगशाला में काम कर रहे हो और हम उस फार्मूले को जनता तक पहुंचा रहे हैं।”8 एक ही समय में, कई युगों, भूमियों के माध्यम से यात्रा करने वाली एक अलग शैली की आख्यान पद्धति आज प्रचलित है। छायांकन, छवि सम्मिलन, सिंक साउंड और सभी विभागों में विश्व स्तर पर उपलब्ध नई टेक्नोलॉजी का प्रयोग आज मलयालम फिल्म क्षेत्र में हो रहा है। अभिनय के क्षेत्र में चौंका देने वाली उभरती प्रतिभा को सिर्फ नायक-नायिका ही नहीं बल्कि छोटी भूमिकाओं में आने वाले लोग भी दिखा रहे हैं। इन अदाकारों ने जो शिल्प परक अभिनय को हमारे सामने प्रस्तुत किया उसे आज मुख्यधारा सिनेमा द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है। “सिनेमा की कला में एक तरह की व्यापकता है, जो उसे करोड़ों इन्सानों के पास ले जाती है, और वह भी बहुत आसानी से...सिनेमा के इस व्यापक प्रभाव को हर कोई महसूस करता है। जाहिर है कि अगर ऐसी शक्तिशाली कला को केवल व्यापक ढंग से इस्तेमाल किया जाय और समाज का उस पर अंकुश न हो, तो बड़े खतरनाक नतीजे निकल सकते हैं।”9 कहना यह होगा कि सिनेमा केवल समाज को प्रभावित ही नहीं करता, बल्कि उससे प्रभावित भी होता है। वर्तमान मलयालम फिल्में कुछ ऐसी ही हमारे सामने उपस्थित होती जा रही हैं।
निष्कर्ष : कुल मिलाकर मलयालम के नव सिनेमा का जो क्षेत्र है वह हमें बिलकुल सोचने-विचारने को मजबूर करता है। बिहारी के दोहे की पंक्ति कुछ ऐसी है - देखन में छोटन लगै, घाव करै गंभीर – यानी मलयालम की फिल्में जो देखने में छोटी लगती हैं, परन्तु उनका प्रहार गंभीर होता है। ऐसा भी नहीं है कि मलयालम के नव सिनेमा सभी मायनों में संपूर्ण है। उसमें अभी भी बेहतर करने की गुंजाइश विद्यमान है। हम इंतजार कर सकते हैं कि आने वाले भविष्य में मलयालम सिनेमा क्षेत्र में दिमाग को झकझोरने वाली फिल्में बनती जाएंगी और दुनिया सचमुच चिल्लाकर कहेगी – ये दिल मांगे मोर!
चित्र आभार: गूगल
- प्रह्लाद अग्रवाल, प्रगतिशील वसुधा, राजेंद्र शर्मा, एम-24, निराला नगर, भदभदा रोड, भोपाल – 462003, 2009, पृ. सं. 22
- प्रियदर्शन, नये दौर का नया सिनेमा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, कवर पृष्ठ
- संपा-मृत्युंजय, हिन्दी सिनेमा का सच, समकालीन सृजन, कलकत्ता, 1997, कवर पृष्ठ
- प्रह्लाद अग्रवाल, प्रगतिशील वसुधा, राजेंद्र शर्मा, एम-24, निराला नगर, भदभदा रोड, भोपाल – 462003, 2009, पृ. सं. 22
- कमलराम सजीव, मातृभूमि साप्ताहिक मलयालम पत्रिका, एम.एन रविवर्मा, एन.एम प्रेस, कोषिक्कोड – 1, 2017, पृ. सं. 16
- प्रह्लाद अग्रवाल, प्रगतिशील वसुधा, राजेंद्र शर्मा, एम-24, निराला नगर, भदभदा रोड, भोपाल – 462003, 2009, पृ. सं. 3
- विनोद भारद्वाज, सिनेमा, कल, आज, कल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृ. 19
- विनोद भारद्वाज, सिनेमा, कल, आज, कल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृ. 31
- संपा. मृत्युंजय, हिन्दी सिनेमा का सच, समकालीन सृजन, कलकत्ता, 1997, पृ.32
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