शोध सार : शिक्षा और विज्ञान के पुनर्जागरण से नए युग का प्रारम्भ हुआ। नई-नई खोजों के कारण उद्योगों का विकास हुआ, जिससे विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने विज्ञान युग की शुरुआत की। इसी के फलस्वरूप सन 1895 में फ्रान्स में सिनेमा का जन्म हुआ। सिनेमा भारत में सन 1896 में पहुंचा। दादासाहब फालके का ‘राजा हरिश्चंद्र’(1913) मराठी भाषा में निर्मित पहला ‘मूकपट’ है। सन 1932 में निर्मित ‘संत तुकाराम’ सिनेमा पहला मराठी ‘बोलपट’ है। मराठी ‘बोलपट’ के पहले दशक में जिन निर्देशकों ने छाप छोड़ी; वे थे व्ही. शांताराम, मास्टर विनायक और भालजी पेंढारकर। मराठी चित्रपट 1947 से 1960 तक के तेरह वर्षों में हिंदी से स्पर्धा करते-करते अक्षरशः वनवास में चला गया। प्रतिकूल परिस्थिति से झगड़ते हुए राजा परांजपे, अनंत माने व दत्ता धर्माधिकारी जैसे निर्देशकों ने चित्रपटों का निर्माण कर मराठी फिल्मों की परम्परा अक्षुण्ण रखी। मराठी फिल्म के उत्कर्ष में सचिन पिलगांवकर और महेश कोठारे ने अभिनय के साथ साथ निर्देशन द्वारा काफी योगदान दिया। महाराष्ट्र सरकार की कुछ योजनाओं ने मराठी फिल्मों को आधार दिया। वर्तमान की मराठी फिल्म नयी-नयी ऊंचाई के साथ प्रगति के पथ पर अग्रसर है।
बीज शब्द : अंधकार युग का अंत, विज्ञानयुग, मूकपट, बोलपट, हिंदी सिनेमा, पौराणिक फिल्में, विनोदी फिल्मों का दौर, भूमंडलीकरण और फिल्में, नयी दौर की मराठी फिल्में, महाराष्ट्र सरकार की योजनाएं, वर्तमान मराठी सिनेमा आदि I
मूल आलेख : उन्नीसवीं सदी मानव सभ्यता के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस शताब्दी में मध्ययुग का अंत हुआ और यंत्रयुग का आरंभ हुआ। मन्वंतर की यह सुबह केवल युरोप में ही हुयी थी। इसका मुख्य कारण यह था कि विज्ञान प्रसार को वहां के लोगों ने तुरंत स्वीकार लिया था। यूरोप में मध्ययुगीन समय का मतलब रोमन साम्राज्य व्यवस्था, सन 476 से लेकर 1453 तक के हजार वर्षों का वह काल था। इस काल को'डार्क एज' यानी 'अंधकार युग' कहते है। तत्पश्चात आधुनिक युग का आगमन हुआ। इस समय के दौरान यूरोप में शिक्षा और विज्ञान का पुनर्जागरण हुआ। नई-नई खोजों के कारण उद्योगों का विकास हुआ, जिससे विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने विज्ञान युग की शुरुआत की। इसी काल के दौरान महान वैज्ञानिकों और शोध संस्थानों की स्थापना हुई। इनमें प्रमुख वैज्ञानिक संस्थान इंग्लैंड के रॉयल सोसाइटी (1660), फ्रांस की एकेडमी ऑफ साइंस (1666), जर्मनी की रॉयलएकेडमी बर्लिन (1700), और रशिया की सेंट (1846) का विशेष रूप से उल्लेख किया जाता है। ये संस्थान नवोन्वेषों और वैज्ञानिक प्रगति के प्रमुख स्रोत बन गए। यूरोपीय विज्ञान युग ने विश्व विज्ञान की दिशा को बदल दिया। यूरोप में पुनर्जागरण के कारण वैज्ञानिक दृष्टीकोण वाले समाज का निर्माण हुआ। इसी के फलस्वरूप सन 1895 में फ्रान्स में सिनेमा का जन्म हुआ। सिनेमा भारत में सन 1896 में पहुंचा। उस समय के भारतीय समाज के सन्दर्भ में सुधीर नांदगावकर कहते हैं, “त्यावेळी भारतीय समाजाची मानसिकता ईश्वरकेंद्री मध्ययुगीन जीवनमूल्यांवर आधारित होती. वैज्ञानिक दृष्टीचा पूर्णतः अभाव होता. स्वाभाविकच, हे नवे माध्यम म्हणजे एक ‘चमत्कार’ म्हणून एकोणिसाव्या शतकात स्वीकारले गेले.”[1]सुधीर जी के अनुसार ईश्वर केन्द्री भारतीय समाज ने एक ‘चमत्कार’ के रूप में सिनेमा का स्वीकार किया था।
भारतीय सिनेमा का श्रीगणेश जिस मराठी व्यक्ति ने किया उसका नाम है धुंडिराज गोविंद यानी दादासाहब फालके था। दादासाहब फालके की ‘राजा हरिश्चन्द्र’ (1913) मराठी भाषा में निर्मित पहली मूक फिल्म थी। यह भारतीय सिनेमा की प्रथम पूर्ण लम्बाई की नाटयरूपक फिल्म थी। फिल्म भारतीय पौराणिक कथा राजा हरिश्चन्द्र की कहानी पर आधारित है। यद्यपि फिल्म मूक है, लेकिन इसमें दृश्यों के भीतर अंग्रेज़ी और हिन्दी में कथन लिखकर समझाया गया है। फिल्म की शुरुआत राजा रवि वर्मा द्वारा की गई राजा हरिश्चन्द्र, उनकी पत्नी और पुत्र की चित्रों द्वारा बनाये गये चित्रों की प्रतिलिपियों की झांकी से आरम्भ होती है। फिल्म में राजा हरिश्चन्द्र की भूमिका में दत्तात्रय दामोदर दबके हैं। फिल्म में मुख्य अभिनेत्री का अभिनय अन्ना सालुंके नामक अभिनेता ने किया था। 1913 से 1932 तक पौराणिक के साथ साथ ऐतिहासिक, सामाजिक वास्तववादी विषय भी मूक फिल्मों के रहे हैं। बाबूराव पेंटर ने जान-बूझकर सामाजिक प्रश्नों को अपनी फिल्मों द्वारा उठाया। इसाक मुजावर लिखते है, “Baburao Krishnarao Mestri, although he was popularly known as Baburao Painter. Baburao accomplished the gigantic task of developing the Cinematic art introduced in India by Dadasaheb Phalke. People affectionately and respectfully referred to Baburao as the ‘Kala Maharshi’ (the artist-sage). Those who have seen his Flims will fully agree that he fully deserved the title.”[2]दादा साहब फालके द्वारा भारत में शुरू की गई सिनेमाई कला को विकसित करने का विशाल कार्य बाबूराव ने पूरा किया। दादासाहब फालके युग की फिल्मों का ओंकारनाथ माहेश्वरी सटीक विश्लेषण करते हुए लिखते है, “सन 1912 से 1917 के मध्य बननेवाली दादा फालके के युग की फिल्मों का कथानक पौराणिक था। सन 1917 से 1924-25 तक बननेवाली अधिकांश फिल्मों का कथानक भी इसी कोटी का था। इसके अतिरिक्त नाटक-मण्डलियों के घिसे-पिटे पर लोकप्रिय कथानकों को फिल्मों के लिए उस समय निर्माता लोग प्रायः चुन लिया करते थे। वस्तुतः ऐसा करने में उन्हें यह विश्वास था कि,व्यापारिक दृष्टि से उन्हें कोई घाटा न होगा।”[3]
महाराष्ट्र में मराठी के साथ साथ हिंदी सिनेमा की तो प्रचुर मात्रा में निर्मिती होती आ रही है और वर्तमान में तो यह संख्या और ज्यादा बढ़ी है। महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई हिन्दी सिनेमा का केन्द्र है; यह कहना बिलकुल गलत नहीं होगा। खास बात यह है कि किसी भी हिन्दी भाषी राज्य में इतनी तादाद में हिन्दी सिनेमा का निर्माण नहीं होता है। हिन्दी में सन 1931 को सिनेमा बोलने लगा। मराठी सिनेमा में ‘सवाक चलचित्र’ युग का आरम्भ प्रभात कम्पनी के ‘अयोध्येचा राजा’ सिनेमा से हुआ या मास्टर और कम्पनी के ‘संत तुकाराम’ से हुआ इसमें मतभेद जरूर था किन्तु शशिकांत किणीकर ने पक्के प्रमाण देकर सन 1932 में निर्मित ‘संत तुकाराम’ सिनेमा को पहली मराठी बोलती फिल्म साबित किया है। [4]प्रभात की फिल्म ‘संत तुकाराम’1937 में वेनिस फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार जीतने वाला पहली भारतीय फ़िल्म थी। मूक फिल्म को ध्वनि का साहचर्य मिलते ही बोलती फिल्म का महत्त्व एकाएक बढ़ा। बोलपट के पहले दशक में ध्वनि के बाद कॅमेरा, पार्श्वगायन, संकलन आदि के टेक्निक में प्रगति होती गयी। आवाज मिलते ही फिल्म परिपूर्ण माध्यम बनने के लिये समर्थ हुयी। मराठी ‘बोलपट’ के पहले दशक में जिन निर्देशकों ने छाप छोड़ी; वे थे व्ही. शांताराम, मास्टर विनायक और भालजी पेंढारकर। मूकपट के जमाने में व्ही.शांताराम ने बाबूराव पेंटर के महाराष्ट्र फिल्म कम्पनी में रहकर फिल्म का टेक्निक परिश्रमपूर्वक सीखा था। इस तकनीकी शिक्षा का विकास व्ही.शांताराम ने बखूबी किया। भालजी पेंढारकर मूलतः लेखक थे। उन्होनें मूकपट के जमाने से ही पटकथा लेखन में हाथ आजमाया था। मास्टर विनायक साहित्य के दक्ष पाठक थे। विनायक ने ‘अयोध्येचा राजा’ फिल्म में नारद की भूमिका निभायी थी। उन्होनें कोल्हापुर में रहते प्रभात कम्पनी में व्ही.शांताराम के साथ सहायक निर्देशक के गुर सीखे। बाबूराव पेंढारकर ने मास्टर विनायक की क्षमता को अचूक परखा और उन्हें कोल्हापुर सिनेटोन कम्पनी की ‘विलासी ईश्वर’(1935) फिल्म का निर्देशन करने की जिम्मेदारी सौंपी थी। यह मराठी का पहला सामाजिक बोलपट है। विश्राम बेडेकर ने ‘ठकीचे लग्न’ (ठकी की शादी) हास्य फिल्म का निर्माण किया। यह फिल्म प्रसिद्ध हास्य व्यंग्य लेखक चिं.वि.जोशी की कहानी पर आधारित थी। फिल्म कुछ खास नहीं बनी किन्तु मराठी हास्य व्यंग्य फिल्म की नींव इस फिल्म द्वारा रखी गयी ऐसा जरूर कह सकते है। 1935 में व्ही.शांताराम ने छुआछुत पर आधारित ‘धर्मात्मा’ फिल्म बनायी थी। इस फिल्म का मूल टायटल ‘महात्मा’ था, परन्तु सेन्सर बोर्ड की आपत्ति के कारण टाइटल बदलकर ‘धर्मात्मा’ रखा गया। शांताराम, भालजी व विनायक ने अपनी अपनी प्रतिभा से मराठी बोलपट की नींव रखी थी। इन तीनों में से केवल शांताराम ने ‘फिल्म एक यंत्र पर निर्भर कला है’ यह मर्म जान लिया था। भालजी पटकथा को वरीयता देते थे क्योंकि उन्हें फिल्म के माध्यम से ईश्वर, देश और धर्म को उजागर करना था। शांताराम ने प्रभात कम्पनी की तरफ से ‘कुंकू (कुंकुम), माणूस (मनुष्य) व शेजारी (पड़ोसी) जैसे उत्कृष्ट फिल्में निर्माण कर मराठी सिनेमा की मजबूत नींव रखीं। सिनेमा दृश्य के परे जाकर कुछ अव्यक्त दिखा सकता है यह शांताराम ने सिध्द करके दिखाया। ‘कुंकू’ सिनेमा में गोविंद देवल के ‘शारदा’ नाटक की तरह बाल-जरठ विवाह की समस्या को दर्शाया गया था। नाटक के द्वारा जो नहीं व्यक्त हुआ वह फिल्म से शांताराम ने दिखाया था। शांताराम की फिल्म प्रेम ही सबकुछ है; यह संदेश देनेवाली ‘माणूस’ (1939) एक अप्रतिम फिल्म है। ‘शेजारी’ फिल्म में हिंदू-मुस्लिम एकता का परिचय करवाया है। मास्टर विनायक की ‘प्रेमवीर’ (1937), ब्रह्मचारी (1938), ब्रँडीचीबाटली (1939) ये तीनों सिनेमा विनोदी श्रेणी के थे। इनका पटकथा लेखन प्रसिद्ध हास्य व्यंग्य लेखक आचार्य अत्रे ने किया था। विनायक का ‘ब्रह्मचारी’ सिनेमा काफी लोकप्रिय रहा। इस फिल्म ने मराठी में विशुद्ध विनोदी चित्रपट की परम्परा स्थापित की। अत्रे-विनायक जोड़ी ने मराठी में विनोदी सिनेमा की नींव रखी। वसंत साठे लिखते है, “अत्रे-विनायक ने मराठी विनोदी फिल्म को प्रसिद्धी दिलवायी। मराठी विनोदी फिल्मों की जो अलग परम्परा निर्माण हुयी वह आज भी जीवित है। अन्य भारतीय विनोदी फिल्मों से मराठी विनोदी फिल्म अनोखी व समृद्ध है।”[5] सन 1933 में भालजी पेंढारकर की ‘श्यामसुंदर’ फिल्म ने अच्छा व्यवसाय किया। राधा-कृष्ण के जीवन पर यह फिल्म पचीस सप्ताह लगातार चली। ऐतिहासिक विषय पर फिल्म निर्माण करने में भालजी पेंढारकर को महारत हासील थी। पेंढारकर को शिवकाल प्रिय था। छत्रपति शिवाजी काल पर आधारित ‘नेताजी पालकर’(1940), ‘थोरातांची कमला’(1941) व ‘बहिर्जी नाईक’(1943) फिल्मों ने ऐतिहासिक चित्रपट परंपरा की नींव रख दी। सुधीर नांदगावकर लिखते है, “भालजी स्वयं शिवाजी राजा के भक्त थे। मराठाओं का पराक्रम उन्हें आकर्षित कर रहा था। फलस्वरूप भालजी ने मराठाओं का इतिहास सिनेमा में लाया। भालजी का ‘नेताजी पालकर’ सिनेमा तुफान लोकप्रिय हुआ।”[6]कुल मिलाकर मराठी सिनेमा का पहला दशक दमदार रहा।
दुसरे महायुद्ध का दौर मराठी सिनेमा के लिए कष्टदायी रहा। महायुद्ध के कारण फिल्म निर्माण का खर्चा बढ़ा था। मराठी दर्शकों के बल पर ये खर्च वसूल करना असंभव होता गया। मराठी फिल्मों का निर्माण घटता गया। 1943 व 1944 में प्रतिवर्ष केवल पांच-पांच फिल्मों का निर्माण हुआ। 1945 में तो एक तरह से फिल्मों का पूरा सूखा रहा। आजादी के बाद तो मराठी फिल्मों की सीधे हिंदी फिल्मों के साथ स्पर्धा शुरू हुयी। स्पर्धा इतनी तीव्र हुयी की मराठी सिनेमा को थियेटर मिलने मुश्किल हो गया। सुधीर जी कहते है, “मराठी चित्रपट 1947 से 1960 तक के तेरह वर्षों में हिंदी से स्पर्धा करते करते अक्षरशः वनवास में चला गया। इस प्रतिकूल परिस्थिति में प्रतिवर्ष केवल तेरह-चौदह फिल्मों का ही निर्माण होता रहाI”[7] प्रतिकूल परिस्थिति से झगड़ते हुए राजा परांजपे, अनंत माने व दत्ता धर्माधिकारी जैसे निर्देशकों ने चित्रपटों का निर्माण कर मराठी फिल्मों की परम्परा अक्षुण्ण रखी। राजा परांजपे के ‘पुढचं पाऊल’,(1950),‘लाखाची गोष्ट’(1952),‘पेडगावचे शहाणे’(1952)‘जगाच्या पाठीवर’(1960) ये फिल्में यशस्वी रही। दादा धर्माधिकारी ने‘ बाला जो जो रे’(1950), ‘स्त्री जन्मा ही तुझी कहाणी’(1952), और ‘पतिव्रता’(1959) इन नायिका प्रधान फिल्मों द्वारा अपना अलग स्थान बनाया अनंत माने के ‘प्रीती संगम’(1957), ‘दोन घडीचा डाव’(1958), ‘अवघाची संसार’(1959), ‘सांगत्ये ऐका’(1959) फिल्मों को दर्शकों का अच्छा प्रतिसाद मिला। माने ने मराठी फिल्म इंडस्ट्री को उत्कृष्ट विनोदी, पारिवारिक व ग्रामीण फिल्में दी। पु.ल.देशपांडे की ‘गुळाचा गणपती’ (1952) उत्कृष्ट विनोदी फिल्म थी। प्र.के.अत्रे की ‘श्यामची आई’(1953) उत्कृष्ट फिल्म थी। 1954 में राष्ट्रीय पुरस्कार के पहले संस्करण में ‘श्यामची आई’ ने मराठी फिल्म के लिये राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक जीता था।
1 मई 1960 को महाराष्ट्र राज्य की स्थापना हुयी। नया राज्य बनने के पश्चात 1962 को फिल्मों को पुरस्कार देना आरम्भ किया। राज्य पुरस्कार से मराठी चित्रपट की आर्थिक स्थिति में तो कोई खास फरक नहीं पड़ा किन्तु जो निर्देशक मराठी इंडस्ट्री छोड़कर हिंदी के तरफ गए थे उनकी कुछ हद तक वापसी हुयी। राजाश्रय मिलने के कारण मराठी सिनेमा के कुछ हद तक अच्छे दिन जरूर आए परन्तु हिंदी फिल्मों की चुनौती कायम थी। राजा परांजपे का ‘पाठलाग’(1964) सिनेमा हाउसफुल चलने के बावजुद भी थिएटर से हटा दिया गया क्योंकि प्लाझा थिएटर का हिंदी फिल्म के साथ अग्रीमेंट था। इससे हिंदी सिनेमा के प्रबलता का अनुमान लगाया जा सकता है। दादा कोंडके की पहली फिल्म ‘सोंगाड्या’ 1971 में आयी जिसे थिएटर नहीं मिल रहा था आखिर शिवसेना को थिएटर के लिए आन्दोलन का सहारा लेना पड़ा तब जाकर कहीं थिएटर उपलब्ध हुआ। ‘एकटा जीव सदाशिव’(1972),‘आंधळा मारतो डोळा’(1973), ‘पांडू हवालदार’(1975) ‘तुमचं आमचं जमलं’(1976), ‘राम राम गंगाराम’(1977),‘बोट लावीन तिथं गुदगुल्या’(1978), ‘ह्योच नवरा पाहिजे’(1980),व ‘आली अंगावर’(1981) ये सभी फिल्में हिट रही I लगातार पच्चीस सप्ताह चलने का रेकॉर्ड इन नौ फिल्मों के नाम रहा है। 1971 में विजय तेंडूलकर के नाटक पर आधारित ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’ फिल्म आयी। फिल्म अलग और उत्कृष्ट होने के बावजूद व्यावसायिक गणित नहीं साध पायी। दादा कोंडके की लोकप्रियता के आगे यह फिल्म दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पायी। व्ही. शांताराम ने 1972 में चित्रपट निर्माण की दूसरी इनिंग ‘पिंजरा’ फिल्म द्वारा शुरू की। फिल्म की कहानी विदेशी जरूर थी किन्तु शांताराम ने इसे मराठी संस्कृति में अच्छे से ढाल दिया था। फिल्म काफी सफल रही। सन्मार्ग से चलने वाले अध्यापक की अवनति फिल्म का मुख्य विषय है। डॉ.जब्बार पटेल की ‘सामना’(1975) फिल्म ने मराठी चित्रपट को अलग दिशा प्रदान की। 1976 में महाराष्ट्र शासन ने निर्माताओं के लिए टैक्स वापसी की अनोखी योजना शुरू की थी। निर्माताओं से उनके पहले फिल्म का जो मनोरंजन टैक्स वसूला गया है उसमें से आठ लाख रुपये दूसरा चित्रपट तैयार होते ही वापस करने की यह योजना थी। [8]इस योजना से कुछ हद तक मराठी फिल्म व्यवसाय को आर्थिक स्थिरता प्राप्त हुयी ।’अस्सी के दशक में आए विजय तेंडूलकर लिखित ‘उंबरठा’ और ‘आक्रित’ दोनों चित्रपट उत्कृष्ट जरूर थे किन्तु इन्हें दर्शक नहीं मिलेंIदोनों फिल्मों ने राष्ट्रीय स्तर पर काफी नाम कमाया। ‘आक्रित ’सिनेमा को फ्रान्स के आंतरराष्ट्रीय महोत्सव में पुरस्कृत किया गया था। इस फिल्म की कहानी एक कोर्ट केस पर आधारित थी। अस्सी के दशक का दौर सही मायने में विनोदी फिल्मों का था। इस अवधि में सचिन पिलगांवकर और महेश कोठारे ने अभिनय के साथ साथ निर्देशन भी किया था। सचिन जी की ‘नवरी मिले नवऱ्याला’(1984), ‘धुमधड़ाका’(1985), ‘गंमत जमंत’(1985), ‘अशी ही बनवाबनवी’(1986), और महेश जी की ‘दे दणादण’(1985), ‘थरथराट’(1986)ये फिल्में काफी हिट हुयी थी। विनोदी फिल्मों की इस लहर में कुछ् गम्भीर फिल्में भी आयी जैसे की सतीश रणदिवे की ‘बहुरूपी’(1984), कांचन नायक की ‘कळत नकळत’(1989), विजय कोंडके की ‘माहेरची साडी’(1991)। इस दौर के बारे में सुधीर नांदगावकर लिखते है, “ 1985 से 1990 तक के पाच वर्षों में ‘टैक्स वापसी’ जैसी योजना, हिंदी सिनेमा व मराठी नाटकों से कमजोर हुयी स्पर्धा, रंगीन दूरदर्शन का आगमन, विडिओ का बढ़ता क्रेज जिससे हिंदी फिल्म जर्जर हुयी इसका लाभ मराठी सिनेमा को हुआ और दर्शकों की संख्या में वृद्धि होती गयी। ”[9]नांदगावकर जी का यह निरीक्षण एकदम सटीक है।
साल 1991 में केन्द्र सरकार की आर्थिक नीति उदारीकरण और भूमंडलीकरण में बदल गयीIमनोरंजन व्यवसाय में काफी बदलाव आया। नए-नए चॅनल्स का आगमन हुआ। घर बैठे बैठे दर्शक फिल्मों का आनंद उठाने लगे। परिणामस्वरूप मराठी सिनेमा का दर्शक घटता गया। जब्बार पटेल की ‘एक होता विदूषक’(1992) और पुरुषोत्तम बेर्डे की ‘भस्म’(1994) फिल्में थिएटर तक आयी ही नहीं। इस समस्या का हल निकालने हेतु महाराष्ट्र सरकार ने 1997 में छोटा सा प्रयास किया था। फिल्म बनाने के लिए 15 लाख की आर्थिक सहायता राशि और मनोरंजन टैक्स में छूट ये दो उपाय सरकार द्वारा किये थे। इसका जरूर कुछ लाभ हुआ। 2002 में संदीप सावंत की ‘श्वास’ उत्कृष्ट फिल्म प्रदर्शित हुयी। वर्ष 2004 में, मराठी फिल्म ‘श्वास’ ने गोल्डन लोटस राष्ट्रीय पुरस्कार जीता और उसे आलोचकों की प्रशंसा भी मिली। यह फ़िल्म 77 वें अकादमी पुरस्कार में भारत की तरफ से आधिकारिक प्रविष्टि थी और इसने सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रपति पदक भी जीता। ‘श्यामची आई’ (1950) के बाद, ‘श्वास’ दूसरी मराठी फिल्म है, जिसनें राष्ट्रपति पदक प्राप्त हुआ। जिसे राष्ट्रीय स्तर का सर्वोत्कृष्ट पुरस्कार मिला। ‘श्वास’ फिल्म ऑस्कर तक गयी। वळू 2008(उमेश कुलकर्णी), ‘हरिश्चंद्राची फॅक्टरी’2010(परेश मोकाशी),‘गाभ्रीचा पाऊस’ 2009(सतीश मन्वर), ‘जोगवा’ 2009 (राजीव पाटिल) जैसी अलग ढंग की फिल्में बनी ‘देऊल ‘ फिल्म 2011 में बनी, जिसका निर्देशन उमेश कुलकर्णी व निर्माण अभिजीत घोलप ने किया है। फिल्म में नाना पाटेकर, दिलीप प्रभावलकर, गिरीश कुलकर्णी, सोनाली कुलकर्णी व किशोर कदम प्रमुख भूमिकाओं में है। ‘देऊल’ को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (गिरीश कुलकर्णी) व सर्वश्रेष्ठ डायलोग (गिरीश कुलकर्णी) का 59 वां राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त हुआ है। इस फिल्म द्वारा नसीरुद्दीन शाह ने मराठी फ़िल्म जगत में पदार्पण किया था। इधर बीच मराठी में फिल्मों की संख्या लगातार बढ़ती गयी यह अच्छे संकेत थे। ‘फैंड्री’(2013),‘सैराट’(2016 ),‘नाल’(2023) जैसी अलग फिल्में देने वाले नागराज मंजुले मराठी के महत्त्वपूर्ण निर्देशक हैं। नागराज मंजुले की सैराट फिल्म सबसे हिट रही। एक साक्षात्कार में नागराज मंजुले को पूछा कि ‘फिल्म ‘सैराट’ ने आपके लिए क्या किया तब उनका उत्तर था –“It did so many things for me. It gave me recognition; it gave me confidence. I always felt that Indians should watch the kind of films I wanted to make. My first film “Fandry” went to a lot of international festivals, was screened in a lot of universities and colleges abroad and got a lot of awards, but not as many Indians saw it as I would have liked. “Sairat” fulfilled that dream of mine, and it gave me confidence. I didn’t want to make a commercial film that would be superficial and engineered towards people watching it. To make a film in my style, and still have people like it, is what I wanted. If you ask me, “Sairat” is a sensible film. It went to the Berlin Film Festival, it won awards abroad, and yet, our audiences liked it.”[10]नागराज मंजुलेअपनी शैली में फिल्म बनाना चाहते थे और फिर भी लोग इसे पसंद करें, यही वह चाहते थे। अपनी फिल्मों में एकदम नये चेहरे को मौका देना उनकी खासियत रही है। मंझे हुए एक्टर से नागराज हमेशा दूर रहें। 'फैंड्री' और 'सैराट' सिनेमा में लीड रोल करनेवाले ऐसे अॅक्टर थे जिन्होंने कभी कैमरे का सामना नहीं किया था । भाऊराव कर्हाडे महत्त्वपूर्ण मराठी फिल्म निर्देशक, अभिनेता, निर्माता, पटकथा लेखक, फिल्म निर्माता हैं। उनकी चर्चित फिल्म ‘ख्वाडा’(2015) को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार तथा विशेष जूरी अवार्ड मिला है। महाराष्ट्र राज्य सरकार द्वारा सर्वश्रेष्ठ ग्रामीण निर्देशक का पुरस्कार भी मिला है। उनकी एक्शन-ड्रामा ‘बबन’(2018) फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर हिट रही है।
इस तरह से ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) से शुरू हुआ मराठी फिल्मों का यह सफर अनेक मोड़ से गुजरते हुए अनवरत जारी है। जयंत राले सरकार मराठी सिनेमा के सन्दर्भ में सही कहते है, “मराठी चित्रपट बदलत आहे, तो आशयातील बदल आहे, सादरीकरणात आहे, विषयात आहे, अभिनयात आहे, संगीतात आहे. मराठी चित्रपट श्रीमंत बनत आहे .....”[11]मराठी सिनेमा बदल रहा है, यह बदलाव है कन्टेट में, प्रस्तुति में, विषय वस्तु में, अभिनय में, संगीत में। मराठी फिल्म समृद्ध हो रही है। आज भारत संसार में सबसे ज्यादा फिल्में निर्माण करनेवाला देश बन गया है और हमारे देश में सिनेमा कला का श्री गणेश करने वाले धुंडिराज गोविंद फालके अर्थात दादासाहब फालके एक मराठी व्यक्ति थे इसका हर मराठी ‘माणूस’ को गर्व होना चाहिएI
[1] सुधीर नांदगावकर, सिनेमा संस्कृती, सुधीर, एशियन फिल्म फाउंडेशन, परेल, मुंबई, प्रथम संस्करण, 2011, पृष्ठ-2
[2]Isak Mujavar, Maharashtra Birth-place of Indian Film Industry, Maharashtra Information Centre, Govt. Of Maharashtra, New Delhi, First Ed. 1969, Page 18
[3]ओंकारनाथ माहेश्वरी, हिन्दी चित्रपट का गीती साहित्य, विनोद पुस्तक मंदिर आगरा प्रथम संस्करण, 1978, पृष्ठ-19
[4]देशपांडे रेखा, मराठी चित्रपट सृष्टीचा समग्र इतिहास, महाराष्ट्र राज्य साहित्य आणि संस्कृती मंडळ, मुंबई, प्रथम संस्करण, 2014, पृष्ठ-73
[5] साठे वसंत, बखर सिनेमाची, किरण व्ही.शांताराम, प्रथम संस्करण, 1992, पृष्ठ-20
[6] सुधीर नांदगावकर, सिनेमा संस्कृती, सुधीर, एशियन फिल्म फाउंडेशन, परेल, मुंबई, प्रथम संस्करण, 2011, पृष्ठ-124
[7] वही, पृष्ठ-124
[8] वही, पृष्ठ-130
[9] वही, पृष्ठ-132
[10] https://www.reuters.com/article/sairat-nagraj-manjule-idUSKBN1HX18U/
[11] रालेरासकर जयंत, नवरंग रूपेरी, संपादक: अशोक उजलंबकर, दिवाळी विशेषांक 2008 , पृष्ठ-75
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