शोध आलेख : तवायफ़ों की छवि और हिंदी सिनेमा : इतिहास, राजनीति और पितृसत्ता का पुनर्पाठ / श्वेता तिवारी, मनीष कुमार

तवायफ़ों की छवि और हिंदी सिनेमा : इतिहास, राजनीति और पितृसत्ता का पुनर्पाठ
- श्वेता तिवारी, मनीष कुमार

शोध सार : हिंदी सिनेमा में तवायफ़ों के चित्रण को लंबे समय से एक रहस्यमय या नैतिक रूप से द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है । हालांकि, ये चित्रण मुख्य रूप से पितृसत्तात्मक आख्यानों से प्रभावित रहे हैं, जो इन महिलाओं की जटिलता और उनकी स्वतंत्रता को नज़रअंदाज़ करते हैं। यह लेख हिंदी फिल्मों में तवायफ़ों के चित्रण का समालोचनात्मक विश्लेषण करता है, जो उनके सिनेमाई चित्रण और उसके पीछे की वास्तविकता का पता लगाता है। परंपरागत रूप से, तवायफ़ सामंती समाज में महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव रखती थीं, जो संगीत, नृत्य और शास्त्रीय कलाओं के संरक्षिका के रूप में कार्य करती थी। हालाँकि, उनका प्रतिनिधित्व फिर भी सामाजिक दायरे में स्वीकृत नहीं था। सांस्कृतिक स्मृतियों में इन्हें वैसा स्थान नहीं है जैसा फिल्मों में चित्रित किया गया है। यह लेख इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे हिंदी सिनेमा ने मुज़रा, तवायफ़ों और कोठाओं  के जीवन को रोमांटिसाइज और विकृत किया है, जबकि वास्तविकता कुछ अलग ही है। अक्सर सिनेमाई चित्रण इन तवायफ़ों की स्थिति और राजनीतिक शक्ति को यह तो अनदेखी करते हैं या गौरवशाली बखान करते हैं। इनके सांस्कृतिक योगदान की वकालत करते समय यह नजरअंदाज कर दिया जाता है कि उनकी सामाजिक स्थिति और लोगों का उनके प्रति नजरिया क्या था? कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों और ऐतिहासिक संदर्भों का विश्लेषण करके, यह लेख हिंदी सिनेमा और समाज में तवायफ़ों की स्थिति का पुनर्मूल्यांकन करने और उनकी पहचान के आसपास प्रचलित सिनेमाई कहानियों को चुनौती देने का प्रयास करता है।

बीज शब्द : हिन्दी सिनेमा, तवायफ़, कोठा, सिनेमाई चित्रण

मूल आलेख: 

तवायफ़ों की छवि का पुनर्पाठ क्यों?

भारतीय सिनेमा लंबे समय से तवायफों की छवि  से आकर्षित रहा है, जिनकी जीवन की  कहानियों ने सिनेमाई पर्दे पर भव्यता और रोमांस के साथ सिल्वर स्क्रीन को रोशन किया है। एक हजार से अधिक फिल्मों में उनके जीवन को समर्पित किया गया है, जिसमें उन्हें सांस्कृतिक विरासत, भव्य आतिथ्य और विस्तृत शक्ति नाटकों की दुनिया में ओत-प्रोत जटिल पात्रों के रूप में चित्रित किया गया है। कुछ महीनों पहले नेटफ्लिक्स पर एक वेब सीरीज़ ‘हीरामंडी’ (2024)  आई, जो तवायफ़ों के जीवन पर केंद्रित है, और जिसका निर्देशन संजय लीला भंसाली ने किया है ।1 इस सीरीज़ में तवायफ़ों के जीवन को अत्यधिक रोमांटिसाइज और चमकदार दिखाया गया है, जहाँ उन्हें एक बहुत ही विलासितापूर्ण जीवन जीते हुए प्रस्तुत किया गया है। लेकिन क्या यह सच में सभी तवायफ़ों का जीवन ऐसा था? तवायफ़ों के बारे में जब भी हम पढ़ते हैं, तो उनके जीवन के बारे में अधूरी जानकारी ही मिलती है। कभी उन्हें संस्कृति और संगीत की रक्षिका के रूप में दिखाया जाता है, तो कभी सामाजिक स्मृतियों में इन्हें कलंकित रूप में देखा जाता है। यह बड़ा विरोधाभासी चित्रण है। अब सवाल यह उठता है कि जैसे फिल्मों में तवायफ़ों को राजनीतिक एजेंसी या शक्ति के रूप में चित्रित किया जाता है, क्या यह वास्तविकता में भी वैसा ही था? और क्या इतिहास इसके समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत करता है? असल में तवायफ़ों को कभी भी समाज की मुख्यधारा में वह स्थान नहीं मिला, जो उन्हें मिलना चाहिए था। वो हमेशा ही पूर्वाग्रह की शिकार रहीं। इस स्थिति को समाजशास्त्री  गॉफमैन (1963) 'सोशल स्टिग्मा' कहकर संबोधित हैं।2 अर्थात जब कोई व्यक्ति, व्यवहार या समुदाय समाज के लिए कलंक बन जाता है, तो उसे हाशिए पर धकेल दिया जाता है। यदि हम यह कहते हैं कि तवायफ़ों के पास राजनीतिक शक्ति थी, और वे आर्थिक रूप से सशक्त थीं, या उनके पास  राजाओं, नवाबों और जमींदारों का संरक्षण था, तो यह सवाल उठता है कि फिर ऐसा क्या था जो उन्हें सामाजिक दायरे से बाहर रखा गया? यदि वे संगीत की संरक्षिका थीं, तो फिर समाज ने उन्हें हाशिए पर क्यों रखा? इस सवाल के पीछे कई सामाजिक और राजनीतिक कारक हो सकते हैं, जिन्होंने तवायफ़ों को मुख्यधारा से दूर रखा। हीरामंडी जैसी सीरीज़ तवायफ़ों को एक शक्तिशाली समुदाय के रूप में चित्रित करती है, लेकिन इस चित्रण के पीछे इतिहास की सच्चाई की कई परतें हैं। यह हमेशा सोचने का विषय है कि अगर पुरुष संगीत का खिदमतगार है, तो वह समाज की मुख्यधारा में बना रहता है। लेकिन जब तवायफ़ों को संगीत की उपासिका के रूप में देखा जाता है, तो उन्हें समाज के बाहर क्यों रखा जाता है? तवायफ़ों को लेकर एक विचारधारा उन्हें सांस्कृतिक धरोहर की वाहिका के रूप में देखती है। यह दृष्टिकोण ब्रिटिश शासन के समय कोठों पर की गई जांच और संक्रामक रोग अधिनियम (1864) के कार्यान्वयन के संदर्भ में तवायफ़ों के जीवन में आए बदलाव को इंगित करता है।3 इस अधिनियम के तहत पुलिस को वेश्यावृत्ति के संदेह में महिलाओं को गिरफ्तार करने की अनुमति मिली, जिससे तवायफ़ों की स्वतंत्रता पर और अंकुश लगा। ब्रिटिश सरकार का मानना था कि सैनिक तवायफ़ों से संक्रमित हो रहे थे। 

यह दृष्टिकोण नेशनलिस्ट फेमिनिज्म का एक रूप है, जो यह दावा करता है कि तवायफ़ों का जीवन पहले अच्छा था और वे संस्कृति व तहजीब की संरक्षिका थीं। कुछ विद्वानों का काम इसी के अनुरूप है। तवायफ़ों को संस्कृति की वाहिका मानते हैं जिसमें चंदा और अन्य  (2021),4 संस्कृति की संरक्षिका के रूप में तवायफ़ों पर प्रशंसनीय टिप्पणी की है। (श्रीनिवासन, 2006)।5 लखनऊ की तवायफ़ों का अमीर होना और टैक्स अदायगी में अग्रिम होना आम बात थी (ओल्डेनबर्ग, 1990)। 6 ये राजनीति और समाज में महत्वपूर्ण भागीदार थीं और दखल रखती थीं (लियोनार्ड, 2014)।7 वहीं, तवायफ़ों को 1800 के दशक में एक कुलीन प्रदर्शनकारी समुदाय की सामाजिक स्थिति प्राप्त थी (ओल्डेनबर्ग, 1990)।8 वहीं तवायफ़ें अक्सर प्रभुत्वशाली लोंगो द्वारा आयोजित निजी पार्टियों में और कोठों में मुजरा प्रदर्शन करती थीं (वॉकर, 2014)।9 लेकिन यह दृष्टिकोण इस तथ्य की अनदेखी करता है कि कैसे तवायफ़ें हमेशा समाज से बाहर की गईं और उन्हें हीन दृष्टि से देखा गया? प्रसिद्ध लेखक यतीन्द्र मिश्र (2019) अपने एक व्याख्यान में अपने परदादा जो उस समय अयोध्या के राजा थे, और मशहूर तवायफ़ बेगम अख्तर के बारे में एक किस्सा  बताते हैं कि, “मेरे परदादा  ने बेगम अख्तर  को उनकी कला के सम्मान में 100 बीघा का आम का बाग़ दिया था। विभाजन के बाद जब बेगम पाकिस्तान जाने लगीं, तो उन्होंने बाग़ लौटाने की पेशकश की। यह बाग़ 'पतुरिया का बाग़' कहकर बुलाया जाता था...।”10 ‘पतुरिया’ शब्द का उपयोग समाज में सम्मानजनक नहीं था, बल्कि यह उन महिलाओं के लिए प्रयोग होता था जिन्हें नाचने-गाने के कारण अपमान और बहिष्कार झेलना पड़ता था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि  तवायफ़ों की सामाजिक स्थिति को लेकर कई विरोधाभास हैं। उन्हें कभी संस्कृति की रक्षिका कहा जाता है, तो कभी अपमानजनक रूप में चित्रित किया जाता है। इस सिनेमाई आकर्षण ने तवायफ़ों के कुछ महिमावान चित्रण को जन्म दिया है, जो उन्हें कथक और ठुमरी जैसे शास्त्रीय प्रदर्शनों के परिष्कृत संरक्षक के रूप में प्रस्तुत करता है। हालाँकि, इन महिलाओं का वास्तविक जीवन कहीं अधिक जटिल और नीरस था, जो संघर्षों से गुथा हुआ रहा है, जो अक्सर चमक और ग्लैमर के चकाचौंध  के बीच किसी का ध्यान उस विषय पर नहीं जाता है। वहीं पुरुष जो एक दर्शक के रूप में होता था वो उत्साहपूर्ण ध्यान में बैठते थे, लेकिन कोठा की दीवारों के बाहर इन महिलाओं को स्वीकार करने से इंकार कर देते थे।  उदाहरण के लिए, फिल्म 'पाकीज़ा' (1972)11 को लें, जो भारतीय सिनेमा में तवायफ़ों के चित्रण का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह फिल्म साहिबजान नामक एक तवायफ़  की कहानी बताती है, जो सच्चा प्यार और स्वीकृति पाने के लिए कोठाओं की दुनिया  में अपने जीवन को  गति देने  का सपना देखती है।  साहिबजान के कथक के प्रदर्शन मंत्रमुग्ध कर देने वाले हैं, जो उसे शोभा और सुंदरता के प्रतीक के रूप में प्रदर्शित करते हैं। हालाँकि, साहिबजान का जीवन दुख और अधूरी इच्छाओं से भरा हुआ  है। अपनी कला के लिए प्राप्त प्रशंसा के बावजूद, वह एक ऐसी दुनिया में फंसी रहती है जो उसे अपने पेशे की सीमा से बाहर सम्मान और प्यार के अयोग्य मानती है। उसके लिए  कोठा, कला और संगीत का एक स्थान, जो एक तरह से सोने का पिंजरा भी है। इससे बच निकलने  का कोई रास्ता नहीं है। इसी कड़ी में 'मुगल-ए-आजम’ (1960) में राजकुमार सलीम के दिल पर कब्जा करने वाली एक सुंदर तवायफ़  अनारकली की कहानी इस द्वंद्व का एक मार्मिक उदाहरण है।12 मधुबाला द्वारा चित्रित अनारकली मुगल सम्राट अकबर की  दरबार की सबसे प्रतिभाशाली  कलाकार है। उसका  नृत्य मंत्रमुग्ध कर देने वाला है, उसकी  सुंदरता अद्वितीय  है। फिर भी, सलीम के लिए उसका प्यार वर्जित है। फिल्म का चरमोत्कर्ष, जहां अनारकली को एक राजकुमार से प्यार करने की हिम्मत करने के लिए जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाता है।  यह दृश्य इस  वास्तविकता को रेखांकित करता है कि वेश्याओं को, चाहे वह कितना भी प्रतिभाशाली या प्रिय क्यों न हो, वैध व्यक्तिगत संबंधों से वंचित कर दिया जाना लाज़मी है। राजकुमार सलीम के लिए अनारकली का प्यार और उसका अंतिम भाग्य जीवित दफन होना ऐतिहासिक संदर्भ में सामाजिक वर्जनाओं और तवायफ़ो की सीमित एजेंसी को प्रतिबिंबित करता है। अनारकली की कहानी, हालांकि नाटकीय है, तवायफ़ों की दयनीय  स्थिति को दर्शाती है, जो जुनून और प्रशंसा को प्रेरित कर सकते हैं, लेकिन कभी स्वीकृति नहीं प्राप्त हो सकती। जब हम अनारकली की बात कर रहे है तो उमराव जान (1981) फिल्म को कैसे विस्मृत हो सकते हैं।13 उमराव जान (1981), फिल्म जो एक तवायफ़ के जीवन में गहराई से उतरती है। एक ऐतिहासिक उपन्यास पर आधारित, यह फिल्म एक युवा लड़की की जीवन यात्रा को चित्रित करती है जिसका अपहरण कर लिया जाता है और उसे एक नामचीन  कोठा को बेच दिया जाता है। रेखा द्वारा उमराव जान का चित्रण दिल दहला देने वाला और सिनेमाई पर्दे पर अपनी अमिट छाप छोड़ने वाला है। वह एक प्रसिद्ध कवयित्री  और नर्तकी बन जाती है, उसके रोजाना के प्रदर्शन में अभिजात वर्ग शामिल होता है। फिर भी, उसका अतीत उसे परेशान करता है, और उसका प्रेम जीवन विश्वासघात और नुकसान के जोखिमों से भरा हुआ है। फिल्म सामाजिक पाखंड पर प्रकाश डालती है जहाँ वही लोग जो तवायफ़ों की प्रशंसा करते हैं और उनकी संगति चाहते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से उनका तिरस्कार करते हैं और उन्हें  समाज में सम्मानजनक जगह देने से इनकार करते हैं। इस पाखंड को ‘देवदास (2002)’ में भी दर्शाया गया है, जहाँ चरित्र नायिका  चंद्रमुखी जोकि एक  तवायफ है, को चरित नायक देवदास से प्यार हो जाता है।14 देवदास के लिए उसके  गहरे स्नेह और देखभाल के बावजूद, उसे कभी भी एक तवायफ के रूप में नहीं देखा गया।  ये सिनेमाई चित्रण, तवायफों का महिमामंडन करते हुए, उनके जीवन के दुखद आयामों को भी सूक्ष्मता से रेखांकित करते हैं। तवायफ  का अस्तित्व श्रद्धा और अस्वीकृति के बीच निरंतर बातचीत में से एक था। उनके प्रदर्शनों का जश्न मनाया जाता था, उनकी कला को संजोया जाता था, फिर भी उनका व्यक्तिगत जीवन सामाजिक तिरस्कार और व्यक्तिगत दुख से प्रभावित रहता है। वे सम्मान के दूसरे किनारे, अपवर्जना पर खड़े होते हैं और उनकी पहचान कोठों की दीवारों के भीतर सीमित रहती है।

तवायफ़ों का छवि और हिंदी सिनेमा: फ्रंट स्टेज की चमक-धमक और बैक स्टेज की वास्तविकता

हिंदी सिनेमा में तवायफों के चित्रण का विश्लेषण करने में इरविंग गॉफमैन (1956) के 'बैक और फ्रंट स्टेज' अवधारणा का उपयोग सिनेमाई चित्रण (फ्रंट स्टेज) और वास्तविकता ( बैक स्टेज) में उनकी दोहरी भूमिकाओं को समझने के लिए एक व्यावहारिक रूपरेखा प्रदान करता है।15 गॉफमैन ने यह यह अवधारणा अपनी पुस्तक 'द प्रेजेंटेशन का सेल्फ इन एवरीडे लाइफ' (1956) में दिया है। गॉफमैन की 'फ्रंट स्टेज' अवधारणा सामाजिक सेटिंग में व्यक्तियों के सार्वजनिक प्रतिनिधित्व या अनुमानित छवि को चित्रित करती है, जबकि 'बैक स्टेज' छिपी हुई, निजी वास्तविकताओं को दर्शाती है जो सार्वजनिक व्यक्तित्व के विपरीत हो सकती है। हिंदी सिनेमा में तवायफ़ों को अक्सर उनके फ्रंट स्टेज प्रदर्शन में आदर्शीकृत किया जाता है, जहाँ उन्हें आकर्षक, प्रभावशाली और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। उन्हें कला—संगीत, नृत्य और काव्य में निपुण दिखाया जाता है, जो परिष्कार और गरिमा का प्रतीक है। हालांकि, इस आकर्षक छवि के पीछे उनके जीवन की "बैक स्टेज" वास्तविकताएँ छिपी होती हैं, जहाँ ये महिलाएँ एक पितृसत्तात्मक समाज में हाशिए पर रहती थीं। सांस्कृतिक प्रतिभा के बावजूद, उन्हें समाज में कलंक, बहिष्कार और शोषण का सामना करना पड़ा। इस प्रकार, गॉफमैन का सिद्धांत तवायफ़ों की प्रशंसित सार्वजनिक छवि और उनकी छिपी हुई कठिनाइयों के बीच के अंतर को उजागर करने में सहायक है, जो उनके ऑन-स्क्रीन महिमामंडन और वास्तविक जीवन के संघर्षों के बीच की द्वैतता को समझने का एक महत्वपूर्ण दृष्टि प्रदान करता है।

मार्क्सवादी प्रघटनात्मक ढांचा सामाजिक घटनाओं पर एक अलग दृष्टिकोण प्रदान करता है, जो रोजमर्रा के संघर्षों और जीवन के प्रदर्शन संबंधी पहलुओं में गहराई से झांकता है। इस संदर्भ में, कल्चरल  कॉमन्स  की अवधारणा विशेष रूप से प्रासंगिक हो जाती है। कल्चरल कॉमन्स एक विशिष्ट समय और स्थान विशेष के सेटिंग के भीतर एक समुदाय द्वारा उत्पादित और पोषित संसाधनों को संदर्भित करता है, जिसका विश्लेषण संस्कृति, स्थान और समुदाय के लेंस के माध्यम से किया जाता है (बर्टाचिनी और अन्य , 2012)।16  यह शोध-पत्र सांस्कृतिक संसाधनों के रूप में तवायफ समुदाय, उनके नृत्य रूप कथक, गायन शैली ठुमरी और उनके विस्तृत परिधान नियम की जांच करता है। कोठों, जहाँ वे रहते थे और प्रदर्शन करते थे, को सांस्कृतिक उत्पादन का स्थान माना जाता है। कोठों के सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे के भीतर तवायफ़ों द्वारा बनाए गए और प्रबंधित सांस्कृतिक संसाधनों को सांस्कृतिक आम के रूप में समझा जा सकता है (चन्दा और अन्य, 2021)।17  ये सांस्कृतिक सामान्य, भौतिक और गैर-भौतिक दोनों, मानव संपर्क के उत्पाद हैं जिन्हें पीढ़ियों से पारित किया जाना चाहिए (बर्टाचिनी और अन्य, 2012)।18 उनकी गैर-प्रतिद्वंद्वी प्रकृति और असीमित वहन क्षमता के बावजूद, इन संसाधनों का प्रबंधन दो मुख्य सामाजिक दुविधाएं पैदा करता है। पहला फ्री-राइडर समस्या है, जहां व्यक्ति अपने पुनःपूर्ति में योगदान किए बिना आम संसाधनों का दोहन करते हैं। दूसरी दुविधा में परंपरावादियों और नवप्रवर्तकों के बीच संघर्ष के कारण आने वाली पीढ़ियों में इन आम लोगों को प्रसारित करने की अनिश्चितता शामिल है (बर्टाचिनी और अन्य, 2012)।19 ये दुविधाएँ उत्पादक समुदाय के भीतर विभिन्न अंतःक्रिया संरचनाओं से संबंधित खतरों को संबोधित करती हैं, लेकिन बाहरी सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों के लिए जिम्मेदार होने में विफल रहती हैं जो समुदाय और इसकी उत्पादन प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं। मार्क्सवादी विश्लेषण में, कल्चरल  कॉमन्स की अवधारणा आंतरिक रूप से समाज के भीतर भौतिक स्थितियों और शक्ति संरचनाओं से जुड़ी हुई है। बर्टाचिनी एट अल (2012)  के अनुसार, समुदाय की पहचान का निर्माण सदस्यों के बीच प्रतीकात्मक आयामों और बातचीत के स्तरों पर किया गया है।20 भारत में, एक वंशानुगत प्रदर्शन करने वाले समुदाय की पहचान और सामाजिक स्थिति विशेष प्रदर्शन कला शैलियों के साथ उनके जुड़ाव से बहुत प्रभावित होती है।  जबकि बर्टाकिनी और अन्य (2012) सामुदायिक गठन के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में 'पहचान' को स्वीकार करते हैं, वे इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि कला की सामाजिक धारणाएं एक सामान्य पहचान के निर्माण और पारंपरिक प्रदर्शन करने वाले समुदायों के लिए सांस्कृतिक कॉमन्स के उत्पादन को कैसे प्रभावित करती हैं।21  मार्क्सवादी दृष्टिकोण से, तवायफ़ों द्वारा कल्चरल  कॉमन्स के उत्पादन और प्रबंधन को वर्ग संघर्ष और सामाजिक उत्पीड़न के चश्मे से देखा जाना चाहिए। हाशिए पर पड़े समूह के रूप में तवायफों ने कोठों के भीतर अपने सांस्कृतिक उत्पादन का इस्तेमाल उन पर लगाए गए सामाजिक-आर्थिक प्रतिबंधों का विरोध करने और उनसे निपटने के लिए किया। ये महिलाएं और ट्रांस व्यक्ति अक्सर विभिन्न पृष्ठभूमि से आते थे, जिनमें से कई को व्यक्तिगत त्रासदियों के कारण छोड़ दिया गया था, बेच दिया गया था या पेशे में धकेल दिया गया। इसलिए, कोठें  सांस्कृतिक संरक्षण और सामाजिक मानदंडों के खिलाफ प्रतिरोध दोनों के स्थल बन गए।

'हीरामंडी' और 'बाजीराव मस्तानी' जैसी फ़िल्में कोठों को सांस्कृतिक समृद्धि और भावनात्मक गहराई के स्थान के रूप में चित्रित करती हैं, जहाँ तवायफों को शक्तिशाली और स्वायत्त दिखाया गया है। हालांकि, ये सिनेमाई चित्रण अक्सर कोठों की कठोर वास्तविकताओं को छिपा देते हैं। वास्तव में, इन स्थानों को नैतिक बहुमत द्वारा तिरस्कृत किया जाता था और नैतिक भ्रष्टाचार से जोड़ा जाता था। हालाँकि कोठों के संरक्षक कुलीन वर्ग से थे, फिर भी उन्हें नैतिक रूप से संदिग्ध माना जाता था। ऐतिहासिक रूप से, लखनऊ के चौक या दिल्ली के चावड़ी बाजार जैसे स्थानों पर स्थित कोठे सांस्कृतिक केंद्र थे, लेकिन वे सामाजिक हाशिए पर भी स्थित थे। अपने सांस्कृतिक योगदान के बावजूद, तवायफों को पेशे के बाहर सामाजिक बहिष्कार और सीमित अवसरों का सामना करना पड़ा। 'उमराव जान' जैसी फ़िल्मों में तवायफ के जीवन की कहानी को रोमांटिक रूप दिया गया है, लेकिन सामाजिक बहिष्कार और संघर्ष की वास्तविकता को संबोधित नहीं किया गया है। मार्क्सवादी ढाँचा इस बात पर जोर देता है कि कोठों में तवायफों का सांस्कृतिक उत्पादन एक शोषणकारी सामाजिक-आर्थिक संरचना के तहत श्रम के रूप में देखा जाना चाहिए। उनके कलात्मक योगदान, भले ही कुछ स्थानों पर उनकी सराहना की जाती हो, ऐसी व्यवस्था का हिस्सा थे जिसने उनके शरीर और प्रतिभा को वस्तु बना दिया था, जबकि उन्हें वैध सामाजिक मान्यता और अधिकारों से वंचित रखा गया था। तवायफों का संघर्ष एक व्यापक मार्क्सवादी आलोचना को समाहित करता है, जो इस बात पर ध्यान देती है कि कैसे पूंजीवादी समाज में सांस्कृतिक साझा वस्तुओं का उत्पादन, नियंत्रण और विरोध किया जाता है। कोठों में तवायफों द्वारा निर्मित सांस्कृतिक धरोहरें सांस्कृतिक संरक्षण और दमनकारी सामाजिक संरचना के खिलाफ प्रतिरोध के दोनों रूपों में प्रकट होती थीं। इन महिलाओं और ट्रांस व्यक्तियों को, उनके कलात्मक योगदान के बावजूद, हाशिए पर रखा गया और कलंकित किया गया, जो सांस्कृतिक धरोहरों के निर्माण और प्रबंधन में वर्ग संघर्ष की गहरी वास्तविकताओं को उजागर करता है। सिनेमा में उनके जीवन का रोमांटिक चित्रण अक्सर उनकी कठोर वास्तविकताओं को नजरअंदाज करता है, जिससे उनके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व की अधिक सूक्ष्म समझ की आवश्यकता उजागर होती है।

हीरामंडी और बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्मों में कोठों के सिनेमाई उत्सव के बावजूद, जहाँ तवायफों को शक्तिशाली और करिश्माई शख्सियतों के रूप में दिखाया गया है, जिनके शरीर और प्रदर्शन पर स्वायत्तता है, वास्तविकता इससे बिल्कुल अलग थी। ये स्थान, अपनी कलात्मक प्रस्तुतियों के लिए अभिजात वर्ग द्वारा प्रशंसित और संचालित थे, जबकि समाज के नैतिक दृष्टिकोण से इन्हें नीची निगाहों से देखा जाता था। 'भद्र पुरुष' या सम्मानित समाज के लिए कोठों पर जाना नैतिक रूप से अनुचित और संदेहास्पद माना जाता था। इन प्रदर्शन स्थलों से नैतिक अस्पष्टता जुड़ी थी, और जो लोग इन प्रतिष्ठानों में जाते थे, उन्हें संदेह और तिरस्कार से देखा जाता था। उन्हें एक ऐसे समाज में रहना पड़ता था जो उन्हें विवाह और वैध संबंधों की पवित्रता से दूर रखता था, और उनके प्रेम संबंधों को सामाजिक ताने-बाने में शायद ही कभी मान्यता या स्वीकृति मिलती थी। इन महिलाओं ने एक ऐसी दुनिया में जीवन जिया, जहाँ उनकी कलात्मकता की सराहना की जाती थी, लेकिन उनकी मानवता को नकारा जाता था।                

कोठा और हिन्दी सिनेमा: तहज़ीब की जगह या सामंती मानसिकता का प्रतीक

कोठा, एक ऐसा शब्द जो भव्यता और रहस्य की छवियों को उजागर करता है। यह केवल प्रदर्शन के लिए एक स्थान से कहीं अधिक रहा है। एक ऐसी जगह जहाँ विविध और अक्सर दुखद पृष्ठभूमि की महिलाओं और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समुदाय और स्वीकृति की झलक मिल सकती थी। इस अनूठी सामाजिक संस्था ने उन लोगों के लिए शरण और अपनापन की भावना प्रदान की जिन्हें समाज द्वारा छोड़ दिया गया था या बेच दिया गया था या अन्यथा हाशिए पर डाल दिया गया था। कोठा में, महिलाओं और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों ने रक्त के माध्यम से नहीं बल्कि अपनी साझा परिस्थितियों और अनुभवों के माध्यम से एक पारिवारिक बंधन बनाते थे। वास्तव में, ये कोठा भारत के विभिन्न शहरों में बिखरे हुए थे, जिनमें से प्रत्येक का अपना अलग चरित्र और प्रतिष्ठा थी। सबसे प्रसिद्ध कोठों में से एक कोलकाता के चितपुर क्षेत्र में स्थित था। सत्यजीत रे की ‘जलसाघर’ (1958) जैसी फिल्मों में कोठा एक जीवंत सांस्कृतिक केंद्र का गढ़ था जहां कथक नृत्य और शास्त्रीय संगीत की कला पनपी।22  चितपुर की संकरी गलियाँ, बाजारों से भरी हुई और जीवन से भरी हुई, कोठों के भीतर होने वाले सुरुचिपूर्ण प्रदर्शनों के बिल्कुल विपरीत थीं। इन प्रतिष्ठानों के भीतर प्रदर्शित कलात्मक उत्कृष्टता के बावजूद, व्यापक समाज द्वारा उन्हें अक्सर संदेह और तिरस्कार के साथ देखा जाता था। इसी तरह, लखनऊ शहर में, चौक क्षेत्र के कोठा नवाबों की अवधी संस्कृति के साथ अपने जुड़ाव के लिए प्रसिद्ध थे। फिल्म 'उमराव जान' में लखनऊ के कोठों की जटिल और समृद्ध दुनिया को दर्शाया गया है। फिल्म में इन स्थानों की भव्यता, उनके समृद्ध रूप से सजाए गए अंदरूनी हिस्सों और उनके निवासियों के परिष्कृत शिष्टाचार को खूबसूरती से चित्रित किया गया है। हालाँकि, सिनेमाई चश्मे के बाहर की वास्तविकता यह थी कि ये महिलाएं, अपने सांस्कृतिक महत्व के बावजूद, एक ऐसी दुनिया में रहती थीं जहाँ उन्हें उनके दायरे  में सम्मान और सामाजिक दायरे में बहिष्कृत किया जाता था।

कोठा, जहाँ तवायफ़ों का जीवन चलता था, एक ऐसा स्थान था जहाँ इनकी आर्थिक निर्भरता नवाबों और जमीदारों पर रहती थीं। बड़े बड़े कोठे इन्हीं  नवाबों और जमीदारों के लिए सजते थे। कोठा इनके लिए ऐशो-आराम और विलासिता के केंद्र थे। और इनके केंद्र में एक स्त्री होती,  जिसे तवायफ़ कहा जाता। कई नवाबों और जमींदारों के तवायफ़ों से विवाहेतर संबंध भी होते थे। लेकिन इन संबंधों को पहचान और नाम देने में कतराते थे। यह सामंती मानसिकता का प्रतीक है, जो महिलाओं को वस्तु के रूप में देखता है और उनकी कला और शरीर का उपयोग पुरुषों की सत्ता और प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए करता है। सिल्विया वाल्बी (1990) के विचार में कहें तो यह ‘पितृसत्तात्मक संरचना’ का रूप है, जहाँ पुरुषों (नवाबों  और जमींदारों) का प्रभुत्व संस्थागत रूप से कायम रहता है।23 उनका अभिनय और उनकी पहचान पुरुषों के सामाजिक और सांस्कृतिक वर्चस्व के दायरे में सीमित थी। अगर लॉरा मुलवे (1975) के विचारों के तहत देंखे तो तवायफ़ों का नवाबों और जमींदारों के समक्ष उनके पसंद के अनुरूप अभिव्यक्ति होती थी। अर्थात इनके खुशामद के लिए। इसे लॉरा मुलवे 'मेल गेज' कहती हैं।24  मतल़ब पुरूष अपने वासनाओं की  तृप्ति के लिए महिलाओं को देखना पसंद करता है। इसे इस  तरह भी कहा जा सकता है कि कोठा एक ऐसी जगह थी, जहाँ तवायफ़ें अपने दायरे में  प्रदर्शन करती थीं, लेकिन उनकी निजी स्वतंत्रता पर पुरुषों का नियंत्रण था। जैसा कि हीरामंडी में  नवाब वली मोहम्मद का संवाद है कि, ...हम नवाबों ने ही तो हीरामंडी बसाई है।

फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी (2022) में दर्शाए गए कमाठीपुरा, मुंबई के रेड-लाइट इलाके में तवायफों के जीवन के द्वंद्व पर प्रकाश डाला गया है।25  फिल्म में आलिया भट्ट द्वारा निभाई गई गंगूबाई के व्यापार में बेची गई एक कमजोर युवा लड़की से एक शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में परिवर्तन को दिखाया गया है, जो अपने समुदाय में महिलाओं के अधिकारों के लिए सम्मान और लड़ाई का आदेश देती है। जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है, कमाठीपुरा की संकीर्ण गलियाँ और भीड़-भाड़ वाले बाजार, वहाँ की महिलाओं के जीवन की कठोर वास्तविकताओं को दर्शाते हैं, जो उनके प्रदर्शन के ग्लैमराइज्ड चित्रण के साथ तेजी से विपरीत हैं। ये कोठा अक्सर भीड़भाड़ वाले शहरी क्षेत्रों में स्थित होते थे, फिर भी वे अपने लिए अलग दुनिया रहे। उनके आसपास के बाजार गतिविधि से जीवंत थे। इन कोठों में जगह पाने वाले हिजड़ों के रूप में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अक्सर मुख्यधारा के समाज में अस्वीकृति और भेदभाव का सामना करना पड़ता। कोठों  ने उन्हें एक दुर्लभ स्थान की पेशकश की जहां लिंग के कठोर द्विआधारी कम स्पष्ट थे, जिससे वे खुद को अधिक स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सकते थे। 'तमन्ना (1997)'26 और 'शबनम मौसी (2005)' 27  जैसी फिल्मों में, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के जीवन को संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया गया है, जो उनके लचीलेपन और उनके समुदायों के भीतर मिली स्वीकृति को दर्शाता है, जो अक्सर कोठों के इर्द-गिर्द केंद्रित होती है। कोठों के प्रति सामाजिक द्वंद्व के बावजूद, इन प्रतिष्ठानों ने शास्त्रीय भारतीय कलाओं, विशेष रूप से कथक नृत्य और ठुमरी संगीत को संरक्षित करने और बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन कला रूपों की अपनी गहरी समझ के साथ तवायफ़ों ने उनके अस्तित्व और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके प्रदर्शन में अभिजात वर्ग ने भाग लिया, जिन्होंने उनकी कलात्मकता की सराहना की, फिर भी यह प्रशंसा सामाजिक स्वीकृति में परिवर्तित नहीं हुई। हिंदी सिनेमा में तवायफ़ों का चित्रण महिला शरीर के  वस्तुकरण से निकटता से जुड़ा हुआ है, खासकर सांस्कृतिक प्रतीकों के रूप में पोशाक और नृत्य के उपयोग के माध्यम से। ऐतिहासिक रूप से, तवायफों को उनके संगीत और नृत्य प्रदर्शन के साथ-साथ भारतीय समाज में कला के प्रति उनके शोधन, ज्ञान और समर्थन के लिए जाना जाता था। हालाँकि, हिंदी सिनेमा में, तवायफों का चित्रण अक्सर पुरुष दर्शकों के लिए उनके शरीर के उपभोक्ताकरण के इर्द-गिर्द घूमता है, जो उनकी विस्तृत वेशभूषा और कामुक प्रदर्शनों द्वारा उजागर होता है। लौरा मुलवे (1975) इस स्थिति को अपनी प्रसिद्ध लेख 'विजुअल प्लेजर एंड नैरेटिव सिनेमा' में 'प्लेजर इन लुकिंग' की अवधारणा से समझाती हैं।28  पारंपरिक सिनेमा मुख्य रूप से मेल गेज से निर्मित होता है, जहाँ महिलाएं देखने की वस्तु (ऑब्जेक्ट) बनती हैं और पुरुष देखने वाले (सब्जेक्ट) होते हैं। मुलवे इसे 'स्कोपोफिलिया' की स्थिति कहती हैं। मुलवे का तर्क है कि 'स्कोपोफिलिया' के माध्यम से सिनेमा में महिलाओं का वस्तुकरण और उनके शारीरिक रूप का अत्यधिक महत्त्व लैंगिक असमानता को बढ़ावा देता है। तवायफ़ों के शरीर का वस्तुकरण उसकी पोशाक से शुरू होता है। फिल्मों में अलंकृत, विस्तृत पोशाकों का उपयोग उसकी इच्छा की वस्तु के रूप में स्थिति को दर्शाने के लिए किया जाता है। तवायफ़ों के कपड़े उनकी दरख्वास्त और उसकी ‘अन्यता’ के प्रतीक के रूप में कार्य करते हैं, जो दर्शाता है कि उसका शरीर न केवल कहानी के भीतर बल्कि दर्शकों के लिए भी उपभोग के लिए एक वस्तु के रूप में उपलब्ध है। कपड़ों पर यह जोर अक्सर तवायफ के शरीर के कामुकीकरण में योगदान देता है, उसकी पहचान को उसकी शारीरिक उपस्थिति तक कम कर देता है और दृश्य आनंद की वस्तु के रूप में उसकी भूमिका को मजबूत करता है। नृत्य, हिंदी सिनेमा में तवायफ के प्रदर्शन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जो उसके विपणन में और योगदान देता है। नृत्य दृश्य महत्वपूर्ण क्षण होते हैं जब तवायफ के शरीर का प्रदर्शन किया जाता है, जो मनोरंजन और आकर्षित करने की उसकी क्षमता के लिए मूल्यवान कलाकार के रूप में उसकी भूमिका को मजबूत करता है। कोरियोग्राफी, कैमरा एंगल और संगीत उसके नृत्य के कामुक पहलुओं पर जोर देने के लिए सहयोग करते हैं, जिससे उसके शरीर का एक तमाशा के रूप में उपयोग किया जाता है। यह तवायफ परंपरा में नृत्य के सांस्कृतिक महत्व के विपरीत है, जहां इसे ऐतिहासिक रूप से बौद्धिक और संगीत कौशल के साथ जुड़ा हुआ एक कला रूप माना जाता था। यतींद्र मिश्र (2019)  अपने व्याख्यान में बताते हैं कि तवायफों में मुजरा करने की दो तरह की परंपराएं थी।29  पहली खड़ी महफ़िल और दूसरी बैठकी महफ़िल। तवायफों और कोठों के बीच बैठकी की महफिलें ही ज़्यादा प्रचलित थीं, क्योंकि इसमें बैठकर ही मुजरा या कहें गीत-संगीत की अदायगी होती थी। खड़ी महफ़िलें कभी-कभी आयोजित की जाती थी, जिसमें खड़े होकर गजल की पेशगी या नृत्य किया जाता था। लेकिन सिनेमाई चित्रण ने उक्त सारे दृश्यों को बदल कर रख दिया है अब कैमरे का फोकस सिर्फ और सिर्फ कामुकता को उकसाने और बढ़ाने वाले शारीरिक अंगों पर होता है।

निष्कर्ष : हिंदी सिनेमा में तवायफ़ों का चित्रण, उनके जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं को परावर्तित कर देता है। सिनेमा में तवायफ़ों को अक्सर चमक-धमक से ओत-प्रोत और कभी-कभार शक्तिशाली पात्रों के रूप में दिखाया जाता है, जो कला और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की ऊँचाइयों को दर्शाते हैं। यह सिनेमाई चित्रण उनके वास्तविक जीवन के संघर्ष और पितृसत्तात्मक समाज में उनके स्थान को अक्सर छिपा देता है। इतिहास और राजनीति के संदर्भ में, तवायफ़ों का सामाजिक स्थिति और उनकी छवि एक गहन और जटिल विषय है। सिनेमा में उन्हें एक ओर जहाँ आदर्शीकृत और सिनेमाई भव्यता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, वहीं वास्तविकता में उनका जीवन कई कठिनाइयों और सामाजिक भेदभाव और तिरस्कार का सामना करता है। पितृसत्ता और सांस्कृतिक मानदंडों के प्रभाव से, तवायफ़ों को सामाजिक दायरे से बाहर रखा गया और उनके कला और आत्म-सम्मान को हमेशा कमतर आंका गया। इन्हें मुख्य धारा का सदस्य न मानकर बहिष्कृत सदस्य का ठप्पा चस्पा कर दिया गया है । सिनेमा के माध्यम से तवायफ़ों के जीवन की रंगीन छवियाँ और ऐतिहासिक संदर्भ एक जटिल सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को प्रकट करती हैं, जो उनके वास्तविक जीवन की कठोरता और संघर्षों की अनदेखी करती हैं। 

संदर्भ :

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चित्र साभार -
श्वेता तिवारी
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, समाजशास्त्र-विभाग, महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार

मनीष कुमार
शोधार्थी, समाजशास्त्र-विभाग, महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार

सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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