गुलज़ार : हिन्दी सिने गीतों में स्त्री-मन
- रश्मि सिंह, राजेन्द्र सिंह
शोध सार : गुलज़ार हिन्दी सिनेमा के प्रयोगधर्मी गीतकार हैं। निर्देशक बिमल रॉय की फिल्म बंदिनी (1963) के गीत `मोरा गोरा अंग लई से` से गीतकार की यात्रा प्रारंभ करते हुए गुलज़ार ने स्त्री मन की संवेदना को गीतों का प्राण बनाया। हिंदी सिनेमा की शतकीय यात्रा में संपूरन सिंह कालरा ‘गुलज़ार’ ने अपने हिस्से की बात विभिन्न रूपों में कही है। कवि, गीतकार, निर्देशक, पटकथा लेखक गुलज़ार भारतीय संस्कृति को निरंतर समृद्ध करने वाले कला मर्मज्ञ हैं। उनका लिखा गीत ‘आस्कर पुरस्कार मंच’ पर भारतवर्ष का ‘जय हो’ कहकर जयघोष करता है।
सृष्टि की विकास यात्रा स्त्री की विकास यात्रा भी है। यह यात्रा अपने भीतर अनगिनत स्वरों को समाहित करती है। जब–जब समाज अपने स्वरूप में करवट लेता है, तब–तब स्त्री भी करवट लेती है। उसके मन में कई दरवाजे हैं। खिड़कियाँ भी हैं। वह रौशनदान के सहारे बहुत मुश्किल से आकाश को देखती है। उसके हिस्से गीत हैं। उन गीतों में ही उसके प्रश्न हैं, भाव हैं, निवेदन है और चाह है। गुलज़ार अपने गीतों में स्त्री–मन को पढ़ते हैं, गढ़ते हैं और छूट रही स्त्री को संग–साथ देते हैं। हिंदी सिनेमा में स्त्री की उपस्थिति सम्यक संवाद की उपस्थिति है। विभिन्न सिने आंदोलनों का प्रभाव हिंदी फिल्मों पर पड़ता है। सामाजिक प्रगति में हिंदी सिनेमा का महत्वपूर्ण योगदान है। अपने प्रारंभिक दौर में हिंदी सिनेमा संघर्षों के साथ सृजन हेतु कृत्संकल्पित था। आदर्शवादी, यथार्थवादी हिंदी फिल्मों का निर्माण हो रहा था। धीरे–धीरे रुचि, विवेक एवं प्रस्तुति धरातल पर प्रमुख हिंदी सिने धारा का दौर आता है। इस दृष्टि से व्यावसायिक सिनेमा, समानांतर सिनेमा, कला सिनेमा, समकालीन सिनेमा महत्वपूर्ण हैं। हम सभी जानते हैं कि सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिदृश्य कला माध्यमों को प्रभावित करते हैं। हिंदी सिनेमा इससे प्रभावित होता है। आज भी हिंदी फिल्म निर्माण में यह उपस्थित है। इससे स्त्री दृष्टि प्रभावित होती है। गुलज़ार बारीकी से इस प्रभाव का निरीक्षण करते हैं। वह अपने गीतों में स्त्री को समय और समाज के समक्ष अभिव्यक्ति का साहस देते हैं। प्रस्तुत शोध पत्र गुलज़ार की सिने–गीत यात्रा को स्त्री रंग के साथ आकाश दे रहा है।
बीज शब्द : स्त्री-मुक्ति, स्त्री प्रश्न, स्त्री मनोविज्ञान, प्रयोगधर्मी, जीवन अभिव्यक्ति, समरस समाज, संवेदनशील मन, यात्रा मर्म, संग–साथ, कलाकृति, इंद्रधनुषी रंग, सम्यक संवाद आदि।
मूल आलेख : सर्जक गुलज़ार हिंदी सिनेमा के महत्वपूर्ण निर्देशक हैं। वह भाव–भूमि पर कवि, गीतकार, पटकथा लेखक, शायर आदि विभिन्न रूपों में सर्जना करते हैं। उनकी उपस्थिति भावनाओं का विस्तार है। सृष्टि अपनी सर्जना में भाव–प्रवण कलाकार को विभिन्न रंगों से नवाजती है। यह रंग उस कलाकार की सोच को विस्तार देते हैं। गुलज़ार सृष्टि की नेमत से विभूषित कलाकार हैं। गुलज़ार की आवाज़ सृजन में अटूट आस्था लिए नूर की आवाज़ है। “एक पुरकशिश आवाज़, समय को आईना बनाकर पढ़ने वाली जद्दोजहत, कविताओं की शक्ल में उतरी हुई सहल पर झुकी हुई प्रार्थना…आइए, ऐसे अदीब की ज़िन्दगी के पन्नों में उतरते हैं, कुछ सफहें पलटते हैं, कुछ बातें सुनते हैं। अपने दौर को हम इस तरह भी साहित्य और सिनेमा के एक सुखनवर की नज़र से देखते हैं…
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्तां आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!...
अभी सुलगते हैं रूह के गम, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है…”¹
गुलज़ार की यात्रा जीवन के साथ–साथ चलती प्रेरक यात्रा है। वह जीवन की प्रत्येक अनुभूति को महसूस करते हैं। उस अनुभूति को समय की भट्टी में पकाते हैं। फिर गीत, कविता, शायरी के रूप में ‘अनुभव’ को प्रस्तुत करते हैं। गुलज़ार की सर्जना का एक–एक शब्द जीवन–रंग को प्रस्तुत करता शब्द है। “मसलन, शायर का मानना है कि जिस भाप की लिखावट से वो नज़्में लिख रहे हैं, इस भाप के चूल्हे पर ढेर सारी जुबानों की हाँडियाँ रखी हुई हैं। ज़ाहिर है ज़िन्दगी के फ़लसफे से भी जो उबाल इन ज़ुबानो को मिलती है, उससे न सिर्फ़ दूसरी आवाज़ों और बोलियों की इबारतें पक रही हैं, बल्कि ज़िन्दगी ख़ुद भी उसी चूल्हे पर चढ़ी हुई, नज़्मों की आँच से धिक रही है। चूल्हे पर चढ़ी हुई ज़िन्दगी के बर्तन में ढ़ेरों मानवीय संवेदनाएँ कुछ अनूठा पकाने के लिए हर समय कुछ नया रच रही हैं।”² गुलज़ार की निर्मिती जीवन के एक–एक पन्ने के मिलने से हुई है। वह सभी अनुभवों के पन्नों की किताब है।
संपूरन सिंह कालरा ‘गुलज़ार’ का जन्म 18 अगस्त 1934 को झेलम नदी के तट पर स्थित दीना, पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ है। किसी भी मनुष्य के लिए सबसे अनमोल याद उसका बचपन है। जीवन–संघर्ष के बीज बचपन में ही रोपे जाते हैं। गुलज़ार अपने बचपन को सहेज कर रखते हैं। “बचपन याद है उन्हें। सरहद के उस पार का बचपन। झेलम जिले के दीना( अब पाकिस्तान) की वो गालियां, जो उनके होने का वजूद इस मिट्टी से तय करती थीं, सब याद है। मां सुजान कौर और पिता सरदार माखन सिंह कालरा का दुलारा ‘पुन्नी’ (सम्पूरन सिंह कालरा का पुकार का नाम) अपने नाना भाग सिंह से इकन्नी और नानी से दुअन्नी पाकर कैसे अपने बचपन के खेलों में डूबा रहता था। भाग सिंह, दीना और झेलम के बीच के पड़ोसी गाँव काला के निवासी थे। इस तरह सम्पूरन सिंह के नानी का गाँव पड़ोस में ही पड़ता था। खुद दादा जी सरदार निहाल सिंह का पैतृक गाँव ‘कुर्ला’, दीना से लगभग एक मील दूर था।”³
गुलज़ार ने वर्ली के एक गराज में बतौर मैकेनिक अपना जीवन सफर शुरू किया। जीविका हेतु पैसों की व्यवस्था होने के बाद सुकून के समय में शायरी, कविता पढ़ते हुए अपना मार्ग तलाशते रहे। गुलज़ार अपनी माँ से दूर होकर भी सबसे करीब हैं। वह माँ को कभी नहीं भूलते हैं। “उन्हें माँ का चेहरा बिल्कुल भी याद नहीं है। माँ, सुजान कौर की जब भी बात निकलती है, गुलज़ार साहब गम्भीर हो जाते हैं। अपने माज़ी को जैसे वर्तमान में जीने लगते हैं। माँ की अनुपस्थिति ज़िन्दगी में खालीपन लाती है। फिर ऐसे इंसान की ज़िन्दगी से माँ का दूर होना, जो इतने छुटपन में उन्हें छोड़कर चली गयी कि यादों का कोई सिरा ही थामने के लिए उनके बेटे के हाथ में मौजूद नहीं है। ये स्थिति इतनी तकलीफ़देह है, जिससे गुलज़ार उबरकर भी उबर नहीं पाते। बाहर निकलना चाहते हैं और बाहर आकर भी, फिर कभी उसी तलाश में खुद के भीतर चले जाते हैं।”⁴ गुलज़ार का बचपन जीवन मर्म को महसूस करने की पहली सीढ़ी है। उस सीढ़ी पर बिछड़ने का दर्द पैबस्त है। गुलज़ार यह स्वीकार करते हैं। आर्थिक निर्भरता की तलाश में मैकेनिक की भूमिका से जुड़ते हैं। लेकिन साहित्य के प्रति रुझान जिन्दा रखते हैं। तलाश की यह पीड़ा ही उनका संबल है। इस पीड़ा के साथ वह अपनी यात्रा के लिए तैयार होते हैं। “बाद में जो तरक्की आयी, वह अकेले ही गुलज़ार की ज़िन्दगी का हासिल बनी। उसमें पिता माखन सिंह और माँ सुजान कौर मौजूद नहीं थे। पिता की तस्वीर से उतरती छाया में बाप का प्रेम तो झलकता था, मगर वो तसल्ली नहीं दिखती, जो बेटे के कामयाब होने के बाद अकसर पिताओं में आ जाती है। सरदार माखन सिंह कालरा का इतना ही हासिल रहा है कि वे उन अख़बारों के संडे एडिशंस देखकर खुश होते थे, जिनमें उनके बेटे का नाम प्रकाशित होता था। इतनी भर खुशी के चलते उनके चेहरे पर आ जाने वाले सुकून को आज भी गुलज़ार साहब याद करते हुए इस अफ़सोस में डूब जाते हैं कि पिता उनकी कामयाबी देख नहीं पाये।”⁵
गुलज़ार का जीवन संघर्ष स्वयं का रास्ता बनाने का संघर्ष है। यह संघर्ष साहित्य की भूमि पर रंग बिखेरता है। इसी रंग ने उन्हें जीवन की कई भूमिकाओं के लिए तैयार किया है।
संघर्ष से उपजा मनुष्य मानवीय होने और बने रहने की यात्रा से जुड़ा रहता है। गुलज़ार ने मानवीय बने रहने की यात्रा से खुद को जोड़ते हुए सृजन प्रारंभ किया। सृजन यात्रा में गुलज़ार स्त्री–मन की ओर आकर्षित होते हैं।
निर्देशक बिमल रॉय निर्देशित फ़िल्म ‘बंदिनी’ का गुलज़ार लिखित गीत स्त्री का मन है। गुलज़ार ने उस मन को पढ़ा है–
मोरा गोरा अंग लेई ले
मोहे श्याम रंग देई दे
कुछ खो दिया है पाई के
कुछ पा लिया गंवाई के
कहाँ ले चला है मनवा
मोहे बावरी बनाई के
मोरा गोरा अंग लेई ले
मोहे श्याम रंग देई दे।
(फिल्म ‘बंदिनी’, 1963)
यह गीत स्त्री के मन का रहस्य है। वह खुद को बूझने की कोशिश कर रही है। गीत में रंगों की अदलाबदली स्त्री के मन की अदलाबदली है। प्रेम में स्त्री हड़बड़ी में होती है। वह अपने ही मन की हलचल को नहीं बूझ पाती है। एक ही समय में खोने और पाने का एहसास उसे रिक्त करता है और भरता भी है। गुलज़ार स्त्री के मन–मर्म को टटोलते हैं। ‘बावरी बनाई के’ पंक्ति स्त्री के मन का सच है।
वर्ष 1975 में गुलज़ार के निर्देशन में प्रदर्शित फिल्म ‘आँधी’ घर, समाज और राजनीति के बीच स्त्री की उपस्थिति की फिल्म है। यह फिल्म प्रेम के गुजर जाने की फिल्म है। गुजर कर भी शेष बचे प्रेम के स्वीकार्य की फिल्म है। गुलजार ने फिल्म की नायिका आरती देवी (सुचित्रा सेन) के जीवन के माध्यम से समूची व्यवस्था और स्त्री के बीच के द्वंद्व को चित्रित किया है। गीतकार के रूप में गुलजार स्त्री को समाज के समक्ष स्वीकार के मार्ग की रौशनी दिखाते हैं। स्त्री के स्वप्न का स्वीकार, उसके निर्णय का स्वागत एवं साथ- साथ चलने की गुजारिश फिल्म की सहेजने योग्य बात है। गुलजार लिखित गीत अंश में स्त्री-मन का द्वंद्व साफ-साफ परिलक्षित होता है-
"तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई
शिकवा तो नहीं, शिकवा नहीं
शिकवा नहीं शिकवा नहीं
तेरे बिना ज़िन्दगी भी लेकिन
ज़िन्दगी तो नहीं, ज़िन्दगी नहीं
ज़िन्दगी नहीं ज़िन्दगी नहीं।"⁶
वर्ष 1975 में प्रदर्शित फिल्म 'मौसम' गुलज़ार निर्देशित महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है। चंदा और कजरी (दोनों भूमिका में अभिनेत्री शर्मिला टैगोर) फिल्म के स्त्री पात्र हैं। डॉक्टर अमरनाथ गिल (संजीव कुमार) के जीवन में चंदा की उपस्थिति प्रेमिका की है। चंदा डॉक्टर अमरनाथ को पति के रूप में स्वीकार कर चुकी है। लेकिन वर्षों की प्रतीक्षा के बाद भी चंदा अकेली रह जाती है। आने का वादा देकर भी डॉक्टर अमरनाथ वापस नहीं आते हैं। जीवन के अंतिम समय में चंदा पागल होकर भी पति के आने का रास्ता देखती है। प्रेम की पूंजी के रूप में उसके पास बेटी कजरी है। कजरी चंदा के अतीत को छोड़कर शहर में अपना जीवन बनाने की कोशिश करती है। एक दिन डॉक्टर अमरनाथ का वापस आना होता है। कहानी फ्लैशबैक के रूप में चलती है। चंदा मर चुकी है। कजरी जीवन के कड़वे सच के रूप में डॉक्टर अमरनाथ को मिलती है। सेक्स वर्कर के रूप में जीवन यापन कर रही कजरी बेटी होकर भी बेटी नहीं होती। डॉक्टर अमरनाथ उसे आश्रय देते हैं। घर में रहते हुए कजरी का बदलना और वर्तमान को स्वीकारना फिल्म का सबसे जरूरी भाग है। गुलजार स्त्री-पात्रों के साथ समय की निर्ममता ज्यों की त्यों प्रस्तुत करते हैं। प्रेम जीवन में स्त्री के हिस्से प्रतीक्षा मिलती है। चंदा प्रतीक्षा करती स्त्री का प्रतीक है। पागल होकर भी प्रेमी-पति की प्रतीक्षा करती है। कजरी मां चंदा को पागलखाने नहीं भेजना चाहती है। वह कहती है-"मुझे पागलखाने में नहीं भेजना है मां को। मैं खुद इलाज करा लूंगी।"
लेकिन चंदा कभी ठीक नहीं होती। कजरी आर्थिक निर्भरता की तलाश में बाजार से जा मिलती है। फिल्म के अंतिम हिस्से में वह पिता के घर में सुरक्षित है। लेकिन जीवन का एक हिस्सा भय, असुरक्षा और निर्भरता की खोज में सच का सामना कर चुका है। आरामदायक वर्तमान मनोभावों के धरातल पर पीड़ा देता है। संबंधों की त्रासदी में चंदा और कजरी का जीवन समाप्त बीत गया है। डॉक्टर अमरनाथ द्वारा किया गया अंतिम प्रयास समाज के बदलने का संकेत है। निर्देशक की उम्मीद है। गुलज़ार ने फिल्म के गीत में स्त्री के कोमल मन को पढ़ लिया है। उसकी विवशता को शब्द दिया है-
"रुके रुके से कदम रुक के बार बार चले
करार ले के तेरे दर से बेकरार चले
सुबह ना आयी, कई बार नींद से जागे
थी एक रात की ये जिन्दगी, गुजार चले
उठाए फिरते थे एहसान दिल का सीने पर
ले तेरे कदमों में ये कर्ज भी उतार चले।"⁷
वर्ष 1987 में प्रदर्शित फिल्म ‘इजाजत’ गुलज़ार के निर्देशन एवं गीतों से सजी फिल्म है। यह फिल्म प्रेम–कविता है। फिल्म की नायिका सुधा और माया (रेखा और अनुराधा सिंह) आधुनिक हो रहे समाज के स्त्री–रंग को प्रस्तुत कर रही हैं। प्रेमिका माया बोलती है। वह अपने सामानों की लिस्ट भेजती है। उसे वापस मांगती है। फिल्म का गीत यही कहता है–
“एक सौ सोला चांद की रातें…
एक तुम्हारे कान्धे का तिल…
गीली मेहंदी की खुशबू
झूठ मूठ के शिकवे कुछ
झूठ मूठ के वादे भी सब, याद करा दो
सब भिजवा दो
मेरा वो सामान लौटा दो…
एक इजाज़त दे दो बस,
जब इसको दफनाऊंगी
मैं भी वहीं सो जाऊंगी।”⁸
फिल्म में सुधा अधिक बोलने वाली पत्नी नहीं है। वह ख़ामोशी में खुद को अभिव्यक्त करती है। उदासी को रंगने की कोशिश करती है। वह वर्तमान में घटित हो रही बातों से अनजान नहीं है। लेकिन उसे खुद पर विश्वास है। उसके पास अपने रिश्ते का साहस है। वह खुद से सवाल करती है। खुद को ही जवाब देती है। जैसे खुद को जीने के लिए तैयार कर रही है।
“माज़ी के वो पल जो दोनों ने साथ जिये थे।
कतरा–कतरा मिलती है
कतरा–कतरा जीने दो
ज़िन्दगी है
बहने दो
प्यासी हूं मैं प्यासी रहने दो… ना।”⁹
सुधा की समझदारी सर्वाधिक प्रभावित करती है। लेकिन समझदार होने और स्वीकार हेतु तैयार होने में फ़र्क है। सुधा का विश्वास डगमगाता है। जैसे वह खुद को दोष दे रही है। सुधा जोगन की तरह सितार लेकर बैठी है। कह रही है,
“खाली हाथ शाम आई है, खाली हाथ जाएगी
आज भी न आया कोई, खाली लौट जाएगी
आज भी न आये आंसू आज भी न भीगे नैना
आज भी ये कोरी रैना कोरी लौट जाएगी
ख़ाली हाथ शाम आई है, ख़ाली हाथ जाएगी।”¹⁰
गुलज़ार के गीत स्त्री को बड़े कैनवास पर रंगते हैं। रंगों का चुनाव करते समय गुलज़ार प्रकृति की ओर मुड़ते हैं। स्त्री का श्रृंगार रंग हैं। यह लोकजीवन का रंग है। “गुलज़ार पंजाबी लोक ज़ुबान के बड़े फनकार हैं और अपनी गीत–यात्रा में ढेरों ऐसे गीत लिख चुके हैं, जिनसे पंजाब की मिट्टी की सोंधी खुशबू आती है। कुछ पंक्तियाँ इसी सन्दर्भ में ‘माचिस’ की गम्भीरता को देने के लिहाज से पढ़ी जानी चाहिए–
गोरी चटकोरी जो कटोरी से खिलाती थी
जुम्मे के जुम्मे जो सुरमे लगाती थी
कच्ची मुँडेर के तले…
जूठी–जूठी मोई ने रसोई में पुकारा था
लोहे के चिमटे से लिपटे को मारा था
ओए बीबा तेरा चूल्हा जले…
चप्पा–चप्पा चरखा चले, चप्पा–चप्पा चरखा चले
औनी–पौनी यारियाँ तेरी, बौनी–बौनी बेरियों तले…।”¹¹
फिल्म ‘लेकिन’ (1990) स्त्री के मनोविज्ञान को प्रस्तुत करती फिल्म है। कभी–कभी जीवन में सबकुछ रीत जाता है। आप खाली होकर जीते हैं। बाहरी आकर्षण बरकरार रहता है लेकिन आपके अंदर हर रोज कुछ चटक कर टूटता है। उसका टूटना थोड़ा–थोड़ा शांत कराता है। और एक दिन आप जीवन के साथ बिना किसी शोर के चलने लगते हैं। लेकिन उस वक्त भी गीत साथ होते हैं। आपके भीतर–
“मैं एक सदी से बैठी हूँ
इस राह से कोई गुज़रा नहीं
कुछ चाँद के रथ तो गुज़रे थे
पर चाँद से कोई उतरा नहीं
दिन–रात के दोनों पहिए भी
कुछ धूल उड़ाकर बीत गए
मैं मन–आँगन में बैठी रही
चौखट से कोई गुज़रा नहीं
आकाश बड़ा बूढ़ा बाबा
सबको कुछ बाँट के जाता है
आँखों को निचोड़ा मैंने बहुत
पर कोई आँसू उतरा नहीं!”¹²
गुलज़ार इस फिल्म के साथ निर्देशक, पटकथा लेखक एवं गीतकार के रूप में जुड़े हैं। उनकी निर्देशकीय अभिव्यक्ति गीतों के बिना अधूरी है। जैसे उन्होंने स्त्री के मन को पढ़ लिया है। वह स्त्री के भीतर गुजरती प्रत्येक आवाज़ को सुनते हैं। सुनते हुए वह स्वयं स्त्री–मन के हो जाते हैं। दोनों का एकाकार ही गीत का सौंदर्य बनकर दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत होता है–
“जूठे नैनाँ बोलें, साची बतियाँ
नित चमकावे, चाँद, काली रतियाँ
जूठे नैनाँ बोलें…
जानू–जानू झूठे, माही की जात
किन सौतन संग तुम काटी रात
अब लिपटी–लिपटी, बताओ न बतियाँ
जूठे नैनाँ बोलें…
बोलो, बोलो, कैसी भाई सुन्दरी
जिसको दे देनी तुम मोरी मुँदरी
अब भीनी–भीनी बनाओ न बतियाँ
जूठे नैनाँ बोलें…”¹³
गुलज़ार ने अपने गीतों में स्त्री मन के रंगों को प्रस्तुत किया है। वह अपने गीतों से स्त्री की बात समाज तक अभिव्यक्त करते हैं। उसे राह देते हैं। किसी भी समाज के लिए संवाद अत्यंत आवश्यक होता है। गुलज़ार के गीतों की स्त्री समाज से संवाद कर रही है। ईमानदारी से स्वयं को प्रस्तुत कर रही है। गुलज़ार का भरोसा स्त्री–जीवन की अभिव्यक्ति में है। अपने गीतों में वह भरोसे को विस्तार देते हैं।
संदर्भ :
¹ यतीन्द्र मिश्र, गुलज़ार सा’ब हज़ार राहें मुड़ के देखीं…,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2023, पृष्ठ 1–2
² वही, पृष्ठ 24
³ वही, पृष्ठ 25
⁴ वही, पृष्ठ 26–27
⁵ वही, पृष्ठ 30
⁶ विनोद खेतान, उम्र से लम्बी सड़कों पर: गुलजार; पृष्ठ 162
⁷ वही, पृष्ठ 316
⁸ गुलज़ार, इजाज़त, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., 7/23, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली,पृष्ठ 56–57
⁹ वही,पृष्ठ 62
¹⁰ वही,पृष्ठ 74.
¹¹ यतीन्द्र मिश्र, गुलज़ार सा’ब हज़ार राहें मुड़ के देखीं…, वाणी प्रकाशन, 4695, 21–ए दरियागंज, नई दिल्ली 10002, पृष्ठ 270
¹² गुलज़ार, लेकिन, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राईवेट लिमिटेड, 7/31, अंसारी मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली–110002, पृष्ठ 58–59
¹³वही,पृष्ठ 67.
रश्मि सिंह
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार
राजेन्द्र सिंह
आचार्य, हिन्दी विभाग, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
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