प्रेमचन्द का सौन्दर्यबोध और उनके पाठक/ रेखा पाण्डेय

प्रेमचन्द का सौन्दर्यबोध और उनके पाठक
- रेखा पाण्डेय

"हर वह प्राणी सुंदर है जिसमें हम अपनी मान्यताओं के अनुरूप जीवन के वांछनीय रूपों का दर्शन करते हैं और हर वह वस्तु सुंदर है जो जीवन की अभिव्यंजना करती है या हमें उसका बोध कराती है।"1

समय और समाज के परिवर्तन के साथ कला के सौन्दर्य में भी परिवर्तन होता है। लेकिन इस पर विचार किया जाना आवश्यक है कि उस परिवर्तन की पहचान कैसे की जाए? संभवतः जब सृजनशीलता के स्वरूप और उद्देश्य में क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं तो ऐसी कलाकृतियों का निर्माण होता है जो नए मूल्यों से पूर्ण होने के साथ-साथ कुछ इस रूप में सामने आतीं हैं जिनकी कभी कोई कल्पना न की गई हो। उदाहरण के रूप में हम देख सकते हैं कि आधुनिक विज्ञान और तकनीकी के तमाम आविष्कारों के साथ-साथ कला और साहित्य में भी ऐसे परिवर्तन आए जिनकी कल्पना पहले असंभव थी। यह देर-सवेर पूरे विश्व में चल रहा था। अक्टूबर 1881 में पाब्लो पिकासो का जन्म हुआ। चित्रकला में पाब्लो ने विज्ञान और तकनीकी के तमाम प्रयोग किए उसके परिणाम स्वरुप क्यूविजम आन्दोलन का प्रारंभ हुआ। 1907 में आई पाब्लो पिकासो की कृति 'Les Demoiselles d'Avignon' ने कला और साहित्य की दुनिया में हलचल पैदा कर दी। ज्यामितीय विकृतियों एवं अफ्रीकी नकाब जैसे चेहरों से बनी इस कृति से बीसवीं सदी की कला के इतिहास में एक नई क्रांतिकारी शुरूआत हुई। ठीक उसी समय भारतीय साहित्य में प्रेमचंद का आविर्भाव हुआ, जब पूरा भारतीय समाज अनेक संघर्षों और सामाजिक परिवर्तनों से गुजर रहा था। उन्होंने उस बदलाव को पहचाना और स्वीकार किया, साथ ही साहित्य को एक नई एवं क्रांतिकारी दिशा भी प्रदान की। प्रेमचंद एक ऐसे रचनाकार हैं जिन पर आज भी चर्चा और विचार-विमर्श होता रहता है। उस चर्चा का एक कारण यही है कि प्रेमचंद के साहित्य में किसी न किसी रूप वर्तमान मौजूद है। यूँ भी कला, साहित्य या विचार की दृष्टि से जो व्यक्ति क्रांतिकारी होता है वह विवादास्पद भी होता है।

कोई रचना महत्वपूर्ण बनती है क्योंकि उसकी सौंदर्यबोधी संरचना और उसके सामाजिक प्रयोजन में परस्पर संबंध होता है। यह संबंध तो उसकी प्रासंगिकता को साबित करता ही है, उसके सौंदर्य की एक नई व्याख्या भी देता है।

प्रेमचंद एक ऐसे लेखक हैं जिन्हें आज भी सबसे अधिक पढ़ा और समझा जाता है। यदि कोई रचनाकार शताब्दियों तक प्रासंगिक रहता है, उस पर चर्चा होती है या बहस भी होती है (यदि वह सुनियोजित बहस न हो) तो वह विशेष है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए कला और साहित्य की बदलती व्याख्याओं एवं अवधारणाओं को ध्यान में रखकर ही प्रेमचंद पर भी बात की जानी चाहिए। उन्हें महान बना देने या गिरा देने की जद्दोजहद के बजाय तत्कालीन समय और समाज के बदलते मूल्यों के अनुसार साहित्य की मूल अवधारणाओं की परिवर्तनशीलता को समझने की कोशिश होनी चाहिए।

प्रेमचंद को एक कालजयी रचनाकार माना जाता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। एक रचनाकार को देखने का हर पाठक का अपना नज़रिया होता है और होना भी चाहिए। भारत में उस समय भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं थी, परंतु प्रेमचंद लोकतांत्रिक मान्यताओं को समझते थे, उसमें विश्वास रखते थे और उसका समर्थन भी कर रहे थे। वे चाहते थे कि रचनाकार किसी खंडित समाज का चित्रण न करके अपने संपूर्ण समाज को देखे और उसका चित्रण करे। कला के सौंदर्य को प्रेमचंद व्यापक रूप में देखते हैं, “हमने सूरज का उगना और डूबना देखा है, उषा और संध्या की लालिमा देखी है, सुंदर सुगंधि-भरे फूल देखे हैं, मीठी बोलियाँ बोलनेवाली चिड़ियाँ देखी हैं, कल-कल निनादनी नदियाँ देखी हैं, नाचते हुए झरने देखे हैं-यही सौंदर्य है। इन दृश्यों को देखकर हमारा अंतःकरण क्यों खिल उठता है... इसलिए कि इनमें रंग या ध्वनियों का सामंजस्य है। बाजों का स्वर-साम्य अथवा मेल ही संगीत की मोहकता का कारण है। हमारी रचना ही तत्वों के समानुपात में संयोग से हुई है। इसीलिए हमारी आत्मा सदा उसी साम्य की, सामंजस्य की खोज में रहती है। साहित्य कलाकार के अध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौंदर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं। वह हममें वफ़ादारी, सचाई, सहानुभूति, न्यायप्रियता और समता के भावों की पुष्टि करता है। जहाँ ये भाव हैं, वहीं दृढ़ता और जीवन है, जहाँ इनका अभाव है वहीं फूट, विरोध, स्वार्थपरता है- द्वेष, शत्रुता और मृत्यु है। यह विलगाव-विरोध प्रकृति के विरुद्ध आहार-विहार का चिह्न है।”2

संसार का कोई ऐसा समाज नहीं है जिसमें सिर्फ गुण अथवा सिर्फ दोष होता है। समाज की प्रत्येक इकाई गुण-दोष युक्त है। प्रेमचंद अपनी रचनाओं के माध्यम से आधुनिक विज्ञान और तकनीकी के समय की आलोचनात्मक कसौटियों को गढ़ते हुए एक बड़े सच की ओर संकेत कर रहे थे। वे जान चुके थे कि आने वाला समय सिर्फ विज्ञान और तकनीकी के विस्फोट का नहीं होगा, बल्कि बड़े-बड़े कॉर्पोरेट सेक्टर्स का होगा, भारत में निवेश करनेवाली कंपनियों का होगा, मनुष्य के स्वयं के मानसिक द्वंद्व, विरोधाभास और उनके अपने कारणों का होगा। उन्होंने 'रंगभूमि' में इस सबके चरित्र से हमे परिचित भी कराया है। उन्हें लग रहा था कि अब पुरानी शास्त्रीय अवधारणाओं से काम नहीं चलाया जा सकता। आने वाले समय के साहित्यकार को भविष्य में सेंध लगाने वाली इन संस्कृतियों को समझना होगा और पूरे यथार्थ के साथ उन्हें चित्रित भी करना होगा।

प्रेमचंद ने स्वयं अपने पाठकों को यह छूट दी है कि वह जहाँ खड़े होकर चीजों को देखना चाहे देख सके, पात्रों में अपनी मानसिक स्थितियों एवं विरोधाभासों को खोज पाए। शायद इसीलिए उनका पाठ कभी जटिल नहीं होता है। प्रत्येक पाठक उसे अपनी दृष्टि से देखता, समझता और समझा सकता है। (लेकिन आज फेसबुक का समय है, जहाँ प्रवीण और बुद्धिजीवी लोगों का राज चलता है जिसके बारे में जो फतवा ज़ारी करना है करते रहते हैं। दरअसल आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच वे प्रेमचंद के मूल पाठक को भूल जाते हैं, विशेषकर उस पाठक को जो फेसबुक की क्रांति से कोसों दूर है।)

प्रेमचंद का नायक कोई धीरोदात्त पुरुष अथवा नायिका कोई कोमलांगी स्त्री कभी नहीं रही। यदि उनके नायक बलराज, मनोहर, सूरदास, काले खाँ, होरी, हामिद, हल्कू हैं तो नायिका सुमन, जालपा, निर्मला, धनिया, घासवाली, बूढी काकी हैं, जो जीवन की समस्त विसंगतियों का सामना करते हुए अपने कर्म, संघर्ष और बलिदान से एक नए समाज और उसकी संभावना का निर्माण करती हैं। प्रेमचंद ने हिन्दी कथा साहित्य में विलासिता की जगह कर्म के सौंदर्य को महत्व दिया। ऐसा सौंदर्य है जिसे समझने के लिए उनके विराट कथा साहित्य के लघु पात्रों के चरित्र को भी सूक्ष्म किन्तु सचेत दृष्टि से देखने की आवश्कता पड़ती है। ऐसा नहीं है कि उनके यहाँ यह परिवर्तन प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद आया, बल्कि यह प्रगतिशीलता उनके यहाँ प्रारंभ से ही मौजूद है। उनकी वैचारिक दृष्टि बिलकुल साफ थी।

'गोदान' में एक स्थान पर राय साहब के घर आए सभी मेहमान शिकार खेलने जाते हैं। मालती और मेहता भी जाते हैं। मेहता एक चिड़िया का शिकार करते हैं लेकिन वह एक तेज धारवाले नाले में जा गिरती है। तभी "सहसा उन्होंने देखा, एक युवती किनारे की झोपड़ी से निकली, चिड़िया को बहते देख साड़ी जाँघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी। एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली।...... युवती का रंग था तो काला और वह भी गहरा, कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़, आभूषण के नाम पर दो मोटी चूड़ियाँ, सिर के बाल उलझे अलग-अलग। मुख-मंडल का कोई भाग ऐसा नहीं जिसे सुन्दर कहा जा सके, लेकिन उस स्वच्छ, निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पलकर उसके इतने सुडौल सुगठित और स्वच्छन्द हो रहे थे कि यौवन का चित्र खींचने के लिए उससे सुन्दर कोई रूप न मिलता।”3 मेहता मन ही मन उस लड़की से मालती की तुलना करते हैं - “एक वन-पुष्प की भाँति धूप में खिली हुई और दूसरी गमले की फूल की भांति धूप में मुरझाई और निर्जीव।”4

गोदान का वह प्रसंग पढ़ते हुए अनायास ही चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी बुद्धू का काँटा याद आती है जिसमें नदी में गिर गए रघुनाथ को भागवंती निकालती है। वहाँ पर गुलेरी जी गाँव और शहर की लड़कियों की तुलना करते हुए लिखते हैं, “गाँव की लड़कियाँ हड्डियों और गहनों का बंडल नहीं होती। वहाँ वे दौड़ती हैं, कूदती हैं, हँसती हैं, गाती हैं, खातीं हैं और पहनती हैं। नगरों में आकर वे खूंटे में बंधकर कुम्हलाती हैं, पीली पड़ जाती हैं भूखी रहती हैं, सोती हैं, रोती हैं और मर जाती हैं।”5 यह देखने की बात है कि उस समय भारत के शहर इतने विकसित न थे। न मॉडलिंग और विज्ञापन का बाजार था। फिर भी वे आने वाले समय का सबकुछ देख पा रहे थे। संभवतः गुलेरी जी और प्रेमचंद दोनों को आभास था कि आने वाले समय में गाँव वीरान होते चले जाएँगे, युवक-युवतियाँ पलायन करते जाएँगे इसलिए वे शहरीकरण और शहर के जीवन के सत्य को उद्घाटित करते हैं।

प्रेमचन्द के हर उपन्यास और कहानी में स्त्री अपने एक नए रूप में सामने आती है। एक समय ऐसा है जब 'ग़बन' की नायिका जालपा गहनों को ही जीवन की खुशी समझती है। किन्तु एक ऐसा भी समय आता है जब दया भाव से माता द्वारा भेजे गये हार को अस्वीकार कर देती है। रमा के द्वारा अन्याय से कमाये हुए धन को ठुकरा देती है। उन्हीं प्रिय गहनों को विपत्ति के दिनों में बेच देने का साहस भी रखती है परंतु किसी से उधार नहीं लेती है।

प्रेमचंद के लिए श्रम और संघर्ष मात्र लेखकीय उपयोग के शब्द नहीं हैं बल्कि मृत्यु पर्यंत उनके साथ चलनेवाले शब्द हैं। विनोद शंकर व्यास को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद ने लिखा था, "मैं चाहता हूँ वह यह कि कहानियों के पलॉट जीवन से ली जाए और हम जीवन की समस्याओं का हल तलाशने की कोशिश करें।”6 प्रेमचंद का ध्यान हमेशा जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं पर रहा- चाहें वह लोटे भर पानी का प्रश्न हो अथवा सवा सेर गेहूँ की कीमत का, चाहें वह दूध के दाम की बात हो अथवा सज्जनता के दंड की - साहित्य के खरेपन की यही कसौटी उनकी सृजनात्मकता का आधार हैं। 'सुभागी' एक बेसहारा तथा निराश्रय विधवा लड़की की कहानी है, जो कि अपने श्रम और संघर्ष से न केवल अपना जीवन सुंदर और सुखमय बनाती है, बल्कि अपने पिता द्वारा लिए कर्ज को चुकाकर उन्हें एक नया जीवन देती है। हामिद के चिमटे से कौन परिचित नहीं है।

प्रेमचंद के साहित्य-सौन्दर्य पर सोचते हुए एम. ए. के दिनों में पढ़ी एक फ्रेन्च कहानी याद आई। कहानी कुछ इस प्रकार थी- एक कारखाने के मालिक ने सोचा कि यदि कारखाने के मुख्य द्वार पर किसी मजदूर की मूर्ति लगवा दूँ तो मजदूरों के मन मेरे लिए सम्मान बढ़ेगा। उसने एक बड़े मूर्तिकार को बुलवाया और अपने मन की बात कही। मूर्तिकार मालिक के विचारों से बहुत प्रभावित हुआ। उसने पूछा आप किस मजदूर की मूर्ति बनवाना चाहते हैं? मालिक ने कहा कि मेरे लिए सभी एक जैसे हैं आप किसी की बना दें। सभी मजदूरों को सूचना दे दी गई है वे तैयार हो कर आए हैं। कारखाने में काम करनेवाले सभी मजदूर एक-एक करके आते गए और मूर्तिकार उनको देखकर बाहर भेजता गया। मूर्तिकार अंत में बताया कि उसको कोई भी मजदूर ऐसा नहीं लगा, जिसकी मूर्ति बनाई जा सके। कारखाने का मालिक बहुत दुःखी हुआ। आखिरकार सब मजदूरों को अपने-अपने काम पर भेज दिया गया। चलते समय मालिक बताने लगा कि कारखाने के अमुक हिस्से में अमुक काम होता है। मूर्तिकार की नज़रें उसके शब्दों को फॉलो कर रही थीं। एक स्थान पर कई मजदूर काम कर रहे थे। मूर्तिकार उधर ही चल पड़ा। मिल-मालिक बिना कुछ बोले उसके पीछे-पीछे चलने लगा। मूर्तिकार एकटक कहीं दूर देख रहा था। दरअसल उस कारखाने में लोहे को गलाकर चीजें बनाई जाती थी। मूर्तिकार की नजर उस मजदूर पर टिक गई जो बीच में खड़ा होकर एक ओर से गलकर गिरते लाल लोहे को फावड़े से उठाकर दूसरे नाद में डाल रहा था। मूर्तिकार ने मन ही मन कहा "आखिर वह मिल गया जिसकी मुझे तलाश थी।" उसने कागज और पेंसिल निकाला और जल्दी-जल्दी उस मजदूर का स्केच बनाने लगा। मिल-मालिक असमंजस में पड़ गया। उसने जोर से कहा यह तो वही मजदूर है जो कुछ मिनट पहले आपके सामने आया था लेकिन उस समय आपने उसकी मूर्ति बनाने से इंकार कर दिया था। मूर्तिकार हड़बड़ाया, बोला- "तब मुझे यह उतना सुन्दर नहीं लगा था।”

आज कहानी क्या याद आयी मूर्तिकार के रूप में प्रेमचन्द साकार हो उठे। प्रेमचंद के अनेक पात्र इसी सौन्दर्य की परिणति हैं? सच्चे, सरल और कर्मनिष्ठ, अपनी तरह की एक नैसर्गिक सुन्दरता से परिपूर्ण।

डॉ. रामदरश मिश्र अपने एक लेख ‘प्रेमचंद की यथार्थ चेतना’ में लिखते हैं, “प्रेमचंद के आगमन से हिंदी उपन्यास में नया युग प्रारंभ होता है। बल्कि यों कहा जाए कि वास्तविक अर्थों में उपन्यास युग आरंभ होता है। उपन्यास साहित्य की सृष्टि जिस उद्देश्य को लेकर हुई थी, उस उद्देश्य की पूर्ति प्रेमचंद के पूर्व के उपन्यासों द्वारा नहीं हुई। पश्चिम में उपन्यासों का जो विकास हो गया था, उससे भी प्रेमचंद के पहले के उपन्यासकार लाभान्वित नहीं हो सके थे। प्रेमचंद ने पहली बार उपन्यास के मौलिक क्षेत्र स्वरूप और उद्देश्य को पहचाना। पहचाना ही नहीं उसे भव्य समृद्धि प्रदान की। काफी ऊँचाई तक ले गए।”7

फ्रांस के प्रसिद्ध चित्रकार पॉल सिज़ान कहते हैं, “Impressionism has shown how appearance change with the lights and are affected by rapid movement.., that's not enough! We don't see things as fixed but as shifting.”8

प्रेमचंद ने कथा साहित्य जैसी विधा को चुना, उसे व्यापकता दी और उसे एक ऊँचे मक़ाम पर पहुँचाया। किसी चली आ रही परंपरा में कुछ नया करना एक मुश्किल कार्य हो सकता है। प्रेमचंद ने भाव और शिल्प दोनों स्तरों पर इस नवीनता का निर्माण किया है। जैसी सरसता से वे कहानियों की शुरुआत करते हैं उससे वे लेखक से अधिक गल्पकार नज़र आते हैं और उनका पाठक इसी पर सबसे अधिक मुग्ध होता है। वे हवा में तैरते शब्दों को कैसे पकड़ते हैं! उनकी कहानियाँ ‘अपने कहन के कारण’ अन्य लेखकों से बिल्कुल अलग नज़र आती हैं। 'सवा सेर गेहूँ' की शुरुआत इस प्रकार होती है- "किसी गाँव में शंकर नाम का एक कुरमी किसान रहता था। सीधा-सादा गरीब आदमी था। अपने काम से काम, न किसी के लेने में न किसी के देने में छक्का-पंजा न जानता था, छल प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिन्ता न थी, ठग विद्या न जानता था, भोजन मिला खा लिया, न मिला चबेने पर काट दी, चबेना भी न मिला तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा.......।"9 (प्रेमचंद रचना संचयन पृ. 105) कितना सरल, कितना सहज है लेखन की यह कला। बिल्कुल अभिधा लेकिन अभिधा में व्यंजना कैसे आती है यह कला प्रेमचंद के यहाँ देखी जा सकती है। उन्होंने कथा-साहित्य को एक ऐसी जीवंत भाषा दी जो उनके पाठकों को हँसाती, रुलाती और दुलारती हुई चिंतन की ओर उन्मुख करती है। उनकी भाषा में मुहाबरों की महक और कहावतों का कहकहा है। उनका अंदाज़े-बयाँ, किस्सागोई, और सपटबयानी की रवानगी पाठकों को सहजता से बाँध लेती है। हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद के साहित्य का सौंदर्य मनुष्य के श्रम-संघर्ष तथा सुख-दुःख के साथ-साथ उसके ऊबड़-खाबड़ अनुभवों का सौंदर्य है, जिसे पढ़कर आज भी हमारे अंदर शक्ति एवं साहस का संचार होता है। प्रेमचंद ने साहित्य में कर्म और संघर्ष के सौंदर्य को विकसित किया।

संदर्भ :
  1. अनु. नागर नरोत्तम, बेलिंस्की, हर्जन, चर्नीशेव्स्की, दोब्रोल्युबोव, दर्शन साहित्य और आलोचना, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, 1980
  2. प्रेमचंद, कुछ विचार, डायमंड पाकेट बुक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ 15
  3. प्रेमचंद, गोदान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 1997, पृष्ठ 83-84
  4. प्रेमचंद, गोदान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 1997, पृष्ठ 84
  5. सं. साहनी भीष्म, हिन्दी कहानी संग्रह, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली.2015, पृष्ठ 06
  6. सं. मदन गोपाल, राय अमृत, प्रेमचंद चिट्ठी पत्री, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद 1962, पृष्ठ 184-185
  7. सं. मिश्र डॉ. रामदरश, गुप्त डॉ ज्ञानचंद, कथाकार प्रेमचन्द, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली.1982, पृष्ठ 03
  8. Postmodernism, Icon Books, North Road London, N7 9DP, Page 14
  9. सं. वर्मा निर्मल, गोयनका कमल किशोर, प्रेमचंद रचना संचयन, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली 2017, पृष्ठ 105

रेखा पाण्डेय
के. सं. वि. जयपुर परिसर, जयपुर
9928624777

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

  


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