- कुमार भास्कर
शोध सार :
कबीर की भक्ति का वैचारिक आधार स्तंभ नाथ-सिद्ध और मुस्लिम एकेश्वरवाद से प्रभावित रहा है। यह कहना बहुत कठिन है कि कबीर अद्वैतवादी चिंतन परंपरा को अपने भक्ति दर्शन का केंद्र मानते थें, क्योंकि उनपर सिद्ध-नाथ परंपरा के दर्शन, पद्धति और भाषा का काफी प्रभाव नजर आता है। अद्वैतवाद के निर्गुण और कबीर के निर्गुण में भेद करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं: “कबीर तात्विक दृष्टि से अद्वैतवादी नहीं थे और उनके 'निर्गुण राम' में और
वेदान्तियों
के
पारिभाषिक
'निर्गुण
ब्रह्म'
में
मौलिक
भेद
है।”(1)
कबीर
का
व्यक्तित्व
जिस
प्रकार
का
था,
उस
नजरिये
से
उनकी
वैचारिकता
में
विभिन्न
विचार
और
दर्शन
के
लिए
स्थान
था।
जिस
विचार
को
वह
अपनी
भक्ति
के
लिए
कारगर
समझते
थे,
उसको
अपनी
वैचारिकी
में
शामिल
किया
था।
कबीर
का
चिंतन
और
भक्ति
का
दर्शन
उनकी
सामाजिक-आर्थिक
स्थितियों से निर्मित
हुआ
था।
भारतीय
दर्शन
की
प्राचीन
परंपरा
में
बौद्ध
दर्शन
के
प्रभाव
को
व्यापक
तरीके
से
देखा
जा
सकता
है।
बौद्ध
परंपरा
के
संप्रदायों
से
सिद्ध-नाथ
आते
हैं।
धर्म
और
दर्शन
का
निम्न
जातियों
से
जुड़ाव
वैष्णव
दर्शन
के
साथ
धीरे-धीरे
बना
है।
विशेषकर
भक्ति
आंदोलन
के
दौरान
और
उसके
बाद
यह
प्रभाव
तेजी
से देखा जा
सकता
है।
कबीर
की
भक्ति
का
मिसाल
थोड़ा
अलग
और
खास
है।
जैसे
सूफियों
की
रचनाओं
में
भारतीय
और
मुस्लिम
संस्कृति
का
समन्वय
देख
सकते
हैं
।
इसी
प्रकार
का
सांस्कृतिक
समन्वय
का
उदाहरण
कबीर
भी
प्रस्तुत
करते
हैं।
अपने
धर्म
की
महत्ता
को
दरकिनार
करते
हुए
कबीर
जिस
प्रकार
के
समन्वकारी
रूप
को
प्रस्तुत
करते
हैं,
वह
महत्वपूर्ण
है।
उनकी
भक्ति,
स्वयं
की
मुक्ति
का
चाहत
नहीं
रखती
है,
अपितु
समाज
की
मुक्ति
में
अपनी
मुक्ति
को
देखती
है।
कबीर की भक्ति
का
स्वरूप
रहस्य,
प्रेम,
हठयोग,
अवधूत,
निरंजन
इत्यादि
प्रतीकों
से
युक्त
है।
वह
प्रतीकों
से
अपनी
भक्ति
की
दुरुहता
और
सहजता
का
द्वंद्वात्मक
ताना-बाना
तैयार
करते
हैं।
जिसकी
वजह
से
एक
आम
मनुष्य
की
तरह
कबीर
,अनुभव
से
प्रेरित
हो
कर,
समयानुसार
बदली
हुई
सोच
के
साथ
होते
हैं।
तात्पर्य
है
कि
कबीर
की
भक्ति
पद्धति
में
समय
के
साथ
परिवर्तन
भी
होता
रहा
है।
बीज शब्द :
सिद्ध,
योगी,
निरंजन,
भक्ति,
धर्म,
साधनात्मकता,
भावभक्ति,
आडंबर,
निर्गुण,
आध्यात्मिकता,
मनुष्यता,
दर्शन,
सहजता
।
मूल आलेख :
कबीर
की
भक्ति
पद्धति
को
समझने
के
लिए
उसे
साधनात्मक
और
भावनात्मक
भक्ति
के
दो
अलग
माध्यमों
से
समझना
होगा।
साधनात्मक
भक्ति
का
आधार
सिद्ध-नाथ
परंपरा
की
गुह्य
साधना
है।
कबीर
भक्ति
को
जटिल
साधना
मानते
थे।
इस
भक्ति
का
द्वार
अत्यंत
सूक्ष्म
है
जिसमें
सबका
प्रवेश
कर
पाना
संभव
नहीं
है:
“भगति
दुबारा
सकड़ा
राई
दसवें
भाइ
।
मन
तौ
मैंगल
है
रह्यो,
क्यूँ
करि
सकै
समाइ॥(2)
इसलिए कबीर का
साधनात्मक
भक्ति
का
तत्वदर्शन
सरल
नहीं
है।
जबकि
उनकी
भावभक्ति
सरल
है।
कबीर
के
निर्गुण
ब्रह्म
को
ज्ञान
और
प्रेम
से
अर्जित
किया
जा
सकता
है।
जब
कबीर
ज्ञान
की
बात
करते
हैं
तब
उनकी
भक्ति
सिद्ध-नाथ
परंपरा
के
साधनात्मक
भाव
से
प्रेरित
नजर
आती
है।
इसी
वजह
से
कबीर
की
वाणी
में
‘अवधूत’
शब्द
का
प्रयोग
कई
बार
आता
है।
लोक
प्रचलित
शब्दावली
साधु,सन्यासी,
योगी
इत्यादि
का
प्रभाव,
जो
उस
समय
जन
संस्कृति
का
हिस्सा
थी।
जिसमें
निरगुन
गाने
की
भी
परंपरा
रही
है।
कबीर
अपने
नजदीक
के
उसी
समाज
से
प्रभावित
होते
हैं
लेकिन
आचार्य
हजारी
प्रसाद
द्विवेदी
का
मानना
है
कि
कबीरदास
का
“अवधूत
योगी
कबीर
का
आदर्श
नहीं
हो
सकता।
यद्यपि
इन
योगियों
के
संप्रदाय
के
सिद्धों
को
ही
कबीरदास
अवधू
कहते
हैं
तथापि
वे
साधारण
योगी
और
अवधूत
के
फर्क
को
बराबर
याद
रखते
हैं।
साधारण
योगी
के
प्रति
उनके
मन
में
वैसा
आदर
का
भाव
नहीं
है
जैसा
अवधूत
के
बारे
में
है।
कभी-कभी
उन्होंने
स्पष्ट
भाषा
में
योगी
को
और
अवधूत
को
भिन्न
रूप
में
याद
किया
है।
इस
प्रकार
कबीरदास
का
अवधूत
नाथपंथी
सिद्ध
योगी
है।”(3)
कबीर निर्गुण
ईश्वर
की
आस्था
को
आयाम
देने
के
लिए
नाथ-सिद्ध
परंपरा
के
प्रभाव
को
अपनाते
हैं।
उसमें
भी
वह
सहजता
को
प्राथमिकता
देते
हैं।
उन्हें
भक्ति
के
लिए
बाह्य
आडंबरों
से
परहेज
था।
आडंबरों
का
विरोध
कबीर
की
भक्ति
और
समाज
दर्शन
का
मूल
भाव
है।
बदलाव
के
साथ
नई
दृष्टि
देने
की
क्षमता
कबीर
के
व्यक्तित्व
की
पहचान
को
बनाती
है।
इसलिए
अवधूत
की
परिकल्पना
में
कबीर
उसे
असली
योगी
मानते
हैं
जो
बाह्य
आडंबरों
की
परवाह
नहीं
करता
है।
योगी
और
अवधूत
की
जो
परिकल्पना
है,
वहाँ
कबीर
असली
योगी
उसे
मानते
हैं,जो
अपने
मन
को
ईश्वर
की
प्राप्ति
के
लिए
एकाग्रचित,
आडंबरों
को
छोड़कर,
दिन-रात
सोए
बगैर,
जो
सजग
रहता
है।
मन
में
भिक्षा
पात्र
लेकर
वाद्य
यंत्र
बजाता
है।
कबीर
यह
सब,
मन
की
अवस्था
को
भक्ति
के
लिए
सर्वोपरि
रखते
हुए
कहते
हैं:“सो
जोगी
जाकै
मन
मैं
मुद्रा,
रात
दिवस
न
करई
निद्रा॥
मन
में
आँसण
मन
मैं
रहणाँ
, मन
का
जप
तप
मन
सूँ कहणाँ। मन
मैं
षपरा
मन
मैं
सींगी,
अनहद
बेन
बजावै
रंगी।
पंच
परजारि
भसम
करि
भूका,
कहै
कबीर
सौ
लहसे
लंका॥”(4)
मुस्लिम होने के
बावजूद
कबीर
की
भक्ति
का
रूप
योगपंथियों
से
प्रभावित
होता
है।
उसके
संदर्भ
में
एक
महत्वपूर्ण
आधार
मिलता
है
कि
योगी
बनने
की
दिशा
में
सिर्फ
हिंदू
ही
नहीं
बल्कि
मुसलमान
भी
शामिल
रहे
हैं
जो
आगे
चलकर
सिर्फ
हिंदू
केंद्रित
रह
गया:-
“जार्ज
वेस्टन
ब्रिग्स
ने
अपनी
मूल्यवान
पुस्तक
‘गोरखनाथ
एण्ड
दी
कनफटा
योगिज’
में
भिन्न-भिन्न
वर्षों
की
मनुष्य-गणना
की
रिपोर्टों
से
इनकी
संख्या
का
हिसाब
बताया
है।
सन्
1891 की
मनुष्य
गणना
में
सारे
भारतवर्ष
में
योगियों
की
संख्या
214546 बताई
गई
थी।……..
यह
समझना
भूल
है
कि
केवल
हिंदुओं
में
ही
योगी
हैं।
उस
साल
की
पंजाब
की
रिपोर्ट
से
पता
चलता
है
कि
38137 योगी
मुसलमान
थे।”(5)
कबीरदास पर नाथ
मत
को
मानने
वाले
ऐसी
योगियों
की
परंपरा
का
प्रभाव
है।
योगियों में गृहस्थ
जीवन
जीने
की
भी
परंपरा
रही
है।
ऐसे
में
“कबीरदास
ऐसी
ही
किसी
गृहस्थ
योगी
जाति
के
मुसलमानी
रूप
में
पैदा
हुए
थे।”(6)
इससे यह ज्ञात
होता
है
कि
कबीर
की
भक्ति
का
सिद्धांत
कहाँ
से
संचालित
हो
रही
थी।
एकेश्वरवाद
और
निर्गुण,
योगी
और
मुस्लिम
परंपरा
का
समन्वय
कबीर
के
ईश्वर
को
तैयार
करता
है।
इसी
कड़ी
में
ईश्वर
की
साधना
का
रास्ता
‘हठयोग’
बनकर
आता
है।
हठयोग
का
सामान्य
ज्ञान
आम
लोगों
के
बीच
एक
जटिल
और
रहस्यमयी
प्रक्रिया
है।
कबीर
का
रहस्यवाद
इसी
वजह
से
दुरूह
दिखता
है।
लेकिन
कबीर
का
रहस्य
तो
साधना
पद्धति
में
सामाजिक
उपेक्षा
की
वजह
से
आया
था।
देखा
जाए
तो
सिद्धों
की
परंपरा
में
रहस्य,
उनकी
साधना
पद्धति
और
समाज
को
नए
तरीके
से
दार्शनिक
दृष्टि
देने
का
काम
किया
था।
लेकिन
आगे
चलकर,आम
जनता
पर
प्रभाव
जमाने
के
लिए
इन्होंने
तंत्र-मंत्र
का
सहारा
लिया।
इसी
दिखावे
की
वजह
से
नाथपंथ,
सिद्धों से अलग
हो
जाता
है।
जब
जातिवाद
का
भेद,
मंदिर
में
जाने
से
रोकता
है
तो,
निम्न
वर्ण
के
लिए
ईश्वर
की
साधना,
निर्गुण
भाव
से
करना
तो
स्वाभाविक
होना
ही
था।
इसलिए
कबीर
सिद्ध-नाथ
परंपरा
में
शरीर
रूपी
मंदिर
में
ईश्वर
को
खोजने
का
प्रयत्न
करते
हैं।
“जोई-जोई पिंडे, सोई ब्रह्मांडे” जो कुछ शरीर में है,वही सब ब्रह्मांड में है का नाथपंथी विचार,‘हठयोग’ की
अवधारणा से संचालित
होते
हुए
कबीर
तक
आती
है।
हठयोग
की
पद्धति
और
उसके
विकास
की
परंपरा
को
बताते
हुए
आचार्य
हजारी
प्रसाद
द्विवेदी
लिखते
हैं-
“गोरक्षनाथ
ने
जिस
हठयोग
का
उपदेश
दिया
है
वह
पुरानी
परम्परा
से
बहुत
अधिक
भिन्न
नहीं
है।
शास्त्रग्रन्थों में हठयोग साधारणतः
प्राण-निरोध-प्रधान
साधना
को
ही
कहते
हैं।
'सिद्ध
सिद्धान्त
पद्धति'
में
'ह'
का
अर्थ
सूर्य
बतलाया
गया
है
और
'ठ'
का
अर्थ
चंद्र
।
सूर्य
और
चंद्र
के
योग
को
हो
'हठयोग'
कहते
हैं-
हकारः
कथितः
सूर्यष्ठकारश्चन्द्र उच्यते ।
सूर्याचंद्रमसोर्योणात् हठयोगो निगद्यते
।।
इस
श्लोक
की
कही
हुई
बात
को
व्याख्या
नाना
भाव
से
हो
सकती
है।
ब्रह्मा-नन्द
के
मत
से
'सूर्य'
से
तात्पर्य
प्राणवायु
का
है
और
चंद्र
से
अपान
वायु
का।
इन
दोनों
का
योग
अर्थात्
प्राणायाम
से
वायु
का
निरोध
करना
ही
हठयोग
है।
दूसरी
व्याख्या
यह
है
कि
सूर्य
इड़ा
नारी
को
कहते
हैं
और
चंद्र
पिंगला
को
(हठ०
३.१५)।
इसलिये
इड़ा
और
पिंगला
नाड़ियों
को
रोककर
सुषुम्णा
मार्ग
से
प्राण
वायु
के
संचारित
करने
को
भी
हठयोग
कहते
हैं।
इस
हठयोग
को
'हठसिद्धि'
देने
वाला
कहा
गया
है।'
वस्तुतः
हठयोग
का
मूल
अर्थ
यही
जान
पड़ता
है
कि
कुछ
इस
प्रकार
अभ्यास
किया
जाता
था
जिससे
हठात्
सिद्धि
मिल
जाने
की
आशा
की
जाती
थी।”(7)
समाज से तिरस्कृत
जाति
के
लिए
ईश्वर
के
स्वरूप
की
कल्पना
किसी
विशेष
स्थान,
मूर्ति
में
न
होकर
एक
तार्किक
नजरिए
से
सर्वव्यापी
हो
जाता
है।
बौद्ध-जैन
परंपरा
में
ईश्वर
तो
नहीं
है,
शायद
इसी
वजह
से
मौर्यों
के
पतन
के
बाद
वैष्णव
धर्म
ने
बौद्ध-जैन
(गैर
ईश्वरीय)
और
भौतिकवादी
दर्शन
(सांख्य,
न्याय,
लोकायतन
इत्यादि)
को
अपदस्थ
करके
आम
जनता
के
बीच
ईश्वर
की
अलौकिकता
से
समाज
को
प्रभावित
कर
दिया
था।
आगे
चलकर
सामान्य
लोग
ईश्वर
विहीन
और
भौतिकवादी
दर्शन
से
दूर
हो
गए
क्योंकि
विकल्प
में
कई
सारे
सगुण
दर्शन
और
संस्थाएं
मौजूद
थी।
समाज
में
निर्गुण
की
प्रतिष्ठा
कुछ
इस
तरह
थी-
जैसे
संस्कृत
भाषा
की
तुलना
में
प्राकृत।
देखा
जाए
तो
भारतीय
परंपरा
में
ईश्वर
के
निर्गुण
स्वरूप
और
भौतिकवादी
दर्शन
की
भरमार
है।
जो
आगे
चलकर
इतिहास
में
कमतर
होता
चला
जाता
है
और
ईश्वर
के
सगुण
रूप
की
प्रसिद्धि
और
धर्म
विधियां
ज्यादा
प्रसिद्धि
पा
जाती
हैं।
इस
तरह
से
सगुण
ईश्वर
भक्ति
का
माध्यम
बन
जाता
है।
इन
परिस्थितियों
में
कबीर
के
निर्गुण
राम
इतने
भी
नये
नहीं
हैं।
यह
उन्होंने
इतिहास
के
समाज
बोध
से
हासिल
किया
है।
प्रोफेसर
गोपेश्वर
सिंह
इस
बात
को
रेखांकित
करते
हुए
लिखते
हैं
“कोई
तो
बात
थी
कि
वेदांत
और
अद्वैत
दर्शन
के
निर्गुण
ब्रह्म
से
सामान्य
जन
की
आध्यात्मिक
प्यास
न
बुझ
सकी
थी;
न
वह
सामान्य
जन
उस
निर्गुण
ब्रह्म
को
अपनी
जीवनी
शक्ति
बना
सका
था।
वेदांत
का
निर्गुण
ब्रह्म
दार्शनिकों
तक
सीमित
था,
जबकि
कबीर
आदि
संतों
का
निर्गुण
ब्रह्म
आन्दोलन
धर्मी
नई
चेतना
की
ठोस
आधार
भूमि
है।
वेदांत
के
निर्गुण
और
कबीर
के
निर्गुण
में
इस
अंतर
को
ध्यान
में
रखे
बिना
भक्तिकालीन
साहित्य
और
समाज
में
कबीर
के
महत्व
का
ठीक-ठीक
मूल्यांकन
नहीं
हो
सकता।”(8)
कबीर निर्गुण
के
साधनात्मक
कठिनाई
को
नाम
स्मरण
से
सरल
बनाते
हैं।
नाथ
परंपरा
में
निरंजन
का
निर्गुण
ब्रह्म
के
रूप
में
नाम
इस्तेमाल
किया
जाता
है।
जो
निर्गुण
राम
शब्द
के
समान
है।
निरंजन,
नाथों
के
यहाँ
अलग-अलग
भाव
से
इस्तेमाल
किया
जाता
है।
जिसमें
शिव
आदिनाथ
हैं।
वही
निरंजन
भी
हैं।
लेकिन
कबीर
के
निरंजन
शिव
नहीं
हैं।
कबीर
और
नाथ
पंथियों
के
यहां
निरंजन
शब्द
का
बहुत
इस्तेमाल
हुआ
है।
सामान्य
रूप
में
निरंजन
शब्द
का
प्रयोग
निर्गुण
ब्रह्म
और
कई
बार
शिव
के
वाचन
के
रूप
में
इस्तेमाल
हुआ
है।
“नाथपंथ
में
निरंजन
की
महिमा
खूब
गाई
गई
है।
हठयोगी
जब
नादानुसंधान
का
सफल
अभ्यासी
हो
जाता
है
तो
उसके
समस्त
पाप
क्षीण
हो
जाते
हैं,
उसके
चित्त
और
मारुत
निरंजन
में
लीन
हो
जाते
हैं।
सदा नादानुसंधानात् क्षीयते
पापसंचयाः
।
निरंजने
विलीयेते
निश्चितं
चित्त-मारुतौ
।हठ.
४-१०४”(9)
कबीर की साधनात्मक
भक्ति
में
ब्रह्म,
माया,
हठयोग,
ज्ञान
इत्यादि
के
विचार
भक्ति
को
तार्किक
बनाती
है।
आस्था
और
विश्वास
का
वाजिब
तर्क
विधान
कबीर
रचते
हैं।
भक्ति
सिर्फ
अपने
लिए
नहीं
है
अपितु
भक्ति
धारण
करना
है
और
मूल्य
निर्माण
की
वजह
भी
कबीर
के
यहाँ
भक्ति
से
निर्मित
होती
है।
सांसारिकता
का
भंवर
मनुष्य
को
मनुष्यता
से
दूर
करता
है।
ऐसे
में
कबीर
ज्ञान
के
माध्यम
से,
भ्रम
के
भंवर
से
निकलने
का
रास्ता
बताते
हैं।
कबीर
ने
संत
साथियों
को
संबोधित
करते
हुए
कहा
है
कि
संतो
भाई
ज्ञान
की
आंधी
आई
हुई
है
और
इस
ज्ञान
की
आंधी
ने
जो
मेरे
अंतर
मन
में
भ्रम
और
अंधकार
फैला
हुआ
है।
उन
सभी
को
इस
ज्ञान
रूपी
तूफान
ने
समस्त
भ्रम
की
पट्टी
को
उड़ा
दिया
है।
जिससे
मेरे
अंदर
किसी
भी
तरह
का
माया
बंधन
नहीं
रह
गया
है
।
माया
के
सारे
बंधन
टूट
गए
हैं।
“संतौं
भाई
आई
ग्यान
की
आँधी
रे।
भ्रम
की
टाटी
सबै
उडाँणी,
माया
रहै
न
बाँधी
॥”*10
चूंकि सच्चा ज्ञान
व्यक्ति
को
पूर्वाग्रह
से
मुक्त
और
उदार
बनाता
है।
इसी
बदलाव
की
वजह
से,
हम
कई
लेखकों
में
देखते
हैं
कि,
जो
कवि
कभी
प्रगतिवादी
थे,
वही
आगे
चलकर
प्रयोगवादी
और
नई
कविता
में
भी
लिख
रहे
होते
हैं।
वैचारिक
बदलाव
में
कोई
हीनता
बोध
नहीं
है।
यह
विषयगत
मामला
है।
लेकिन
विचारों
में
तब्दीली
व्यक्ति
की
संभावना
को
और
बड़ा
बनाती
है।
व्यक्तित्व
के
भीतर
का
बदलाव
उसकी
स्वीकार्यता
को
भी
दर्शाता
है।
जो
किसी
भी
समाज
में
मेल-जोल
के
भाव
को
बढ़ाने
के
लिए
अत्यंत
आवश्यक
है।
यह
कबीर
के
संदर्भ
में
सटीक
बैठता
है।
जब
कबीर
की
भक्ति
पद्धति
पर
सिद्ध-नाथ
परंपरा
का
प्रभाव
था,
तो
उस
भक्ति
का
स्वरूप;
ज्ञान
और
योग
से
ज्यादा
प्रभावित
रहा।
लेकिन
इस
भक्ति
पद्धति
की
अपनी
कुछ
जटिलताएं
थी।
संभवतः
कबीर
को
इसकी
जटिलता
का
एहसास
हुआ
हो।
ऐसे
में
कबीर
सहज
भक्ति
को
प्रधानता
देना
शुरू
करते
हैं।
यह
कबीर
की
भक्ति
का
दूसरा
स्वरूप
था।
कबीर
की
भक्ति
में
सिद्ध-नाथ
परंपरा
के
बाद
दूसरी
तरह
की
भी
भक्ति
का
समावेश
होता
है।
जिसमें
योग
परंपरा
की
कठिन
और
जटिल
भक्ति
पद्धति
की
तुलना
में
वह
सहज
किस्म
की
भक्ति
को
महत्व
देते
हैं।
सहजता
सबके
लिए
है।
गरीब-अमीर,
अवर्ण-सवर्ण,
स्त्री-पुरुष,
मनुष्य-जानवर
इत्यादि
यह
सबों
के
लिए
है।
जीवन
को
जटिल
और
खुद
को
श्रेष्ठ
बनाने
की
मानसिकता
ने
भेदभाव
की
सृष्टि
कर
दी।
इसलिए
कबीर
का
ब्रह्म
से
मिलन
अब
सहज
है:
“सहज
सहज
सबको
कहै,
सहज
न
चीन्हैं
कोइ।
जिन्ह
सहजै
हरिजी
मिलै,
सहज
कहीजै
सोइ
॥”(11)
साधनात्मकता, भक्ति का
तकनीकी
पक्ष
है
और
वहीं
भावात्मकता
भक्ति
का
हृदय
पक्ष
है।
यद्यपि
कबीर
हृदय
की
कोरी
भावुकता
से
परे,
ज्ञान
और
प्रेम
के
सामंजस्य
से
भावात्मक
भक्ति
का
रास्ता
अपनाते
हैं।
गोरखनाथ
की
परंपरा
में
योग
मार्ग
के
लिए
गुरु
की
बहुत
महिमा
की
गई
है।
उसका
प्रभाव
कबीर
के
यहाँ
भी
देखने
को
मिलता
है।
गुरु ज्ञान के
माध्यम
से
भक्ति
का
मार्ग
कबीर
प्रशस्त
करते
हैं।
वहीं
प्रेम
आराध्या
के
समीप
ले
जाता
है।
ईश्वर
से
प्रेम
होगा
लेकिन
इस
प्रेम
में
समाज
का
समन्वय
मौजूद
है।
कबीर
का
धर्म
और
जाति
उनकी
पहचान
है,
जैसा
कि
नाथ-योगी
परंपरा
में
मुस्लिम
समाज
के
लोग
भी
जुड़े
हुए
थे।
इसलिए
कबीर
भक्ति
के
माध्यम
से
भी
सांप्रदायिक
सौहार्दपरक
रूप
पेश
करते
हैं।
ईश्वर
की
साधना
में,
समता
और
समन्वय का सौहार्द
उनका
साध्य
है:
“एक
निरंजन
अलह
मेरा,
हिंदु
तुरक
दहू
नहीं
नेरा॥
राखूँ
व्रत
न
मरहम
जांनां,
तिसही
सुमिरूँ
जो
रहै
निदांनां
।
पूजा
करूँ
न
निमाज
गुजारूँ,
एक
निराकार
हिरदै
नमसकारूँ।।
नां
हज
जांउं
न
तीरथ
पूजा,
एक
पिछांणा
तौ
का
दूजा।
कहै
कबीर
भरम
सब
भागा,
एक
निरंजन
सूँ
मन
लागा॥”(12)
इसी बात के
मद्देनजर
आचार्य
हजारीप्रसाद
द्विवेदी,
नाथ-
योगी
परंपरा
के
सांप्रदायिक
सौहार्द
पर
सबूत
पेश
करते
हुए
लिखते
हैं
“यह
आश्वर्य
की
बात
ही
कही
जानी
चाहिए
कि
योगियों
और
नाथ-पंथियों
के
मध्ययुगीन
आचार-विचार
पर
प्रकाश
डालने
वाली
जितनी
भी
पोथियों
अब
तक
आविष्कृत
हुई
हैं,
उनमे
की
अधिकांश
मुसलमान
कवियों
की
लिखी
हुई
है।
"अली
राजा
का
'ज्ञानसागर,'
सैयद
सुलतान
का
'ज्ञानप्रदीप'
और
'ज्ञान-चौंतीसा',
मुहम्मद
शफी
का
'सुर
कंदिल',
सुरशिद
का
'बारामास्या'
(बारहमासा),
'योग
कलदर'
और
'सत्यज्ञानप्रदीप' के समान कोई
ग्रंथ
हिंदू
कवियो
ने
लिखा
हो,
ऐसा
हमारा
जाना
हुआ
नहीं
है'।"
अनुमान
है
कि
ये
कवि-गण
कबीरदास
की
भांति
ही
इसी
प्रकार
की
किसी
जाति
के
धर्मान्तरित
वंश
में
उत्पन्न
हुए
थे। (13)
कबीर अपनी भक्ति
के
रास्ते
से
आडंबर
और
भेदभाव
रहित
समाज
को,
बदलने
की
परिकल्पना
करते
हैं।
वह
भक्तिकाव्य
के
अन्य
काव्य
धाराओं
से
ज्यादा,
समाज
के
सद्भाव
के
लिए
यथार्थवादी
प्रयत्न
करते
नजर
आते
हैं।
भक्तकवियों
का
परिचय
देते
हुए
नाभादास
ने
भक्तमाल
में
कबीर
के
इस
सामाजिक
भक्ति
दर्शन
को
उद्घाटित
करते
हुए
लिखते
हैं:
“कबीर
कानि
राखी
नहीं
वर्णाश्रम
षटदरसनी
॥
भक्ति
बिमुख
जो
धर्म
सो
अधरम
करि
गायो।
जोग
जग्य
व्रत
दान,
भजन
बिनु
तुच्छ
दिखोयो
॥”(14)
कबीर भक्ति विमुख
धर्म
की
साधना
पद्धति
को
नकारते
हैं।
सच्ची
भक्ति
से
रहित
धर्म,
अधर्म
है। योग, यज्ञ,
व्रत,
दान,
भजन
यह
सभी
भक्त
के
सामने
तुच्छ
हैं।
कबीर
की
भक्ति
का
मूल्य
निष्काम,
आत्मसमर्पण,
अहंकार
का
त्याग,
शरणागति
इत्यादि
को
धारण
करना
है।
रामचंद्र
तिवारी
कबीर
की
भक्ति
के
महत्व
को
रेखांकित
करते
हुए
लिखते
हैं
“ कबीर
को
भक्ति-साधना
के
क्षेत्र
में
ऐसे
ही
दृढ़
निश्चयी
और
निर्भय
व्यक्ति
की
आवश्यकता
थी।
काम,
क्रोध,
लोभ,
विषय-वासना
आदि
को
जय
करके
ही
ईश्वरोन्मुख
हुआ
जा
सकता
है।
साधना
का
क्षेत्र
भी
एक
प्रकार
का
युद्ध
क्षेत्र
ही
है।
कबीर
ने
शूरवीर
को
सच्चे
साधक
का
प्रतीक
मानते
हुए
कहा
है,
कि
वह
कभी
युद्ध
भूमि
से
विमुख
नहीं
होता।
दोनों
दलों
में
सबसे
आगे
बढ़कर
युद्ध
करता
है।
उसे
मरने-जीने
की
चिंता
नहीं
होती।
कबीर खेत न
छाई
सूरिवां,
जुझे
द्वै
दल
माहि।
आसा जीवन-मरण
की,
मन
में
आनै
नाहिं
॥
ग्रन्थावली, डॉ० माताप्रसाद
गुप्त,
साखी
१०,
पृ०११५”
(15)
कबीर की भक्ति;
धर्म
प्रचार
के
लिए
उद्वेलित
नहीं
है।
वह
स्वयं
को
समाज
से
जोड़कर
भक्ति
की
प्रतिष्ठा
करते
हैं
और
सामाजिक
भक्ति
का
निर्माण
करते
हैं।
वैयक्तिकता
से
नहीं
सामूहिकता
की
भावना
से
कबीर
की
भक्ति
संचालित
होती
है।
भक्ति
के
एकांतिक
सुख,
आनंद
और
एहसास
को
कबीर
महसूस
करते
हैं।
उसे अनन्यता से
समर्पित
भक्ति
से
ही
पाया
जा
सकता
है।
लेकिन
एकांतिक
एहसास
को
सार्वजनिक
एहसास
में
कबीर
अपनी
वाणी
से
पिरोते
हैं:
“अकथ
कहाँणी
प्रेम
की,
कछु
कही
न
जाई,
गूँगे
केरी
सरकरा,
बैठे
मुसुकाई॥
भोमि
बिनाँ
अरु
बीज
बिन,
तरवर
एक
भाई।
अनॅंत
फल
प्रकासिया,
गुर
दीया
बताई।
कम
थिर
बैसि
बिछारिया,
रामहि
ल्यौ
लाई।
झूठी
अनभै
बिस्तरी
सब
थोथी
बाई॥
कहै
कबीर
सकति
कछु
नाही,
गुरु
भया
सहाई॥
आँवण
जाँणी
मिटि
गई,
मन
मनहि
समाई॥”(16)
भक्ति में प्रेम
के
स्वाद
को
जिस
तरीके
से
कबीर
बताते
हैं,
वह
बेहतरीन
है।
जब
वह
कहते
हैं
कि
भक्त
और
ईश्वर
के
प्रेम
की
जो
कहानी
है
उसके
बारे
में
कुछ
भी
कह
पाना
काफी
कठिन
है।
प्रेम
कुछ
इस
तरह
से
है
जैसे
किसी
गूंगे
व्यक्ति
को
शक्कर
दे
दिया
जाए
तो
वह
बैठे
हुए
स्वाद
लेता
है
और
मन
ही
मन
मुस्कुराता
है।
किंतु
उस
स्वाद
को
वह
किसी
को
बता
नहीं
पाता
है।
पर
महसूस
करता
है।
भक्ति
के
लिए
आवागमन
की
जो
स्थिति
है,
गुरु
उस
तक
पहुंचाने
का
सरल
रास्ता
बनाते
हैं।
भक्ति
के
रसास्वाद
को
बताने
का
यह
एक
लाज़वाब
उदाहरण
है
जो
भक्ति
के
सच्चे
स्वरूप
को
दर्शाती
है।
गुरु, ज्ञान और
प्रेम
के
माध्यम
से
कबीर
भक्ति
का
रस
उत्पन्न
करते
हैं।
कबीर
की
भक्ति
में
कोई
भेद
नहीं
है।
इसलिए
वह
दोनों
धर्मों
के
परंपरागत
मर्यादा,
संस्कार
और
संस्कृति
को
चुनौती
देते
हैं।
भक्ति
को
उन्होंने
अपने
संघर्ष
का
माध्यम
बनाया
है।
ईश्वर
के
समक्ष
दोनों
धर्म
के
प्रति
समर्पण
नवीन
भाव
से
प्रस्तुत
करते
हैं।
दुःसाध्य
भक्ति
को
एकतरफ
करते
हुए,
बगैर
किसी
लाग-लपेट
के
भौतिक
उपादानों
से
रहित
भक्ति
को
सबके
लिए
प्रस्तुत
करते
हैं।
कबीर
दोनों
धर्म
को
फटकार
लगाते
हुए,
भक्ति
की
भावात्मकता
का
तार्किक
समाजशास्त्र
निर्मित
करते
हैं
और
कहते
हैं:
“काजी
कौन
कतेब
बषांनै
।
पढ़त
पढ़त
केते
दिन
बीते,
गति
एकै
नहीं
जानें
॥
सकति
से
नेह
पकरि
करि
सुंनति,
बहु
नबदूँ
रे
भाई।
जौर
षुदाई
तुरक
मोहिं
करता,
तौ
आपै
कटि
किन
जाई॥
हौं
तौ
तुरक
किया
करि
सुंनति,
औरति
सौ
का
कहिये।
अरध
सरीरी
नारि
न
छूटै,
आधा
हिंदू
रहिये
॥
छाँड़ि
कतेब
राॅंम
कहि
काजी,
खून
करत
हौ
भारी।
पकरी
टेक
कबीर
भगति
की,
काजी
रहै
झष
मारी॥”(17)
कबीरदास जी कहते
हैं:– काजी! तुम
किस
कुरान
की
बात
करते
हो?
कितने
समय
से
तुम
धर्म
ग्रंथो
का
अध्ययन
कर
रहे
हो?
उसके
बावजूद
अब
तक
तुम
परमात्मा
के
मूल
रहस्य
को
नहीं
जान
पाए
हो।
तुम्हारा,खुदा
से
यह
प्रेम
जोर–जबरदस्ती
का
है।
लोगों
की
सुन्नत
करते
हो
अगर
मुझे
खुदा
ने
तुर्क
या
मुस्लिम
बनाता
है
तो
उसे
सुन्नत
करने
की
जरूरत
नहीं
पड़ती।
मेरे
शरीर
से
वह
हिस्सा
स्वतः
कट
कर
गिर
जाता
या
नहीं
होता
।
मुझे
सुन्नत
करके
तुमने
मुस्लिम
या
तुर्क
बना
तो
दिया
है,
लेकिन
स्त्री
के
लिए
क्या
करोगे?
उसे
तो
तुम्हें
छोड़ना
ही
पड़ेगा।
ऐसे
स्थिति
में
वह
आधी
हिंदू
रह
जाएगी।
इसलिए
तुम
परमात्मा
का
जाप
हृदय
से
करो।
धर्म
की
वजह
से
कई
बार
खून
बहा
करते
हैं।
भक्ति
के
ही
सहारे ईश्वर जल्दी
मिलेंगे,
अन्यथा
अपना
सर
पीटते
रह
जाओगे।
कुछ इसी तरह
से
हिंदु
समाज
में
होने
वाले
भेदभाव
को
देखते
हुए
कबीर
कहते
हैं:
“ऐसा भेद
बिगूचन
भारी।
बेद
कतेब
दीन
अरु
दुनियाँ,
कौन
पुरिषु
कौन
नारी।।
एक
बूंद
एकै
मल
मूतर,
एक
चाँम
एक
चाँम
एक
गूदा।
एक
जोति
थैं
सब
उतपनाँ,
कौन
बाँम्हन
कौन
सूदा॥…कहै
कबीर
एक
राँम
जपहु
रे,
हिंदू
तुरक
न
कोई
॥”(18)
इसके माध्यम से
कबीर
कहते
हैं
कि
ईश्वर
के
निर्माण
में
मनुष्यों
ने
ही
कई
प्रकार
के
भेदभाव
की
रचना
कर
डाली
है।
इसी
वजह
से
वेद
और
कुरान
में,
धर्म-संसार
तथा
नर-नारी
में
भेद
किया
जाता
है।
जबकि
सब
एक
समान
है।
सब
एक
ही
बूंद
से
उत्पन्न
हुए
हैं।
कोई
बड़ा-छोटा
नहीं,
कोई
ब्राह्मण
या
शूद्र
नहीं
है।
इस
भेद
की
वजह
से
ईश्वर
हमसे
दूर
है।
ईश्वर
के
लिए
ना
कोई
हिंदू
है
ना
तुर्क
है।
कबीर का सवाल
एकेश्वरवादी
और
सगुणवादी दोनों विचारों
से
है।
इसलिए
निर्गुण
ब्रह्म
की
रूपरेखा
क्या
है?
और
कैसी
होनी
चाहिए?
इस
सवाल
का
जवाब
और
वह
स्वयं
को
आगे
रखकर
देते
हैं
कि
कबीर
का
ब्रह्म
सर्वत्र
व्याप्त
है।
वह
असमानता
का
फर्क
नहीं
करता
है।
निर्गुण
भक्ति
ही
इसका
रास्ता
है:
“निरगुण
राँम
निरगुण
राँम
जपहु
रे
भाई,
अबिगति
की
गति
लखी
न
जाई
॥
चारि
बेद
जाको
सुमृत
पुराँनाँ
नौ
ब्याकरनाँ
मरम
न
जाँनाँ
॥
चारि
बेद
जाकै
गरड
समाँनाँ,
चरन
कवल
कँवला
नहीं
जाँनाँ
॥
कहै
कबीर
जाकै
भेदै
नाँहीं,
निज
जन
बैठे
हरि
की
छाहीं
॥”(19)
कबीर निर्गुण राम
जपने
की
बात
करते
हैं।
क्योंकि
उनका
मानना
है
कि
ईश्वर
को
देखा
नहीं
जा
सकता
है।
इसलिए
जितने
भी
धार्मिक
ग्रंथ
हैं
वे
ईश्वर
के
रहस्य
को
नहीं
जान
पाए।
जिनके
मन
में
किसी
तरह
का
दुराव-छिपाव
नहीं
है,
जिसके
मन
में
किसी
भी
तरह
का
द्वैत,भेद,
असमंज
नहीं
है।
वही
भक्त
प्रभु
की
शरण
में
बैठ
सकता
है।
कबीर,भक्त का
ईमानदार
होना
हीं
सच्चे
भक्त
की
कसौटी
मानते
हैं।
दिल
में
कुछ
और
बाहर
कुछ
का
ढोंग
रचने
वाले
कबीर
के
नजरों
में
सच्चे
भक्त
नहीं
हो
सकते
हैं।
कबीर
अपनी
ईमानदारी
को
साबित
करने
के
लिए
ईश्वर
से
तादात्म्य
स्थापित
करने
के
लिए,
अनन्यता
के
साथ,
दास्य
भक्ति
का
सहारा
लेते
हैं।
वह
दास्य
भक्ति
में
अपने
विश्वास
और
ईमानदारी
को
दर्शाने
के
लिए
खुद
को
राम
का
कुत्ता
भी
कहते
हैं-
“कबीर
कुता
राम
का,
'मुतिया
मेरा
नाउँ
।
गलै
राम
की
जेवडी,
जित
खैचे
तित
जाउँ
॥”(20)
काशी का एक
पवित्र
क्षेत्र
जो
ईश्वर
की
प्रसिद्ध
नगरी
के
रूप
में
विख्यात
रही
है।
कबीर
अपनी
मृत्यु
के
लिए
मगहर
को
चुनते
हैं।
जहाँ
शरीर
त्यागने
पर
स्वर्ग
नहीं
मिलेगा,
मगहर
को
अपवित्र
माना
जाता
था।
प्रचलित
लोक
मान्यताओं
के
बावजूद
कबीर
परंपरागत
भाव
में
बहते
नहीं
है
अपितु
तार्किक
और
चेतनशील
परंपरा
का
निर्माण
करते
हैं।
परंपरा
को
बदलने
के
लिए
कबीर
दूसरों
का
सहारा
नहीं
लेते
हैं
अपितु
स्वयं
खुद
को
आगे
करते
हैं।
जहाँ
श्रेष्ठ
नहीं,
बराबरी
को
प्रतिष्ठा
दी
जाती
है।
इसलिए
कबीर
कहते
हैं
“कहै
कबीर
सुनहु
रे
संतो,
भ्रमि
परे
जिनि
कोई॥ जसं
कासी
तस
मगहर
ऊसर
हिरदै
राम
सति
होई
॥”(21)
कबीर के यहाँ
कोई
भ्रम
की
स्थिति
नहीं
है।
उनके
लिए
काशी
और
मगहर
में
कोई
अंतर
नहीं
है।
अगर
हृदय
में
राम
है
तो
फिर
किसी
भी
धार्मिक
स्थान
जाने
की
जरूरत
नहीं। मुक्ति; हृदय
से
होगी
न
कि
स्थान
से।
इसी
वजह
से
अपने
अंतिम
समय
में
कबीर
मगहर
में
ही
रहे।
कबीर
की
भक्ति
सिर्फ
समर्पण
का
भाव
नहीं
रखती
है।
कबीर भक्ति के
माध्यम
से
सामाजिक
बदलाव
का
साहस;
मान्यताओं
को
तोड़ने
और
गढ़ने
के
लिए
करते
हैं।
भक्ति
और
साहस, कबीर की
कविता
को
ऊंचाइयों
पर
ले
जाती
है।
शिवकुमार
मिश्र
लिखते
हैं:
कबीर की ये
भक्तिपरक
बानियाँ
और
पद
उनके
इसी
सहज
साहस
का
उदाहरण
हैं,
जहाँ
वे
बिना
प्रयास
कविताई
की
जमीन
पर
पहुँच
गए
हैं,
पहुँच
ही
नहीं
गए,
दूसरे
तमाम
भक्तों
के
साथ
पहली
पांत
के
हकदार
भी
बन
गए
हैं।”(22)
भक्ति का दृष्टांत
देते
हुए
कबीर
समाज
की
कई
कु-प्रथाओं
को
तोड़ते
हैं।
लेकिन
स्त्री
संदर्भ
में
भक्ति
भाव
का
यह
उदाहरण:
“सती
बिचारी
सत
किया,
काठौं
सेज
बिछाइ।
ले
सूती
पीव
आपणा,
चहुँ
दिसि
अगनि
लगाइ॥”(23)
कबीर के प्रगतिशील
प्रतीकात्मक
बिंब
को
सीमित
और
रूढ़ीगत
कर
देता
है।
“आत्मा
रूपी
भक्त,
सती
के
समान,
साधना
रूपी
कठोर
सेज
को
बिछाकर,
उस
पर
अपने
पिया
रूपी परमात्मा के
साथ
सो
गई।
इसके
बाद
चारों
दिशाओं
से आग लगा
दिया
गया।”
भक्ति
में
भक्त
के
समर्पित
साधना
की
कठिनता
और
पीड़ा
को
बताने
के
लिए
बताया
गया
यह
उदाहरण,
स्त्री
की
वेदना
को
नजरअंदाज
करता
है।
जिस
पर
कबीर
को
सवाल
खड़े
करने
चाहिए
थे!
वह
मिसाल
बन
जाता
है।
भक्ति
के
लिए
संघर्ष
और
मृत्यु
का
भय
हटाने
का
यह
दृष्टिकोण
कबीर
की
स्त्री
विषयक
सीमाओं
को
दर्शाता
है।
कबीर
ईश्वर
को
पति
और
स्वयं
को
पत्नी
मानते
थे:
“हरि
मेरा
पीव
भाई,
हरि
मेरा
पीव,
हरि
बिन
रहि
न
सकै
मेरा
जीव
॥हरि
मेरा
पीव
मैं
हरि
की
बहुरिया,
राम
बड़े
मैं
छुटक
लहुरिया
।….अब
की
बेर
मिलन
जो
पाँऊँ,
कहै
कबीर
भौ
जलि
नहीं
आँऊँ
॥”(24)
ऐसा प्रतीत होता
है
कि
परंपरागत
पुरुषवादी
नजरिए
से
स्त्री
के
समर्पण
का
भाव,
कबीर
पर
हावी
रहा
होगा।
लाख
प्रगतिशील
विचारों
के
बावजूद
कई
बार
पुरुष
अपने
घर
में
ही
इंसाफ
नहीं
कर
पाता
है।
कुछ
इसी
तरह
से
हमारा
समाज
जो
एक
प्रेमी–प्रेमिका
के
तौर
पर
राधा–कृष्ण
की
अनन्य
प्रेम
की
भक्ति
को
मानता
है।
लेकिन
इसका
व्यावहारिक
और
यथार्थवादी
पक्ष
नजरअंदाज
करता
है।
यद्यपि
इसी
वजह
से
कबीर
भी
आरोप
मुक्त
नहीं
हो
सकते
हैं,तथापि
कबीर
की
भक्ति
तो
व्यापक
है।
लेकिन
एक
पुरुष
भक्त
के
तौर
पर
उनकी
कुछ
परंपरागत
सीमाएं
हैं।
कबीर अपने आचरण
से
भक्ति
की
नई
व्याख्या
करते
हैं।
ईश्वर
और
अल्लाह
से
परे
वैकल्पिक
ईश्वर
की
परिकल्पना
करते
हैं।
जिसके
लिए
किसी
विधि-विधान
और
कर्मकांडों
की
आवश्यकता
नहीं
है। जिसका महत्व
धर्म
की
महत्ता
से
ज्यादा
मनुष्यता
की
महत्ता
को
स्थापित
करना
है।
प्रोफेसर,हिंदी विभाग, शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
9312154532, kumarbhaskar2008@gmail.com
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