रीतिकाव्य में नायिका से इतर स्त्री का अस्तित्व
- अनुरंजनी
शोध-सार : रीतिकाव्य में बहुलता नायिकाओं की है, यह ‘सर्वविदित’ है। नायिका यानी कि मतिराम के शब्दों में – “उपजत जाहि बिलोकी कै चित्त बीच रस-भाव/ ताही बखानत नायका, जे प्रबीन कबिराव।” यानी कि जिस स्त्री को देख कर हृदय में रस(शृंगार) भाव उपजे, उसे कविगण नायिका के रूप में बखान करते हैं, लेकिन उक्त बहुलता ही सत्य है यानी नायिका के अलावा रीतिकाव्य में स्त्रियों के अन्य रूप नहीं हैं; ऐसा मानना उनकी उपस्थिति को खारिज कर देना है। रीतिकाव्य में ऐसे बहुत से कवि हैं जिनकी कविताओं में स्त्रियाँ नायिका से इतर रूप में भी उपस्थित हैं। रीतिकाल में कवियों की संख्या भी अत्यधिक है, नतीजन यहाँ कुछ ही रीतिकवियों के आधार पर स्त्री के विभिन्न रूपों को खोजने का प्रयास किया गया है, जिनमें से देव(1673-1768 ई.), मतिराम( 1627- ?), बिहारी(1595-1663 ई), प्रतापसाहि(?), बोधा(1747-1803ई.) व पद्माकर(1753-1833ई.) प्रमुख हैं।
बीज शब्द : रीतिकाव्य, नायिका, प्रोषितपतिका, नायक, सखि, दूती, संयुक्त परिवार।
मूल आलेख : रीतिकाव्य में नायिका से इतर स्त्रियों के जो विभिन्न रूप मिलते हैं, वे जिठानी, ननद, सास, भाभी, दूती व सखी के रूप में दर्ज़ हैं। उन विभिन्न रूपों पर उपयुक्त छंदों के माध्यम से विचार करने का प्रयास किया गया है तथा यह समझने की कोशिश की गई है कि उन विभिन्न उदाहरणों से स्त्री का जो रूप आ रहा है, उसमें स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं या केवल वह कुछ बिंदुओं तक ही सीमित होकर रह गया है। यहाँ से आगे कुछ छंद बतौर उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
स्त्री का जिठानी रूप –
“केलि कैं राति अघाने नहीं, दिन ही मैं लला पुनि घात लगाई ।
प्यास लगी कोउ पानी दै जाइयौ, भीतर बैठिकै बात सुनाई ।
जेठी पठाई गई दुलही हँसी, हेरी, हरे ‘मतिराम’ बुलाई।
कान्ह के बोल मैं कान न दीनो, सो गेह की देहरी पै धरि आई।।”
यह छंद संयुक्त परिवार से संबंधित है, वह भी दो सौ-तीन सौ साल पहले का संयुक्त परिवार, जहाँ पति-पत्नी का मिलना सरल नहीं था। इसलिए अपनी पत्नी से रति-क्रीड़ा की इच्छा होने के बाद भी पति को पानी माँगने का बहाना करना पड़ रहा है। इसमें जिठानी अपनी देवरानी यानी कि नई बहू से हँसी-मज़ाक के लहजे में कहती है कि जाओ, जाकर पानी दे आओ। इस छंद में जिठानी का जैसा व्यवहार सामने आ रहा वह दो-तीन संभावनाओं की ओर संकेत करता है। एक संभावना यह लगती है कि जिठानी का देवरानी के प्रति हँसमुख व्यवहार देवर के प्रति ममता के कारण हो सकता है या फिर नई-नई शादी के कारण, नई देवरानी है, इस कारण भी हो सकता है। क्योंकि प्राय: ऐसे छंद नहीं हैं जहाँ जिठानी-देवरानी के सहज संबंध भी सामने आए हों। एक छंद पद्माकर का जरूर मिलता है जिसमें देवरानी के प्रति जिठानी चिंता ज़ाहिर कर रही। वह छंद है –
“बारी बहू मुरझानी बिलोकि जिठानी करै उपचार कितीको।
त्योँ पद्माकर ऊँची उसास लखेँ मुख सास को ह्वै रह्यो फीको।
एक कहैँ इनै डीठि लगी पर भेद न कोऊ लहै दुलही को।
ह्वैकै अजान जु कान्ह सोँ कीनो सु मान भयो व है ज्यान है जी को।।”
यह एक ऐसी स्त्री का वर्णन है जो बार-बार मुरझा जा रही है और जिठानी तरह-तरह के उपचार कर रही है। इस छंद में सास भी उपस्थित है जो अपनी बहू की उक्त दशा को समझने का प्रयास कर रही है। एक कहती है कि इसे किसी की नज़र लग गई है लेकिन असली बात क्या है, यह भेद कोई नहीं जान सकी है। यह भेद क्यों नहीं खुलता है इसका जवाब अंतिम पंक्ति में है – क्योंकि वह स्त्री मान की हुई है, यानी अपने पुरुष से रूठी हुई है।
इसी तरह बोधा का एक छंद है जिसमें न सिर्फ जिठानी, बल्कि सास और ननद का भी उल्लेख मिलता है –
“खरी सासु घरी ना छमा करिहै निसिबासर त्रासनहीं मरवी।
सदा भौंहें चढ़ाये रहे ननदी यों जेठानी की तीखी सुनै जरवी।
कवि बोधा न संग तिहारी चहैं यह नाहक नेह फंदा परवी।
बड़ी आँखैं तिहारी लगैं ये लला लगि जैहें काहूँ तो कहा करवी।।”
यह छंद एक ऐसी विवाहित स्त्री की स्थिति का उल्लेख करता है जो पर-पुरुष से प्रेम का स्वीकार करने में कतरा रही है, क्योंकि वह जानती है कि उसके इस कार्य पर उसकी सास कभी क्षमा नहीं करेगी और वह दिन-रात त्रासदी में मरेगी, ननद व जिठानी भी उससे रुष्ट हो जाएँगी, उसे खरी-खोटी सुनाएँगी। इसका कारण पातिव्रत्य की अवधारणा और कुल की इज्जत से ही जुड़ी हुई लगती है। आखिर एक सास यह कैसे सहन कर सकती है कि उसकी बहू का पर-पुरुष से संबंध हो, फिर उसके बेटे का क्या होगा! यह जिठानी और ननद के लिए भी असहनीय हो सकता है; इसलिए क्रोधित हो सकती हैं लेकिन इसमें एक संकेत यह भी है कि ईर्ष्यावश उन्हें स्वीकार्य न हो क्योंकि पर-पुरुष संबंध तो उनका भी हो सकता है!
इसके अलावा एक छंद प्रतापसाहि का भी है जहाँ जिठानी के साथ ननद का उल्लेख है और दोनों का ही उस बहू से सहज संबंध नहीं है –
“ननद जिठानी अनखानी रहैं आठो जाम,
बरबस बातन बनाय बीच अरतीं ।
रचि रचि बचन अलीक बहु भाँतिन के,
करि करि अनख पिया के कान भरतीं ।
कहै परताप कैसे बसिए निकसिए क्यों,
मौन गहि रहिए तऊ न नेक टरतीं।
निज निज मंदिर में साँझ ते सबेरे दीप,
मेरे केलिमन्दिर में दीपकौ न धरती।”
इस छंद में एक ऐसी स्त्री का वर्णन है जिससे हर समय जिठानी व ननद, दोनों रुष्ट रहती हैं, बेवजह बातें बना कर क्रोध करती हैं। इसके साथ झूठी बातें गढ़ कर उसके पति के कान भर देती हैं और वह स्त्री इसी चिंता में है कि कैसे वह अपनी ससुराल में बसेगी? और वहाँ से वह जाएगी भी तो कहाँ और क्यों! इसलिए चुप भी रहती है, फिर भी उससे कोई अच्छा व्यवहार नहीं करती हैं। यह छंद स्त्री मनोविज्ञान के एक ऐसे पहलू को सामने लाता है जहाँ एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ सहज व्यवहार इसलिए नहीं रखती क्योंकि हो सकता है कि पूर्व में, जब वह नई नवेली बहू के रूप में आई हो तब उसके साथ भी बुरा व्यवहार ही किया गया हो। इसके साथ ही ननद का पक्ष भी ध्यान देने योग्य है। क्या उसके मन में यह नहीं हो सकता है कि विवाह के बाद भैया अब हम सबसे दूर होकर अपनी पत्नी के नज़दीक हो जाएँगे? इस तरह उक्त छंदों के आधार पर जिठानी, सास व ननद का व्यवहार बहू के प्रति सहज नहीं दीखता है।
सास संबंधी छंद –
“बहू दूबरी होत क्यों, यौं जब बूझ्यो सास।
ऊतर कढ़यो न बाल-मुख, ऊँचे लेत उसास।।”
इसका तात्पर्य यह है कि जब सास ने बहू से नित-नित दुबली होने का कारण जानना चाहा तो वह केवल लंबी साँस ही लेती रही, कोई उत्तर न दे सकी। यह छंद प्रोषितपतिका नायिका के उदाहरण के तहत दिया गया है, यानी एक ऐसी नायिका का उदाहरण जिसका पुरुष परदेस गया हुआ है और यहाँ नायिका लाजवश कारण नहीं बता पा रही।
“मानहु मुँह - दिखरावनी दुलहिहिँ करि अनुरागु ।
सासु सदनु, मनु ललन हूँ, सौतिनु दियौ सुहागु ।।”
अर्थात् सास ने गृह, नायक ने मन तथा सौतों ने सौभाग्य सदा के लिए दे दिया, मानो दुल्हिन को मुँह दिखाई ही में सब दे दिया। इसके साथ ही यह छंद इस ओर भी संकेत करता है कि ससुराल में घर पर बहू का अधिकार माना तो जाता है, लेकिन वह अधिकार जिसमें आर्थिक मूल्य शामिल नहीं होता, यदि ऐसा होता तो सास द्वारा घर सहित संपत्ति देने का उल्लेख भी कहीं न कहीं मिलता।
उक्त उदाहरणों के आधार पर सास का जो रूप उभर कर आता है वह भी घर तक ही सीमित रूप में है, जिसका दायित्व है घर को सुचारु ढंग से चलाना या उसका इंतजाम करना।
भाभी संबंधी छंद –
“सौति सँजोग न रोग कछु नहिँ बियोग बलवंत।
ननद होत क्योँ दूबरी लागत ललित बसंत।।”
यहाँ भाभी के मन में ननद के प्रति चिंता स्पष्ट है, वह सोचती है कि आखिर इनकी न तो सौत है न ही कोई रोग है फिर भी ननद दुबली क्यों होती जा रही है?
एक दोहा देवर-भाभी से संबंधित भी उल्लेखनीय है –
“कहति न देवर की कुबत कुल-तिय कलह डराति।
पंजर-गत मंजार-ढिग सुक ज्यौं सूकति जाति।”
अर्थात्, भाभी अपने देवर की बुरी हरकतों को कलह के डर से किसी से नहीं कहती है और जैसे सुग्गा बंद-पिंजरे के सामने बिल्ले के होने से सूखता जाता है, उसी भाँति वह भी सूखती जाती है क्योंकि बहुत मुमकिन है कि वह अगर देवर की शिकायत करे तो घर में कलह होगा, या तो भाई-भाई में, या सास-बहू में, या यदि देवरानी हो तो देवर-देवरानी में या देवरानी-जेठानी में अथवा उस स्त्री का पति अपनी पत्नी को ही डाँट-फटकार सकता है। इसकी बहुत कम संभावना है कि उस स्त्री की बात कोई समझ पाए। स्त्रियों के जीवन में आदर्श स्थिति की कल्पना की जाती है कि बहू की ननद बिल्कुल बहन जैसी होती है और देवर भाई जैसा लेकिन इन दो उदाहरणों में स्थिति ऐसी नहीं है। जहाँ पहले भी ननद का उल्लेख हुआ है, वहाँ एक भी ऐसी स्थिति नहीं मिलती है कि ननद का अपनी भाभी से सहज संबंध हो, हाँ यहाँ भाभी के मन में ननद के लिए चिंता ज़रूर मिलती है। और वहीं देवर के मामले में भी उसे तकलीफ़ ही मिल रही लेकिन वह कोशिश कर रही कि घर जुड़ा रहे। इस तरह से घर को बना कर रखने का दबाव बहू पर स्पष्ट लक्षित होता है।
दूती संबंधी छंद –
इन सबके अलावा तत्कालीन समय में दूती की बड़ी अनिवार्यता थी। तब आज जैसी स्थिति तो थी नहीं कि संदेश देना एकदम चुटकियों का काम हो। तब इस काम के लिए विशेषत: दूतियाँ रखी जाती थीं, जो निश्चित ही विश्वास योग्य रहती थीं। यहाँ दूती संबंधी एक छंद प्रस्तुत है –
“तिय के हिय के हनन कौं भयो पञ्चसर बीर।
लाल! तुम्हैं बस करन कौं रहे न तरकस तीर।।”
इस छंद में दूती नायिका की स्थिति का उल्लेख नायक से करती है।
सखी संबंधी छंद –
स्त्री के उक्त रूपों के अतिरिक्त सबसे ज्यादा उपस्थिति सखियों की है। ये सखियाँ विभिन्न संदर्भों में शामिल हैं, यहाँ से आगे उनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं –
सीख देती हुई सखी :
“दिन द्वैक तें सासुरे आई वधू मन मैं मनु लाज को बीज बयो,
कवि देव सखी के सिखाए मरू कै नह्यो हिय नाह को नहे नयो ।
चित चाउ ते चैत की चंद्रिका ओर चितै पति को चित चोरि लयो,
दुलही के बिलोचन बानन कौ ससि आजु को सान समान भयो ।।”
इस छंद में एक नववधू का उल्लेख है जो अपनी ससुराल आई है, जिसके हृदय में मायके से आते हुए ही लाज का बीजारोपन हो गया है, क्योंकि उसकी सखी ने प्रियतम के नए-नए प्रेम का ज्ञान कराया है, नई-नई क्रियाओं से अवगत कराया है ताकि वह अपने प्रियतम को रिझा सके। यहाँ इस बात पर भी ध्यान जाता है कि आज, आधुनिक समय में भी किशोर-किशोरियों के लिए ‘सेक्स-एजुकेशन’ के प्राथमिक माध्यम दोस्त ही होते हैं जिसके कारण तमाम गलत जानकारियाँ मन में बैठती हैं। रीतिकालीन समय में तो यह और पूरी तरह से दोस्तों पर ही निर्भर होता होगा, इसके दुष्परिणाम भी होते होंगे, इसकी संभावना लगती है लेकिन इससे संबंधित कोई संकेत प्राप्त नहीं हुए हैं।
इसी तरह नायिका को सजाती हुई सखियों से संबंधित छंद भी हैं –
“गौने के द्यौस सिंगारन को ‘मतिराम’ सहेलिन को गनु आयौ।
कंचन के बिछुवा पहिरावत प्यारी सखी परिहास बढ़ायौ।।
पीतम सौन समीप सदा बजै” यौं कहि कै पहिले पहिरायौ।
कामिनि कौल चलावनि कौं कर ऊँचो कियौ, पै चल्यो न चलायौ ।।”
यह उस दृश्य का निर्माण करता है जब गौने के दिन दुल्हन की सखियाँ आती हैं, उसे तैयार करती हैं। बिछिया पहनाते हुए हँसी-ठिठोली भी करती हैं कि तेरी पायल सदा पति के कानों में बजती रहे। स्त्री-पुरुष संबंध के बारे में जानकारी, हँसी-मजाक यह सबकुछ सखियाँ ही आपस में एक-दूसरे को बताती हैं, कई तरह की शिक्षा देती हैं कि लड़की को अपनी ससुराल में, खास कर अपने पति के साथ कैसे रहना चाहिए। यहाँ भी शिक्षा देने का कार्य सखियाँ ही कर रही हैं। इसके अलावा सखी सूचना दे रही हो, इसका उल्लेख भी मिलता है –
“परदेस तें प्रीतम आये री इक आइके आली सुनायी यही,
कवि देव अचानक चौंकि परी सुनतै बतियां छतियां उमही।
तब लौं पिय आंगन आइ गये धन धाइ हिये लपटाइ रही,
अंसुवा ठहरात गरो घहरात मरू करि अधिक बात कही।।”
यहाँ एक सखी नायिका को नायक के परदेस से आने की सूचना देती है जिसे सुन नायिका चौंक गई और इसी घबराहट में उसके वक्षस्थल में कंपन हुई, जब तक वह संभलती तब तक नायक आँगन में आ जाता है, जिसे देख वह उससे मिलने हृदय से जा लगती है तथा इस स्थिति में वह आधी बात भी नायक से नहीं कह पाती है, उसकी आँखें आँसुओं से भर जाती हैं।
सखी नायिका के सुख-दुख में साथ भी है –
“आड़ै दै आलै बसन जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेह-बस सखी सबै ढिग जाति।।”
यह छंद एक ऐसी नायिका का वर्णन करता है, जिसके शरीर में विरह ताप ऐसा बढ़ चुका है कि जाड़े की रात में भी गीले कपड़ों को बीच में देकर, साहस कर, स्नेह के कारण सबही सखियाँ उसके पास जाती हैं।
एक तरफ इतने गाढ़े दुख में सखियाँ ही स्त्री के साथ हैं लेकिन वहीं ऐसी स्थिति भी है कि नायिका अपनी प्रेम स्थिति सखी से छुपा भी रही है –
“मोहन लला को मन-मोहिनी बिलोकि बाल,
कसकरि राखति है उमग उमाह कौं;
सखिन की दीठि को बचाय कै निहारति है,
आनँद-प्रबाह बीच पावत न थाह कौं।
कबि ‘मतिराम’ और सब ही के देखत हूँ,
ऐसी भाँति देखति छिपावत उछाह कौं;
वेई नैन रूखे-से लगत और लोगन को,
वेई नैन लागत सनेह-भरे नाह कौं।”
यह ऐसी नायिका के बारे में है, जो नायक के साक्षात् दर्शन करने के कारण लाजवश अपने उत्साह को मन में ही रखती है तथा अन्य सखियों से दृष्टि बचाकर नायक को देखती है, उससे प्राप्त आनंद को वह थाह नहीं पाती। सब लोगों के देखते रहने पर वह कुछ इस प्रकार अपने उत्साह को छिपा कर उन्हें देखती है कि उसके नेत्रों में सखियों को रूखापन किन्तु नाथ/नायक को सरस स्नेह दृष्टिगत होता है। यह भी जटिल बात है कि आखिर छुपाने की नौबत क्यों पड़ रही है? जब सखियाँ हर स्थिति में नायिका के साथ रहती हैं फिर यहाँ लज्जा क्यों? यह कहीं न कहीं इस ओर संकेत करता है कि प्रत्येक व्यक्ति (यहाँ स्त्रियों के संदर्भ में) का निर्माण अलग सामाजिक परिस्थिति में होता है, इसलिए सखियों के साथ रिश्ता, सहजता-असहजता का सवाल भी विभिन्न सामाजिक परिस्थिति पर निर्भर करता है।
उक्त उदाहरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रीतिकाव्य में स्त्री नायिका से इतर भी उपस्थित है, लेकिन यह उपस्थिति अधिकतर घर तक ही सीमित है, मसलन सास, ननद, जिठानी, भाभी। यह चारों रूप गृहस्थ जीवन के हिस्से हैं। जितना भी उल्लेख इन संबंधों का आया है वह घर तक तो सीमित है ही साथ ही ऐसा भी प्रतीत होता है कि वे सब असुरक्षा के भाव में जी रही हैं। सास को इसकी असुरक्षा कि बहू कहीं घर की इज्जत न मिट्टी में मिला दे, जिठानी को यह असुरक्षा कि ससुराल में देवरानी का ज्यादा मान न होने लगे और कहीं राज भी उसी का न कायम हो जाए! ननद को यह भय कि भाई अपनी पत्नी के इर्द-गिर्द लगा रहेगा तो उसका मान घट जाएगा, और भाभी, यानी कि बहू, उसे इस बात की असुरक्षा कि कहीं उसके कारण ससुराल में कोई समस्या न हो, घर के संबंध न बिगड़ जाएँ।
इसके अलावा दूती व सखियों का भी वर्णन मिलता है लेकिन वे भी मुख्यत: प्रेम से संबंधित मामलों में ही शामिल रहती हैं। सबसे अधिक सखियों की उपस्थिति ही प्राप्त होती है जो नायिका को सूचना भी देती है, उसके सुख-दुख में साथ भी रहती है व नायिका का शृंगार भी करती है। इस आधार पर यही सामने आता है कि जो गृहस्थ जीवन के रिश्ते हैं वे तथा उनसे बाहर जो संबंध हैं वे सब अंतत: नायिका से ही जुड़े हुए हैं। यानी कि रीतिकाव्य में स्त्रियाँ नायिका रूप से हटकर भी अंतत: नायिकाओं के जीवन से ही संबंधित है तथा इनकी उपस्थिति का दायरा विस्तृत न होकर अत्यंत सीमित ही प्रतीत होता है। उनकी उपस्थिति की सीमितता निश्चित ही तत्कालीन परिस्थितियों से निर्मित-प्रभावित है क्योंकि तब स्त्रियों के पास उतने ‘स्पेस’ नहीं थे जिससे वे घर-गृहस्थी, प्रेम-संबंध इनसे इतर कुछ सोच पाती हों। या फिर यह भी हो सकता है कि सोचने की स्थिति तो हो लेकिन कुछ कर सकने के माहौल की अनुपलब्धता रही हो।
संदर्भ :
- मतिराम ग्रंथावली - सं. कृष्ण बिहारी मिश्र : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1964 ई., छंद सं. 5, पृ.सं. 2
- वही, छंद सं. 28, पृ.सं. 14
- पद्माकर ग्रंथावली – सं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1959 ई., छंद सं. 172, पृ.सं 116
- रीतिकाव्य संग्रह - सं. जगदीश गुप्त : ग्रन्थम प्रिंटिंग प्रेस, कानपुर, 1960, छंद सं. 20, पृ.सं. 232
- रीति – शृंगार - सं. डॉ. नगेन्द्र : साहित्य-सदन, चिरगांव, झांसी, 1972 ई. पृ. सं. 210
- मतिराम ग्रंथावली : वही, छंद सं. 115, पृ. सं. 276
- बिहारी रत्नाकर - सं. जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ : गंगा पुस्तकमाला-कार्यालय, लखनऊ, 1926 ई. दोहा सं. 288, पृ. सं.121
- पद्माकर ग्रंथावली : वही, छंद सं. 116, पृ. सं. 104
- बिहारी- रत्नाकर : वही, छंद सं.85, पृ.सं.61
- मतिराम ग्रंथावली : वही, छंद सं. 301, पृ. सं. 319
- देव और उनका भाव-विलास - डॉ. दीन दयाल : नवलोक प्रकाशन, दिल्ली, छंद सं. 20, पृ. सं. 63
- मतिराम ग्रंथावली : वही, छंद सं. 296, पृ. सं.318
- देव और उनका भाव-विलास : वही, छंद सं. 14, पृ. सं. 81
- बिहारी रत्नाकर : वही, दोहा सं. 263, पृ.सं. 119
- मतिराम ग्रंथावली : वही, छंद सं. 282, पृ. सं.14
अनुरंजनी
शोधार्थी, भारतीय भाषा विभाग, दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया
anuranjanee06@gmail.com, 7091967703
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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