शोध आलेख : सौन्दर्यबोध का दलित परिप्रेक्ष्य : आवश्यकता एवं महत्व / कुमारी मोनी

सौन्दर्यबोध का दलित परिप्रेक्ष्य : आवश्यकता एवं महत्व
- कुमारी मोनी

शोध सार : प्रस्तुत लेख सौन्दर्यबोध की दूसरी परम्परा का निरूपण करता है, जिसमें साहित्य के कलावादी अथवा भाववादी दृष्टिकोण के बरक्स प्रतिरोध के सौन्दर्यबोध को प्रतिमानीकृत किया गया है। स्थापित साहित्य में कल्पना और रूमानियत प्रमुखता पाते हैं, किन्तु दलित साहित्य अनुभव की तीखी और यथार्थ अभिव्यक्ति की बुनियाद पर खड़ा है। इस तरह इतिहास और अनुभव दलित सौन्दर्यबोध के दो महत्त्वपूर्ण आधार बनते हैं। उत्पीड़न, वर्जना और सामाजिक बहिष्करण का यथार्थ प्रतिरोध के साथ जुड़कर दलित साहित्य में आता है। इसमें जागरण और अस्मिता के प्रश्न मुख्य हैं, जिससे दलित साहित्य का आस्वादन भी बदल जाता है। दलित समुदाय दर्द और कुरूपता में सौंदर्य देखता है, यही इसकी सार्थकता है।

बीज़ शब्द : सौन्दर्यबोध, इतिहासबोध, जीवनमूल्य, यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता, कलावाद, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, श्रम सौन्दर्य, प्रतीक, बिम्ब, मिथक।

मूल आलेख : सौन्दर्यबोध मानव की वैचारिक दृष्टि है, जो उसकी सामाजिक चेतना से निर्मित होती है। साहित्य के स्वरूप निरूपण से लेकर उसके लक्ष्य, उसके प्रभाव और उसकी उद्भूति में मानव की सौन्दर्य चेतना ही गतिशील रहती है। सौन्दर्य-चेतना का बड़ा गहरा योगदान होता है किसी सभ्यता-संस्कृति के निर्माण और निर्णय में। किसी समाज के सौन्दर्यबोध में उसकी सुनिश्चित दार्शनिक व राजनीतिक दृष्टि गहराई से अंतर्निहित होती है, जैसे दलित सौन्दर्यशास्त्र अम्बेडकरवादी दर्शन और राजनीति की बुनियाद पर खड़ा है।

प्रश्न उठता है कि दलित साहित्य के लिए क्या नए सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता है? विशेष रूप से तब जब कोई नए विमर्श या साहित्य धारा सामने आए तो उसका गुण–दोष विवेचन होना आवश्यक है। इसी तरह के प्रतिमानों के माध्यम से दलित साहित्य को परखने की जरूरत है, परन्तु यह कसौटी किस प्रकार की होनी चाहिए? तथा इसका निर्माण कैसे हुआ? क्या दलित साहित्य का परंपरागत सौन्दर्यबोध के माध्यम से विवेचन करना सम्भव है? प्राचीन इतिहास के पन्नों पर दृष्टि डाले तो शौर्यगाथा में शिकारी का उकेरा हुआ चित्रण दिखाई देता है परन्तु हिरण का चित्रण नहीं मिलता, ठीक इसी तरह दुनिया के तमाम देशों में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, साहित्य, दर्शन तथा उत्पादन के आदि हिस्सों पर प्रभुत्वशाली वर्ग का वर्चस्व रहा और उसके आधार पर ही सौन्दर्यबोध का भी निर्माण हुआ। शोषित, पीड़ित, दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों आदि को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया। वर्ग, जाति तथा लिंग के विभाजन की अवधारणा विकसित की गई। भारतीय समाज भी ऐसी ही व्यवस्था अनुगामी रहा है। कलात्मक सौंदर्यशास्त्र नियतिवाद या भाग्यवाद को सौन्दर्यबोध की कसौटी मानता है, इसके फलस्वरूप यदि ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में कहें तो - “पारम्परिक सौन्दर्यशास्त्र पंडित जगन्नाथ के ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’ को सूत्र की तरह दोहराता है जबकि दलित लेखकों की दृष्टि में साहित्य आचार्यों द्वारा निर्मित ‘रस’ अधूरे एवं पूर्वग्रहों से पूर्ण है। दलित साहित्य विद्रोह और नकार के संघर्ष से उपजा है। घोषित रसों के द्वारा दलित रचनाओं के इस केन्द्रीय भाव का मूल्यांकन नहीं हो सकता है।”1 अतः ऐसे साहित्य की परख केवल कलावादी दृष्टिकोण से करना उचित नहीं है, क्योंकि यह साहित्य एक लम्बी संघर्ष परंपरा का प्रतिफलन है। वह उपेक्षित, पीड़ित समुदाय की गहरी सामाजिक वेदना का साहित्य है, पीड़ा और संत्रास से उभरकर सामने आने वाले साहित्य को यदि मूल्यांकन की कसौटी पर परखते हैं, तो उसके केंद्र में अनेक घटक होते हैं। उसको मात्र साहित्य के रूप में देखना उचित नहीं है। उसके सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमान और उसके तर्क-वितर्क करने की रीति में सतर्क रहने की अपेक्षा की जाती है, क्योंकि दलित साहित्य का सौन्दर्यबोध जीवन के यथार्थ का सौन्दर्यबोध है। जयप्रकाश कर्दम की ‘धर्मग्रंथों को आग लगानी होगी’ कविता शीर्षक की इन पंक्तियों से समझ सकते हैं - झूठे हैं वे लोग जो कहते हैं/ कि देश में जातिवाद आखिरी साँसें ले रहा है/ धोखेबाज हैं वे लोग जो कहते हैं कि/ अस्पृश्यता का जनाजा निकल चुका है/……नकारना होगा वर्णित उस ईश्वर को जो कर्मानुसार फल देता है और मोक्ष भी वर्णों के अनुसार जगानी होगी शुद्ध प्रज्ञा/ ध्वस्त करने होंगे/ विषमताओं के संरक्षण।”2 यही कारण है कि दलित आलोचक और चिंतक परंपरागत प्रतिमान का विरोध करते दिखाई देते हैं। वास्तव में देखा जाय तो कलावादी दृष्टिकोण दलित साहित्य के साथ निष्पक्ष होता हुआ नज़र नहीं आता, इसीलिए दलित साहित्य के मूल्यांकन कल लिए आभिजात्य परम्परा से मुक्त होकर प्रतिमान को निर्धारित करना प्रासंगिक होगा। दलित साहित्य का सौंदर्य बोध कैसा होगा? इस पर डॉ राजेंद्र यादव का मत है कि – “जो नया सौन्दर्यशास्त्र बनेगा, वह संघर्ष से शुरू होगा, उस यातना से शुरू होगा, चाहे वह उसका रिइलाज करने अथवा उस यातना को, उसकी तकलीफ को, उसके भेद रूप को समझने के रूप में हो और उसके बाद बदलने की मानसिकता के रूप में हो, जिसे हम संघर्ष कह सकते हैं। तीसरा एक स्वप्न के रूप में होगा, हमें करना क्या है? समानान्तर सौन्दर्यशास्त्र देना है, वैकल्पिक समाज बनाना है, यह सारा संघर्ष साहित्य में भी समाज में भी।”3 अतः वर्तमान में समय में कसौटियों में परिवर्तन की आवश्यकता है। जिससे साहित्य का मूल्यांकन सही ढंग से हो और समाज के उपेक्षित समूह और साहित्यकार के साथ न्याय हो सके। साहित्य के मूल्यांकन की ये कसौटियों कुछ इस प्रकार हैं 
  1. कलाकार के अपने अनुभव ईमानदार होने चाहिए।
  2. कलाकारों के अनुभवों का सार्वजनीकरण होना चाहिए।
  3. कलाकार के अनुभव में प्रदेश की सीमा पार करने की शक्ति होनी चाहिए।
  4. कलाकार का अनुभव किसी भी काल में ताजा लगना चाहिए।”4
अर्थात् दलित साहित्य अनुभव की प्रामाणिकता पर अधिक बल देता है। वह मनुष्य के स्वतंत्रता, समानता से युक्त न्याय का पक्षधर है। दलित साहित्य मनुष्य की अस्मिता और पहचान को लेकर सजग है। मानव का जीवन मूल्य ही उसका केंद्र बिन्दु है। डॉ. शरण कुमार लिम्बाले लिखते हैं कि, “सत्यं, शिवम् और सुन्दरम् ये भेदभाव की कल्पनाएँ हैं - जिसके आधार पर आम आदमी का शोषण हुआ है। दरअसल सत्यं, शिवम् और सुन्दरम् की धारणा तो सवर्ण समाज के स्वार्थ साधन के लिए रची गयी साजिश है। उसकी व्याख्या बदलने की जरूरत है। उन्हें अधिक ऐहिक और सामाजिक करने की आवश्यकता…….. इसलिए तो मनुष्य की समता, स्वतन्त्रता, न्याय और बन्धुत्व की चर्चा होनी आवश्यक है। मेरे विचार में यही चर्चा दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय की चर्चा होगी।”5 दलित साहित्य मनुष्य को ही शिव, शक्ति, सौन्दर्य के रूप में स्वीकारता है। जैसा कि मराठी कवि ‘बाबूराव बगुल’ की कविता ‘वेदा आधी तू होताश’ से स्पष्ट होता है कि -

“वेदों से पहले तू था
वेदों के परमेश्वर से पहले तू था
पंच महाभूतो को देखकर
विराट विकराल रूप
तू व्यथित व्याकुल था………..”6
- मराठी से अनुवाद : अर्चना ढोरे

दलित साहित्य सामाजिक आंदोलन की प्रक्रिया के रूप में भी प्रसिद्ध है। इस आन्दोलन के प्रक्रिया स्वरूप दलित साहित्यकार पृथक सौन्दर्यबोध की निर्मिति करने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु इस संबंध में कुछ कलावादी आलोचक परंपरागत प्रतिमान का अनुकरण करते हुए दलित साहित्य की आलोचना करना उचित समझते हैं और नवीन सौन्दर्यबोध को प्रश्न के घेरे में खड़ा करते हैं। इस विषय में मैनेजर पाण्डेय सटीक जवाब देते हैं कि - “असल में यह चिंता केवल साहित्यिक नहीं है,.… सच बात तो यह हैं कि कला और साहित्य की दुनिया में सौन्दर्यबोधीय पसंद-नापसंद, स्वीकार-अस्वीकार, चुनाव-बहिष्कार आदि…… दलित साहित्य का आंदोलन केवल साहित्यिक आंदोलन नहीं है, वह दलित समाज के जागरण, परिवर्तन और विकास से जुड़ा आन्दोलन है।……इसलिए वह हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा के उस सौन्दर्य शास्त्र के वर्चस्व से मुक्त होना चाहता है जो संस्कृत के काव्य शास्त्र से जुड़ा है।”7 यही दलित साहित्य का अपने लिए अलग साहित्यिक मूल्यांकन पद्धति और सौन्दर्यबोध की मांग करने के पीछे सशक्त कारण है। अतः यह वास्तव में दलित साहित्य और साहित्यकार की मांग नहीं, अपितु साहित्य की अनिवार्यता प्रतीत होती है। ऐसे में नए सौन्दर्यबोध के निर्माण करने के अतिरिक्त कोई उपाय है ही नहीं। इसलिए दलित साहित्य ही नहीं सारे विमर्शवादी साहित्य अपने लिए नए सौन्दर्यबोध का निर्माण कर रहे है।

इस प्रकार दलित साहित्य हर दृष्टि से प्राचीन साहित्यिक मूल्यों से भिन्न होकर अपना विकास कर रहा है, इस साहित्य का मुख्य प्रयोजन कलात्मकता की वैभवी संस्कार दिखना नहीं है बल्कि दलित जागरण और अस्मिता के लिए सृजनात्मक आंदोलन है। वह शिष्ट साहित्य से नितान्त पृथक है, क्योंकि दलित साहित्य का पाठक वर्ग कोई मनोरंजन के साधक नहीं हैं। मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में - “दलित साहित्य खास रसिकों के लिए नहीं साधारण दलित जनता के लिए है। उसका उद्देश्य मानसिक ऐयाशी नहीं, नयी चेतना का जागरण है, इसलिए उसमें कला की जटिलताएँ नहीं, संप्रेषण की सहजता है।……. उसी तरह उस व्यवस्था से जुड़ी विचारधारा, उस विचारधारा से जुड़ी संस्कृति और उस संस्कृति से निकले साहित्य को भी अस्वीकार करता है।”8 जैसे दलित साहित्य और रचनाकार के लिए सौंदर्य के प्रतिमान और उपमाएँ भिन्न हैं। वह अपने पाठक में चेतना जागृत करता है। ओमप्रकाश बाल्मीकि की कविता, “मेरी पीढ़ी ने अपने सीने पर/खोद लिया है संघर्ष/जहाँ आँसुओं का सैलाब नहीं/ विद्रोह की चिंगारी फूटेगी/जलती झोपड़ी से उठते धुएँ में/तनी मुट्ठियाँ तुम्हारे तहखानों में/ नया इतिहास रचेंगी।”9 अर्थात् कुरूपता में सौन्दर्य और दर्द में सौन्दर्य ढूँढना दलित साहित्य सीख रहा है। वास्तव में यही सौन्दर्यबोध निर्माण की प्रक्रिया भी है। इस सन्दर्भ में डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी के मत से स्पष्ट होता है कि “आधुनिक भारतीय दलित साहित्य का सौन्दर्यबोध यही है………दलित समाज की अस्मिता, अस्तित्व, आत्मसम्मान के निमित्त उसकी अपनी शून्यता खामोशी को तोड़ती है।”10 अतः दलित साहित्य के विवेचन व विश्लेषण हेतु ऐसे प्रतिमान स्थापित करना बेहद महत्त्वपूर्ण हैं, जो वास्तव में दलित की चेतना में और उसकी आत्मा में मौजूद हो।

दलित साहित्य पर यह आक्षेप लगता है कि इस साहित्य में एकरसता है और ऐसे साहित्य से आनन्द की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसे में दलित साहित्य से आनन्द की प्राप्ति का आग्रह करना व्यर्थ है, क्योंकि दलित साहित्य रस निष्पत्ति के लिए लिखा गया साहित्य नहीं है। जयप्रकाश कर्दम के कथनानुसार - ”भूखा पेट सौन्दर्य की गहराइयों में नहीं उतर सकता।……. अपमान से पीड़ित और पेट की क्षुधा से ग्रस्त व्यक्ति को नहीं।”11 अर्थात्‌ इस साहित्य का उद्देश्य दलितों में अन्याय के बरक्स विद्रोह, नकार, क्रान्ति और प्रतिरोध का भाव उत्पन्न करना है, इसलिए दलित साहित्य की रस निष्पत्ति क्रान्ति और प्रतिरोध है न कि आनन्द। दलित साहित्य जातिवादी व्यवस्था और गुलाम के विरोध में समानता कायम करने का आह्वान है। जिसमें एक ऐसे सौन्दर्यबोध का सृजन हो जिसके अंतर्गत दलित समाज, दलित संस्कृति, चेतना, विचारधारा को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए। तभी दलित साहित्य के साथ निष्पक्ष आकलन किया जा सकेगा।

दलित साहित्य की भाषा अभिजात व परिनिष्ठित नहीं है। दलित भाषा, दलित जीवन की उपेक्षा, गरीबी, भूख, निराशा, कुंठा, संघर्ष, द्वेष, विरोध, प्रतिक्रिया इत्यादि अनुभवों से नि:सृत है। उन शब्दों में शब्दबद्ध तिरस्कृत जीवन में अभिजात सौन्दर्य की खोज करना ही गलत है। इसलिए डॉ. एन सिंह ने लिखा है कि “दलित साहित्य का शब्द सौन्दर्य प्रहार में है, सम्मोहन में नहीं। वह समाज और साहित्य में शताब्दियों से चली आ रही सड़ी-गली परम्पराओं पर बेदर्दी से चोट करता है।………. वह सिर पर पत्थर ढोने वाली मजदूर महिला को उसके अधिकारों के विषय में बतलाता है।……. यही दलित साहित्य का शिल्प सौन्दर्य है।"12 जैसा कि श्यौराज सिंह बेचैन की कविता में देख सकते हैं - “पेट भरने के लिए/ क्या क्या नहीं किया/ मैंने?/ ज्ञान की भूख थी/ मेरे साथ…….. न आ, नहीं लौटा/पुराने दर्द, काली रात”13 अर्थात जीवन के रस से सराबोर जिन्दगियों को ठूंठ के रूप में बदलती सामाजिक संरचना पर यह गहरी चोट है। दलितों को घृणित अपमानित करते रहने तथा उनके दुःख, पीड़ा का सशक्त चित्रण दलित रचनाकारों की सृजनात्मकता का विस्तार दिखाई देता है।

दलित साहित्य के माध्यम से ऐसे एक समाज को जागृत और संगठित करना है, जो अधिकतर अशिक्षित या अल्प शिक्षित है। ऐसे एक समाज की जागृति के लिए लिखे गए साहित्य की भाषा क्लिष्ट नहीं सरल और सहज होना ज़रूरी है। बजरंग बिहारी तिवारी भी लिखते हैं कि - “कल्पना के बजाय यथार्थ, स्वप्न के बजाय आकांक्षा, महामानव के बजाए उत्पीड़ित मनुष्य को प्राथमिक मानने वाले….. भाषा का परिष्कार, परिमार्जन, परिनिष्ठता की उन्हें परवाह नहीं। वे बोल चाल परक सहज, जीवन्त, अनगढ़ भाषा को तरजीह देते हैं। इस भाषा में जिंदगी का संघर्ष दर्ज होता है, अकृत्रिम उमंगों का अनुभव भी।”14

दलित रचनाकारों में सृजनात्मकता का विस्तार दिखाई देता है। दलित साहित्य में प्राकृतिक बिम्बों की प्रचुरता है। उनकी रचनाओं में बिम्बों के माध्यम से ही यथार्थ और विडम्बना पूर्ण जीवन को समझना अधिक सरल हो जाता है। कुछ इसी तरह का बिम्ब ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘धूप और अंधेरे की छाया’ में दिखाई देता है -

“इन झुग्गी झोपड़ियों में
कभी सूरज की तेज गर्म किरणें
जबरन घुस आती है,
किसी खूंखार दस्यु की तरह।”15

दलित साहित्यकार दलित जीवन को व्यक्त करने के लिए जिन प्रतीकों, बिंबों व मिथकों का प्रयोग कर रहे हैं, वे बाकी साहित्य से भिन्न हैं। क्योंकि दलित समाज के नग्न यथार्थ को, उनकी व्यथा को व्यक्त करने की क्षमता शिष्ट साहित्य के लिए प्रयुक्त शिल्प शैली या प्रतीक विधान में नहीं हैं। दलित साहित्य के चरित्र के संबंध में रमणिका जी स्पष्ट करती हैं कि “दलित साहित्य के प्रतीक भिन्न हैं, जो यथार्थ की कोख से उपजे हैं। ये प्रतीक इनके दैनिक कार्य से जुड़े हैं…… उनके अपने पुश्तैनी वाद्ययंत्र भी उनके प्रतीक हैं।”16 अतः कह सकते हैं कि दलित अपने शिल्प शैली की प्रेरणा जीवन के यथार्थ से ग्रहण करता है, इसलिए अनुभव की अभिव्यक्ति, संघर्ष का बोध ही उनका सौन्दर्य बोध है।

मिथकों की बात करें तो दलित रचनाकार अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए नए मिथकों का निर्माण कर रहे हैं या पुराने मिथकों को नए रूप में परिभाषित कर रहे हैं। जो लिखित इतिहास से भिन्न है। जैसे एकलव्य और उनकी कहानी। इतिहास में जहाँ एकलव्य की अंगूठा काटे जाना गुरुभक्ति के प्रमाण के रूप में दर्शाया है, वहीं आज दलित रचनाकार उसको एकलव्य के साथ हुए छल के रूप में दर्शाकर सच्चाई प्रकाश में ला रहे हैं। डॉ दयानंद बटोही की कविता ‘द्रोणाचार्य सुनें : उनकी परम्पराएँ सुनें’ से उद्धृत पंक्ति :

“मैं सिर्फ
द्रोण तुम्हारे रास्तों पर चले गुरु से कहता हूँ।
अब दान में अँगूठा माँगने का साहस कोई नहीं करता
प्रैक्टिकल में फेल करता है
प्रथम अगर आता हूँ तो
….…जाति गंध टाइटल में खोजता है।
वह आत्मा और मन को बेमेल करता है।”17

इस प्रकार पहले प्रयुक्त बिम्ब हो, प्रतीक हो या मिथक, दलित रचनाकार के लिए इसका अर्थ अलग हैं। साहित्य के इतिहास में जहाँ कहीं अन्याय हुआ है। उसका वह पोल खोलकर सामने ला रहा है। साथ ही साहित्य और उसकी सौन्दर्य दृष्टि में जहाँ कहीं बदलाव की जरूरत है उसको भी बदल रहा है।

दलित साहित्य आत्मालोचन की महत्ता को स्वीकार करता है। ‘धर्म’ का विरोध करता है और ‘धम्म’ की स्थापना करता। समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की स्थापना एवं उसकी संवेदना पैदा करता है। बुद्ध, फुले और डॉ. अम्बेडकर का चिंतन और दर्शन ही दलित वैचारिकी का उत्स और उसकी प्रतिबद्धता ही उसका सौन्दर्यबोध है। लिंगभेद का विरोध करता है और स्त्री-पुरूष के सम-सहभागिता संबंध की वकालत करता है। वर्ण-सत्तावादी जाति-व्यवस्था के सभी तंत्र एवं सत्ता का विरोध तथा समूल नाश की घोषणा करता है। संप्रदायवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद और आतंकवाद, श्रमविभाजन, भूमंडलीकरण एवं बाजारवाद की पूंजीवादी मानसिकता का विरोध करता है। शिक्षा अर्थात् ज्ञान की सार्वभौमिकता की अवधारणा पर बल देता है। लोकसंस्कृति से भारतीय इतिहास लेखन की दृष्टि विकसित करता है। ऐसे में चंचल चौहान के शब्दों में कहें तो - “इस सौन्दर्यशास्त्र को सिर्फ़ दलित साहित्य की जाँच-परख के लिए गढ़ना नाकाफ़ी है, मराठी और हिन्दी के दलित लेखकों ने या उनके हमदर्दों ने अब तक जो सौन्दर्यशास्त्रीय आधार गढ़ने के प्रयास किये हैं, वे इसी मक़सद से हुए हैं। मेरी नज़र में दलित सौन्दर्यशास्त्र से दुनिया के सारे समाजों के साहित्य को नये नजरिये से देखा और आलोचित किया जा सकता है।……………..तमाम भाषाओं और समाजों के साहित्य को, चीनी साहित्य को, और फिर भारत के बहुविध साहित्य को भी इसी तरह की नजर से नये सिरे से देखा जा सकता है।”18

निष्कर्ष : सौन्दर्यबोध का निर्णय करने के लिए कोई शाश्वत नियम नहीं होता है। चेतना के अनुरूप ही सौन्दर्यबोध भी ऐतिहासिक विकास का प्रतिफलन होता है। एक ही देश में सौन्दर्यबोध पीढ़ी दर पीढ़ी बदलता रहता है। दलित साहित्य जिस ऐतिहासिक, सामाजिक चिंतन का ही परिणाम है। वह हजारों वर्षों के भारतीय समाज की सामाजिक व्यवस्था की लम्बी यात्रा के फलस्वरूप ही हुआ है। उसका सौन्दर्यबोध पूर्व पारंपरिक सौन्दर्यशास्त्र से भी भिन्न है, क्योंकि वह मानव जीवन के सौंदर्य को केंद्र में रखता है। सौंदर्यशास्त्र में रसोत्पत्ति के स्थान पर आशय और अर्थ-की गंभीरता को महत्त्व देता है। सामाजिक संबन्धों से जुड़ी रचनाधर्मिता एवं उसके प्रति सक्रियता तथा प्रतिबद्धता ही दलित साहित्य का सौन्दर्यबोध है। वह कल्पना के स्थान पर यथार्थ को महत्त्व देता है। साहित्य में जाति विहीन, वर्ग विहीन समाज, वर्ण विहीन समाज की स्थापना करना चाहता है। यही विचारधारा दलित साहित्य को व्यापक स्तर पर ले जाती है।

सन्दर्भ :
  1. ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथा संस्करण 2022, पृष्ठ 48
  2. जयप्रकाश कर्दम, ‘गूँगा नहीं था मैं’ कविता संग्रह : अमन प्रकाशन, कानपुर उत्तर प्रदेश, संस्करण 2019, पृष्ठ 66,67
  3. राजेन्द्र यादव - युद्धरत आम आदमी (सम्पा० रमणिका गुप्ता) : अंक 41 वर्ष 1998, पृ० 126
  4. शरण कुमार लिम्बाले, दलित साहित्य सौन्दर्यशास्त्र : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति संस्करण 2020, पृष्ठ 121
  5. वही पृष्ठ 120, 121
  6. बाबूराव बगुल की कविता, कंवल भारती की पुस्तक दलित साहित्य की अवधारणा से उद्धृत : बोधिसत्व प्रकाशन, उत्तर प्रदेश, संस्करण 2006, पृष्ठ 120
  7. मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और दलित दृष्टि, सं. सर्वेश कुमार मौर्य : स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2015 पृष्ठ 90-91
  8. वही पृष्ठ 90
  9. ओमप्रकाश बाल्मीकि की कविता, सदियों का संताप : गौतम बुक सेंटर, नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ 15
  10. डॉ. पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी, दलित साहित्य सृजन में सन्दर्भ : कामना प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 1999 पृष्ठ 32
  11. जयप्रकाश कर्दम, इक्कीसवीं सदी में दलित आन्दोलन साहित्य : स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2022 पृष्ठ 12-13
  12. सम्पादक डॉ. एन सिंह, दलित साहित्य : चिन्तन के विविध आयाम : श्री नटराज प्रकाशन, संस्करण 2023, भूमिका, पृष्ठ 15
  13. डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन, क्रोंच हूँ मैं (कविता संग्रह) : सहयोग प्रकाशन, दिल्ली संस्करण 1995, पृष्ठ 87
  14. बजरंग बिहारी तिवारी, दलित साहित्य : एक अन्तर्यात्रा : नवारुण प्रकाशन, उत्तर प्रदेश, संस्करण 2023 पृष्ठ 172
  15. निर्णायक भीम, अक्टूबर, 1978
  16. रमणिका गुप्ता, संपादक दलित हस्तक्षेप, ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 21
  17. डॉ दयानंद बटोही की कविता, डॉ एन सिंह की पुस्तक दलित साहित्य के प्रतिमान से उद्धृत : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति संस्करण 2014, पृष्ठ 228
  18. चंचल चौहान, साहित्य का दलित सौन्दर्यशास्त्र : राधाकृष्णन प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2024

कुमारी मोनी
शोधार्थी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उ. प्र)

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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