शोध आलेख : मायानंद मिश्र : एक विस्मृत ऐतिहासिक उपन्यासकार / निर्मल कुमार

मायानंद मिश्र : एक विस्मृत ऐतिहासिक उपन्यासकार
- निर्मल कुमार

शोध सार : हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक और पौराणिक तथ्यों को आधार बनाकर कई श्रेष्ठ रचनाकारों ने उपन्यास लिखे, एवं अपनी ऐतिहासिक रचनाओं द्वारा यथेष्ट प्रसिद्धि भी प्राप्त की। लेकिन मायानंद मिश्र इन रचनाकारों में सर्वाधिक उपेक्षित रहे। उपेक्षा का सबसे बड़ा कारण रहा उनका मैथिली साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हो जाना। हिन्दी में अनचाहे रूप से लगभग यह परंपरा चल पड़ी है कि अगर कोई रचनाकार किसी अन्य भाषा/बोली में रचना करता है तो वह उपेक्षित ही रहेगा, चाहे जितनी भी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ कर ले। सर्वाधिक प्रामाणिक और रोचक ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना करने वाले मायानंद मिश्र के साथ हिन्दी आलोचना ने न्याय नहीं किया। मायानंद मिश्र के ऐतिहासिक उपन्यास अपने तथ्य और कथ्य के सुंदर एवं समानुपातिक समन्वय में बेजोड़ हैं। “इन कृतियों में इतिहास एवं साहित्य-दोनों का मर्यादा-रक्षण निष्ठापूर्वक हुआ है। इनमें तथ्य-रक्षा के प्रति रचनाकार सदैव आग्रहशील दिखते हैं। कथा-सूत्र को जीवन्त रखने में उनके इस आग्रह का तनाव स्पष्ट दिखता है।”1 इस शोध आलेख में मायानंद मिश्र के ऊहापोह भरे रचनात्मक जीवनवृत्त पे दृष्टिपात करने के साथ-साथ उनकी विशिष्ट इतिहास दृष्टि का उल्लेख करते हुए उनके ऐतिहासिक उपन्यासों का विश्लेषण किया जाएगा।

बीज शब्द : इतिहासाख्यान, आर्य, अनार्य, द्रविड़, हड़प्पा, महाप्लावन, कौलिकता, स्त्रीधन, द्विज, स्वेच्छाचार, प्रामाणिकता, संग्राहक संस्कृति, कर्मकांड, ज्ञानकांड आदि।

मूल आलेख : साहित्य के इतिहास में बहुत कम ऐसे प्रतिभाशाली रचनाकार हुए, जो उन्नत सामाजिक चेतना के साथ-साथ सूक्ष्म इतिहास दृष्टि से भी संपन्न हों। ज्ञान विज्ञान से उर्वर मिथिला भूमि में जन्मे मायानंद मिश्र ऐसे ही प्रतिभा संपन्न रचनाकार थे, जिन्होंने मिथिलांचल की तमाम सामाजिक विसंगतियों के साथ-साथ इतिहासाख्यान को अपनी रचनाओं का आधार बनाया तथा हिन्दी एवं मैथिली दोनों भाषाओं को अपनी श्रेष्ठ रचनाओं से समृद्ध किया। कालजयी रचनाकार मायानंद मिश्र का जन्म 17 अगस्त 1934 ई. को भागलपुर ज़िला के बनैनियाँ गाँव में हुआ था। जो इन दिनों सुपौल ज़िला में है। उनके पिता का नाम बबुनंदन मिश्र एवं माता का नाम दुर्गा देवी था। बाल्यावस्था में ही माँ का निधन होने और कोसी के प्रलयंकारी बाढ़ के प्रकोप के कारण उनका पालन- पोषण ननिहाल (सुपौल) में हुआ। जहाँ उनकी प्रारंभिक शिक्षा प्रसिद्ध संगीतज्ञ, नाना नागेश्वर झा एवं मैथिली के प्रसिद्ध रचनाकार मामा रामकृष्ण झा ‘किसुन’ के सानिध्य में हुआ। सन् 1950 में मैट्रिक की परीक्षा सुपौल से पास करने के पश्चात वो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए दरभंगा आए। जहाँ उन्होंने चन्दधारी मिथिला कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसी दौरान सन् 1952 में उनका विवाह चंदशेखर मिश्र की बेटी और मैथिली के प्रसिद्ध कथाकार ललित की छोटी बहन कुमारी मनी मिश्रा से हुआ। सन् 1956 में वो आकाशवाणी पटना में नौकरी करने पटना आ गए। जहाँ नौकरी करते हुए उन्होंने 1960 में हिन्दी एवं 1961 में मैथिली विषय में बिहार विश्वविद्यालय से एम. ए. किया। तमाम संघर्षों के बावजूद वे 15 नवम्बर 1961 को मनोहर लाल टेकरीवाल कॉलेज, सहरसा में मैथिली व्याख्याता के पद पर नियुक्त हुए। जहाँ उन्होंने अध्ययन - अध्यापन के साथ- साथ अपनी रचनाओं से हिन्दी और मैथिली दोनों भाषाओं के साहित्य को समृद्ध किया। अपने व्यस्ततम रचनात्मक जीवन के कारण उन्होंने सन् 1991 में पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। अपने 33 वर्षों के सुदीर्घ अध्यापन के बाद 31 अगस्त 1994 को वे भूपेन्द्र नारायण मण्डल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के प्रोफ़ेसर एवं मैथिली विभाग अध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए एवं स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य करने लगे। ऐसे मातृभाषा-भक्त, दूरगामी चिंतक और हिन्दी के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार मायानंद मिश्र का निधन तिरासी वर्ष की अवस्था में 31 अगस्त 2013 को हुआ।

हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध लोकप्रिय विधा उपन्यास के अन्तर्गत ‘ऐतिहासिक उपन्यास’ पदबंध पर गंभीरता से विचार किया गया है। किसी औपन्यासिक कृति को किन विशेषताओं के आधार पर ऐतिहासिक उपन्यास की कोटि में शामिल किया जाए, यह बताना थोड़ा कठिन कार्य है। क्योंकि कोई भी साहित्यिक रचना जनता कि चित्त-वृत्ति का संचित प्रतिबिंब के रूप में होने के कारण अपने आप में ही इतिहास होती है। हर उपन्यास किसी काल विशेष की प्रख्यात कथा के साथ-साथ अपने समय के प्रमाणिक चित्रण को अपने में समाहित की होती है। जिस कारण हर उपन्यास ऐतिहासिक होता है। इसके अलावा कोई भी रचना ज्यों ही पूरी होती है, इतिहास हो जाती है। फिर भी विद्वानों ने ‘ऐतिहासिक उपन्यास’ के संबंध में कुछ विशेषताओं को निर्धारित किया है जैसे कि किसी कालखंड विशेष की प्रख्यात कथा का चित्रण हो और उन कथाओं से पाठक पूर्व ही परिचित हो। ‘ऐतिहासिक उपन्यास' जैसे पदबन्ध जिन विलक्षणताओं के लिए रूढ़ार्थ प्रतिपादित करते हैं, पाठक इतिहास-पुराण के माध्यम से उन कथाओं से पूर्व-परिचित होते हैं, लिहाजा वे ग्रन्थ का अवगाहन करते हुए अपनी चेतना में एक समानांतर बिम्ब बनाते रहते हैं, अपने वर्तमान से उसे जोड़ते रहते हैं।”2

हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक और पौराणिक तथ्यों को आधार बनाकर कई श्रेष्ठ रचनाकारों ने उपन्यास लिखे हैं। जिनमें किशोरीलाल गोस्वामी (सन् 1865-1932), वृंदावनलाल वर्मा (सन् 1889-1969), चतुरसेन शास्त्री (सन् 1891-1960), राहुल सांकृत्यायन (सन् 1893-1963), भगवतीचरण वर्मा (सन् 1903-1981), यशपाल (सन्1903-1976), हज़ारीप्रसाद द्विवेदी (सन् 1907-1979), रांगेय राघव (सन् 1923-1962) आदि प्रमुख हैं।

इतिहास तथ्यों और घटनाओं की क्रमबद्ध श्रृंखला पर आधारित होता है। जिनमें इतिहासकार रचयिता नहीं बल्कि सूचक एवं व्याख्याकार होता है। वह किसी घटना का सर्जक नहीं होता, और ना ही रोचकता लाने के लिए घटनाओं का क्रम बदल सकता है। ये कार्य ऐतिहासिक उपन्यासों में ही संभव है। जहाँ रचनाकार सृजन की भूमिका का निर्वहन करता है। वे इतिहास के उदात्त से लेकर क्रूर एवं नृशंस तथ्यों को भी अपनी कल्पना, संवेदना और रागानुराग के संयोजन से रोचक, सुग्राह्य एवं सदुपयोगी बनाता है। लेकिन, ऐसी कृतियों की रचना सरलता एवं सहजता से नहीं होती, क्योंकि इसमें रचनाकार को अपने गहन इतिहास बोध और विलक्षण सृजन- कौशल में विवेकशील संतुलन बनाये रखना पड़ता है। “अपनी कृतियों से मायानन्द ने स्पष्ट किया है कि ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास एवं कल्पना-दोनों का समावेश तो अनिवार्य विधान है ही, इस बात की सावधानी भी अनिवार्य है कि दोनों के संघर्ष में किसी तरह की पारस्परिक हानि न हो। न इतिहास की तथ्यात्मकता और प्रामाणिकता की, न ही कल्पना के लालित्य और रोचकता की।”3

हिन्दी में इस विषय पर लिखे अधिकांश रचनाओं में यह संतुलन देखने को नहीं मिलता है। अधिकांश रचनाकार इतिहास- पुराण से विषय सूत्र लेकर आगे तो बढ़ते हैं लेकिन कल्पना के मोह पाश में तथ्य की रक्षा नहीं कर पाते और दन्तकथाओं, किंवदंतियों, कहावतों में उलझकर तथ्य की प्रामाणिकता खो देते हैं। मायानंद मिश्र के ऐतिहासिक रचनाओं की यही सबसे बड़ी विशेषता है। उनके यहाँ न तो इतिहास की तथ्यात्मकता और प्रामाणिकता खंडित हुई है और न ही कल्पना के लालित्य और रोचकता में कमी आयी है। इतिहास और साहित्य का मणिकांचन संयोग हुआ है।

मायानंद मिश्र के ऐतिहासिक उपन्यास अतीत के संदर्भ तथा वर्तमान जीवन-व्यवस्था की मीमांसा प्रस्तुत करते हैं। अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सजाने- सँवारने के साथ-साथ ये रचनाएँ नई पीढ़ी को प्राचीन काल की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों से अवगत कराती हैं। “इतिहास एवं संस्कृति के गहन अध्ययन के दौरान उन्हें लगा कि समसामयिक भारत की राजनैतिक व्यवस्था और आम जन-जीवन का वास्तविक चित्र हमारे सभ्य होने के इतिहासाख्यान में है। पेड़ से उतरकर बंदर की तरह हाथ पाँव दोनों से चलने वाले, मस्तिष्क का सदुपयोग सीखने वाले, आग और औज़ार का आविष्कार सीखने वाले मनुष्य को जब उन्होंने अपने समय में फिर से नृशंस होते देखा, तो इतिहासाख्यान के रूपक के रूप में उन्होंने सभ्यता का दंभ भरने वालों को आईना दिखाया।”4

इसी इतिहासाख्यान धारा के अंतर्गत उन्होंने प्राचीन भारत की कथा को क्रमवार चार ऐतिहासिक उपन्यासों में वर्णित किया है। जिनमें सर्वप्रथम ‘प्रथमं शैलपुत्री च’ (1990) का कथानक ई. पूर्व 20,000 से ई.पूर्व 1800 वर्ष पर आधारित है। इस उपन्यास में मुख्य रूप से आदि-मानव किस प्रकार निरंतर गहन वन-प्रांतरों, अभेद्य गुफाओं, सुविस्तृत नदी-तटों और दुर्गम पर्वतों से होते हुए अपने हाथ और मस्तिष्क के निरंतर प्रयोग द्वारा अपना विकास करता गया इसको क्रमबद्ध रूप में चित्रित किया है। मनुष्य अपने लिए पहले हथियार फिर आग और पहिये/चाक के आविष्कार द्वारा अपने जीवन को आदिम शिकार युग की संग्राहक संस्कृति से लेकर पशुपालन, कृषि, उद्योग एवं वाणिज्य युग की उत्पादन संस्कृति तक पहुँचता है, इसका विज्ञान सम्मत साक्ष्य के साथ कथानक रूप में उपन्यासकार ने इस रचना में प्रस्तुत किया है। “आदिम शिकार-युग की संग्राहक संस्कृति से लेकर पशुपालन, कृषि, उद्योग एवं वाणिज्य-युग की उत्पादन संस्कृति की विशेषताओं को रेखांकित करना ही ‘प्रथमं शैलपुत्री च’ का अभिप्रेत है।”5

प्रारंभ में मनुष्य के अंदर जैसे-जैसे चेतना का विस्तार होता गया वह अपनी सुविधा की दृष्टि से आगे बढ़ता गया। इन सबके साथ ही जिससे वह भयभीत हुआ अथवा जो उसके कार्यों को आसान बनाता गया वह उसे देवता मानता गया। रचनाकार ने द्रविड़-सभ्यता के शिव, अम्बा आदि देवी देवताओं को ऐतिहासिक पात्र के रूप में कल्पित किया है। “द्रविड़ सभ्यता में इतनी अधिक संख्या में लिंग मूर्तियों और नग्न मातृदेवी-मूर्तियों का पाया जाना किसी लंबी विशिष्ट परंपरा की ओर ही संकेत करता है। जिस प्रकार परवर्ती अवतारवाद के राम और कृष्ण किसी समय के ऐतिहासिक पात्र ही थे, संभवतः द्रविड़-शिव (लिंग) और मातृदेवी के पीछे कोई ऐसी ही सामाजिक-ऐतिहासिक स्थिति रही होगी।”6

मायानंद मिश्र ने इस उपन्यास में मानव और प्रकृति के प्रारंभिक संघर्षपूर्ण पन्द्रह हज़ार वर्षों के लम्बे कालखण्ड की कथा को बड़ी तेज़ी से खींचा है। क्योंकि इस कालखंड में मानव मंथर गति से विकास की ओर अग्रसर हो रहा था। ऐसे में विस्तार पूर्ण वर्णन से उपन्यास बोझिल और नीरस हो जाता।जिस कारण उपन्यासकार ने इतिहास के साथ-साथ विभिन्न मिथकों को अपनी कल्पना शक्ति के साथ जोड़कर बहुत रोचक कहानी प्रस्तुत किया है।जैसे प्रारंभ में पूरे कुल का एक ही नाम होता था, पूरे दक्षिण कुल का नाम महेश था। एक महेश ने नदी पार की स्त्री को लाया जिस कारण उसका नाम पार्वती पड़ा।दोनों के पुत्र गणेश हुए। पार्वती ने नमक का संधान किया जिससे खाने में अद्भुत स्वाद आया। गणेश का पुत्र हर हुआ जिसने हल बनाया जिससे कृषि कार्य बहुत तेज़ी से होने लगा।हर का पुत्र नाक से उच्चारण करता था जिस कारण उसका नाम हरकिशन पड़ा, जिसने ऊन का वस्त्र बनाया।उसका पुत्र किसान हुआ जिसने तुला-दंड का निर्माण किया जिससे व्यापार में क्रांति आई। इसी व्यापार में सुविधा के लिए चित्र-लिपि का आविष्कार हुआ और व्यापार से उन्नत होकर नगरीय सभ्यता विकसित हुई। और यह विकसित नगरीय सभ्यता हड़प्पा कहलाई जो आर्यों के आगमन तथा आक्रमण द्वारा ध्वस्त हुई और एक नई मिश्रित संस्कृति के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। “इन विद्वानों के कथनों से स्पष्ट है कि हड़प्पा सभ्यता के अंत का कोई एक ही कारण नहीं था, किंतु जिस एक बात पर (प्रायः) सभी विद्वानों की सहमति है, वह है आर्यों का आगमन तथा आक्रमण, मोहनजोदड़ो तथा लोथल आदि पर आर्यों के आक्रमण नहीं हुए होंगे, क्योंकि ये नगर आर्यों के आगमन-पथ पर नहीं पड़ते थे, किंतु हड़प्पा नगर पर, जिसे ऋग्वेद हरियूपिया मानता है और जो आर्यों के मध्य मार्ग पर ही पड़ता था तथा जहाँ वे बहुत दिनों तक रहे और अपने में दाशराज्ञ युद्ध भी किया, अवश्य ही उनके आक्रमण हुए। इसके बाद ही आर्यों में कृषि-संस्कृति के प्रति आकर्षण-उत्सुकता एवं उन्मुखता पैदा हुई”7

इस प्रकार 'प्रथमं शैलपुत्री च’ उपन्यास में ‘भारतीय उदारता के शांतिमूलक सह-अस्तित्व के चिंतन की धरती खोजी गई है।’

द्वितीय उपन्यास ‘मंत्रपुत्र’ (1990) सन् 1986 में पहले मैथिली भाषा में प्रकाशित हुआ। इस हेतु मायानंद मिश्र को सन् 1988 में मैथिली भाषा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस उपन्यास का कथानक ऋग्वैदिक भारत में हुए आर्यों-अनार्यों के संस्कृति-मिलन तथा सरस्वती-तट से यमुना-तट के आर्यप्रसार एवं आर्यावर्त के जन्मगाथा, पर आधारित है, जिसका समय ई.पूर्व 14वीं शताब्दी है। ‘मंत्रपुत्र' में इसी कालखंड, अर्थात् सरस्वती से यमुना तक के प्रसार, की गाथा है जो 'महाभारत' से लगभग सौ वर्ष पहले के घटना-क्रम पर आधारित है। महाभारत से उत्तरवैदिक काल का प्रारंभ माना जाता है। इस प्रकार 'मंत्रपुत्र' का समय हुआ पूर्ववैदिक युग के उत्तरार्ध का अंतिम चरण-काल।”8

10 मंडलों में विभक्त इस उपन्यास में मुख्य रूप से आर्यों-अनार्यों के मिलने के बाद एक मिश्रित समाज के निर्माण को दिखाया गया है। आर्यों के आगमन और हड़प्पा के विनाश के बाद बचे अनार्य जिनमें नाग, अजास, शीग्रु, शिम्यू, कीकट, किरात आदि जाति के लोग थे, आर्यों ने सबको जीवित रक्खा और उनसे कृषि का शिल्प, धातु ज्ञान, प्रयोग विधि के साथ-साथ विकसित व्यापार पद्धति भी सीखी तथा साथ मिलकर प्रेम पूर्वक रहने लगे। उनके साथ-साथ रहने से कई सामाजिक, धार्मिक एवं शासकीय परिवर्तन हुए। इस युग में समाज स्त्री प्रधान न रहकर पितृ प्रधान बनता चला गया और विवाह संस्था निश्चित नियम से रूढ़ हो गयी। आर्यों स्त्रियों की संख्या कम होने के कारण अनुलोम और प्रतिलोम दोनों प्रकार की विवाह प्रथाएँ थी। बाद में प्रतिलोम प्रथा प्रायः लुप्त होती चली गयी। “इन्हीं दिनों अनार्य दासी से संतान उत्पन्न करने की प्रथा चली। जिसे बाद में विवाह के रूप में स्वीकृति मिलने से मिलन-मिश्रण को बल मिला और जो बहुत दिनों बाद जाति वैविध्य का कारण बनी।”9 इन्हीं आर्य-अनार्य विवाह से भाषा के साथ-साथ सभी समाजिक व्यवस्थाओं में व्यापक परिवर्तन हुआ। जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाषा, पूजा- पाठ का विधान और कर्मकांड है। अनार्य मुख्य रूप से शिश्न देव के उपासक थे तथा जल-फूल से पूजा अर्चना करते थे जबकि आर्य यज्ञ, मंत्र से नित्य ईश्वर की उपासना करते थे। बाद में दोनों के मिलने से एक मिश्रित पूजा पद्धति का प्रचलन हुआ जिसमें दोनों के रूप थे जो वर्तमान में मौजूद है।आर्यों का मूल कार्य यज्ञ और गविष्टि युद्ध करना था, जो बाद में धीरे -धीरे समाज के लिए नियम भी निश्चित करने लगे। समाज और शासन की इकाई कुल थी, कुल से मिलकर ग्राम और कई ग्राम मिलकर विश: या जन बनता था, जिसे राष्ट्र कहते थे। इसमें सभा समिति द्वारा राजा पर अंकुश रखा जाता था।इस पूर्ववैदिक युग में राजा गत्वर दल का योद्धा नेता होता था जिसका निर्वाचन, निष्कासन और पुनः अभिषेक संभव था। राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था, उसे कोई राजस्व की प्राप्ति नहीं होती थी, वह लूट, आखेट और उपहार पर ही जीवन व्यतीत करता था। पूर्व वैदिक युग में तीन ही वर्ण थे, और ये वर्ण भी कर्मणा थे। जिनमें मंत्र रचना, पौरोहित्य तथा शिक्षा में लगे लोग ब्राह्मण कहलाए, योद्धा क्षत्रिय तथा पशुपालन एवं कृषि में विश: के लोग वैश्य। ये तीनों द्विज थे तथा पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों में भी उपनयन होता था। किन्तु बाद में इस अवस्था में कट्ट‌र‌ता आती चली गयी और यह कर्म की जगह जन्म पर आधारित हो गया और लड़कियों के उपनयन संस्कार धीरे- धीरे समाप्त हो गये। अनार्य के संयोग ने एक नया वर्ण शूद्र को जन्म दिया।“पूर्व वैदिक युग में तीन ही वर्ण थे। किंतु कतिपय कारणों से अनार्यों को भी आर्यवृत्त में लाकर शूद्र कहने की प्रथा का जन्म हो रहा था।10 जलप्लावन के कारण द्रविड़ सभ्यता में ही सुमेर से कुछ लोग आए थे जो राजा जियशूद्र के प्रजा होने के कारण अपनी पुरानी स्मृति को बनाए रखने के लिए खुद को शूद्र कहते थे। बाद में वो इसी नाम से जाने गए।“द्रविड़ सभ्यता-काल में सुमेर से आवागमन था, जिसका ठोस व्यापारिक प्रमाण वह सुमेरी पौराणिक कथा है, जिसमें महाप्लावन के पश्चात् राजा जियशूद्र के अमर होने के लिए (डिलमुन, जो उन दिनों सुमेर में भारत के लिए प्रचलित था) भारत आने की बात, कही गई है। अमरता से सुखद जलवायु का ही आशय ग्रहण करना चाहिए। लगता है, सुमेर की कुछ आबादी इधर रहती थी, जो अपनी प्राचीन स्मृति के लिए 'शूद्र' कहलाना ज्यादा पसंद करती हो, और आर्यावर्त के निर्माण के समय चौथे वर्ण को यही 'शूद्र' नाम दे दिया गया हो? यद्यपि ऐसा कुछ संकेत डॉ. आर. एस. शर्मा के 'शूद्रों’ के इतिहास' में नहीं है। यह मेरा मात्र अनुमान है।”11 इस प्रकार यह उपन्यास आर्य प्रसार एवं आर्य-अनार्य की सांस्कृतिक मिश्रण को साहित्यिक जीवन प्रदान करती है। “सभ्यता यदि किसी संस्कृति को एक भौगोलिक शरीर देती है, तो साहित्य देता है उसे जीवन, कला देती है सौंदर्य तथा चिंतन देता है व्यक्तित्व।”12

भारतीय ज्ञान परम्परा पर आधारित तृतीय उपन्यास ‘पुरोहित’(1999) का कथानक शतपथ ब्राह्मण कालीन युग पर आधारित है।जिसका समय ई.पूर्व 10 वीं शताब्दी है। जिनमें मुख्य रूप से शुक्ल यजुर्वेदकालीन कर्मकांड एवं ज्ञानकांड के वैचारिक संघर्ष के पश्चात वर्णाश्रम धर्म के अवतरण की कथा है। इस उपन्यास में जटिल कर्मकांड जो कि कृषि, पशुपालन आदि में व्यस्त मानव जीवनचर्या में काफी कठीन था, की प्रतिक्रिया में ज्ञानकांड के विकास को दिखाया गया है। पहले जहाँ कविलाई जनतंत्रीय संघीय शासन प्रणाली में राजा भूमि का मालिक नही होता था और उसे किसी भी प्रकार के कर लेने की अनुमति नहीं थी इसके स्थान पर दैवी सिद्धांत पर आधारित कौलिक राजतंत्र का जन्म हुआ। जिसमें राजा को राजस्व संकलन का अधिकार मिला और कौलिकता से निरंकुशता आयी। “वैदिक काल के क़बीलाई राजा को जिसे विद्ध (सभा और समिति) के संकेतों पर चलना पड़ता था, लूट तथा उपहारों पर आश्रित रहना पड़ता था। ब्राह्मण काल में राजा को दैवीरूप मिला, राजस्व संकलन का अधिकार मिला तथा कौलिकता के कारण क्रमशः निरंकुशता का विकास हुआ जिससे कालांतर में साम्राज्यवादी भावना का जन्म हुआ।”13

उपन्यास में उत्तर पांचाल और दक्षिण पांचाल जो दो अलग अलग राज्य थे के एक होने की घटना का वर्णन करने के साथ ही कुरु, कोश‌ल, विदेह आदि राज्यों के तत्कालीन शासन प्रणाली को दिखाया गया है।जहाँ राजा के मंत्रीपरिषद में चारों वर्णों की संतुलित और समानुपातिक भागीदारी होती थी। जिनमें चार ब्राह्मण, आठ क्षत्रिय, इक्कीस वैश्य और तीन शूद्र रखने की व्यवस्था थी। इस काल में समाज में परस्पर समानता और सामंजस्य का भाव था।इस काल तक तीनों वर्णों में उपनयन होता था। ब्राह्मण में आठ, क्षत्रिय 11 तथा वैश्य में 12 वर्ष तक उपनयन की प्रथा थी। इस युग में कुछ गार्गी, मैत्रेयी आदि ब्रह्मवादिनी नारी भी हुई जो ज्ञान-विज्ञान में पुरुषों के समान ही श्रेष्ठ थी। विवाह के आठ प्रकारों में मुख्य रूप प्राजापत्य विवाह था जिससे सामाजीकरण हुआ तथा पिता द्वारा निर्धारित ब्रह्म विवाह अधिकांश द्विजों में होता था। कालांतर में वर्णसंकरता रोकने तथा उत्तराधिकार को संतुलित करने के लिए विवाह प्रथा में धीरे-धीरे कठोरता आ गयी। व्रत्याष्टोम यज्ञ द्वारा अनार्यों को आर्य कोटि में लाने का प्रयास किया गया। जिससे उनकी उपासना पद्धति में शामिल अभिचार क्रिया तंत्र-मंत्र, जाटू -टोना आदि को भी पूजा पद्धति में स्थान मिलने लगा। जिससे कालांतर में अथर्ववेद की रचना हुई।वैदिक काल के तीन वर्णों के स्थान पर ब्राह्मण काल में चौथा वर्ण, शूद्र अस्तित्व में आया। “ वर्ण, एक कल्पना थी, किंतु ‘जाती’ धारणा, जो बाद का विकास है।”14 ऋग्वेद में समस्त समाज को शरीर माना गया और चारों वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र को एक ही शरीर का विभिन्न महत्वपूर्ण अंग माना गया। कालांतर में इसी आधार पर विभिन्न जातियाँ बनी जिनमें भेद-भाव, ऊँच -नीच जैसी विकृतियाँ आयी।

चतुर्थ उपन्यास ‘स्त्रीधन’(2007) इस उपन्यास का कथानक 'सूत्र स्मृतिकालीन मिथिला’ के इतिहास पर आधारित है, जिसमें ‘मिथिला में राजतन्त्र की समाप्ति, जनक-वंश के अन्तिम राजा कराल जनक के अन्याय, दुराचार, स्वेच्छाचार और एक कुँआरी कन्या के साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण राजवंश के पतन की कहानी है।’ “मिथिला में जनक वंश और राजतंत्र का अंत कराल जनक के पतन के संग हुआ। यही कराल जनक, जनक वंश के राजतंत्र का अंतिम राजा हुआ जो अन्यायी, दुराचारी, नीति विरोधी तथा स्वेच्छाचारी था।”15 मायानंद मिश्र ने इस उपन्यास में महान मिथिला के नामकरण, सभ्यता-संस्कृति, पर्व-त्योहार, खान-पान, उपासना पद्धति, विवाह आदि पारिवारिक व्यवस्था, के साथ-साथ शासन प्रणाली आदि के सुदीर्घ इतिहास को रोचकता के साथ दिखाने का प्रयास किया है। उपन्यास में तत्कालीन मिथिला के पड़ोसी राज्य मगध, अंग, काशी आदि से श्रेष्टियों के सार्थवाह द्वारा विभिन्न व्यापार माध्यमों और उसके साथ-साथ संस्कृतियों के मिलन की कथा को प्रस्तुत किया गया है। “ऐतिहासिक विषय होने के बावजूद यहाँ अन्धविश्वास और पाखण्ड को बल नहीं मिलता। उपन्यास का विषय हमें अपने इतिहास में झाँकने की प्रेरणा देता है…..एक पत्नीव्रत आदर्श, सामाजिक दण्ड, विवाहोपरान्त पति की सम्पत्ति में पत्नी के अंश आदि की चर्चा यहाँ प्रमुखता से की गई है।”16 स्मृतिकालीन मिथिला में विवाह के समय जो पितृगृह से धन या गौ आदि वस्तु पुत्री को दिया जाता था उसपर केवल उस स्त्री का स्वतंत्र अधिकार होता था।वह चाहे पति गृह में रहे या पिता गृह में वह उसकी व्यक्तिगत संपत्ति होती थी। बाद में स्त्री को इस अधिकार से वंचित कर दिया गया। जिससे समाज में विकृति आयी और समाज व्यवस्था चरमराने लगी। वह व्यवस्था जो स्त्री को स्वावलम्बी बनाता था, जो उसके हित के लिए बनी थी, कालांतर में वही व्यवस्था विकृत होकर स्त्री के लिए काल रूप धारण कर लिया। परिणाम स्वरूप वर्तमान मिथिला में दहेज प्रथा का सर्वाधिक विकृत रूप देखा जा सकता है।

निष्कर्ष : स्पष्ट है मायानंद मिश्र के ऐतिहासिक उपन्यासों का सम्बन्ध ह्रदय से अधिक मानसिक संघर्ष और विचारोत्तेजना से है। वे अपने दौर के वैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैचारिक आदि सभी संदर्भों पर गंभीरता से विचार करते हैं। उनके अनुसार “आधुनिकता ने मनुष्य की इच्छा के अनुरूप बहुत कुछ अवश्य उपस्थित किया, किंतु जीवन-संघर्ष दुर्वह बना गया, फलस्वरूप वैचारिक संघर्ष तीक्ष्ण हो गया।”17 यही संघर्ष उनकी रचनाओं में अपनी संपूर्ण विसंगति, विकृति के साथ चित्रित हुआ है। दरअसल ऐतिहासिक उपन्यास में केवल किसी काल-विशेष की घटनाओं का वर्णन ही नहीं होता बल्कि उस दौर के जीवन-मूल्य अपनी संपूर्ण विशेषताओं के साथ अंकित होता है। वही मूल्य मनुष्य को अच्छे-बुरे का निर्णय करने की दृष्टि देता है।अपने चारों ऐतिहासिक उपन्यास के माध्यम से मायानंद मिश्र ने आज के नृशंस, अहंकारी पीढ़ी को इतिहास का आईना दिखाया है एवं, इतिहास की ग़लतियों से सीखकर अपने भविष्य को बेहतर बनाने की ओर अग्रसारित किया है। उन्होंने वर्तमान जन-जीवन में व्याप्त समस्याओं की जड़ को इतिहास में ढूँढने का सुंदर, सफल एवं सार्थक प्रयास किया है।

वैसे तो हिन्दी आलोचना में ऐतिहासिक-पौराणिक उपन्यासों पर कई महत्वपूर्ण आलोचना और शोध कार्य हुए हैं। लेकिन मायानंद मिश्र कि ओर अभी तक किसी ने ध्यान नहीं दिया। अधिकांश आलोचकों द्वारा मायानंद मिश्र की श्रेष्ठ ऐतिहासिक कृतियों की उपेक्षा का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि उन्होंने कुछ ऐतिहासिक उपन्यास पहले मैथिली भाषा में लिखे। बाद में जिसका हिन्दी अनुवाद उन्होंने ख़ुद किया। इस कारण हिन्दी के आलोचकों को यह लगा कि उन पर मैथिली के आलोचकों को कार्य करना चाहिए और मैथिली वालों को लगा यह विषय हिन्दी आलोचकों का है। वैसे भी ‘मंत्रपुत्र’ पर मैथिली भाषा का साहित्य अकादमी सम्मान (1988 ई.) मिल जाने के बाद हिन्दी आलोचकों ने उन्हें मैथिली रचनाकार समझकर विस्मृत ही कर दिया। हालाँकि इधर देवशंकर नवीन जैसे कुछ प्रबुद्ध आलोचकों का ध्यान इस ओर गया और उन्होंने ‘महत्त्व मायानन्द (मायानन्द मिश्र का रचनात्मक जीवनवृत्त)’ जैसे गम्भीर आलोचनात्मक पुस्तक द्वारा साहित्य के मुख्यधारा में उन्हें प्रतिष्ठित करने का स्तुत्य प्रयास किया है ।

संदर्भ :
  1. देवशंकर नवीन, महत्व मायानंद ( मायानंद मिश्र का रचनात्मक जीवनवृत्त ), श्रुति बुक्स,
  2. गाजियाबाद, 2022, पृष्ठ-228
  3. डॉ. सुषमा त्यागी, प्राचीन ऐतिहासिक उपन्यास : इतिहास और कला, अनुराधा प्रकाशन, मेरठ,
  4. पृष्ठ- 38
  5. देवशंकर नवीन, महत्व मायानंद ( मायानंद मिश्र का रचनात्मक जीवनवृत्त ), श्रुति बुक्स,
  6. गाजियाबाद, 2022, पृष्ठ-230
  7. देवशंकर नवीन, लोकमान्य मायानंद, अंतिका प्रकाशन प्रा. लि.,गाजियाबाद, 2022, पृष्ठ-21
  8. मायानन्द मिश्र, प्रथमं शैल पुत्री च, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1990, पृष्ठ-10
  9. वही, पृष्ठ- 9-10
  10. वही, पृष्ठ-12
  11. मायानन्द मिश्र, मन्त्रपुत्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1990, पृष्ठ-12
  12. वही, पृष्ठ-13
  13. वही, पृष्ठ-15
  14. वही, पृष्ठ-18
  15. वही, पृष्ठ- 1
  16. मायानन्द मिश्र, पुरोहित, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1999, पृष्ठ-11
  17. वही, पृष्ठ-133
  18. मायानन्द मिश्र, स्त्रीधन, नेशनल बुक ट्रस्ट इण्डिया, भारत, 2007, पृष्ठ -12
  19. देवशंकर नवीन, महत्व मायानंद (मायानंद मिश्र का रचनात्मक जीवनवृत्त), श्रुति बुक्स,
  20. गाजियाबाद, 2022, पृष्ठ-23
  21. वही, पृष्ठ-23
निर्मल कुमार
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, 110067

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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