यह आत्मकथा का वो अंश है, जहाँ अंधेरा घना है और दिन ढल जाने से पहले बहुत से काम कर लेने हैं। यह रात काली है, रात का कालापन जीवन में न आए, आना भी नहीं चाहिए, इसके आने से जीवन एक घटाटोप में चला जाएगा। इसलिए बहुत से काम कर लेने हैं ताकि तीरगी का कोई नामों निशान न हो। मेरे हाथों में एक गुलाबी पन्ना थमाने के लिए मेरे पिता जी लगभग एक हफ्ते से परेशान थे। मैं छत पर बैठी कुछ पढ़ाई कर रही थी तभी छत पर आते ही पिताजी ने मुझसे निवेदन किया कि ‘देखो कल आखिरी दिन है, इस फॉर्म को भर दो।‘ मैंने भी साफ मना कर दिया कि मैं इसे नहीं भरूँगी, मुझे मऊ में नहीं पढ़ना।
मऊ में दुर्गादत्त चुन्नीलाल सागरमल डिग्री कॉलेज है, जिसका संक्षिप्त नाम DCSK
है। यहीं से मेरी दो बड़ी बहनें भी पढ़ी हैं। यह कॉलेज हमारे घर से 2 किमी की दूरी पर रेलवे स्टेशन के पास था। मेरी दोनों बड़ी बहनें साइकिल से जाया करतीं। यह मऊ का स्थानीय कॉलेज है, दोनों बहनें इसी डिग्री कॉलेज से स्नातक कर रही थीं। मेरी भी इंटरमीडिएट की परीक्षा खत्म हो चुकी थी, इंटर में मैं प्रथम श्रेणी से पास हुई थी। इसके बाद मुझे स्नातक भी करना था। मैं अपनी बड़ी बहनों को देखती थी कि ये तो आए दिन घर पर ही बैठी रहा करती हैं, क्या पढ़ती होंगी। वाक्या ये था कि कॉलेज में आए दिन छात्र दंगे होते थे। जिसमें कभी किसी लड़के ने किसी को गोली मार दी तो कभी किसी को। छात्र नेताओं के दंगे बहुत आम थे। ऐसे माहौल में वहाँ लड़कियों की पढ़ाई हमेशा बाधित होती थी, वे अक्सर घर में कैद हो जाया करतीं। चूंकि कॉलेज का माहौल सही नहीं था। पढ़ाई का स्तर ग्रामीण कॉलेजों में कैसा होता है ,यह किसी से छिपा नहीं है। वहाँ दबंग जातियों के लड़के अपना प्रभुत्व और वर्चस्व हमेशा बनाए रखते। बड़ी
बहनों की शिक्षा हमेशा बाधित होती, इसलिए मेरा मन वहाँ के स्थानीय कॉलेज से उच्च शिक्षा के लिए कभी तैयार नहीं हुआ।
मेरे पिता जी गुलाबी फॉर्म भरने के लिए कई तरह के भावनात्मक दबाव बना चुके थे। मैं भी कहाँ मानने वाली थी, मैंने भी फॉर्म नहीं भरा। उन्होंने भी कह दिया कि तब हम तुम्हें बाहर नहीं पढ़ा पाएँगे। मैं भी बहुत हठी थी, मैंने भी साफ कह दिया कि कोई बात नहीं। मुझे याद है कि मैंने घर में कभी किसी चीज के लिए जिद्द नहीं की, खाना, खिलौने और कपड़े किसी चीज का शौक नहीं था। शौक था तो बस एक पढ़ाई का और पढ़ाई को लेकर जुनून था। मैंने भी पिता जी को बोल दिया कि मैं बगल के स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दूँगी। मेरे घर से ही लगा हुआ छोटे बच्चों का एक स्कूल था, जहाँ मैंने पढ़ाना भी शुरू कर दिया, वहाँ मोहल्ले के स्थानीय बच्चे ही पढ़ने आते। मेरे घर में दबाव था लेकिन उतना नहीं, बात रखने की स्वतंत्रता थी, भले उसे अमल में न लाया गया।
बचपन में मैं किरण बेदी से बहुत प्रभावित हुई थी। दूरदर्शन पर एक धारावाहिक आता था जिसका नाम था”गलती किसकी”, जिसमें किरण बेदी अंत में यह प्रश्न अवश्य पूछती थी कि गलती किसकी। लड़कियों और महिलाओं के उत्पीड़न पर यह धारावाहिक आधारित था। मुझे इस धारावाहिक ने बहुत प्रभावित किया। मैं किरण बेदी के बारे में और जानना चाहती थी। उनके जीवन और करियर के बारे में पढ़ा तो पता चला कि किरण बेदी भारत की पहली महिला आईपीएस ऑफिसर हैं और इन्हें रेमन मैग्सेसे पुरस्कार भी मिला चुका है। उनके व्यक्तित्व से मैं स्वयं बहुत प्रभावित भी हुई थी। फिर मैंने भी आईपीएस बनने की सोची। मैंने बचपन में ही एक डायरी बनाई जिसमें किरण बेदी के बारे में लिखती। आज भी वो डायरी मेरे पास है जिसमें मैंने I
want to be an IPS Officer लिखा है।
मैं बाजार से UPSC
की कुछ पुस्तकें घर पर ही लाकर पढ़ने लगी थी, जिसमें उपकार की प्रतियोगिता दर्पण और पुराने साल के यूपीएससी के Unsolved
प्रश्न पत्र थे। इसके अतिरिक्त मैं घर पर समाचार पत्र जरूर पढ़ती। मेरे घर पर हिंदुस्तान समाचार पत्र आता। मैं संपादकीय जरूर पढ़ती, उसमें किसी भी समसामयिक विषय की गंभीरता और गहनता की जानकारी मिलती थी, इससे भाषा भी परिपक्व होती। जैसा कि पुलिस वर्दी मुझे बचपन से ही बहुत आकर्षित करती थी। जब मैंने इंटर की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की, तो मेरे घर मीडिया वाले आए, उन्होंने मेरे परीक्षा परिणाम के पीछे की सफलता और आगे भविष्य में क्या करने के बारे में पूछा, तो मैंने उस समय भी आईपीएस ऑफिसर बनने की बात कही थी। यह खबर उस समय के स्थानीय अखबार में भी छपी थी।
चूंकि उच्च शिक्षा के लिए मऊ का माहौल मुझे पढ़ने वाला नहीं लगा। हमारे ही परिचितों में एक भैया ने बताया कि BHU
में पढ़ना सही रहेगा। मेरे मुहल्ले के एक भैया थे, दीपक नाम था उनका, उन्होंने मुझे BHU
का फॉर्म लाकर दिया तभी मैं BHU
का फॉर्म भर पाई। मैंने घर पर बिना बताए BHU
का फॉर्म भर दिया था। उस समय मैंने अपने पिता जी से कहा कि मैं BHU
में पढ़ना चाहती हूँ। पिता जी का कहना था कि मैं बाहर पढ़ाने में असमर्थ हूँ। कारण हम चार बहन, दो भाई थे। सबको पढ़ाना-लिखाना मामूली बात नहीं थी। घर का खर्च बड़ा था। बाकी मुहल्ले और नाते-रिश्तेदार भी पिताजी की तरफ ही मुँह करके आते थे। पिताजी मेरे बहुत ही धार्मिक इंसान थे। ज्यादातर वो पूजा-पाठ करते थे। समाज सेवा भी करते। उन्हीं का संस्कार था कि हम सभी बहुत पूजा पाठ करते। बहनें बड़ी हो चली थीं, घर में बड़ी बहन के लिए रिश्ते आने लगे थे। पिताजी की नौकरी भी अब कहाँ रह गई थी। पिता जी मेरे यूपिका हैंडलूम में मैनेजर थे। चूंकि यह संस्था अर्द्धसरकारी थी। मेरे पिता जी घर में अकेले कमाने वाले थे, उस पर हम सभी भाई बहनों की पढ़ाई-लिखाई का खर्च और बूढ़े माता–पिता की जिम्मेदारी। मेरे पिताजी की नौकरी ट्रांसफर वाली थी, इसलिए हमेशा उनका ट्रांसफर होता ही रहा। कभी खलीलाबाद, मेरठ, बस्ती, गोंडा, मुरादाबाद और काशीपुर में जो अब उधमसिंह नगर में उत्तराखंड में है।
1998 तक हम काशीपुर में ही थे, तब उत्तराखंड नहीं बना था, यह उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा था। सन
2000 में उत्तर प्रदेश से अलग उत्तराखंड राज्य बना। मेरी प्रारम्भिक शिक्षा 5 वीं तक काशीपुर में ही सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय में ही हुई। मुझसे एक साल बड़ी बहन अर्चना दीदी भी सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ रही थी। छोटे भाई-बहन प्राइवेट स्कूल ‘एडम एंड इव पब्लिक स्कूल में पढ़ रहे थे, जहाँ हमारा किराये का मकान था, वहीं घर से आधा किमी दूरी पर था। एक छोटा भाई था जो कि 2 साल का था। वो अभी स्कूल नहीं जा रहा था। मेरी बड़ी बहन वंदना
GGIC सरकारी स्कूल में पढ़ रही थीं कक्षा 7 में। मेरे पिता जी का ट्रांसफर मुरादाबाद हो गया था। यह समय बाजारीकरण का था। इसका कारण मुझे यह समझ में आता है कि बाजारवाद के चलते बुनकरों के पेट पर बहुत लात पड़ी होगी। चूंकि मॉल कल्चर विकसित हो गए, हैंडलूम कल्चर को बहुत घाटा हुआ। बुनकरों की हालत बहुत खराब हो चली थी, जिसका असर मेरे पिता जी की नौकरी पर भी पड़ा। नौकरी के बचे रहने पर भी उन्हें वीआरएस लेना पड़ा क्योंकि वेतन नहीं मिलता था। बिना वेतन के दूसरे शहर में 8 सदस्य का रहना कैसे संभव था, उनका गुजारा कैसे चलता। बच्चों की पढ़ाई–लिखाई, घर का किराया इत्यादि जिम्मेदारी बहुत थी। तभी पिताजी ने अपने पैतृक घर जाने का मन बना लिया।
अब हम लोग काशीपुर (उधमसिंह नगर) से मऊ आ चुके थे। वही मऊ जहाँ मेरा जन्म हुआ था। मऊ का नाम मऊनाथ भंजन हो चला था। 5वीं के बाद मेरी आगे की पढ़ाई कक्षा 6 से 12 तक मऊ के डीएवी गर्ल्स इंटर स्कूल से हुई थी। बाकी बहनें भी इसी स्कूल में पढ़ीं। छोटे भाई-बहन सरस्वती शिशु मंदिर से पढ़े और बाद में डीएवी बॉय्ज़ स्कूल से आगे की पढ़ाई किए। आठवीं-नौवीं कक्षा तक आने पर हम बहनें घर के सभी कामों में हाथ बटाना और करना शुरू कर चुके थे। पिताजी हमें सुबह-सुबह उठाते पढ़ने के लिए और खुद टहलने चले जाते। भाई बहन उनके जाने के बाद सभी सो जाते और जैसे ही सीढ़ियों पर उनके चप्पलों की आवाज सुनाई देती तो कुछ उठते और कुछ सोये हुए मिलते। फिर उनकी पिटाई भी होती। मैं अपना उठ कर पढ़ती रहती। पढ़ने के बाद, हम बहनें घर का सारा काम करके स्कूल जातीं थीं। हमारा काम बंटा था।
सुबह का काम एक बहन करती तो रात का खाना-पानी, बर्तन धोना, खिलाना-पिलाना दूसरे के जिम्मे। माँ भी हमारा हाथ बटाती। माँ ज्यादातर घर के कपड़े धोने-समेटने में समय लगाती। हमारे मुहल्ले की अधिकतर लड़कियाँ घरेलू काम बहुत करती थीं, उसी का असर हमारे माता-पिता पर भी पड़ा। लेकिन उन लड़कियों की तरह पूरा काम हमारे जिम्मे नहीं होता। पिताजी बात-बात में कहते देखों फलनवाँ की लड़की कितना काम करती है, तब मन में बहुत दुख होता और खराब भी लगता। लेकिन मैं अपनी पढ़ाई को लेकर बहुत ही दृढ़ संकल्पवान थी कि पढ़ना है। जब घर में कभी काम ज्यादा होता या परीक्षाएँ होती तो मैं दादी के कमरे में छिप कर पढ़ाई करती। लोग मुझे ढूंढते आवाज देते, मैं सुनती, लेकिन बोलती नहीं। अपना पढ़ती रहती। जब परीक्षाएँ होती तो पिता जी कहते कि ये काम करके जाओ तो मैं कहती कि मेरी परीक्षा है। पिताजी का तभी कहना होता कि ‘बैठा के खिलाओगी क्या हमें’। कमाना है क्या?’ दुख तो बहुत होता लेकिन उस समय मैं क्या ही कहती। चुप हो जाती और अंदर ही अंदर निर्णय लेती कि ऐसा समय भी आएगा।
12 वीं की पढ़ाई के बाद मेरा इरादा BHU
में पढ़ने का था। लेकिन मेरे पिताजी आर्थिक परिस्थितियों के कारण मऊ से बाहर बनारस में पढ़ाने में असमर्थ थे। उन्होंने अपने हाथ खड़े कर दिए। किसी ने उन्हें बता दिया था कि BHU
में रहकर पढ़ने में बहुत खर्चा आएगा, जैसे हॉस्टल का खर्चा, पढ़ाई लिखाई का खर्चा इत्यादि। इसलिए उन्होंने मन बना लिया था कि बेटियों की शादी करूँगा, हालांकि वो पढ़ाना-लिखाना भी चाहते थे। शिक्षा के महत्त्व को वो जानते थे। इसीलिए उनके मन में कभी-कभी यह भी प्रश्न उठता कि शादी करूँ या पढ़ाता ही रहूँगा। हमारे समाज का माहौल ही ऐसा था। मेरे मोहल्ले में कम से कम सोनकर के घरों की संख्या 300
तक थी। जहाँ गरीबी और अशिक्षा के कारण पढ़ाई-लिखाई के प्रति जागरूकता कम थी।
लड़कियों की शिक्षा का स्तर बड़ा ही खराब था। बहुत कम ही लड़कियाँ स्कूलों तक पहुँच पाई थीं। मेरे मोहल्ले में लगभग सभी घरों में कम से कम आधा दर्जन और किसी किसी के तो
8-10 संताने अवश्य थीं। उसमें भी लड़कियों की संख्या ज्यादा थी। 8 साल से लेकर
12-14 साल की लड़कियाँ घर का सारा काम करतीं। इनका काम अपने छोटे भाई-बहनों का ध्यान रखना भी होता था। बिचारी छोटी-छोटी लड़कियाँ सुबह 4 बजे उठकर बर्तन धोना, नहाना, चूल्हे में आग लगाना, बर्तन लीपना, खाना बनाना आदि उनके जिम्मे काम बहुत था। खुले आसमान में छत पर इनके चूल्हे थे, ये जब खाना बनातीं तो हम छत से देखते। कुछ भी छिपा नहीं था। गरीबी बहुत थी, संसाधन भी नहीं थे। चूंकि पढ़ाई का माहौल नहीं था इनके घरों में। अशिक्षा ने कभी उस तरह से इन्हें आगे बढ़ने भी नहीं दिया। छोटे बच्चे मोहल्ले के ही ‘मतवा जी’ स्कूल में पढ़ने जाते, और कुछ प्राथमिक विद्यालय में जो 1 किमी की दूरी पर था, जहाँ राशन मिलता था। राशन मिलने के कारण ही कुछ बच्चे स्कूल पहुँच पाए थे। इनके घरों में इनके पिता जी ठेले पर सौदा लगाते थे, जिसमें ज्यादातर फल होते थे। मौसम अनुसार जो भी फल आते उसी का सौदा लगाते। गर्मियों में आम, तरबूज, खरबूज और केले इत्यादि वहीं सर्दियों में अंगूर, संतरा आदि फल ठेले पर लगाते। भोर में उठकर ही इन्हें सौदा लेने भी जाना होता।
फिर 7 बजे के करीब ये सौदा लगाते और उसे मंडी में ले जाकर बेचते फिर देर रात ही घर लौटते। ये लोग मेहनती बहुत थे। मैंने बचपन से ही सोनकर समाज को मेहनती देखा। सब्जी-फल बेचकर इस समाज ने अपने परिवार का पेट पाला है और पाल रहे हैं। लड़कियाँ सुबह-सुबह खाना बना लेतीं, वो अपनी माओं के साथ काम में लगी रहतीं। पिता और भाई के सौदा बेचने चले जाने के बाद ये खाली होतीं और झूठे बर्तन, गंदे कपड़े जिसमें सभी भाई-बहन और परिवार के कपड़े इकट्ठा कर, अगल-बगल की भी लड़कियाँ टोली बनाकर नदी जातीं। मुझे याद है यदि घर में कभी किसी बर्तन को चमकाना होता तो मेरी माँ इन्हें कहती कि ‘इसे भी ले जाओ और चमका कर लाना।’ वहाँ नदी किनारे बालू से ये बर्तन रगड़ती और बर्तन शीशे की तरह चमचम करता। यह रोज का इनका काम था। मैं भी कभी-कभी इनके साथ नदी जाती। लेकिन हमारे घर में शौचालय और स्नान घर की सुविधा थी।
चूंकि इनके घरों में शौचालय और स्नान घर भी नहीं था। छोटे-मोटे काम अपने घर के ही बाहर सड़क पर, नगर निगम के हैंडपंप से बाल्टी में पानी लाकर करतीं। जैसे थोड़े झूठे बर्तन और कपड़े धोना, सुबह दातुन करना। घर के बड़े-बुजुर्ग भी दिशा-मैदान करने नदी ही जाते। वहाँ से जब आते तो थोड़ा बहुत नाश्ता करके अपना सौदा लेकर बाजार चले जाते।
फिर ये लड़कियाँ पढ़ने स्कूल कब ही जातीं। पढ़ाई का माहौल बिल्कुल नहीं था। इनके लिए यही इनकी जिंदगी थी और जीने का तरीका।
ज्यादातर मुहल्ले के बच्चे आपस में लड़ते-झगड़ते, गाली-गलौज करते। घरों में पितृसत्ता का माहौल जबरदस्त था। रात में सौदा बेच कर आने के बाद कुछ-कुछ आदमी(पति) शराब पीकर आते और अपनी पत्नियों को मारते-पीटते। वो भी खूब चिल्लाती-रोती और गाली देती। ‘मर-जा लतमरुआ, बच्चन के लेके हमहूँ जहर-माहुर खाके मर जाइब, तब्बे राहत मिली तोके’। सुबह तक सब ठीक हो जाता। वही पत्नी अपने पति के लिए खाना बनाती। कभी-कभी घरेलू उत्पीड़न की खबरें आतीं। मुझे याद है कि मुहल्ले की ही एक औरत ने अपने आपको जला के मार लिया था, तब मैं बहुत ही छोटी थी, ऐसे ही किसी महिला ने मिट्टी का तेल पी लिया था, लेकिन वो बच गई। उसके पीछे सात बच्चे थे।
मुहल्ले में जब बच्चे लड़ते तो महिलाएँ भी अपने बच्चों के आपसी झगड़ों में वीरांगनाओं की तरह कूदती और गाली-गलौज करतीं। मोहल्ले में यही रस था और नीरसता भी इसी वजह से थी क्योंकि पढ़ाई का उचित माहौल नहीं था। हम कभी-कभी अपने घर की छतों से इन लड़ाई-झगड़ों को देखते तो पिताजी कहते....
‘चलो अंदर, पढ़ना-लिखना नहीं है; उनकी चिंता यह रहती कि इन लड़ाई-झगड़ों का असर कहीं हम-पर भी न हो जाए।
मेरा घर संयुक्त था। दादा-दादी, बड़े पापा-बड़ी मम्मी, चाचा –चाची। बड़े मम्मी-पापा के कोई संतान नहीं थी। मेरे चाचा-चाची को पाँच संतान थीं जिसमें चार लड़कियाँ और एक लड़का था। दादा को हम बाबा बोलते। उनका नाम सीताराम था और दादी का नाम सुरजी देवी। हमारा परिवार बड़ा था, लेकिन चूल्हे सबके अलग-अलग ही थे। मेरे पिता जी 3 भाई थे और तीन बहन। बुआ लोगों की शादी बहुत पहले ही हो गई थी जबकि मेरे पिता जी से कुछ बुआ लोग छोटी भी थीं। मेरे दादा-दादी सब्जी बेचते थे। हमारे घर न जमीन थी और न ही किसानी। मेरे बड़े पापा आटो चलाते थे और चाचा सब्जी की दुकान पर जाकर बैठते थे। पिताजी बताते थे कि जब वो छोटे थे तो दादा-दादी के साथ सब्जी बेचने जाते थे। पापा मेहनती थे। वो पढ़ना भी चाहते थे। उन्होंने इंटर के बाद, कॉमर्स से बीकॉम किया और बाद में सिलाई-बुनाई केंद्र से भी एक डिग्री हासिल की। अपने मुहल्ले में पिताजी इकलौते ऐसे व्यक्ति थे जिनके पास सरकारी नौकरी थी। उनके अंदर पढ़ने की लग्न थी। स्कूल से पढ़कर आने के बाद वो सब्जी मंडी जाकर दादा-दादी का हाथ जरूर बँटाते। बड़े पापा और चाचा को भी दादी पढ़ाना चाहती थी लेकिन उन लोगों का पढ़ने में मन नहीं लगा। बुआ लोगों के पास कोई शिक्षा नहीं थी, मुझे अपनी जानकारी में सबकी शादी हो चुकी थी और सबके बड़े-बड़े बच्चे भी थे। दलितों के यहाँ शिक्षा बहुत बाद में आई और उन्होंने सबसे पहले अपने लड़कों की शिक्षा पर ही ध्यान दिया। जिनके यहाँ गरीबी बहुत ही ज्यादा थी, वो शिक्षा पर ध्यान ही नहीं दे पाए। दादा-दादी मेरे बहुत परिश्रमी थे। सुबह चार बजे ही उठकर वो लोग सब्जी-मंडी चले जाते। वो हाथ में खाँची-दौरी लेकर जाते, जिसमें सौदा
(सब्जियाँ) लेते और वहीं सब्जी मंडी में नीचे बोरा-प्लास्टिक बिछाकर सब्जी बेचते। दिन भर वो वहीं रहते और सीधे रात में ही आते। दोपहर में कभी-कभी हम बहने दादा-दादी के लिए टिफिन में खाना लेकर जाते। घर से सब्जी मंडी एक से डेढ़ किमी था। दादा-दादी भी सुबह-सुबह पैदल जाते और हम लोग भी। सब्जी मंडी में बहुत से लोग नीचे बिछाकर अपने-अपने दौरी में तो कुछ लोग बोरा बिछाकर उस पर सब्जी बेचते। धूप हो या बरसात उसी गर्मी में वो लोग जाते और सौदा बेचकर ही आते। थोड़ी बहुत सब्जियाँ बच जाने पर घर ले आते थे। सब्जी मंडी में हम दादी के पास खाना लेकर जाते तो दादी हमें कभी-कभी समोसा खिलाती और वहाँ हम लोग उन्हें खिला-पिलाकर खाली टिफिन लेकर जब घर लौटने को होते तो, वो हमें एक रुपया भी देती। हम रास्ते में टॉफी खरीदते हुए पैदल आते। नटखट, खट्टी गोलियाँ, लाल-काला चूरन जिसे ‘जीभ जरौना’ भी बोलते थे, हम अक्सर यही खरीदते। रात में जब दादा-दादी सब्जी मंडी से आते तो सबसे पहले नहाते। और नहाने के बाद दादी अपना हुक्का पीती, पान लगाती। हम लोग भी उनके साथ बैठते और उनके पान वाले डिब्बे से पान लेकर कहते हमें भी दो, दादी हमें पान में कत्था और कसैली लगाकर देती, उनके हुक्के से हम भी गुड़ –गुड़ करते। फिर दादी अपना पैसा गिनती तो हम सभी भाई-बहन वहाँ बैठ जाते लालच में, कि दादी हमें एक-दो रुपया जरूर देगी। बाद के समय में दादी हमें भी बुलाती पैसे गिनने के लिए, जिसे रेजकारी (सिक्के) कहती। गिनते गिनते हम लोग एक दो रुपया कभी-कभी खिसका लेते। दादी को पता भी चल जाता तो कहती कि ठीक है ले लो। उस समय 20 पैसा, 10
पैसा, 25
पैसा भी होता। नए-पुराने सिक्के आज भी याद आते हैं। मेरे दादा-दादी बहुत ही स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर थे। मुझे याद है बूढ़े होने पर भी दादा-दादी 2 रुपये का घड़ी और गामा साबुन लाते और अपनी धोती-लुग्गा (साड़ी) स्वयं धोते। हम लोग रात में बाबा-दादी को खाना खिलाकर, फिर अपना खाना-पीना करके दादी की खटिया के पास आते। मेरी
दादी एक खटोले पर सोती जबकि बाबा पास में ही ऊँची चौकी पर। रात में सोने से पहले मैं बाबा-दादी का पैर जरूर दबाती और दादी मुझे कहानियाँ भी सुनाती। बहुत ही रोमाँचक कहानियाँ दादी के मुँह से सुनकर आनंद आता। कभी-कभी रात में दादी के बालों में तेल भी हम लगाते और उसकी सन हुई बालों में छोटी चोटी करते जो दादी पर बहुत अच्छी लगती।
BHU में पढ़ना एक सपना लग रहा था। वह गुलाबी फॉर्म मैंने नहीं भरा तो मेरे पास ऑप्शन भी नहीं थे। इसलिए BHU
पर ही फोकस था। पिताजी ने नौकरी के बाद बहुत अलग-अलग तरह के बिजनस अपनाए। ताकि घर का खर्चा निकल सके। पिताजी ने एमवे कंपनी का प्रोडक्ट बेचा, सरसों के तेल का बिजनस किया, चायपत्ती भी बेची, लेकिन सफल नहीं हुए। परिवार की जीविका चलाने के लिए उनसे जो बन पड़ा, उन्होंने किया। बाद में फल बेचने का भी काम किया। उन्होंने मुहल्ले के एक दो लोगों की साझेदारी में फल बेचने का काम भी किया। लेकिन ये आढ़त का काम था। चूंकि बहनों की शादी की चिंता भी थी। बड़ी बहन के लिए रिश्ते की बात चलने लगी थी, पिताजी ने सोचा कि इसी के साथ बीच वाली बहन की भी शादी कर देता हूँ। बड़ी बहन के बहुत रिश्ते आए और चले गए। कम से कम 20 रिश्ते आकर चले गए थे। पिताजी और माँ बहुत हताश भी होते। इसी बीच एक रिश्ता जमा तो लड़के वालों ने ज्यादा दहेज की डिमाँड रख दी। लड़के वालों ने दहेज उस समय 3 से 4 लाख माँगा, लड़का वकालत की तैयारी कर रहा था। मेरी दीदी बीए कर रही थी, इधर बीच वाली दीदी के लिए भी एक रिश्ता आया और बात पक्की हो गई। बड़ी दीदी का रिश्ता ज्यादा दहेज के कारण नहीं हो पाया। पिताजी का साफ कहना था कि हमारी चार बेटियाँ हैं यदि एक पर इतना लगा देंगे तो बाकी का कैसे करेंगे। इधर बीच वाली दीदी के लिए जो लोग रिश्ता लेकर आए थे, उन्हें रिश्ता मंजूर था, और उन्हें तुरंत शादी करनी थी। मेरी दीदी की उम्र तब 19 साल थी और वह अभी स्नातक दूसरे वर्ष में थी। ससुराल पक्ष वाले बनारस के बड़े फल व्यापारी थे। मेरी माँ ने कहा कि हमारी लड़की अभी पढ़ रही है, तो उन्होंने कहा कि हम बनारस में बीएचयू में उसे पढाएँगे, आप चिंता न करें। मेरे माता-पिता भी निश्चिंत हो गए।
उन्होंने शादी की डेट 6 फरवरी तय की। मऊ में सगाई का एक बड़ा कार्यक्रम भी करवाया। जिसमें बनारस से बहुत लोग आए थे। शादी में दहेज के लिए उस समय मेरे पिताजी से 1 लाख की डिमाँड रखी गई। मेरे पिताजी के पास उतना भी पैसा नहीं था, जिनसे भी उन्होंने मदद माँगी उन लोगों ने मौके पर साफ इनकार कर दिया। शादी से पहले एक रसम करने आए लड़के वालों को कहा गया कि अस्सी हजार में ही आप रिश्ता तय कर लीजिए। मुझे याद है कि पिताजी उन लोगों का भी सामना नहीं कर पाए थे, बेचैन थे, वो एक कमरे में चले गए थे। तभी मेरी माँ और बुआ (पिताजी की मुँह बोली बहन) लड़के पक्ष से बात करने आईं और अपनी असमर्थता जताते हुए उन्होंने स्पष्ट कह दिया। हमारे पास इतना ही है। लड़की का परिवार कैसे इस संसार में गर्दन झुका कर रहता है वो उस दिन पता चल रहा था, समाज भी उसे ऐसा करने पर मजबूर करता है। लाख दहेज प्रथा के खिलाफ कानून बने लेकिन उन कानूनों से वाकिफ होने के बावजूद भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी दहेज न देने और लेने का विरोध नहीं कर पाता है। दहेज देना और लेना ही किसी के लिए मजबूरी और किसी के लिए धर्म बन जाता है। खैर, वो लोग बहुत मना करने पर बाद में मान भी गए थे। शादी का दिन नजदीक था लड़के वालों ने जो-जो कहा पिताजी उनके अनुसार तैयारी कर रहे थे, लेकिन बीच में लड़के के पिता जी की तबीयत बहुत खराब हो गई थी, वो हास्पिटल में एड्मिट हो गए थे। शादी होगी, नहीं होगी दोनों पक्ष इसी में चिंतित थे। तब लड़के वालों ने कहा कि शादी संकट मोचन मंदिर में होगी।
6 फरवरी
2005 को शादी संकट मोचन मंदिर, बनारस में हुई। लड़के के पिताजी को ऑक्सीजन के सहारे व्हील चेयर पर लाया गया। लड़के के पक्ष से ज्यादा लोग नहीं थे। मऊ से भी उस समय बहुत कम लोग ही आ पाए थे। हम अपनी माँ(दादी ) को भी नहीं लाए। मुझे बहुत ही खराब लग रहा था। तब बाबा नहीं थे, उनका देहावसान
2000 में ही हो गया था। उनके बहुत से रिश्तेदार नहीं आ पाए। आर्थिक मजबूरी थी, सबके लिए साधन करके मऊ से बनारस लाना महँगा पड़ता, इसलिए उन्होंने बहुत से रिश्तेदारों को मना कर दिया। पिताजी ने मुझे भी शादी में ले चलने से मना कर दिया था। घर में केवल हम भाई बहनों में पिताजी बड़ी दीदी और दोनों भाईयों को ले जा रहे थे। मैंने भी जिद्द पकड़ ली कि मैं अपनी दीदी की शादी में जरूर जाऊँगी। मैं रो रही थी और कह रही थी कि ..
‘मेरी
दीदी की शादी है, मैं नहीं जाऊँगी तो कौन लोग जाएँगे’, अंततः मेरी जिद्द के आगे पिताजी को झुकना पड़ा, पिताजी को एक अलग गाड़ी करनी पड़ी मैं और मेरी छोटी बहन तब आ पाए थे, नहीं तो हमारा आना मुश्किल था। पिताजी मेरी जिद्द से बहुत ही नाराज थे, उनको गुस्सा भी तब बहुत आता था। खैर, शादी में हम गए और हमारे पास नए कपड़े भी नहीं थे। दीदी की (सगाई) बरक्षा में जो कपड़े लड़के वालों की तरफ से चढ़े थे, हम बहनों ने वही पहना। हमने नए कपड़ों के लिए जिद्द भी नहीं की। हम भी अपने पिताजी की आर्थिक मजबूरियों को समझते थे।
दीदी की शादी हो चुकी थी, मेरा 12 वीं का रिजल्ट भी आ गया था। BHU
में पढ़ने की जिद्द जारी थी और पिताजी का न मानना भी। दीदी की शादी से घर में आर्थिक स्थिति और कमजोर हो गई थी। पिताजी ने कहा कि हम तुम्हें नहीं पढ़ा पाएँगे। मैं भी बोलती रही कि पढ़ना है तो बाहर, नहीं तो नहीं। उन्होंने कहा कि पैसा कहाँ से आएगा? मैंने कहा बीड़ी बेचूँगी, दौरी बनाऊँगी लेकिन पढ़ूँगी तो बाहर ही। मैं कहाँ आपसे पैसा माँग रही हूँ, कुछ काम करूँगी और पढ़ाई का खर्च निकाल कर पढ़ूँगी। बीड़ी बेचने का ख्याल मुझे अपने स्कूल के पास बीड़ी बीनती-बनाती एक महिला से आया, वहीं दो चार निम्न जाति की महिलायें बाँस की दौरी बनाती और बेचती। मैंने सोचा कि जब ये महिलाएँ अपने परिवार का पेट पालने के लिए ये काम कर सकती हैं तो मैं अपनी पढ़ाई जारी करने के लिए क्यों नहीं कुछ काम
कर सकती हूँ। पिताजी को कहा तो वो नाराज हो गए। बोले कुछ भी कह लो, मैं नहीं पढ़ाऊँगा। मैंने वह गुलाबी फॉर्म नहीं भरा। हमारे घर के मकान से सटा एक पंडित जी का मकान था। सोनकर मुहल्ले में एक किनारे पर उनका मकान था। वह क्षेत्र कतुआपुरा पूरब कहलाता, जहाँ ओबीसी जाति के भी कुछ घर थे। जिस स्कूल में मैं पढ़ रही थी वो वहीं प्रिन्सपल थीं। उनका नाम सुशीला पाण्डेय था। उनके बेटे और बहू भी शिक्षक थे। पूरे मुहल्ले में हमारी शिक्षा दीक्षा देखकर वो हैरान रहती थीं। उनका पोता सूरज कभी-कभी हमारे घर आता। मेरी माँ ने भी यह बात उनसे कही कि देखिए ये नहीं मान रही है.. इसको समझाइए। उन्होंने मुझसे कहा कि क्यों जिद्द पकड़ी हो, मऊ में अच्छा कॉलेज है, यहीं का फॉर्म भर दो और यहीं पढ़ो, मुझे उनकी बात उस समय कांटे की तरह चुभीं थीं। बाद में जब उनकी पोतियाँ बड़ी हुईं तो पता चला कि उन्हें पढ़ाने के लिए उन्होंने दिल्ली और गाजियाबाद भेजा है, खैर तब मैं JNU
में थी, मुझे वो वाकया जब याद आता है तो उस मंशा को भाँप पाती हूँ कि हम कैसे आगे बढ़ सकते थे। हम निम्न जाति के लोग कैसे किसी से आगे बढ़ सकते थे! जब मऊ में अच्छे कॉलेज थे, तो उन्होंने अपनी पोतियों को बाहर पढ़ने क्यों भेजा। हम तब तक उस इंसान के मन में चल रही ईर्ष्यालु भावनाओं को नहीं समझ सकते जब तक परिणाम सामने न हो। नहीं तो आपके साथ सब अच्छे हैं। चूंकि मैंने BHU
का फॉर्म भर दिया था, उसकी प्रवेश परीक्षा आने वाली थी, मेरे पिता जी पूरी तरह से इनकार कर चुके थे, और इधर मेरी भी एक जिद्द थी। मैंने घर में हड़ताल कर दिया। एक हफ्ते का भूख हड़ताल। खाना-पीना छोड़ दिया। घर में ही एक कमरा पकड़ लिया। मैंने भी सोच लिया कि या तो ये मानेंगे या मैं मर जाऊँगी। लेकिन पढ़ूँगी तो BHU
में। मैं घर का ढेरों काम करती, खाना बनाती, पूरे घर के कपड़े धोती लेकिन खाना नहीं खाती, काम करने का कारण यह भी था कि अपने आपको तपा देना है। मैंने सोचा कि जब मर जाऊँगी तभी इन्हें होश आएगा। मैं घर में किसी से बात भी नहीं करती। चिंता तो होती थी पिताजी को लेकिन अपने अहम के कारण वो कुछ कहते नहीं थे। एक दिन उन्होंने मेरे पास माँ को भेजा और बोले ..
‘जाओ समझा कर आओ’.....माँ, कमरे में आई बोली कि .. मान क्यों नहीं जाती, मरना है क्या? वह खाना लेकर आई थी.. ‘बोली खा लो, मैंने भी मना कर दिया कि नहीं खाऊँगी, भले मर जाऊँ।’ मेरे अंदर गुस्सा बहुत था .. मैंने भी माँ से कहा कि तुम्हीं समझा दो जाकर पिताजी को।
प्रवेश परीक्षा का दिन आ गया था। दूसरी सुबह प्रवेश परीक्षा थी, मैंने सोचा पिताजी तो नहीं मानेंगे, इसलिए कोई उम्मीद करना ठीक नहीं था, मैं थोड़ी बहुत भी बची उम्मीद हार रही थी। फिर उस रात माँ आईं बोली..
‘उठो चलो मैं लेकर चलती हूँ’, मैनें पूछा,
‘कहाँ...?’
तो बोली ‘परीक्षा देने चलना है?’ मेरी आँखों में रोशनी भर आई... यह वही आखिरी उम्मीद थी जो मेरे आँखों में चमकने लगी थी .. मैंने उन्हें कहा कि पहले अपने पति से पूछ लो। वो तुम्हें डाटेंगे या घर से निकाल देंगे तो.. बोली ‘मैं हूँ ना, चलो।’ रात के बारह बज रहे थे। तभी माँ छत पर गई और पड़ोस की छत पर सोये एक भैया को उठाकर बोला कि बनारस चलना है, वह भैया तैयार हुए। भैया का बोल-चाल हम लोगों के घर से था, वह उनके रिश्तेदार लगते थे। अब हम लोग 2 बजे रात को घर से निकले, पूरी सड़क पर सन्नाटा था, हमने रिक्शा किया।
अब मऊ के रेलवे स्टेशन पर हम पहुँच चुके थे, चौरी-चौरा एक्सप्रेस पकड़ने, जो हमें सुबह 6 बजे तक बनारस पहुँचा देती। हम बनारस पहुँच चुके थे, ना खाने-पीने की वजह से मेरा मुँह बहुत उतर गया था, कमजोरी की रेखाएं मेरे चेहरे पर साफ झलक रही थीं। माँ ने कहा कि कुछ खा लो, उन्होंने 20 रूपये की पूड़ी-सब्जी लंका से खरीदी और मुझे खिलाया। उसके बाद हम BHU
गए। माँ ने कहा घबराना मत पेपर अच्छे से देना। पेपर देकर आई तो भीड़ बहुत थी, प्यास के मारे कंठ सूखा जा रहा था। जून की दुपहरी थी, माँ ने एक बोतल पानी लिया और हमने पानी पीकर प्यास बुझाई। माँ कक्षा दो तक ही पढ़ी थी। अक्षर ज्ञान था उन्हें, पढ़ लेती थी और अपना हस्ताक्षर करना जानती थी। लिखना भी जानती थी। अखबार किसी कथावाचक की तरह पढ़ती। हम भाई बहन पूछते आगे क्यों नहीं पढ़ी तो बोलती दुलार में स्कूल ही नहीं गई, इसलिए दो ही तक पढ़ी। उनके चाचा उन्हें बहुत प्यार करते थे। माँ के भी पिता जी तीन भाई थे, संतानों में माँ के बड़े होने के कारण माँ को नाना जी लोगों से खूब प्यार मिला, मेरी माँ का घर दोहरीघाट था। माँ का वह रूप मुझे आज भी याद आता है.. जब बोली ‘चलो मैं ले चलती हूँ..परीक्षा दिलाने।’ मेरे उम्र के इस पड़ाव में अंधेरा छटना जैसे शुरू हो गया था।
प्रियंका सोनकर
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