शोध आलेख : अष्टादश पुराणों में नारी : स्थिति, अधिकार तथा दायित्व / संतोष कुमार पाण्डेय

अष्टादश पुराणों में नारी : स्थिति, अधिकार तथा दायित्व
- संतोष कुमार पाण्डेय 

 

शोध सार : भारतीय संस्कृति के स्वर यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं कि पुराण सतत आगे बढ़ते रहने को अपना लक्ष्य मानते आए हैं तथा उसके लिए जिस दृष्टि की आवश्यकता है वह पौराणिक मनीषियों के पास मौजूद है। कोई भी समाज सुचारू ढंग से प्रगति तभी कर सकता है जब उसमें स्त्रियों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होने के साथ-साथ उन्हें यथोचित सम्मान भी प्राप्त हो। इसी कारण लगभग सभी पुराणों में नारी को प्रत्येक स्वरूप में पूजनीय तथा प्रशंसनीय बताकर सम्मानित स्थान दिया गया। इसमें नारी को समाज की उस शिक्षित, सशक्त तथा समर्थ सदस्य के रूप में प्रतिबिम्बित किया गया जो एक पत्नी, एक माता, एक बहन तथा एक पुत्री के रूप में अपने दायित्व का सम्यक् निर्वहन कर सकने में सक्षम है। एक तरफ जहाँ वह पत्नी रूप में अपने पति की सबसे अच्छी मित्र, सहयोगी तथा मार्गदर्शक है, वहीं दूसरी तरफ एक पुत्री के रूप में वह अपने पिता के साथ आवश्यकता पड़ने पर कन्धे से कन्धे मिलाकर चल सकने में समर्थ है। इसी प्रकार एक माता के रूप में वह अपने पुत्र के समुचित पालन-पेाषण तथा उसके शिक्षा-दीक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने को तत्पर है। इसी कारण माता के रूप में उसे त्याग-बलिदान की प्रतिमूर्ति बताकर भूमि तथा पिता से भी ऊँचा स्थान दिया गया। पौराणिक समाज पितृसत्तात्मक होने के बावजूद इसमें अनेक स्थानों पर पुत्री के जन्म की कामना की गई, उसके पालन-पोषण के साथ-साथ शिक्षा का भी प्रबन्ध माता-पिता के द्वारा करवाया गया तथा उसे सीमित स्तर पर (कुछ शर्तों के अधीन) सम्पत्तिक अधिकार भी प्रदान किए गए। 

 

बीज शब्द : पुराण, नारी, पुत्री, पत्नी, बहन, माता, पुत्र, पति, भाई, पिता, अधिकार, सम्पत्तिक अधिकार, स्त्रीधन।

 

मूल आलेख : जिस प्रकार रथ को चलाने के लिए दो पहियों की आवश्यकता होती है, व्यक्ति को चलने के लिए दो पैरों की आवश्यकता होती है, स्वयं चिड़िया को उड़ने के लिए दो पंखों की आवश्यकता होती है ठीक उसी प्रकार इस समाज को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए नर तथा नारी दोनों की अनिवार्यता होती है। किसी एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। नारी साक्षात देवी का स्वरूप है, वह परमब्रह्म परमात्मा की अद्वितीय कृति है। यद्यपि नर तथा नारी दोनों इस सृष्टि के प्रारम्भ से ही एक दूसरे के सहयोगी रहे हैं परन्तु विविध कारणों से नारी नर की अपेक्षा श्रेष्ठ है। इसी कारण सभी पुराणों में मुक्त कण्ठ से नारी की प्रशंसा की गई। पद्म पुराण में नारी के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया कि स्वर्ग, कुल, यश, अयश, पुत्र, दुहितृ तथा मित्र इत्यादि नारी के अधीन हैं

 

दारेष्वधीनं स्वर्ग कुलं पंकयशोऽयशः।

पुत्रं दुहितरं मित्रं संसारे कथयन्ति च।।

(पद्म पुराण, सृष्टि खण्ड, 49/32)

           

पुराणों में माता पार्वती, माता सीता, आदि शक्ति दुर्गा, अदिति, शाण्डिलिनी, सुकन्या, मदालसा, गान्धारी, द्रौपदी, कुन्ती, सावित्री, शैव्या, शकुन्तला, सुदेवा, माद्री, उत्तरा, कौशल्या तथा कैकेयी जैसी अनेक स्त्रियों के नाम मिलते हैं जो अपने विशिष्ट गुणों के कारण समाज में आदर पाती थी। इस समय नारी को माता, पत्नी, पुत्री, बहन इत्यादि रूपों में प्रतिबिम्बित किया गया तथा प्रत्येक स्वरूप में उन्हें पूजनीय माना गया। पुत्र को जन्म देने तथा उसके पालन-पोषण में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने के कारण उसका स्थान गुरु तथा पिता से ऊपर बताया गया। पुराणों में अनेक स्थानों पर माता की प्रशंसा करते हुए जननी माता, अम्बा, मान्या, वदान्या, शिवा, देवी, धृति, गौरी, विजया इत्यादि नामों से सम्बोधित किया गया। पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड (47/51-53) में नारी के मातृत्व स्वरूप का गुणगान करते हुए कहा गया कि माता-पिता की सेवा करने वाले व्यक्ति के वेदाध्ययन, यज्ञ, तीर्थयात्रा, स्नान, व्रत, दान इत्यादि व्यर्थ हो जाते हैं। इसी पुराण में आगे बताया गया कि यज्ञ, तीर्थ, दान, व्रत इत्यादि पुण्यप्रदायी कर्मों का फल माता-पिता की सेवा करने मात्र से ही प्राप्त हो सकता है। एक पुत्र के लिए माता-पिता बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है

 

नास्ति मातुः परंतीर्थ पुत्राणां पितुस्तथा।

नारायण से भावेवाविह, चैव परत्र च।।[1]

           

पद्म पुराण की ही भाँति महाभारत में भी नारी को माता के रूप में सर्वोच्च स्थान दिया गया-

 

नास्तित्व मातृसमा छाया नास्ति मातृसभा गतिः।

नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमः प्रियः।।[2]

           

पद्म पुराण के ही सृष्टि खण्ड (47/64-72) में माता के स्वरूप की प्रशंसा करते हुए बताया गया कि ‘‘दस आचार्यों से उपाध्याय, दस उपाध्यायों से पिता तथा पिता से भी 10 गुणा अधिक माता श्रेष्ठ है। माता समस्त पृथ्वी को अपनी गुरुता से अभिभूत कर सकती है। अतः माता से बढ़कर कोई अन्य पूज्य नहीं है।’’

           

पुराणों में अनेक स्थानों पर माता को बच्चे का प्रथम गुरु बताया गया तथा इसमें माता द्वारा अपने बच्चे का पालन-पोषण के साथ-साथ समुचित शिक्षा दिए जाने का भी वर्णन प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए मार्कण्डेय पुराण में माता मदालसा का अपने पुत्र को लोरियों द्वारा शिक्षा दिए जाने का उल्लेख है जहाँ उन्होंने लोरियों द्वारा दी गई शिक्षा से अपने पुत्र को संसार की समस्त बुराइयों से मुक्त कर दिया।[3] इसी पुराण के मदालसा उपाख्यान में बताया गया कि ‘‘जो गौ, ब्राह्मण की रक्षा के निमित्त युद्ध में भयरहित चित्त से, शस्त्र से मरता है, उसे मनुष्य कहते हैं, जिसके द्वारा मित्र, याचक तथा शत्रुगण विमुख नहीं होते हैं, इसी से पिता पुत्रवान होता है। जब एक पुत्र शत्रु पर विजय प्राप्त करता है अथवा युद्ध भूमि में शहीद हो जाता है तभी नारी (माता) के गर्भ का क्लेश सफल होता है।’’[4] ब्रह्मवैवर्त पुराण में गृहस्थ जीवन में माता के महत्व का वर्णन करते हुए कहा गया कि जिस व्यक्ति के घर में माता/प्रियवादिनी भार्या नहीं है, उसका घर शून्य हो जाता है अर्थात् वह घर अरण्य के समान हो जाता है

 

यस्य माता गृहे नास्ति गृहिणी वा सुशासिता।

अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम्।।

           

इस प्रकार पुराणों में विविध स्थानों पर पुत्र को जन्म देकर पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने, उसका समुचित पालन-पोषण करने, उसे गुरु की भाँति उचित-अनुचित की शिक्षा देकर एक जिम्मेदार नागरिक बनाने इत्यादि कारणों से माता के रूप में नारी को भूमि (पृथ्वी), गुरु तथा पिता से भी ऊँचा स्थान देकर समाज में उनके महत्व को नतमस्तक होकर स्वीकार किया गया। पुराणों में नारी के माता स्वरूप की भाँति इनके पत्नी स्वरूप को भी उचित सम्मान दिया गया। इसमें पत्नी को कान्ता, जाया, पत्नी, प्रिया, प्रियतमा, निजबधू, प्रियांगना, भार्या, भगिनी, बधू, स्त्री, बहू, बल्लभा, बल्लभिका, सहचारिणी, श्रीमती इत्यादि सम्मानसूचक शब्दों के सम्बोधित किया गया। पौराणिक समाज में नर तथा नारी को एक दूसरे का पूरक बताया गया। इन्हें समाज रूपी रथ का दो पहिया स्वीकार किया गया। अर्थात् जिस प्रकार एक पहिये से रथ गतिमान नहीं हो सकता है, ठीक उसी प्रकार नर तथा नारी के परस्पर सहयोग के बिना यह समाज प्रगति नहीं कर सकता है। पुराणों में नारी को नर का साधक ही माना गया कि बाधक। एक के अभाव में दूसरे को अपूर्ण स्वीकार किया गया। भविष्य पुराण में इसी बात पर बल देते हुए कहा गया है कि पत्नी विहीन पुरुष अपूर्ण है, वह अर्धपुरुष है-

 

पुमानर्द्धपुमाँस्तावद् यावद् भार्या विन्दति।

                                                                        (भविष्य पुराण, अध्याय सप्तम्)

           

विष्णु पुराण में नर तथा नारी की संयुक्त शक्ति को ही इस सृष्टि का मूल बताया गया-

 

अर्धनारी नरवपुः प्रचण्डोऽति शरीरवान्।

विभज्यात्मानमित्युक्त्वां तं ब्रहमान्तर्दधे ततः।।

           

पुराणों में अनेक स्थानों पर पत्नी रूप में नारी अपने पति का सबसे अच्छा मित्र तथा मार्गदर्शक बताई गई। उदाहरण के लिए बृहद्धर्मपुराण के पूर्वखण्ड (2/36) में स्त्री को पुरुष का सबसे बड़ा मित्र माना गया (नास्ति भार्यासमं मित्रम) ठीक इसी प्रकार स्कन्दपुराण के कुमारी खण्ड में नारी को सबसे बड़ा मार्गदर्शक बताया गया (नरं नारी प्रोद्धरति मज्जन्तं भववारिधी) स्वयं मार्कण्डेय पुराण तथा मत्स्य पुराण में पति-पत्नी की परस्पर अनुकूलता को त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) का साधक बताया गया। पद्म पुराण में गृहस्थ जीवन में पत्नी की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि ‘‘गृहस्थ जीवन में पति के लिए पत्नी के समान कोई अन्य पवित्र वस्तु नहीं है, पत्नी से बढ़कर कोई सुख नहीं, पत्नी ही मोक्ष प्राप्ति में सहायक है, पति के लिए बिना पत्नी के किया गया समस्त धार्मिक कृत्य निष्फल होता है।’’[5] पद्म पुराण का सुकला चरित्र पौराणिक समाज में स्त्रियों के सामाजिक तथा धार्मिक महत्व का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है। पत्नी के सहयोग के अभाव में पुरुष (पति) द्वारा सम्पन्न की गई समस्त धार्मिक क्रियाएँ किस प्रकार निष्फल हो जाती हैं, यह आख्यान उसी का जीवंत प्रमाण है। इस आख्यान के वर्णनानुसार- ‘‘कृकल नामक वैश्य अपनी सती-साध्वी पत्नी सुकला को घर पर छोड़कर अकेले ही तीर्थयात्रा किया। इस अपराध के कारण उसे पुण्य के बदले पाप का भागीदार होना पड़ा। इस अपराध से उसे मुक्ति तब मिली जब उसने धर्मराज की आज्ञा से पुनः अपनी पत्नी सहित समस्त तीर्थों की यात्रा तथा पितरों का श्राद्ध किया।’’[6] इस तरह पुराणों में अनेक स्थानों पर नारी के अधिकार, पुरुषों के जीवन में उनके महत्व के साथ-साथ उनके कर्त्तव्य का भी बोध कराया गया। यहाँ पर उल्लेखनीय है कि नारी का यह महत्व उसी स्थिति में संभव था जब वह अपने पतिव्रत धर्म तथा कर्त्तव्य का समुचित रूप से निर्वहन करती। पति के प्रति धर्म शास्त्रों में निर्दिष्ट अपने कर्त्तव्य का सम्यक् पालन करने वाली नारी को हीपतिव्रता नारीकहा गया। पुराणों में पतिव्रता नारी की प्रशंसा करते हुए कहा गया कि पतिव्रता नारी सिर्फ परिवार के लिए बल्कि राष्ट्र तथा संस्कृति के लिए भी गौरव होती है। जिस प्रकार नदियों में गंगा, मनुष्यों में राजा, देवताओं में भगवान विष्णु श्रेष्ठ हैं, ठीक उसी प्रकार नारियों में पतिव्रता श्रेष्ठ है-

 

नदीनां जाह्नवी श्रेष्ठा प्रमदानां पतिव्रता।

मनुष्याणां प्रजापालो देवनां जनादैनः।।

                                                                        (पद्म पुराण, सृष्टि खण्ड, 47/50)

           

स्कन्द पुराण के अनुसार पतिव्रता नारी के दर्शन मात्र से ही घर इत्यादि पवित्र हो जाता है-

 

यथा गंगावगाहिनः शरीरं पावनं भवेत्।

तथा पतिव्रतां दृष्ट्वा सदनं पावनं भवेत्।। (स्कन्द पुराण, 7/13)

           

अर्थात् जिस प्रकार गंगा में स्नान करके शरीर पवित्र हो जाता है, ठीक उसी प्रकार पतिव्रता स्त्री के दर्शन से घर पवित्र हो जाता है। इसी पुराण में एक अन्य स्थल पर पतिव्रता नारी की प्रशंसा करते हुए कहा गया कि पतिव्रता नारी का चरण जिस भूभाग पर पड़ता है, वह स्थान तीर्थ के समान पवित्र हो जाता है।[7] स्वयं ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी पतिव्रता नारी का गुणगान करते हुए कहा गया कि पृथ्वी के समस्त तीर्थ पतिव्रता नारी के चरणों में विद्यमान हैं-

                       

पृथिव्यां यानि तीर्थानि सतीपदेषु तान्यपि।[8]

           

पुराणों में पतिव्रता नारियों का गुणगान करने के साथ-साथ इनके असाधारण कार्यों का भी उल्लेख स्थान-स्थान पर मिलता है। पद्म पुराण में ब्राह्मणी सैव्या की कथा मिलती है। इस पतिव्रता स्त्री ने कुष्ठ रोगग्रस्त अपने पति की कामेच्छा की पूर्ति के लिए वेश्या की सेवा कर उसे प्रसन्न किया। इसी प्रकार की कथा मार्कण्डेय पुराण में भी वर्णित है जहाँ सती शाण्डिली ने अपने कुष्ठ रोग से ग्रस्त पति के लिए सूर्य के उदय को ही रोक दिया था।[9] मत्स्य पुराण में सावित्री-सत्यवान की कथा वर्णित है, इसमें सावित्री के सतीत्व की प्रशंसा करते हुए कहा गया कि वह एक महान पतिव्रता नारी है, उसके सम्मुख स्वयं यमराज को झुकना पड़ा तथा उसके पति सत्यवान के प्राण वापस करने पड़े।[10] मार्कण्डेय पुराण में अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया का नाम तथा उनके सतीत्व सम्बन्धित उपदेशों का भी वर्णन प्राप्त होता है। पद्म पुराण में पतिव्रता नारी के सतीत्व की प्रशंसा करते हुए बताया गया कि पतिपरायण निरन्तर पति के हित में तत्पर रहने वाली पतिव्रता नारी देवी-देवताओं, ब्राह्मणों तथा मुनियों की भी आराध्या है-

 

पतिव्रता पतिप्राणा सदा पत्युहितरेता।

देवानामपि साऽऽराध्या मुनीनां ब्रहमवादिनाम्।।[11]

           

पुराणों में माता तथा पत्नी की भाँति पुत्री रूप में भी नारी की पूजा की गई। इस समय का समाज पितृसत्तात्मक जरूर था, लोग अनेक कारणों से पुत्र के जन्म की ही कामना अधिक करते थे परन्तु पुराणों में अनेक ऐसे वर्णन मिलते हैं जहाँ पुत्री के जन्म की इच्छा व्यक्त की गई तथा पुत्री के जन्म लेने पर खुशी व्यक्त की गई। उदाहरण के लिए ब्रह्मवैवर्त पुराण (15/28) में राजा अश्वपति का अपनी पुत्री सावित्री के जन्म से अति प्रसन्न होने का वर्णन है। श्रीमद भागवत पुराण में वैवस्वत मनु तथा उनकी धर्मपत्नी ने पुत्री के जन्म की कामना की जिससेइलाका जन्म हुआ-

 

तत्र श्रद्धाः मनोः पत्नी होतारं समयाचत।

दुहित्रर्थमुपागम्य प्रणिपत्यं पयोव्रतम्।।

                                                                        (श्रीमद्भागवत पुराण, 1/1/14)

           

पुराणों में एक तरफ जहाँ पुत्री के जन्म की कामना की गई, वहीं इसमें अनेक ऐसे वर्णन भी प्राप्त होते हैं जिससे स्पष्ट पता चलता है कि इस समय पुत्रियों का भी समुचित रूप से पालन-पोषण किया जाता था, उनके लिए शिक्षा-दीक्षा का भी प्रबन्ध माता-पिता द्वारा किया जाता था। इस समय कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी थी जो गुरुकुल में जाकर गुरु से शिक्षा प्राप्त कर विविध विद्या में पारंगत भी हो चुकी थी। उदाहरण के लिए भविष्य पुराण में स्वर्णवती नामक स्त्री का वर्णन है जो समस्त प्रकार की विद्या में पारंगत थी-

 

ज्ञात्वा स्वर्णवती देवी सर्वविद्या विशारदा।[12]

           

श्रीमदभागवत पुराण में बाणासुर की पुत्री चित्रलेखा का उल्लेख मिलता है जो योगविद्या में पारंगत थी।

 

चित्रलेखा तमाज्ञाय पौत्रं कृष्णस्य योगिनी।

ययौ विहायसा राजन् द्वारकं कृष्णस्य पालिताम्।।

(श्रीमद0/स्क0 10/.62/2.22, पृ0 999)

           

पुराणों में अपर्णा[13], एकपर्णा, एकपाठला[14], मेना तथा धारिणी[15] जैसी ब्रह्मवादिनी तथा पीवरी[16] उमा[17] एवं धर्मवता[18] इत्यादि योगिनी तपस्विनी कन्याओं की जानकारी मिलती है। यहाँ पर उल्लेखनीय है कि ब्रह्मवादिनी वे स्त्रियाँ थी जो आजीवन ब्रहमचर्य का पालन करते हुए पुरुष छात्रों की भाँति शिक्षा ग्रहण करती थी। इस समय अनेक ऐसी स्त्रियाँ थी जो युद्ध कला (सैन्य शिक्षा) में निपुण थी, वे पुरुषों के साथ युद्ध करने तथा उन्हें पराजित कर सकने में भी समर्थ थी। कल्कि पुराण के तृतीय अंश (15/1) में एक स्त्री का कल्कि के साथ युद्ध करने का वर्णन सुरक्षित है। इसी प्रकार वायु पुराण (35/135) में भृगु ऋषि की पत्नी काव्यमाता द्वारा असुर सेना को भयभीत करना तथा भगवान विष्णु के साथ इन्द्र को भी युद्ध की चुनौती देने का वर्णन है जिसके कारण इन्द्र को युद्ध रोकना पड़ा। पुराणों में अनेक स्थानों पर स्त्रियों द्वारा राजनीति का उपदेश दिए जाने का उल्लेख सुरक्षित है। स्वयं मार्कण्डेय पुराण में राजमहिषी इन्द्रसेना द्वारा अपने पुत्र दम को राजनीति का उपदेश दिए जाने का वर्णन है। स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में नागकुल की कन्या रत्नावली का अपनी दो सखियों के साथ नृत्य करने का वर्णन है-

 

तिस्त्रोऽपि गीतं गायन्ति लसगन्धार सुन्दरम्।

रास मण्डलभेदेन लास्यं त्रिस्त्रोऽपि कुर्वते।।

           

स्कन्दपुराण के ही काशीखण्ड में (काशी में) वीरेश्वर लिंग पूजन के समय अपने पत्नियों के साथ पतियों का नृत्य-संगीत करने का वर्णन है (गायन्ति सुस्वरं याता परो निर्वाणभूमिकाम्) पद्म पुराण में रड्0गवेणी का उल्लेख है जो चित्रकला में निपुण थी-

 

सारड्. नाम्नो गोपस्य कन्याऽभूच्छुभलक्षणा।

रड्0गवेणीति विख्याता निपुणा चित्रकर्माणि।।[19]

           

इस प्रकार पौराणिक नारी राजनीति, युद्ध कला, चित्रकला, नृत्य-संगीत के साथ-साथ वेद-पुराणों की प्रकाण्ड विद्वान थी। इस समय की नारी एक माता, एक पुत्री, एक पत्नी, एक बहन के रूप में अपने दायित्व का सम्यक् निर्वहन करती थी। एक तरफ जहाँ वह पत्नी के रूप में अपने पति का पूर्ण सहयोग करती, उसके प्रगति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहती वहीं दूसरी तरफ एक पुत्री के रूप में वह अपने पिता के साथ भी कन्धे से कन्धा मिलाकर चल सकने में समर्थ थी, वह अपने पिता की आज्ञा पालन के साथ-साथ उनके कुल की यश-कीर्ति में वृद्धि के लिए भी सर्वदा प्रयासरत रहती। पुत्री के पिता का भी यह कर्त्तव्य था कि वह अपनी पुत्री को उचित शिक्षा-दीक्षा प्रदान करें, उसका समुचित पालन-पोषण करें तथा उचित समय पर उसका योग्य वर के साथ विवाह करें। वर्तमान युग की भाँति पुराणों में भी एक पिता के लिए कन्यादान का कार्य अत्यधिक गर्व के साथ-साथ अत्यधिक पुण्य का कार्य माना गया। कन्यादान तथा विवाह के पश्चात जब पुत्री अपने पति के घर (ससुराल) चली जाती तब भी उसके माता-पिता को आजीवन उसके सुख-दुःख की चिन्ता बनी रहती। समय परिवर्तन के साथ पुत्री, पत्नी तथा फिर माता बन जाती। अब एक माँ के रूप में वह अपने पुत्र के समुचित पालन-पोषण के लिए, उसके सम्यक् शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ उसके सतत् उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहती। इसके लिए आवश्यकता पड़ने पर वह अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने को तैयार रहती इसी कारण उसे माँ के रूप में त्याग बलिदान की प्रतिमूर्ति माना गया। एक शिक्षित, सशक्त समर्थ नारी ही एक माँ, एक पुत्री, एक पत्नी तथा एक बहन के दायित्व का उचित ढंग से क्रियान्वयन कर सकती थी। इसी कारण पुराणों के निर्माताओं ने अपनी दूरदर्शी दृष्टि का प्रयोग करते हुए स्त्री शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया ताकि वह शिक्षित, सशक्त तथा समर्थ बनकर समाज के उत्थान में अपना योगदान दे सके। 

 

            पुराणों में अनेक प्रसंगों में नारी के सम्पत्तिक अधिकारों से सम्बन्धित वर्णन प्राप्त होते हैं। विष्णु पुराण में एक स्थान पर स्यामंतक मणि की कथा मिलती है। इस मणि को सत्राजित ने अपने आराध्य देव सूर्य से प्राप्त किया था। सत्राजित की मृत्यु के पश्चात यह मणि सत्यभामा को उत्तराधिकार स्वरूप  में प्राप्त हुआ था जो सत्राजित की पुत्री थी।[20] यहाँ पर उल्लेखनीय है कि स्यमन्तक मणि के इस प्रसंग में सत्राजित के किसी पुत्र अथवा सत्यभामा के किसी भाई का उल्लेख नहीं है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सत्राजित के पुत्र विहीन होने की स्थिति में ही उनकी पुत्री सत्यभामा को पितृधन के रूप में यह मणि प्राप्त हुआ था। स्वयं विष्णु पुराण में एक आख्यान में राजा इक्ष्वाकु द्वारा अपने समस्त पुत्रों को समान रूप से उत्तराधिकार प्रदान करने का वर्णन है। इस आख्यान में यह जानकारी मिलती है कि राजा इक्ष्वाकु ने अपने पुत्रों को उत्तराधिकार सौंपा परन्तु स्त्री (पुत्री) होने के कारण प्रद्युम्न (सुद्युम्न) को इस अधिकार से वंचित रखा।[21] विष्णु पुराण की यह कथा ब्रह्माण्ड पुराण[22] तथा वायु पुराण[23] में भी कुछ परिवर्तनों के साथ वर्णित है। उपर्युक्त दोनों वर्णनों के आधार पर यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समय पुत्रियों (स्त्रियों) को पिता की सम्पत्ति (पितृधन) में उत्तराधिकार स्वरूप हिस्सा तभी प्राप्त हो सकता था जब वे भाई विहीन हों अथवा अविवाहित हों। इस समय स्त्री की स्वयं की सम्पत्ति (स्त्रीधन) पर उसका पूर्ण अधिकार माना गया। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार माता, पिता, पति, भाई तथा अन्य निकटतम् सगे-सम्बन्धियों द्वारा विवाह में अग्नि के समीप स्त्री को दिया गया धन स्त्रीधन कहलाता है जबकि मनुस्मृति के अनुसार अध्यागिन (विवाह तथा कन्यादान के समय अग्नि के समीप प्राप्त धन), अध्यावहनिक (पिता के घर से ससुराल जाते समय प्राप्त धन), प्रीति के लिए पति से प्राप्त धन, माता-पिता तथा भाई से प्राप्त धन एक स्त्री के लिए स्त्रीधन है (मनुस्मृति, 9/194) स्त्रीधन पर नारी का पूर्ण स्वामित्व माना गया। स्त्री के बाद उसकी पुत्री का इस पर स्वभाविक अधिकार बताया गया। इस समय विवाह के पश्चात सैद्धान्तिक रूप में नारी के पति की सम्पत्ति पर पति के साथ संयुक्त स्वामित्व माना गया, कहीं-कहीं पर उसे पति की सम्पत्ति का पूर्ण स्वामिनी बताया गया परन्तु व्यवहारिक रूप में उसे इस प्रकार के अधिकार नहीं प्राप्त हो सके थे। मनुस्मृति (9/130)  में स्पष्ट कहा गया कि पुत्र पिता की आत्मा हैं, पुत्री भी उसकी दुहिता है, उसके रहते मृतक की सम्पत्ति कोई कैसे ले सकता है? अर्थात् पुत्र की भाँति पुत्री को भी चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, मृतक पिता की सम्पत्ति में हिस्सा देने का समर्थन किया गया परन्तु व्यवहार में इस तरह के नियम प्रचलन में नहीं सके। अतः स्पष्ट है कि इस समय नारी के सम्पत्तिक अधिकारों में सिद्धान्त एवं व्यवहार में काफी भिन्नता थी। इसके लिए तत्कालीन समाज का पुरुषप्रधान होना मुख्य रूप से उत्तरदायी था। 

 

निष्कर्ष : पुराणों में नारी माता, पत्नी, बहन, पुत्री इत्यादि रूपों में प्रतिबिम्बित की गई। उसे प्रत्येक स्वरूप में घर की लक्ष्मी सदृश मानकर पूजनीय, प्रशंसनीय तथा सम्माननीय स्थान दिया गया। इसमें माता पार्वती, माता सीता, आदि शक्ति दुर्गा, गान्धारी, द्रौपदी, कुन्ती, धारिणी, उमा, पीवरी, शकुन्तला, माद्री, सुदेवा, उत्तरा, कौशल्या, कैकेयी, अनसूया जैसी अनेक नारियों के नाम मिलते हैं जो अपने विशिष्ट गुणों के कारण समाज में आदर-सम्मान की हकदार थी। प्रायः सभी पुराणों में नारी का वर्णन समाज की उस शिक्षित, सशक्त तथा समर्थ सदस्य की तरह किया गया जो एक माता, एक पत्नी, एक पुत्री के रूप में अपने दायित्व का सम्यक् निर्वहन कर सकने में सक्षम है। इसमें सैद्धान्तिक रूप में स्त्रियों को पुरुषों के समान तथा कहीं-कहीं पर पुरुषों से भी श्रेष्ठ बताया गया, उसे प्रत्येक स्तर पुरुष की सहयोगी तथा मार्गदर्शक बताया गया परन्तु व्यवहारिक रूप में वह पुरुषों  के अधीन ही रही। जहाँ तक नारी के सम्पत्तिक अधिकारों का प्रश्न है, तो उसे पिता की सम्पत्ति में उत्तराधिकार के रूप में हिस्सा तभी मिल सकता था जब वह भाई विहीन हो अथवा अविवाहित हो। इस समय विवाहित स्त्री का उसकी स्वयं की सम्पत्ति (स्त्रीधन) पर ही पूर्ण अधिकार माना गया। स्त्रीधन के अतिरिक्त पति के अथवा पिता के अन्य किसी भी सम्पत्ति पर व्यवहारिक रूप में विवाहित स्त्री का कोई पृथक स्वामित्व स्वीकार नहीं किया गया।

 

सन्दर्भ :

  1. पद्म पुराण, भूमि खण्ड, 63/13
  2. महाभारत, 258/25-29
  3. श्री राम शर्मा, (सं0), मार्कण्डेय पुराण, संस्कृति संस्थान बरेली, 1969, मदालसा का पुत्र उल्लापन, श्लोक 11-62
  4. वही, मदालसा उपाख्यान-2, श्लोक 44-46
  5. पद्म पुराण, 59/20-24
  6. वही, भूमिखण्ड, 60/11
  7. स्कन्द पुराण, 7/19
  8. ब्रह्मवैवर्त पुराण, 3/5/111
  9. श्री राम शर्मा, मार्कण्डेय पुराण, प्रथम खण्ड, अध्याय 16, श्लोक 31-32
  10. श्रीराम शर्मा, (सं0), मत्स्य पुराण, प्रथम खण्ड, संस्कृति संस्थान, बरेली, 1970, पृ0 27
  11. पद्म पुराण, सृष्टि खण्ड, 48/5
  12. भविष्य पुराण, 24/401
  13. वायु पुराण, 72/13-15
  14. ब्रहमाण्ड पुराण, 3/10/15-16
  15. विष्णु पुराण, 3/10/19
  16. मत्स्य पुराण, 15/5/6
  17. वायु पुराण, 41/31, मत्स्य पुराण 154/290, 294-301, 308-309
  18. वायु पुराण, 107/5-6
  19. पद्म पुराण, पाताल खण्ड, 72/20
  20. विष्णु पुराण, 4/13/131-140, 151-154
  21. वही, 4/1/15
  22. ब्रहमाण्ड पुराण, 3/60/21
  23. वायु पुराण, 85/21

 

 

संतोष कुमार पाण्डेय
शोध छात्र(SRF), प्राचीन इतिहास पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग, तिलकधारी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जौनपुर (उ.प्र.)
सम्बद्ध : वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय,जौनपुर (उ.प्र.)
santoshau4@gmail.com, 9415311389

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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