शोध आलेख : मीडिया में व्यंग्यचित्र ; पदार्पण एवं सामाजिक भूमिका / शिवांगी दाधीच एवं मदन सिंह राठौर

मीडिया में व्यंग्यचित्र ; पदार्पण एवं सामाजिक भूमिका
- शिवांगी दाधीच एवं मदन सिंह राठौर

शोध सार : व्यंग्यचित्रजिसे आम प्रचलित भाषा मेंकार्टूनयाकैरीकेचरसे सम्बोधित किया जाता है, आज बदले समय में दैनिक समाचार-पत्र, साप्ताहिक एवं मासिक पत्रिकाओं के साथ-साथ ऑनलाइन कला के विविध मंचों, वेब पेज, व्यक्तिगत वेब पेज, सोशल मीडिया पर एक विशिष्ठ स्थान बनाये हुए हैं। समाचार पत्र में प्रकाशित एक छोटा-सा व्यंग्यचित्र नित्य ही पाठक के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान ला देता है, साथ ही शिक्षित भी कर जाता है।  हास्य और व्यंग्योक्ति से भरे इन व्यंग्यचित्रों का उद्देश्य पाठक अथवा दर्शक को तत्कालीन घटी घटना और परिदृश्य के प्रति एक नज़रिया प्रदान करना है, जिससे वह परिस्थितियों की उचित समीक्षा कर सके। भारत में व्यंग्य चित्रों का पदार्पण, जनसंचार माध्यमों में इनकी आवश्यकता एवं समाज में इनके महत्व को स्पष्ट करने का प्रयास प्रस्तुत शोध आलेख में किया जाएगा।

बीज शब्द : व्यंग्योक्ति, विचारोत्तेजक, विद्रुपतायें, अनीतिपरक, विदूषक, विकृत मुखाकृतियाँ, पदार्पण, विसंगतियां, परिदृश्य, कटाक्ष।

मूल आलेख :

कला का स्वास्थ्य इसी में है कि वह समाज को समर्पित हो।

         -Eric Newton


प्रोफेसर रमेश जैन के अनुसारव्यंग्य चित्र हमारे जीवन की मूक आलोचना है।एक व्यंग्य-चित्रकार अपनी तूलिका के माध्यम से समाज और मानव के घर में कड़ी आलोचना को हंसी-हंसी में उतार देता है। हमारे बहुरंगी जीवन पर प्रकाश डालने वाली व्यंग्य रेखाएं हास्य, यथार्थ आदर्श का अनोखा सम्मिश्रण हैं

भारत में जन्मे विश्वप्रसिद्ध व्यंग्य चित्रकार अथवा कार्टूनिस्ट आर. के. लक्ष्मण का कॉमन मैन किसे नहीं याद, भारतीय प्रिंट जगत में एक समय ऐसा भी रहा है जब आमजन द्वारा टाइम्स ऑफ़ इंडिया अखबार सिर्फ इसीलिए भी ख़रीदा गया ताकि वह इसमें कॉमन मैन के विषयों पर केन्द्रित व्यंग्यचित्र देख सके। समाज के हर पहलू पर प्रकाशित लक्ष्मण के व्यंग्यचित्रों को ऋतू गेरोला खंदुरी भारत के मानचित्र पर सजा सिन्दूर तिलक के सामान मानती है। वे इन्हें ‘The Third Eye’ की संज्ञा भी देती हैंl(1)

चित्र 1

पत्रकारिता में यदि संपादक को किन्हीं मुद्दों को संप्रेषित करना हो अथवा जनभागीदारी की आवश्यकता हो तो ये व्यंग्यचित्र प्रभावी संचार माध्यम की भूमिका अदा करते हैं। कलाकार सुनील कामरा का कथन हैव्यंग्य चित्र को मनोरंजन की हल्की-फुल्की विधा कहना इस शैली के साथ अन्याय है। व्यंग्यचित्र ठीक से इलाज के लिए निहायत गंभीरता से तैयार की गयी वह शुगर कोटेड कड़वी गोली है जिसे ग्रहण करने में मरीज को कोई तकलीफ हो।”(2)

महाराष्ट्र के नामी कलाकार बसंत सरवटे का मानना है,“व्यंग्यचित्र साहित्य का दूसरा रूप है। साहित्य शब्दों में संचार करता है, कार्टून अपनी विषयवस्तु को मुख्य रूप से हास्य के स्पर्श के साथ चित्रों के माध्यम से सम्प्रेषित करता है जिसमें रंग, रेखा, संयोजन आदि तत्व शामिल होते हैं। व्यंग्य चित्रकला एक ऐसी कला है जो हास्य से भरपूर एक दृश्य अनुभव प्रदान करती है, जिसका दायरा बहुत व्यापक है। एक ओर सरल मासूम मजाक है तो दूसरी ओर तीखी टिप्पणी है जो सूक्ष्म रूप से विचारोत्तेजक दार्शनिक जीवन शैली का सुझाव देती है।”(3)व्यंग्य चित्रों में निहित व्यंग्यबोध पाठक के अंतस को झकझोर देता है तथा वह अपने परिवेश और परिस्थिति के प्रति सजग हो जाता है।(4)डॉ.वीना बंसल का कहना है किइस कला से सम्बद्ध कलाकार रेखाओं के अवलंबन से समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, विसंगतियाँ, विद्रूपताएं और अनीतिपरक होती हुई राजनीति को लोक के समक्ष अभिव्यक्त करता है। आड़ी-तिरछी रेखाओं के सार्थक संयोजन और सुघड़ शिल्प से की गयी छोटी-सी व्यंग्योक्ति हजारों शब्दों पर भरी पड़ती है।”(5)

भारतीय प्रिंट जगत में व्यंग्यचित्रपरंपरा : प्रस्तुत लेख में हास्य और व्यंग्य के मिश्रित चित्रात्मक स्वरूप के ऐतिहासिक पक्ष और महत्त्व को उजागर करने का प्रयास किया जा रहा है। प्राचीन मिथकों से लेकर आधुनिक मीडिया तक हास्य और व्यंग्य भारतीय संस्कृति का एक पोषित और महत्त्वपूर्ण पहलू बना हुआ है। भारतीय कला इतिहास में हास्य और व्यंग्य की उपस्थिति प्राचीन काल से ही मौजूद है। अजंता की गुफाओं में हास्यात्मक बौनों का चित्रण मूर्तिकला में सांची भरहूत के अर्धचित्रों में पशुओं को  मानवीय क्रियाकलाप करते हुए दर्शाना, प्रदर्शन कला में अपने अभिनय द्वारा राजदरबारों में राजा और प्रजा को सत्य से अवगत कराने वाले विदूषक आदि सभी उदाहरण हमारे जीवन में हास्य और व्यंग्य तत्वों की आवश्यकता और महत्ता को स्पष्ट करते हैं। प्राचीन साहित्य भृगु संहिता में व्यंग्य चित्र का उल्लेख मिलता है। भारतीय पौराणिक कथाएँ हास्य और व्यंग्य के किस्सों से भरी हुई हैं। हास्य का प्रयोग इन गहन आख्यानों में एक हल्का सुखद स्पर्श जोड़ने के साथ विविध पृष्ठभूमि के जनमानस के मध्य सम्बन्ध बनाता है और व्यंग्य सामाजिक आलोचना के साधन के रूप में कला साहित्य में सदा विद्यमान भी रहा है। संस्कृत साहित्य में दैवीय चरित्रों, मानवीय मूल्यों, शासक वर्ग की नीतियों का विश्लेषण करने तथा सामाजिक मानदंडों के लिए हास्य, व्यंग्य और विरोधाभास का उपयोग करना शामिल है। कालिदास और तिरुवल्लुवर जैसे प्रसिद्ध कवियों और नाटककारों ने अपने समय के प्रचलित मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए व्यंग्य का इस्तेमाल किया।(6)

प्रसिद्ध व्यंग्य चित्रकारअबू अब्राहम का कहना है “There is much humour in Indian proverbs. Evan the Gods are not spared. There is a special worship called “Ninda-Stuti”, praise by dispraise.”(7)

भारत में व्यंग्य चित्रों के वर्तमान स्वरूप का आगमन यूरोपीय कला से माना जाता है। 15वीं शताब्दी के यूरोपीय कलाकार लियोनार्डो द्वारा रचित विकृत मुखाकृतियां, 16वीं शताब्दी में करासी और पीटर ब्रुगेल की हास्यव्यंग्यात्मक शैली में बनाये चेहरे और कहावतों का चित्रांकन प्रारंभिक उदाहरण रहे हैं। 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन के कलाकार जॉन हेमिल्टन मार्टिमेर, विलियम होगार्थऔर 19वीं शताब्दी के ओनोर डोमियर आदि के चित्र व्यंग्य और हास्य का सम्मिश्रित रूप दर्शाने लगे। 19वीं शताब्दी तक व्यंग्य चित्र भी सामान्य जनसरोकारों से जुड़ते गए एवं दैनिक समाचार पत्र और पत्रिकाओं में प्रकाशन होने लगे। जेम्सगिलरे, थॉमस रोलैंडसन, जेम्स मोफेट ने अपने छापा चित्रों में सत्ता के खोखले वादों और साम्राज्यवाद की लालसा में आमजन की विवशता और दयनीयता को कटाक्ष एवं हास्यात्मक अंदाज में दर्शाया।

व्यंग्य चित्रों की इस भूमिका को ब्रिटेन के प्रसिद्ध इलस्ट्रेटर राल्फ स्टेडमैन और स्पष्ट करते हैंIf cartoon does not make us feel uncomfortable, ridicule society or provide inside at an intellectual level, what is the cartoonist’s purpose!(8)

           व्यंग्यचित्र कला के आधुनिक स्वरूप का उदय तब माना गया जब यूरोप में पूर्ण रूप से व्यंग्यचित्रों को समर्पितपंच” (Panch) पत्रिका 1841 में प्रकाशित हुई जिसेलन्दन चेरिवेरीअथवाब्रिटिश पंचके नाम से भी जाना जाता है। संपूर्ण रूप से व्यंग्यचित्रों को समर्पित और इसे एक स्वतंत्र कलाविधा के रूप में महत्व प्रदान करने वाली यह प्रथम पत्रिका रही। उक्त पत्रिका में जॉन डिलॉय, जॉन टेनियल, जॉन लीच आदि कलाकारों ने ब्रिटिश राज के वैश्विक संबंधों, राजनैतिक और सामाजिक घटनाओं को अपने स्तरीय व्यंग्य चित्रों में बखूबी चित्रित किया। इसी पत्रिका में सर्वप्रथम व्यंग्य चित्रों को वर्तमान के सर्वाधिक प्रचलित शब्दकार्टूनसे संबोधित किया गया।

पंचपत्रिका के भारत आगमन से एक बड़ा वर्ग इस अनोखे कलारूप से परिचित हुआ। भारत में अंग्रेजी भाषा की हास्यव्यंग्य चित्रात्मक पत्रिकादिल्ली स्केचबुक1850 से 1857 में प्रकाशित हुई। वहीं पार्थ मित्तर के अनुसार क्षेत्रीय भाषा आधारित पहली पत्रिका जिसमें व्यंग्यचित्रों को स्थान दिया गया वहअमृत बाजार पत्रिकाहै, जो 1872 में बंगाल से प्रकाशित हुई।(9)

भारतीय पंच पत्रिकाओं का उच्च ज्वर 19वीं शताब्दी के आखिरी दशक से 20वीं आदि के पहले तीन दशक में रहा।पंचपत्रिकाओं और इस शब्द की लोकप्रियता इतनी रही की स्थानीय पत्रिकाओं के नाम में भी यह शब्द यथारूप स्वीकार किया गया। भारत मेंगुजरती पंचऔरहिंदी पंचनाम से अंग्रेजी भाषा पत्रिकाओं में हास्य व्यंग्य आधारित चित्रों का मुद्रण हुआ एवं स्थानीय भाषाओं मेंहिन्दू पंच’ (मराठी), ‘सुलव समाचार’, ‘बसंतकऔरहरबोला भार’ (बंगाली), ‘अवध पंच’ (उर्दू) आदि पत्रिकाएं प्रकाशन में रहीं।(10)इन पत्रिकाओं के व्यंग्य चित्रों के निर्माण में टी.के.मित्रा, डी.एन.बनर्जी, एच.बागची एवं बिनॉयजैसे कलाकारों ने योगदान दिया।(11)पंच पत्रिकाओं के समकक्ष हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग से ही हास्य व्यंग्य की मासिक अथवा पाक्षिक पत्रिकाओं का प्रचलन भी जोरों पर रहा। इन सभी में भी व्यंग्य चित्रों को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया। 1873 में हरिश्चन्द्रचंद्रिका, 1878 में कलकत्ता से भारतमित्र, 1883 में कानपुर से मासिक ब्राह्मण, लखनऊ से रसिकपंच, कलकत्ता से ही साप्ताहिक मतवाला पत्रिका, इलाहाबाद से मदारी पत्रिका, बनारस से बेधड़क बनारसी, करेला जिनके मुख्य पृष्ठ पर एक बड़ा-सा व्यंग्य चित्र छपा करता था। इंदौर से हजामतसाप्ताहिक पत्रिका आदि अनेक साहित्यिक प्रकाशनों में व्यंग्य चित्रों की उपस्थिति हमेशा रही।

उक्त सभी कला साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित व्यंग्य चित्रों से प्रेरित हो कर भारतीय प्रिंट जगत में दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्रों को अपनी कला से रुचिकर बनाने वाले व्यंग्य चित्रकारों की सर्वथा नवीन पीढ़ी का अवतरण हुआ और हम इस विधा के प्रारंभिक स्तंभों यथा गगनेंद्रनाथ टैगोर, वीरेश्वरसेन, केशवशंकर पिल्लई, पी.के.एस.कुट्टीजैसे दिग्गज कलाकारों की रचनाओं से परिचित होते हैं।

चित्र 2

स्वतंत्रता प्राप्ति वर्षों के इर्द-गिर्द कला का यह रूप अपने चरम मानक स्थापित कर रहा था। इसी दौरान जब भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में दैनिक समाचार पत्रों का भी प्रकाशन बहुतायत से होने लगा और आज तक संचार माध्यम में अग्रणी भूमिका निभाने वाले समाचार पत्र हिन्दू, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, फ्री प्रेस जर्नल, बॉम्बे क्रोनिकल, डेक्कन हेराल्ड, कारवां, जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेसजैसे सभी पत्रों में व्यंग्यचित्र एक अपरिहार्य घटक के रूप में विद्यमान हैं।

समाचार पत्रों में व्यंग्य चित्रों की भूमिका के सम्बन्ध में रॉय डगलस कहते हैंThe cartoonist is a sort of licensed jester. He can say and do things that the responsible statesman and even the responsible journalist cannot say and do.”(12)

महाराष्ट्र में फ्री प्रेस जर्नल में कुट्टी, आर.के.लक्ष्मण, बालासाहब ठाकरे, केशव शंकर पिल्लई आदि विश्व प्रसिद्ध व्यंग्य चित्रकारों ने काम किया। कलाकार केशव शंकर पिल्लई जिन्हें भारतीय राजनीतिक व्यंग्य चित्रों के पितामह माना जाता है, ने दिल्ली मेंशंकर्स वीकलीपत्रिका (1948-1975) का प्रकाशन किया। यह स्वयं में कार्टून कला का एक संस्थान कहा जा सकता है जिसके उद्घाटन के लिए पधारे तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा कहे गए शब्द Don’t spare me Shankar! यह भारतीय समाज राजनीति में व्यंग्यचित्रों की आवश्यकता एवं स्वीकार्यता को दर्शाता है। इसने भारतीय समाज को .पी.उन्नी, राजेन्द्र पूरी, येसुदासन व्यंग्य चित्रकार दिए हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आज तक भारत के लगभग सभी राज्यों में स्थानीय समाचार पत्र एवं विभिन्न पत्रिकाओं में कई दिग्गज कलाकार अथवा कार्टूनिस्ट का योगदान रहा एवं जारी है इसमें प्रमुख नाम अबू अब्राहम, मारिओ मिरांडा, बापू, .वी.विजयन, प्राण, बी.वी.राममूर्ति, राजिन्द्र पूरी, गोपुलू, एस.डी.फडनीस, .पी.उन्नी, वसंत सरवटे, सुधीर धर, सेमुअल, पंकज गोस्वामी, सुधीर तैलंग, सतीश आचार्य, माया कामथ, शेखर गुरेरा, अजित निनन, मंजुला पद्मनाभम, जयंतो बेनर्जी, आबिद सूर्ती, रोहन चक्रबर्तीआदि शामिल किये जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कार्टून कला संस्थान जैसेइंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ कार्टूनिस्ट्स’, केरल कार्टून अकादमी, सावित्रीबाई फुले विश्व विद्यालय में स्थित आर.के.लक्ष्मण म्यूजियम आदि के साथकार्टून वाचजैसी मासिक पत्रिका एवंकार्टून हब्बाजैसे कर्नाटक में आयोजित होने वाले वार्षिक उत्सव आदिइस कला विधा के विस्तार हेतु निरंतर प्रयासरत हैं।

प्रिंट मीडिया में व्यंग्य चित्रों का महत्व : भारत में राजनीतिक व्यंग्य चित्र विचारों और परिवर्तन का प्रचार करने में प्रयुक्त किये जाते हैं।  विभिन्न भाषाई प्रेस और व्यंग्य चित्र इस परिवर्तन में सूचनाओं के प्रसार का माध्यम रहे हैं। कई स्वतंत्रता सेनानियों ने इस माध्यम को स्वतंत्रता के संघर्ष स्वतंत्रता संग्राम एवं उसके पश्चात्  भी अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाने हेतु अपनाया है। व्यंग्यचित्र समाचार पत्र का एक बहुत छोटा-सा भाग होता है परंतु इसका प्रभाव दर्शक पर बहुत बड़ा होता है। व्यंग्य चित्रों ने लोगों को हमेशा एक बड़ा उद्देश्य परोसा है, कहावत है कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर है, व्यंग्यचित्र इसी की एक बानगी है। अग्रलिखित बिंदु इस कलारूप की महत्ता को और अधिक स्पष्टता प्रदान करते हैं-

     एक व्यंग्य चित्र में बहुत कम शब्दों में संपूर्ण सूचना देने की शक्ति है इस प्रकार यह कलागागर में सागरकहावत को चरितार्थ करती हैl

     व्यंग्य चित्र सामाजिक, पर्यावरणीय राजनीतिक विसंगतियों पर किए गए कठोर प्रहार तंज भी हास्य तत्व के साथ कहने का चातुर्य रखते हैंl

     व्यंग्य चित्रों में हर आयु वर्ग के पाठक को आकर्षित करने की क्षमता विद्यमान होती है जिसके रहते यह बहुत ही सरल चित्रात्मक भाषा एवं व्यंग्योक्ति के माध्यम से जटिल से जटिल प्रकरणों का विश्लेषण कर उसे सुग्राह्य बना देता है।

     व्यंग्य चित्र पाठन कार्य में रस उत्पन्न करता ही है, साथ ही पाठक की भावनाओं विचार शक्ति को भी बल प्रदान करता है।

     समाचार पत्र में जहाँ संपादकीय कॉलम से नीति निर्माता राजनेताओं का ध्यान आकर्षित होता है तो वहीं व्यंग्यचित्र कॉलम जनता की राय एवं विचार अपने तूलिकाघातों से प्रकट कर सामान्य जनभावों को एक सार्वजनिक मंच प्रदान करता है।

     व्यंग्यचित्र एक ओर जहाँ गुदगुदाता है तो दूसरी ओर सामाजिक अव्यवस्थाओं को आईना दिखाकर एक मार्गदर्शक का भी कार्य करता है।

     व्यंग्यचित्र समाज को व्यवस्थित और सकारात्मक स्वरूप प्राप्ति हेतु निरंतर सजग रहने तथा निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है।

निष्कर्ष : भारतीय प्रिंट मीडिया में पाठक के ज्ञानवर्धन एवं मनोरंजनार्थ हेतु व्यंग्य चित्रों के प्रकाशन की परंपरा कई वर्षों से विद्यमान रही है, जिसके माध्यम से तत्कालीन संस्कृति, सामाजिक राजनैतिक परिप्रेक्ष्य को दर्ज किया जाता रहा है। समय और परिवेश परिवर्तन के साथ हास्य व्यंग्य को प्रस्तुत करने के रूपों में भी परिवर्तन स्वाभाविक है, इस क्रम में वर्तमान डिजिटल दुनिया में प्रचलितमीमसंस्कृति और टेलीविज़न में कार्टून चलचित्रों का प्रसारण भी इसी का विस्तार कहा जा सकता है। आज जनसंचार के नवीन माध्यम ऑनलाइन प्लेटफोर्म पर भी व्यंग्य चित्रकारों ने केवल बढ़-चढ़ कर भाग लिया है वरन् अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बना रहे हैं। भारत में व्यंग्य चित्रकला निर्माण के नवीन तकनीकों के विकसित होने तथा संचार के डिजिटल माध्यमों के बढ़ते प्रचलन से इस अनोखी कला को लम्बे समय तक प्रासंगिक बनाये रखने की संभावनायें भी निरंतर विस्तार पा रही हैं।

सन्दर्भ :

  1. ऋतू गैरोला खंदुरी: सिन्दूर तिलक ऑन मेप ऑफ़ इंडिया, कार्टूनिस्ट्स इंडिया एनुअल (वी.जी. नरेन्द्र, विवेक सेनगुप्ता), कार्टूनिस्ट्स इंडिया प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स, बैंगलोर, 2022, पृ..21
  2. रमेश जैन, संपादन पृष्ठ सज्जा और मुद्रण, मंगलदीप पब्लिकेशन, जयपुर, 2005
  3. वसंत सरवटे: कार्टून एंड देयर वाइड स्पेक्ट्रम, स्माईलिंग लाइन डायरेक्टरी ऑफ़ कार्टूनिस्ट्स (वी. जी. नरेन्द्र), इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ कार्टूनिस्ट्स, 2012, पृ.. 31
  4. संजीव भानावत: संपादन कला, यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, जयपुर, पृ..93
  5. वीना बंसल: भारतीय कार्टून कला, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2014, पृ..3
  6. रोबिन बोहरा: हयूमर एंड लाफ्टर इन इंडियन सोसाइटी : कल्चरल पर्सपेक्टिव, इंटरनेशनल जरनल फॉर एडवांस रिसर्च इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी, खंड 11, नवम्बर 2021, पृ. 478-479
  7. अबू अब्राहम: इंडियन कार्टून्स, पन्गुइन बुक्स इंडिया, 1988, पृ..11
  8. सुन्दर रामनथैयर, नेंसी हडसन रॉड: ट्रैजिक इडियम अगेन्स्ड सुपरस्टीशंस, ट्रैजिक इडियम , वी.विजयन कार्टून्स एंड नोट्स ऑन इंडिया (रामनथैयर, नेंसी हडसन रॉड), डी.सी.बुक्स कोट्टायम, 2006, पृ..22 
  9. हिमांशु गोस्वामी: हिस्टोरिकाल ओवरव्यू ऑन पोलिटिकल कार्टूनिंग इन इंडिया विथ स्पेशल रेफरेंस टू असम, जरनल ऑफ़ ओपन लर्निंग एंड रिसर्च कम्युनिकेशन, खंड 2, 2016, पृ..85
  10. पार्थ मित्तर, पंच एंड इंडियन कार्टून्स: रिसेप्शन ऑफ़ ट्रांसनेशनल फिनोमिनन, एशियन पंच: ट्रांसकल्चरल अफेयर (हंस हार्डर, बारबरा मित्तर), स्प्रिन्जर वेर्लेग बर्लिन हेडिल्बर्ग पब्लिकेशन, 2013, पृ..57
  11. ऋतू गेरोला खन्दुरी: कैरीकेचरिंग कल्चर इन इंडिया कार्टून्स एंड हिस्ट्री इन थे मॉडर्न वर्ल्ड, केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 2014, पृ.. 8
  12. https://www.original-political-cartoon.com/cartoon-history/19th-century-ireland-and-cartoonists/
  13. रोहन चक्रवर्ती: ग्रीन ह्यूमर फॉर ग्रेइंग प्लेनेट, पेंगुइन रेंडम हाउस इंडिया, 2021, पृ.16
  14. https://images.app.goo.gl/tVEeMSMdUigtjrU79
  15. कार्टूनिस्ट्स इंडिया एनुअल (वी.जी.नरेन्द्र, विवेक सेनगुप्ता), कार्टूनिस्ट्स इंडिया प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स, बैंगलोर, 2024, पृ..28

 

शिवांगी दाधीच
शोधार्थी, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
shivangid29@gmail.com
 
मदन सिंह राठौर
शोध निर्देशक, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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