हिंदी नाटकों में मेवाड़ की ऐतिहासिक भूमिका
विकास कुमार अग्रवाल
बीज शब्द : हिंदी नाटक, इतिहास, चित्तौड़गढ़, रक्षाबंधन, कीर्तिस्तंभ, मेवाड़।
मूल आलेख : रक्षाबंधन हरिकृष्ण प्रेमी का नाटक हिंदी-नाट्य साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कृति के रूप में स्थापित है, जो न केवल मेवाड़ की गौरवगाथा का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक गर्व और मानवीय मूल्यों की जरूरत को भी प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता है। इस नाटक में राष्ट्रीय चेतना, मातृत्व और पौरुष जैसे आदर्शों का संतुलित और कलात्मक समन्वय देखने को मिलता है, जो इसे केवल ऐतिहासिक आख्यान नहीं बल्कि एक बहुआयामी सामाजिक-राजनीतिक मूल्य दृष्टि प्रदान करता है। नाटक की केंद्रस्थल रानी कर्मवती और हुमायूँ के बीच के भावनात्मक संबंध तथा मेवाड़ की अस्मिता हैं, जहाँ राखी का प्रतीक राष्ट्रीय एकता, त्याग और मानवता का संदेश देता है।
‘रक्षाबंधन’ में प्रस्तुत संवादों के माध्यम से पात्रों की मानसिकता का सूक्ष्म चित्रण मिलता है। रानी कर्मवती के कथन से राजधर्म के महत्त्व, शौर्य और कर्तव्य की परिभाषा स्पष्ट होती है, जहाँ राखी केवल रक्षा का बंधन नहीं, बल्कि उच्चतम नैतिक बलिदान की अपेक्षा भी है।
हुमायूँ का चरित्र धर्म से ऊपर उठकर भारतीयता और मानवता को अपनाने वाला प्रस्तुत होता है, जो नाटक में सांप्रदायिक सौहार्द और सहिष्णुता का प्रतीक है। हुमायूँ के भीतर सांस्कृतिक पुनर्जन्म की अनुभूति तब होती है, जब वह राखी को एक गहरे आत्मीय बंधन के रूप में स्वीकार करता है -“मेरे सूने आसमान में उन्होंने मुहब्बत का चाँद चमकाया है। उन्होंने मुझे राखी भेजी है।”[1] इसके साथ ही नाटक में वीरांगनाओं द्वारा जौहर को केवल बलिदान की त्रासदी के रूप में नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और अस्मिता की लौ के रूप में प्रदर्शित किया गया है, जो मानवता को एक नया पैगाम देती है।
नाटक की समग्र भाषा भाव-प्रधान होते हुए भी विचारशील और तर्कपूर्ण है, जो दर्शकों को केवल नाटकीय मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक और नैतिक चिंतन के लिए प्रेरित करती है- “मुसलमान भी इंसान होते हैं। उनके भी बहनें होती हैं। क्या वे मनुष्य नहीं हैं? क्या उनके हृदय नहीं है? वे ईश्वर को खुदा कहते हैं, मंदिर में न जाकर मस्जिद में जाते हैं, क्या इसीलिए हमें उनसे घृणा करनी चाहिए?”[2]
‘रक्षाबंधन’ में वैश्विक मानवतावाद के संदेश को भी प्रमुखता दी गई है, जहाँ भाईचारे और प्रेम को सभी तंगदिलों और वैमनस्य के विरुद्ध विकल्प बताया गया इस प्रकार यह नाटक ऐतिहासिक तथ्यात्मकता से परे जाकर सांस्कृतिक चेतना, नैतिक दायित्व और मानवता के सार्वभौमिक मूल्यों को एकीकृत करता है।
अतः हरिकृष्ण प्रेमी का ‘रक्षाबंधन’ न केवल चित्तौड़गढ़ की गौरवगाथा का प्रतीक है, बल्कि एक सशक्त राष्ट्रवादी और मानवीय चेतना का उद्घोष भी है, जो इतिहास को वर्तमान सामाजिक संदर्भ में प्रासंगिक बनाता है और शाश्वत मूल्य स्थापित करता है।
‘कीर्तिस्तंभ’ हरिकृष्ण प्रेमी द्वारा रचित हिंदी नाटक साहित्य में एक विशिष्ट कृति के रूप में सामने आता है, जो मेवाड़ के गौरवशाली अतीत, उसके भीतर फैली सत्ता-लिप्सा, पारिवारिक कलह और सांस्कृतिक मूल्यों के संघर्ष को एक साथ समेटते हुए प्रस्तुत करता है। इस नाटक का प्रकाशन 1957 ई. में राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली से हुआ। प्रेमी ने नाटक के प्रारंभ में ‘दर्पण’ शीर्षक से यह स्पष्ट किया है कि यह कृति केवल ऐतिहासिक घटनाओं के पुनःस्मरण की नहीं, अपितु नव पीढ़ी में वीरता, साहस, राष्ट्रभक्ति और विवेक जागृत करने का एक सांस्कृतिक प्रयास है। मेवाड़ जैसे गौरवशाली अतीत वाले क्षेत्र में घर कर चुके पारिवारिक कलह को वे एक ऐसी भीतरी विघटनकारी शक्ति के रूप में देखते हैं, जो उसकी कीर्ति और संस्कृति दोनों को भीतर से नष्ट करती है।
नाटक की कथा महाराणा कुंभा की हत्या से प्रारंभ होती है, जिसे उनके ज्येष्ठ पुत्र ऊदा द्वारा अंजाम दिया जाता है। इसके बाद राज्य की सत्ता को लेकर ऊदा और उनके छोटे भाई रायमल के बीच संघर्ष शुरू होता है। रायमल विजयी होता है, लेकिन इस गृहकलह का प्रभाव अगली पीढ़ी पर भी पड़ता है। ऊदा के पुत्र सूरजमल और पुत्री ज्वाला भी इस संघर्ष का हिस्सा बनते हैं। सूरजमल के मन में सिंहासन प्राप्त करने की लालसा जन्म लेती है, जिससे रायमल के पुत्रों—संग्रामसिंह, पृथ्वीराज और जयमल—में प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है। इस कथा के माध्यम से नाटककार यह रेखांकित करते हैं कि आंतरिक कलह किस प्रकार राज्य की जड़ों को हिला देता है। नाटक का आरंभ एक ओजस्वी गीत “झंडा ऊँचा रहे हमारा...” से होता है, जो मेवाड़ के आत्मगौरव और राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बनकर उपस्थित होता है। यह गीत केवल औपचारिक उद्घाटन नहीं है, बल्कि पूरे नाटक की भावभूमि तय करता है—एक ऐसी भूमि जहाँ शौर्य, बलिदान और आत्मबल की विरासत धड़कती है। यह गीत बप्पा रावल, एकलिंग, और बलिदानी परंपरा की स्मृति को जाग्रत करता है।
‘कीर्तिस्तंभ’ शीर्षक अपने आप में एक गहरा रूपक है। यह केवल एक स्थापत्य स्मारक नहीं, बल्कि मेवाड़ की आत्मा, उसकी सांस्कृतिक कीर्ति और ऐतिहासिक चेतना का प्रतीक है। रायमल द्वारा यह कथन कि -"यह कीर्तिस्तंभ, खड्ग से मेवाड़ की राज्य लक्ष्मी की मांग में अखंड सिन्दूर भरने वाले पूज्य पिताजी महाराणा कुंभा ने खड़ा किया है, उसकी आधार शिलाएँ काँप रही हैं।"[3]
वास्तव में सत्ता संघर्ष से डगमगाते मेवाड़ की अस्मिता पर चिंता की अभिव्यक्ति है। यह नाटक ऐतिहासिक घटना के माध्यम से समकालीन समाज को यह संदेश देता है कि यदि आत्ममूल्य और विवेक की उपेक्षा की जाए, तो गौरवपूर्ण अतीत भी पतन की ओर अग्रसर हो सकता है।
नाटक में संग्रामसिंह का कथन—“साहस और शौर्य अंधे हैं, उन्हें विवेक की आँखें चाहिए”[4] पूरे कथानक का नैतिक केंद्रबिंदु बन जाता है। यह न केवल वीरता की पुनर्व्याख्या है, बल्कि बल और बुद्धि के समन्वय की आवश्यकता को रेखांकित करता है। पृथ्वीराज का संवाद भी सत्ता और सत्य के द्वंद्व को उद्घाटित करता है। वह कहता है कि यदि सत्य को उजागर करने का दंड निर्वासन है, तो वह उसे वरदान मानेगा। यह राजनैतिक नैतिकता की परख और व्यक्तिगत मूल्यबोध की श्रेष्ठता को स्पष्ट करता है।
ज्वाला की भूमिका नाटक में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। ऊदा द्वारा उसका विवाह लोदी से तय किया जाना, उसकी अस्मिता पर आघात है। ज्वाला का कथन, “भयानक बने बिना इस युग में नारी अपने सम्मान की रक्षा नहीं कर सकती”[5] उसकी नारी चेतना, आत्मबल और प्रतिरोध का प्रतीक है। वह वीरांगना की परंपरा में खड़ी है—विदेशी आक्रमणकारी के बीच रहकर भी अपने शरीर और आत्मा की रक्षा करती है। उसका पत्र, जिसमें राजकुमारों को चेतावनी दी जाती है कि उनकी सत्ता-लिप्सा मेवाड़ को नष्ट कर सकती है, नाटक की विचारधारा को सशक्त करता है।
नाटक में संगीत, सौंदर्य और संवेदना का प्रयोग केवल अलंकरण नहीं, बल्कि कथ्य को उन्नत बनाने का उपकरण है। तारा के संगीत से प्रभावित होकर पृथ्वीराज का कहना कि “जंगल के हिरण भी खिंचे आते हैं”, नारी स्वर और कला की प्रभावशाली भूमिका को रेखांकित करता है। तारा जैसे पात्रों द्वारा नाटक की स्त्री छवियाँ केवल भावुक नहीं, बल्कि दार्शनिक और नैतिक मूल्य-प्रवर्तक बनकर उभरती हैं।
नाटक का अंत संग्रामसिंह के वनवास-व्रत और पृथ्वीराज के मेवाड़ परित्याग से होता है, किन्तु यह परित्याग नहीं, बल्कि त्याग और समर्पण की भावना है। पृथ्वीराज का यह कथन कि यदि मेवाड़ पर संकट आएगा तो वह लौटेगा, नायकत्व और उत्तरदायित्व का आदर्श प्रस्तुत करता है। राजयोगी का अंतिम उपदेश इस नाटक का सर्वाधिक सशक्त नैतिक संकेत है। वे कहते हैं कि स्वार्थ, अभिमान और क्रोध में आकर जन्मभूमि के हित को कभी न भूलो। सत्ता प्राप्ति की प्रतिस्पर्धा में अपने ही देश के शत्रु बन जाना, राष्ट्र के प्रति सबसे बड़ा अपराध है। जो स्वयं को राजा नहीं, एकलिंग का दीवान मानता है, वही सही अर्थों में राष्ट्र की सेवा कर सकता है और कीर्तिस्तंभ की रक्षा कर सकता है।
हरिकृष्ण प्रेमी का यह नाटक अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल प्रतीत होता है। यह न केवल इतिहास का पुनर्चिंतन है, बल्कि समकालीन चेतना का निर्माण भी है। इसका शीर्षक न केवल विषयवस्तु के अनुकूल है, बल्कि उसकी गहराई, प्रतीकात्मकता और सांस्कृतिक सार्थकता को भी समग्रता में व्यक्त करता है। इस नाटक को न केवल मेवाड़ के संदर्भ में, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र के लिए सांस्कृतिक आत्मविश्लेषण और नैतिक पुनरुत्थान का साहित्यिक यज्ञ कहा जा सकता है।
‘पन्नाधाय’ शिवप्रसाद चारण द्वारा रचित एक ऐतिहासिक नाटक होते हुए भी केवल अतीत की पुनरावृत्ति नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, मातृत्व के त्याग, नारी की वीरता और राष्ट्रधर्म के प्रति निष्ठा का प्रेरणास्रोत साहित्यिक दस्तावेज बन जाता है। नाटक की केंद्रीय पात्र पन्नाधाय को नारी के उस स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें सौंदर्य की कोमलता और वीरता की कठोरता दोनों ही सन्निहित हैं। चारण इस नाटक के माध्यम से यह उद्घोषित करते हैं कि हिंदू नारी केवल घर की शोभा या पुरुष की छाया नहीं है, बल्कि वह स्वयं एक सशक्त नैतिक सत्ता है, जो संकट के क्षणों में धर्म, संस्कृति और राज्य की रक्षा हेतु अपने पुत्र तक का बलिदान कर सकती है।
जब मेवाड़ के राजा राणा विक्रमादित्य की हत्या कर बनवीर सत्ता पर अधिकार चाहता है, तब पन्ना अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर उदयसिंह को बचा लेती है। यह त्याग केवल मातृत्व पर विजय नहीं, बल्कि राष्ट्रधर्म और राजधर्म की सर्वोच्चता का भी उद्घोष है। पन्ना का संवाद - “चित्तौड़ की रक्षा के लिए प्रत्येक हिंदू कट मरेगा। चित्तौड़ हिंदुस्तान का मुकुट है। हिंदू जाति का तीर्थ है। वीरत्व का प्रतीक है। हिंदू सभ्यता और हिंदू संस्कृति की लज्जा है।”[6] सिर्फ भौगोलिक या राजनीतिक प्रतीक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और भावनात्मक गौरव का संवाहक है। चित्तौड़ को तीर्थ, वीरता और सभ्यता का प्रतीक मानते हुए पन्ना राष्ट्र की चेतना को सांस्कृतिक आधार प्रदान करती है।
नाटक में शीतल सैनी का चरित्र भी एक गहन विरोधाभास उत्पन्न करता है। वह महत्वाकांक्षी, कुटिल और नारीत्व के उस विकृत स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है, जो स्वार्थ के लिए न केवल अन्याय का समर्थन करती है, बल्कि अपने पुत्र को हिंसा के पथ पर भी प्रोत्साहित करती है। उसका संवाद - “आजीवन दूसरों की सन्तान के मलमूत्र को धोने वाली तथा उनके उच्छिष्ट पर पलने वाली तुच्छ धाय, तू क्या समझेगी कि महत्त्वाकांक्षा किसे कहते हैं और राजमाता बनने का सौभाग्य कैसे प्राप्त होता है?”[7] न केवल सामाजिक पाखंड को उजागर करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे सत्ता की लालसा मानवीय संवेदना को कुंठित कर देती है।
बनवीर की महत्त्वाकांक्षा इस नाटक में नैतिक पतन की चरम सीमा को रेखांकित करती है। वह सत्ता के लिए रक्तपात करने में भी संकोच नहीं करता। लेकिन नाटक इस पात्र को उसका उचित दंड दिलाकर नैतिक न्याय की स्थापना करता है। बनवीर का अंत और उदयसिंह का तिलक यह संदेश देता है कि अधर्म का अंत निश्चित है, और सत्य की विजय समय भले ही ले, परंतु सुनिश्चित होती है। यह न्याय केवल ऐतिहासिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक भी है।
नाटक में सामूहिक चेतना और हिंदू एकता की भी स्पष्ट अभिव्यक्ति होती है। विभिन्न जातियों और समुदायों के वीर जब चित्तौड़ की रक्षा के लिए एकत्र होते हैं, तो यह दृश्य सांप्रदायिक समरसता और राष्ट्रीय एकता का उदाहरण बन जाता है। नाटककार ने नाटकीय तत्त्वों — जैसे गान, पात्र, संवाद और दृश्य संयोजन — का प्रयोग अत्यंत प्रभावी ढंग से किया है। पन्ना द्वारा चंदन की चिता सजाते हुए जो गीत गाया गया है, वह केवल करुणा का प्रस्फुटन नहीं, बल्कि एक स्थायी स्मृति और साहस की प्रतिध्वनि है। यह दृश्य दर्शकों को केवल व्यथित ही नहीं करता, बल्कि उन्हें भीतर तक झकझोर देता है।
नाटक के अंतिम दृश्य में कुंभलगढ़ दुर्ग में उदयसिंह का राजतिलक केवल राजनीतिक समाधान नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्स्थापना का प्रतीक बन जाता है। चंदन की बलि के कारण उत्पन्न हुए भ्रम, संशय और द्वंद्वों का समाधान इस दृश्य के माध्यम से हो जाता है और यह समापन नाट्यशास्त्र की दृष्टि से भी पूर्णता प्रदान करता है। पन्ना की पहचान किसी सामान्य धाय या सेविका की नहीं, अपितु वह हिंदुस्तान की वह अमर प्रतीक बन जाती है, जो यह सिद्ध करती है कि मातृत्व और राष्ट्रधर्म के बीच जब द्वंद्व उत्पन्न होता है, तब एक भारतीय नारी अपनी कोख से अधिक अपने देश को प्राथमिकता देती है। यही नाटक का मूल संदेश है और यही उसकी कालजयी सफलता।
‘हिरोल’ शिवप्रसाद चारण द्वारा रचित नाटक महाराणा अमरसिंह के कालखंड की पृष्ठभूमि में मेवाड़ के राजनीतिक-सांस्कृतिक संकट और आत्मसम्मान के प्रश्न को उठाता है। यह नाटक उस यथार्थ को उद्घाटित करता है जिसमें सत्ता की राजनीति, आत्ममूल्यांकन और सांस्कृतिक निष्ठा आपस में टकराते हैं। नाटक का केंद्रीय पात्र सागरसिंह प्रारंभ में महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर मुगल सम्राट जहाँगीर का साथ देता है और मेवाड़ की गद्दी प्राप्त करने का प्रयास करता है। परंतु यही पात्र अंततः आत्मबोध और पश्चात्ताप की ओर अग्रसर होकर सत्ता का त्याग करता है और मेवाड़ की अस्मिता की रक्षा में संलग्न हो जाता है।
जहाँगीर की राजनीतिक साजिश और “Divide and
Rule” नीति के माध्यम से भारतीय रियासतों को विभाजित करने की योजना को यह नाटक स्पष्टता से उजागर करता है। चंद्रावत सरदार के ओजस्वी संवादों के माध्यम से चित्तौड़ के गौरवशाली अतीत – बप्पा रावल, राणा प्रताप, राणा संग्रामसिंह – की स्मृति को पुनर्जीवित किया जाता है। ये संवाद केवल इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि नायकत्व की प्रेरणा बनकर वर्तमान को जाग्रत करते हैं।
सागरसिंह का आत्मसाक्षात्कार और उसका संवाद – "महत्त्वाकांक्षा से अंधा होकर मैंने क्या कर डाला? अपने भ्राता परम प्रतापी प्रताप के विरुद्ध देश-धर्म के शत्रु मुगलों का साथ दिया। मुगलों का क्रीतदास बनकर चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा, महाराणा बनने का स्वांग रचा किंतु मुझ देशद्रोही, धर्मद्रोही की ओर किसी ने झाँका तक नहीं। सब ने मेरी और तिरस्कार से थूका।”[8] सत्ता-लोलुपता से आत्मग्लानि और पुनरुद्धार की लंबी यात्रा को उद्घाटित करता है। यह चरित्र अपने भीतर यथार्थ की जटिलताओं, आत्मसंघर्ष और अंततः नैतिक पुनर्प्राप्ति का जीवंत उदाहरण बन जाता है। इस प्रक्रिया में बप्पा रावल, पद्मिनी, कुंभा और प्रताप की स्मृतियाँ एक नैतिक आलोक बनकर उभरती हैं, जो केवल ऐतिहासिक नहीं, बल्कि आत्मचेतना की प्रेरक छायाएँ बन जाती हैं।
चारण की नाट्यभाषा में ओज, करुणा और ऐतिहासिक चेतना का समन्वय दृष्टिगोचर होता है। ये हमें स्मरण कराते हैं कि राष्ट्र की रक्षा केवल तलवारों से नहीं, अपितु चरित्रबल, आत्मबल और सांस्कृतिक मूल्यों से होती है।
‘महारानी पद्मावती’ राधाकृष्ण दास द्वारा रचित हिंदी साहित्य की प्रारंभिक ऐतिहासिक नाट्य परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, जिसका प्रकाशन 1893 ई. में साहित्य सुधानिधि के माध्यम से हुआ। इस दृश्य-रूपक का सम्पादन हिंदी उपन्यास के प्रवर्तक देवकीनंदन खत्री द्वारा किया गया, जो उस समय के सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के समर्थक साहित्यकारों में अग्रगण्य थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र की साहित्यिक दृष्टि से प्रेरित होकर रचित यह कृति हिंदी नाटक के उस उद्देश्य की पूर्ति करती है जिसमें भारतीय समाज को उसके गौरवशाली अतीत और राष्ट्रधर्म की चेतना से जोड़ना प्राथमिक था।
यह नाटक चित्तौड़ की महारानी पद्मावती की वीरगाथा को लोक और इतिहास के मध्य स्थित करते हुए, कल्पना और तथ्य का सजीव संयोजन प्रस्तुत करता है। लेखक ने इस कृति में केवल ऐतिहासिक प्रसंगों का पुनर्निर्माण नहीं किया है, बल्कि भारतेंदु युगीन राष्ट्रचेतना, सांस्कृतिक गौरव और नारी के नैतिक बोध को एक सशक्त साहित्यिक रूप दिया है। नाटक का प्रारंभिक गीत “सबै मिलि भारत की जय गाओ…” एक प्रकार का राष्ट्रीय उद्घोष है जो केवल भावुकता नहीं, अपितु देश की एकता और धर्म-संरक्षण के लिए समर्पण का आह्वान करता है।
रावल रतनसिंह जैसे पात्रों के माध्यम से नाटक में मातृभूमि के लिए बलिदान का आदर्श उद्घाटित होता है। रतनसिंह का यह कथन — “यह शरीर अपनी मातृभूमि के कुछ भी काम आवे तो इससे बढ़कर और पुण्य का क्या फल है?”[9]
केवल वीरता नहीं, बल्कि त्याग और कर्तव्यबोध का मूर्त उदाहरण बन जाता है।
अलाउद्दीन खिलजी के चरित्र के माध्यम से लेखक ने क्रूरता, स्त्री-विरोधी दृष्टिकोण, सत्ता के प्रति विकृत लोभ और छल-कपट की राजनीति को दर्शाया है। खिलजी का यह कथन — “इनसे लड़कर कोई भी नहीं जीत सकता। इनसे दगाबाजी करने में फतह है”[10] राजपूती शक्ति के समक्ष उसकी हीनता को उद्घाटित करता है और नाटक में नैतिक द्वंद्व की तीव्रता को गहराता है।
पद्मावती के आत्मसंवाद, विशेषतः जब वह अपने सौंदर्य को चित्तौड़ के संकट का कारण मानती हैं, उस समय नाटक नारी की मनोदशा के सबसे जटिल और संवेदनशील स्तर को छूता है। - “हाय चित्तौड़ तेरी यह गति मेरे ही कारण हुई…”[11] यह वाक्य केवल एक नारी का आत्मग्लानिपूर्ण उद्गार नहीं, बल्कि उस युग की सामाजिक मान्यताओं की करुण आलोचना भी है, जहाँ स्त्री का सौंदर्य कभी राज्य की रक्षा का कारण तो कभी उसके पतन का माध्यम बनता है।
नाटक का उत्कर्ष बिंदु वह दृश्य है जहाँ महारानी पद्मावती अपने सतीत्व, धर्म और कुल-गौरव की रक्षा हेतु जौहर करती हैं। यह आत्मदाह केवल व्यक्तिगत सुरक्षा या हार की निराशा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का क्रांतिकारी कार्य बन जाता है। यह वह क्षण है जहाँ नारी शक्तिरूपा होती है, जो मृत्यु को चुनकर भी विजय का भाव संप्रेषित करती है।
रतनसिंह के अंतिम संवाद — “हमारा धर्म रहेगा, वंश भी रहेगा, फिर चित्तौड़ स्वतंत्र होगा, फिर धर्म की पताका फहराएगी”[12] नाटक के आशावादी स्वर और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के विश्वास को पुष्ट करते हैं। यह केवल कथा का निष्कर्ष नहीं, बल्कि भारतेंदु युग की वह दृष्टि है जो पराजय में भी भविष्य की स्वतंत्रता और गौरव का स्वप्न देखती है। इस प्रकार राधाकृष्ण दास का ‘महारानी पद्मावती’ हिंदी साहित्य की उस परंपरा का प्रतिनिधि है, जिसमें ऐतिहासिक गाथाएँ केवल अतीत का स्मरण नहीं, वर्तमान के लिए नैतिक और सांस्कृतिक प्रेरणा बनकर उभरती हैं।
‘प्रताप प्रतिज्ञा’ जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द द्वारा रचित ऐतिहासिक नाटक है जो हिंदी साहित्य में राष्ट्रभक्ति, आत्मबलिदान और सांस्कृतिक अस्मिता की अनुगूंज के रूप में प्रतिष्ठित है। यह नाटक महाराणा प्रताप की मातृभूमि-निष्ठा और स्वाभिमान के संघर्ष को नाटकीय भाषा में प्रस्तुत करते हुए मेवाड़ की स्वाधीनता की उस जिजीविषा का चित्रण करता है, जो समय की हर चुनौती के सामने अविचलित रहती है।
नाटक की कथा संरचना चित्तौड़ के पतन, अकबर के आक्रामक साम्राज्यवाद, और शिशोदिया वंश के भीतर व्याप्त निष्क्रियता तथा विलासिता के विरोध में प्रताप की उभरती हुई प्रतिज्ञा को केंद्र में रखती है। यह प्रतिज्ञा कोई साधारण राजनीतिक घोषणा नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक एवं नैतिक संकल्प के रूप में नाटक की आत्मा बन जाती है। जब प्रताप यह कहते हैं कि जब तक चित्तौड़ का उद्धार नहीं होता, वे राजप्रासाद और विलासिता को त्याग देंगे, तो यह कथन किसी व्यक्तिगत आक्रोश का नहीं, बल्कि समष्टिगत चेतना और उत्तरदायित्व का उद्घोष बन जाता है। संवादों में प्रयुक्त रूपकों – जैसे ‘काँटों का ताज’, ‘विष का प्याला’, ‘सेवा का निशान’ – के माध्यम से मिलिन्द सत्ता की परिभाषा को लोकसेवा और आत्मत्याग के रूप में पुनर्निर्धारित करते हैं। यहाँ प्रभुता त्याग में रूपांतरित हो जाती है और राजमुकुट केवल अधिकार का नहीं, बल्कि कर्तव्य का प्रतीक बनता है।
चन्द्रावत का चरित्र नाटक में लोक प्रतिनिधि की भूमिका निभाते हुए उस नैतिक चेतना को स्वर देता है जो सत्ता से उत्तरदायित्व की माँग करता है। जब वह यह कहता है कि “मेवाड़ का राजमुकुट कायरों के मस्तक का भूषण बनकर कब तक अपनी हँसी कराता रहेगा?”[13]
तब यह एक सशक्त लोकतांत्रिक हस्तक्षेप की तरह प्रतीत होता है। चन्द्रावत के माध्यम से लेखक यह स्पष्ट करते हैं कि जब शासक अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं, तब प्रजा की आत्मा स्वयं किसी योग्य नेतृत्व को चुनने में समर्थ होती है। यह लोकचेतना का वह आरंभिक स्वर है, जो आधुनिक लोकतंत्र की नींव में देखा जा सकता है।
प्रताप का चरित्र इस नाटक में एक ऐसे आदर्श वीर का है, जो सत्ता से अधिक सेवा को महत्त्व देता है। उनकी प्रतिज्ञा, उनका आत्मसंयम, उनकी मातृभूमि के प्रति अगाध श्रद्धा केवल एक ऐतिहासिक चरित्र को नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आदर्श को मूर्त करते हैं। - “मेवाड़ को माँ कहते समय किसे रोमांच न होगा?”[14] जैसे संवाद मातृभूमि के साथ भावनात्मक तादात्म्य की चरम स्थिति को प्रकट करते हैं, जो भारतीय संस्कृति की मूल संवेदना रही है। नाटक का चरमबिंदु वह दृश्य है जब चन्द्रावत राजमुकुट को औपचारिक सत्ता का प्रतीक न मानकर, प्रताप को एक ‘व्रती’, ‘सेवक’ और ‘त्यागी’ के रूप में पहचान कर सौंपता है। प्रताप द्वारा उसका स्वीकार किया जाना किसी राज्यारोहण का नहीं, बल्कि जनसेवा की शपथ का क्षण बन जाता है। यह शपथ आधुनिक राजनीतिक नेतृत्व के लिए भी एक नैतिक आदर्श की स्थापना करती है।
हल्दीघाटी युद्ध और चेतक की वीरगति के साथ-साथ सामंतों द्वारा प्रतिज्ञा की पुनरावृत्ति नाटक में संघर्ष और त्याग की उस परंपरा को रेखांकित करती है जो चित्तौड़ के उद्धार को केवल किसी राजनीतिक लक्ष्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण के रूप में देखती है। विशेष बात यह है कि नाटक के अंत में प्रताप स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उनकी प्रतिज्ञा अधूरी रह गई। पर यह अधूरापन किसी विफलता का बोध नहीं कराता, बल्कि यह उस राष्ट्रीय उत्तरदायित्व की निरंतरता का प्रतीक बन जाता है, जो पीढ़ियों तक चलने वाला है। ‘प्रताप प्रतिज्ञा’ की सफलता इसी में है कि यह इतिहास को केवल अतीत की पुनरावृत्ति न बनाकर, वर्तमान और भविष्य के लिए प्रेरणा का स्रोत बनाती है।
‘राजमुकुट’ गोविन्द वल्लभ पंत द्वारा रचित ऐतिहासिक नाटक परंपरागत वीरगाथा प्रधान ऐतिहासिक नाटकों से अलग है, क्योंकि इसमें केवल घटनाओं का पुनर्निर्माण नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक गहराई, नैतिक द्वंद्व और सत्ता-संघर्ष की जटिलताओं का सूक्ष्म चित्रण किया गया है। नाटक की कथा महाराणा उदयसिंह के जीवन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में स्थापित है, जिसमें पन्नाधाय, बनवीर और सत्ता की अवधारणा के मनोवैज्ञानिक पहलुओं का गहन अन्वेषण होता है। मेवाड़ की राजसत्ता तथा उत्तराधिकार के संघर्ष को यह नाटक केवल राजनीतिक विवाद के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक विमर्श के केंद्र में रखता है।
कहानी राणा सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ में राजगद्दी के अधिकार को लेकर उत्पन्न विवाद से आरंभ होती है, जहाँ बनवीर सत्ता की लालसा में बालक उदयसिंह को बाधक मानता है और उसे वध करने का षड्यंत्र रचता है। यह घटना सत्ता के लिए अनैतिक राजनीति और लालसा की पृष्ठभूमि प्रस्तुत करती है। नाटक की मूल भावना यह प्रश्न उठाती है कि क्या केवल रक्त संबंध ही सत्ता का अधिकार देते हैं, या नैतिकता, नीति और सहिष्णुता भी आवश्यक हैं।
पन्नाधाय का चरित्र केवल त्याग की मूर्ति नहीं, बल्कि संघर्षशील और विवेकपूर्ण मातृत्व की जीवंत छवि है, जो अपने व्यक्तिगत प्रेम और राष्ट्रधर्म के बीच गहन द्वंद्व से गुजरती है। उसका बलिदान अंधभक्ति नहीं, बल्कि जिम्मेदार और विवेकी कर्तव्यनिष्ठा का प्रतिबिम्ब है, जो मातृत्व के सर्वोच्च रूप को राष्ट्र के भविष्य के लिए अपने पुत्र की बलि देने की क्षमता से जोड़ता है।
बनवीर नाटक का जटिल विरोधी पात्र है, जो परंपरागत खलनायक से अलग, मनोवैज्ञानिक पीड़ित है। सामाजिक बहिष्कार और अपमान ने उसे विद्रोही बनाया, परन्तु वह केवल दुष्ट नहीं, बल्कि अपने अपमान का प्रतिकार करने वाला एक संवेदनशील मनुष्य है। वह रक्त से तो राणा वंश का है, किन्तु समाज के बहिष्कार ने उसे अंदर से जख्मी और संघर्षशील बना दिया। उसकी सत्ता की लालसा नैतिक प्रश्नों से घिरी हुई है, जो नाटक की गहनता और यथार्थवाद को दर्शाती है। बालक उदयसिंह का चित्रण एक द्रवित, असमर्थ बालक के रूप में हुआ है, जो राजनीतिक जटिलताओं और तनावों के बीच दबी हुई आत्मा है। उसकी मौनता, दुविधा और पन्नाधाय के संघर्षों के माध्यम से नाटक मनोवैज्ञानिक तनाव और भावनात्मक जटिलताओं को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता है।
नाटक में बनवीर और उसकी माता शीतल सैनी के संवाद सत्ता, नैतिकता, और पारिवारिक संबंधों के द्वंद्व को स्पष्ट करते हैं। शीतल सैनी सत्ता के मोह में अपनी मातृत्व-भावना को बलिदान करने को तैयार एक राजनीतिक नियंता के रूप में उभरती है, जबकि बनवीर के भीतर बची मानवीय संवेदना और नैतिकता उसकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं से टकराती है। जब बनवीर राजमुकुट पहनकर महाराणा कहलाता है, तो यह सत्ता का दावा मात्र नहीं, बल्कि उसकी असुरक्षा और वैधता की लालसा भी दर्शाता है। परंतु जब उसकी माँ उदयसिंह की हत्या की बात करती है, तो उसका विरोध - “चुप चुप, यह क्या कहती हो! उदय की माँ मर गई। उसके बाद कई दिनों तक हमने उसे अपनी छाती से लगाया। राजनीति के परदे में विक्रम को दंड भी दिया जाय, तो इस अबोध बालक उदय का क्या अपराध है?”[15]
उसके नैतिक अंतर्मन को उद्घाटित करता है, जो मानवीय भावनाओं और राजनीतिक सत्ता के बीच गहरे द्वंद्व को प्रकट करता है।
‘राजमुकुट’ हिंदी के ऐतिहासिक नाटकों में एक मनोवैज्ञानिक और नैतिक विमर्श प्रधान कृति है, जो वीरता के उद्घोष के बजाय चरित्रों के मानसिक द्वंद्व और नैतिक प्रश्नों को सामने लाती है। यह नाटक मेवाड़ के इतिहास के महत्त्वपूर्ण मोड़ को चित्रित करते हुए सत्ता के नैतिक स्वरूप, मातृत्व के बलिदानी चरित्र और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के विषयों पर गहन दृष्टि प्रस्तुत करता है।
हिंदी नाट्य साहित्य में मेवाड़ का योगदान केवल ऐतिहासिक घटनाओं के पुनर्निर्माण तक सीमित नहीं, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज को अपनी जड़ों, मूल्यों और स्वाभिमान की ओर लौटने की प्रेरणा दी। इन नाटकों ने मेवाड़ के बलिदानी चरित्रों के माध्यम से यह स्थापित किया कि साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, एक सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर है। वर्तमान समय में जब सांस्कृतिक विरासतों के प्रति सजगता आवश्यक है, मेवाड़ आधारित नाट्य कृतियाँ हमारी सामूहिक स्मृति और सांस्कृतिक अस्मिता को जीवंत बनाए रखने का माध्यम बनती हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ :
1. हरिकृष्ण प्रेमी : रक्षाबंधन(राजपाल एंड संस,दिल्ली,1991), पृ. 49-50
2. वही, पृ. 38
3.
हरिकृष्ण प्रेमी : कीर्तिस्तंभ(राजपाल एंड संस, दिल्ली, चतुर्थ संस्करण,1957), पृ. 11
4.
वही, पृ. 12
5.
वही, पृ.
22
6.
शिवप्रसाद चारण : पन्नाधाय(गढ़वाल,महर्षि मालवीय इतिहास परिषद), पृ. 26
7.
वही, पृ. 23
8.
शिवप्रसाद चारण : हिरोल(गढ़वाल,महर्षि मालवीय इतिहास परिषद), पृ.
29
9.
श्रीराधा कृष्णदास(सं.देवकी नन्दन खत्री) : महारानी पद्मावती(साहित्य सुधानिधि 1893), पृ.5
10.
वही, पृ.
23
11.
वही,
पृ. 17
12.
वही, पृ.
45
13.
जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द : प्रताप प्रतिज्ञा(हिंदी भवन लाहौर, चतुर्थ संस्करण 1996), पृ.
10
14.
वही, पृ.10
15. गोविन्द वल्लभ पंत : राजमुकुट (गंगा-पुस्तक माला, लखनऊ,1935), पृ.46
विकास कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, भूपाल नोबल विश्वविद्यालय उदयपुर, स्कूल व्याख्याता, चित्तौड़गढ़
9414374339 aggrawalvikas@gmail.com
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