डायरी नवम्बर 2024
- सत्यनारायण व्यास
दो बातों का एक मर्म (15 नवंबर, 2024, जयपुर)
संसार के सभी धर्मों, ज्ञान-विज्ञान और दर्शन का निचोड़ दो बातों पर आकर ठहरता है- परोपकार और आत्मज्ञान। मेरे जीवनभर के अनुभव और अर्जित ज्ञान का सारांश भी यही है कि दूसरों के दुःख का भागीदार बनो और ख़ुद को जानो कि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप क्या है? जो भी आता, महर्षि रमण उसे यही कहते थे- “अपने से पूछो कि मैं कौन हूँ?” जब आत्मज्ञान हो जाएगा तो अन्य के दुःख से स्वतः तादात्म्य होगा। परोपकार आत्मज्ञान का रास्ता है और आत्मज्ञान परोपकार पर जाकर ठहरता है। सभी महापुरुषों ने इसके अलावा क्या किया है?
जो साहित्य, दर्शन, कला या विज्ञान परोपकार की तरफ़ नहीं ले जाता, वह तुच्छ और त्याज्य है। किस काम का है वह? आत्मज्ञान का अर्थ है- प्राणिमात्र में झिलमिलाती अपनी ही आत्मचेतना का बोध। सब में जब आत्मानुभूति होगी तो इसकी परिणति स्वतः परोपकार में होगी। दयानंद, विवेकानंद, परमहंस या किसी भी महापुरुष के जीवनभर की तपस्या को देख लो। यही मिलेगा। महात्मा गाँधी, रवींद्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद के जीवन का यही सारांश है। आत्मज्ञान हमें सामाजिक बनाता है। परम संवेदनशील और परदु:खकातर बनाता है।
इन दो तत्त्वों का मर्म एक है। मंतव्य एक है। जो दूसरों के दुःख से नहीं जुड़ता, द्रवित नहीं होता, वह धरती पर बोझ है। उसका मनुष्य होना धिक्कार है। और ख़ुद को नहीं जानता तो फिर उसने क्या जाना? जन्म लेकर- माँ का दूध पीकर- माँ के यौवन का क्षय किया और परम मूल्यवान अन्न को नष्ट किया। ऐसे अज्ञानियों से धरती बोझे मर रही है।
जीवन-अजीवन (24 नवंबर, 2024, जयपुर)
जीवन मिल गया है तो जी लेते हैं। हाथ में है दूध का गिलास तो पी लेते हैं। दूध माँगा नहीं था। बिन माँगे आ गया। अच्छा हुआ। न भी आता तो अच्छा था। क्या जीवन ही सब कुछ है? अजीवन कुछ नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जीवन अजीवन रूपी समुद्र की लहर हो! जीवन के पीछे क्या है? हम क्यों जीवन को ही सब कुछ समझ बैठे हैं? यह पृथ्वी, ये प्राण अपार और विराट प्रकृति का एक बुलबुला मात्र है।
हम जीवन के पीछे पड़े हैं। पर जीवन भी कोई क्षुद्र और नगण्य नहीं। इसमें दम है और ख़ासियत है, अजीवन के बारे में सोचने की। जीवन मिलते ही अजीवन के प्रति पर्दा तन जाता है। बस जीवन दिखता है। जहाँ से आये हैं, वह अदृश्य। यही शिकायत है, जाने किससे? ईश्वर, माया, ब्रह्म, प्रकृति, जीवन, मृत्यु, व्यक्त, अव्यक्त बेचारे मनुष्य की बेचारी भाषा के अर्थानर्थक शब्द हैं। इसी बेचारी भाषा से बड़ी-बड़ी बातें! बड़े-बड़े विचार! आकाश छूते। जिनका जीवन और धरती से परे कोई महत्त्व नहीं। कोई मूल्य नहीं।
जाने क्यों मनुष्य इतना इतराता है? अपनी बुद्धि पर। अपनी अभिव्यक्ति पर। वह है क्या? उसकी हैसियत क्या? अपनी अस्मिता के पागलपन की पिनक में एक पुरखा लिख गया- “न हिमानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्” (महाभारत)
मुझे तो दुनिया के तमाम दर्शन-शास्त्र बच्चों की क्रीड़ाजन्य तोतली बानी लगते हैं। उछल-कूद कर रहे हैं। आत्मविभोर हैं। खेलते-खेलते(जीते-जीते) ‘सेंसलेस पोएट्री’ बोल रहे हैं। उनके लिए वह एक आनंद संगीत है, बिना यह जाने कि कोई सुन रहा है या नहीं। उधर ऊपर परमसत्ता मुस्कराती है। इन सबके बावजूद, यदि जीवन समाप्त तो अजीवन का क्या हो? जीवन से ही अजीवन के बारे में सोचा जा सकता है। सो, जीवन केवल दूध का गिलास नहीं। वह तो परम दुर्लभ महान् उपलब्धिहै। इसे हमें हल्के में न लेना चाहिए।
स्त्री और शास्त्र (25 नवंबर, 2024, जयपुर)
पहली बात तो यह कि स्त्री के बारे में पुरुष को लिखने का अधिकार नहीं है। यह अधिकार उसने खो दिया है। हज़ारों वर्षों से स्त्री को दबाकर रखने की लंबी अपराध-कथा का वह ‘हिस्ट्रीशीटर’ है। वह आदतन और इरादतन अपराधी है। पुरुष ने ख़ूब दादागिरी की है जो दुतरफ़ा है। एक तो स्त्री पर, दूसरे कमज़ोर वर्ग को “शूद्र, म्लेच्छ, चांडाल” जैसे विशेषण देकर। लेकिन पुरुष को सज़ा कौन दे? सिमोन की ‘द सेकंड सेक्स;’ के साथ पचासों पुस्तकों में दर्ज पुरुष जाति के लोमहर्षक जुल्मों की लंबी फेहरिस्त है। बेशक, वह सज़ा का पात्र है।
मिसाल के तौर पर आज के दौर की सिर्फ़ दो किताबें उठाकर देखिए- एक तो मन्नू भंडारी की ‘एक कहानी यह भी’ और दूसरी ममता कालिया की ‘रवि-कथा’। इन दोनों से बढ़कर एक तीसरी किताब और देखें- शशिकला राय की दो भागों में- ‘ज़िंदा कहानियाँ’। इन्हें पढ़कर तो मन करता है कि तमाम स्त्रियाँ हंटर और चाबुक लेकर गलियों में निकल पड़ें और जहाँ भी मर्द नज़र आएँ तो दे दनादन, दे दनादन/ सड़ाक-सड़ाक। पश्चिम से चले स्त्री आन्दोलन को डेढ़ सौ बरस होने जा रहे हैं पर शहरों के संपन्न वर्ग की चंद मुट्ठीभर महिलाओं के सिवाय कहीं भी स्त्री सुखी नहीं है।
भारत में तो पाखंड यह है कि अनेक ग्रंथों में उसे पूजनीय, महान् और कुलदेवी आदि बताया गया है। हक़ीकत में वे ही शास्त्रकार और उनके अनुयायी स्त्रियों पर जो कहर ढाते आ रहे हैं, वह शब्दों से परे है। इस दोगलेपन के कारण भारतीय पुरुष समाज और शास्त्रकार दोहरे दंड के पात्र हैं। और यह धौंसपट्टी ठेठ से चली आ रही है। शायद उससे भी पहले की हो। मिसाल के तौर पर ऋग्वेद को लीजिए। उसमें से दो-तीन बातों का उल्लेख काफ़ी होगा। एक तो यह कि चारों वेदों में किसी एक भी व्यक्ति ने कहीं भी पुत्री के जन्म की माँग ईश्वर से नहीं की है। घोड़े माँगे हैं, गायें माँगी हैं, पुत्रों की याचना की है। यहाँ तक कि खच्चर, भेड़ और बकरियाँ माँगी हैं पर एक बेटी होने की प्रार्थना नहीं की। यह केवल पितृसत्ता नहीं थी बल्कि औरतों को दबाये रखने की आततायी सत्ता थी।
ऋग्वेद में कुछ मंत्र ऐसे भी आए हैं कि स्त्री को वस्त्राभूषणों से लादकर ख़ुश रखो और उससे अनेक वीरपुत्रों को उत्पन्न करो। परम-पवित्र प्रातःस्मरणीय वैदिक साहित्य का ये हाल है। इतना ही नहीं कई अतिचार और भी हैं। ब्राह्मण ग्रन्थ, आपस्तंब, गृह्यसूत्र तथा पी वी काणे लिखित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में दर्ज़ है। वैदिक युग में यज्ञ की पूर्णाहुति के उपरांत घृणास्पद प्रक्रिया और होती थी। कई बातों को छोड़ते हुए यहाँ कहना यह है कि प्राचीन गर्व करने लायक यज्ञ-संस्कृति, जो भारतीय संस्कृति का गौरव पक्ष है, की यह दशा थी। इसमें स्त्री को माध्यम बनाया गया। खैर।
शास्त्रों में कदम-कदम पर ‘पुरुषार्थ’ की महिमा गाई गई है। इस शब्द में केवल पुरुष और उसका श्रम है। स्त्री का श्रम कहाँ गया? पुरुषार्थ के साथ ‘महिलार्थ’ का क्या हुआ? जबकि विश्व के विकास में सत्तर प्रतिशत योगदान स्त्रियों का है, जिसका आकलन किया ही नहीं गया। कृषि की शुरुआत भी गुफावासी आदिकालीन युग में स्त्रियों द्वारा की गई। जब आदिमानव अन्य पुरुषों के साथ शिकार पर जाता, तो पीछे से बाट जोहती स्त्री गुफा के आसपास खाद्यान्न के कुछ बीज बिखेर देती थी, जो कृषि कार्य का उत्स है।
चाणक्य, जो आजीवन कुंवारा और छड़ा बना रहा, उसके विचार भी स्त्री के बारे में ठीक नहीं लगते। उसकी पुस्तक ‘चाणक्य नीति’ में यह कहा गया है कि स्त्रियों का आहार पुरुष से दुगुना, लज्जा चार गुनी, साहस छह गुना और कामेच्छा आठ गुना होती है। न शादी की, न घर बसाया और यह कह दिया। उसी में आगे यह भी लिखा है कि नदी, हथियारधारक, नख-सींग वाले पशु के साथ स्त्रियों का और राजा का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। इन शास्त्रकारों ने स्त्रियों को जाने क्या समझ रखा था? पढ़ नहीं सकती, जनेऊ नहीं ले सकती, यज्ञ में घृताहुति नहीं दे सकती। अगर ये सारे शास्त्र स्त्रियों ने लिखे होते तो पुरुषों की अक्ल ठिकाने आ जाती। विवाह के समय कन्या से पंडित ये शर्तें मंज़ूर करवाता है कि “मम चित्तं मम वित्तं मम वाचा न लोपयेत्।” यानी मेरे चित्त के अनुसार चलना, मेरे बजट के अनुसार चलना और मेरी आज्ञा का कभी उल्लंघन मत करना। ऐसी ही बाबा आदम के ज़माने की बातें ‘स्त्री-शिक्षा’ विषयक पुस्तिकाओं में मिल जाएँगी।
स्त्री हर वक़्त पुरुष की चाकर है, दासी है, वह ग़ुलामी के सुख में ख़ुद को धन्य मानती है। निर्दय, स्वार्थी पुरुष वर्ग ने स्त्री को इस हद तक ‘कंडीशंड’ कर डाला। अब, इधर शिक्षित वर्ग में कुछ जागृति आई है। कात्यायनी, अनामिका, गगन गिल, निर्मला पुतुल, जेसिंता केरकट्टा, सविता सिंह, प्रभा खेतान, मैत्रेयी, तसलीमा नसरीन, अरुंधती राय, रोहिणी अग्रवाल, रेखा सेठी और सुमन राजे, जिसने स्त्री को ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ घोषित किया है- इनके साथ भारतीय भाषाओं में अनेक स्त्रियों ने सर उठाया है। अब सास, ननद बहुओं से भय खाने लगी हैं। लेकिन यह सारी चेतना नगरीय मध्यम वर्ग तक सीमित है। ग्रामीण क्षेत्रों में पिछड़े वर्गों- मज़दूर, किसान, अनपढ़ों की दुनिया में मर्दों का वही कहर जारी है। शराब पीकर आना, औरत की कमाई छीनकर पीटना, घसीटकर घर से बाहर निकाल देना, करोड़ों स्त्रियों के साथ अत्याचार बरकरार है, जारी है। लक्ष्मीनारायण लाल के नाटक ‘अंधा कुआँ’ में इसका रोंगटे खड़े कर देनेवाला चित्रण है। जगदंबा प्रसाद दीक्षित की ‘मुरदाघर’ भी ऐसी ही दर्दनाक पुस्तक है। काश, सभी पुरुष अगली बार स्त्री का जन्म लेकर धरती पर आएँ तो उन्हें स्त्री के दु:खों का कुछ एहसास हो जाएगा।
प्रकृति और विवेक (30 नवंबर, 2024, जयपुर)
प्रकृति ने जो मुझसे करवाया वो मैंने किया। अच्छा या बुरा जो भी हुआ उसमें कौन दोषी है? प्रकृति या मैं? प्रकृति कौन है? मैं कौन? प्रकृति मुझसे है या मैं प्रकृति से? मेरा जैविक शरीर प्रकृति का अंग है। माना, पर शरीर में जो “मैं हूँ” वह प्रकृति का अंग नहीं है। वह है- चेतन सत्ता- प्रकृति की उत्स। प्रकृति की शासक नियामक। E= Mc2 में मैटर मुख्य नहीं एनर्जी प्रमुख है। एनर्जी यानी चेतना। एनर्जी का उत्पाद है जीवन और जीवन में बैठा है विवेक। प्रकृति यानी भौतिक सत्ता-चेतना से जन्मी होकर भी स्वभाव से जड़ है। जैसे बर्फ़ पानी से बना होने पर भी प्रवाह से मुक्त और अपने में बंधा हुआ है। अब प्रकृति यानी भौतिक फ़ोर्स मेरी जैविकचर्या को प्रभावित करता है- भूख, प्यास, आत्मरक्षा, काम, प्रजनन इत्यादि। यही फ़ोर्स ‘उचित’ की सीमा लाँघता है। एक तरफ़ फ़ोर्स है दूसरी तरफ़ उचित-अनुचित। ये दोनों शब्द कहाँ से आए? कौन तय करता है उचित-अनुचित? प्रकृति तो नहीं करती, फिर कौन करता है? क्या सही क्या ग़लत? उपनिषद् कहता है- अथ केन पतति प्रेषितं मनः? मन किससे प्रेरित हो पतित होता है? प्रकृति से या चेतना से? बड़ा कठिन सवाल है। शरीर और शरीर से जुड़ा जीवन, प्रकृति और चेतना का संयुक्त संश्लेषण है। बहुत जटिल। भौतिक फ़ोर्स अबाध इच्छाओं और तृष्णा का तूफान है- ताक़तवर। उड़ा ले जाने वाला। भौतिक दिखता है, लुभाता है, फाँसता है, डुबोता है, अंधा बना देता है और विनाश की ओर ले जाता है- बेहिसाब तेज़ी से। शरीर और मन पर सवारी करके। लाखों-करोड़ों लोग इसी अंधकूप में जा रहे हैं। उनके भीतर कहीं गहरे क्षीण सी आवाज़ गूँज रही है कि यह ठीक नहीं हो रहा। पर प्रचंड प्रलोभन और ऐंद्रिक सुखों में जीने वाला यह आवाज़ नहीं सुन पाता। सुन भी लेता है तो अनसुनी कर डालता है। भौतिक फ़ोर्स में बहने से चेताने वाली क्षीण सी आवाज़ क्या है? यह आवाज़ है ‘विवेक’ जो चेतना का प्रतिनिधि है, दूत है।
मतलब असल लड़ाई प्रकृति और चेतना की है। एक, अनंत सुख-भोगों के चिकने रास्ते पर फिसलाकर ले जानेवाली प्राकृत शक्ति और दूसरी तरफ़ उसे रोककर सही रास्ते पर ले जाकर जीवन को सार्थकता देनेवाली चेतनसत्ता। नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:। बलहीन बह जाता है, डूब जाता है। बलवान तैरना जानता है, पार करके किनारे पर लौट आता है। सीधे शब्दों में ख़ूब खाओ-पीओ, मौज़ करो, वासना के चाशनी-कुंड में गोते लगाओ और यह तर्क दो कि प्रकृति मुझसे ये सब करवा रही है। मैं निर्दोष हूँ। क्या करूँ? यह तर्क जगत् का सबसे बड़ा झूठ है। मिथ्या का मुकुट है। क्योंकि जिस प्रकृति ने यह भोग-सामग्री और भोगने की लालसा दी है, उसी के ख़िलाफ़ प्रचंड चेतना शक्ति के प्रतीक ‘विवेक’ ने मुझे ‘संयम’ और ‘निवृत्ति’ की प्रबल शक्ति भी दी है।
प्रलोभन में फँसोगे तो मरोगे। भीतर की आवाज़ सुनोगे तो बचोगे। सवाल तुम्हारे ‘निर्णय’ का है। डिसीजन लेनेवाले तुम ख़ुद हो। फिर क्यों प्रकृति को दोषी ठहराते हो? तुम्हीं भौतिक हो, तुम्हीं चेतना हो। चाहो तो बह जाओ, चाहों तो पाँव जमाकर रुक जाओ। इन दो विकल्पों में चयन का नाम जीवन की विफलता और सफलता है।
सत्यनारायण व्यास
(राजस्थान के वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि)
नीलकंठ, छतरी वाली खान के पास, सेंथी (चित्तौड़गढ़) 312001
9461392200
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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