नदी के नाम लम्बी चिट्ठी : नैहर छूटो जाय
- प्रवीण कुमार जोशी
(कथेतर की इस रचना में पाठक पाएंगे कि लेखक प्रवीण के पास अपने गाँव-गुवाड़ की बहुत सघन स्मृतियाँ हैं। उनके लिखे में कई नई उपमाएं और बिम्ब हैं। उनकी भाषा में लोक की बढ़िया खुशबू मौजूद है। राजस्थान में बहने वाली सबसे लम्बी नदी बनास के प्रति उनके जीवंत अनुभव हैं जो इस संस्मरणात्मक आलेख में स्पष्ट दिख रहे हैं। नदी के प्रति उनके गाँव का अनुराग और अपनी दादी सहित मित्रों की संगत में बिताया गया वक़्त फिर से जीवंत हो उठा है। लेखन के दौरान लेखक से हुई हमारी बातचीत में पाया कि यह सबकुछ बहुत पीड़ाजनक था। बदलते हुए दौर में नदी, लोक संस्कृति और प्रकृति के प्रति हमारी दोगली मानसिकता के तमाम राज़ खुल गए हैं। आलेख में दार्शनिक हो जाना उनकी रुचि का विषय है। बहुत छोटी प्रकृति के वाक्य की रचना आसान काम नहीं है। आशा है लेखक आगे भी लिखकर हमें अपने लोक से और गहरा परिचय करवा सकेंगे। रचना में शामिल चित्र बनास नदी के ही हैं जो स्वयं रचनाकार द्वारा लिए गए हैं। - सम्पादक)
सितंबर के पहले पखवाड़े में एक समाचार पत्र के भीलवाड़ा संस्करण में ख़बर पढ़ी। बनास नदी तट पर स्थित किसी गांव की थी। पीछे के पृष्ठ पर छपी एक रंगीन तस्वीर में नदी पुल पर से बहती दिखाई गई थी। पुल क्या था, काजवे था। तस्वीर पर बड़े अक्षरों में लिखा था – “बनास ने रोकी राह....पानी बना मुसीबत।” अबकी बार पानी जमकर बरसा। सुना, कई जगहों के रिकॉर्ड टूटे। चौमासा विदा लेने को है। बंधन ढीले हुए पड़े हैं। नदियां अपने रास्तों पर बहते हुए खिलखिला रही हैं। मेवाड़ का नंदसमंद लबालब। मातृकुंडिया के गेट लगातार खोले जा रहे हैं। दोनों ही बनास पर बने हुए बांध है। मातृकुंडिया मेवाड़ का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। पितरों के तर्पण और दिवंगत स्वजनों की अस्थियों के विसर्जन के चलते यह मेवाड़ का हरिद्वार कहा जाता है। कहते हैं, भगवान् परशुराम यहीं बनास के तट पर अपने मातृहंता के पाप से मुक्त हुए थे।
बनास नदी अरावली से बन ठनकर निकली ही थी कि बांधों में आ बंधी। भरपूर बारिश ने इन बांधों को पूर दिया तो यह दीवारें फांद कर किलोले करने लगी। धारा सरकी, फिर आगे बढ़ कर बही। अपनी डगर खूब पहचानती है। उसका ख़ुद का बनाया हुआ रास्ता है। बरसों का अभ्यास रहा है बहने का। गांव-नगर, लोग-ढोर सबसे मिलती-मिलाती अपने देश जा रही है। आसपास के मैदानी क्षेत्रों से बहकर आए पानी के छोटे-बड़े बहावलों को छाती से चिपटाए उमग और उछल रही है। प्रवाह के बीच खड़ी चट्टानों से टकराने वाली उछलन मत मानिए इसे, आगे मिलने वाली सखियों से मिलन के उछाह की उछाल है ये तो। गलबहियां डालकर उनके संग घूमर करेगी, देखना। एकमेक होना इसे भाता है। ‘दूजे में समां जाना’ मुहावरे को सरलता में जो समझना हो, तो अपने पांवों में फीता लपेटकर इसके तट को बहते प्रवाह की दिशा में दूर छोर तक माप लीजिए बस। हाथ पकड़कर साथ चलना इसकी फितरत में है। चलने की बजाय बहना ज्यादा भावपूर्ण है। चलना सायास क्रिया है, जबकि बहना अनायास। नदी को बस बहना है। बस, बहना। पानी का अपने गांव के पास से होकर बहना भला किसे नहीं भाता होगा। “हो हो हो, पाणी हऊ आ रयो। हमेळ फाटगी।”... “हाँ, जमानो हऊ वेग्यो।” नदी में बहता पानी ज़बान तक आ गया। लोकमन संवादों के जरिए नदी के साथ-साथ बह रहा है। “हांड्या उलळ री हांड्या...!” वेगवती धारा के ऊभचूभ प्रवाह का विवरण देने के लिए उछल-उछलकर भागते ऊंटों की रेवड़ के बिंब ने लोकभाषा में जगह पायी। बहती जलधारा को देखने खड़ी जनधारा में हिलोरें उठती हैं। छुटपन में एक बार दादी ने मेरे पूछे का उत्तर दिया था, “घहणी छेहटी का मंगरा ऊं बे'न आ री, अ'न समंदरां जा री।” मैंने उत्सुकता भरी नजरों से बहकर आती हुई धारा की दिशा में हद तक ताकने का प्रयास किया। दूर... तट की लकीर के ऊपर आकार में छोटे होते जाते पेड़ों की हरी और घनी कतार के साथ बलखाती, ग़ायब होती सफ़ेद पनीली धारा। आसमान नदी से आ मिला। झुके बादलों में छिपती नदी। ‘छेटी’ शब्द से तो मेरा पूर्व परिचय था, पर दादी का ‘घहणी छेहटी’ कहने का जो लहजा था, उसने मुझे दादी की ही सुनाई गई किसी कहानी के अनदेखे लोक तक पहुंचा दिया। निश्चय ही कोई भी वहां अब तक नहीं पहुंच पाया होगा। दूर छिपे इन अज्ञात मंगरों (पर्वतों) ने मेरी देखी हुई धरती का विस्तार अनंत तक कर दिया था।कमर तक बह रही ठंडी धारा का स्पर्श मुझमें सिहरन पैदा कर रहा था। नंगे पांवों के नीचे समतल रेत की अजीब-सी गुदगुदाहट। बीच प्रवाह में चलते-चलते रुकने पर पांवों के नीचे रेत की खिसकन का गतिमान स्पर्श अब भी याद है। बहते पानी पर नजर ठहरते ही लगता कि अब बहे, अब बहे। दादी के हाथ में मेरी एक बांह थी और मेरे हाथ में मेरी चप्पलें। “नीचे मती नाळ, भुणेट्या आ जाई। वा पीपळ सामी नाळ'न चल्यो चाल।” उम्र बीतने के साथ भिन्न समझ बनी कि जमीन पर चलते बखत ठोकर से बचने के लिए नीचे भी देखकर चलना होता है। जीवन की हरेक राह नदी नहीं होगी। उस पार खड़ी पीपळ भी कहीं गहरे जा धंसेगी। नई पीपळ उगने, उसकी कोंपलें फूटने, बढ़ने और उस पर नजर जमने में बरस बीते मानिए।
बाद में कभी दादी से गुट्या राजकुमार की कहानी सुनते हुए बहती नदी को पार करने का यह दृश्य समाधान लिए साकार हुआ। यात्रा में घमंडी राजकुमार घोड़ों पर सवार थे और उनका सबसे छोटा, सौतेला और तिरस्कृत भाई, बौने कद का गुट्या राजकुमार मनकी यानी बिल्ली पर सवार था। मार्ग में उफनती नदी को राजकुमारों के घोड़ें चाबुकों की सटाकों के बल पर छलांगे मारते पार कर गए, लेकिन मनकी ठिठक गई। कहानी का नायक उपहास का पात्र बना रुआंसा हो खड़ा रहा। कुछ सोचकर गुट्ये राजकुमार ने अपनी पीठ पर बंधा ताकळा (चरखे पर लगने वाली लोहे से बनी तीखी नोक वाली छड़ जिसके घूमने से सूत कतकर धागे के रूप में लिपट जाता है), जिसे उसकी उपेक्षित रानी मां ने सुरक्षा शस्त्र के रूप में दिया था, बाहर निकाला। उसकी तीखी नोक बिल्ली को चुभाने के साथ गुट्ये राजकुमार ने टेर लगाई “फदाक मनकी पेली तीर” और बिल्ली एक ही झटके में उस पार खड़ी मिली। काश ये कहानी दादी ने पहले सुनाई होती तो गुट्ये राजकुमार की तरह मैं भी एक ही उछाल में नदी पार कर जाता। कहानियों के नायकों से नदियां पार हो जाया करती हैं, परन्तु असल जिंदगी में नदी के पार पहुंचने के लिए ऐसी बिल्लियां खुद ही गढ़नी होती हैं। दादी के जाने के बाद रेट्या (चरखे का स्थानीय नाम) ने भी अपनी राह पकड़ी, परंतु उसका ताकळा मैंने अपने पास रख लिया। सोचता हूं, घोर प्रतिस्पर्धा और उपेक्षा से भरे इस दौर में यह साधन मुझे संबल देता रहेगा।
हम सभी मित्रों को नदी से बहुत लगाव था। आज भी है। बच्चे थे तब मुलायम रेत वाले उसके तट पर खूब खेले। मन वहीं रमता। हर दूसरे दिन टोली वहां जा पहुँचती। नदी के बीच स्थित सूखी रेत के विस्तृत ढावे पर हमारी किलकारियां गूंजती। समतल ढावा बनास के द्वारा सदियों में इकट्ठी की गई पुरानी जमी हुई रेत का ऊंचा और भरपूर भंडार था। नदी के बीच खुशियों का रेला बहता। रेत का अथाह संमदर बिछा हुआ। उसमें लोटमलोट हो रहते। रेत में मिले हुए अभ्रक के चमकीले कण हमारे चेहरे पर चिपककर पिताजी के सामने हमारा झूठ जा प्रकट करते। खेल के आनंद की चमक फीकी नहीं पड़ जाए इसलिए घर लौटने से पहले मित्रों की परस्पर हामी भरे दर्पण में अपना-अपना चेहरा देखना जरूरी होता था। नदी के विस्तृत पाट के बीच स्थित उस ढावे के गीले ढलान पर हमने रेत के खूब घरौंदें बनाए। उन घरौंदों को तरह-तरह से सजाने में जो ख़ुशी और संतुष्टि मिलती थी उसकी तुलना आज ताउम्र ना चुकाए जा सकने वाले लोन से बनाए जाने वाले मकानों की मासिक किस्त और ब्याज की चिंता के साथ होने वाली सजावट से नहीं हो सकती है। नमीयुक्त रेत के ढेर में एक हाथ डालकर दूसरे हाथ की हथेली से ऊपर की रेत को थपथपाने की थाप ध्वनि और उत्पन्न कंपन को कौन भूल सकता है। भलीभांति जमी रेत के भीतर दबे हाथ को साँस रोककर एकदम धीरे से, होले- होले बाहर निकालते। लो, गुफ़ानुमा घर तैयार। फिर शुरू होती कलाकारियां। रेत का गुंबद बनता। पानी में मिली रेत अंजुरी से गुंबद पर धीरे-धीरे गिरती। पानी नीचे रिसता जाता, ऊपर रेत की शंक्वाकार आकृति उभार पाती। यह क्रिया लगातार दोहराव मांगती। सुंदर सी मीनार खड़ी हो रहती। ख़ुशी मनाते। साज सज्जा होती। ये रही बाउंड्री, ये रही फाटक। इधर रोशनदान, उधर खिड़की। यहां गाय बंधेगी। गाय के लिए ठाण का रचाव शुरू। तिनकों की थूणियां। सूखे पत्तों के छप्पर की छाया। बारिश हो रही है, गाय सूखे में। धूप तेज है, गाय छाया में। दूध दूहा गया। सबने गटका। आम का पेड़ लगा। खूब आम आए। मीठे गट्ट। दोस्तों में बंटे। पीछे के खेत में भुट्टे बुआई के साथ ही उगे भी और पके भी। ये रही सिगड़ी। भुट्टे सिकते जा रहे हैं, हम खाते जा रहे हैं। रेतीले घरों का गांव बन रहा है। एक-दूजे के बनते हुए रेतघर देखने जा रहे हैं। दूसरों के घर की निर्माण प्रक्रिया देखने के साथ ही अपने घर की सुरक्षा भी बड़ी जिम्मेदारी का काम है। घर बनाना मुश्किल है, बनाए रखना और भी मुश्किल है। हल्का सा धक्का लगा और घर टूटा। टूटे-बिखरे घर फिर कहां जुड़ पाते हैं। हां, वे स्मृतियों के साथ चिरकाल तक जुड़े रहकर व्यथित जरूर करते हैं। टूटने की भरभराहट थमने में समय लेती है। घर रीता, जीवन बीता, ढूह रह गया। प्रवाह ढूह को बहा ले गया। हो, हो, हो की समवेत ध्वनि। रेतघर फिर से बनने को तैयार। रेत के ढेर में वही हाथ फिर दबते, फिर वही थपथपाहट, साज सज्जा...। सोचता हूं, प्रेमचंद के उपन्यास 'रंगभूमि' के पात्र सूरदास ने बालपन में जरूर किसी नदी तट की रेत पर अपने बनाए हुए घरौंदों को सखाओं द्वारा तोड़े जाने पर अनगिनत बार फिर से बनाया होगा। संभव है, इसी कारण वह उसकी जला दी गई झोंपड़ी से संबंधित मिठुआ के प्रश्न का जीवटता भरा जवाब दे पाया था- "तो हम भी सौ लाख बार बनाएंगे।"शाम के धुंधलके में असंख्य लाल, पीले, सफेद, सलेटी गोल पत्थरों से सजा हुआ बनास का तट बड़ा सुन्दर दृश्य रचे हुए था। पानी की धारा इन पत्थरों को तराशने में सदियां लगाती है। तराशे हुए ऐसे गोल पत्थर को मेवाड़ में ‘लोडी’ कहते है। आड़ावल पर्वत अपनी बेटी बनास के साथ इन लोडियों के रूप में दूर तक बहने का प्रयास करता हैं। प्रवाह में धैर्य और धीमापन रखने की सीख देकर परे हो रहता है। बेटियों का जीवन-प्रवाह पिताओं की संवेदनाओं को अधिक कोमल और सुघड़ बनाता है। इस मायने में बेटियां पिताओं को गढ़ती है। उनके जीवन-संघर्ष की रगड़ से इनके हृदय छील जाते होंगे। कठोर परतें खुल रहती। निराला और बावजी चतरसिंह जी के शब्द सोतें ऐसे ही तो नहीं फूटे होंगे। अवलंब टूटने के साथ राग छूट गया। विकल मन में विराग की प्रबल संभावना छिपी होती है। नदी की राह को आसान बनाने के प्रयास में लुढ़कते इन पत्थरों का अनगढ़ रूप घर्षण पाकर सरूप हुआ। हमारी समझ में नदी माने, सुथरे-निखरे इन गोल पत्थरों और रेत के साथ एकमेक हो बहता पानी। नदी से परिचय बाद में हुआ, पहले लोडी से हुआ। सिलबट्टे पर मां के हाथों की मजबूत पकड़ के बीच रगड़ खाता, तीखे और चटपटे स्वाद में लिपटा यह गोल पत्थर हमारे रसोईघर के एक कोने में जगह पाया हुआ था। दादी कहती थी, “हलाड़ो तो म्हारा सासूजी सलावट्या ऊं मोल लीदो हो, अन लोडी थारा बा'सा नंदी ऊं लाया।” लोडी तो मैं अब भी ले आऊं, परन्तु हलाड़े के लिए मशक्कत करनी पड़ेगी। सिलबट्टें बेचने वाले सिलावट भी अब कहां आते हैं। आ भी जाएं तो उनकी टेर अनसुनी ही समझिये, क्योंकि रसोईघर के कुंदों पर मिक्सियां सांकळें बनकर जो लटकी हुई हैं। इधर हमारे हाथों को भी लोडी पकड़ने का सलीका अब नहीं रहा।
....तो उस संध्या के धुंधलके में हमने अपनी मौज में जमीन पर पड़ी लोडियों पर अपने हाथों में धरी लोडियों को फेंकना शुरू किया। तट पर लोडियों की लंबी चादर बिछी थी। यूं तो दिन के उजाले में ये धींगामस्ती होती थी, पर उस दिन हल्के अंधेरे में हम पत्थरों के टकराने की ध्वनियां उत्पन्न कर रहे थे। ‘चटाक... चट... चट’ की आवाज़ों के साथ लोडियों के बीच अचानक चिनगारियां चमकी और इधर हमारी आँखें भी। बच्चा टोली ने आग की खोज कर ली। फिर क्या। खूब पत्थर फिंके। रोशनियों के जुगनू चमके। अब सबके हाथों में दो-दो लोडियां में आ गई। रगड़ खाकर चिंगारियां हथेलियों से निकलने लगी। “तुम्हारे कम निकल रही हैं, मेरे ज्यादा।” होड़महोड़ मची। हाथों में चिपकी और उंगलियों में कसी हुई लोडियां घर आकर भी बड़ी मुश्किल से छूटी। इसके बाद ही हमारी चौथी कक्षा की किताब में 'मनुष्य द्वारा आग की खोज' नामक पाठ शामिल हुआ होगा।
मेरे बालसखा दिलीप को चौमासे में नदी से दूरी ही भली लगती थी। बालपन में हम मित्रों के साथ जब कभी वह नदी तट पर घूमने आता तो उसकी जीजा (मां) की हिदायत साथ रहती। हमारे खूब मनौती करने पर भी वह पानी के अंदर नहीं उतरता था। कहता, “अचानक पानी बढ़ गया तो तुम लोग तो भाग जाओगे पर मैं नहीं भाग सकूंगा। मेरी बैसाखियां रेत में धंस जाएगी।” पानी का प्रवाह बढ़ जाने की इस औचक संभावना ने हमें यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा किया। एक अरसे बाद अचानक दिलीप का हम मित्रों में विशेष होना महसूस हुआ। नदी अपनी सीमाएं जानती है, और हमारी भी। मानों आज उसने दिलीप के मुख से बोलकर हमें जता दिया हो। पांवों के नीचे से रेत खिसक गई। कल्पना का दृश्य कौंधा। बढ़ते पानी को देख हम सभी बच्चे भाग रहे हैं, परन्तु दिलीप की बैसाखियां रेत में धंसी जा रही है। कमर तक, छाती तक और फिर गर्दन तक पानी। अब दिलीप बह रहा है। हम भागकर किनारे के निकट आ रहे हैं। दिलीप मझधार में बहा जा रहा है। ‘…हाहाकार मच्यो चहुँ देसा।’ अचानक कल्पना के दृश्य में सकारात्मक सृजन हुआ और हम देखते हैं कि बहाव में लकड़ी की बैसाखियां न जाने कैसे नाव बन गई। एकदम नाव सरीखी नाव। दिलीप उस पर बैठा है। उसके हाथ पतवार की तरह चल रहे हैं। नाव किनारे आ लगी। हमारी जान में जान आई। पटल से दृश्य गायब होने के बाद हमने उससे नदी के प्रवाह में उतरने की जिद फिर कभी नहीं की।
दिन में एनीकट से गिरता पानी दृश्य और ध्वनि का संगीतमय चलचित्र प्रस्तुत करता है, वहीं रात के एकांत में उसकी ध्वनि भयाक्रांत करती है। “इसमें डर काहे का?” जवाब में दिलीप ने कहा- “अरे भैया कभी हमारे घर रात रुको, तो पता चले। दिन में तुम्हें कभी मालूम नहीं चलेगा कि अथाह जलराशि जब एनीकट से गिरती है तो कैसा भयानक शोर होता है। ऊँचाई से गिरते पानी की रात के सन्नाटे को चीरती और डराने वाली आवाज़ तुमने सुनी नहीं कभी।” नदी के निकट रहने वालों को हमेशा बाढ़ आने का डर रहता है। हालांकि नदी का पानी दिलीप के दरवाजे तक कभी नहीं आया पर उसके बालमन पर इस डर की गहरी छाया रही है।
किशोरवय में हमारी शामें अक्सर नदी के बीच स्थित ढावे पर बीतती थी। चौमासे में देर शाम तक घर आने पर दादी डांटती। “अतरो मोड़ो नंदी में न ढबणो, पाणी कदी भी आ जावे।” मैं हंसकर कहता, “ऐ बाई! अब तो मातृकुंडिया में नदी पर बांध बना हुआ है। ऊपर पानी बरसे और बांध तो भरें पहले। भरें, तो उसके गेट खुलें। तब कहीं आएं। अब पानी यूं ‘कदी भी’ नहीं आता।” नदी का रास्ता रोक लिया गया है। अब वह स्वयं के ही बनाए रास्ते पर अपनी चाहना से नही बहती। अरसा बीत गया। सनद रहे, अब पानी छोड़ा जाता है। छूटने के बाद नदी से शायद ही बहना हो पाता होगा। बहना मौज का नाम है। बंधन से छूटने पर तो भागना हो पाता है। जीवन में बहाव रुका पड़ा है। अपने ही बनाए बांधों में ठहरा-थमा बहाव। संचय की भागदौड़ जारी है। छटपटाहट है लेकिन बंधन तोड़े नहीं जा रहे। मान लेना चाहिए कि प्राण परकोटे में नहीं, प्रवाह में है। गति में जीवन का सूत्र है और नदी का भी।हमारी पड़दादियों के चौमासों में नदी में पानी कभी भी आ जाता था। और इतना अथाह और अगाध कि अधबीच के ऊँचे ढावे पर खड़ी विशालकाय पीपल के मात्र दो हरे पत्ते ही सूखे नजर आते। ग्वाले उधर, ढोर इधर। खेत उधर, करसाण इधर। खेत पर गायें बंधी हैं। कौन पानी बताएगा। चिंता की अभिव्यक्ति होती। “म्हारी बछियां भूखी मर जाई।” बदले में ढांढ़स मिलता, “छीजे मती। साँवरों सब हऊ के री।” बकरियां बह गई। दीनू खूब दुःखी हुआ। बहकर जाती कमली काकी को कालू कीर ने अपनी जान पर खेलकर बचाया था। दिनों तक उतार का नाम नहीं। “नंदी माता कोप कर री।” भयभीत लोकमन की सामूहिक शरणागति हुई। नदी ने अपना तट बहुत पीछे छोड़ दिया। गांव की सीमा में घुस आए पानी के छोर पर दंडवत करने की तैयारियां शुरू हुई। उगते सूरज के साथ कतारों में बंधे हाथ। पूजन सामग्री से सजे थाल। अथाह जल राशि के बहाव का भीषण नाद। पुरोहितजी का मंत्रोच्चार। पूजन हुआ। मुखिया जी ने श्रद्धापूर्वक नदी मैया की आरती उतारी। पानी में उतर कर बहती धारा को चुनरी ओढ़ाई गई। मुखिया जी आगे बढ़े। नदी मैया से बहाव धीमा करने की प्रार्थना की। सोलह शृंगार से सजा बड़ा थाल नदी मैया को भेंट किया जा रहा है। अचानक थाल धारा में खिंच चला। जैसे किसी ने अपने हाथ से खींच लिया हो। भीड़ में किसी एक ने सोने का कंगन पहने एक दिव्य हाथ बहती धारा के भीतर से बाहर थाल की तरफ निकलता हुआ देखा। मुँहों ने कहा, कानों ने सुना। बस फिर क्या था! जयकारा गूंजा। “बोल बनास मय्या की, जय।” उसी दिन शाम को पानी उतर गया। ढोर-ग्वालों ने पानी पिया। खेतों की मेड़ों पर हलचल हुई। किस्से ने विस्तार पाया। किसी ने उस हाथ पर रची हुई मेहंदी देखी। किसी ने एक की बजाय दो कंगन, वो भी रत्नजड़ित। नदी मैया के दिव्य हाथ की अद्भुत आभा कही-सुनी गयी। अतिशय श्रद्धा बिंब को अतिरंजित कर देती है। अवचेतन का अपना अलग ही सृजन है। लोक अपनी संतुष्टि के लिए प्रकृति से चमत्कृत होना चाहता है। यात्रा वृत्तांतों में नदी संस्कृति विषय पर शोध करते हुए मैं इतना तो समझ गया था कि नदियों के तटों का संपूर्ण लोकमानस थोड़े बहुत फेर-बदल के साथ इस तरह की अनेक कथाएं अपनी श्रुति परंपरा में संजोए हुए है।
गांव में गर्मियों की दुपहरी वैसे भी शांत और सुनसान रहती है, ऊपर से बालमन पर भूतों का अलग से डर। लोहे की कोई छोटी वस्तु हाथ में लेकर कड़ाही घाटी के ढलान और नदी तट के छोर पर स्थित इमली की घनी और भुतहा छाया पार की जाती। भय से थरथराते हुए वहां से गुजरने के दौरान मैंने कई बार मेरी हाफ पैंट में लगे स्टील के हुक को छूकर भूत को अपने से परे रखने में कामयाबी पायी। गांव ऊंचाई पर स्थित है सो नदी तट पर पहुंचने के लिए लंबा ढलान उतरना होता है। नदी तट की ओर ढुलकते ऐसे तीन-चार ढलान हैं, जिन्हें हमारे गांव में घाटी की संज्ञा प्राप्त हैं। कड़ाही घाटी उस जमाने में आबाद थी। तट पर सुलगती दर्जनों छोटी-छोटी भट्टियों पर गर्म और रंगदार पानी से भरी कड़ाहियों और ताम्बई देगों में सफेद कपड़े रंगीन किए जाते। नदी का रेतीला कछार उन रंगीले और गीले कपड़ों को सबसे पहले ओढ़ता। अलग-अलग रंगों के साफें, पागें, बंधेज की ओढनियां, छींट और न जाने क्या-क्या। रंग-बिरंगे ये सभी वस्त्र सूखने के लिए चमकीली रेत पर बिछे रहते। सूखी रेत गीले कपड़ों पर चिपकती। कपड़ों के सूखने के साथ रेत अपने आप हट जाती। बदले समय की तेज हवा से भट्टियों की आग बुझ गई। कड़ाहियाँ मुंह छुपाए कहीं औंधी पड़ी होंगी। रंग बेरंग हो गए। अब रेत नहीं रही तो बनास को वस्त्र ओढ़ाने की जिम्मेदारी से रंगसाजों को भी मुक्ति मिली। परस्पर जुड़ाव बने रहने के लिए नमी का होना आवश्यक है। अब न उधर रेत रही, न इधर नमी।
होली आने से पहले नदी की रेत पर बहता पानी दिखाई देना बंद हो जाता तो गांव के कीर परिवार गीले रेतीले प्रवाह मार्ग को हिस्सों में बाँट कर ककड़ी, तरबूज और खरबूज की बुआई कर देते। नदी में स्थित इन रेतीले खेतों को ‘काछा’ कहा जाता है। मई - जून तक फसल पककर तैयार। छुटपन में गर्मियों में जिस दिन तीजे पहर में ‘लू’ का प्रभाव कम रहता तो बालसखा देवेन्द्र के निमंत्रण पर तरककड़ी और तरबूज खाने के लिए हमारी प्राथमिक कक्षा के सहपाठियों का पूरा दल नदी पर जाया करता। एक दिन कीरों की घाटी के रास्ते होकर हमारी वानर सेना काछे में पहुंची तो मित्र की माँ ने मनुहारें करके पूरी टोली को खूब ककड़ी-तरबूज खिलाए। पीने के लिए पानी माँगा तो अपने हाथों की उँगलियों से नदी की रेत खुरचकर बिलात भर गहरी ‘बेरी’ खोद दी। भीषण गर्मी में ऊपर तो सूखी, परंतु नीचे गीली रेत। ‘बेरी’ में पानी छनकर एकत्र हो रहता। एकदम काँच की जात। रिसती अंजुरी में भरे पानी की मिठास अद्भुत थी। दादी का कहा आज भी याद आता है कि आधी नदी रेत के नीचे बहती है। ऊपर दिखाई देने वाली नदी उसका आधा हिस्सा समझना। रेत नदी का अस्तित्व है। उसकी गहन गंभीरता है, जो उसकी अस्मिता को अपने भीतर समेटे रखती है। रेत नहीं रहेगी तो नदी कहां बचेगी। भीतर पानी नहीं ठहरेगा। रीती नदी को भले ही नदी कह लेना।
आज नवरात्र का अंतिम दिन है। नोरता उठ रही है। ‘नेजा’ निकल रहा है। खेड़ाखूँट माताजी की अगुवाई में निकला ‘नेजा’ नदी के तट पर आया है। जुलूस के रूप में गाँव के सभी ग्रामदेवता अपने भोपों के भीतर ‘भाव’ रूप में विराजित होकर जलविहार कर रहे हैं। प्रकृति के साथ संस्कृति का संगम हुआ। संध्या हो आयी। लोकसमाज लौटने को है। ग्रामदेवता अपने-अपने देवरों पर जायेंगे। गहरे गड्ढों से छलनी हो चुके बनास नदी के पाट पर से होते हुए उन्हें लौटते हुए देख रहा हूं। छिन्न-भिन्न राह पर अपने आप को सँभालते मेरे लोक की संस्कृति लौट रही है। बची हुई राह पर बची हुई नदी चुपचाप बह रही है। आसमान में उड़ते पक्षी भी अपने घरों की ओर लौट रहे हैं। बढ़ते धुंधलके में मुझे लौटने का रास्ता नहीं सूझ रहा। नदी ने मेरी टाँगे जकड़ ली। अखबार की खबर कौंध उठी। “बनास ने रोकी राह....पानी बना मुसीबत।” सच में बनास ने मेरी राह रोक ली। पर यहाँ मुसीबत किस पर आन पड़ी है? इसकी थाह लेने के लिए मैं देर तक बैठा रह गया। तस्वीर की फ्रेम से कान सटाये तरंगित होती अबोली ध्वनियों को सुनने की कोशिश कर रहा हूं। नदी का नैहर छूटा जा रहा है। रात हो आयी। अंधेरा बढ़ रहा है। तुम सही कह रही थी दादी। अब हम रेत से रीती नदी को भी नदी कहने के अभ्यास पर है। रीतापन बढ़न पर है। रीती नदी, रीते हम। पहले हमारे भीतर का पानी सूखा, फिर नदी के भीतरी आधे हिस्से का। सूखापन जीवन की रिक्तता का द्योतक है। गहराती रात में तारों की टिमटिमाहट धुंधली पड़ी हुई है। नदी में छूटा पड़ा खालीपन ध्वनित हो रहा है। दूर, लेकिन बनास ही के तट पर स्थित एक आश्रम की सत्संग मंडली द्वारा गाए जा रहे भजन की स्वर लहरियां हवा में तैर कर मुझ तक आ रही हैं- “हंसा निकल गया काया से....।”
प्रवीण कुमार जोशी
जैन मोहल्ला, ग्राम पोस्ट – पहुँना, जिला – चित्तौड़गढ़ (राजस्थान), पिनकोड 312206
सम्प्रति : सहायक आचार्य, माणिक्य लाल वर्मा राजकीय महाविद्यालय, भीलवाड़ा (राज.)
9829250561, praveenkumarjoshi561@gmail.com
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली


प्रांजल भाषा में मोहक वर्णन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
हटाएंएक ही लेख में नदी, स्मृतियां और संस्कृति को जीवंत करने के लिए साधुवाद!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुमित जी
हटाएंआपने लोक संस्कृति, नदी और बचपन की यादों को एक सूत्र में पिरो दिया। यह लेख सिर्फ पढ़ा नहीं जाता, महसूस किया जाता है।
जवाब देंहटाएं*पाठकीय टीप*
जवाब देंहटाएंभाई प्रवीण जोशी से सहायक आचार्य में साझे चयन, पीएचडी के संग-साथ और मित्रता के अलावा एक परिचय उनकी चुटीली व मारक टिप्पणियों का भी है।
प्रवीण में लेखकीय संभावना पर्याप्त दिखी तो हमने अपनी माटी के लिए लिखने का आग्रह किया। संपादक माणिक सरकार इनके पुराने और गहरे मित्र हैं। उन्होंने इशारा किया कि लिखने के लिए बरोबर दबाव बनाए रखें। कई कोशिशों के बाद मैं हार गया और श्रीमान जी से लिखा नहीं पाया। आख़िर कमान संभाली संपादक जी ने और प्रवीण जोशी से नदी के नाम चिट्ठी लिखवा डाली। हालांकि लेखक का कहना है कि उन्होंने कथेतर संपादक यानी मेरे दबाव में लिखी है।
बहरहाल जैसे भी लिखी कमाल लिखी है। चिट्ठी बस नाम है, उसमें समाहित है संस्मरण, रेखाचित्र और कथेतर की नाना विधाएं। कहीं यह आपको ललित निबंध लगेगा तो कहीं आप कथा का रस भी पाएंगे।
चिट्ठी में हैं - बनास नदी, बालसखा, दादी की नसीहतें, रेतघर, रंगरेजों के कढ़ाह, पिताओं को पिता बनाती बेटियां, नदी संस्कृति बुनते लोक पर्व, रिश्तों के छीजने व नमी के कम पड़ते जाने से लेकर मनुष्य के लोभ लालच से उपजे पर्यावरणीय संकट।
भाई प्रवीण कुमार की भाषा का तो मैं पहले से ही मुरीद हूं। लेकिन उनकी अपनी गांव जवांर की भाषा से चिट्ठी के माध्यम से नया परिचय मिला।
एक मित्र और अब लेखक के रूप में प्रवीण ने हमें और अपनी माटी पत्रिका को गर्व करने योग्य क्षण दिया है। यह सच्चा और साझा गर्व है।
विष्णु कुमार शर्मा
सह संपादक
अपनी माटी
धन्यवाद विष्णु भैया और माणिक कि आपने मुझ पर विश्वास जताया और अवसर दिया।
हटाएंअद्भुद! एक भावपूर्ण रचनात्मक आकर्षण! पढ़ते हुए लगता है बस पढ़ते रहो! आँखें निरंतर पढ़ती हुई बंध जाती है तो मन अनथक ग्राहक! हांड्या उलळ हांड्या जैसा बिंब भाषा की लोकशक्ति को प्रकट कर देता है। गुट्या राजकुमार की कहानी तो अद्भुद! नदी की चिट्ठी के साथ हमारे जीवन का संदेश। गर्व है हमें सर पर! जिन्होंने हमें हमेशा अशीषा है।
जवाब देंहटाएंहेमराज
धन्यवाद
हटाएंआदरणीय प्रवीण जी, आप तो गुणों की खान हैं।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी, यह आपका बड़प्पन है।
हटाएंहृदय की गहराइयों में छुपी हुई बचपन की यादों और बनास नदी के अपनत्व को शब्दों की माला में पिरोकर हमेशा के लिए अमर कर दिया। यही खूबी है डॉ प्रवीण कुमार जोशी पहुना वालों की l
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद।
हटाएंबहुत ही गजब का वर्णन किया गया है। शानदार, अति उत्तम।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙏
हटाएंकितना तो ख़ूब लिखा है प्रवीण भाई ने..ऐसी लिखत जिसमें संवेदना और सहजता की अपार जलराशि है..दृश्य,भाव,भाषा और लोक को इतनी शिद्दत एकाकार कर दिया है कि इनके बीच कोई भेद नहीं रह जाता..ऐसे सजीव और आत्मीय लेखन को पढ़ते हुए मन सजल हुआ.." आज नवरात्र का अंतिम दिन है। नोरता उठ रही है। ‘नेजा’ निकल रहा है। खेड़ाखूँट माताजी की अगुवाई में निकला ‘नेजा’ नदी के तट पर आया है। जुलूस के रूप में गाँव के सभी ग्रामदेवता अपने भोपों के भीतर ‘भाव’ रूप में विराजित होकर जलविहार कर रहे हैं। प्रकृति के साथ संस्कृति का संगम हुआ। संध्या हो आयी। लोकसमाज लौटने को है। ग्रामदेवता अपने-अपने देवरों पर जायेंगे। गहरे गड्ढों से छलनी हो चुके बनास नदी के पाट पर से होते हुए उन्हें लौटते हुए देख रहा हूं। छिन्न-भिन्न राह पर अपने आप को सँभालते मेरे लोक की संस्कृति लौट रही है। बची हुई राह पर बची हुई नदी चुपचाप बह रही है। आसमान में उड़ते पक्षी भी अपने घरों की ओर लौट रहे हैं।" मनभावन दृश्य रचा है भाई... ऐसे ही रचते रहें..अशेष शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंजी, बहुत आभार। आपकी टिप्पणी से मेरा संबल बढ़ेगा। 🙏
हटाएंभाई को बधाई
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙏
हटाएंसौंदर्य की नदी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙏
हटाएंबनास मैया का मानवीकरण सुन्दर बन पड़ा है, भाषा की काव्यात्मकता मन को झंस्कृत करती हुई लुभावनी सी प्रतीत हो रही है... लोक संस्कृति, बाल मनोविज्ञान और दार्शनिकता का सुन्दर समन्वयन हुआ है, आंचलिक शब्दावली का सौंदर्य बिखेरता यह आलेख... लाजवाब... अभिप्रेरणीय... गर्व हैं मुझे अपने अग्रज, प्रेरक और मित्र पर...
जवाब देंहटाएंसादर 🙏
धन्यवाद गोपाल जी
हटाएंआपका बहुत ही शानदार , अदभुद लेखन, प्रवीण जी 👌
जवाब देंहटाएंआपको को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं 🙏🙏
धन्यवाद लक्ष्मण भैया।
जवाब देंहटाएंघहणी छेहटी और छीजे मती जैसे शब्द जीने का मतलब सिखाते है, नदी के समान जीवन भी गतिमान है, उतार चड़ाव एक समान है, भाई प्रवीण नदी के नाम पत्र के बहाने सभी को जिंदगी के जीने का सबब बताते है।
जवाब देंहटाएं"जो अदब सीख गये, वो अंदर से रीत गये"।
भाई प्रवीण जा धन्यवाद। पढ़ कर दिल को सुकून मिला। लिखते रहिये।
सौरभ
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