स्त्री-पुरुष संबंध और अमरकान्त की कहानियाँ
- किंगसन सिंह पटेल
- किंगसन सिंह पटेल
बीज शब्द : पितृसत्ता, नारीवाद, सामाजिक विभेद, मर्दवादी मानसिकता, अन्तरजातीय विवाह, श्रम का महिलाकरण, विवाह, दाम्पत्य, आदि।
मूल आलेख :
प्रेम की विडंबना : भारतीय समाज और अमरकांत की कहानियों में जाति, धर्म, लिंग, वर्ग और कुलीनता का ऐसा ताना-बाना बुना गया है कि प्रेमी जन बिछोह और छोड़ दिये जाने की पीड़ा सहने को अभिशप्त हैं। जो स्त्रियाँ गरीब हैं, मजदूर हैं, अनपढ़ हैं, जिन्हें घर-परिवार, समाज का सहयोग नहीं मिल पाता है। वे देहवादी मर्दों की चालाकियों का शिकार हो अपनी जिन्दगी मझधार में फँसा हुआ पाती हैं। ‘पलास के फूल’ की पन्द्रह साल की अंजोरियां पर बयालीस साल के राय साहब की ‘इच्छा जग’ जाती है। ‘उस लड़की की सूरत ध्यान पर क्या चढ़ी कि खाना-पीना-सोना सबकुछ हराम हो गया। ... अकेले में पाकर एक-दो बार छेड़ा भी, पर वह नयी घोड़ी की तरह बिदककर भाग जाती थी। हारकर एक दिन मैंने चार आदमियों को लगाकर रात के अंधेरे में भुलई को खूब अच्छी तरह पिटवा दिया। एक दिन जब वे किवाड़ बंद करते हैं तो वह रोने लगती हैं। बेकाबू हो राय साहब सब कुछ करते हैं। ... वह रोती और सुबकती रही।’ अंजोरिया शुरू में रोती-कलपती रहती है, लेकिन समय बीतने के साथ वह जमींदार साहब के ही साथ जीवन बसर करने का सपना देख लेती है। रायसाहब बताते हैं एक ’’बरसात की काली अंधेरी रात थी। … उसने मिन्नत-भरे स्वर में कहा, मुझे कहीं लेकर भाग चलो। ....
‘‘मुझे काशी ले चलो, वहाँ कोई मकान ले लेना, मैं उसी में रहा करूँगी।’’ तब राय साहब को इहलाम होता है। जिसे पाने के लिए वे पैर पकड़ लेते हैं वह ‘माया, छलनी और फाइशा औरत’ में बदल जाती है। वे रात के अँधेरे में चुपचाप एक दिन भाग आते हैं और फिर उस तराई जमींदारी की जगह पर कभी नहीं जाते। यहाँ अमरकान्त बहुत रेखांकित करते हैं कि अंजोरिया जैसी निरीह बच्चियाँ जमींदारों के चंगुल में एक बार फँसी तो उनकी जिन्दगी-मौत का कोई ठिकाना नहीं रहा। यही नहीं इन लड़कियों की जिम्मेदारी से भी वे बहुत साफ बच लेते थे, लेकिन उनकी देह पर नियंत्रण बनाये रखते थे। अमरकान्त यहां दलित विमर्श के पहले दलितों के उत्पीड़न को रेखांकित करते हैं कि जमींदारी व्यवस्था में फुलई जैसे बापों का अपने शरीर पर से ही नहीं बल्कि अपनी बहन-बेटियों की देह पर से भी नियंत्रण गरीबी के चलते खो जाता है।
‘विजेता’ कहानी में कथा नैरेटर अपने सहकर्मी नारायण से बदला लेने के लिए उसकी पत्नी नीलम से प्रेम करने का ढोंग रचता है। नीलम इस प्रेम का सच्चा मानकर अपना तन-मन-भाव सब समर्पण कर देती है। प्रेमी कहता है कि ‘‘नीलम मेरे प्यार में पागल हो रही थी। वह मेरे एक इशारे पर अपना प्राण दे सकती थी।’’ बदला लेने का यह चरम रूप है कि दुश्मन की पत्नी-बेटी का इस्तेमाल किया जाये। नीलम का पति रामायण जब दोनों को ‘पकड़’ लेता है तो प्रेमी भाग खड़ा होता है। चार महीने की गर्भवती नीलम को पति इतना मारता है कि वह मर जाती है। सरल नीलम को न पति से प्रेम मिला न प्रेमी से। यह विडंबना या पितृसत्ता की जीत ही कही जायेगी कि उसने स्त्रियों से कहीं अधिक कुंठित, अमानवीय पुरुषों को ही बनाया है। स्टुअर्ट मिल ने बिलकुल ठीक पहचान की है कि ‘गुलामी की व्यवस्था अपने मालिकों को भी गुलाम बना देती है।’ शायद यही कारण है कि अमरकान्त की कहानियों का पुरुष प्रेमी प्रेम को सहज स्वीकार्य करने और जीने में असमर्थ है। वह स्त्रियों की देह, शारीरिक संबंधों और उनके भावों को तो पाना चाहता है लेकिन जीवन भर साथ निभाने या जीवन रक्षा का प्रश्न आता है तो कोई बहाना निकालकर भाग खड़ा होता और प्रेमिकाएँ छटपटाती अकेली पड़ जाती हैं। इसलिए प्रेम पर आधारित अमरकान्त की कहानियाँ विछोह और पीड़ा में खत्म होती हैं। ‘काली रात’ ‘जनमार्गी’ ‘लड़का-लड़की’ ‘शुभचिन्ता’ ‘रिश्ता’, ‘पलास के फूल’ ’असमर्थ हिलता हाथ’ आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं। इन कहानियों में अमरकान्त प्रेम और विवाह के विरोध में खड़ी सामाजिक संरचना, स्त्री-पुरुष के आत्मसातीकरण की आलोचना करते हैं और प्रेम के पक्ष में खड़े होते हैं।
‘सुन्दर-असुन्दर’ स्त्री की परिणति - सुन्दर, सुशील, हँसमुख स्त्री का प्रेमी, पति बनना पुरुष की हमेशा से ख्वाइश रही है। अमरकान्त की कहानी ‘लड़की का आदर्श’ में कमला ऐसी ही लड़की है, जिसको हर नवयुवक अपने ही लायक समझता है। उसकी ‘‘सुन्दर नासिका, बड़ी-बड़ी भावपूर्ण आँखें, शिष्ट धीमी चाल, सादगी और कुशाग्र बुद्धि की सदा हसरत से चर्चाएँ होतीं। ... वह पढ़ने आती तो उसके दर्जे के आस-पास प्रेम और सौन्दर्य के शौकीन कितने ही भावुक छात्र विभिन्न मुद्राओं में मँडराया करते।’’ लेकिन जो लड़कियाँ सुन्दर नहीं होती वह समाज में दया की पात्र तो हो सकती हैं, लेकिन उन्हें प्रेमिका, जीवनसंगिनी बनाने की कोई नहीं सोचता। ‘शुभचिन्ता’ कहानी की सीता का ‘‘छोटा कद, दुहरा शरीर, छोटी आँखें और गोल नाक। चेहरे का सारा माँस जैसे गालों पर सिमटकर फूल और लटक गया था। होठ बिचके-से। उसके पहनावे, चाल तथा दृष्टि में ऐसी प्रभावहीनता थी, जो कभी-कभी प्रौढ़ा समाज-सेविकाओं में दृष्टिगोचर होती है। ...
उसके प्रति सबका व्यवहार सहानुभूति का था, जैसा कि उन लड़कियों के प्रति हो जाता है, जो रूप और गुण में हीन समझी जाती हैं।’’ सीता जैसी लड़कियाँ ज्ञान जैसे लड़कों का सहयोग पाकर बहुत कुछ कर सकती हैं, लेकिन उन्हें जीवन में वह भी हासिल नहीं हो पाता जिसे कमला जैसी सुन्दर स्त्रियों को सहज ही प्राप्य है। सीता के पास कुल जमा ज्ञान ही है, जिसके लिए वह ‘कुछ बनना’ चाहती है। लेकिन ज्ञान जैसे पुरुष शुभचिन्तकों को जब यह ज्ञात होता है कि वह उनसे प्रेम का रिश्ता रख रही है, तब वे तुरन्त उसकी ‘औकात’ बताने से चूकते नहीं हैं। यथा- ‘‘मैं नहीं चाहता कि कोई किसी झूठी आशा में मेरे लिए अपनी जिन्दगी खराब कर ले। ... जो ठीक नहीं ... हमारे और तुम्हारे दोनों के लिए...’’ यहाँ बहुत साफ है कि यह ज्ञान के लिए ठीक नहीं है, लेकिन वह सीता के भी हिस्से का फैसला कर देता है। इसलिए ‘‘बदसूरत’ स्त्रियों का शोषण अधिकांश मामलों में सुन्दर स्त्रियों से कहीं ज्यादा होता है; क्योंकि उन्हें उनकी ‘बदसूरती’ के कारण उतना भी प्यार, मदद, प्रोत्साहन और सफलता की सीढ़ियां चढ़ने का अवसर नहीं मिल पाता, जितना की सुन्दर स्त्रियों को सहज ही मिल जाता है।’’ अमरकान्त इन दोनों कहानियों में साफ पहचान करते हैं कि जहां बदसूरत लड़कियों से लोग कन्नी काट लेते हैं वहीं सुन्दर लड़कियां जो उनकी पहुंच में नहीं आती हैं किसी और से प्यार कर लेती हैं तो वे ‘बदचलन, बेहया’ हो जाती हैं। जैसा की नरेन्द्र कमला के बारे में कहता है ‘‘ऐसी लड़कियां अच्छे आचरण की थोडे़ होती हैं! हमारे घरों की औरतों में जो शील, संकोच और शरम-लिहाज होता है, वह इनमें कहाँ?’’’’ जर्मेन ग्रीयर ‘बधिया स्त्री’ में बिल्कुल ठीक लिखती हैं कि ‘लड़कों को सिर्फ वही स्त्रियाँ दिलचस्प लगती हैं जो उपलब्ध हैं, अनुपलब्ध लड़कियों का वे सम्मान नहीं करते क्योंकि उनकी अनुपलब्धता को वे सौदेबाजी की इच्छा के ही रूप में देखते हैं।’ और स्त्रियाँ सौदेबाजी करें यह नरेन्द्र जैसे पुरुषवादी मानसिकता को कहाँ भाता है? इसलिए वे इन्हें ‘बदचलनी’ के खाँचे में डालकर स्वयं की पीठ थपथपा ‘सत्पुरुष’ बन जाते हैं!
हमारे समाज में सुन्दर, जहीन उस पर पढ़ी-लिखी स्त्री का पति बनना किसी उपलब्धि से कम नहीं है। ‘जोकर’; कहानी में अमरकान्त दिखाते हैं कि यदि एक पुरुष की जिन्दगी में ‘सुन्दर सलीके’ की स्त्री नहीं आती तो वह जीवन भर लड़कियों पर फब्तियाँ कसता, कुंठित जीवन जीता जाता है। नलिन भाई जब अपने सहकर्मी शंकर को यह कहते हैं कि ‘‘‘‘सचमुच आप बड़े भाग्यवान हैं! …
‘‘क्यों?’’ मैंने पूछा।
‘‘क्यों?’’ मैंने पूछा।
‘‘बड़े भाग्यवान हैं, शंकरजी आप...’’ उन्होंने अपनी बात फिर दुहराई।’’ यही नलिन भाई दो-दो शादी करते हैं फिर भी अपने को भाग्यवान नहीं बना पाते हैं। अमरकान्त यहाँ पुरुषों के नजरिए से एक जीवनसंगिनी कैसी होनी चाहिए, यह तो बताते हैं लेकिन एक लड़की अपना पति कैसा चाहती है? इस पर चुप्पी मार जाते हैं। कल्पना कीजिए इसी ‘जोकर’ कहानी में नलिन भाई की पत्नी की घुटन और पीड़ा को जो यह जानती है कि उसका पति उसे इसलिए पसन्द नहीं करता, कहीं घुमाने नहीं ले जाता क्योंकि वह सुन्दर और आधुनिक नहीं है। अमरकान्त की संवेदना यहाँ नलिन भाई की पत्नी के साथ नहीं है, इसीलिए वे कहानी के अन्त में सहकर्मी शंकर से कहलवाते हैं कि ‘‘मेरी पत्नी खूबसूरत, स्वस्थ और आधुनिक महिला हैं। शायद इसीलिए कल उन्होंने मुझको भाग्यवान कहा था... उनके हृदय के किसी अबूझ अतल कोने में किसी सुन्दर नारी के दिल को जीतकर आदर्शवादी नायक बनने की इच्छा हो और उसके लिए अपने को असमर्थ समझकर वे खलनायक बनना चाहते थे। लेकिन वे खलनायक भी कहाँ बन पाये ?’’ पति से प्रेम, सम्मान न मिल पाने के कारण कितनी पत्नियां विक्षिप्त हो आत्महत्या तक पहुँच जाती हैं इसे हम समाज और अमरकान्त की कहानियों में देख सकते हैं। क्या सुन्दरता केवल दैहिक होती है? गुण और स्वास्थ्य से इसका कोई संबंध नहीं होता। अमरकान्त जब यह लिखते हैं कि ‘उसमें ऐसी प्रभावहीनता थी, जो कभी-कभी प्रौढ़ा समाज-सेविकाओं में दृष्टिगोचर होती है।’ तो वे समाज सेवा का कार्य करने वाली सभी प्रौढ़ स्त्रियों को भी बदसूरत बता देते हैं। इसी मानसिकता के कारण हमारे समाज में विदुषी और समाजसेवी औरतों को सुन्दर और आकर्षक नहीं माना जाता है। गुण, ज्ञान और स्वास्थ्य पर दैहिक सुन्दरता भारी पड़ जाती है।
अमरकान्त की यह पुरुषवादी संवेदना अन्य कहानियों में भी देखी जा सकती है। जैसे ‘स्वामी’ कहानी में मनोहरलाल शर्मा किसी से हँसते-बोलते नहीं हैं, इसलिए वे चाहते हैं कि पत्नी ‘‘नीलिमा उन्हीं की तरह किसी से मिले-जुले नहीं, खूब गंभीर रहे, जरा भी हँसे नहीं, गप-सड़ाका न करे।’’ खुशमिजाज नीलिमा जो घर-मुहल्ले की शादी-ब्याह में गाने-बजाने, पड़ोस की लड़कियों को सिलाई’ पढ़ाई सिखाती थी; धीरे-धीरे घर में कैद हो जाती है। संदेही मनोहरलाल ‘‘रोज उस पर व्यंग्य-बाण छोड़ते। ... दो वर्ष वह और जिन्दा रही। फिर सर्दी की एक रात में वह मर गयी। खैर, इसमें किसका कितना दोष है, इसके संबंध में कुछ कह नहीं सकता।... मैं स्त्री जाति पर विश्वास नहीं कर सकता। जो स्त्री अपने मर्द को सन्तुष्ट नहीं कर सकती वह स्त्री कैसी ?’’ यहाँ नैरेटर कितनी मासूमियत से दोषी के व्यक्तिगत अपराधों पर पर्दा डाल देता है और इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भी बरी कर देता है जो मनोहरलाल जैसे व्यक्तियों के भीतर आत्मग्लानि का भाव भी पैदा नहीं होने देती कि वे समय रहते स्वयं को सुधारकर नीलिमा जैसी खुशमिजाज स्त्रियों के साथ खुशहाल जिन्दगी बिता सके। संदेही पतियों को पत्नियों के सिर पर मढ़ देना, उन्हें दंड देने के बजाय बरी कर देना, मर्दवादी पितृसत्तात्मक समस्या को पालना-पोषना है। पितृसत्ता की जीत इसमें है कि इसे स्वयं स्त्रियाँ भी सही मानती हैं, इसीलिए डॉ. पूनम सिंह लिखती हैं कि मनोहरलाल ‘‘अपनी पत्नी से पूर्ण समर्पण और वफादारी की आशा करता है जैसा कि सभी मर्द करते हैं।’’ समर्पण और संदेह में फर्क है। पूनम सिंह को कहीं भी यह भान नहीं होता है कि यह ‘संदेह’ जायज है या स्त्री की मौत का कारक है!
दाम्पत्य संबंध : सुरक्षा की हकीकत- स्त्री-पुरुष संबंधों के कई लेयर हैं और यह लेयर इतने सौन्दर्यबोधीय, हाड़-माँस के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ा है कि पहचान करना मुश्किल है कि कब और कहाँ तक संबंध प्रेमपरक है और कब पीड़ादायी बन गया है। स्त्री-पुरुष संबंधों का सबसे मार्मिक और करुण रूप वह होता है, जिसमें स्त्री-पुरुष में सबकुछ सुखद चल रहा हो कि अचानक कोई विपत्ति आ जाएँ या एक छोड़कर किसी दूसरे के पास चला जाए। छोड़ने की पीड़ा इंसान को जीवनभर टीसती है। कभी-कभी तो इंसान की सारी ललक मर जाती है, वह केवल जीता भर रह जाता है। ‘मूस’ कहानी का मूस जिसने कभी स्त्री सुख को महसूस नहीं किया है। उसकी पत्नी परबतिया ‘‘जैसा खाना देती, वह सर झुकाकर खा लेता और डाटती-फटकारती तो चुपचाप सुन लेता। ...
वह अधिकांश रोटियाँ स्वयं चट कर जाती। जब मूस एकाध रोटी माँग बैठता तो तिनक जाती।
वह अधिकांश रोटियाँ स्वयं चट कर जाती। जब मूस एकाध रोटी माँग बैठता तो तिनक जाती।
‘‘पेट है कि भरसायँ, बाबा।’’’’ इसी मूस की जिन्दगी में जब बसंत की ताजी हवा जैसी सुन्दर मुनरी प्रवेश करती है तो वह लहलहा उठता है। ‘‘मूस को जीवन में पहली बार ऐसा सुख मिला था। एक जवान, गुणी और नखरीली औरत उस पर लट्टू है, ...वह अब अपना पुरुषत्व प्रदर्शित करने के लिए लालायित रहने लगा।’’ एक साल बाद मुनरी जवान फुलौड़ीवाले के साथ भाग जाती है तो मूस असहाय सा हो उठता है। मुनरी जो ‘‘तन और मन का ऐसा सुख दे गयी, वह ऐसा कैसे कर सकती है।... उसको ठीक से भूख प्यास भी न लगती। ... उसको बुखार और खाँसी रहने लगी।’’ छोड़ने का दुख स्त्री रो-धो और किस्मत मानकर बरदाश्त कर लेती है, लेकिन पुरुष अन्दर ही अन्दर घुटकर-तड़पकर भोगता है। अमरकान्त का यह दिखाना कि संबंधों में हमेशा स्त्री ही उत्पीड़ित नहीं होती बल्कि कभी-कभी स्थितियां उलट भी जाती है। जो हम ‘मूस’ कहानी में देखते हैं कि मूस को न तो परबतिया से सुख मिलता है और न ही मुनरी जैसी स्त्रियाँ सुख का बलिदान कर मूस जैसे पुरुषों का साथ ताउम्र देती हैं।
फिर भी मूस के जीवन में स्त्री है, क्योंकि वह कमाकर उनका पेट भर सकता है, लेकिन ऐसे बहुतेरे पुरुष हैं जिनको जीवन में स्त्री सुख नसीब ही नहीं हो पाता है। ‘जिंदगी और जोंक’ कहानी का रजुआ, जो पगली को खाना खिलाने के एवज में एक बार ही सही स्त्री शरीर का सुख भोग लेने को लालायित है; उसे वह भी मजबूत मर्दों के कारण नसीब नहीं हो पाता है। पगली का तो खैर क्या ही कहें, उसकी दारुणता को अमृता प्रीतम के ‘पिंजर’ उपन्यास से जाना जा सकता है। ऐसे में जो पुरुष गरीब हैं, नौकर हैं, उनको स्त्री का सहज सुख नसीब नहीं हो पाता है। अमरकान्त की नौकरों पर आधारित कहानी ‘जिंदगी और जोंक’, ‘बहादुर’, ‘रामू की बहन’ और ‘नौकर’ ऐसी कहानियाँ हैं जिसमें नौकरों के प्रति सबसे अमानवीय व्यवहार स्त्रियों का ही है, क्योंकि घरेलू काम की जिम्मेदारी उन्हीं के हिस्से में आती है, ऐसे में वे अधिक से अधिक काम नौकरों से करवा लेना चाहती हैं। यहाँ अमरकान्त की दृष्टि वहां तक जाती है कि इस पितृसत्तात्मक समाज में जो श्रेष्ठ है वह अपने से कमतरों का शोषण करता ही है - जिसमें स्त्रियाँ भी शामिल हैं!
फिर भी मूस के जीवन में स्त्री है, क्योंकि वह कमाकर उनका पेट भर सकता है, लेकिन ऐसे बहुतेरे पुरुष हैं जिनको जीवन में स्त्री सुख नसीब ही नहीं हो पाता है। ‘जिंदगी और जोंक’ कहानी का रजुआ, जो पगली को खाना खिलाने के एवज में एक बार ही सही स्त्री शरीर का सुख भोग लेने को लालायित है; उसे वह भी मजबूत मर्दों के कारण नसीब नहीं हो पाता है। पगली का तो खैर क्या ही कहें, उसकी दारुणता को अमृता प्रीतम के ‘पिंजर’ उपन्यास से जाना जा सकता है। ऐसे में जो पुरुष गरीब हैं, नौकर हैं, उनको स्त्री का सहज सुख नसीब नहीं हो पाता है। अमरकान्त की नौकरों पर आधारित कहानी ‘जिंदगी और जोंक’, ‘बहादुर’, ‘रामू की बहन’ और ‘नौकर’ ऐसी कहानियाँ हैं जिसमें नौकरों के प्रति सबसे अमानवीय व्यवहार स्त्रियों का ही है, क्योंकि घरेलू काम की जिम्मेदारी उन्हीं के हिस्से में आती है, ऐसे में वे अधिक से अधिक काम नौकरों से करवा लेना चाहती हैं। यहाँ अमरकान्त की दृष्टि वहां तक जाती है कि इस पितृसत्तात्मक समाज में जो श्रेष्ठ है वह अपने से कमतरों का शोषण करता ही है - जिसमें स्त्रियाँ भी शामिल हैं!
अमरकान्त की कुछ कहानियों में पितृसत्ता बहुत छुपी और मजबूत रूप में आई है। खासकर वहाँ, जहाँ बाहर से सबकुछ देखने में ठीक लग रहा हो। ‘दोपहर का भोजन’ कहानी में बच्चे और पति खा लेते हैं। पति मुंशी जी खाने के बाद गुड़ का रस भी पी लेते हैं, लेकिन वे यह जानना भी नहीं चाहते कि पत्नी के लिए खाने को कुछ बचा भी है या नहीं। हमें सिद्धेश्वरी जैसी त्याग, दया, ममता से भरी घर जोड़ने वाली स्त्रियाँ ही क्यों ‘अच्छी’ स्त्री लगती हैं ? सवाल यह भी है कि वह कब तक ‘टप-टप आँसू’ बहाती घर को जोड़ पायेंगी? यही सिद्धेश्वरी जब ‘तन्दुरुस्ती का रोग’ कहानी में पहुँचती है तो सब्र का बाँध टूट जाता है और वह विलाप कर उठती है कि ‘‘ ‘‘हे भगवान ! हे भगवान ! मुझे उठा लो, अब नही सहा जाता। ... आठ-दस दिनों से आधा पेट खाकर रह जाती हूँ।.... ‘‘इसके बाद वह नीचे झुक कर कमरे की फर्श पर अपना सिर पटकने लगी।’’ ‘निर्वासिता’ कहानी तक पहुँचते-पहुँचते सब्र ही नहीं घर भी टूट जाता है और पत्नी भी मर जाती है। इस कहानी में अकाल के दौरान गंगू दो महीने से खाट पर है। उसकी मेहरारू ही बाबू लोगों के यहाँ काम के बदले में मिला साग-सत्तू, बची खुची रोटी से सबको खिला-जिला रही है। एक दिन उसे कुछ न मिला तो पति ‘‘चिल्लाकर बोला, ‘‘हरामजादी, अपने तो वहां लुक-छिपकर अपना गड्ढा भर आती है और यहाँ आकर बहाना कर देती है ...।’’ मेहरारू छाती पीटकर रोने लगती है कि ‘‘मैं तेरा गड्ढा नहीं भर सकती। ... जाँगर नहीं चला सकता, तो भीख माँगकर खा!’’ इस पर गंगू पत्नी और बच्चों को छोड़ मरने के लिए घर से भाग जाता है। उसके भागने के बाद पत्नी पश्चाताप की आग में जलती मर जाती है।
निष्कर्ष : स्त्री-पुरुष संबंध उलझनों और खुशियों का संबंध है। इसमें भी प्रेम और दांपत्य संबंध सबसे अधिक कोमल, आह्लादकारी और विषादकारी संबंध है। अमरकांत की कहानियों में प्रेम जाति, धर्म, लिंग, वर्ग, सुन्दरता, कुलीनता और कामुकता की दुविधा से निकलकर सहज स्वीकार्य का संबंध नहीं बन सका है इसलिए प्रेमी जन बिछोह और छोड़ दिये जाने की पीड़ा सहने को अभिशप्त हैं। दांपत्य संबंधों की सबसे अच्छी कहानियां वे हैं जिसमें स्त्रियाँ घर को जोड़े रखती हैं| इन कहानियों में बचा-खुचा खाने और भूखी रह जाने वाली स्त्रियाँ सराही गई हैं। अमरकान्त इन कहानियों में चुप से हैं ! तो क्या एक स्त्री से यही कमनीय है!
सवाल यह भी है कि गंगू जैसे पुरुष अपनी अकेली जान लेकर रात-बिरात भागकर कहीं काम पकड़ सकते हैं, लेकिन उनकी स्त्रियाँ बच्चों-बूढ़ों को छोड़ कहाँ जायें? जहाँ उसकी देह भी सुरक्षित रहे और वह काम-धाम भी कर सके? अमरकान्त की यह कहानियाँ हमसे सवाल करती हैं कि सिद्धेश्वरी की पीड़ा को यदि समय रहते सुना नहीं किया गया तो दांपत्य संबंधों पर टिका ‘पवित्र भारतीय परिवार’ ‘निर्वासित’ हो दरक जाने के लिए अभिशप्त है!
सन्दर्भ :
- उपरोक्त, पृ. 118
- उपरोक्त, पृ. 120-21
- वही, पृ. 265
- पढ़े, मिल, जॉन स्टुअर्ट, स्त्री और पराधीनता, अनु. युगांक धीर, संवाद प्रकाशन, नई दिल्ली
- अमरकान्त की संपूर्ण कहानियाँ-1, अमरकान्त, उपरोक्त, पृ. 178-79
- उपरोक्त, पृ. 123-24
- वही, पृ. 137
- पटेल, किंगसन सिंह, सुन्दरता के प्रतिमान और स्त्रीवादी साहित्य, कथादेश, नवम्बर, 1015, पृ.78
- अमरकान्त की संपूर्ण कहानियाँ-1, अमरकान्त, उपरोक्त, पृ. 183
- ग्रीयर, जर्मेन, बधिया स्त्री, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 2005, पृ. 227
- अमरकान्त की संपूर्ण कहानियाँ-1, अमरकान्त, उपरोक्त, पृ. 187
- उपरोक्त, पृ. 187
- उपरोक्त, पृ. 331-34
- उपरोक्त, पृ. 337
- सिंह, डॉ. पूनम, अमरकांत: जीवन एवं साहित्य, समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2006, पृ.183
- अमरकान्त की संपूर्ण कहानियाँ-1, अमरकान्त, उपरोक्त, पृ.196
- उपरोक्त, पृ. 199
- उपरोक्त, पृ. 201-202
- पढ़े, प्रीतम, अमृता का उपन्यास ‘पिंजर’ जहाँ अनजाने व्यक्तियों द्वारा बने शारीरिक संबंधों से पगली गर्भवती बनती है और बच्चा जनने की प्रक्रिया में मर जाती है।
- अमरकान्त की संपूर्ण कहानियाँ-1, अमरकान्त, उपरोक्त, पृ. 329
- उपरोक्त, पृ. 359
- उपरोक्त, पृ. 359
किंगसन सिंह पटेल
एसोसियेट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005
kingson@bhu.ac.in, 8320383590
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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