शोध आलेख : सुरेंद्र वर्मा के साहित्य में महिला सशक्तिकरण / सोनिया

सुरेंद्र वर्मा के साहित्य में महिला सशक्तिकरण
- सोनिया


शोध सार : समकालीन नाटककारों में सुरेन्द्र वर्मा का नाम अत्यंत लोकप्रिय रहा है। यहाँ सुरेन्द्र वर्मा द्वारा रचित नाटक, एकांकी और उपन्यास में केन्द्रित स्त्री पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया गया है। मानव जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है। स्त्री संबंधित रूढ़िवादी मानसिकता, नियोग प्रथा, बाल विवाह, बहुविवाह, धार्मिक परिवर्तन, यौन शोषण और खण्डित व्यक्तित्व आदि का विद्रोह किया गया है। सुरेंद्र वर्मा स्त्री चेतना जागृत करने का सार्थक प्रयत्न करते हैं। वह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आदि परिस्थितियों को वर्णित करने में सक्षम हैं। लेखक स्त्री को पुरुष वर्ग पर आश्रित नहीं दिखाते अपितु उन्हें आत्मनिर्भर, समृद्ध, आत्मबल, अस्मिता, लैंगिक समानता, शिक्षा, क़ानूनी प्रावधानों के प्रति जागरूकता तथा धार्मिक रूढ़ मान्यताओं का विरोध आदि के माध्यम से स्त्री सशक्तिकरण को दर्शाया है।

बीज शब्द : सशक्तिकरण, स्वावलंबन, आत्मनिर्भर, स्वेच्छा, सर्वांगीण, विसंगतियाँ, स्वाभिमानी, आकांक्षाओं, सामाजिक, सांस्कृतिक

मूल आलेख : समकालीन परिवेश में स्त्री चेतना अपने अधिकारों के प्रति निरंतर सजग हो रही है। स्त्री वर्ग के व्यक्तित्व विकास के पश्चात ही सशक्त समाज का निर्माण संभव होगा। जातिगत भेदभाव, सामाजिक कुरीतियों और शोषण न केवल महिलाओं पर अत्याचार होगा बल्कि समाज का उत्थान संभव नहीं है। महिला वर्ग के लिए भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं का प्रावधान आवश्यक है। समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रों में समानता, सम्मान और स्वाभिमान का अधिकार मिलना चाहिए। मानव जाति का विकास स्त्री-पुरुष दोनों के माध्यम से संभव होता है। किसी एक वर्ग की संप्रभुता समाज के विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं। समाजसेवी या लेखकों ने इस कार्य में योगदान दिया है। इसमें प्रसिद्ध लेखक सुरेन्द्र वर्मा का योगदान भी उल्लेखनीय है। उनकी रचनाओं में स्त्री सशक्तिकरण के प्रत्येक पहलुओं को रेखांकित किया गया है।

महिला सशक्तीकरण -

सशक्तिकरण से तात्पर्य व्यक्ति द्वारा स्वयं अपने जीवन संबंधित निर्णय लेने से है। जब कोई महिला समाज में न्याय व समानता के साथ निर्णय लेने में समर्थ होती है तभी वह सशक्त होती है। महिला सशक्तिकरण को परिभाषित करते हुए डॉ॰ विप्लव ने लिखा है कि “महिला सशक्तिकरण से अभिप्राय महिलाओं को समाजिक, आर्थिक, शैक्षिक एवं राजनीतिक स्तर पर आत्मनिर्भर कर सशक्त करने है। सशक्तिकरण से आशय केवल शक्ति का अधिग्रहण नहीं है वरन् यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से महिलाओं में इतनी जागरूकता उत्पन्न की जा सके कि वे स्वावलम्बी बनकर समाजिक, आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त कर सके।” महिला सशक्तिकरण के लिए समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, भौतिक और मानसिक आदि पहलुओं में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। किसी भी देश या व्यक्ति के विकास के में लैंगिक समानता, स्वास्थ्य और शिक्षा का विशेष योगदान रहा है।

आत्मनिर्भर महिला -

समाज में आत्मनिर्भर व्यक्ति को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। व्यक्ति शिक्षित हो या अशिक्षित दोनों का अपने व्यक्तित्व और स्वाभिमान के विकास हेतु आत्मनिर्भर बनना ज़रूरी होता है। “स्वावलंबी होने से औरत का स्वाभिमान बढ़ता है और उसका आत्मसम्मान भी।” किसी भी देश, समाज या घर के संचालन में स्त्री-पुरुष दोनों का सहयोग महत्वपूर्ण होता है। एकांकी ‘वे नाक से बोलते हैं’ इसमें स्त्री नामक पात्र पति की मृत्यु के पश्चात अपनी लड़की की शिक्षा और पालन पोषण आदि आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करती है। “‘स्त्री’ पढ़ी लिखी, अपने पैरों पर खड़ी स्वाभिमान, दायित्वों का निर्वाह पूरी ज़िम्मेदारी के साथ करने वाला एक चरित्र है।” महिला सशक्तिकरण को बाहरी रंग-रूप के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान आदि आंतरिक रूप से मज़बूत करने की आवश्यकता है।

अस्मिता -

सुरेन्द्र वर्मा की रचनाओं में सम्मिलित स्त्री पात्र आतंरिक रूप से आत्मबल की भावना से युक्त होती हैं। उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ में मुख्य स्त्री पात्र वर्षा वशिष्ट पारिवारिक समर्थन न मिलने पर जीवन या आकांक्षाओं का त्याग नहीं करती। घर से निकाले जाने पर वह आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता के साथ अपना जीवन व्यतीत करने का सामर्थ्य रखती हैं। “सुरेन्द्र वर्मा जी ने अपने उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ में भारतीय नारी के मन की जिजीविषा, सूक्ष्म भावनाओं, उसकी चटपटाहट मानसिकता, अंतर्द्वंद्व, बाह्य तथा आंतरिक संघर्ष का यथार्थ चित्रण किया है। उन्होंने परंपराओं में जकड़ी नारी को मुक्त कर एक स्वतंत्र अस्तित्व दिलाने का प्रयास किया है, जिसमें उन्हें आध्यात्मिक सफलता भी मिली है।” महिलाओं के प्रति यह रूढ़ मान्यता है कि उन्हें घर के काम करने चाहिए। उनका स्वभाव त्याग और समर्पण से भरा होना चाहिए। सुरेंद्र वर्मा ऐसी मान्यता को अपनी रचनाओं में खण्डित करते हैं। वर्षा को अस्तित्व बनाने के लिए संघर्षरत दिखाया गया है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर अस्तित्व की तलाश करने की प्रेरणा देते हैं। सुरेन्द्र वर्मा अपनी रचनाओं द्वारा स्त्री चेतना जागृत करने का प्रयास करते हैं। “यहां नाटककार इतिहास में मानवीय अस्तित्व की तलाश करता नज़र आता है, इसलिए इतिहास की आवृत्ति उसका लक्ष्य नहीं बल्कि ऐतिहासिक चरित्रों की विडम्बनापूर्ण स्थिति के मध्य वह समकालीन जीवन के सार्थक प्रश्नों और क्षणों के द्वन्द्व को उद्घाटित करता प्रतीत होता है।”

लैंगिक समानता -

आधुनिक काल में सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए पति-पत्नी दोनों के मध्य समानता और सम्मान का धरातल स्थापित होना आवश्यक है। पत्नी, बेटी या अन्य किसी भी बंधन, रूढ़ मान्यताओं और धार्मिक रीति रिवाजों के नाम पर उनका शोषण नहीं करना चाहिए। सुरेन्द्र वर्मा का नाटक सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में शीलवती रूढ़ प्रथाओं (नियोग प्रथा) का विद्रोह करके स्वतन्त्रता पूर्वक जीवन व्यतीत करने की इच्छा अभिव्यक्त करती है। “‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ स्त्री-पुरुष संबंधों की इससे आगे की कड़ी प्रस्तुत करता है। यह नाटक इन सम्बन्धों को सामाजिक सम्बन्धों से इतर आकलित कर उन्हें जड़ता और घुटन से अलग स्वच्छंदता और मुक्ति-सन्दर्भ देने का काम करता है।” लेखक शीलवती के माध्यम से स्त्री वर्ग को सशक्त बनाने की दिशा प्रदान करने का प्रयत्न करते हैं। उन्हें रूढ़िवादी मान्यताओं का विरोध करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

जिस तरह मिट्टी के बिना मटके की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार स्त्री वर्ग के बिना विकसित राज्य या समाज की कल्पना नहीं हो सकती।

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का शारीरिक और मानसिक शोषण होता रहा है। नाटक ‘रति का कंगन’ में मेघाम्बरा और उसकी माँ का बलात्कार होता रहता है। मेघाम्बरा अपने ऊपर हुए अत्याचार और यौन शोषण के कारण आत्महत्या नहीं करती बल्कि आत्मबल, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास के साथ समाज में सम्मान के साथ जीवन जीने का प्रयास करती है। “सदियों से शोषण व दमन के प्रति स्त्री चेतना ने स्त्री सशक्तिकरण को जन्म दिया। स्त्री सशक्तिकरण वास्तव में आत्म चेतना, आत्म सम्मान, आत्म गौरव, व समानाधिकार की पहल का नाम है। स्त्री को अपने अस्तित्व के बोध ने स्त्री सशक्तिकरण की प्रेरणा दी। ब्राह्य परिवेश के साथ ही समाजिक व्यवस्था में भी बदलाव आया है।

शिक्षा -

शिक्षा स्त्री सशक्तिकरण का सशक्त माध्यम है। स्त्री शिक्षा द्वारा दो परिवार शिक्षित होते है क्योंकि अधिकांश बच्चों का पालन-पोषण माँ द्वारा होता है।

यह व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक चेतना का मार्गदर्शन करती हैं। “आज नारी नौकरी करते हुए आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर अपना स्वतंत्र जीवन जीने में सक्षम है।”

मानव जीवन के विकास के लिए इसे मील का पत्थर माना जाता है। सुरेन्द्र वर्मा की रचनाओं में ज़्यादातर स्त्री पात्र शिक्षित हैं इसलिए वह सशक्त दिखाई देती हैं। नाटक ‘रति का कंगन’ में श्री वल्लरी और मेघाम्बरा और ‘शकुंतला की अँगूठी’ में कनक शिक्षित स्त्री स्वरूप सशक्त स्त्री का परिचायक हैं। शिक्षित होकर वह अपने अधिकारों से अवगत हो रही है। इसके माध्यम से अन्याय के विरोध तर्क करने का सामर्थ्य हुआ। इसके परिणामस्वरूप वह स्वतंत्रता और स्वेच्छा से जीवन जीवन व्यापन करने में सफल हुई है।

शिक्षा के कारण लैंगिक भेदभाव या रूढ़िवादी मानसिकता विद्रोह हुआ है। “पुरूष और स्त्री दोनों इस समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं।” विद्यालय व कार्यालयों में लड़के-लड़कियां एक साथ मिलकर कार्यक्रम या खानपान करते हैं जिसके परिणामस्वरूप समानता का विस्तार हुआ है।

पारिवारिक सशक्तिकरण -

शिक्षित या आत्मनिर्भर महिला को पारिवारिक विघटन का मुख्य कारण माना जाता है। अधिकांश संयुक्त परिवार में महिलाओं को किसी न किसी के अधीनस्थ देखा गया है। महिलाओं की स्थिति में पारिवारिक जीवन के साथ ही सामाजिक परिवेश भी बहुत परिवर्तन हुए हैं। सुरेंद्र वर्मा के नाटक क़ैद-ए-हयात में मिर्ज़ा की माँ आपा अपनी बहू उमराव का प्रत्येक विषम परिस्थितियों में भी साथ रहती हैं। लेखक नाटक रति का कंगन में स्त्री की भूमिका को परिभाषित करते हैं। मंजुलसेना के माध्यम से पारिवारिक और व्यक्तित दोनों को महत्वपूर्ण बताते हैं। मंजुलसेन कहती है कि- “उसे बेटी, बहन, प्रेमिका, पत्नी, और माँ बनने के साथ अपनी निजी पहचान चाहिए। तभी वह समाज की स्वायत्त इकाई बनकर अपने व्यक्तित्व का विकास कर पाएगी।” लेखक स्त्री को परिवार के साथ रहकर स्वयं के वर्चस्व को स्थापित करने का आग्रह करते हैं।

नाटक ‘छोटे सैयद बड़े सैयद’ में मुग़लकालीन परिवेश का वर्णन मिलता है। इस दौरान महिलाओं का यौन शौषण, कुपोषण, प्रस्व काल में मृत्यु, बहु पत्नी, अधिकांश संतान आदि समस्याओं को दर्शाया गया है। उन्हें शिक्षा के अधिकारों से वंचित रखकर घर के काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। उन्हें परिवार व समाज में धार्मिक कारणों से दबाया गया है। उन्हें समाज की स्वतंत्र ईकाई न समझकर भोग विलास की वस्तु माना जाता था।

आज भी अधिकांश महिलाएँ अपनी अपूर्ण इच्छाओं और सपनों का साकार रूप अपनी संतान में देखते हैं। परिस्थिति या परिवार के कारण स्त्री के व्यक्तित्व में बिखराव दिखाई देता है। नाटक ‘सेतुबंध’ में प्रभावती अपने अस्तित्व की तलाश अपने बेटे प्रवरसेन में देखती है। लेखक पत्नी व माँ की भूमिका में स्व की तलाश के महत्व को रेखांकित करते हैं। प्राचीन समय में स्त्री का कोई वर्चस्व नहीं होता था। वह पत्नी व माँ के दायित्वों में ही अपना जीवन व्यतीत कर लेती थीं। प्रभावती स्वयं के विवाह को बलिदान के समान बताती हैं। लेखक विवाह संबंधित निर्णय लेने के लिये स्वेच्छा व स्वतंत्रता को महत्व देते हैं।

महिलाओं क़ानूनी अधिकार प्राप्त -

महिलाओं के सर्वांगीण उत्थान हेतु समान अवसर प्रदान करने चाहिए। क़ानून में लिंग, जाति व जन्म स्थान आदि के आधार पर लैंगिक भेदभाव को अपराध माना गया है। महिला सशक्तिकरण हेतु पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं को समानता का अधिकार देना ज़रूरी है। “स्त्री और पुरुष परस्पर पूरक हैं तथा इनका अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर करता है।” हमारे संविधान में भी महिलाओं को समानता के अधिकार प्राप्त हैं।

महिलाओं को रोज़गार प्रदान करने के लिए रोज़गार प्रशिक्षण एवं इच्छानुसार रोज़गार चयन करने का अवसर देना चाहिए। इसके साथ ही वेतन पर समान अधिकार प्राप्त हो। “वह परिवार समाज की महत्वपूर्ण इकाई है और स्त्री परिवार को चलाती है।” किसी भी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में सुधार करके उसकी जीवनशैली में परिवर्तन लाया जा सकता है। संसद से लेकर पंचायत तक महिलाओं को क़ानूनी रूप से आरक्षण प्रदान किया गया है। सुरेन्द्र वर्मा द्वारा रचित नाटक ‘महाभारत नाट्य चतुष्टय’ में जहाँआरा का राजनीतिक योगदान दिखाया गया है। इसमें राजनीति के लिए महिलाओं की इच्छाओं का दमन किया गया है।

राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं का सशक्त होना सरल नहीं है क्योंकि उसका शारीरिक और मानसिक शोषण होता रहा है।

धार्मिक रूढ़ मान्यताओं या प्रथाओं का विरोध -

समकालीन परिदृश्य में धर्म से ऊपर मानव जीवन को माना जाता है जिसके कारण धर्म आधारित रूढ़िवादी विचारधाराओं और प्रथाओं में बदलाव आया है। सुरेंद्र वर्मा ने नाटक शकुंतला की अँगूठी और महाभारत नाट्य चतुष्टय में बाल विवाह को विद्रोह किया है। नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ इसमें नियोग प्रथा का खंडन दिखाया गया है। महामात्य मर्यादा और धर्म के नाम पर शीलवती की इच्छाओं व भावनाओं का दमन करने का प्रयास करते है तब शीलवती कहती है कि- “महामात्य! इन खोखले शब्दों का जादू टूट चुका है अब।… मर्यादा!…धर्म!…शील!…वैवाहिक बन्धन!… सब मिथ्या!… सब आडम्बर!… सब पुस्तकीय!… लेकिन मुझे पुस्तक नहीं जीना अब।… मुझे जीवन जीना है।” महिला धर्म की बेड़ियों से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। इसके लिए वह व्यक्तित्व का विकास निरंतर करती हैं। सुरेन्द्र वर्मा की साहित्यिक रचनाओं में सम्मिलित स्त्री पात्रों में यह विशेषता दिखती हैं।

आत्मबल सशक्तिकरण -

एकांकी ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’ में महिला के सशक्त पहलुओं को रखा गया है। इसमें ‘युवती’ नामक महिला स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और अस्मिता युक्त हैं। “आज की महिलाएँ अपने आप में दृढ़ आत्मविश्वास रखें। वह समाज में व्याप्त असामाजिक तत्वों का मुक़ाबला करने में पुरी तरह से सक्षम हैं।” वह आधुनिक काल में अकेले रहकर सामाजिक विसंगतियों और उत्पीड़न जैसी समस्या का स्वयं रक्षण करती हैं।उसकी एक बेटी पिंकी मर गई तथा पति उसके साथ नहीं है।उसे घर का अकेलापन, अवसाद, सन्नाटा और कुंठा आदि समस्याओं से जूझना पड़ता है। “नारी प्रकृति है, जननी है, जगत को उसने जना है।” लेखक आधुनिक काल की प्रत्येक परिस्थितियों को स्त्री पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। ‘पति’ की कमी उसे घर में महसूस होती है। वर्तमान समय में असंतोष रूपी सर्प स्त्री-पुरुष दोनों ही वर्गों की ज़िंदगी में दिखाई देता है।

निष्कर्ष : इस तरह हम कह सकते हैं कि सुरेंद्र वर्मा की साहित्यिक रचना उपन्यास, नाटक और एकांकी में महिला सशक्तिकरण की विभिन्न विशेषताएं दिखाई देती हैं। ऐतिहासिक पात्र और घटनाओं के माध्यम से समकालीन परिवेश में समन्वय स्थापित करके नवीन जीवन मूल्यों को विकसित किया गया है। वह अपनी रचनाओं में महिलाओं को आत्मनिर्भर, शिक्षित, अस्मिता, समानता, आत्मबल, जागृत चेतना, धार्मिक विद्रोह, तार्किक क्षमता और स्वतंत्रता आदि द्वारा महिला सशक्तिकरण को प्रोत्साहित करते हैं। महिला की स्थिति में समयानुसार परिवर्तन आवश्यक है। समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में स्त्री दशा परिवर्तित हुई है। सुरेन्द्र वर्मा की रचनाओं का मूल स्वरूप महिला ही है क्योंकि समाज का विकास स्त्री-पुरुष दोनों के सहयोग से होगा। आधुनिक युग में ब्राह्य परिवेश के साथ ही मानवीय मूल्यों में परिवर्तन होना चाहिए।

संदर्भ :
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  2. रमणिका गुप्ता, स्त्री विमर्श कलम और कुदाल के बहाने, शिल्पायन, दिल्ली, संस्करण- 2004, पृष्ठ संख्या- 15
  3. मुनीश शर्मा, सुरेन्द्र वर्मा के नाटक नये दायरों की तलाश, प्रकाशक- स्वराज प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 2013, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 145
  4. डॉ. महेंद्र सिंह, मुझे चाँद चाहिए : नारी चेतना, प्रकाशक- एनहांस्ड रिसर्च पब्लिकेशन, प्रथम संस्करण- 2020, पृष्ठ संख्या- 6
  5. डॉ. रमेश गौतम, स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटक : मिथक और यथार्थ, पृष्ठ संख्या- 525
  6. डॉ. नरेन्द्र मोहन, समकालीन हिन्दी नाटक और रंगमंच, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, तीसरा संस्करण – 2023, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 237
  7. डॉ. गोपीराम शर्मा व डॉ. घनश्याम बैरवा, स्त्री चिंतन सामाजिक – साहित्यिक दृष्टि, प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2020, पृष्ठ संख्या- 69
  8. सरला गुप्ता ‘भूपेन्द्र’, समकालीन हिंदी नाटक चेतना के आयाम, प्रकाशन- पंचशील प्रकाशन, फ़िल्म कालोनी, जयपुर, प्रथम संस्करण- 1987, पृष्ठ संख्या- 119
  9. डॉ. संजय गर्ग, स्त्री विमर्श का कालजयी इतिहास, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2012, पृष्ठ संख्या- 65
  10. सुरेंद्र वर्मा, रति का कंगन, प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण – 2014, पृष्ठ संख्या- 86
  11. हेमंत कुकरेती, शंकर शेष समग्र नाटक, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2015, पृष्ठ संख्या- 5
  12. हेमंत कुकरेती, शंकर शेष समग्र नाटक, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2015, पृष्ठ संख्या- 18
  13. सुरेंद्र वर्मा, सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’, प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, चौथा संस्करण – 2020, पृष्ठ संख्या- 65-66
  14. डॉ. कृष्ण चन्द्र चौधरी, स्त्री-विमर्श आधुनिक युग का नया क्षितिज, प्रथम प्रकाशक- बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, प्रेमचंद मार्ग, राजेन्द्रनगर पटना, संस्करण- सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या- 56
  15. डॉ. अमरनाथ, नारी का मुक्ति- संघर्ष, रेमाधव पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेशन, प्रथम संस्करण- 2007, पृष्ठ संख्या- 34

सोनिया
शोधार्थी पीएच.डी. हिंदी, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली, दल्लूपुरा, दिल्ली

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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