हिंदी हॉरर फिल्मों का मूल्यांकन
- अनसिया टी. एवं षिबी सी.
शोध सार : हॉरर फिल्में ऐसी विधा हैं जो डर, रहस्य और अज्ञात तत्वों पर आधारित होती हैं। इन फिल्मों का मुख्य उद्देश्य दर्शकों में भय उत्पन्न करना होता है। हॉरर फिल्मों में भूत-प्रेत, आत्माएं, शैतानी ताकतें, अंधविश्वास और रहस्यमयी घटनाएं प्रमुख विषय होते हैं। हिंदी सिनेमा में हॉरर फिल्मों की एक अलग पहचान रही है। यह शोध आलेख हिंदी हॉरर फिल्मों की शुरुआत, विकास और उनकी सामान्य विशेषताओं का सरल परिचय देता है। इस लेख में इस बात पर प्रकाश डालने की कोशिश की गयी है कि रामसे ब्रदर्स की फिल्मों से लेकर आज की नई तकनीक वाली हॉरर फिल्मों ने लोगों को कैसे आकर्षित किया। और समाज में डर और विश्वास जैसे भावों को पर्दे पर कैसे दिखाया गया। इस शोध आलेख में हॉरर फिल्मों के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों को भी संक्षेप में परिचित कराने का प्रयास किया गया है। हॉरर फिल्मों का संबंध मनोरंजन के साथ-साथ समाज की कल्पनाओं, डर और विश्वासों से भी होता है।
बीज शब्द : भय, जॅनर, हॉरर, हॉरर फिल्म, अनकानी, विरेचन सिद्धांत, जर्मन अभिव्यंजनाबाद, हिंदी हॉरर फिल्म, महल, मनोवैज्ञानिक हॉरर, रामसे ब्रदर्स, मिथकीय परंपरा, पितृसत्तात्मक दृष्टि, स्त्री, माडोक फिल्म्स
मूल आलेख : भय मनुष्य के सबसे मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण भावना है। अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य भय के साथ लेकर चलता है। उसके व्यक्तित्व, जीवन, धर्म, संस्कार, समाज सभी का निर्माण करने में भय का महत्वपूर्ण योगदान हैं। व्यावहारिक हिंदी व्याकरण कोश में ‘भय’ का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार दिया गया है: “किसी संकट के समय अथवा संकट की आशंका से उत्पन्न मन की व्याकुलता और उतावलापन भी एक दुखद मनोविकार है जो किसी आनेवाले या उपस्थिति आपत्ति या बुराई की आशंका से उत्पन्न होता है। भय को डर, भीति, विभीषिका आदि शब्दों से भी पुकारा जाता है।”1 प्रसिद्ध मनोविश्लेषक सिगमंड फ्रायड के अनुसार “भय खतरे का संकेत देता है: हम शारीरिक क्षय, बीमारी और मृत्यु से डरते हैं; हम प्रकृति की विनाशकारी शक्तियों से डरते हैं; और—बेशक—हम हमसे डरते हैं।”2
साइकियाट्रिक डिक्शनरी में दो प्रकार के भय की चर्चा हुई है। वास्तविक भय (Real Fear) और आवेगपूर्ण भय (Impulse Fear)। “वास्तविक भय पर्यावरण के किसी वास्तविक वस्तु से जुड़ा हुआ है। किसी अंधेर जगह में होने का भय वास्तविक भय का उदाहरण है। उत्तम सेहत में रहते हुए भी आसन्न पतन और मृत्यु से डरने को आवेगपूर्ण भय कहा जाता है।”3 मनुष्य के अंदर भय पैदा करनेवाले अनेक कारण हो सकते हैं। यी-फु तुआन ने अपनी पुस्तक लैंडस्केप ऑफ फियर में भय के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की है। आपके अनुसार मनुष्य हो, जानवर हो या अन्य किसी जीव हो अपने जीवन जीने के लिए अनेक खतरों से खुसर जाते हैं, जैसे खरगोश, बकरी, हिरण अपने शिकारियों से डरते हैं। इन खतरों ने उन्हें अपने अतिजीवन के लिए तैयार किए हैं। उनके अंदर पैदा होने वाले डर से ही वे खतरों से रक्षा प्राप्त करते हैं। मनुष्य भी इस विश्व के प्राणी हैं और जानवरों की अपेक्षा मनुष्य के भावनाओं और विचारों का अधिक विकास हुआ है। मनुष्य जीवन के विकास में भी भय का प्रमुख स्थान है। भूख और मृत्यु भय के कारण मनुष्य ने कृषि की शुरुआत की थी। गर्मी, सर्दी और बारिश से और अन्य आक्रमणों के डर से रक्षा प्राप्त करने के लिए वे घर बनाये। आदिम मनुष्य से आज तक के मानव जीवन की विकास यात्रा में भय एक मुख्य तत्व रहा है।
हॉरर फिल्म -
मानवीय संवेदना या भावना का चित्रण ही कला, साहित्य और अन्य सभी माध्यमों में होता आ रहा है। मानव के जीवन, वैषम्य, खुशी और ग़म जैसी विविध बातों की अभिव्यक्ति इसमें होती है। फिल्म ऐसा एक माध्यम हैं जिसमें मनुष्य के जीवन के सभी क्रिया कलापों का चित्रण होता है। मनुष्य की भावनाओं का चित्रण करने में फिल्म सफल रही हैं। हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद ने कहा है कि "चित्रपट अभिव्यक्ति का सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है, जो किसी घटना या विचार को मनमोहक ढंग से प्रस्तुत करता है। यह व्यक्ति के मन को अंदर तक स्पर्श करता है। सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं है, वह तो अतीत का अभिलेख, वर्तमान का चित्र और भविष्य की कल्पना है। सामाजिक परिवर्तन, लोकजागरण तथा बौद्धिक क्रांति की दिशा में भारतीय सिनेमा अविस्मरणीय है। यह ऐसा प्रभावकारी माध्यम है जिसने सभी उम्र के लोगों के मानस को झंकृत कर दिया है।”4
फिल्मों की विषयवस्तु के अनुसार फिल्मों को विभाजित किया गया है। फिल्म के विभागों को ‘जॅनर’ (genre) कहा जाता है। “जॅनर एक पद्धति है, जिसके जरिए फिल्मों के विषय अथवा उनकी विवरणात्मक शैली में दिखनेवाली समानता के आधार पर उन्हें वर्गीकृत किया जाता है। सिनेमा में यह थ्योरी साहित्य से आई हैं।”5 फिल्म क्षेत्र में अनेक जॅनर हैं एक्शन, रोमांच, हास्य, अपराध, ड्रामा, पारिवारिक, फांतासी, साइंस फिक्शन और थ्रिलर आदि। हॉरर फिल्म भी ऐसा एक जॅनर है। “हॉरर(Horror) शब्द का अर्थ है ‘भय’ या ‘आतंक’। यह शब्द लैटिन भाषा के ‘horrere’ से आया है, जिसका अर्थ है काँपना या सिहर उठना।”6 हॉरर फिल्में इसी भावना को दर्शाने के लिए बनाई जाती हैं। हॉरर फिल्मों में डर, रहस्य, अलौकिक घटनाएँ, और भयावह अनुभवों को प्रमुख रूप से प्रस्तुत किये जाते हैं।
कैंब्रिज डिक्शनरी के अनुसार “हॉरर फिल्म ऐसा फिल्म हैं जिसमें बहुत डरावनी या अप्राकृतिक चीजें होती हैं, उदाहरण के लिए मृत लोगों का जीवित हो जाना और लोगों की हत्या कर देना।”7 ए डिक्शनेरी ऑफ फिल्म स्टडीस के अनुसार हॉरर फिल्म से तात्पर्य हैं “फिल्मों का एक बड़ा और बहुजातीय समूह, जो परेशान करने वाले और अज्ञात विषय के प्रतिनिधित्व के माध्यम से, अपने दर्शकों से डर, आतंक, घृणा, सदमा, रहस्य और निश्चित रूप से, डरावनी प्रतिक्रिया प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।”8
डरने से मनुष्य स्वयं को कमज़ोर समझते हैं। लेकिन वे हॉरर फिल्मों को देखना पसंद भी करते हैं। इस द्वंद्व का मुख्य कारण मनुष्य की मनोवैज्ञानिक स्थिति ही है। ‘द एस्थेटिक एण्ड साइकॉलॉजी बिहाइन्ड हॉरर फिल्म्स’ में मिशेल पार्क ने हॉरर फिल्मों को देखने की इच्छा का आधार, अरस्तू के विरेचन सिद्धांत और मनोविश्लेषक सिगमंड फ्रायड के अनकानी(Uncanny) को बताया है। सिगमंड फ्रायड के अनुसार भय ‘अनकानी’ या ‘अस्वाभाविक’ से आते हैं और हमारे अंदर मन से उभरता है। मिशेल पार्क के अनुसार “हॉरर फिल्मों का उद्देश्य हमारे अवचेतन मन की गहराई में दबे हुए अचेत भय, इच्छा, आग्रह, और आदिम आदर्शों को उजागर करना हैं।”9 आगे वह कहता है कि “ग्रीक दार्शनिक अरस्तू के विरेचन सिद्धांत के अनुसार हिंसक या हॉरर फिल्मों को देखने से हम अपने नकारात्मक भावनाओं से मुक्त होते हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो ये फिल्में हमें हमारी आक्रामक भावनाओं को शुद्ध करने में मदद करते हैं।”10
1895 में लूमियर बंधुओं से फिल्म इतिहास की शुरुआत माना जाता है। कला के अन्य रूपों की अपेक्षा फिल्म सबसे नवीन और आधुनिक रूप है। इस कारण से फिल्म की स्वीकृति समय के साथ बढ़ती आयी है । अन्य कलाओं की अपेक्षा लोग अब फिल्मों को अधिक पसंद कर रहे हैं। फिल्मों के शुरुआती दौर से ही हॉरर जॅनर भी शुरू हुआ था। इसके संबंध में यह कहानी भी प्रचलित है कि जब पहली बार लूमीयर ब्रदर्स ने ‘अराइवल ऑफ द ट्रेन’ का प्रदर्शन किया था तब दर्शकों ने स्क्रीन पर ट्रेन आते देखकर डरकर भाग गये थे। मूक फिल्मों के समय से ही हॉरर एक जॅनर बन गया था।
जर्मन निदेशक जॉर्ज मेलीस द्वारा निर्देशित ल मनोइर द डायबल / द हाउस ऑफ द डेविल (अंग्रेजी में) (1896-le manoir du diable/the house of the devil) को पहली हॉरर फिल्म माना जाता है। हॉरर फिल्म और साहित्य के बीच गहरा संबंध है। प्रारंभिक काल में ब्राम स्टोकर की ‘ड्राकुला’, मेरी शैली की ‘फ्रानकंस्टैन’ जैसी साहित्य रचनाओं को आधार बनाकर ही हॉरर फिल्में बनायी गयी थीं। लोक कथा, पुराण और धार्मिक ग्रंथ, आदि विविध सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहलुओं से प्रभावित होकर हॉरर फिल्मों की शुरुआत हुई थी। 20वीं सदी की शुरुआत में जर्मनी में उभरा एक कलात्मक आंदोलन था ‘जर्मन अभिव्यंजनावाद’। इस आंदोलन ने चित्रकला, मूर्तिकला, साहित्य, नृत्य, और सिनेमा को प्रभावित किया था। इस प्रवृत्ति के अंतर्गत कलाकारों ने तीव्र भावनाओं और आंतरिक अनुभवों को व्यक्त करने के लिए जीवन के विकृत रूपों का इस्तेमाल किया था। इसमें कलाकारों ने प्रकृति की नकल करने के बजाय, रंगों, रेखाओं, और आकृतियों के ज़रिए भावनाओं को व्यक्त करने की कोशिश की। हॉरर फिल्मों के विकास में जर्मन अभिव्यंजनावाद का भी महत्वपूर्ण योगदान है। इस प्रवृत्ति के प्रभाव में राबर्ट वेन द्वारा निर्देशित ‘द कैबिनेट ऑफ डॉक्टर कैलीगरी’(1919) और फ्रैडरिक विलियम मरनौ द्वारा निर्देशित ‘नास्फेरातू, ए सिंफनी ऑफ टेरर’ (1922) हॉरर फिल्म के इतिहास में मील का पत्थर माने जाते हैं। तकनीक, विषय, समाजिक बदलाव आदि के आधार पर फिल्म भी नया रूप धरण कर लिया है। समकालीन वैश्विक घटना और दर्शकों की अभिरुचि के अनुसार हॉरर फिल्में भी बदल गयी हैं। विश्व की फिल्मी जगत को देखा जाए तो यह मालूम होता है कि अंग्रेजी, जापानी, कोरिया, इतालियन और फ्रांसीसी भाषा के हॉरर फिल्मों को दर्शक अधिक पसंद करते हैं। प्रेत, भूत, ज़ोम्बी, राक्षस, पिशाच, वेयरवोलफ, साइको, ऐलीअन, महामारी, विपत्तियां जैसे विविध तत्वों को इन फिल्मों की विषयवस्तु बनायी गयी है। आज भारत में विदेशी भाषाओं के हॉरर फिल्मों के लिए विशिष्ट स्थान है।
हिंदी हॉरर फिल्मों का उदय (1940-59) -
हिंदी के हॉरर फिल्में पाश्चात्य सिनेमा यानि जर्मन, हॉलिवुड, कोरियन, जपानीज़ आदि से प्रभावित होकर बनाये गये हैं। हिंदी सिनेमा जगत में हॉरर फिल्मों की शुरुआत 1949 में कमाल अमरोही द्वारा निर्देशित ‘महल’ से हुई थी। इसकी व्यावसायिक सफलता के फलस्वरूप अनेक निर्देशकों ने महल की कहानी और विषय का अनुकरण करके फिल्मों का निर्माण करना शुरू किया था। एक दिशा में ‘महल’ सिनेमा का अनुकरण हुआ तो दूसरी ओर हॉलिवुड और अन्य भाषाओं के हॉरर फिल्मों का अनुकरण भी हो रहा था। इसके बावजूद भी जितनी स्वीकृति और सफलता पोपुलर फिल्मों को मिली है उतनी स्वीकृति हिंदी हॉरर फिल्मों को नहीं मिली है। इन विपरीत परिस्थितियों में भी हॉरर फिल्में खूब बनायी गयी और आगे चलकर उसमें बदलाव भी आने लगी।
हिंदी हॉरर फिल्मों का प्रारंभ 1940-50 के समय में हुआ था। ‘शादी की रात’(1935), ‘भेड़ी बंगला’(1949), ‘महल’(1949) जैसी फिल्मों से हिंदी में हॉरर फिल्म की शुरुआत होती है। लेकिन एक नई शैली के रूप में हॉरर फिल्म को प्रतिष्ठित करने का श्रेय 1949 में कमाल अमरोही द्वारा निर्देशित महल को दिया जाता है। ‘महल’ की सफलता ने हिंदी हॉरर फिल्मों को व्यावसायिक और सौंदर्यात्मक वैधता प्रदान की। ‘महल’ ने भूत और आत्मा को प्रेम और पुनर्जन्म के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। इस समय हॉरर फिल्में ब्लैक एंड वाइट में बनाई गई थीं। हॉरर प्रभाव को बनाने के लिए लाइटिंग और छायांकन पर विशेष ध्यान दिए गये थे। तकनीकी विकास न होने के कारण हॉरर उत्पन्न करने के साधन के रूप में ध्वनि का प्रभाव कम ही थे फ़िर भी ऑर्केस्ट्रा और रिकॉर्डेड गाने का प्रयोग करके हॉरर माहौल बनाने का परिश्रम इस समय में हुआ था। इस सीमित परिस्थिति में भी ‘महल’ ने साउंड डिजाइन और कैमरा मूवमेंट का प्रयोग करके मनोवैज्ञानिक भय पैदा करने में सफल रहा। ‘महल’ को हिंदी के प्रथम हॉरर फिल्म होने का श्रेय मिलने में यह भी एक कारण रहा। ‘महल’ फिल्म के कैमरा मूवमेंट में हिचकोक की साइको फिल्म का प्रभाव भी देख सकते हैं। “हिंदी सिनेमा में ‘महल’ का स्मरण अल्फ्रेड हिचकॉक की ‘साइको’ की तरह किया जाता है।..... निर्देशक कमाल अमरोही की यह कृति पुनर्जन्म में प्रेमी को प्राप्त करने की काल्पनिक कथा थी जिसमें निर्देशक ने बेहद खूबसूरती से प्रेम की तीव्रता को अपनी सौन्दर्य सृष्टि की रहस्यमय गुहाओं में उतार दिया था।”11
हिंदी हॉरर फिल्मों की प्रारंभिक प्रवृत्तियाँ(1960-69) -
‘महल’ की व्यावसायिक सफलता के बाद अनेक निदेशक इस रास्ते से चलने लगे। ‘बीस साल बाद’ (बिरेन नाग, 1962), ‘बिन बादल बरसात’ (ज्योति सरूप, 1963), ‘शिकारी’ (मोहम्मद हुसैन, 1963), ‘कोहरा’ (बिरेन नाग, 1964), ‘वह कौन थी?’(राज खोसला, 1964), ‘गुमनाम’ (राजा नवाथे, 1965), ‘सौ साल बाद’ (बी. के. दुबे, 1966) और ‘अनिता’ (राज खोसला, 1967) आदि फिल्में ‘महल’ के अनुकरण करके बनायी गयी थीं। इस समय में हॉरर फिल्मों का मुख्य विषय रहस्य और पुनर्जन्म था। इस दशक की फिल्मों में भय, प्रेम और संगीत का समन्वय देख सकते हैं। राज खोसला और बिरेन नाग जैसे निर्देशकों ने अपनी फिल्मों के माध्यम से भय को रूमानी सौंदर्य से जोड़ दिया था। इनकी फिल्मों में भय को अलौकिक और रहस्यमय स्त्री पात्रों के माध्यम से चित्रित किया गया था। एक ही समय स्त्री सौंदर्य, रहस्य और आकर्षण दोनों के सम्मिश्रित रूप में हमारे सामने आते हैं। ‘बीस साल बाद’ में वहीदा रह्मान द्वारा अभिनीत राधा, ‘कोहरा’ में वहीदा रह्मान द्वारा अभिनीत राजेश्वरी, ‘वह कौन थी?’ में साधना द्वारा अभिनीत सन्ध्या आदि पात्रों ने अपने सौंदर्य के माध्यम से प्रतिशोध, अलौकिक शक्ति, रहस्य आदि के प्रतीक बन गये। मिथकीय परंपरा में स्त्री को ‘मोहिनी’, ‘यक्षिणी’, ‘चुड़ैल’ जैसे रूपों में चित्रित करता था। वह सुंदर भी है और भयावह भी। प्रारंभिक हॉरर फिल्मों ने इन मिथकीय प्रतीकों को आधुनिक तकनीक और सिनेमा की भाषा में रूपांतरित किये। फिल्मों में सुंदर स्त्री को जब ‘रहस्यमयी’ या ‘अलौकिक’ बनाया जाता है, तो वह एक ओर पुरुष की इच्छा का विषय बनती है, और दूसरी ओर उसके डर के लिए कारण भी। ये फिल्में स्त्री सौंदर्य और रहस्य की सिनेमाई कल्पना तक मात्र सीमित न होकर पितृसत्तात्मक समाज की मानसिकता को भी दर्शाती हैं।
व्यावसायिक हॉरर फिल्मों का आविर्भाव(1970-79) -
1970 वीं सदी की शुरुआत में हिंदी हॉरर फिल्मों में ऐसा बदलाव आया जो हिंदी फिल्मों के इतिहास में हिंदी हॉरर फिल्मों को प्रतिष्ठित करने में सहायक सिद्ध हुई। इन बदलावों में रामसे ब्रदर्स की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वे कम बजट और सीमित तकनीकों के बावजूद भी भय को लोकप्रिय बनाया। फलस्वरूप हिंदी फ़िल्मी जगत में व्यावसायिक हॉरर फिल्मों का उदय हुआ। हॉरर फिल्में कलात्मक प्रयोग से भी आगे बढ़कर बाज़ार आधारित मनोरंजन के माध्यम बन गये थे। निर्माताओं ने पाया कि हॉरर फिल्मों में डर के साथ-साथ कामुकता और रोमांस जोड़ने से टिकटों की बिक्री बढ़ रही है। इसलिए छोटे निर्माताओं ने भी डर और रोमांस के मेल से लाभ कमाने लगे। व्यवसयिक सफलता के लिए डर, देह और ड्रामा को जोड़कर रामसे ब्रदर्स ने हॉरर फिल्मों में एक नये फॉर्मुला को अपनाया। इससे हिंदी सिनेमा जगत में स्त्री सौंदर्य, कामुकता और शारीरिक भय तीनों तत्वों को मिलाकर ‘हॉरर एक्सप्लोइटेशन’ शैली का विकास हुआ। उनकी फिल्मों ने दर्शकों को भय और यौन आकर्षण के मिश्रित अनुभव से जोड़ा और इसके कारण हॉरर फ़िल्म जनप्रिय बन गये। रामसे के फिल्मों ने स्त्री पात्रों को भय और यौन आकर्षण का माध्यम बनाया। उनकी नायिका अक्सर अल्प वस्त्रों में, सस्पेंस भरे स्नान दृश्यों में या नर्तकी के रूप में प्रत्यक्ष होने लगी। इन फिल्मों में स्त्री केवल कथानक का हिस्सा नहीं बल्कि विज़ुअल कमोडिटी बन गई थी। फिल्मों के कैमरा का कोण, रोशनी और संपादन आदि पुरुष दृष्टिकोण के अनुसार नियंत्रित होते थे। डराने के दृश्य को भी ऐसे फ़िल्माए जाते थे कि स्त्री का चेहरा और शरीर दर्शक के लिए दृश्यसुख का माध्यम बने। हिंदी हॉरर फिल्म धीरे-धीरे ‘जन-सिनेमा’ में परिवर्तित हो गया। ‘दो गज़ ज़मीन के नीचे’(1972), ‘अंधेरा’(1975), ‘दरवाज़ा’(1978), ‘और कौन?’(1979), ‘नागिन’(1976), ‘जादू टोना’(1977), आदि शुरुआती व्यावसायिक हॉरर फिल्मों केलिए उदाहरण हैं।
व्यावसायिक हॉरर फिल्मों का चरम रूप(1980-1989) -
1970 में हॉरर फिल्म की जो परंपरा शुरू हुई उसके चरम रूप 1980 वीं सदी में देख सकते हैं। रामसे ब्रदर्स ने जो फ़ोर्मुला को विकसित किया था उसे अन्य निदेशकों ने भी आगे बढ़ाया। ‘दहशत’ (1981), ‘पुराना मंदिर’ (1984), ‘सामरी’ (1985), ‘डाक बंगला’ (1987), ‘वीराना’ (1988), ‘पुरानी हवेली’ (1989), आदि इस समय के रामसे ब्रदर्स की कुछ हॉरर फिल्में हैं और अन्य निदेशकों की फिल्में हैं- ‘गहराई’ (1980), ‘जानी दुश्मन’ (1980), ‘कब्रस्तान’ (1988), आदि। इन फिल्मों में अक्सर स्त्री पात्र शिकार, प्रलोभन या प्रतिशोध की आत्मा के रूप में आती हैं। और उनके माध्यम से फिल्मों में भय और कामुकता दोनों को दरशाया जाता है। ये फ़िल्में डर से अधिक दृश्य उत्तेजना बेचती थी। ये फिल्में भी पितृसत्तात्मक दृष्टि के प्रभाव से बचा नहीं था। लोकप्रिय संगीत, डर और लोककथाओं का पुनराख्यान इन फिल्मों में हुआ था। टीवी और वीडियो कैसेट के माध्यम से ये फिल्में घर-घर तक पहुंचने लगी और यह शैली लोगों के बीच पोपुलर भी होने लगी। तकनीकी दृष्टि से इन फिल्मों में सीमाएँ थीं। कम बजट में फिल्म बनाने के कारण कैमरा वर्क, वी एफ एक्स और संपादन में भी कमी दिखते थे। फिर भी इनकी लोकप्रियता ग्रामीण और कस्बाई दर्शकों के बीच बहुत अधिक थी। छोटे कस्बों और सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में इन फिल्मों की माँग अधिक थी।
इस दशक में रामसे ब्रदर्स हिंदी हॉरर का पर्याय बन चुके थे। सस्ते सेट्स, डरावनी हवेलियाँ, तेज़ संगीत आदि उनकी पहचान बन गयी थी। स्त्री पात्रों का द्वंद्वात्मक चित्रण भी इन फिल्मों में होता था। एक ओर स्त्री प्रतिरोधी आत्मा, डायन या राक्षसी बनकर सामने आती थी जो पुरुष पात्रों को अपने जाल में फॅंसाकर उनके जीवन नष्ट कर देती थी। ’वीराना’, ‘गहराई’ जैसे फिल्मों के स्त्री पात्र ऐसे प्रतिशोधी आत्मा के रूप में हमारे सामने आती है। दूसरी ओर स्त्री सौंदर्य, इच्छा और आकर्षण की वस्तु बनकर सामने आती है। ‘पुराना मंदिर’, ‘सामरी’, ‘पुरानी हवेली’, ‘दहशत’ आदि में स्त्री केवल पुरुष इच्छाओं की पूर्ती का साधन मात्र रह जाती है। ‘तहखाना’ जैसी फिल्मों में परिवार के पापों के फल से दैत्य के रूप में पुनर्जन्म दिखाया गया है। इस समय की फ़िल्में डर को केवल भूत-प्रेत से ही नहीं बल्कि समाज के नैतिक अपराधों से भी जोडती है। ये विदेशी हॉरर से प्रेरणा लेकर बनायी गयी थी। ‘साईको’, ‘ड्राकुला’, ‘द एक्सॉर्सिस्ट’, ‘द ओमन’ आदि फिल्मों की छाया इन फिल्मों में देख सकते हैं।
हिंदी हॉरर फिल्मों का संक्रमणकाल (1990-1999) -
1990 वीं में एक्शन और रोमांस के उभार ने हॉरर को सीमित किया। फिर भी ‘100 डेज’(1990) जैसी फिल्में हॉरर फिल्मों को जिंदा रखने का प्रयास किया। 1980 के अंत में आते-आते रामसे ब्रदर्स द्वारा स्थापित व्यावसायिक हॉरर शैली अपने दोहराव और सीमाओं के कारण कमजोर पड़ने लगी। अब इन सीमाओं के कारण डर और सस्ती उत्तेजना से आगे बढ़कर नई कहानी, तकनीकी नयापन की तलाश करने लगा। इस दौर में फिल्मों में तकनीकी सुधार शुरू हो गए थे। साउंड, कैमरा, एडिटिंग, में बदलाव आया। हॉरर फिल्मों में धीरे-धीरे थ्रिलर और सस्पेंस के तत्व बढ़ने लगे। राम गोपाल वर्मा के ‘कौन?’(1991) बिना किसी भूत के डर को पैदा करने में सफल थी। बीसवीं सदी में आते-आते हॉरर फिल्म की शैली, विषय, तकनीकी प्रयोग आदि में बदलाव आने लगे। यद्यपि स्त्री पात्रों को वस्तु के रूप में दिखायी गयी थी, फिर भी स्त्री के सशक्त दिखाने की कोशिश भी फिल्मों में देख सकते हैं। ‘कौन?’, ‘पापी गुड़िया’, ‘वो फिर आएगी’ आदि फिल्मों में स्त्री पात्रों को सशक्त करके दिखाने की कोशिश सफल रही है।
हिंदी हॉरर फिल्मों का पुनरुत्थान (2000-2009) -
इक्सवीं शताब्दी का प्रथम दशक हिंदी हॉरर फिल्मों के पुनरुत्थान का दौर था। राम गोपाल वर्मा, विक्रम भट्ट जैसे फिल्मकारों ने ‘कौन?’, ‘राज़’ जैसी फिल्मों की सफलता से नए प्रयोगों का प्रभाव पहचाना और इस रास्ते से चलने लगा। राम गोपाल वर्मा की ‘भूत’(2003), विक्रम भट्ट की ‘राज़’(2002) और ‘1920’(2008) जैसी फिल्मों में शहरी पात्र और आधुनिक परिदृश्य प्रमुख थे। ये फिल्में ऐसे बनाए गए कि दर्शक हॉरर को व्यक्तिगत अनुभव के रूप में देखने लगे। इस दौर ने भय को शहरी परिवेश और आधुनिक मानस से जोड़ा। तकनीकी क्षेत्र में हुए विकास ने हॉरर फिल्म को पुनर्जन्म दिया। इस दौर में साउंड डिजाइन और सिनेमेटोग्राफी ने भय के सौंदर्यशास्त्र को नया परिवेश प्रदान किया। राम गोपाल वर्मा, विक्रम भट्ट जैसे निदेशकों ने अपनी फिल्मों में माइक्रो एक्सप्रेशंस और सस्पेंस पर बल दिया। साउंड डिजाइन और बैकग्राउंड म्यूजिक के ज़रिए मनोवैज्ञानिक भय का निर्माण किया। राम गोपाल वर्मा ने इस दशक में हॉरर को एक नया यथार्थवादी रूप दिया। उनके ’भूत’(2003), ‘फूँक’(2008) ‘डरना मना है’(2003), ‘डरना ज़रूरी है’(2006) आदि फिल्मों से अंधविश्वास और तंत्र-मंत्र के बीच के संघर्ष को दिखाया।
हिंदी हॉरर फ़िल्म : सामाजिक आलोचना का उपकरण(2010-2019) -
2010 वीं से हॉरर केवल डराने का माध्यम नहीं रहा बल्कि समाज, लिंग, और लोकविश्वासों की आलोचना का उपकरण बन गया। तकनीकी प्रगति, वैश्विक प्रभाव, और OTT प्लेटफॉर्म्स के उदय ने इस शैली को कलात्मक और विचारशील रूप दिया। इस दशक में भारतीय फिल्मकारों ने हॉरर को भारतीय लोकविश्वासों, लोककथाओं और पौराणिक प्रतीकों के साथ जोड़ने का प्रयास किया। इसका उदाहरण है ‘तुम्बाड़’, ‘परी’, ‘लुप्त’, ‘भूत’, ‘स्त्री’ आदि फिल्में। ‘तुम्बाड़’(2018) में फिल्म लालच, पौराणिकता और भय का अद्भुत मिश्रण है। “हस्तर” देवता की कथा के माध्यम से फिल्म ने दिखाया कि असली डर मानव की अतृप्त इच्छाओं में छिपा है। ‘परी’(2018) में पारंपरिक भूत प्रेत कहानी के बजाय धार्मिक और सामाजिक प्रतीकों को हॉरर के रूप में इस्तेमाल किया गया। ‘लुप्त’(2018) और ‘भूत’(2020) ने भी आधुनिक शहरी भय और अपराधबोध की थीम को दर्शाया। केवल डराने या अलौकिक घटनाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने समकालीन समाज, राजनीति, और मनोविज्ञान को भी अपने विषयों में शामिल किया। मॉडौक फिल्म्स की ‘स्त्री’(2018) डर और हास्य का मिश्रण थी, जो स्त्री के सामाजिक प्रतिरोध का प्रतीक बन गया। ‘परी’ और ‘बुलबुल’(2020) – दोनों फिल्मों ने ‘चुड़ैल’ जैसी लोककथाओं को नारीवादी दृष्टिकोण से पुनर्भाषित की। इस दौर की फिल्मों में स्त्री शिकार होकर नहीं, बल्कि शक्ति और प्रतिरोध का प्रतीक बनकर सामने आई।
समकालीन प्रवृत्तियाँ और माडॉक फिल्म्स का लोक-हॉरर यूनिवर्स (2020 से अब तक) -
2020 के बाद हिंदी हॉरर सिनेमा ने यूनिवर्स आधारित कथा-परंपरा (shared horror universe) की ओर कदम बढ़ाया। इसमें माडॉक फिल्म्स की भूमिका महत्वपूर्ण है। ‘स्त्री’(2018), ‘रूही’ (2021), ‘भेड़िया’(2022), ‘मुंज्या’(2024), ‘स्त्री 2’(2024) आदि फिल्मों ने इन फिल्मों में लोककथाओं(जैसे चुड़ैल, आत्मा, वेयरवुल्फ) को आधुनिक शहरी परिवेश और सामाजिक संदर्भों से जोड़ दिया। साथ ही, लिंग समानता, पर्यावरण, और नैतिकता के प्रश्नों को भी मनोरंजन के साथ जोड़ा था। माडॉक फिल्म्स ने दिखाया कि डर और हास्य को साथ मिलाकर दर्शकों को सोचने पर मजबूर किया जा सकता है । उनकी फिल्में Indian Folk Horror Universe का आरंभिक रूप माना जा सकता है।
2020 के बाद हॉरर फिल्मों की सिनेमैटिक गुणवत्ता में भारी सुधार हुआ। VFX, डिजिटल साउंड डिजाइन, और लाइटिंग इफेक्ट्स ने डर को अधिक वास्तविक और कलात्मक बनाया। OTT प्लेटफॉर्म्स (Netflix, Amazon Prime, Zee5, Disney+ Hotstar) पर ‘अधूरा’, ‘छोरी’, ‘क्वाला’ जैसी परियोजनाओं ने हॉरर को स्वतंत्र और प्रयोगात्मक रूप दिया। OTT ने नए निर्देशकों, लेखकों और अभिनेताओं को हॉरर के भीतर सामाजिक विमर्श प्रस्तुत करने का अवसर दिया। अब हॉरर केवल भूत या आत्मा की कहानी नहीं रही, बल्कि यह समाज और व्यक्ति के भीतर छिपा हुआ डर का भी चित्रण करती है।
पूरे भारत में विदेशी हॉरर फिल्मों को जितनी स्वीकृति मिली है उतनी भारतीय हॉरर फिल्मों को नहीं मिली है। डॉ. ज्योतिरमाई देब अपने आलेख ‘ए कम्पैरटिव स्टडी ऑफ इंडियन वीवर्स अप्रोच टु हॉरर फिल्म्स ऑफ इंडिया एण्ड हॉलिवुड’ में व्यक्त करते हैं कि “भारत के फिल्म दर्शक भारतीय हॉरर फिल्मों से ज़्यादा हॉलिवुड हॉरर फिल्मों को पसंद करते हैं। इसका कारण यह रहा है कि भारतीय हॉरर फिल्मों की अपेक्षा आर्ट डैरक्शन, साउन्ड, बजट, विषय, मनोवैज्ञानिक प्रभाव आदि की दृष्टि से हॉलिवुड हॉरर फिल्में बहुत आगे हैं।”12 हॉलिवुड और अन्य विदेशी हॉरर फिल्मों की तुलना में आर्ट डैरक्शन, साउन्ड, बजट, विषय, मनोवैज्ञानिक प्रभाव आदि की दृष्टि से हिंदी हॉरर फिल्म आज भी बाल्यावस्था में ही है। ‘स्त्री’, ‘परी’, ‘बुलबुल’, ‘तुंबाड’ जैसी फिल्में,आज हिंदी हॉरर फिल्म को आगे बढ़ाने की कोशिश में बनायी गयी हैं। इस संदर्भ में मैडाक फिल्म्स नामक प्रोडक्शन हाउस की भूमिका भी प्रशंसनीय है। उनके मैडाक सूपर्नैचरल यूनिवर्स में स्त्री (2018), स्त्री 2 (2024), भेड़िया (2022), मुंज्या (2024) आदि हॉरर फिल्मों का निर्माण किया गया है और इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने का सफल प्रयास भी हो रहा है।
निष्कर्ष : हॉरर फिल्मों का उद्देश्य हमारे अवचेतन मन की गहराई में दबे हुए अचेत भय, इच्छा, आग्रह, और आदिम आदर्शों को उजागर करना है। इन फिल्मों का प्रभाव सकारात्मक भी होता है कुछ हद तक नकारात्मक भी लेकिन यह प्रक्रिया हर एक व्यक्ति में अलग हो सकती है । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हॉरर फिल्में देखने से अनिद्रा, घबराहट, उद्वेग, आदि हो सकते हैं । यह सब न होने का भी संभावना है साथ ही साथ हॉरर फिल्म देखने से व्यक्ति के भय और उत्कंठा का विरेचन होकर हमेशा के लिए मिटने का भी संभावना है।
हिंदी हॉरर फिल्मों का अध्ययन यह दर्शाता है कि यह केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है, बल्कि समाज, मानव जीवन और मनोविज्ञान से जुड़े विविध पहलुओं को उजागर करने वाला एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रतीक है। ये फिल्में समाज में व्याप्त भय, अंधविश्वास, नैतिकता और बदलते मूल्यों को दर्शाती हैं। हॉरर फिल्मों की अलग-अलग शैलियाँ(sub-genre) सिर्फ डर, आतंक और रोमांस ही नहीं, बल्कि समाज के यथार्थ को भी सामने लाती हैं। हॉरर फिल्मों के माध्यम से इंसान के अंदर छिपे डर, अकेलेपन, असुरक्षा और मानसिक उलझनों को अभिव्यक्ति मिलती है,साथ ही ये फिल्में पितृसत्तात्मक सोच, उपभोक्तावाद, अमीरी-गरीबी के अंतर और तकनीक के बढ़ते प्रभाव से जुड़ी चिंताओं को भी सामने लाती हैं। इस तरह हॉरर फिल्में केवल डर पैदा नहीं करतीं, बल्कि समाज की वास्तविकताओं और मानवीय संवेदनाओं को गहराई में छूती हैं। हिंदी हॉरर फिल्में मनुष्य की असुरक्षाएँ, अलौकिक ताकतें और जीवन की क्षणभंगुरता आदि के प्रति अपनी प्रतिक्रिया का भी अगाध चित्रण करती हैं। हिंदी हॉरर फिल्मों में अक्सर पारिवारिक संबंधों, धार्मिक आस्थाओं और नैतिक परिणामों को सम्मिलित किये जाते हैं, जिससे दर्शक ज़्यादा प्रभावी बन जाते हैं । हिंदी हॉरर फिल्में केवल सिनेमा का एक हिस्सा ही नहीं हैं, बल्कि यह जीवन, समाज और संस्कृति को समझने का एक सशक्त माध्यम भी है।
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अनसिया टी.
शोध छात्रा, हिंदी विभाग, कालिकट विश्वविद्यालय, मलप्पुरम, केरल 673635
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डॉ. षिबी सी.
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, कालिकट विश्वविद्यालय, मलप्पुरम, केरल 673635
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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली


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