शोध आलेख :पारंपरिक ज्ञान, बौद्धिक संपदा अधिकार और बायोपाइरेसी / मयंक कपिला एवं मनीष कुमार

पारंपरिक ज्ञान, बौद्धिक संपदा अधिकार और बायोपाइरेसी
- मयंक कपिला एवं मनीष कुमार

शोध सार : पारंपरिक ज्ञान एक जीवंत सांस्कृतिक धरोहर है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी, शास्त्रों, मौखिक परंपराओं, अनुभवजन्य ज्ञान और सामाजिक-धार्मिक आचरणों के माध्यम से संरक्षित रही है। आयुर्वेद एवं पारंपरिक चिकित्सा, वास्तुकला, योग, कृषि, वस्त्र-निर्माण, रंगकला और पर्यावरण संरक्षण से संबंधित इन ज्ञान प्रणालियों को आज वैश्विक कॉर्पोरेट संरचनाओं, मसलन, पेटेंट संस्कृति और जैव-चोरी (Biopiracy) के कारण अस्तित्वगत संकट का सामना करना पड़ रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में, बौद्धिक संपदा अधिकार (Intellectual property right) की अवधारणा और भारतीय विधिक प्रणाली की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। यह आलेख पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण एवं संवर्द्धन में विधि की भूमिका का विश्लेषण करता है। विधि व्यवस्था समुदाय-आधारित दृष्टिकोण, लाभ-साझाकरण की पारदर्शी नीतियाँ, और स्थानीय सहभागिता की आवश्यकता पर भी बल देता है। शोध में जैव-विविधता अधिनियम, ट्रेडिशनल नॉलेज डिजिटल लाइब्रेरी (टीकेडीएल), बौद्धिक संपदा अधिकार आदि जैसे मौजूदा ढाँचों की पड़ताल की गई है और वैकल्पिक कानूनी व सामाजिक उपायों की अनुशंसा की गई है, जिससे भारत की पारंपरिक ज्ञान परंपरा को न्यायपूर्ण व टिकाऊ संरक्षण मिल सके।

बीज शब्द : पारंपरिक ज्ञान, बौद्धिक संपदा अधिकार, टीकेडीएल, बायोपाइरेसी, संरक्षण

मूल आलेख :

परिचय: एक सिंहावलोकन -

भारत की साँस्कृतिक और बौद्धिक परंपरा अत्यंत समृद्ध एवं विविधतापूर्ण है, जिसमें पारंपरिक ज्ञान की केंद्रीय भूमिका है। यह ज्ञान केवल तकनीकी या औषधीय जानकारी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें लोक-परंपराएँ, कृषि पद्धतियाँ, पारंपरिक चिकित्सा, जल-संरक्षण, वस्त्र शिल्प, रंगकला, और सामाजिक आचार-विचार जैसी व्यापक सांस्कृतिक संरचनाएँ समाहित हैं (झा, 2009)।1 यह ज्ञान प्रणाली जितनी लिखित उतनी मौखिक भी है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सामुदायिक अनुभवों, रीतियों और लोक विश्वासों और कथाओं के माध्यम से संप्रेषित होती आई हैं। वैश्वीकरण, नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था और वैज्ञानिक पेटेंट व्यवस्था ने इस पारंपरिक ज्ञान को एक बाज़ार का उत्पादन वस्तु में बदल दिया है। आयुर्वेदिक औषधियाँ, योग क्रिया, तकनीकों, और खाद्य वस्तुओं जैसे विषयों पर विदेशी कंपनियों द्वारा पेटेंट करा लेने की घटनाएँ आए दिन न्यूज में रहती हैं, जो संकेत करती हैं कि पारंपरिक ज्ञान वैश्विक बौद्धिक संपदा व्यवस्था के तहत वंचित हो रहा है। इसी सन्दर्भ में, बौद्धिक संपदा अधिकार और भारतीय विधिक ढाँचे की भूमिका अत्यंत प्रासंगिक हो जाती है। भारतीय संविधान में सांस्कृतिक विविधता और सामुदायिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक प्रावधान हैं। साथ ही, जैव-विविधता अधिनियम (2002), पारंपरिक ज्ञान डिजिटल पुस्तकालय (TKDL, 2001), राष्ट्रीय नवाचार फाउंडेशन (NIF), और जीआई (Geographical Indications) अधिनियम जैसे कानूनी उपकरण पारंपरिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण और संरक्षण की दिशा में कार्य कर रहे हैं (चंद्रा, 2010)।2 किंतु इन विधियों में समुदायों की सक्रिय सहभागिता, न्यायसंगत लाभ-साझाकरण, तथा स्थानीय-सांस्कृतिक सन्दर्भों की अनदेखी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, जोकि जमीनी सच्चियों से परे है।

यह आलेख इस बात पर प्रकाश डालता है कि समुदाय आधारित बौद्धिक संपदा अधिकार मॉडल, लाभ-साझाकरण की संहिता, और न्यायिक सक्रियता पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा को कैसे अधिक टिकाऊ और न्यायसंगत बना सकती है। व्यापार, संस्कृति और संचार के वैश्वीकरण के युग में, हम दो क्षेत्रों के बीच एक मेल देख रहे हैं। एक ओर, जैसा कि आज जाना जाता है, बौद्धिक संपदा प्रणाली है, और दूसरी ओर, आनुवंशिक संसाधन, पारंपरिक ज्ञान और लोककथाएँ हैं। अब तक विकसित देशों ने हमेशा विकासशील देशों पर अपनी बौद्धिक संपदा संरक्षण मानदंडों को थोपा है और साथ ही विकासशील देशों पर चोरी को प्रोत्साहित करने या कम से कम इसे रोकने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास न करने का आरोप लगाया है। दिलचस्प बात यह है कि हाल के समय में, विकासशील देशों ने विकसित देशों और उनकी कंपनियों पर पारंपरिक ज्ञान के रूप में अपनी संपत्ति चोरी करने का प्रतिवाद किया है। पारंपरिक ज्ञान और औपचारिक बौद्धिक संपदा अधिकार प्रणाली के साथ इसका संबंध जैविक विविधता के संरक्षण, अंतरराष्ट्रीय व्यापार और बौद्धिक संपदा अधिकारों, जिसमें ट्रिप्स (TRIPS: Trade-Related Aspects of Intellectual Property Rights, 1994) समझौता भी सम्मिलित है, पर अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में एक मुख्यधारा का मुद्दा बन गया है। पारंपरिक ज्ञान की कानूनी सुरक्षा के लिए कई विकासशील देशों ने जैविक विविधता पर सम्मेलन (Convention on Biological Diversiy- CBD, 1992) और विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (WIPO) के अंतर्गत स्थापित अंतर-सरकारी समिति (IGC) जैसे मंचों पर अपनी राय व्यक्त की है। इन देशों ने औपचारिक बौद्धिक संपदा अधिकार प्रणाली की आलोचना की है, जो उनके अनुसार पारंपरिक ज्ञान और लोककथाओं के दुरुपयोग को वैधता प्रदान करती है।

पारंपरिक ज्ञान: अर्थ और विमर्श -

पारंपरिक ज्ञान उस जानकारी और अनुभव का समुच्चय है, जिसे किसी समुदाय ने समय के साथ अपने स्थानीय पर्यावरण, सांस्कृतिक परंपराओं और स्थानीय परिस्थितिकी के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए विकसित हुआ है। यह ज्ञान स्थिर नहीं होता, बल्कि यह लचीला होता है। सामाजिक आवश्यकताओं, प्राकृतिक परिवर्तनों और पीढ़ी दर पीढ़ी अर्जित अनुभवों के साथ निरंतर रूप से विकसित होता रहता है। यह ज्ञान प्रणाली न केवल समुदाय की सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक संरचना को सहेजने में सहायक है, बल्कि समुदाय के अस्तित्व के लिए आवश्यक जैविक एवं आनुवंशिक संसाधनों के संरक्षण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पारंपरिक ज्ञान का भंडार विशेष रूप से उन समुदायों द्वारा विकसित होता है जो ग्रामीण संस्कृति के अत्यंत निकट रहते हैं और उसके साथ सहअस्तित्व की भावना रखते हैं। पारंपरिक ज्ञान, प्रकृति के सानिध्य में रहने वाले लोगों के एक समूह द्वारा पीढ़ियों के माध्यम से निर्मित ज्ञान का भंडार है। इसमें स्थानीय प्रकृति और पारिस्थितिकी से सम्बंधित वर्गीकरण प्रणालियाँ, स्थानीय पर्यावरण के बारे में अनुभवजन्य अवलोकनों का समूह और संसाधनों के उपयोग को नियंत्रित करने वाली स्व-प्रबंधन प्रणालीबद्ध बुद्धिमत्ता शामिल होती है। ब्रुचैक (2014) इस तरह के विमर्श पर लिखते हैं कि:

समय के साथ, दुनिया भर के मूल निवासियों ने विशिष्ट समझ को संरक्षित किया है, जो सांस्कृतिक अनुभव में निहित है, जो विशिष्ट पारिस्थितिक तंत्रों में मानव, गैर-मानव और मानव-से-भिन्न प्राणियों के बीच संबंधों का मार्गदर्शन करती है। ये समझ और संबंध एक ऐसी प्रणाली का निर्माण करते हैं जिसे व्यापक रूप से मूल ज्ञान के रूप में पहचाना जाता है, जिसे पारंपरिक ज्ञान या आदिवासी ज्ञान भी कहा जाता है। मूल निवासियों के स्थानों में खुदाई करने वाले पुरातत्वविद् मूल निवासियों के ज्ञान के भौतिक साक्ष्य (जैसे, कलाकृतियाँ, भूदृश्य परिवर्तन, अनुष्ठान चिह्न, पत्थर की नक्काशी, जीव-जंतु के अवशेष) खोज सकते हैं, लेकिन गैर-मूल निवासियों या गैर-स्थानीय अन्वेषकों के लिए इस साक्ष्य का अर्थ स्पष्ट नहीं हो सकता है (ब्रुचैक 2014, पृ. सं. 3814-3824).3

वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइज़ेशन (डब्ल्यूआईपीओ) अपने बुकलेट ‘इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी एंड जेनेटिक रिसोर्सेज, ट्रेडिशनल नॉलेज एंड ट्रेडिशनल कल्चरल एक्सप्रेशन्स’ (2015) में पारंपरिक ज्ञान पर प्रकाश डाला है। डब्ल्यूआईपीओ (2015) के अनुसार, “पारंपरिक ज्ञान एक जीवंत ज्ञान प्रणाली है, जिसे किसी समुदाय के भीतर पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित, संरक्षित और हस्तांतरित किया जाता है। यह अक्सर उस समुदाय की सांस्कृतिक या आध्यात्मिक पहचान का हिस्सा होता है” (2015, पृ. 13)।4 पारंपरिक ज्ञान को समझने हेतु कुछ बिदुओं को निम्न रूप से डब्ल्यूआईपीओ ने अपने बुकलेट में रखा है, जो इस प्रकार है:

ज्ञान, कौशल, तकनीक, नवाचार या परंपरागत प्रथाएँ, जो पीढ़ियों के बीच स्थानांतरित होती हैं। पारंपरिक संदर्भ में और जो आदिवासी और स्थानीय समुदायों की पारंपरिक जीवनशैली का हिस्सा होती हैं, जो इसके संरक्षक या अभिरक्षक के रूप में कार्य करते हैं (2015, पृ. 13)।5

पारंपरिक ज्ञान का क्षेत्र बहुत बड़ा है। उदाहरणस्वरूप कृषि, पर्यावरण और औषधीय ज्ञान से संबंधित क्षेत्र शामिल हो सकते हैं, या आनुवंशिक संसाधनों (Genetic Resource) से जुड़ा हुआ हो सकता है। पारंपरिक ज्ञान के उदाहरणों में से कुछ इस तरह हैं- पारंपरिक औषधियों के बारे में ज्ञान, मौसम से संबंधित ज्ञान, पारंपरिक शिकार या मछली पकड़ने की तकनीकें, कृषि से संबंधित ज्ञान, पशुओं से संबंधित ज्ञान, जल प्रबंधन के बारे में पारंपरिक जानकारी और बहुत से अन्य शामिल हैं। पारंपरिक ज्ञान को ग्रेगरी काजेटे ज्ञान संरचना की ‘मूलवासी विज्ञान’ (Native Science) के रूप में पहचानते हैं:

मूलवासी विज्ञान मानव अनुभव की वह सामूहिक विरासत है जो प्रकृति के साथ संबंधों से उत्पन्न हुई है; अपने सबसे मौलिक रूप में, यह प्राकृतिक यथार्थ का एक ऐसा मानचित्र है जो हज़ारों पीढ़ियों के अनुभव से तैयार हुआ है। इसी से मानव प्रौद्योगिकियों की विविधता उत्पन्न हुई है। गहराई से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि मूलवासी विज्ञान आधुनिक विज्ञान को 'समाविष्ट' करता है, हालांकि अधिकांश पाश्चात्य वैज्ञानिक इस समावेशन को स्वीकार करने से भरसक इनकार करेंगे” (काजेटे 2000, पृ. 3)।6

पारंपरिक ज्ञान, एक सतत् प्रणाली के रूप में, उन्नत दार्शनिक अवधारणाओं और व्यावहारिक उपायों को समावेश करता है, जिनका उद्देश्य सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना और पूर्वजों के भूदृश्य व जीवनशैली की रक्षा करना होता है। कुछ पुरातात्विक साक्ष्य यह संकेत देते हैं कि वर्तमान समय के आदिवासी समुदायों ने ऐसी परंपराओं और प्रथाओं को बनाए रखा है, जो प्लाइस्टोसीन युग (हिमयुग) तक की अवधि से चली आ रही हैं। पारंपरिक ज्ञान को ज्ञान, विश्वास और परंपराओं के एक ऐसे नेटवर्क के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसका उद्देश्य समय के साथ संस्कृति और भूदृश्य के साथ आदिवासी संबंधों को संरक्षित करना, संप्रेषित करना और उनके संदर्भ को स्पष्ट करना होता है। कोई व्यक्ति "ज्ञान" को तथ्यों के रूप में, "विश्वास" को धार्मिक अवधारणाओं के रूप में, और परंपरा को "व्यवहार या क्रियान्वयन" के रूप में भेद कर सकता है, लेकिन इन शब्दों का उपयोग अक्सर अस्पष्ट रूप से और एक-दूसरे के स्थान पर आदिवासी ज्ञान प्रणालियों को व्यक्त करने के लिए किया जाता है । भारत में ट्रेडिशनल नॉलेज (प्रोटेक्शन एंड रेगुलेशन ऑफ एक्सेस) बिल ऑफ इंडिया 2009 की कोर कमेटी ने पारंपरिक ज्ञान की एक विस्तृत और समग्र परिभाषा दी है। इसके अनुसार, “पारंपरिक ज्ञान का आशय किसी परंपरागत समुदाय या परिवार के सामूहिक ज्ञान से है, जो किसी विशेष विषय या कौशल से संबंधित होता है और जो कम से कम तीन पीढ़ियों तक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होता आया है। इसमें निम्न तक सीमित न रहते हुए अन्य पहलू भी शामिल हैं:

  1. यह ज्ञान परंपरागत समुदायों की सांस्कृतिक वस्तुओं और प्रथाओं जैसे कि बुनाई के डिज़ाइन, मिट्टी के बर्तन बनाना, चित्रकला, कविता, लोककथाएँ, संगीत आदि को सम्मिलित करता है, परंतु इन्हीं तक सीमित नहीं है।
  2. पारंपरिक समुदायों द्वारा खोजी, चयनित, संवर्धित, पालतू बनाई गई, विकसित या संरक्षित आनुवंशिक सामग्री, भले ही उनका उपयोग नई पौधों की किस्मों या पशु नस्लों के विकास में किया गया हो या किया जा सकता हो या जिनका अन्य संभावित उपयोगों के लिए उपयोग किया जा सकता हो।
  3. स्वदेशी या पारंपरिक सामग्री, रीति-रिवाजों और ज्ञान से विकसित कृषि पद्धतियां और उपकरण।
  4. पारंपरिक समुदायों द्वारा स्वदेशी या पारंपरिक सामग्री, रीति-रिवाजों और ज्ञान से विकसित औषधीय उत्पाद और प्रक्रियाएं।
  5. अन्य सभी उत्पाद या प्रक्रियाएं जो एक व्यक्ति द्वारा नहीं बनाई गई हैं और जिनकी खोज सामुदायिक प्रक्रिया के माध्यम से की गई है, या जब नवाचार करने वाला व्यक्ति ज्ञान को अपना नहीं मानता है या जब व्यक्ति ने इसे सामान्य उद्देश्यों के लिए खुले तौर पर उपयोग करने के लिए खोजा है।
  6. यह समुदायों द्वारा की गई खोजों, नवाचारों और प्रौद्योगिकियों का विवरण है, जिन्हें आमतौर पर लिखित रूप में दर्ज नहीं किया जाता है, और पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से प्रसारित किया जाता है।7
बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) -

अधिकांश विद्वानों और यहाँ तक की आमजनों के बीच बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) को प्रायः एक कानूनी मुद्दे के रूप में ही देखा गया है, या कहें कि इसे प्रारंभ से ही इसी रूप में प्रस्तुत किया गया है (चंद्रा, 2010, भूमिका, पृ. XIII)। इसे नैतिक चिंता के प्रश्न के रूप में न तो व्यापक रूप से समझा गया और न ही प्रस्तुत किया गया। बौद्धिक संपदा अधिकारों को जटिल कानूनी संबंधों के ढाँचे में रखा गया, जो समाज में नवाचार और वैकल्पिक ज्ञान-उत्पादन की प्रक्रियाओं के विस्तार एवं सुव्यवस्था की अनुमति देते हैं (चंद्रा, 2010, भूमिका, पृ. XIII)।8 इसी बात को चंद्रा (2010) लिखते हैं कि:

हालाँकि, अधिकांश कानूनी मुद्दों की तरह बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) भी न्यायसंगत दावों और अधिकारों से जुड़े होते हैं। चाहे अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सामाजिक समानता, सांस्कृतिक स्वायत्तता और सामूहिक भिन्नताओं के दावे के रूप में मौजूद हों, या प्रोत्साहन के रूप में, वे अनिवार्य रूप से मानदंड संबंधी (नैतिक) मुद्दों से जुड़े होते हैं। इसमें हमेशा नैतिकता का प्रश्न शामिल होता है। चाहे वह जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति से संबंधित हो या समानता और मानवाधिकारों से। इसी कारण यह कार्य अपना उद्देश्य आईपीआर के नैतिक आधारों के अध्ययन को मानता है (भूमिका, पृ. XIII)।9

उदाहरणस्वरूप, भारत सहित विश्वभर में किसानों ने पीढ़ियों से क्रॉस-ब्रीडिंग (संकरण) के माध्यम से खाद्य फसलों की अनेक किस्में विकसित की हैं। हाल तक कई देशों, जिनमें भारत भी है, में पौधों और पौधों की किस्मों को पेटेंट नहीं किया जा सकता था। किंतु अब वह स्थिति नहीं रही। यूरोपीय संघ में पेटेंट कानून का विस्तार सूक्ष्मजीवों तथा पौधों, पशुओं और मनुष्यों के जीन तक कर दिया गया है। केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में ही 1985 से अब तक 11,000 पौधों पर पेटेंट दर्ज किए जा चुके हैं। भारत में भी सरकार ने 2001 में पौध किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण अधिनियम (Protection of Plant Varieties and Farmers’ Rights Act, 2001) लागू किया, ताकि शोधकर्ताओं और पादप प्रजनकों द्वारा विकसित पौध किस्मों का संरक्षण हो सके (बाला, 2004)।10 परिणामस्वरूप बहुराष्ट्रीय कंपनियों में खाद्य फसलों के सर्वोत्तम जीनों को पहचानने और उन्हें डिकोड कर पेटेंट कराने की होड़ मच गई है। किंतु विडंबना यह है कि जिन किसानों ने वास्तव में खाद्यान्न फसलें विकसित की हैं, उनके पास उन किस्मों पर कोई प्रभावी अधिकार नहीं रह जाएगा जिन्हें अंतरराष्ट्रीय कंपनियाँ पेटेंट करा लेंगी (बाला, 2004)।11

बायोपाइरेसी: पारंपरिक ज्ञान की अनाधिकृत उपयोग की क्रिया -

बायोपाइरेसी अवधारणा एक ऐसी घटना को नाम देने के लिए चुना गया था जो नई नहीं है, लेकिन उपनिवेशवाद, पूँजीवाद और हाल ही में उभरी वैश्वीकरण के तहत उपजी है। इसे नाम देकर, विद्वानों ने लोगों और संसाधनों के शोषण के एक ऐसे रूप को चुनौती दी है, जो अब सांस्कृतिक और पर्यावरणीय स्थिरता दोनों के लिए खतरा बन बैठा है (म्गेबोजी, 2006, 12-13)।12 बायोपाइरेसी उन गतिविधियों की वैधता के लिए एक सीधी चुनौती है, जो समकालीन वैश्विक पूंजीवाद की मुख्यधारा में प्रवेश कर चुकी हैं। बायोपाइरेसी एक ऐसी क्रिया है, जिसमें जैविक संसाधनों से जुड़ी स्थानीय पारंपरिक ज्ञान का अनाधिकृत उपयोग है, जो अक्सर विकसित देशों के निगमों, बड़ी मल्टी नैशनल कंपनी या व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। इसमें पारंपरिक ज्ञान या जैविक संसाधनों को विकसित करने वाले समुदायों की अनुमति या मुआवज़े के बिना पेटेंट करना और समुदायों के साथ लाभ साझा किए बिना वाणिज्यिक लाभ के लिए स्वदेशी ज्ञान और संसाधनों का दोहन करना शामिल होता है (म्गेबोजी, 2006, 13)।13 वर्तमान समय में खासकर भारत जैसे सांकृतिक रूप से समृद्ध देश के लिए बायोपाइरेसी बौद्धिक संपदा अधिकारों, जैव विविधता संरक्षण और स्वदेशी समुदायों के अधिकारों के बारे में चिंताएँ पैदा करती है। यह एक जटिल मुद्दा है, जिसके लिए विधिक निहितार्थों पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता आन पड़ी है। म्गेबोजी (2006) बायोपाइरेसी की राजनीति पर लिखते हैं कि:

वैश्विक बायोपाइरेसी यह तर्क प्रस्तुत करता है कि पेटेंट प्रणाली और अंतरराष्ट्रीय कानून की यूरोकेन्द्रित प्रकृति, पाश्चात्य ज्ञानमीमांसा (एपिस्टेमोलॉजी) में निहित सांस्कृतिक और लैंगिक पक्षपात, तथा पेटेंट प्रणाली की व्यावसायिक प्रवृत्ति- ये सभी तत्व पौधों और पारंपरिक ज्ञान एवं उपयोग की पद्धतियों (टीकेयूपी) के हड़पने और निजीकरण में सह-अपराधी हैं। दूसरे शब्दों में, पौधों और पारंपरिक ज्ञान एवं उपयोग की पद्धतियों के अधिग्रहण की यह प्रक्रिया, जिसे बायोपाइरेसी कहा जाता है। यह एक ऐसे सांस्कृतिक वातावरण में पनपती है, जहाँ गैर-पाश्चात्य ज्ञान प्रणालियों को व्यवस्थित रूप से हाशिए पर डाला जाता है और उन्हें "लोक ज्ञान" कहकर अवमूल्यित किया जाता है, तथा केवल मानवशास्त्रीय जिज्ञासा की वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है (म्गेबोजी, 2006, भूमिका में)। 14

जैव-विविधता संबंधी पारंपरिक ज्ञान के कानूनी संरक्षण विशेष रूप से बौद्धिक संपदा अधिकार को लेकर अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर बहस लगभग दो दशक पूर्व ही प्रारंभ हो चुकी थी। बासमती, नीम और अयाहुस्का जैसे मामलों में बायोपाइरेसी के कुख्यात उदाहरणों ने वैश्विक स्तर पर विशेष रूप से विकासशील देशों का ध्यान आकृष्ट किया। इन घटनाओं ने यह स्पष्ट किया कि पारंपरिक ज्ञान को बौद्धिक संपदा के अंतर्गत संरक्षण देना अति आवश्यक है, जिससे इसके दुरुपयोग और अनुचित स्वामित्व अधिकारों को रोका जा सके। इस संदर्भ में विकासशील देशों ने सक्रिय भूमिका निभाते हुए ट्रिप्स (बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार-संबंधित पहलुओं की परिषद), जैविक विविधता पर आधारित कन्वेंशन, विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (WIPO), खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस मुद्दे को प्राथमिकता के साथ उठाया गया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ठोस नीतिगत कार्रवाई की मांग करने के अतिरिक्त, अनेक देशों ने अपने राष्ट्रीय कानूनों में संशोधन किए तथा स्थानीय एवं आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान को मान्यता और संरक्षण देने हेतु सुई जेनेरिस (विशेष विधिक) व्यवस्थाओं का विकास भी किया। ये व्यवस्थाएँ इस उद्देश्य से तैयार की गईं कि पारंपरिक ज्ञान, जो पीढ़ियों से लोक समुदायों में विकसित होता रहा है, उसे समुचित अधिकार और न्यायिक संरक्षण प्राप्त हो सके।

बायोपाइरेसी को रोकने के भारतीय उपक्रम: संरक्षण और संवर्द्धन की दृष्टि -

हाल के वर्षों में जैव-उत्पादों की बढ़ती माँग और खपत के कारण, जैव संसाधनों से जुड़े पारंपरिक ज्ञान का व्यावसायीकरण पूरी दुनिया में बहुत तेज़ी से हो रहा है। इससे जैव-उत्पादक समुदायों की आजीविका पर सीधा प्रभाव पड़ा है और जैव विविधता को भी गंभीर क्षति हुआ है। इसलिए, जैव-उत्पादों और जैव-उत्पादों के संरक्षण की आवश्यकता उठी है और यह एक अंतर्राष्ट्रीय बहस का विषय बन गया है (डब्ल्यूएचओ, 2002)।15 पिछले कुछ दशकों में पारंपरिक चिकित्सा ( आयुर्वेद, हर्बल, यूनानी और अन्य देशज चिकित्सा पद्धति) की मांग विश्वभर में तेजी से बढ़ी है। विकासशील देशों की 80% से अधिक जनसंख्या अपनी स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं के लिए पारंपरिक चिकित्सा पर निर्भर है (झांग, 2001)।16 एक अध्ययन से पता चलता है कि विकसित देशों में भी एक बड़ी संख्या में लोगों ने कम से कम एक बार पारंपरिक चिकित्सा का उपयोग किया है। उदाहरणस्वरूप, अमेरिका में 50%, फ्रांस में 75% और यूनाइटेड किंगडम में 90% लोग। पारंपरिक चिकित्सा पर खर्च की मात्रा भी लगातार बढ़ रही है (साहे, 2000 )।17 वहीं, झांग (2001) के शोध रिपोर्ट से पता चलता है कि:

अमेरिका में पूरक एवं वैकल्पिक चिकित्सा पर निजी खर्च लगभग 27 अरब अमेरिकी डॉलर आंका गया है। ऑस्ट्रेलिया में हर वर्ष लगभग 800 मिलियन ऑस्ट्रेलियाई डॉलर खर्च किए जाते हैं और यूनाइटेड किंगडम में यह आंकड़ा 500 मिलियन पाउंड तक पहुंच चुका है। हर्बल औषधियों, जिनमें हर्बल उत्पाद एवं कच्चे पदार्थ शामिल हैं, का वैश्विक बाज़ार लगभग 43 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है, जिसमें वार्षिक वृद्धि दर 5 से 15 प्रतिशत के बीच है (झांग, 2001, पृ. 6)। 18

ऑल इंडिया कोऑर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट ऑन एथ्नोबॉटनी के अनुसार, “देश की पारंपरिक और आदिवासी समुदायों को 9000 से अधिक पौधों की प्रजातियों के उपयोग की जानकारी है, जिनमें से लगभग 7500 प्रजातियों का वे औषधीय उपचार के लिए उपयोग करते हैं। हर्बल उत्पादों का वैश्विक बाज़ार, जिसमें औषधियों से लेकर स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ, सौंदर्य प्रसाधन, टॉयलेटरीज़ और पारंपरिक-जातीय उत्पाद शामिल हैं, वर्ष 2020 तक लगभग 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने का अनुमान लगाया गया था।19 परंपरागत ज्ञान की सुरक्षा और जैविक संसाधनों के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर जो भी विधिक नियमावलियाँ बनाई जा रही हैं, वे जैव विविधता सम्मेलन, 1992 के कार्यान्वयन से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर केंद्रित हैं। भारत, जो इस सम्मेलन का एक पक्षकार रहा है, इसे लागू करने वाला पहला देश है, जिसने 2002 में जैव विविधता अधिनियम (Biological Diversity Act) को लागू किया और इसके तहत एक त्रिस्तरीय संस्थागत तंत्र की स्थापना की गई। हालांकि, इस अधिनियम में अब भी कुछ कार्यान्वयन संबंधी मुद्दों जैसे लाभों के साझा करने (benefit sharing) के प्रश्न पर और अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है। फिर भी, भारत में पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करने में ये प्रभावशाली रहे हैं। उक्त को ही ध्यान में रखकर भारत में कुछ और महत्वपूर्ण उपक्रमों को भी बनाया गया है।

भारत की पारंपरिक ज्ञान डिजिटल लाइब्रेरी (TKDL), 2001 बायोपाइरेसी के खिलाफ एक विधिक तंत्र है। पारंपरिक ज्ञान डिजिटल पुस्तकालय (टीकेडीएल) के निर्माण के माध्यम से भारत पारंपरिक ज्ञान के दुरुपयोग को दूर करने में वैश्विक रूप से अग्रणी रहा है। टीकेडीएल वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) और आयुष मंत्रालय द्वारा विकसित एक अभूतपूर्व पहल है। यह भारत के पारंपरिक औषधीय ज्ञान के अनाधिकृत पेटेंट को रोकने के लिए एक रक्षात्मक कानूनी तंत्र के रूप में कार्य करता है, जिसे अक्सर आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध और योग जैसे प्राचीन ग्रंथों में प्रलेखित किया जाता है। टीकेडीएल का मुख्य कार्य पारंपरिक औषधीय निरूपण का कई अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में डिजिटलीकरण और अनुवाद करना और उन्हें दुनिया भर के पेटेंट कार्यालयों के लिए सुलभ बनाना है। यह पेटेंट परीक्षकों को दावों को सत्यापित करने और पूर्व कला के आधार पर आवेदनों को अस्वीकार करने में सहायक होता है, जिससे जैव-चोरी को रोका जा सकता है।

यह दृष्टिकोण रक्षात्मक सुरक्षा (पूर्व उपयोग साबित करके अवैध बौद्धिक संपदा अधिकार दावों को रोकने) और सकारात्मक सुरक्षा (समुदायों के लिए अपने ज्ञान को नियंत्रित करने और व्यावसायीकरण करने के लिए नए कानूनी अधिकारों का निर्माण) के बीच अंतर को दर्शाता है। जबकि टीकेडीएल रक्षात्मक सुरक्षा में उत्कृष्ट है, भारत में अभी भी सकारात्मक सुरक्षा के लिए एक पूरी तरह से महसूस की गई प्रणाली का अभाव है जो समुदायों को सुई जेनरिस कानूनी शासनों के तहत अपने ज्ञान के वाणिज्यिक उपयोग से सीधे लाभ उठाने की अनुमति देगा।

निष्कर्ष : यह बात विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि बौद्धिक संपदा अधिकार की मौजूदा व्यवस्था पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा सुनिश्चित करती है। इसके विपरीत, यह प्रणाली उन स्थितियों में पारंपरिक ज्ञान के संभावित शोषण को रोकने में सफल रही है जब इस ज्ञान का उपयोग नई खोजों और आविष्कारों में किया गया, जबकि उस ज्ञान के मूल धारकों को उसके व्यावसायिक उपयोग से कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं मिला। यद्यपि जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र और ट्रिप्स समझौते जैसे अंतरराष्ट्रीय तंत्र मौजूद हैं, लेकिन ये स्वदेशी समुदायों को उनके पारंपरिक संसाधनों और ज्ञान पर पूर्ण अधिकार या सुरक्षा नहीं प्रदान करते। यही कारण है कि अब अनेक समुदायों को अपने पारंपरिक ज्ञान और संसाधनों को व्यवस्थित ढंग से दस्तावेज़ित करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है, ताकि भविष्य में उनके ज्ञान के अनुचित दोहन को रोका जा सके और यदि शोध अथवा व्यवसायिक उपयोग की स्थिति उत्पन्न हो तो लाभ-साझाकरण की संभावनाओं को सुनिश्चित किया जा सके। इसके साथ ही, समुदाय यह भी मानते हैं कि पारंपरिक ज्ञान का लेखा-जोखा भविष्य की पीढ़ियों के लिए सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत के संरक्षण का माध्यम बन सकता है। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न देशों में राष्ट्रीय/राज्य सरकारों, निजी संगठनों और गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा इस दिशा में अनेक योजनाएँ और परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं।

संदर्भ :
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मयंक कपिला
सहायक प्राध्यापक (विधि), मुंशी सिंह महाविद्यालय, मोतिहारी, बी. आर. ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुज़फ्फ़रपुर

मनीष कुमार
शोधार्थी, समाजशास्त्र विभाग, केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार 

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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