- विमल कुमार लहरी
शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख उत्तर प्रदेश की थारू जनजातियों की उपशाखाओं पर आधारित है जिसमें इनके बीच निरन्तरता एवं परिवर्तन को देखने का प्रयास किया गया है। थारू समुदाय की जितनी उपशाखाएँ हैं उनकी विवेचना एक शोध आलेख में सम्भव नहीं है। यद्यपि अधिसंख्य उपशाखाओं को सम्मिलित करने का प्रयास किया गया है। उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, खासतौर से लखीमपुर खीरी, बहराईच, पीलीभीत सहित कुछ अन्य जिलों में भी यह समुदाय निवासरत है जो विभिन्न उपशाखाओं का एक संकुल है। इन उपसमूहों के रीति-रिवाज, जीवनशैली, सामाजिक संरचना, धार्मिक विश्वास एवं पूजा-पद्धति में विविधता होने के बावजूद भी इनके बीच एक सांस्कृतिक आधार का मंच दृष्टिगोचर होता है। थारू समुदाय की इन उपशाखाओं का जीवन कृषि, वनोत्पाद एवं पशुपालन आधारित सामुदायिक जीवनशैली आदि पर आधारित है। इनकी भाषा, त्योहार, गीत-संगीत, नृत्य, वस्त्र, आभूषण के रूप में एक समृद्ध विरासत है। यद्यपि बदलते समय के साथ आज इनकी जीवन शैली में भी परिवर्तन परिलक्षित होता है। शिक्षा, सरकारी योजनाएँ, शहरीकरण सहित संचार के साधन की पहुँच ने इनकी जीवनशैली तथा उससे जुड़े विविध पक्षों को प्रभावित किया है। आज थारू युवाओं का रुझान परम्परागत जीवन से इतर शिक्षा के प्रति काफी बढ़ा है। महिलाओं की प्रस्थिति एवं भूमिका में बदलाव आया है।
मुख्य शब्द: धार्मिक विश्वास, सांस्कृतिक संकुल, गुणात्मक पद्धति, अंतःक्रियावाद, संस्कृतीकरण, मिश्रित संस्कृति, सांस्कृतिक संक्रमण, विचलन, अनुकूलन, विस्थापन ।
मूल आलेख :
सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य
थारू जनजाति की उत्पत्ति एवं देश के विभिन्न भागों में उनके विस्तार विषयक अनेक मत प्राप्त होते हैं। थारुओं में मौजूद वृद्धों एवं अनुभवी लोकजन के अनुसार वे राजस्थान के थार क्षेत्र से ही सभी जगह गए और बस गए, किन्तु इस मत को हिमालय के तराई क्षेत्र में बसे बौद्धिक रूप से जागरूक थारू नहीं स्वीकारते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि उनके पूर्वज चित्तौड़ से पृथ्वीराज चौहान के साथ भाग कर जंगलों में बसे थे, फिर कालान्तर में धीरे-धीरे पूर्वी क्षेत्रों में आकर बस गए. मातृका प्रसाद कोइराला के अनुसार शब्दगत आधार पर थारू शब्द की व्युत्पत्ति 'स्थविर' शब्द से हुई है क्योंकि थारुओं में इसका उच्चारण थोर/थारू ही होता है। मान्यता ऐसी भी है कि बुद्ध की मृत्यु के बाद धम्म संघ दो शाखाओं में विभाजित हो गया था, महासंघवादी एवं स्थविरवादी। जिनमें से गौतम बुद्ध के वंशज शाक्यों ने स्थविरवाद को स्वीकार कर लिया जिन्हें कालांतर में स्थविरवादी थारू कहा जाने लगा। इस मत की पुष्टि जनकलाल शर्मा एवं धर्मराज थापा भी करते हैं और थारूओं को शाक्यों का अवशेष मानते हैं जिनमें वे स्थविरवादी परम्परा के तत्त्व प्रचलित पाते हैं। वर्तमान में भी थारूओं में गौतम बुद्ध को थारू बालक मानने वालों की संख्या बहुतायत में है जिससे उपर्युक्त मत की पुष्टि होती है। प्रोफेसर एस. के. श्रीवास्तव का मानना है कि- थारु एक मिश्रित मंगोल जाति है जो राजपूत और नेपालियों के अंतर्जातीय विवाहों की उत्पत्ति कही जाती है (श्रीवास्तव, 2010)। यद्यपि एस. के. श्रीवास्तव के इस तथ्य पर भी भ्रांति बनी हुई है। थारू जनजाति की उपशाखाओं में निरंतरता एवं परिवर्तन को स्पष्ट करने कुछ समाजशास्त्रीय सहित मानवशास्त्रीय चिंतन में विभिन्न सिद्धांतों को दृष्टिगत किया जा सकता है जिसमें (मालिनोवस्की, 1944) के प्रकार्यात्मक सिद्धांत को देखें तो यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि समाज के प्रत्येक संस्थान की एक विशिष्ट सामाजिक कार्यवाही होती है जो सामाजिक संरचना की स्थिरता बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। यदि हम इस पक्ष का मूल्यांकन थारू समुदाय के बीच करें तो इस समुदाय में राणा थारू और डांगरिया थारू जैसी उपशाखाएँ वर्तमान समय में भी अपनी पारंपरिक भूमिका, धार्मिक विश्वास सहित सामाजिक संरचना को बनाए रखे हुए हैं जो उनके सामाजिक संतुलन का आधार है। मानव समाज के बीच परिवर्तन के विश्लेषण के संदर्भ में एंथनी गिडेंस (गिडेन्स, 1984) का संरचनाकरण सिद्धांत (स्ट्रक्चुरेशन थ्योरी) महत्त्वपूर्ण है जो यह स्थापित करता है कि सामाजिक संरचनाएँ न तो पूरी तरह स्थिर होती हैं और न ही पूरी तरह गतिशील, अपितु मानव क्रिया और सामाजिक संस्थाओं के बीच सतत संवाद के माध्यम से बदलती रहती हैं। आज थारू समुदाय की उपशाखाओं के बीच शिक्षा, राजनीतिक सशक्तीकरण सहित बाह्य संपर्क के प्रभावस्वरूप सामाजिक गतिशीलता और सांस्कृतिक परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।
पुस्तक समीक्षा
विद्यार्थी, एल.पी. एवं राय, बी.के. (1977) 'द ट्राईबल कल्चर ऑफ इंडिया' की पुस्तक भारतीय जनजातीय जीवन के विविध पक्षों पर ध्यान आकर्षित करती है। साथ ही यह पुस्तक थारू जनजाति की उपशाखाओं जैसे राणा, ढिमरिया, महतो एवं चौधरी थारू के सामाजिक-धार्मिक अंतर को भी विश्लेषित करती है।
सिंह, के.एस. (1993). 'द शिड्यूल ट्राइब्स' की यह संपादित पुस्तक भारतीय अनुसूचित जनजातियों को लेकर एक महत्त्वपूर्ण एवं बृहद दस्तावेज है। यह पुस्तक जनजातियों की भाषा, वेशभूषा और रीति-रिवाजों का तुलनात्मक अध्ययन सहित जीवनशैली और ढिमरिया थारू की समतल कृषि पर निर्भरता सहित सामाजिक परिवर्तन की पड़ताल करती है।
खाखा, वर्जीनियस. (1999) का 'ट्राइब्स एज इंडिजेनस पीपुल ऑफ इंडिया' शीर्षक आधारित शोधपत्र आदिवासियों की पहचान, राजनीतिक पुनरुत्थान और सांस्कृतिक आत्म-परिभाषा पर आधारित है। लेखक के अनुसार जनजातीय समुदाय अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को बनाये रखने हेतु विभिन्न प्रतीकों, मिथकों सहित सांस्कृतिक प्रथाओं को आधार बनाता है।
एस. के. श्रीवास्तव (2011) की पुस्तक ‘द थारुज-ए स्टडी इन कल्चरल डायनामिक्स’ थारू समुदाय का एक व्यापक नृवंशविज्ञान अध्ययन है। यह अध्ययन अच्छी गुणवत्ता के दो साल के मूल क्षेत्र कार्य पर आधारित है और मानवशास्त्रीय ज्ञान में एक सराहनीय वृद्धि का प्रतिनिधित्व करता है। लेखक ने थारू संस्कृति के मुख्य पहलुओं की पड़ताल की है।
राकेश प्रवीर9 (2004) की पुस्तक ‘थारू जनजाति’ कुल 9 अध्यायों में विभक्त है। यह पुस्तक थारू जनजाति की उत्पत्ति एवं विकास से लेकर उनकी उपशाखाओं,पर्व, उत्सव, त्योहार, देवी-देवता आदि की गहन विवेचना करती है।
शोध उद्देश्य
इस शोध आलेख के उद्देश्यों के अंतर्गत थारू जनजाति की उत्पत्ति, ऐतिहासिक विकास की समाजशास्त्रीय समीक्षा सहित उनके भौगोलिक विस्तार के साथ-साथ उपशाखाओं की तथ्यपरक एवं तुलनात्मक जानकारी एकत्र करना, जिनमें उनके रीति-रिवाज, परंपराएँ, भाषा, और भौगोलिक वितरण सम्मिलित हों। इसके साथ-साथ उपशाखाओं की सामूहिक पहचान की पहचान करना, जो उनकी सामूहिक पहचान, धार्मिक विश्वासों एवं पारंपरिक जीवन पद्धति में विद्यमान हैं। साथ ही साथ थारू जनजाति की उपशाखाओं में समय के साथ उत्पन्न सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिवर्तनों सहित निरंतरता की पड़ताल करना है।
अनुसंधान पद्धति
प्रस्तुत शोध आलेख गुणात्मक पद्धति एवं मात्रात्मक पद्धति पर आधारित है जिसके अंतर्गत थारू जनजाति एवं इनकी उपशाखाओं के विभिन्न पहलुओं का गहन समाजशास्त्रीय एवं तथ्यपरक रूप में विश्लेषण किया गया है। प्राथमिक तथ्यों की प्राप्ति हेतु थारू समुदाय से साक्षत्कार लिए गए हैं एवं अध्ययन के लिए द्वितीयक स्रोतों यथा प्रासंगिक पुस्तकों, प्रकाशित शोध-पत्रों, सरकारी रिपोर्टों, जनगणना डेटा के साथ-साथ प्रामाणिक ऑनलाइन स्रोतों उपयोग किया गया है। इस शोध में सामग्री विश्लेषण पद्धति का उपयोग किया गया जो पाठ्य सामग्रियों के व्यवस्थित अध्ययन एवं व्याख्या की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है।
थारु जनजाति की उपशाखाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन
थारु जनजाति भारत के उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और नेपाल के तराई क्षेत्र में निवास करने वाली एक प्रमुख जनजातीय समुदाय है। थारु जनजाति की अपनी विविध सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक विशेषताओं के कारण एक अलग पहचान रखती है जो इनकी विभिन्न उपशाखाओं के रूप में प्रकट होती है। ये उपशाखाएँ न केवल सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का आधार हैं बल्कि इनके माध्यम से समय के साथ होने वाले परिवर्तन और निरंतरता को भी समझा जा सकता है। थारुओं की कुल 32 उपजातियाँ हैं। जिनकी पहचान उनके बोली, रीति-रिवाज, पारंपरिक पहनावे, विवाह प्रणाली, देवी-देवताओं की पूजा पद्धति एवं सामाजिक संगठन के आधार पर की जाती है। इन उपशाखाओं के बीच माघी, हरियाली, आसाढ़ी पूजा और जनेऊ संस्कार सहित लोकगीत, पारंपरिक नृत्य और जातिगत पंचायत की प्रणाली में आज भी निरंतरता देखी जा सकती है। इनके रहन-सहन, खाद्य संस्कृति और लोक-चिकित्सा प्रणाली में भी परंपरागत तत्व जीवित हैं। यद्यपि परिवर्तन की प्रक्रिया भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिक्षा, संचार के साधनों की उपलब्धता, शहरीकरण और सरकारी विकास योजनाओं के प्रभाव से थारू उपशाखाओं में सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन भी हो रहे हैं। अब थारुओं की अनेक उपशाखाएँ मुख्यधारा की संस्कृति के साथ घुल-मिल रही हैं। युवाओं में आधुनिक पहनावे, मोबाइल उपयोग, और पारंपरिक कृषि के स्थान पर वैकल्पिक रोजगार की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसके साथ-साथ विवाह में गोत्र और उपशाखा की कठोर सीमाएँ शिथिल हो रही हैं। धार्मिक विश्वासों में भी परिवर्तन आया है। फिर भी अधिकांश थारू उपशाखाएँ आज भी अपनी पारंपरिक पहचान को संरक्षित रखने का प्रयास कर रही हैं। इस तरह थारु जनजाति की उपशाखाएँ एक ओर अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं को संरक्षित कर रही हैं वहीं दूसरी ओर आधुनिकता की चुनौतियों और अवसरों के साथ सामंजस्य बैठाने की दिशा में भी आगे बढ़ रही हैं। अस्तु, इन्हीं पक्षों का तथ्यपरक विश्लेषण यहाँ पर प्रस्तुत किया गया है:
चिनौतियाँ
चिनौतियाँ थारू अपने को चित्तौड़ के वंशज के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी उत्पत्ति को समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह केवल भौगोलिक या ऐतिहासिक घटना ही नहीं है, अपितु इसे सामाजिक रूपान्तरण के परिणाम के रूप में भी देखा जा सकता है। समाजशास्त्र में घटनाओं एवं किसी समुदाय की उत्पत्ति या विकास को उसकी सामाजिक संरचना एवं उसमें हो रहे परिवर्तन के माध्यम से समझा जा सकता है। चिनौतियाँ थारू, थारू समुदाय की एक उपशाखा है जिसकी उत्पत्ति नेपाल सहित उत्तर भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों से है। रॉबर्ट रेडफिल्ड (1956) ने 'पेजेंट सोसाइटी एंड कल्चर' में ऐसे समुदायों को 'लघु समाज' (लिटिल कम्युनिटी) कहा है, जिनका सीमित क्षेत्र में सांस्कृतिक संरक्षण बना रहता है। चिनौतियाँ थारू इसी प्रकार की सांस्कृतिक इकाई हैं, जो नेपाल और उत्तर भारत के सीमावर्ती तराई क्षेत्रों में निवास करते हैं। चिनौतियाँ थारू में एक अन्य शाखा भी है, जिसे कट्ठरिया (विद्यार्थी एवं राय, 1977) के नाम से जाना जाता है। मान्यतानुसार थारू कटहल के पौधे ज्यादा लगाते थे, इसलिए इनका नाम कठ्ठरिया पड़ा।
राणा थारू
थारू जनजाति की एक उपशाखा राणा थारू है, जो अपने को राजपूताना समाज से जोड़कर देखते हैं। राणा थारू में महिलाओं की सत्ता सर्वोपरि है। युद्ध के दौरान जब राजपूताना की महिलाएँ अपने कामगारों/नौकरों के साथ भाग कर जंगलों में आयीं तो ये लम्बे समय तक अलग रहीं, चूल्हा-चौका भी अलग रहे। कालान्तर में शारीरिक सम्बन्ध स्थापित होने एवं उत्पन्न संतान राणा कहलाए। आज भी इनके बीच महिलाओं की सत्ता सर्वोपरि है। डी. एन. मजुमदार (1950) के 'द फॉर्चून्स ऑफ़ प्रिमिटिव ट्राइब्स' के अनुसार जनजातीय समुदायों की संरचना स्थिर नहीं होती बल्कि यह समय व परिस्थितियों के साथ बदलती रहती है।
कोचिंला थारू
कोचिंला थारू, थारू जनजाति की एक प्रमुख उपशाखा के रूप में जानी जाती है जिसकी उत्पत्ति नेपाल के तराई क्षेत्रों से है। वहीं कोचिंला शब्द की उत्पत्ति को कोसी नदी से जोड़कर देखा जाता है। इन क्षेत्रों में इनकी जनसंख्या बहुतायत देखी जा सकती है, जो नेपाल के साथ-साथ बिहार एवं उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों निवासरत हैं। जनश्रुतियों के अनुसार इनकी 29 उपशाखाएँ हैं। यह समुदाय अपने को ‘कौशल’ के निवासी भी मानता है। काल सहित भाषायी परिवर्तन के आधार पर इन्हें सपतरिया, मोगरिया, भटगामिया के नाम से भी जाना जाता है। कुछ मानव वैज्ञानिक इन्हें बिहार के निवासी भी मानते हैं। यह समुदाय काफी स्वाभिमानी भी हैं, जो कृषि आधारित जीवन व्यतीत करता है। यह समुदाय अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को अद्यतन पूंजी के रूप में स्वीकार कर रहा है। हाँ कुछ हद तक आधुनिक मूल्यों का प्रभाव भी देखा जा सकता है। इनकी मुख्य भाषा ‘कोंचिला’ है। यद्यपि अन्य भाषाओं में ये नेपाली के साथ-साथ हिन्दी भी बोल लेते हैं। इस समुदाय की परम्परागत ग्राम पंचायते हैं जो विभिन्न धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजनों को सुनिश्चित कराने में योगदान देती है। यह समुदाय एक प्रकृति पूजक समुदाय है जो प्रकृति से जुड़े त्योहारों को मनाता है एवं सामाजिक एकता तथा सांस्कृतिक पहचान को समुन्नत करने के लिए निष्पक्ष सम्पर्क बनाए रखता है। यद्यपि आधुनिक मूल्यों के स्वरूप में इनमें बदलाव हुआ है तथा अपने अधिकारों के प्रति ये सजग भी हुए हैं।
अहिरवात
अहिरवात, थारू जनजाति की एक उपशाखा है जो उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्रों में निवास करती है। इस समुदाय को थारू समुदाय की भौगोलिक और सांस्कृतिक उपज के रूप में भी देखा जाता है। वहीं समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह समुदाय सामाजिक पृथक्करण एवं पर्यावरणीय अनुकूलन के कारण थारू समुदाय से अलग पहचान के रूप में विकसित हुआ (रैडक्लिफ-ब्राउन, 1952)। अहिरवात समुदाय अपनी पहचान का पुनर्निर्माण सामाजिक स्मृति (सोशल मेमोरी) और जातीय प्रतीकों (एथनिक सिम्बल्स) के माध्यम से करता है, जो खुद को भगवान कृष्ण के अनुयायी अहीरों की वंश परंपरा से जोड़ता है। Barth (1969) ने विशेष रूप से रेखांकित किया है कि यह प्रक्रिया जातीय सीमाओं की सामाजिक निर्माण प्रक्रिया (एथनिक बाउंड्री कंस्ट्रक्शन) के अंतर्गत आती है। लोक स्मृतियों में उल्लेख मिलता है कि अहिरवात थारू बहुतायत में सीमान्त क्षेत्रों के निवासी रहे, जो बाहरी आक्रमणकारी एवं अन्य प्रक्रियाओं के प्रभावस्वरूप नये क्षेत्रों में बसते गए। इस तरह प्रवास एवं पुनर्वास की प्रक्रिया ने इनकी सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान को स्थापित किया, जो सांस्कृतिक क्षेत्र सिद्धांत (कल्चरल एरिया थ्योरी) की पुष्टि करता है, जहाँ सामाजिक समूह पर्यावरणीय एवं भौगोलिक कारकों के साथ तालमेल बैठाकर अपनी विशिष्टता विकसित करते हैं (विद्यार्थी एंड राय, 1977)।
पूरबिया थारू
पूरबिया थारू जनजाति भी थारू की एक प्रमुख उपशाखा है। भाषायी आधार पर हम देखें तो पूरब में बसे थारूओं को भोजपुरी अथवा स्थानीय भाषा में पूरबिया थारू कहते हैं। माना जाता है कि थारू समुदाय के लोग नेपाल से बिहार के पूर्वी क्षेत्रों से आकर प्रवास करके उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में बसे और अपनी सांस्कृतिक अस्मिता एवं पहचान को स्थापित किया। समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह प्रव्रजन केवल भौगोलिक आंदोलन नहीं था, बल्कि सामाजिक अनुकूलन (सोशल अडैप्टेशन) और सांस्कृतिक अन्तःक्रिया (कल्चरल इंटरैक्शन) की सतत प्रक्रिया का परिणाम रहा। थारू जनजातियों के उपशाखाओं में सप्तरीय, मोरंग, सुनसरी और भावा क्षेत्रों के थारू पूरबिया थारू कहलाते हैं जो मैथिली भाषा बोलते हैं। पूरबिया थारू का क्षेत्र बागमति से मेची तक आज भी देखा जा सकता है। यह कृषि, पशुपालन एवं मजदूरी सहित सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों में संलग्न हैं। एमिल दुर्खीम (1912) की सामाजिक एकता की अवधारणा के आधार पर कहा जा सकता है कि पूरबिया थारू समाज में धार्मिक अनुष्ठान न केवल आस्था का प्रतीक हैं बल्कि सामूहिक चेतना और सामाजिक समरसता के निर्माण का माध्यम भी हैं। डी.एन. मजूमदार (1950) भारतीय आदिवासी समाजों की पारंपरिक पृष्ठभूमि और आधुनिकता के आगमन के साथ उत्पन्न होने वाले परिवर्तन को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखते हैं। पूरबिया थारू समुदाय की आर्थिक आत्मनिर्भरता, जैसे कृषि और पशुपालन, तथा श्रम आधारित कार्य भी इसी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक निरंतरता का हिस्सा हैं।
पछिमाहा थारू
पछिमाहा थारू भी थारू जनजाति समुदाय की एक उपशाखा है जो थरूहट क्षेत्र से पश्चिम क्षेत्र में बसी है, जिसे अवध क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है। इस तरह पूर्व में बसे थारू समुदाय को पूरबिया थारू समुदाय तथा पश्चिम में बसे थारू समुदाय को पछिमाहा थारू के रूप से जाना जाता है। यह समुदाय आत्मनिर्भर एवं पर्यावरण के समीप जीवन व्यतीत करता है। इनकी निर्भरता जंगल, नदी, कृषि और भूमि पर है। यह समुदाय अपने पारम्परिक वस्त्रों तथा आभूषणों को धारण करता है तथा अपने लोकगीतों तथा सांस्कृतिक पहचान को बनाये हुए हैं। (सिंह, 1993)।
बातर थारू
बातर थारू जनजाति सामाजिक स्तरीकरण के आधार पर निर्मित ऐसे वर्ग विशेष के रूप में जाना जाता है, जो थारू समुदाय के नियमों का उल्लंघन कर इसके विपरीत कार्य करते थे। परिणामस्वरूप उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया और लम्बे समय तक बहिष्कृत के रूप में जीवन जीते हुए ये एक समूह के रूप में स्थापित होते गए। अतएव देखा जाय तो बातर थारू समुदाय की निर्माण यात्रा सामाजिक बहिष्करण की प्रक्रिया से जुड़ी हुई है, जो पारंपरिक समाजों में नियम उल्लंघन के बाद उत्पन्न होने वाले वर्गीय विभाजन का एक उदाहरण है (ड्यूमाँ, 1970)। यह प्रक्रिया 'सोशल स्ट्रैटिफिकेशन' तथा 'कास्ट-बेस्ड एक्सक्लूज़न' की अवधारणाओं से जोड़कर देखी जा सकती है (श्रीनिवास, 1962)। बातर थारू का अलग वर्ग के रूप में उभरना एमिल दुर्खाइम की 'सामाजिक एकता बनाम विचलन' (सोशल सॉलिडेरिटी वर्सेज़ डिविएंस) की अवधारणा से भी व्याख्यायित किया जा सकता है, जहाँ नियम उल्लंघन करने वाले समूह समाज से पृथक हो जाते हैं और नए सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं। यद्यपि ऐतिहासिक आधार पर इनकी उत्पत्ति के तथ्यगत साक्ष्य नहीं मिलते हैं।
गौरीहार थारू
गौरीहार थारू भी थारू जनजाति की एक प्रमुख उपशाखा है। गौरीहार शब्द को लेकर समाज वैज्ञानिकों में एकरूपता नहीं है। जनश्रुतियों के अनुसार गौरी (देवी) अथवा गौर (शुद्धता) से सम्बन्धित है और इनमें आस्था तथा विश्वास रखने वाले थारू जनजातीय समुदाय शिव-पार्वती पूजक समुदाय से हैं, जो अपने को इन्हीं की सन्तान मानते हैं (शर्मा, 2015; वर्मा, 1990)। आज यह समुदाय कृषि सहित वन्य जीविका के साथ विविध श्रम कार्य से जीवन को गतिमान किये हुए हैं। इनके बीच शिक्षा एवं स्वास्थ्य से प्रति प्रगति हुई है। (मिनिस्ट्री ऑफ ट्राइबल अफेयर्स, 2020; गवर्नमेंट ऑफ उत्तर प्रदेश, 2020, 2021)। तथापि अभी भी यह समुदाय मुख्यधारा से अपने को पूरी तरह से नहीं जोड़ पाया है। (ज़ाक्सा, 2008)। इन्हें सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों को मुख्यधारा में लाने के लिए और प्रयास करने होंगे। (ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट, उत्तर प्रदेश, 2018)।
खौसिया थारू
यह जनजाति उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश एवं नेपाल में पायी जाती हैं जो थारू जनजाति की एक प्रमुख उपशाखा है। ये थारू भाषा बोलते हैं और इण्डो-आर्यन भाषा परिवार के सदस्य हैं। कुछ लोग हिन्दी, कुमाउनी तथा नेपाली भाषा भी बोलते हैं। (मिनिस्ट्री ऑफ ट्राइबल अफेयर्स, जी.ओ.आई., 2020; सिंह, के.एस., 1996) । जनश्रुतियों के अनुसार यह समुदाय इतिहास में ब्राह्मणों तथा राजपूतों की सेवा करते थे। (लुई ड्यूमाँ, 1970) कालान्तर में इस तरह के सेवा-कार्य करने वाले खौसिया थारू कहलाए। यद्यपि आज ये लोग कृषि, वनोपज, मजदूरी एवं पशुपालन पर निर्भर हैं। कुछ खौसिया थारू जनजातीय समुदाय शिक्षा एवं आधुनिक मूल्यों के प्रभाव से सरकारी व गैर-सरकारी संगठनों में नौकरी के साथ-साथ व्यापार भी कर रहे हैं। (ज़ाक्सा, 2005)।
कठखल्ला थारू
कठखल्ला थारू भी थारू जनजातीय समुदाय की एक उपशाखा है, जो अन्य शाखाओं की अपेक्षा संख्या में कम हैं। कठखल्ला थारू समुदाय की एक ऐसी उपशाखा है जो थारू समुदाय की आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक गतिविधियों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करती है। इतिहास में इन्हें काठ एवं लकड़ी के कार्य करने वालों के रूप में जाना जाता है एवं इन्हें कौशलकारी वर्ग के रूप में मान्यता प्राप्त है जो कालान्तर में बढ़ईगिरी के रूप में प्रचलित हुई। ये लकड़ी, कृषि और विभिन्न औजार सहित पारम्परिक तकनीकों में बेहद निपुण हैं। कठखल्ला, थारू समुदाय के अन्तर्गत पेशा आधारित उपशाखा है जिसकी आजीविका मुख्यतः काष्ठ निर्माण, कृषि औजार निर्माण एवं पारंपरिक तकनीकी कार्यों पर आधारित रही है, जिससे स्पष्ट होता है कि यह उपशाखा कार्य-आधारित सामाजिक विभाजन (ऑक्युपेशनल डिवीजन ऑफ लेबर) का उदाहरण प्रस्तुत करती है (गुहा, 1992)। यह समुदाय कुल एवं गोत्र के आधार पर विवाह व सामाजिक नियमों का पालन करता है, जो एंडोगैमी और कबीलाई संरचना की निरंतरता को दर्शाता है (दुबे, 1977)। पारम्परिक त्योहारों जैसे माघी, पालि, हानी एवं सकेला पर्व में यह समुदाय भागीदारी करता है।
गौरेत थारू
गौरेत थारू को भी पेशा अथवा व्यवसाय आधारित थारू समुदाय की उपशाखा के रूप में देखा जा सकता है। गौरेत भी कई उपवर्गों में बंटा है, जिसका एक प्रमुख वर्ग गोढ़इत है। यदि गौरेत के शाब्दिक अर्थ को देखें तो गौरेत थारू समुदाय का गोरखा या रक्षक है। जनश्रुतियों के आधार पर यह समुदाय राजा या राजा की रक्षा करने वाले अथवा प्रहरी के रूप में जाने जाते हैं। थारू समुदाय के बीच इन्हें सेवा, सर्तकता एवं आदेश पालन करने की भूमिका के रूप में देखा जाता है। प्राचीनकाल में राजा के संदेश को पहुँचाना तथा सभा के संचालन हेतु लोगों को एकत्रित करना एवं फैसलों को क्रियान्वित करना, भूमियों, सामन्तियों की निगरानी करना इस जनजाति का प्रमुख कार्य था। यह पक्ष ए.आर. रेडक्लिफ-ब्राउन के 'फंक्शनलिज़्म' सिद्धांत की पुष्टि करता है, जहाँ प्रत्येक उपसमूह समाज की निरंतरता के लिए विशिष्ट कार्य करता है (रैडक्लिफ-ब्राउन, 1952)। गौरेत थारू एवं थारू की अन्य उपशाखाओं में सामाजिक स्तर पर श्रेणीबद्धता पायी जाती थी, जो कि लूईस ड्यूमांट के 'स्ट्रक्चरल हायरार्की' सिद्धांत की पुष्टि करता है। लेकिन आज वर्ग विभाजन के स्वरूप कम देखने को मिलते हैं। (श्रीनिवास, 1966)। अवधारणात्मक रूप में कहा जा सकता है कि समकालीन भारतीय समाज में गौरेत थारू न केवल पारंपरिक संरचनाओं के अनुरूप कार्य करने वाला समुदाय रहा है, बल्कि आज वह सामाजिक परिवर्तन और आधुनिकता की दिशा में गतिशील होता हुआ एक जागरूक जनसमूह भी बन चुका है।
महावत थारू
महावत थारू जनजातीय समुदाय की एक पेशा आधारित उपशाखा है, जो इतिहास में हाथियों की देखभाल करते थे। कालांतर में हाथियों की देखभाल करने वाले थारूओं के वंशज महावत थारू कहलाए। नेपाल के पश्चिमी तराई क्षेत्र तथा भारत के उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में इनकी उपस्थिति देखी जा सकती है। ये लोग थारू बोली के साथ, हिन्दी, नेपाली भाषा बोलते एवं प्रयोग करते हैं। इस समुदाय को राजाओं, जमींदारों, सामन्तों के अधीन हाथी पालने व चलाने की जिम्मेदारी दी जाती थी। इनकी सेवाएँ विशेष तौर पर शिकार, जुलूस व यात्रा के दौरान ली जाती थीं जिसे एमिल दुर्खीम की "विभाजन आधारित सामाजिक संरचना" (डिवीजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी) की अवधारणा के अंतर्गत देखा जा सकता है, जहाँ कार्य-विशेष व्यक्ति की सामाजिक भूमिका को निर्धारित करता है। इनका जीवन पूरी तरह जंगल आधारित था। इनका पेशा पीढ़ी दर पीढ़ी पिता से पुत्र तक चलता था। माघा, अघहन और सकेला, जैसे त्योहारों में इनकी विशेष भागीदारी होती है। इनके बीच हाथी से जुड़ी लोक कथाओं एवं पूजा परम्पराएँ भी पायी जाती हैं। यद्यपि आज यह समुदाय अपने परम्परागत व्यवससाय के इतर, खेती, वनोत्पाद से जुड़े कार्य, पर्यटन, सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों में कार्य कर रहा है।
दोनुआर थारू
दोनुआर थारू वंशावली में इन्हें थारूओं के अनुज के रूप में स्वीकार किया गया है। अपनी यात्रा में दोनुआरों ने अपने पुरुषार्थ व परिश्रम से काफी प्रतिष्ठा प्राप्त की। जनश्रुतियों के अनुसार दो पहाड़ों के बीच जीवन व्यतीत करने वाले थारू कालान्तर में दोनुवार थारू के नाम से जाने गए। दोनुआर थारू का यह पक्ष एक प्रकार की भौगोलिक पहचान और पर्यावरणीय अनुकूलन (इकोलॉजिकल अडैप्टेशन) को दर्शाता है (चौधरी, 1982)। यद्यपि कुछ लोग इन्हें द्रोणाचार्य और दोन नदी से भी जोड़कर देखते हैं। जिससे यह स्पष्ट होता है कि दोनुआर थारू समाज की सांस्कृतिक स्मृति पौराणिक एवं भू
भौगोलिक आख्यानों से जुड़ी हुई है। यह तथ्य शिल्पनुमा सामाजिक निर्माण (कंस्ट्रक्टिविस्ट सोशल आइडेंटिटी) को रेखांकित करता है, जहाँ जातीय पहचान मिथकीय एवं स्थानिक सन्दर्भों से निर्मित होती है (बर्थ, 1969)। आज भी दोनुआर थारू अपने सांस्कृतिक प्रतीकों और सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से एक अलग सांस्कृतिक इकाई के रूप में विद्यमान हैं। यह उनके सामाजिक अंतरवैयक्तिक संबंधों और समूह चेतना (ग्रुप कॉन्शसनेस) की पुष्टि करता है, जो उन्हें थारू समाज की अन्य उपशाखाओं से विशिष्ट बनाता है।
सप्तरिया थारू
माना जाता है कि कि नेपाल के सप्तरी क्षेत्र से काफी थारू लोग विस्थापित होकर उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में बस गए थे। इसीलिए इन्हें सप्तरिया थारू के नाम से जाना जाता है। यह प्रवासन 'आवश्यकता आधारित पर्यावरणीय विस्थापन' (नेसेसिटी-ड्रिवन एनवायरनमेंटल माइग्रेशन) का उदाहरण है, जिसमें भौगोलिक परिस्थितियाँ जातीय पुनर्संरचना को प्रभावित करती हैं (कैसल्स एंड मिलर, 2003)। उत्तर प्रदेश में इनका मुख्य क्षेत्र महराजगंज एवं कुशीनगर है। इनकी भाषा को सप्तरी थारू बोली के रूप में जाना जाता है। इसके अलावा ये लोग मिथिला एवं भोजपुरी भाषाओं से भी प्रभावित हैं। यह स्थिति भाषाई अंतःक्रिया (लिंग्विस्टिक अकल्चरेशन) की ओर संकेत करती है, जहाँ एक जातीय समूह नई भौगोलिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में स्थानीय भाषाई संरचनाओं को आत्मसात करता है (फिशमैन, 1972)। कृषि इनकी आजीविका का मुख्य स्रोत है। इसके अलावा मजदूरी, वनोत्पाद सहित दिहाड़ी मजदूरी भी से इनका जीवन गतिमान है। यह आर्थिक बहुआयामिता, पारंपरिक और आधुनिक उत्पादन पद्धतियों के सह-अस्तित्व का उदाहरण है (बेटेले, 1996)।
नवलपुरिया थारू
नवलपुरिया थारू भी थारू जनजातीय समुदाय की उपशाखा है। यह जनजाति नेपाल के नवलपराही जिले सहित भारत के कुछ सीमावर्ती इलाकों में निवास करती है। इस समुदाय की उपस्थिति एक सीमावर्ती जातीय संरचना (बॉर्डरलैंड एथनिक कॉन्फिगरेशन) का उदाहरण प्रस्तुत करती है, जहाँ एक ही जनजातीय समूह दो भौगोलिक राष्ट्रों के बीच सांस्कृतिक निरंतरता के साथ विद्यमान है (बर्थ, 1969; वान शेंडल, 2005)। नवलपुरिया थारू, थारु भाषा को अपनी विशेष भाषा मानते हैं। यद्यपि ये अवधि एवं भोजपुरी भी बोलते हैं जो इनके बीच भाषिक बहुलता 'भाषाई द्वैभाषिकता' (लिंग्विस्टिक बाइलींग्वलिज़्म) की स्थिति को प्रदर्शित करता है, जो सीमावर्ती क्षेत्रों के समुदायों में सामाजिक अनुकूलन (सोशल अडैप्टेशन) की एक रणनीति होती है (फिशमैन, 1972)। इनकी जीवनशैली मूल थारू जीवनशैली के समान ही है। कृषि इनकी आजीविका का प्रमुख स्रोत है। हालांकि ये अब प्रवासी श्रमिक सहित सरकारी एवं गैर-सरकारी क्षेत्रों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं (ब्रे़मन, 1996)। नवलपुरिया थारू में ग्राम आधारित सामाजिक संरचना होती है। निर्णय में आज ये लोग परम्परागत पंचायतों के आदेश का पालन करते हैं, जिसे 'परम्परागत सत्ता ढाँचे' (ट्रेडिशनल पावर स्ट्रक्चर) और 'जनजातीय स्वशासन' (ट्राइबल सेल्फ-गवर्नेंस) के एक सजीव उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। आज भी सामाजिक अनुशासन और समुदाय-नियंत्रण की भूमिका निभाता है (ज़ाक्सा, 2005)।
मगहरा थारू
मगहरा थारू, थारू समुदाय की एक उपशाखा है, जो लखीमपुर खीरी, बहराईच, पीलीभीत एवं श्रावस्ती जिले में निवासरत है। इस उपशाखा की भौगोलिक उपस्थिति उन्हें सीमांत समाजों की श्रेणी में लाती है, जहाँ पारंपरिक जीवनशैली और आधुनिकता के बीच निरंतर अन्तःक्रिया होती रहती है (वान शेंडल, 2005)। ये लोग थारू भाषा बोलते हैं। यद्यपि इन पर हिन्दी और नेपाली भाषा का प्रभाव दृष्टिगत है। यह स्थिति भाषिक बहुलता (लिंग्विस्टिक प्लुरैलिटी) की ओर संकेत करती है, जो सीमावर्ती और बहु-सांस्कृतिक समाजों में सामान्य प्रवृत्ति होती है (फिशमैन, 1972)। मक्का, चावल, दाल व सब्जियाँ इनका प्रमुख भोजन है। यह उनके कृषि एवं पारिस्थितिक संसाधनों पर निर्भरता की स्थिति को दर्शाता है, जो 'पारिस्थितिक अनुकूलन' (इकोलॉजिकल अडैप्टेशन) के सिद्धांत से मेल खाती है, जहाँ भोजन प्रणाली पर्यावरण, कृषि उत्पादों और सांस्कृतिक परंपराओं से प्रभावित होती है (हैरिस, 1980)। यह समुदाय सामूहिक जीवनशैली में विश्वास रखता है। इनके बीच स्त्री व पुरुष में कोई भेद नहीं होता, बल्कि समानता की भावना पायी जाती है।
मरचवार थारू
मरचवार थारू जनजाति भी थारू जनजाति की एक उपशाखा है जो, नेपाल के मरचवार क्षेत्र से विस्थापित होकर उत्तर प्रदेश की तराई क्षेत्रों में बस गयी। मरचवार क्षेत्र में विस्थापित होने के कारण इन्हें मरचवार थारू के नाम से जाना जाता है। मरचवार थारू एथनोलिंग्विस्टिक पहचान के आधार पर थारू भाषा का प्रयोग करता है, हालांकि क्षेत्रीय संपर्क के कारण हिन्दी एवं नेपाली भाषाओं का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है (मिनिस्ट्री ऑफ ट्राइबल अफेयर्स, 2020)। मगहरा थारू समुदाय सामूहिकता की सामाजिक संरचना में विश्वास करता है, जो दुर्खीम के यांत्रिक एकजुटता (मेकैनिकल सॉलिडैरिटी) के सिद्धांत से मेल खाती है। इस समुदाय में लैंगिक भेदभाव नहीं है। स्त्री-पुरुष के बीच सामाजिक समानता की भावना विद्यमान है, जो आधुनिक लैंगिक समानता (जेंडर इक्वालिटी) के समाजशास्त्रीय विमर्श में एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करती है (सेन अमर्त्य. 1990)।
खौसीया थारू
खौसीया थारू जनजाति भी थारू जनजाति की एक उपशाखा है, जो पेशा आधारित जनजाति है। जनश्रुतियों के अनुसार कुमाऊ के खसिया ब्राह्मण या राजपूतों की ये सेवा करते थे। इसलिए इनका नाम खौसीया थारू पड़ा। जिसे समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से "निम्न पदानुक्रम में पेशागत जातीय विभाजन" (ऑक्यूपेशनली स्ट्रैटिफाइड एथनिक सबऑर्डिनेशन) की प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ सेवा एवं अधीनता के आधार पर जातीय पहचान का निर्माण होता है (ड्यूमों, 1980)। यद्यपि भाषाई दोष के रूप में इन्हें घोटिया या घोहिया के नाम से भी जाना जाता है, जो जातीय समुदायों के सामाजिक अपवर्जन (सोशल मार्जिनलाइज़ेशन) और सांस्कृतिक उपहास की प्रवृत्तियों की ओर इंगित करता है (बुर्दियू, 1991)। आज यह जनजाति कृषि एवं पशुपालन आधारित जीवन व्यतीत कर रही है जिसे "पारंपरिक उत्पादन संबंधों" (ट्रेडिशनल मोड्स ऑफ प्रोडक्शन) की व्याख्या के अंतर्गत माना जा सकता है (वुल्फ़, 1982)। यद्यपि आज इन पर हिन्दू धर्म का प्रभाव भी देखा जा सकता है, जो धार्मिक अन्तःप्रभाव (रिलिजियस सिन्क्रेटिज़्म) उस प्रक्रिया की तरफ इंगित करता है जहाँ एक आदिवासी समुदाय बहुसंख्यक धार्मिक संस्कृतियों के साथ आत्मसात (असिमिलेशन) करते हैं और अपनी परंपरागत धार्मिक पहचान में आंशिक रूप से परिवर्तन लाते हैं (सिन्हा, 1965)।
मरदनिया थारू
मरदनिया थारू एक पेशा आधारित एक जनजातीय समुदाय है, जो थारू जनजाति एक उपशाखा है। मरदनिया थारू पेशे से नाई अर्थात् बाल कटाने का कार्य करते हैं। इधर कुछ समय से ये धनराशि लेकर मसाज (मालिश) का कार्य कर रहे हैं। इस पक्ष को यदि हम समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें यह श्रम विभाजन (डिवीजन ऑफ लेबर – दूर्खीम, 1893), जाति आधारित पेशागत संरचना (कास्ट एंड ऑक्युपेशन – जी. एस. घुर्ये, 1969) तथा आधुनिकता और पेशागत परिवर्तन के सिद्धांतों पर आधारित दृष्टिगोचर है। साथ ही 'आर्थिक कार्य गतिशीलता' (ऑक्युपेशनल मोबिलिटी) और 'पेशा-आधारित पुनर्निर्माण' (ऑक्युपेशनल रिकंस्ट्रक्शन) का संकेतक भी है, जहाँ मरदनिया थारू समुदाय अपनी परंपरागत सीमाओं से बाहर निकलकर नई आजीविका संभावनाओं की तलाश कर रहा है (ब्रेमान, 1996)। इसके अलावा ये कृषि कार्य सहित सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों में भी कार्य कर रहे हैं। इस समुदाय के बीच यह आर्थिक बहुआयामिता (इकोनॉमिक डायवर्सिफिकेशन) तथा शहरी एवं अर्ध-शहरी सामाजिक संदर्भों में समायोजन की प्रवृत्ति को रेखांकित करता है ( ज़ाक्सा, 2005)।
कुम्हार थारू
कुम्हार थारू भी एक पेशा आधारित जनजातीय समुदाय है, जो मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते हैं। यह स्थिति कार्य-विभाजन के सिद्धांत (दुर्खीम, 1893) के रूप में देखी जा सकती है। यह जनजाति भी थारू जनजाति की एक प्रमुख उपशाखा है। वर्तमान समय में यह जनजाति अपने पेशे के साथ-साथ कृषि व पशुपालन कर रही है। परिवर्तन की यात्रा में इस समुदाय की आजीविका में विविधता आई है, जो आजीविका की बहुलता (लाइवलीहुड डायवर्सिफिकेशन) की अवधारणा के अनुरूप है। यहाँ हम पियेर बुर्दियू के आर्थिक पूंजी एवं सांस्कृतिक पूंजी के सिद्धांत की बात करें तो कुम्हार थारू न केवल अपनी पारंपरिक कारीगरी को जीवित रखे हुए हैं अपितु सामाजिक रूप से कृषि उत्पादकता और आधुनिक संसाधनों से जुड़कर अपनी सामाजिक स्थिति को भी पुनर्परिभाषित कर रहे हैं।
सुनाहा थारू
सुनाहा थारू भी एक पेशा आधारित जनजाति है, जो नदियों से सोने के कण ढूंढ़ने का कार्य करती है। इसीलिए इनका नाम सुनाहा थारू पड़ा। वर्तमान समय में इनका परम्परागत व्यवसाय कमजोर पड़ा है, जिसके कारण ये लोग कृषि, पशुपालन व मजदूरी का भी काम कर रहे हैं। यह स्थिति "आर्थिक पुनर्संरचना" (इकोनॉमिक रिस्ट्रक्चरिंग) और "उत्पादन संबंधों में परिवर्तन" (ट्रांसफॉर्मेशन इन रिलेशन्स ऑफ प्रोडक्शन) को दर्शाती है (ब्रे़मन, 1996; वुल्फ़, 1982)। जागरूकता के कारण इनके बीच शिक्षा का स्तर बढ़ा है, जो सामाजिक गतिशीलता की ओर संकेत करता है (बेतेई, 1991)। साथ ही यह परिवर्तन "सामाजिक गतिशीलता" (सोशल मोबिलिटी) और "सांस्कृतिक परिवर्तन" (कल्चरल चेंज) की उस प्रक्रिया के हिस्से के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ परम्परागत समुदाय आधुनिक सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से जनजातीय समुदाय मुख्यधारा की ओर अग्रसर हो रहे हैं (ज़ाक्सा, 2005; रेडफ़ील्ड, 1956)। इस तरह परंपरा और आधुनिकता, पहचान और आवश्यकता के बीच एक सतत संतुलन बना हुआ है।
दिसवाह थारू
दिसवाह थारू को एक पथ-प्रदर्शक थारू के रूप में भी जाना जाता है। जनश्रुतियों के अनुसार ये लोगों को दिशा बताने का कार्य करते थे। इसलिए इनका नाम दिसवाहा थारू पड़ा। यह कार्य न केवल भौगोलिक क्षेत्र के गहन ज्ञान का द्योतक है, अपितु सामाजिक संरचना में इनकी उपयोगिता को भी इंगित करता है (शर्मा, 2012)। यद्यपि इनके पेशे के स्वरूप आज देखने को नहीं मिलते हैं। यह जनजाति भी थारू समुदाय की उपशाखा है। आज यह समुदाय कृषि एवं पशुपालन के साथ सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।
बोट थारू
बोट थारू, थारू समुदाय की उपशाखा है, जो मछली मारने (व्यवसाय) का काम करती हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से मछली पकड़ने का कार्य केवल जीविका का माध्यम नहीं, बल्कि पारिस्थितिक अनुकूलन (इकोलॉजिकल अडैप्टेशन) का एक सशक्त उदाहरण भी है, जहाँ मानव समुदाय अपने भौगोलिक परिवेश के अनुरूप जीविकोपार्जन की प्रणाली विकसित करता है। जनश्रुतियों के आधार पर कहा जाता है कि भुटिया मंगोलियन हैं, जो भूटान से आए और यहाँ की जलवायु में बस गए और बाद में घिरे-घिरे थारू संस्कृति को अपनाते चले गए और जीवन को गति देने लगे और यह कालान्तर में बोट थारू कहलाए, जिसे संस्कृति संकरण (अकल्चरेशन) के रूप में देखा जा सकता हैं (रेडफ़ील्ड, लिंटन और हर्सकोविट्स Redfield, 1936)। इनके बीच इस तरह का परिवर्तन सांस्कृतिक एकीकरण और जातीय पहचान (एथनिक आइडेंटिटी) की पुनर्रचना को दर्शाता है। आज बोट थारू समुदाय न केवल मछली पालन बल्कि कृषि, मजदूरी और अन्य विविध कार्यों में भी संलग्न है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह समुदाय सामाजिक गतिशीलता और आधुनीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहा है (ज़ाक्सा, 2005)।
उपर्युक्त थारू जनजातियों की उपशाखाओं के अतिरिक्त जनश्रुतियों से कुछ अन्य उपशाखाओं के भी उल्लेख मिलते हैं। यद्यपि प्रचलन में अब इनके स्वरूप कम ही देखे जाते हैं। शोध आलेख की शब्द सीमा देखते हुए उनका नाम यहाँ अंकित किया जा रहा है : गठवाल थारू, भटगमिया थारू, लमपुछियाँ थारू, कनफटा थारू, रउतार थारू, खरल, खवास, खस, खाँ, खुनाछा, गद्हदार, जोगी, ताबदार, धन्दार, दाड़, पादिया, वर्दिहा, बांठी, बाँटर, बोक्सा, भोटगमिया, भगट, मझौरा, रझढ़िया, राजघरिया, राजी, विश्वास, सोलरिया, हेमजलिया इत्यादि।
समापन-अवलोकन
प्रस्तुत शोध आलेख के समापन-अवलोकन के आधार पर कहा जा सकता है कि थारू समुदाय उत्तर प्रदेश की एक प्रमुख जनजाति है, जो अपनी एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रखती है जो कई जातियों का मिश्रित स्वरूप है। इनकी विशेषता इनकी उपशाखाएं हैं, जो विविध क्षेत्रों से आकर थारू जनजाति की जीवन संस्कृति के साथ गतिमान हैं। वस्तुतः इन उपशाखाअें ने थारू जनजातीय समुदाय को समृद्ध एवं मजबूत बनाया। जनसंख्यात्मक दृष्टि से इनकी जनसंख्या काफी है, जो तराई क्षेत्रों का विशेष प्रतिनिधित्व करती है। उपशाखाओं के रूप में थारू समुदाय विविध संस्कृतियों को अपने में समाहित किये हुए हैं, जो एक एक सांस्कृतिक संकुल को स्थापित करता है। वास्तव में थारू समुदाय की यही महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक पूँजी है। यह संकुल इन्हें शक्तिशाली स्वरूप भी प्रदान करता है। इन उपशाखाओं की सामाजिक संरचना एवं संस्कृति में कुछ मौलिक समानताएं तो हैं, किन्तु इनके बीच सामाजिक-आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आधार पर भिन्नता भी देखने को मिलती है। वैसे इतिहास एवं परम्परा की दृष्टि से थारू समुदाय के सभी उपसमूह अपनी विशिष्ट पहचान बनाये रखने में सफल हैं। आधुनिक मूल्यों के प्रभाव एवं बाहरी सम्पर्क के प्रभाव से इन उपसमूहों की जीवनशैली में निरन्तरता एवं परिवर्तन दृष्टिगोचर है। कृषि, पशुपालन, मजदूरी एवं वनोत्पाद में संलिप्तता के साथ-साथ नौकरी एवं व्यापार की तरफ भी अग्रसर हुआ है। महिलाओं की भूमिका, पारिवारिक ढाँचे, विवाह के स्वरूप, भाषा, पूजा पद्धति, धार्मिक विश्वास, भेषभूषा सहित पर्व एवं त्योहारों में भी परिवर्तन देखे जा सकते हैं। लेकिन ये अपने परम्परागत मूल्यों, सामाजिक, सांस्कृतिक प्रकृति से जुड़ाव एवं समुदाय आधारित जीवनशैली को भी जीवन में गतिमान किये हुए हैं। अतएव कहा जा सकता है कि थारू जनजाति की उपशाखाएँ न तो केवल अतीत की संरक्षक हैं और न ही आधुनिकता की पूर्व अनुगामी, बल्कि ये सभी समुदाय आधुनिकता एवं परम्परा के समन्वय के साथ जीवन को गति दे रही हैं। अर्थात् निरन्तरता एवं परिवर्तन समान रूप से विद्यमान है।
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विमल कुमार लहरी
एसोसिएट प्रोफेसर, समाजशास्त्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, प्रोजेक्ट डायरेक्टर, आईसीएसएसआर, नई दिल्ली
Vimalk.lahari1@bhu.ac.in

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