पाठकों का स्नेह @ अपनी माटी ( अप्रैल 2025 से सितम्बर 2025 तक की कुछ विशेष चयनित टिप्पणियाँ)

पाठकों का स्नेह @ अपनी माटी
( अप्रैल 2025 से सितम्बर 2025 तक की कुछ विशेष चयनित टिप्पणियाँ)

  • रविन्द्र commented on "शहरनामा : जैसलमेर / ममता शर्मा" Apr 24, 2025 अद्भुत और सटीक लेखनी से स्वर्ण नगरी का परिचय करवाया आभार साधुवाद आदरणीया प्रोफेसर साहिबा. मां सरस्वती की असीम कृपा बनी रहे और हमें जैसाणा से जुड़ी और भी उपयोगी जानकारियों से हमे परिचित करवाते रहे
  • Your bestie commented on "कुछ कविताएँ / प्रतीक्षा श्रीवास्तव" Apr 24, 2025 इस कविता की सबसे बड़ी खूबी इसकी सघन संवेदनशीलता और भीतर उतरती भाषा है। हर पंक्ति जैसे मन की तहों से निकली हुई लगती है—धीरे-धीरे खुलती, सहमती हुई, फिर बिखरती। कविता का स्वर नाटकीय नहीं, बल्कि एक ऐसी खामोशी से भरा है, जो बहुत कुछ कह जाती है।
  • करण दान रत्नू commented on "शहरनामा : जैसलमेर / ममता शर्मा" Apr 24, 2025 वाह, अदभुत! उम्दा लेखन, शब्द चयन ऐसा कि जैसलमेर की लोक संस्कृति के वाहक दापु मांगणियार की सारंगी पर मूमल गीत की धुन हो जैसे । आपके लेखन में जैसलमेर की अवाम की चहल पहल महसूस होती है।
  • विकास कुमार अग्रवाल commented on "शोध आलेख : कला सृजन में ‘स्क्रैप’ का आग्रह; एक विशेष दृष्टिकोण / विजया शर्मा" May 5, 2025 सृजन को लेकर युवा मन की अभिव्यक्ति कई मायनों में नए आयाम के मार्ग प्रशस्त करती दिखती है। स्क्रैप आर्ट से कला की बारीकियों को शब्दों के माध्यम से तय करना चुनौतियों पर खरा उतरना है और आप इसमें सफल रहीं है। ये आलेख निसंदेह इस क्षेत्र के विद्यार्थियों के लिए मील का पत्थर साबित होगा।

  • Mukesh Sharma commented on "शोध आलेख : कला सृजन में ‘स्क्रैप’ का आग्रह; एक विशेष दृष्टिकोण / विजया शर्मा" May 5, 2025 विजया शर्मा द्वारा प्रस्तुत लेख में स्क्रैप आर्ट पर सारगर्भित एक अनोखी और रचनात्मक कला की जानकारी साझा की है जिसमें बेकार या अनुपयोगी वस्तुओं को नए और अनोखे तरीके से उपयोग किया जाता है। इस शोधपरक जानकारी से हम अपने आसपास की दुनिया में मौजूद वस्तुओं को नए दृष्टिकोण से देख सकते हैं और उन्हें रचनात्मक तरीके से उपयोग कर सकते हैं।

  • डॉ मामराज अग्रवाल commented on "शोध आलेख : कला सृजन में ‘स्क्रैप’ का आग्रह; एक विशेष दृष्टिकोण / विजया शर्मा" May 5, 2025 लेखक ने एक गंभीर समस्या का गहन विवेचन किया है। कचरा निस्तारण में कचरे को पुनः प्रयोग में लेना एक प्रभावी हल है। कचरे से कलाकृति का निर्माण अत्यंत सुंदर एवं प्रभावी उपाय है ।

  • Dr. Pooja Mishra commented on "शोध आलेख : अष्टादश पुराणों में नारी : स्थिति, अधिकार तथा दायित्व / संतोष कुमार पाण्डेय" May 5, 2025 पौराणिक युग में स्त्रियों की स्थिति, अधिकार तथा उनके कर्तव्यों का बोध कराने वाला यह शोध आलेख बेहद ही महत्त्वपूर्ण व ज्ञानवर्धक है, विषय- वस्तु के प्रस्तुतीकरण तथा निष्कर्ष के लेखन में लेखक का प्रयास प्रशंसनीय है। लेखक ने विभिन्न तर्कों व संदर्भों के आधार पर पौराणिक नारी के चरित्र को गौरवान्वित करने का प्रयास किया है ।

  • Dr. Anuradha Singh commented on "शोध आलेख : अष्टादश पुराणों में नारी : स्थिति, अधिकार तथा दायित्व / संतोष कुमार पाण्डेय" May 6, 2025 पौराणिक समाज में स्त्रियों की स्थिति, अधिकार तथा उनके दायित्वों का बोध कराने वाले इस शोध आलेख के माध्यम से लेखक ने उस युग की स्त्रियों का जो चरित्र - चित्रण प्रस्तुत किया है, वह निश्चित रूप से आधुनिक युग में महिलाओं के लिए प्रशंसनीय व अनुकरणीय है। शोध अध्येता ने विभिन्न तर्कों व पुराणों में वर्णित श्लोकों के माध्यम से अपनी बात को प्रस्तुत किया है । शोध आलेख के प्रस्तुतीकरण में लेखक का प्रयास सराहनीय है, भाषा- शैली उच्च कोटि की व विषय के अनुकूल है। नारी के संपत्तिक अधिकारों को पढ़ना काफ़ी रोचक रहा जो यह दर्शाता है कि इस दिशा में अभी और शोध कार्य किया जा सकता है ।

  • sunnybright001 commented on "अफ़लातून की डायरी (7) : हिमाचल यात्रा / विष्णु कुमार शर्मा" May 6, 2025 उम्मीद से बेहतर विस्तृत वर्णन किया है। घटनाओं और स्थानों का अपने अध्ययन के आधार पर अच्छे उद्धरण देने का प्रयास किया गया है। आपकी यात्रा में सूरज के दक्षिणपंथी कार्य तो दिखाए हैं, लेकिन उसके पीछे की सोच भी बतानी थी। पूरी यात्रा में शेष साथियों द्वारा हिन्दू मंदिर(बगलामुखी या अन्य) में जाने के प्रति उपेक्षा भाव और चर्च,बौद्ध मोनेस्ट्री के प्रति लालायित भाव का कारण भी लिखे जाने की अपेक्षा थी। यात्रा के ख़त्म होते-होते पठानकोट हमले पर हुई तीखी बहस भी लिखनी रह गयी। चिकन की प्लेट में खाने के प्रति समर्थन के भाव का कारण भी आपने नहीं लिखा। वैचारिकता के अंध समर्थन के चलते साथ चलने वाले मित्र का विरोध कैसे किया जा सकता है?? उसका भी कोई कारण रहा होगा!!! प्रतिरोध का सिनेमा कार्यशाला की जीवन में उपयोगिता भी लिखनी रह गयी। और अंत में... मैंने यात्रा में पाया कि हम सब फोटोजीवी नज़र आए। सूरज जितने ही फोटो सबके थे। फोटोजेनिक होना न होना कहीं मायने नहीं रखा गया। फिर भी अनुभव की दृष्टि से यात्रा शानदार रही। वामपंथी विचारधारा को नज़दीक से जानने का अवसर मिला। शुक्रिया।

  • माणिक, सम्पादक, अपनी माटी commented on "कविताएँ / दिव्या श्री" May 6, 2025 दिव्या श्री की कविताओं को पढ़कर कई नई उपमाओं से परिचय हुआ है. कुछ भाव एकदम नए से लगे. लिखने और अनुभव करने का नया ढंग है. बेहद संभावनाशील लेखन. कविताएँ संख्या में कम हैं ऐसा पढ़ते हुए लगा कुछ और होनी थी. एकाएक सुंदर सपना टूट गया जैसे जब अंतिम कविता समाप्त हुई. मैंने इन्हीं को तीन बार पढ़ा और अर्थ में गहरे उतर सका. शुक्रिया दिव्या श्री अपनी माटी को अपने लेखन से नवाज़ने के लिए.

  • माणिक, सम्पादक, अपनी माटी commented on "कविताएँ / महेंद्र नंदकिशोर" May 6, 2025 महेंद्र नंदकिशोर पर्यटन प्रबंधन में डिग्रीधारी होने के बाद फिर कॉलेज शिक्षा और अंत में स्कूल शिक्षा की तरफ लौटा हुआ एक युवामन लेखक है. गहरे में सोचता विचारता हुआ उत्साही है. नीमच, मध्यप्रदेश का मूल निवासी मगर चित्तौड़गढ़ से गहरा नाता है जिसके कई कारण हैं. वर्तमान में अर्थशास्त्र पढ़ाता है और कविताओं को पढ़ने के साथ उनके ऑडियो रिकोर्ड का लयबद्ध पाठ करने में रुचिशील है. बढ़िया बोलता और बतियाता है. रोज़गार की माथापच्ची के बावजूद अपने भीतर के कलामन को बचा रखने में सफल है. फिलहाल उनकी कविताओं का यहाँ पहला प्रकाशन करके हम महेंद्र को कविताई के लिए प्रेरित कर रहे हैं.

  • माणिक, सम्पादक, अपनी माटी commented on "कविताएँ / गीता प्रजापति" May 6, 2025 गीता प्रजापति से पहली मुलाक़ात की याद यही कविताएँ हैं. अक्सर हम लेखक से लेखन के बहाने ही मिलते हैं और यह भी संभव है कि हम आमने-सामने कभी न भी मिलें. पहली कविता भाषा और बोलियों के संसार के बीच की आवाजाही पर बहसतलब कविता है. कितना अनुराग है पहली कविता में. अहा अद्भुत. दूजी कविता में पहाड़ को देखने की न्यारी दृष्टि है. मानव और मानवेतर प्रकृति के बीच यही एक सम्बन्ध है जो कविता में सलीके से साफ़ झाँक रहा है. तीसरी कविता में गूंथा हुआ प्रेम अपने आप में पाठ है. इश्क़ का यह रंग भी हमें भा गया. आगे भी गीता जी को पढना चाहेंगे.

  • माणिक, सम्पादक, अपनी माटी commented on "संस्मरण : टहनी पर टँगा चाँद / हेमंत कुमार" May 6, 2025 हेमंत कुमार का लेखन अपनी माटी में लगातार प्रकाशित हो रहा है. उनके अपने पाठकों का समूह बन चुका होगा. ऑनलाइन प्लेटफोर्म में आभासी पाठकों का सही-सही अंदाजा लगाना मुश्किल होता है. हमें गर्व है कि राजस्थान में युवा लेखक के तौर पर हम हेमंत भाई से लिखवा सक रहे हैं. उनकी भाषा और नित-नई उपमाओं पर मन प्रसन्न रहता है. वाक्यों में लिपटी हुई व्यंजना आकर्षित करती हैं. उनकी समृद्धि का बड़ा कारण उनकी लोक के प्रति गहरी समझ और बेशुमार स्मृतियाँ हैं. उनका लिखा पढ़ते हुए आने वाली डिटेल्स हमें अचरज में डालती हैं. नागर संस्कृति के साथ देहात का जो तादात्म्य वे स्थापित करते हैं उनके प्रति लाड़ बढाता है.

  • हेमंत कुमार commented on "कविताएँ / महेंद्र नंदकिशोर" May 6, 2025 पहली ही दो पंक्तियाँ पकड़कर बैठ जाती हैं। दरअसल यह दो पंक्तियों में बँटा एक वाक्य है, जिसमें लगभग सारी दुनिया सिमट आई है। जिधर सोचो, जिस -तिस पर सोचो तो हर शू 'निर्विकल्प विकल्पहीनता' नजर आती है और इसलिए आती है कि विकल्प बनने का विकल्प लेकर हमारा दिल-दिमाग नहीं चलता। 'पुनर्जीवन', 'घास', 'मित्र', 'सखी' एक-एक कविता बेहद कोमल अहसास से पाठक को छूती चली जाती हैं। आखिरी 'प्रतिबिम्ब' कविता पहली कविता 'विकल्प' की तरह गहरी व्यंजकता में घुलती-खुलती है। पिता की नियति लगभग हर पुरुष में प्रवेश पा जाती है। भावना, संवेदना और वेदना को अनभिव्यक्त जीए जाने की नियति। महेंद्र नंदकिशोर का कवि व्यक्तित्व संभावना का समंदर है।

  • हेमंत कुमार commented on "कविताएँ / गीता प्रजापति" May 6, 2025 गीता जी की कविता में परिवेश की प्रेमिल और पीर भरी पुकार के संवादी स्वर मौजूद हैं। देह के धड़कते कोने में मौजूद देहात दिमाग के लोह कपाट पीटता है। जो दरक रहा है उसका दर्द कवयित्री के भीतर बजता है , जो छूट रहा है या लगभग छूट गया है उसका स्पर्श और स्पंदन कसक के साथ उपस्थित है। प्रेम निर्भर होकर निर्भार और निर्भीक कर जाता है , यह सच तीसरी कविता में पूरी तन्मयता से तारी हुआ है। बधाई।

  • हेमंत कुमार commented on "कविताएँ / दिव्या श्री" May 6, 2025 कवयित्री दिव्या श्री दुनिया को उधार की आँखों की बजाय अपनी निगाह से देखती हैं। स्त्री दृष्टि से देखने पर वही दुनिया जैसे थोड़ी अलग दिखने लगती है। ज्यादा सदय, ज्यादा कोमल, ज्यादा जीवंत! प्रेम जहाँ दर्द का हमदर्द बनकर साथ खड़ा है। न भूल सकने जोग। ईश्वर से भी ज्यादा स्मरणीय! जो दु:ख को घिस-घिसकर चमका दे। इन्हीं चमकते दुखों को कविता में जड़ने का बेजोड़ हूनर उन्हें खास मिजाज देता है।

  • विजय राही commented on "कविताएँ / दिव्या श्री" May 7, 2025 दिव्या श्री की कविताएँ पसंद आईं। इनमें सहजता के साथ अलग टटकापन है। विमर्श के नाम पर लिखी जा रही सतही और बोल्ड कविताओं के लिए इनकी ये कविताएँ सबक है। सुंदर कविताएं पढ़वाने के लिए अपनी माटी का आभार।

  • Shatabdi Chakraborty commented on "रिश्तों का संसार : नदी के नाम लम्बी चिट्ठी / आशुतोष कुमार शुक्ल" May 7, 2025 गंडक नदी के किनारे बिताए बचपन की यादों को आपने बेहद भावुकता और सुंदरता से शब्दों में पिरोया है। लेख ने मानो हमें भी उस समय और जगह में पहुँचा दिया। बेहद प्रभावशाली और दिल को छू लेने वाला!

  • Dr. Sarika Tiwari commented on "शोध आलेख : अष्टादश पुराणों में नारी : स्थिति, अधिकार तथा दायित्व / संतोष कुमार पाण्डेय" May 8, 2025 स्त्री अस्मिता को प्रदर्शित करने वाला शोध आलेख । लेखक ने पूर्वग्रह से मुक्त होकर जिस निष्पक्ष भाव से तथा सम्यक् शोध दृष्टि से पुराणों में संचित भारतीय नारी के गौरवपूर्ण चरित्र को प्रतिबिम्बित करने का प्रयास किया वह स्वागत योग्य है। लेखक ने विभिन्न तर्कों व सन्दर्भो से इस बात को सिद्ध करने का प्रयास किया कि "उस युग में भी स्त्री को आर्थिक अधिकार खासकर संपत्तिक अधिकार प्राप्त हुए थे भले ही वह सीमित स्तर पर तथा कुछ शर्तों के अधीन ही क्यों न हो" इस नवीन तथ्य से अवगत होना अति संतोषजनक अनुभव रहा।

  • हेमंत कुमार commented on "अफ़लातून की डायरी (7) : हिमाचल यात्रा / विष्णु कुमार शर्मा" May 10, 2025 मैं डायरी के आकार से डरा हुआ था, फिर इकलौती पाठकीय टिप्पणी से विषय की संवेदनशीलता का पूर्वग्रह रहा। तीसरा कारण सरहद का तनाव जिसने कुछ पढ़ने न दिया। आज पढ़ने बैठा तो पढ़ता चला गया। शीर्षक बेहद लुभावने लगे। रस ले-लेकर आहिस्ता-आहिस्ता एक -चीज को करीने से कहने का अंदाज़ अचरज में डाल गया। सहयात्रियों, खाने-पीने, ठहरने-घुमने की जगहें, कार्यशाला के बौद्धिक, तार्किक, विमर्शवादी-पूर्वग्रही-दुराग्रही-निरग्रही निचौड़ से लगा कि विमर्श और वाद भी असहिष्णु सम्प्रदाय बन गए हैं जो विमत से सम्मान के अपेक्षी तो हैं पर खुद उतने ही असंवेदी और असंवादी! कोई इनमें डुबकी लगाकर , गहराई थहाकर तैर आए तो तैर आए। वर्ना मकड़जाल काफी मजबूत होता है। वर्णन में बहाव है, अध्यवसाय का संकेत है, बहुवचनात्मकता का समावेश है। बीच-बीच में लेखकीय वैचारिकी के गहरे संकेत सूत्र हैं। पढ़कर समृद्धि का संतोष मिलता है।

  • डॉ कुंदन कुमार पासवान commented on "शोध मूल आलेख : कर्पूरी ठाकुर : भूमि सुधार एवं भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था पर विचार / अमृत राज एवं अनिल कुमार" May 10, 2025 कर्पूरी ठाकुर भारतीय राजनीति के ऐसे विरल नेता थे जिन्होंने सत्ता को जनसेवा का माध्यम माना, न कि स्वार्थपूर्ति का। उनके भूमि सुधार के विचार मूलतः सामाजिक न्याय से प्रेरित थे। वे मानते थे कि ज़मीन कुछ लोगों के हाथ में सिमटी रहने से आर्थिक असमानता और शोषण बढ़ता है। इसीलिए उन्होंने बंटवारे की ज़मीन को भूमिहीनों में बाँटने की पैरवी की और बिहार में ज़मींदारी प्रथा के अवशेषों को समाप्त करने की कोशिश की। भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनका रवैया कठोर था। उन्होंने सरकारी तंत्र में पारदर्शिता, जवाबदेही और सादगी को बढ़ावा दिया। स्वयं सादा जीवन जीकर उन्होंने राजनीति में शुचिता की मिसाल कायम की। वे मानते थे कि जब तक भ्रष्टाचार मिटेगा नहीं, तब तक लोकतंत्र कमजोर रहेगा। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं, खासकर जब राजनीति में ईमानदारी एक अपवाद बनती जा रही है। कर्पूरी ठाकुर का आदर्श न केवल एक विचारधारा है, बल्कि वह व्यवहार में सामाजिक न्याय और ईमानदारी को लागू करने की जीवंत मिसाल भी है.

  • Pallavi Kumari commented on "शोध मूल आलेख : कर्पूरी ठाकुर : भूमि सुधार एवं भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था पर विचार / अमृत राज एवं अनिल कुमार" May 10, 2025 उपर्युक्त विवरण ने जिस प्रकार कर्पूरी ठाकुर जी के विचारों को सामने रखा है वह अत्यंत ही मूल्यवान है जैसे उन्होंने भ्रष्टाचार को लेकर कहा भूमि सुधार को लिखा और हर एक पहलू को इस बारीकी से समझाने की कोशिश की है और इस देश का विकास करने की कोशिश की है, उनके इस कार्य को हम लोग उजागर करने में बहुत पीछे दिख रहे हैं क्योंकि उनके द्वारा किए गए कार्य और उनके द्वारा कही गई बातें बहुत पहले उजागर हो जानी चाहिए थी लेकिन यह जिस समय किया जा रहा है अमृत सर और अनिल सर के द्वारा यह बहुत ही सराहनीय काम हुआ है और मैं चाहूंगी कि यह शोध बहुत ही उच्च स्तर पर प्रकाशित हो और देश के हर नागरिक के पास कर्पूरी ठाकुर जी के विचार जाने चाहिए।

  • Dayasheel (5th Year, B.A. LL.B. (Hons.)), CUSB Gaya commented on "शोध मूल आलेख : कर्पूरी ठाकुर : भूमि सुधार एवं भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था पर विचार / अमृत राज एवं अनिल कुमार" May 18, 2025 A truly insightful and informative research work. The author has not only done justice with the legacy of Bharat Ratna Karpuri Thakur ji, but has also given a detailed account of the socio-political issues of Bihar and respective attempts of reforms made by the gem of India, Karpuri ji. I congratulate the Scholar and His Guide Prof. for this extraordinary research paper.

  • हेमंत कुमार commented on "शोध आलेख : शारदा सिन्हा के गीतों में अभिव्यक्त पुरबिया संस्कृति / प्रियंका गोंड" May 26, 2025 रुचिकर और सार्थक आलेख। शारदा सिन्हा जी के संघर्ष की बानगी के साथ -साथ उनके गाए गीतों के विविध पक्षों व उनके योगदान पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।

  • विष्णु कुमार शर्मा, सह-सम्पादकcommented on "शोध आलेख : मानवीय गरिमा का आख्यान : प्रियंवद की कहानियाँ / लोङ्जम रोमी देवी" Jun 10, 2025 बेहतरीन शोध। प्रियंवद हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। उन पर अहिंदी भाषी क्षेत्र की शोधार्थी द्वारा किया गया यह शोध लेखन प्रियंवद जी की देशव्यापी स्वीकार्यता पर मोहर लगाता है। बधाई

  • Prabhat Milind commented on "कविताएँ:कलकत्ता शहर पर कुछ काव्य-चित्र/नील कमल" Jun 20, 2025 अद्भुत कविताएं हैं भाई! कलकत्ते पर लिखी कविताओं में मुझे ज्ञानेन्द्रपति की 'चेतना पारीक' सबसे पसंद है। लेकिन यह उससे भिन्न है, और कमतर भी नहीं। एक कवयित्री की बहुत सी कविताएँ सिर्फ़ इसलिए पढ़ गया कि उन्होंने कलकत्ते पर एक अच्छी कविता लिखी थी, या शायद मुझे ही वह कविता थोड़ी अच्छी लगी होगी। अलबत्ता उनकी दूसरी कविताओं ने इतना निराश किया कि उन्हें पढ़ना छोड़ देना पड़ा। अस्तु, कलकत्ते को एक शहर के रूप में अनुभूत करना आसान है, लेकिन किसी शहर के मिज़ाज को समझना दीगर बात है। इस सीरीज़ में कलकत्ते को जिस तरह आपने देखा है, आपके कवि का वही पैनापन मुझे आकृष्ट करता रहा है। कलकत्ते का इतना ग्रे एंड व्हाइट और जीवंत चित्रण इंगित करता है कि इस शहर की शिराओं में आप कैसे रुधिर बन कर दौड़े-भटके होंगे! यह पोएटिक डॉक्यूमेंटेशन विलक्षण है क्योंकि इसे आपने संवेदना के अतिरिक्त रचना के आधार पर भी सन्तुलन और संयम के साथ किया है। ये महज़ कविताएँ नहीं है, एक धड़कते शहर के मिज़ाज को समझने का हैंड बुक है। शुक्रिया इसे पढ़ाने के लिए।

  • Anuradha Singh commented on "कविताएँ:कलकत्ता शहर पर कुछ काव्य-चित्र/नील कमल" Jun 26, 2025 इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे कोलकाता की गलियों, ट्रामों, पुराने मकानों, पातीराम बुकस्टॉल, पान की दुकान, हुगली समेत पूरे शहर की खुशबू इन में उतर आई हो। हर रचना शहर की आत्मा को एक अलग कोण से देखती है। कवि ने शब्दों से नहीं, मानो स्मृतियों, ध्वनियों और रंगों से चित्र बनाए हैं। इन छोटी-छोटी कविताओं में कोलकाता का व्यक्तित्व इतने विस्तार और आत्मीयता से उभरा है कि शहर खुद एक जीवंत पात्र बन जाता है। यह लेखन केवल शहर का वर्णन नहीं करता, यह समूचा शहर है। मैंने इससे पहले कविताओं में कोई शहर ऐसी संपूर्णता में उतरते नहीं देखा। इन्हें बहुत धीरे- धीरे पढ़ा है, अब भी मन नहीं भरा। हम अलग ही प्रजाति के लोग हैं , अपने शहर को प्रेमी की तरह चाहने वाले।

  • हेमंत कुमार commented on "सम्पादकीय : बातें बीते दिनों की (अंक-60) / माणिक" Aug 7, 2025 जिसके पास साँस लेने भर का समय हो उसे भी कम से कम संपादकीय का पहला खंड तो एक साँस में पढ़ जाना चाहिए। 'दुख का चुनाव हमारा अपना है...छानकर सुनना सीखना है....लड़ाई-झगड़े का कारण कहने-सुनने के बीच का अंतराल है... इस आशय के अनेक जीवन सूत्र सफ़ दर सफ़ बिखरे पड़े हैं। यह हिस्सा बार-बार सुमरने और पाठ करने लायक है। दूसरे खंड में पठन की दीठ और चयन जिज्ञासा-जनक है। तीसरे परिच्छेद में भाषा -विवाद पर माँ-मौसी से इतर सूझ शानदार लगी और यह अपूरब सच भी कि भारत देश नहीं महादेश है। आखिर में 60वें अंक की प्रस्तावना का विनत स्वर भी अनूठा लगा। शानदार संपादकीय और अंक संयोजन के लिए हार्दिक बधाई।

  • हेमंत कुमार commented on "अफ़लातून की डायरी (8) : विष्णु कुमार शर्मा" Aug 7, 2025 अफलातून की डायरी का शैशव जिसने देखा है 'रेवदर डायरी ' रूप में, वह यह जरूर महसूस करता होता कि एक लेखक ने इतने कम समय में कितनी गहराई और उँचाई अख़्तियार कर ली। अपने आस-पास से लेकर देश-दुनिया पर चौकस-चौकन्न नज़र टिकाए रहनेवाले युवा लेखक बहुत कम होंगे। अफलातून की पंक्ति-पंक्ति में चेतस वैचारिकी पढ़ी जा सकती है- लड़कियों के पास समय हमेशा कम होता है....भाग्य नहीं जानता तो नहीं मानता...उपनिषद् से केन्या के न्यूगी वा थ्योंगो...कबीर, सूर, तुलसी, कुंभन, रसखान...चर्बी चर्चित घृत दीप...व्यवसाय में तब्दील होती मौत...कृष्ण कथा की पर्यावरणवादी व्याख्या के बीच नए कालिया नागों की पहचान...मातृभाषा का सवाल जैसे कितने ही पहलुओं पर लेखक सोचता-कौंचता चला है अनवरत।

  • Prateeksha commented on "पुस्तक समीक्षा : मेरी ढाका डायरी / विष्णु कुमार शर्मा" Aug 7, 2025 एक स्त्री के यात्रा वृतांत में मात्र यात्रा नहीं, पूरी संस्कृति मुखर हो उठती है..मधु जी की नज़र से ढाका को देखने और महसूस करने पर बिना अपनी मान्यताएँ मढ़ते हुए समीक्षक ने पुस्तक के साथ न्याय किया है।

  • हेमंत कुमार commented on "संस्मरण : हम दरवेशों को कब रोना आता है / विजय राही" Aug 9, 2025 चरणसिंह जी पथिक के विषय में मैंने पहले पह मित्र डॉ. राजपाल सिंह शेखावत से सुना था।आपने उनके गाँव से अपने गाँव तक के कार्यक्रम को इतनी आत्मीयता और आत्मविश्वास से उकेरा है कि राजस्थान के साहित्य जगत् के तमाम ख्यातिलब्ध नाम आपके दोस्त/ रिश्तेदार सरीखे लगते हैं। कला के कितने पक्षों और रूपों पर सहज भाव से जो चर्चा आपके इस संस्मरण में यथाप्रसंग आई है वह रचना को और समृद्ध करती है।

  • Do_san commented on "संस्मरण : बोल किछोड़ा 'कऽअ' / हेमंत कुमार" Aug 10, 2025 "आँधी के आम मुहावरा किताब में बाँचने को मिला पर खाने को आँधी के खोखे ही मिले।" ...."कोई चाय का ब्याह कर रहा था बीड़ी सिलगाकर" कमाल का है।...कभी कभी जहाँ महंगी दवाइयाँ भी असर नहीं करती है वहाँ सामान्य सी दिखने वाली कोई चीज़ दवाई का काम कर जाती है। जाति को खत्म करने के लिए जितने भी विमर्श चल रहे हैं वो काम कर पाए या नहीं पर कोई राजस्थानी जो संस्कारवश जातिभेद को छोड़ नहीं पा रहा है और ये लेख पढ़ ले तो वह जाति मुक्त भले ही न हो पर एक बार फेफड़ों से लंबी श्वास छोड़कर जातिभेद पर पछतावा जरूर करेगा। हर बार की तरह बेहतरीन लिखा है।

  • Dr Mamta Sharma commented on "रिश्तों का संसार : समय के बही-खाते में दर्ज स्मृतियों का एक पन्ना… / शची सिंह" Aug 10, 2025 बहुत खूब लिखा मैम,अब समझ आता है कि आप इतनी सहज और सरल कैसे हैं।आपके गुरु का व्यवहार ही आप में संचरित हुआ है। एक गुरु ने कितनी अच्छी परंपरा का आरंभ कर दिया।मैं भी शुरू शुरू में अचंभित थी कि गाइड के रूप में आपका व्यवहार इतना मृदु?? आपके पदचिह्नों पर चलने का प्रयास करूंगी मैम।इस मिथक को अब तोड़ना ही है कि गाइड बहुत गुरूर से आना होता है।जो ममत्व आपसे पाया है मेरे जीवन की अमूल्य निधि है।

  • हेमंत कुमार commented on "रिश्तों का संसार : दादी के नाम अखिल की चिट्ठी / अखिलेश कुमार शर्मा" Aug 11, 2025 अब जबकि संयुक्त परिवार पाषाण युग की चीज मान ली गई है। हम सभ्यता(!) के और अगले सोपान पर चढ़कर दाम्पत्य जीवन के बिखराव व विवाह संस्था के अस्तित्व पर विमर्श करने की योग्यता पा गए हैं। ऐसे में दादी की याद! माँ की महिमा तो खूब गाई गई है पर दादी वहाँ भी प्रायः उपेक्षित ही रही है। ऐसे में दादी के नाम लिखी यह चिट्ठी जो जगह-जगह संस्मरण, रेखाचित्र , डायरी व रिपोर्ताज से गले मिल-मिलकर चली है, इसे पढ़ना अपने ही नहीं समाज के अतीत और भविष्य को एक साथ बाँचने जैसा है।

  • हेमंत कुमार commented on "रिश्तों का संसार : चिट्ठी-पत्री / ममता शर्मा" Aug 11, 2025 यह चिठ्ठी फुरसत के हाथों आहिस्ता खोली जाए। आहिस्ता बाँची जाए। मनोविज्ञान की गहरी गुँथी गुत्थी आपका ध्यान खींचेगी। थोड़ी एक पक्षीय लगकर भी अविश्वसनीय नहीं लगेगी। ऐसी दीदियाँ जरा-जरा सी तो हर घर -परिवार में मिल ही जाएँगी। पढ़ते हुए आपको अपनी रिश्तेदारी ,परिवार के आयोजन और उनके स्त्रीवादी समीक्षा पाठ याद आएँगे। आपकी सहानुभूति भी आत्मवृत्तकार के साथ हो जाएगी।कुशलता यह है कि बिना संपादकीय टिप्पणी के आप लेखक और लिपिक को अभेद मानते रहेंगे। यह ऐसा अद्भुत सा शिल्प प्रयोग है जिसकी जड़ें परम्परा में मौजूद हैं। डॉ. ममता शर्मा इसके लिए बधाई की पात्र हैं।

  • हेमंत कुमार commented on "रिश्तों का संसार : समय के बही-खाते में दर्ज स्मृतियों का एक पन्ना… / शची सिंह" Aug 11, 2025 जैविक आनुवांशिकी तो विज्ञान का सच है। एक वैचारिक-सांस्कारिक आनुवांशिकी भी है। गुरु की उत्तरजीविता शिष्य में आकार लेती है। आचार्य द्विवेदी में टेगोर , क्षितिमोहन सेन तो नामवर जी, विश्वनाथ त्रिपाठी जी, रामदरश जी आदि में द्विवेदी जी साँस लेते मिल जाएँगे। प्रो. रामेश्वर राय में निर्मला जैन तो निर्मला जी में डॉ. नगेंद्र जी की उपस्थिति महसूस की जानी चाहिए। आपका यह संस्मरण इस अवधारणा को पुष्ट करता है। आदरणीया शचि मैम!आपने विमल सर का अध्यवसाय, सादगी, घुमक्कड़ वृत्ति, शिष्य वत्सलता, पाककला नैपुण्य जैसे अनेक पक्ष  उजागर कर दिए है।

  • हेमंत कुमार commented on "केम्पस के किस्से / दो_सान" Aug 11, 2025 भाई दो-सान! मेरी परिचित दुनिया में इतनी कच्ची उम्र में ऐसा वैचारिक उबाल और उसे व्यक्त करनेवाली इतनी प्रौढ़ भाषा का साथ-संजोग और किसी में नहीं दिखा। भाषा बेहद निथरी हुई जबकि विचार खदबदाते हुए। ये टीप हैदराबाद वि. वि. के भीतर घटे घटनाक्रम का ज्वलनशील लेखा-जोखा है। विचार के स्तर पर थोड़ा संयत होने की आशीष देता हूँ। अभिव्यक्ति की मेच्योरिटी बहुत आगे तक ले जाएगी।

  • अखिलेश कुमार commented on "संस्मरण : बोल किछोड़ा 'कऽअ' / हेमंत कुमार" Aug 27, 2025 हर बार की तरह बेजोड़ संस्मरण! आंचलिकता से भरपूर। गाँव-देहात की हकीकत को बिना कोई चश्मा लगाए बयां करता संस्मरण। गाँव के असली 'हीरोज' को सामने लाने की दिशा में अग्रसर संस्मरण। आँखें खोलने वाले। एक सीख के साथ। क्लाइमेक्स पहुँचते-पहुँचते साँस इधर-उधर नहीं भागती। रुक जाती है, विराम लेकर। ठहर जाती है। कहने को फिर कुछ शेष नहीं बचता। सार्थकता खोजने की जरूरत ही नहीं पड़ती। शब्द स्वयं बोलने लगते हैं। अर्थ हृदय में उतरने लगता है। लिखते रहिए!


अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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