कुछ कविताएँ
- प्रतीक्षा श्रीवास्तव
- प्रतीक्षा श्रीवास्तव
(1)
एक समय के बाद
क्या ही अर्थ रह जाता है
इस बात का
कि
मैं तुमसे प्रेम करती हूँ...
मेरे दस से पांच की नौकरी के बाद
कितना ही बचता है मुझमें प्रेम!
मेरी घड़ी में शाम के अध-उजले पांच के बाद
बजता है सीधा सुबह का दस!!
सुबह आँख खुलते ही झर जाता है कुछ प्रेम,
कुछ बह जाता है बालों को धुलते हुए;
कुछ को मैं ही कर देती हूँ चोटिल अपने पर्स के भार तले दबा के..
कुछ गुलाब और पत्ती प्रेम दबा पड़ा है
मेरी पुरानी किताबों में..
जिन पर पड़ी धूल उसे बचा ले गई..
लोग कहते हैं कि प्रलय के बाद भी शेष रह जाएगा प्रेम
जैसे एक बच्चा भींच लेता है
नन्हीं हथेलियों में अपनी माँ के बाल..
मैंने अक्सर सोचा है
कि
क्या उस अंतिम दिन भी बजेंगे सुबह के दस..!!
शाम के अध-उजले पांच में मैं खोजूंगी
वो झरा-बहा-चोटिल प्रेम?
या
वो गुलाब-पत्ती प्रेम?
या
किताब का वो पन्ना
जहां सलीखे से बिखरा पड़ा था मृत प्रेम!!
क्योंकि
हर रात
तकिए किनारे होना चाहिए था जिसको;
वो मुझे चलते-उठते
बस ये कहता रहा है कि
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ..!!
क्या ही अर्थ रह जाता है
इस बात का
कि
मैं तुमसे प्रेम करती हूँ...
मेरे दस से पांच की नौकरी के बाद
कितना ही बचता है मुझमें प्रेम!
मेरी घड़ी में शाम के अध-उजले पांच के बाद
बजता है सीधा सुबह का दस!!
सुबह आँख खुलते ही झर जाता है कुछ प्रेम,
कुछ बह जाता है बालों को धुलते हुए;
कुछ को मैं ही कर देती हूँ चोटिल अपने पर्स के भार तले दबा के..
कुछ गुलाब और पत्ती प्रेम दबा पड़ा है
मेरी पुरानी किताबों में..
जिन पर पड़ी धूल उसे बचा ले गई..
लोग कहते हैं कि प्रलय के बाद भी शेष रह जाएगा प्रेम
जैसे एक बच्चा भींच लेता है
नन्हीं हथेलियों में अपनी माँ के बाल..
मैंने अक्सर सोचा है
कि
क्या उस अंतिम दिन भी बजेंगे सुबह के दस..!!
शाम के अध-उजले पांच में मैं खोजूंगी
वो झरा-बहा-चोटिल प्रेम?
या
वो गुलाब-पत्ती प्रेम?
या
किताब का वो पन्ना
जहां सलीखे से बिखरा पड़ा था मृत प्रेम!!
क्योंकि
हर रात
तकिए किनारे होना चाहिए था जिसको;
वो मुझे चलते-उठते
बस ये कहता रहा है कि
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ..!!
(2)
हमारे बीच मौजूद
लाखों संभावनाएं
जो किसी भी रूप में ले सकती थीं जनम..
उस रात
अंधेरा हो गईं!
तुमने जिन्हें कितना ही ‘साधारण’ जाना हो..
ऐसे मेरे कितने ही अपार सुख
‘अजन्मे’ ही रह गए
सदा के लिए !!
उसी रात,
मन के अंधेरे में
हमारे बीच मौजूद
लाखों कही अनकही ‘संवेदनाएं’
अनगिनत बार
अंधेरा-अंधेरा
हो हो टूटीं...
ये वही ‘संवेदनाएं’ हैं;
जिन्हें तुम ‘संभावनाएं’ कहते हो
और मैं ‘अजन्मा अंधेरा’!!
लाखों संभावनाएं
जो किसी भी रूप में ले सकती थीं जनम..
उस रात
अंधेरा हो गईं!
तुमने जिन्हें कितना ही ‘साधारण’ जाना हो..
ऐसे मेरे कितने ही अपार सुख
‘अजन्मे’ ही रह गए
सदा के लिए !!
उसी रात,
मन के अंधेरे में
हमारे बीच मौजूद
लाखों कही अनकही ‘संवेदनाएं’
अनगिनत बार
अंधेरा-अंधेरा
हो हो टूटीं...
ये वही ‘संवेदनाएं’ हैं;
जिन्हें तुम ‘संभावनाएं’ कहते हो
और मैं ‘अजन्मा अंधेरा’!!
(3)
हाँ.. मैं
लिखूंगी
हर वो चुप्पी
जो मेरे तकिए ने महसूस की
हर रात।
हर वो स्पर्श..
जिससे गुज़र कर
खामोशियों की तपन ने
मेरे-तुम्हारे प्रेम का तर्पण किया
हर क्षण।
हाँ.. मैं लिखूंगी
हर वो पीली रोशनी
और सफेद फूल
जो मेरे मन की खिड़की पे गहराते जा रहे..
छाया दर छाया।
मैं लिखूंगी,
अपनी वो हँसी भी
जिसके पीछे की गुलाबी काई
मैं आज तक
अपने जूतों से घिस कर छुड़ाती हूँ..
हर शाम।
हाँ, मैं लिखूंगी
हर उस खुरचन को
जिसे तुम ‘जीवन’ कहते हो
और मैं ‘प्रेम’..
शायद अब ऐसे ही हम हमेशा साथ रहें
और
एक दूसरे को माफ कर सकें..
हर वो चुप्पी
जो मेरे तकिए ने महसूस की
हर रात।
हर वो स्पर्श..
जिससे गुज़र कर
खामोशियों की तपन ने
मेरे-तुम्हारे प्रेम का तर्पण किया
हर क्षण।
हाँ.. मैं लिखूंगी
हर वो पीली रोशनी
और सफेद फूल
जो मेरे मन की खिड़की पे गहराते जा रहे..
छाया दर छाया।
मैं लिखूंगी,
अपनी वो हँसी भी
जिसके पीछे की गुलाबी काई
मैं आज तक
अपने जूतों से घिस कर छुड़ाती हूँ..
हर शाम।
हाँ, मैं लिखूंगी
हर उस खुरचन को
जिसे तुम ‘जीवन’ कहते हो
और मैं ‘प्रेम’..
शायद अब ऐसे ही हम हमेशा साथ रहें
और
एक दूसरे को माफ कर सकें..
(4)
मन के सीलन भरे अंधेरे कमरे में
मौसम-दर-मौसम
अहसास और पीड़ा की हर चाही अनचाही बूंद
जज्ब होने जाने..
और
मन की हर खीज, प्रेम, आलिंगन, मृत्यु जैसी संवेदनाओं की
तर-पपड़ी के सूख जाने के बाद..
गाहे बगाहे
झूले की चूं चूं ...
जब बेवजह सुनाई देने लगे
तब शायद बचपन की वापसी हो जाती है...
माँ अब शायद उसी मुकाम पर है..
मौसम-दर-मौसम
अहसास और पीड़ा की हर चाही अनचाही बूंद
जज्ब होने जाने..
और
मन की हर खीज, प्रेम, आलिंगन, मृत्यु जैसी संवेदनाओं की
तर-पपड़ी के सूख जाने के बाद..
गाहे बगाहे
झूले की चूं चूं ...
जब बेवजह सुनाई देने लगे
तब शायद बचपन की वापसी हो जाती है...
माँ अब शायद उसी मुकाम पर है..
(5)
स्मृतियों की कोख में पड़े मिलते हैं
प्रेमिका के गालों का स्पर्श पाए एक जोड़ी झुमके
उसकी बिंदी
और
आलता रंगे सुंदर पैर!
जिन पैरों को स्वप्न में अनगिनत बार चूमा
और
उनके सुखद भार से
अपना सीना दब जाने की इच्छा मचली;
उन्हीं के नीचे दबा मिलता है
प्रेम का क्रूरतम दस्तावेज़
उसके
विवाह का निमंत्रण-पत्र
और
लिफाफे पर उसी के हाथ से लिखा शब्द ‘प्रिय....’ !!
‘प्रिय’ पढ़ कर याद आते हैं
कुछ गहरे चुंबन
जिन्हें संजोया गया था
शायद गाढ़े दिनों के लिए..
बिन मौसम का सुखद प्रेम
कितनी ही मारक स्मृतियों को देता है जन्म!
एक बड़े मरण से पहले भी होती है
कितनी बार मृत्यु..!
प्रेम कहे जाने वाले तुड़े-मुड़े शब्द
जो कभी चिट्ठी नहीं बन पाते;
अक्सर निमंत्रण पत्र ही बन जाते हैं..!!
प्रेमिका के गालों का स्पर्श पाए एक जोड़ी झुमके
उसकी बिंदी
और
आलता रंगे सुंदर पैर!
जिन पैरों को स्वप्न में अनगिनत बार चूमा
और
उनके सुखद भार से
अपना सीना दब जाने की इच्छा मचली;
उन्हीं के नीचे दबा मिलता है
प्रेम का क्रूरतम दस्तावेज़
उसके
विवाह का निमंत्रण-पत्र
और
लिफाफे पर उसी के हाथ से लिखा शब्द ‘प्रिय....’ !!
‘प्रिय’ पढ़ कर याद आते हैं
कुछ गहरे चुंबन
जिन्हें संजोया गया था
शायद गाढ़े दिनों के लिए..
बिन मौसम का सुखद प्रेम
कितनी ही मारक स्मृतियों को देता है जन्म!
एक बड़े मरण से पहले भी होती है
कितनी बार मृत्यु..!
प्रेम कहे जाने वाले तुड़े-मुड़े शब्द
जो कभी चिट्ठी नहीं बन पाते;
अक्सर निमंत्रण पत्र ही बन जाते हैं..!!
(6)
एक प्रश्न
जो उसने कभी नहीं पूछा
एक उत्तर
जो मैंने कभी नहीं दिया;
अभी भी पड़ा है
मेरी गोद में।
न जाने कहाँ से एक आवाज़ आई;
‘सुनो, अप्रेम को जन्म देने वाले
उत्तर से अधिक नुकीला और क्या ही होगा..’
इस तरह हम दोनों ने जाना
प्रश्न भूल जाना ही प्रेम है।
कभी उत्तर न देना ही प्रेम है।
जो उसने कभी नहीं पूछा
एक उत्तर
जो मैंने कभी नहीं दिया;
अभी भी पड़ा है
मेरी गोद में।
न जाने कहाँ से एक आवाज़ आई;
‘सुनो, अप्रेम को जन्म देने वाले
उत्तर से अधिक नुकीला और क्या ही होगा..’
इस तरह हम दोनों ने जाना
प्रश्न भूल जाना ही प्रेम है।
कभी उत्तर न देना ही प्रेम है।
प्रतीक्षा श्रीवास्तव
शोधार्थी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी
cil.prateeksha23@gmail.com, 8318398747
शोधार्थी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी
cil.prateeksha23@gmail.com, 8318398747
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज (जयपुर)
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज (जयपुर)
21सवीं के कैनवास पर प्रेम का नया आयाम वाकई बहुत सुन्दर और अनुभूतिजन्य यथार्थ को इंगित करता हुआ दिखलाया है । कविताओं के लिए बधाई !
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंअद्भुत और अत्यंत आनंददायक लेखनी!
ये कविताएँ इतनी ख़ूबसूरती से रची गई हैं कि मानो हर आम इंसान की भावनाओं को शब्दों में पिरो दिया गया हो। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कवयित्री ने हमारे मन को पढ़कर उसे कागज़ पर उतार दिया हो।
हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ!
प्रतीक्षा को जीतना हम जानते हैं वह खुद जीवन को गहरे से प्रेम करने वाली लड़की है. उससे संवाद में लीन रह चुके जानते होंगे कि उसके बोले की मीठास इन कविताओं में मौजूद है. उसने उसकी उम्र के सभी के मन का कहने का प्रयास किया है. प्रतीक्षा में संभावनाएं हैं क्योंकि वह अनुभूतियों को डिटेल्स में सोचतीं और महसूसती रही हैं. गहरे आभास को दिनों तक भीतर में बनाए रखे की वह अभ्यस्त हैं. कविताओं के ये गुच्छे उनमें खूब सारे बीज होने के संकेत हैं. आशा है वे सतत लिखेंगी और जहां भी छपेगी कोई नई छूअन को आकार देने में सफल होगी. यहाँ नए ढंग से कहने की एक कोशिश है. कहीं -कहीं कवि से बात करने की गुंजाइश नज़र आई है. बिम्ब बनते हुए दिखे हैं. एकाध जगह दार्शनिक होने की खुशबू लगी. फिलहाल प्रकाशन की बधाई. प्रिय प्रतीक्षा......
जवाब देंहटाएंइन दिनों लिखी जा रहीं नितांत निजी कवितायें। कविताई नदारद। लयहीनता ने कविता के नाम पर गद्य पढ़वा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसुंदर कविताएं
जवाब देंहटाएंvery beautifully written
जवाब देंहटाएंVah bahut sunder rachit kiya hai mun ko choo jane vali abhivyakti khush raho prateeksha mujhe aisi hi aur rachnao ki prateeksha hai beta love you❤
जवाब देंहटाएंउदास मन की उदास कविताएँ लेकिन गहरी कविताएँ जो मन के गीलेपन को महसूस करवाती है, संभावनाएं (हमारे बीच मौजूद
जवाब देंहटाएंलाखों संभावनाएं
जो किसी भी रूप में ले सकती थीं जनम..
उस रात
अंधेरा हो गईं!) और भी हो सकती थी |
हालाँकि लिखने और पढने का अपना सबका टेस्ट (स्वाद) है सो मुझे आलसी प्रेम कम रुचता है, फिर भी आपका लिखा अच्छा लगा|
बधाई !
इस कविता की सबसे बड़ी खूबी इसकी सघन संवेदनशीलता और भीतर उतरती भाषा है। हर पंक्ति जैसे मन की तहों से निकली हुई लगती है—धीरे-धीरे खुलती, सहमति हुई, फिर बिखरती। कविता का स्वर नाटकीय नहीं, बल्कि एक ऐसी खामोशी से भरा है, जो बहुत कुछ कह जाती है।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें