जीवन में कभी ख़याल नहीं आया कि किसी को इस विषय पर कुछ कहना पड़ेगा। यूँ तो अरसे से आपसे मिलकर ही ये बात करना चाहता था पर मुझमें इतनी ताब नहीं कि आपके दुःख का थोड़ा भी हिस्सा मैं साझा कर सकूँ। पीड़ाओं की कोई ध्वनि नहीं होती। देवेंद्र कहते हैं- "कभी कभी दुःख इतने आराम से आते हैं, हम नींद में होते हैं और मर जाते हैं।" हममें दोस्त के अतिरिक्त एक साझा रिश्ता ये भी है कि दोनों ने अपने पिता को खोया है। पर हाय! मैं अभागा कि मुझे कभी उनके लिए शोक मनाने तक का अवसर न मिल पाया। घर के लिए आ रहा हूँ और ये सब लिखते हुए आँसू बहे जा रहे हैं। आपके दुःख की कल्पना भी मेरे लिए असम्भव है।
आज ऊब और उदासियत से भरी दोपहर गुजरी। कुछ गाने सुने, कुछ कविताएँ पढ़ी, कुछ देर लक्ष्मीकांत में खुद को डुबाया... पर मन से अधिक गहराई भला कब किसी की हो सकी है? दिल बैठा जा रहा है। पिछले बरस नानाजी का जाना मैं अब तक स्वीकार नहीं कर पाया हूँ। आख़िर कब कोई और कितने दिन किसी का जाना सहजता से स्वीकार कर पाता है? उस इंसान के अब कभी ना लौट पाने का सच कितने वक्त में स्वीकार कर पाते हैं हम? मुझे उन तमाम लोगों की याद आती है जो मेरा साथ छोड़ गए हैं। मैं रोता हूँ, छटपटाता हूँ लेकिन खुद को असहाय पाता हूँ। सच क्यों हमेशा मेरी पकड़ से छूट जाता है या कि मैं सच स्वीकारना ही नहीं चाहता। फिर शंकराचार्य दिमाग में आते हैं- ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है। तब लगता है शायद यह सब कोई माया है, भ्रम है, एक स्वप्न है। लेकिन मन नहीं मानता। और कोई स्वप्न आख़िर को कितना लम्बा हो सकता है? इदरीश बाबर ने अकेलेपन की किस सीमा में जाकर कहा होगा, "कोई नम्बर मिलाओ, कोई भी, कोई फोन उठाये तो कहना बात करे।"
जानता हूँ कुछ चेहरे अब कभी नहीं दिखेंगे, फिर भी खोजता हूँ। फिर उन्हें कॉल लगाता हूँ जिन्हें खोने से डरता हूँ। डिप्रेशन के दौर में जीते हुए भी सामने से एकदम उत्साहहीन जवाब मिलता है तो तुरंत फोन काट देता हूँ। लोगों को सुनकर लगता है सब खो ही चुका हूँ। ये मुट्ठियाँ क्यों कसकर बाँधी हुई हैं मैंने? किन्हें जाने से रोक रहा हूँ? और यूँ भी कोई किसी को जाने से भला कब ही रोक पाया है। कई बार ऐसा होता है कि किसी साधारण जान-पहचान वाले इंसान के बिछड़ जाने पर हमें ज़रा भी दुःख नहीं होता पर जिसके साथ एक अरसा बीता हो, यादें साझा की हों, साथ हँसे, बोले-बतियाएँ हों , उसके बिछड़ जाने का दुःख बहुत अलग होता है। क्योंकि उसके साथ हमारी स्मृति बनी होती है। स्मृति ही इंसान को हमेशा ज़िंदा रखती है। हमने भी अपने पिता का केवल स्पर्श ही तो खोया है! उनकी अनुभूति और स्मृति तो हमेशा हमारे काँधे से चिपकी रहेगी। तो फिर केवल स्पर्श के खो जाने का इतना दुःख क्यों? पापा जी के लिए लगाए हुए आपके स्टेटस देखता हूँ तो मन हजारों मौत मर जाता है। पर चाहकर भी कुछ कह नहीं पाता। ढांढस के कोई शब्द नहीं होते मेरे पास। मुझे शब्दों से संवेदना जताना आता ही नहीं। क्या मौन रहकर, किसी को हौले से स्पर्श देकर या एक स्नेहिल दृष्टि देकर संवेदना व्यक्त नहीं हो सकती?
आज दीवाली है। 364 व्यस्तताओं और तकलीफों से भरे दिनों में सिर्फ 1 खुशियाँ साझा करने का दिन। अंधेरे को हराकर रौशनी फैलाने का दिन। मैं बिल्कुल भी ये नहीं कहूँगा कि अपनी खुशियाँ एकदम सेलेब्रेशन वाल तरीके से ही जताई जाएँ, पर पापा के सम्मान में मुस्कुराकर भी तो दिन बिताया जा सकता है ना ! और आपकी मुस्कुराहट तो वैसे भी कई ज़िंदगियाँ रौशन करती हैं। बस एक बार मुस्कुराते हुए अपना चेहरा आईने में देख लेना। आपमें अपने पापा की ही छवि दिखाई देगी। उन्हें अब कभी उदास होने का मौका न देना। इन सबके बीच बहनों और माँ का हमेशा ख़याल रखना। माँ का दुःख साझा करना, उन्हें भी आज के दिन और आज के बाद भी खुश रहने का पूरा हक़ है। स्त्रियों के हिस्से यूँ भी दुनिया के कठिनतम दुःख आये हैं।
मन में उत्पन्न ज्वालामुखी विस्फोट के उद्गारों जैसे भावों को बड़ी शालीनता से मोती जैसे पीरोया है
जवाब देंहटाएंबहुत खूब सत्यम भाई ।
सर 🙏, बहुत सुंदर लिखी है। मन के भीतर कि आवाज सुनाई दी ।
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