शहरनामा : जैसलमेर / ममता शर्मा

जैसलमेर
- ममता शर्मा


किसी गाँव गुवाड़ से ज्यादा नहीं, एक अजब–गजब-सा, ठहरा हुआ-सा ,शांत-सा, बेखौफ-सा , निश्चिंत-सा, तृप्त-सा शहर है जैसलमेर। मैं यहाँ पिछले 42 सालों से रह रही हूँ, लेकिन हर बार थोड़े-थोड़े दिनों में ऐसा लगता रहता है कि इस शहर को मैंने ढंग से जाना नहीं या अभी और बहुत कुछ है बाकी जानने को। ये शहर है ऐतिहासिक धरोहरों का, रेत का, लोक-कलाओं, लोक-देवताओं, राग-रागिनियों का, कथाओं का, विभिन्नताओं का और एकता का। जहाँ जाओ, जिससे भी मिलो एक कथा, एक किस्सा जुड़ता है स्मृति में। यहाँ पर हिंदुओं की कई जातियों–उपजातियों के साथ मुस्लिम जाति के लोग आपस में ऐसे रहते हैं जैसे अलग कभी थे ही नहीं। बाहर से आ कर कोई यहाँ बसना चाहता है तो जनता जल्द ही जुट जाती है उसे यहाँ स्थाई निवासी बनाने में। बाहरी व्यक्ति को इतना प्रेम और सुविधा देते है यहाँ के लोग कि सुकून और अध्यात्म की तलाश में आए कई विदेशी तो आकर यहीं के होकर रह गए। पर्यटन स्थल होने की वजह से बहुत से गाइड हैं यहाँ पर और विदेशी उन पर इतने मोहित हैं कि कइयों ने तो इनसे ही शादी करके घर तक बसा लिया और छप्पर फाड़ कर उन पर पैसा लुटाया। ये गाइड 7 साल से लेकर 65–70 साल तक के हैं जो तीन चार कक्षा तक ही पढ़ें हैं लेकिन फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी फर्राटे से बोल लेते हैं।

संगीत तो जैसे रोम– रोम में बसा है, शहर के किसी भी कोने में देखो चौराहों पर मकानों के ओटो पर, सड़कों पर स्वर लहरियाँ बिखरी पड़ी हैं। वैसे तो ढोली, ढांढी, मीरासी, डूम, भोपे जैसी अनेक जातियाँ जुड़ी हैं संगीत से, लेकिन जिन्होंने यहाँ के लोक-संगीत को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई वो दो मुख्य जातियाँ हैं लंगा और मांगणियार।

लंगे मुख्यत: पाकिस्तान से आए थे और युद्ध भूमि में शहनाई वादन करते थे। जैसलमेर के साके के समय राजा से धोखा करने के कारण अविश्वासी कहलाए। मूलतः क्षत्रिय थे लेकिन आज ये मुसलमान हैं। है न अजीब। ये रीति-रिवाज, खान-पान में हिंदू हैं लेकिन औरंगजेब के समय इस्लाम अपनाने के कारण नाम मुसलमानों जैसे हैं और गीतों में भी सूफी रंग देखने को मिलता है। सुरनाई, सारंगी और शहनाई वादन में तो इनके जोड़ का कोई दुनिया में शायद होगा ही नहीं। संगीत साधना में तल्लीन रहने वाली इस जाति के जजमान इनका सारा खर्च उठाते हैं।

दूसरी बेजोड़ जाति है मांगणियार अर्थात् मांग कर खाने वाली जाति। ये कभी कोई खेती-बाड़ी, धंधा–व्यापार नहीं करते, ना हीं एक स्थान पर रहते हैं। इनके कई नख (उपजातियाँ) भी हैं। हिंदू घरानों में और आज कल तो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खूब गाते बजाते हैं। इनकी आवाज के साथ इनका व्यवहार इतना मन मोहक हैं कि आपका मन करेगा कि इन्हें अपने घर ले जाएं। दोनों ही जाति के कलाकारों की कुछ बातें समान हैं। एक, अमूमन इनके पिता ही इनके गुरु होते हैं; दूसरा, अभिमान छू कर भी नहीं गया इन्हें। एक शास्त्रीय संगीत के घराने के शिष्य में जो आदतें होती हैं, वे सभी विद्यमान है इनमें। कठोर अनुशासन में जीने की इन्हें आदत है।

मैं यहाँ पर ही 2001 से किसी न किसी शिक्षण संस्थान से जुड़ने के कारण इनसे मिलती ही रही हूँ। छोटे–छोटे चार साल के बच्चे अल-सुबह उठकर रियाज करते हैं। आजकल विद्यालयों में शिक्षकों पर नए प्रवेश का बड़ा दबाव सा रहता है, सो मैंने इन बालकों को विद्यालय से जोड़ दिया। पढ़ाई से तो इनका कोई वास्ता था नहीं, जब भी पूछो गृह-कार्य क्यों नहीं किया तो एक ही जवाब "रियाज करो तो काम करण नो टेम कोनी मिले मैडम जी।" प्राचार्य महोदय कहते "नाम काटने का भी मन ना करे सुसरों का", हम सब शिक्षक मंद-मंद हंस देते क्योंकि विद्यालय के सारे सांस्कृतिक कार्यक्रमों की जान तो ये ही होते हैं। अगर बाहर से कोई अतिथि आता तो सबसे पहले इनके बारे में ही पूछता और इनकी गायकी की आड़ में हमारी सारी कमियाँ छिप जाती।

अब मैं महाविद्यालय में हूँ और वही बालक अब किशोर होकर मेरे छात्र हैं। पढ़ाई में आज भी वैसे ही हैं ढपोल। लेकिन गायकी में इतना निखार आया है कि अब तो हम इनसे समय पूछ कर ही सांस्कृतिक आयोजन रखते हैं। क्या पता ये अपनी प्रस्तुति देने ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी या अमेरिका ना गए हों। सारे के सारे ग्रीनकार्ड होल्डर हो गए अब। आप तो इनके वीडियो देखते हैं। आत्मविश्वास से लबरेज, आसमान की ओर देखते शहनाई, ढोलक और खड़ताल पर आलाप लेते। पर कॉलेज आते हैं तो वही व्यवहार में जातिगत मधुरता, झुकने का भाव, गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वाह करते नीची नजर किए मुस्कराते, पैरों से जमीन खुरचते, स्मित मुस्कान बिखेरते, अल्लाह के बंदे। सबसे छोटा थोड़ा मुंह लगा है...... मैडम जी आज क्या सुनोगे..... आपके लिए फिल्मी गीत तैयार किया है इस बार .... बड़ा सा आलाप लेकर ऊँची आवाज में लगा गाने....."आ~~~आ~~~लग जा गले....." साथ वालों ने हाथ भींचा तो मैने कहा गाने दो। जंगली फूल जैसे हैं यहाँ के ये कलाकार, नैसर्गिक हवा पानी में ही खिलते–महकते हैं, ज्यादा नियंत्रण में पोषण देने की कोशिश करो तो सुगंध और रंग वैसे नहीं रहते।

ये बात तो यहाँ की आबोहवा में ही है। इस मिट्टी में बाजरा, मोठ, सांगरी, कैर, पीलू जैसे उगते हैं वैसा कुछ नहीं उगता। पिछले कुछ सालों में बाहर से आए वैज्ञानिकों ने मिट्टी की जाँच की तो पाया कि यहाँ अनार और खजूर खूब फैलेगा। लोगों ने बंपर बुवाई की और बंपर पैदावार भीं हुई। लेकिन वही... ना वो स्वाद ना वो रंग।

जैसे लोग वैसी मिट्टी, और तो और जीव जंतु भी वैसे ही। काफी समय से यहाँ के साँपों के बारे में खूब पढ़ रही थी। एक स्नेक कैचर मुन्ना से संपर्क में आई तो पता चला कोबरा, बांडी, पीवणा जैसे कई जहरीले तो दोमुंही जिसे बोगी कहते है, बिल्ली मार जैसे बिना जहर वाले साँप भी बहुत ज्यादा है। लेकिन नाहक काटते नहीं। लोगों में भी इन्हें मारने की बजाय पकड़ कर जंगल में छोड़ने का चलन है। कहते हैं पहले सर्पदंश की घटनाएँ नहीं होती थी पर अब होने लगी है। इस पर मुन्ना कहता है "क्या करें दीदी, ये अपने नहीं, अपन इनके इलाके में घुस आए हैं। विद्रोह तो करेंगे न बिचारे।" पीवणा के बारे में कई दंत कथाएं प्रचलित थी– रात को सोते समय साँस के साथ जहर छोड़ता है, सुबह आदमी मर जाता है.... मुंह में छाला कर देता है, आदमी बोल नहीं पाता..... वगैरह-वगैरह, पर सच यह है कि उसका दंश इतना बारीक है, जीरो नीडल जैसा, कि जहर का असर होते-होते सुबह हो जाती है। यानि आपको संभलने का अवसर देता है। अब तो साँपों को बचाने के लिए यहाँ स्नेक रेस्क्यू टीम भी बन रही है।

लोगों में पैसा कमाने की आपा-धापी इधर मिलेगी नहीं। खाने–पीने का चटोरा शहर है। शुद्ध घी, शुद्ध दूध, देसी बड़े-बाग की बिना खाद वाली सब्जियाँ, खड़ीन वाले गेहूं खरीदने के लिए कितनी ही मशक्कत कर लेता है। कचौरी वाले फ़ता काका के यहाँ लंबी कतार सुबह ही हररोज़ देखने को मिलेगी। पर वो इतना संतोषी जीव है कि सुबह 6 से दोपहर 1.30 तक एक पीपा तेल जले जितनी ही कचौरी बनाएगा। फिर चाहे कितनी ही डिमांड हो, वो घर जाकर आराम करेगा, कल की तैयारी करेगा, पर उस तेल को दोबारा उपयोग में नहीं लेगा। ऐसे ही शहर पूरा उन्हें काका–काका नहीं करता।

सब्जी बेचने वाली हर मालण बाग से दो-तीन किलो ही सब्जी लाती है; जितनी सुबह-सुबह बिक जाए बस। उनके लिए शहर वाले सुबह ही कतारों में लग जाते हैं। बाकि तो जोधपुर से सब्जी आती है वो कीटनाशक वाली है, उसे लेट उठने वाले ले जाते हैं। एक बात है रिश्तों को जिंदा रखने वाला शहर है ये। कोई जाति हो, कोई धर्म हो आयु के हिसाब से रिश्ता बना लिया जाता है इधर। मालण हो, सफाईकर्मी हो, दुकानदार हो, रिक्शे वाला हो, आपस में अंजान हो तो भी कोई माही (मौसी) है (यहाँ स को ह उच्चारित करते हैं) तो कोई काकी, कोई मौमा है, काकू है, भा है, डाडा है तो कोई भाऊँ, और कुछ नहीं तो माँ संबोधन तो हर उम्रदराज महिला के लिए तय है ही।

अपनी हर क्षय को बाँधने, सहेजने, बचाने वाला शहर है। यहाँ की ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है गड़सीसर तालाब। उस पर एक प्रोल बनी है – टीलों की प्रोल। कहते है ये टीलों एक वैश्या थी और राज दरबार में नाचने गाने का कार्य करती थी। बहुत धनाढ्य थी इसलिए गड़सीसर तालाब पर प्रवेश द्वार के रूप में प्रोल बनाई। राजा वहाँ स्नान को आता तो कुछ दरबारियों ने भड़काया– "हुकुम आप इण प्रोल रे नीचे कर गुजरसो? एक नाचण-गावण आली रो निर्माण है ए। आपरी इज्जत की रेसे ?" बस फिर क्या "ठाकर को रेकारे की गाल"। राजा ने तुरंत प्रोल को तुड़वाने का हुकुम दे डाला। टीलों तुरंत शहर के समझदार लोगों से सलाह को गई। तो सलाह मिली कि इसके ऊपर सत्य नारायण भगवान का मंदिर बनवा दो, राजा मंदिर कभी नहीं तुड़वाएगा। बस ... फिर क्या.. तुरंत निर्माण कार्य शुरू हुआ। मंदिर बना और राजा को कहा गया "हुकुम आप भगवान रे मंदिर हु नीचे कर निकल रिया हो" और इस तरह दरबार का मान भी रखा गया और ऐतिहासिक निर्माण की रक्षा भी हुई।

ऐसा है ये शहर। और ना जाने कितनी कथाएँ हैं अंतर्मन में .... इतना संरक्षण देता है..... अभिभावक-सा लगता है मुझे तो, मन ही नहीं करता छोड़ कर जाने को। यहीं घर बनाने का निर्णय ले लिया है अब।

ममता शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी, एस. बी. के. राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय जैसलमेर

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

12 टिप्पणियाँ

  1. 28 साल हो गए जैसलमेर में रहते हुए पर कभी अपने शहर को इस नजर से नहीं देखा था
    Thank you ma'am Charan sparsh

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    1. वाक़ई बेहद उम्दा मज़मून,, मुबारकबाद

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  2. बहुत बढ़िया लिखा है।

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  3. किसी शहर के धड़कने की रिद्म पखड़ आसान नहीं होता। पर आपने यह मुश्किल काम कर दिखाया है। इधर के कई शहरनामों में यह खास रंगत का है। गाते-गुनगुनाते, आलाप लेते, कचौरी खाते , बाँहे पसार कर पास बुलाते , साँपों की सोहबत में भी निर्विष बने जैसलमेर की बेहद खूबसूरत तस्वीर खींची है ममता जी आपने! भाषा आद्यंत बाँधती है मन को।

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  4. आपकी भावअभिव्यक्तिशैली अर्थ पूर्ण गंभीर सरस,बोध गम्य और हृदय स्पर्शी है आपकी विद्वता को नमन जी पी bajpai

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  5. जैसलमेर — रेत में गढ़ा स्वर्णिम स्वप्न

    जैसलमेर, राजस्थान का वह नगर है जो इतिहास, संस्कृति और सौंदर्य का अद्वितीय संगम प्रस्तुत करता है। थार के रेगिस्तान में बसा यह शहर अपनी स्वर्ण-सी चमकती हवेलियों, भव्य सोनार किले और लोककला के रंगों से विश्वभर में प्रसिद्ध है। यहाँ की गलियाँ इतिहास की कहानियाँ बयां करती हैं और यहाँ की हवाएं लोकगीतों की मिठास लिए बहती हैं।

    यह केवल एक पर्यटन स्थल नहीं, बल्कि भारतीय विरासत की एक जीवंत तस्वीर है, जहाँ रेत भी बोलती है और मौन भी संगीत लगता है। जैसलमेर में आकर लगता है जैसे समय ठहर गया हो — और उस ठहरे हुए समय में परंपराएँ साँस ले रही हों।

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  6. बहुत सारगर्भित लेख, किसी शहर के लगभग सभी पहलुओं पर तुमने प्रकाश डाला और साथ ही अपनी विशेष टिप्पणियां भी दे डाली। सुन्दर लेखन, शब्दों का चयन समझने में सरल और अर्थपूर्ण, वाक्य संरचना में थोड़ा प्रयोग लेख को यूनिक बनाता है। बहुत दिनों बाद कुछ पढ़ा है वरना हम भी अब वीडियो देखने के शिकार हो चुके हैं। अच्छा लगा। प्रयास जारी रखना प्रिय ममता, बहुत बहुत शुभकामनाएं।
    तुम्हारी नुपुर...!!

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  7. विज्ञान विषय से शुरुवात करने वाली एक लड़की ने किस तरह हिंदी भाषा पर अपनी शानदार पकड़ बनाई है इसका जीता जागता उदाहरण ममता शर्मा है और इसके लिए उसकी कठिन मेहनत को सलाम है।साथ ही जैसलमेर का ऐसा वर्णन पढ़कर पुराने दिन याद आ गए जिसको हमने जिया है।अपनी जादुई कलम से ऐसी जानकारी देने के लिए धन्यवाद और शुभकामनाएं

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  8. वाह अदभुत उम्दा लेखन, शब्द चयन ऐसा कि जैसलमेर की लोक संस्कृति के वाहक दापु मांगणियार की सारंगी पर मूमल गीत की धुन हो जैसे ।
    आपके लेखन में जैसलमेर की अवाम की चहल पहल महसूस होती है।

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  9. Gagar me sagar sa bhar diya h. Jaisalmer me bitaye har pal aur ghume har sthan fir se drishy ho gye. Nice

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  10. बहुत सुंदर लेख.... वाकई में इस खूबसूरत शहर की बात ही और है.... D. P. Singh

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  11. जैसलमेर के जनजीवन कला संस्कृति व धरोहर और ऐतिहासिक घटनाओं का बेहद ही खूबसूरत चित्रण अपने लिखनी के माध्यम से किया है ।

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