कविताएँ / शिवांगी गोयल

कविताएँ
-शिवांगी गोयल


(शिवांगी ने अपनी कविताई में भाषा के लिहाज से नया मुहावरा गढ़ा हो जैसे। प्रतीकों में नयापन है। काव्य में कवयित्री अपने हमउम्र तमाम का अनुभव निचोड़ लाती हैं जैसे। ज़िंदगी को वे न्यारी दृष्टि से देखने की भरसक कोशिश करती हैं और उसे कविता में गूंथ पाने में सफल भी होती हैं। कविताओं में झांकेंगे तो पाएंगे कि बहुत बारीकी से अंतर्मन की टोह ली गयी है व मनोविश्लेषण का बढ़िया साध है। कविता के इस युवा स्वर को समझने के लिए थोड़ा सा धीरज रखना होगाव जितनी अभिधा में कवितायेँ सपाट दिखती हैं वे अर्थ में उतनी ही गहरी हैं। जीवन से कहीं-कहीं विरक्ति का भाव दिखता है। पत्रिका में पहली बार प्रकशन पर शिवांगी का स्वागत है- सम्पादक)


1. मृत्यु के लिए मनस्ताप


एक पल खुश होते ही अगले पल की उदासी

कौन सी मनःस्थिति रहेगी अगले पल

नहीं मालूम!

एक ओर से खुश रहने का दबाव है

एक ओर से दुखी रहने का

कोई माफ़ी माँगे भी तो नकार दूँ

किसी को ग़लती स्वीकारे बिना माफ़ कर दिया

घाव हैं- मरहम माँगते हैं किसी दिन,

किसी दिन कुरेदे जाना,

छाँव के अँधेरे में धूप की तलब होती है, डॉक्टर कहता है "विटामिन डी की भारी कमी है"

धूप में सिर जलता है, पाँव भी, देह भी

माँ कहती है "आगे बढ़ो खुश रहो भूल जाओ"

बाबा कुछ नहीं कहते हैं

"कैसी थी इतने दिन" कोई नहीं पूछता

प्रेम इतना कि आस होती है

क्रोध इतना कि रुलाई आते भी नहीं फूटती

अटक जाती है आँखों में

जिसने दुख दिया है उसके आगे रोना भी नहीं है, 

मुस्कराना है हैसियत भर


ज़िंदा रहना मुश्किल नहीं

मर जाना भी आसान नहीं, लेकिन मुश्किल भी नहीं

सारे आज़माये तरीके याद आते हैं

और जीवन के आगे अपनी हार भी

मृत्यु दंड नहीं मिलता

मृत्यु कहती है "मर-मर के जियो लेकिन ज़िंदा रहो"

मृत्यु ने मेरे सारे प्रस्ताव ठुकरा दिये हैं

उसने बार-बार कहा है मुझे जीना होगा

मुझे जीना होगा - मैं खुश कैसे रहूँ?

शशांक अनिरुद्ध की कविता की अधूरी पंक्तियाँ ज़हन में लगातार गूँजती हैं -

'माफ़ करने के अलावा कोई रास्ता नहीं

कभी माफ़ न करने के अलावा भी कोई रास्ता नहीं' 

कितने अधूरे लोग याद आते इन अधूरी पंक्तियों के साथ

ख़ुद से भी यही अधूरा रिश्ता बनता आया

जीवन से भी, मेरा पीछा ही नहीं छोड़ता जीवन

मृत्यु कहती है- खुश रहो कि ज़िंदा हो


मेरे लिए दुखी होने की जगह नहीं

कहाँ जाऊँ इतना खुश होकर!


2. क्या चाहिए 


मुझे क्या पता मुझे क्या चाहिए

इतनी बड़ी है ‘चाहनाओं’ की दुनिया

इतने स्वप्न, इतने निर्माण, इतना अंतर्द्वंद्व

कोई आए और मेरे माथे पर हाथ फेरे

मेरे बाल सहला कर मुझे सुला दे!


महीना बीता, नींद नहीं आई

प्यार में नींद नहीं उड़ी, दर्द में उड़ी

दर्द- जिसका बयान अतिरिक्त दर्द देता

दर्द- जो अकेले पा मुझे दुबारा दबोचने चला आता

दर्द- जिसका प्रतिकार उजास कमरे को काला कर देता

दर्द, जिसके बाद फूट-फूटकर बिलखती मैं

चाहती कोई मसीहा नहीं, इंसान

जो आए मेरा माथा सहलाए और सुला दे!


तुमने पूछा मुझे तोहफ़े में क्या चाहिए

मुझे नींद चाहिए; डरावने सपनों के बिना

जिसमें एक आलीशान कमरा मुझे अपमान से डस न रहा हो

जिसमें अपराधी मुझ पर हँस न रहा हो

जिसमें मैं कमरे-कमरे भाग नहीं रही 

जिसमें मैं चीख-चीखकर बेहोश नहीं हो रही

मुझे सुकून की नींद चाहिए

कोई आए, मेरे सपने का डर मिटा दे

कोई आए मुझे पुचकारे, सुला दे!


3. ब्रेड जलाने की कला 


ब्रेड जलाने की भी एक कला होती है

पहले धीरे-धीरे उसे सुलगते देखना

आँच पर गेहुँआ रंग काला होते देखना

टोस्ट बनने के ठीक बाद

बेस्वाद होने के ठीक पहले

संयम के बीचों बीच कुछ लम्हों के लिए

दिमाग का धीमी गति से वर्तमान से फिसलकर

किसी पुरानी दुर्घटना पर अटक जाना

नहीं हो पाया जो, नहीं हो पाएगा

उसका दुख!

दुख में डूबना ब्रेड जला देता है

दुख में ऐन वक़्त पर डूबना एक कला है

ब्रेड जला देना एक कला है

कलाकार हूँ, भूख लगी है।


4.  

मैं जितने शहरों से गुज़री

उनमें एक आम बात ज़ाहिर मिली 


सबके अखबार भरे रहते हैं

‘महिला शोषण’ की खबरों से


और सबकी दीवारें भरी रहती हैं

‘मर्दाना कमज़ोरी’ से निजात दिलाने वाले

नीम-हकीमों के पते से!


5.

तेरी दास्ताँ मेरे दिल में थी

मेरी धड़कनों को सुकून था

तू चला गया तो गया रहे

मेरे पास था भी तो कौन था?


रहेता-अबद तेरा वाक़िआ

नहीं ऐसी कोई दुआ नहीं

कहीं और जा के तू खुश रहे

हाँ यही सही तो यही सही!


मुझे क्या गरज तेरे नाम से

तुझे क्यों जबीं पे लिए फिरूँ

ये जो रात थी वो तो ढल गई

कहीं तू रहे कहीं मैं रहूँ!


मेरी आँख अश्क़ से ऊब के

अब खिलखिलाए तो ठीक है

मुझे तुझसे कोई गिला नहीं

तू न लौट पाये तो ठीक है।


शिवांगी गोयल

शोधार्थी, अंग्रेजी साहित्य विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

shivangigoel.197@gmail.com


अपनी माटी

( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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