'कावड़'- आस्था व जनविश्वास का सुमेरू /नटवर त्रिपाठी


‘कावड’ देखने में एक दरवाजा, एक डिब्बा लगता है। पर है चलता फिरता मन्दिर-आस्था का स्तूप। चित्तौड़गढ़ के बस्सी गांव के जांगीड़-खैरादी और कावड़िया भाटों के मध्य ‘समझौते’ का नाम है-कावड़। ‘समझौते’ के जो तत्व हैं वे खैरादियों द्वारा कावड़ की ‘रचना’ और भाटों द्वारा उस संरचाना का गांव-गांव, घर-घर ‘गान’। कावड़, आध्यात्मिक-सामाजिक-आर्थिक संरचना का सुमेरू है। कावड़ के इस त्रिविध बह्मा-विष्णु-महेश के स्वरूप के दर्शन से स्त्रियाँ  घरों में सुख-चैन मनाती है, अपने देवत्व के अपने आंगन में पधारने से ‘अपनापन’ महक उठता है। ग्रामीण अंचल में ‘कावड़’ परंपरा का एकाधिकार है। कावड़िया श्रद्धा और आदर का पात्र होता है। उसे देवत्व को लाने-लेजाने का अधिकार है। लोग यह मन्दिर ‘कावड़’ आते रहने का इन्तजार करते हैं, कोई-कोई मनोरथ मनाते हैं। मन्दिर के सामने बच्चे गान सुनने चित्राकृतियों के ‘दर्शन’ भाव लिए बैठ जाती है। गान सुनने के बाद धान, रूपया-पैसा की भेंट चढ़ा कर भाट को विदा किया जाता है।  

इस त्रिविध देव का रचना स्थल मेवाड़-बस्सी गांव है। कावड़ द्वार के शिखर पर सूर्य भगवान मेवाड़ साम्राज्य के प्रतीक और लोक-परलोक के रक्षक है। दायें-बांये जय-विजय द्वारपाल रहते  हैं। बांई पटड़ी खोलने पर विष्णु के अवतार  के दर्शन व राम कथा अंकित रहती है तथा बांयी पटड़ी के दर्शन से नर्क से मुक्ति मिलने की बात कहते हुए दर्शक को भोपा भेंट चढ़ाने के लिए कहता है। दायीं ओर की पटड़ी पर कृष्ण लीला अंकित रहती है और भोपा भेंट की बात कहते हुए कावड़ के इस हिस्से के दर्शन से स्वर्ग मिलने का तथ्य बतलाता है। दोनों पटड़ियां खुलने के बाद मध्य में विष्णु भगवान शेषनाग पर लक्ष्मीजी पांव दबाती हुई चित्राकृत होती है। इस प्रकार एक-एक कर पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पटड़ी पर राम-कृष्ण की लीलाओं के चित्रण रहते हैं। अन्दर की पटड़ियों पर सस्वती, अन्य देवता, ऋषिगण और अन्त में करनी-भरनी चित्रों के बाद अंत में दान पेटी होती है, जिस पर बाल्मीकि आश्रम में लव-कुश के साथ सीता उपस्थित होती है और ऋषि वेद ऋचाओं का गान कर रहे रहे होते हैं। दान पेटी पर अंकित गाय का चित्र गऊ पालन और रक्षा का प्रतीक है।

कावड़- आस्था व जनविश्वास का सुमेरू
कावड़ लोक चित्रण की दृश्य एवं श्रव्य शैली है, जो अपने धार्मिक मूल्यों के जनाधार के कारण निजता और अपनेपन का अहसास कराती है। यह माध्यम उत्कृष्ट और मुखरित है इसलिए जन आस्थाओं के साथ-साथ अपनी पौराणिकता की छाप के कारण गृह सज्जा की वस्तुओं में अपने मूल स्वरूप में बदलाव के साथ स्थापित हो गई है। शिल्प की दृष्टि से बस्सी ग्राम के रामरेवाड़ी, गणगौर, कावड़, और बच्चों के खिलौनों के अलावा रोजमर्रा की जिन्दगी की रसोई घर की जरूरतों के सामान प्रसिद्ध  हैं। कावड़ पहले बहुत मान्य और प्रचलित थी पर अब सजावटी सामान में सम्मिलित हो गई हैं। धार्मिक आस्था का यह स्तूप जो आदिम और नवीन दोनों का ससामयिक निखरा स्वरूप है अब सैलानियों और कार्पोरेट जगत को लुभा रहा है। 

कावड़ काष्ठ कला लोक आस्था और विश्वास का सुमेरू तो है ही, लोककीर्ति की सदा फरफर फहराने वाली तक्षण काष्ठ की बेमिसाल पताका भी है। इसे मेवाड़ की पारंपरिक काष्ठ एवं चित्र शैली माना जाता है। लकड़ी का यह छोटा सा मन्दिर लाखों  स्त्री पुरूषों की मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए निरन्तर कावड़ियों के कन्धों पर चलायमान रहता है। यह काष्ठ मन्दिर चारणियां भाटों के कन्धों पर चल कर गांव-गांव, घर-घर पहुंचता है। यह देवालय श्रद्धालुओं के पास बिना किसी भेदभाव, जाति-धर्म, ऊंच-नीच का ख्याल किए स्वयंमेव बिना आंमन्त्रण-निमन्त्रण लोक कल्याण की  भावना लिए हुए चलता रहता है। दीनानाथ हो या दीनबन्धु भक्तों के पास ये कावड़ स्थित भगवान चल कर हर जात-पांत के घर पहुंचते हैं, प्रतीक्षारत्त उपासकों को कृतार्थ करते हैं, मनोरथ पूरे करते हैं। मन्दिर खुद-ब-खुद उन दीन दुःखियों के पास स्वयंमेव पहुंचता है जो लोग देव-दर्शनार्थ भ्रमण के लिए आर्थिक रूप से समर्थ नहीं होते। वे अपने मनोरथ को इस चलायमान मन्दिर के दर्शन कर पूरे करते हैं और घर बैठे चारधाम की यात्रा पूर्ण कर लेते हैं। भक्त घर आई गंगा के अवगाहन से अपने को धन्य समझते हैं। इनकी यह यात्रा दीपावली के उपरान्त देव उठने से देव सोने तक हिन्दी तिथियों के अनुसार चलती है। जब देव सो जाते हैं, तो उपासकों को देव उठने की तिथि तक का इन्तजार रहता है। 

कावड़ सात लोक का आरोहण 
सबके लिए खुला कावड़ का दरबार सूर्य की किरण के साथ खुल जाता है, और संध्या के पश्चात यह देव रात्रि शयन के लिए छुट्टी पा लेता है। इस कावड़ को धूप-अर्चना करके खुलवाना तथा दर्शन कर भेंट-पूजा चढ़ाना बड़ा ही पुण्यकारी माना गया है, और वह भी छोटा-मोटा नहीं सात लोकों में आरोहण तथा नाम अमर होने का पुण्य कमाने का इसके साथ यश जुड़ा है। लोकमन की स्मृति को प्रतिष्ठित करती इस कावड़ का मूल उद्देश्य भक्तों को भगवद्गाथा सुनाना व दर्शन कराना हैं। वहीं कावड़-वाचन-दर्शन से प्राप्त दान-दक्षिणा द्वारा गौ संवर्द्धन की भावना भी संबद्ध है। भारतीय लोक परम्परा में पट-कपड़े काष्ठ और मन्दिरों के छतों उन पर बने गुम्बदों पर अनेकानेक लोक कथाऐं चित्रांकित हैं। अभिव्यक्ति के लिए भारतीय परंपरा में ये ऐसे अनूठे उदाहरण हैं जो जनमानस पर अपूर्व प्रभाव डालते हैं। 

व्यक्ति-व्यक्ति तीर्थ
अपनी कावड़ को लिए कावड़िया भाट प्रत्येक व्यक्ति को तीर्थ समझता है। अन्य लोग कावड़ वंचवाकर पुण्य कमाते हैं। जहां कहीं कावड़ वंचावनी होती हैं। कावड़िया कावड़ लेकर अपनी गोद में बैठ जाता है और उसके हर पाट पर, हर चित्र को मयूरपंख देता हुआ लयकारी ढंग से उसका वाचन करता है। यह कावड़ कुम्हारिन, सिरपादी, जाटणी करमाबाई, सोनी अंणदा रावल, रूपादें, कीर कालू, वेश्या गणका, चमार रैदास, छीपा नामदेव, नाई सेण, कुम्हार कूमोजी, धन्ना, कबीरा, तोलांदे, आदा, तथा जैसल आदि लोकमन के भक्तों की स्मृति का भी सुमीरण कराती है तथा सुनने वाले श्रद्धालुओं का भी वाचन करती है। अपनी श्रद्धा भक्ति से प्रेरित होकर चना, ज्वार आदि अनाज के रूप में दाना चढ़ावा और दक्षिणा का दस्तूर हर कोई निभाता है। कावड़िये भाट अपनी मौजूदगी में ही कावड़ में ऐसे चित्र तैयार करवाते हैं।जिनमें कावड़ के प्रचलन तीर्थाटन तथा कावड़ खास दर्शनार्थियों की नामावली अंकित रहती है। जिस जाति, समाज में कावड़िये प्रायः अधिक विचरण करते थे उन्हीं की लोक-कथाओं या लोक-गाथाओं से सम्बद्ध देवी-देवालयों के चित्रों पर विशेष बल दिया जाता है। इससे 

जनमानस में इसकी लोकप्रियता में वृद्धि होती है।
मारवाड़ में अधिकांश कावड़िया भाट राव जाति समुदाय के होते हैं। जोधपुर की भोपालगढ़ तहसील के गांवों में कावड़िया भाट अभी भी मिल जाते हैं। कावड़िया भाटों में जजमानी प्रथा का प्रचलन है। प्रत्येक कावड़ियों के गांव और वहां के जाट, राजपूत, प्रजापत, सुथार, माली, चौधरी, जाट-बिशनोई इनके यजमान होते हैं। हरिसिंह राव बासनी ने उसके 9 गांव और प्रत्येक गांव में 15 से 20 तक यजमान हैं जिनका ओसरा 1-3 साल में आता है। कभी-कभी यजमान से अन्य भेंट के साथ-साथ चांदी की अंगूठी भी मिलती है। यजमान से भेंट में वस्त्र, रुपया और चांदी-सोना उपहार स्वीकार करते हैं। यजमान के यहां जब ये जाते हैं तो यजमान चाहे कितना ही ऊंची हैसियत का क्यूं न हो दरवाजे पर कावड़िया भाट की अगवानी करने आते हैं और आदर पूर्वक घर में ले जाते हैं। परस्पर घर-परिवार की खुशी पूछने के उपरान्त निर्धारित दिन पर कावड़ बांची जाती है। इस अवसर पर परिवार के सभी लोग, बड़े, बूढ़, स्त्रियां, बच्चे सभी स्नान कर और वस्त्र पहन कर चौक में, आंगन में या दरीखाने में कावड़ सुनने बैठ जाते हैं। भोपा धूप अगरबत्ती करके लाल वस्त्र में लिपटी कावड़ को खोलकर सभी को दर्शन कराता है। सभी कावड़ में बिराजे देवी-देवताओं को सर नवाते हैं। भोपा की निज कावड़ मारवाड़ी होती है और वे इसे सरवण (श्रवण) कहते हैं। 

कावड़ बांचने का समय प्रायः सुबह 8 बजे और सर्दियों में 9 बजे से लगभग दो धण्टे तक होता है। दोपहर में 3 बजे से 10 बजे तक कावड़ बांची जाती है पर देर रात्रि में  कावड़ नहीं बंचती है। इस तरह एक गांव में दो यजमानों का बुलावा है या उसके जाने का ओसरा है तो सुबह और दोपहर दो घरों के यजमानों के यहां कावड़ पाठ हो जाता है। कावड़ बांचने के दौरान भाट-भोपा कुछ भी ग्रहण नहीं करता है। भोपा के परिधानों में सफेद धोती, सफेद कमीज और सर पर मारवाड़ी चूंदड़ी का साफा होता है। तीर्थ यात्रा के दौरान लाल धोती, पीला कमीज और राम-नाम की सर पर पट्टी बांधी जाती है। कावड़ वांचने के लिए सबसे पहले भगतमाल में भगवान और ऋषि-मुनियों की स्तुति की जाती है, सभी देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है, शक्ति माता का आह्वान होता है, बद्रीनाथ, महाकाली, सरस्वती, करणी-भरणी के पाट खुलते हैं। सब देवताओं के आह्वान के साथ-साथ कुलदेवताओं की साक्षी में कावड़ में मण्डित कथाओं का गान होता है और अर्न्तकथाओं को मारवाड़ी सप्रसंग चुटकलों कहानियों के साथ प्रस्तुत किया जाता है। दर्शक बीच-बीच में ‘हां-सा, खम्मा घणी’ आदि हंुकारे भरते हैं। धूप-अगरबत्ती लगातार जलती रहती है। मोर पंख से कावड़ की रज झाड़ते हैं और प्रसंगों के समय चित्रों के इंगित करने में प्रयुक्त होते हैं। एकादशी और अमावस्या के अलावा सावन मास में कावड़ नहीं बांची जाती है।
(समस्त चित्र स्वतंत्र पत्रकार श्री नटवर त्रिपाठी के द्वारा लिए गए हैं हम उनके आभारी हैं कि उन्होंने 'अपनी माटी' को यह चित्र भेंट किए.-सम्पादक )
---------------------------------------------------------------------------------------------
नटवर त्रिपाठी
सी-79,प्रताप नगर,
चित्तौड़गढ़ 
म़ो: 09460364940
ई-मेल:-natwar.tripathi@gmail.com
नटवर त्रिपाठी

(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं। पूरा परिचय 

1 टिप्पणियाँ

  1. चोरों के सरदार निकले
    सत्ता सोंपी थी हमने जिनको
    पर वे सबके सब गद्दार निकले
    विश्वाश किया जिन पर हमने
    वे सब चोरो के सरदार निकले

    भेजा था जिनको समझ हितेषी
    पर वे सब देश चलाना भूल गए
    करना उधार देश का दूर रहा पर
    ले सब कोष देश का लूट गए

    घोटालों का दौर चल रहा
    सब अपनी रोटी सेंक रहे है
    जनता के परवाह किसे है
    भर अपना सब पेट रहे है

    कोलाहल हर तरफ मचा है
    सब लूट खाशोटी खेल रहे हैं
    चाहे देश बढे या नहीं बढे
    पर धंधे इनके पनप रहे हैं

    ग्राम देवता तड़प रहा है
    ये प्रांतवाद से खेल रहे हैं
    मानवता का दफ़न हो गया
    चोर मवाली पनप रहे हैं

    स्वच्छ राष्ट्र के चाह अगर है
    तो इन चोरो दो दूर भगाओ
    लूटा है धन जिसने माँ का
    मिल सूली पर उनको चढाओ

    जो जग मैं समृद्ध बना था
    इन चोरों ने कंगाल कर दिया
    लूट लूट कर खनिज सम्पदा
    जन-जन को बदहाल कर दिया

    न्याय व्यवस्थां भंग हो गई
    अब संसद मे कपडे फटते
    लोकतंत्र के पवन घर में
    ये पशुओं के सम लड़ते हैं

    devutta paliwal "Nerbhya"

    plz publish this rachan i will be thank full to u

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने