कहानी:महुआ बनजारिन / हरिशंकर श्रीवास्तव ‘शलभ ’

जून-2013 अंक 
हरिशंकर श्रीवास्तव
‘शलभ ’,मधेपुरा



जन्मः 01 जनवरी, 1934
योग्यताः एम.ए. (हिन्दी), बी.एल., विद्यावाचस्पति

प्रकाशित कृतियाँ
अर्चना (गीत काव्य) , 
आनन्द (खण्ड काव्य) ,
 एक बंजारा विजन में (काव्य), 
मधेपुरा में स्वाधीनता आन्दोलन का इतिहास,
शैव अवधारणा और सिंहेश्वर (प्रचीन भारत और संस्कृति) ,
मंत्रद्राष्टा ऋष्य शृंग (प्राचीन भारत एवं संस्कृति), 
कोशी अंचल की अनमोल धरोहरें( निबन्ध), 
अंगिका लिपि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (लिपि विज्ञान),
अंग लिपि का इतिहास (लिपि विज्ञान), 
कोसी तीर के आलोक पुरुष (जीवनी एवं मूल्यांकन),
मैनाघाट के सिद्ध (कहानी संग्रह),
पता - कला कुटीर, मधेपुरा - 852113 
बिहार, मोबाइल - 9472495048






नेपाल के मोरंग से भारदह तक का विशाल क्षेत्र कोसी जैसी छोटी-बड़ी अनेक नदियों से आच्छादित है। कछारों में अनेक गाँव बसे हैं। यहाँ वन-पर्वत भी कम नहीं हैं। इन्हीं वन पर्वतों में रहते हैं।बनजारों के अनेक समूह।प्रत्येक समूह में एक सरदार होता है तथा अपने संबंधी के अतिरिक्त अन्य आश्रित भी होते हैं जो या तो किसी गिरोह से बिछुड़ गए हैं या स्वेच्छा से इस गिरोह में शामिल हो गए हैं। मर्द, औरत, बच्चे सभी के काम बँटे हुए हैं। सभी मिल-जुलकर वन्य पशुओं का शिकार करते हैं, जंगल से औषधीय गुणवाली जड़ी बूटी इकट्ठा करते हैं। उन्हें छाया में सुखाते हैं, जिन्हें शहर के व्यापारी खरीदकर ले जाते हैं। इनके पालतू पशु हैं।भैंस, छोटे कद के घोड़े और शिकारी कुत्ते। 


बरसात तक वे अपने ठिकाने पर बने रहते हैं। इन्हें जल्द बरसात बीत जाने का इंतजार रहता है। बरसात में इनकी गतिविधियाँ प्रायः बंद रहती हैं।

देखते-देखते वर्षा ऋतु समाप्त हो गई। मिथिला और कोसी अंचल में प्रवासी पक्षियों का आना आरंभ हो गया। शरद ऋतु का आगमन हुआ। वर्षा ने धरती पर फैले कास के उजले फूलों के रूप में अपने बुढ़ापे को प्रदर्शित कर दिया। नदियों और तालाबों का जल निर्मल हो गया। अब ये बनजारों के समह धीरे-धीरे तराई से उतरकर कोसी के समतल अंचल के गाँवों में आने लगे।

इस गिरोह का सरदार है बिरछा बनजारा उम्र सत्तर वर्ष के कम नहीं, किन्तु कदकाठी का कद्दावर। यह इसकी पांचवी पत्नी है। अन्य चार पत्नियाँ या तो भाग गई या अन्य गिरोह कर लिया। यही होता है इस समाज में। बिरछा को पहली पत्नी से एक बेटा था।गोलू, जो साँप पकड़ने मे माहिर था। अपनी किसी चूक के कारण वह सँपकट्टी का शिकार हो गया। बिरछा की जड़ीबूटी तंत्र-मंत्र का उस पर कोई असर नहीं हुआ। उसने जंगल में ही दम तोड़ दिया। उसके मरने पर उसकी पत्नी अन्य गिरोह के किसी मर्द के साथ चली गई। ‘महुआ’ उसी की बेटी थी, जिसका बड़े लाड़-प्यार से पालन पोषण किया था उसके दादा बिरछा और दादी गुलबिया ने। अब तो वह जवान हो गई है। किंतु, ऐसी तेज तर्रार कि क्या मजाल, कोई उसकी ओर लोलुप दृष्टि डाल दे। अभी तक किसी मर्द ने उसके आगे घास डालने की हिम्मत नहीं की। वह इस गिरोह  की ‘गोधपरनी’ है। गोदना में वह एक से एक सुंदर चित्रा बनाती है, देखनेवाला मंत्रा-मुग्ध हो जाता है। गले में टहकार आवाजµजब वह गीत गाती है तो जड़ चेतन स्तब्ध हो जाते हैं और गोदना गोदवाने वालियों की भीड़ लग जाती है। ऐसी है महुआ बनजारिन। उसे बनजारा गिरोह की तहजीब, धरम-करम सभी का पूरा ज्ञान है। वह अपने गिरोह की ‘पुरखाइन’ है।

इसी गिरोह की सिड़की खड़ी हो गई है।इस समृद्ध गाँव माधोपुर की अमराई में। सभी वरण के लोग हैं इस गाँव में। छोटा-सा बाजार भी, जो दिन भर तो शांत रहता है, मगर अपराह्न के बाद अगल-बगल गाँव के इतने लोग आ जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि यहा गांव है। पूरा बाजार शहर बन जाता है। इसी गाँव के बीच बाजार में बिरछा का दवाखाना सज जाता है। लगभग दस छोटे-छोटे झोले में दुर्लभ जन्तुओं की खाल के टुकड़े, नख-दंत आदि पड़े हुए हैं। बगल में ‘गुलबिया’ बैठी हुई है। बिरछा बिना रुके अपने छोटे-से भोंपू पर ग्राहकों को बुलाता है। आइए यहाँ हिमालय की जड़ी-बूटी से सभी बीमारियों का शर्तिया इलाज होता है। मलेरिया, फलेरिया, खसरा, सिरदर्द, अधकपाड़ी, नेत्रा रोग, रतौंधी, दिनौन्धी, मोतियाबिंद, रोहा, कान दर्द, बहरापन, नक्सीर, पीनस रोग, मुँह का घाव, छाला, जीभ, ओठ, मसूढ़ा, दाँत की बीमारी, गला दुखना, टॉन्सिल, सर्दी, जुकाम, खाँसी, काली खाँसी, कुक्कुर खाँसी, दमा, न्यूमोनिया, टी.बी., बदहजमी, अम्ल रोग, कब्ज, पेट दर्द, पेचिश, हर्निया, भूख नहीं लगना, पिल्ही, पीलिया, कृमिरोग, मुहासा, फोड़ा फुंसी, खाज खुजली, दाद दिनाय, गठिया, मिरगी, विद्यार्थी के लिए भुलक्कड़पन, जोड़ दर्द, कमर दर्द, पीठ दर्द, सभी तरह के मूत्र रोग, खून की कमी, अनिद्रा, पुरुषों के गुप्त रोग, महिलाओं के सभी तरह के रोग, रजोरोध, प्रसव में कष्ट, हिस्टीरिया, स्वेत प्रदर, बाँझपन, बच्चों के सभी रोगों का अपने देश के ऋषि-मुनियों द्वारा खोजी गई जंगली जड़ी बूटियों से शर्तिया इलाज कराइए। एक महीने के भीतर रोग नहीं छूटने पर पैसा वापस।

इसके साथ ‘बिरछा’ बड़े ही रोमांटिक हावभाव से नपुसंकता, स्वप्नदोष आदि रोगों पर प्रकाश डालता है और इसके शर्तिया इलाज के संबंध में अपनी महारत और तारीफ का पुल बांध देता है। शाम होते-होते वहाँ भीड़ जम जाती है। अधिकांश मरीज शाम के धुँधलके में उससे संपर्क करते हैं तथा रात उसकी सिड़की में। इससे बिरछा की अच्छी कमाई हो जाती है।
दिन में महुआ जैसी कई युवतियाँ गाँव के अलग-अलग टोले में ‘गोदना’ गोदने के लिए चल पड़ती हैं। महुआ की टहकार आवाज उसके मुख्य आकर्षण का केन्द्र है। गाँठ टोले में मुखिया के द्वार पर किसी गाछ के नीचे अपने धोकड़े को रखकर महुआ बैठ जाती है और ऊँचे स्वर में गाना शुरू करती है।

उतरहिं राज से अइलै गोधपरनी रे जान।
जान, बैठि गेलै चंदन के बिरिछिया तर रे जान।

औरतों, युवतियों और बच्चों के झुण्ड धीरे-धीरे जमते गए। महुआ कहती है-हे बहिनो, हे सुआसिनो, गोधपरनी नट्टिन जिस गाछ के नीचे बैठ जाय चाहे वह महुआ, पीपल, पाकड़, गुल्लर, बैर ही क्यों न हो, उस गाछ से चंदन की सुगंध आने लगती है। यह गौरा पार्वती का वरदान है। गोदना से औरतों का अहिवात बढ़ता है। मरने पर भी उसके लिए स्वर्ग में जगह बनी रहती है। जिस औरत के देह में गोदना नहीं रहता।उसे यमदूत अस्सी कुण्ड नरक में ठेल देता है और लोहा धिपा-धिपाकर सारे देह को दाग देता है। जो कुमारी कन्या कपार पर ठोप गोदवा लेती है उसको गौरा पार्वती अच्छा घर-वर देती हैं।सुहागिन का अहिवात अजर-अमर हो जाता है। यदि वह गरदन पर गोदना गोदवाती है तो मरने पर स्वर्ग जाती है, वहाँ उसे अपनी माँ से भेंट होती है। पैर में गोदवाने से अगले जनम वह कौआ कुक्कुर में जन्म नहीं लेती। छाती पर गोदवाने से पति का प्यार जीवन भर मिलता है।

हे बहिनो, हे सुआसिनो,
घर से बहार भेली सुंदरी पतुहुए रे जान, 
जान पड़ि गेले नट्टिन मुख दिठिए रे जान।

महुआ बिना रुके बोल रही है।जब पतुहो की नजर गोधपरनी पर पड़ती है।वह अपनी सास से कोसल कौड़ी (छिपाए या सहेजे हुए रुपये पैसे) निकालने का आग्रह करती है, जिसे वह गोधपरनी को देकर गोदना गोदवा सके। सास कंजूस है। वह पतोहू को गाली देती है कि उसके पास कोई कोसल कौड़ी नहीं है। पतोहू ने भी गुस्से में बज्जर किवाड़ ठोककर खटवास ले लिया।

आँ.....                            ,,
मचिया बैसल तोहूं सासू बरइतनी रे जान, 
जान, दिऔ सासू कोसल कउरिये रे जान,
अइया खौकी भइया खौकी सुंदरी पुतहुए रे जान,
जान, कहाँ से पायेब कोसल कउरिये रे जान।
एतना वचन जब, सुनुलक पुतहुए रे जान।
जान, ठोकि ललकै बज्जर केवरिये रे जान।

उसका मरद हल जोतकर घर आता है। अपनी धनियाँ को नहीं पाकर माँ से पूछता है। जब उसे धनियाँ के खटवास की जानकारी मिलती है।बहुत चिरौरी करके उसे मनाता है। लेकिन हाय राम, वह अपनी माँ से भी बढ़कर कंजूस निकलता है। वह धनियाँ को समझाता है-

हे धनियाँ, गोदना गोदवाने में सुइया की लहर तुम नहीं सह सकोगी। इसलिए गोदना मत गोदवाओ। धनियाँ कहती है।हे स्वामी, सुइया की लहर से अधिक तो आपकी बोली लहर दुःख देने वाली है। सुइया की लहर का असर दो चार क्षण ही रहता है, लेकिन आपकी बोली की सुइया तो जीवन भी कलेजे में गोदती रहेगी।

आँ......
हर जोति कोदारि अले बेटबा दुलरूए रे जान,
जान, बेसि गेलै देहरी झमइए रे जान,
सबके जे धनी अम्मा रूनझुन करइछै रे जान,
जान, हमरो धनी कहाँ चलि गेलै रे जान।
तोहरे जे धनी बेटा, विरहा के मातल रे जान, 
जान, ठोकि ललकै, बज्जर केवरिये रे जान, 
हमरो बचनियाँ धनी, अंगिया लगइकौ रे जान, 
जान, सुइया लहरिया कोना सहतियै रे जान, 
सुइया लहरिया बालम रहितह दू छनमा रे जान,
जान, तोरो बचनियाँ छतिया बेधलकै रे जान, 
कौनो दलिद्दर दैवा लिखलक करमुआ रे जान
जान, बोली के गोदना छतिया गोदैले रे जान।

हे बहिनो! सभी सास और मर्द ऐसे कंजूस नहीं होते हैं। एक मर्द ऐसा भी है, जो अपनी घरवाली का खुद गोदना गोदवाने के लिए कहता है। किंतु उसकी चतुर घरवाली अपने पति से पहले ‘सत’ कराती है।

‘एक सत, दो सत, बरमा विसुन सत,
हे स्वामी, यदि मैं बाँह में गोदना गोदवाऊँगी तो आप मुझे सोने का कंगन देंगे। अपनी छाती में तो इसी शर्त पर गोदवाऊँगी, जब आप मेरे गोद में एक बेटा देंगे।

आ........,
बहियाँ गोदैबो बलमा लेबौ, सोने के कंगनमा रे जान,
जान, छतियाँ गोदैबो लेबौ, गोदी में ललनमा रे जान। 

गीत की अन्तिम कड़ी के साथ ही ‘महुआ’ के ओठों पर गुलाबी मुस्कान फैल जाती है, उसके कपोल लाल हो जाते है और पूरा चेहरा रोमांटिक। वहाँ बैठी हुई औरतों का मन गुदगुदाने लगता है और उनके रोमµरोम पुलकित हो उठते हैं। 

महुआ अपने गले की सुरीली आवाज से सभी का मन मोह लेती है। वह बड़े मनोयोग से तल्लीन होकर गोदना गोदती है।गाती है और महिलाओं को नाच कर भी दिखाती है। सबों से ‘नेग’ में चावल लेकर अपना धोकड़ा भर लेती है।

गाँव में प्रचलित है कि नट्टिन गोधपरनी जब गाँव में प्रवेश करती है।बूढ़ी औरतें अपने घर के किशोर और तरुण लड़कों को छिपाकर किवाड़ बन्द कर देती है। क्योंकि नट्टिन की आँख में अजगर का आकर्षण है। यदि कोई तरुण उसे भा गया तो वह उसे किसी न किसी जुगत से अपने माया जाल में फँसा लेती है, रूप के डोर में उसे बाँधकर ले जाती है। दिन भर उसे भेड़ बनाकर रखती है और रात में पुरुष बना लेती है।

मुखिया के घर के बगल मे ही रहता है।बीरा। तरुणाई आते ही वह गबरू जवान हो गया है। उसे भी अन्य तरुणों की तरह उसकी विधवा माँ ने घर में बन्द कर दिया था कि नट्टिन की जादूभरी दीठ उस पर न लगे। लेकिन विधि का विधान कुछ और था, गौरा पार्वती की इच्छा कुछ और थी। वीरा के घर की खिड़की से सटे ही था वह गाछ जिसकी छाया में महुआ गा रही थी गोदना गोद रही थी। वीरा उसी खिड़की की फाँक से अपलक महुआ का निहार रहा था, उसके रूप रस का पान कर रहा था उसके चित्ताकर्षक व्यक्तित्व पर वह न्योछावर था। उसकी गठीली देह दृष्टि को विलोक वह आत्म सुध खो बैठा था। महुआ चली गई। वह भी कैद खाने से मुक्त हो गया। किन्तु महुआ के सम्मोहन में वह अपनी सुध-बुध विसार चुका था। शाम ढलते ही वह हिम्मत बटोर कर महुआ के ठिकाने पर जा पहुंचा। ऐसे ही समय लोग बाजीकरण की शर्तिया दवा खरीदने बिरछा बनजारा से मिलते हैं और अपने गम की दास्तां सुनाते हैं।

वीरा बेरोकटोक ‘महुआ’ की सिड़की में पहुँचता है। थकी-मांदी महुआ चटाई पर पसरी हुई है। वीरा उसके स्वर की प्रशंसा करते हुए अपने भाव विह्नल शब्दों में उससे प्रेम-याचना करता है और उसके साथ जीवन भर बनजारा बनकर रहने का संकल्प भी लेता है। महुआ केवल मुस्कुरा कर अपने ऊपर काबू रखने की नसीहत दे उसे लौटा देती है। महुआ के नयन वाण से घायल वीरा मानता नहीं, वह प्रत्येक सन्ध्या महुआ से मिलता है और महुआ यही कहकर उसे लौटा देती है। वह वीरा निरादर नहीं करती। इस प्रकार सात-आठ दिन बीत गए। वीरा का धैर्य टूटने लगा। महुआ कहती है।

”धीरज रखो वीरा। मैंने तुम्हारे प्रेम का परख लिया है। किंतु मेरा संग पाने के लिए तुम्हें कठिन परीक्षा देनी होगी। याद रखनाµबनजारिन का संग पाना आसान नहीं है। मैं नैका बनजारा के वंश की हूँ। तुम्हें इनकी कथा मालूम है न। फिर भी सुन लोµनैका बनजारा जंगली जड़ी बूटियों का बहुत बड़ा व्यापारी था। उनकी सतवन्ती पत्नी थी ‘फुलेसरी’। फुलेसरी को उसकी दुष्ट ननद ‘तिलेसरी’ ने अपने भाई नैका बनजारा की गैर हाजिरी में एक अत्यन्त कामुक व्यक्ति कुम्भा डोम के हाथ बेच दिया था। वह काशी का नामी वेश्या व्यापारी था। रास्ते भर यह कामी पुरुष रानी फुलेसरी का शील हरण करने की जुगत लगाता रहा। किंतु रसानी फुलेसरी के अटल संकल्प के आगे उसकी कुछ नहीं चली और वह हार मानकर भाग खड़ा हुआ। गौरा पार्वती की कृपा से रानी सकुशल अपने घर लौट जाती है। वीरा, तुम्हारे प्रेम का मैं निरादर नहीं करती हूँ। लेकिन कठिन परीक्षा के लिए तैयार रहो।“

वीरा प्रति संध्या महुआ के यहाँ आया करता और एक ही प्रकार का उत्तर पाकर वह लौट जाता। शायद यही उसकी कठिन परीक्षा थी। आज इक्कीसवाँ दिन है। आधी रात को ही बनजारों ने अपनी सिड़की समेट ली और पूरब की ओर चल पड़े। वीरा अपने घर से गायब था। उसकी खोज होने लगी। गाँव के लोगों ने आगे बढ़कर बनजारों का घेरा। किन्तु वहाँ न तो महुआ थी और न वीरा। सूत्र बताते हैं कि वीरा महुआ के साथ कोई कठिन परीक्षा देने के लिए एक दिन पूर्व ही मोरंग के जंगल की ओर जा चुका था।

दिन बीते, माह बीते, वर्ष बीते। वीरा की माँ अपने बेटे की प्रतीक्षा में अंधी होकर अन्ततः काल कवित हो गई। कोसी ज्यों की त्यों  बह रही है। प्रत्येक वर्ष नया पानी उतरता है। तट की गन्दगी का धोµपांेछ का गंगा में बहा आता है। सृष्टि अपनी गति में चल रही है। गाँव जवार के लोग वीराµमहुआ प्रकरण को भूलते गए, भूलते गए और भूल ही गए। ऐसा ही होता है। यह कौन-सी बड़ी घटना थी जिसे लोग याद रखते।

कार्तिक मास। कोसी के तीर पर बनजारों का एक भरा पूरा समूह उतरा है। किसी मन्नत को उतारने के लिए जंगली फलकन्द, पियार, भेलवा खट्टे संतरे तथा अन्य सुगन्धित वनस्पतियों से स्वयं तैयार किए हुए मधु (शराब) अपनी अंजलि में भर कर बनजारा सरदार और सरदारिन कोसी को अर्पित करते हुए भाव विह्नल हो उठते हैं। सरदारिन गाती है।

फाटल नेवरिया मैया गुन पतवार से टूटि
गेलं मैया गें, लागहूं गोहार से दया करू
गोड़ लागौ पैंया मैया सतवन्ती 
से राखि लेहू
मैया गे हमर सोहाग से राखि लेहू। 

सरदारिन के सुहाग की रक्षा कोशी माय जरूर करेगी।इस समूह का नया सरदार है।वीरा बनजारा और सरदारिन है महुआ बनजारिन। पाँच वर्ष बीत गए मधेपुर में इस बीच कोई बनजारा नहीं आया और न कोई ‘गोधपरनी’ ही। कोशी की भीषण कटानियाँ के कारण एक सम्पूर्ण टोला ‘उपट’ कर अमराई के बगल में बस गया है। यहाँ कभी-कभी निस्तब्ध रात्रि में गाने की परिचित आवाज सुनकर महिलाएँ चौंक उठती हैं।

उतरहिं राज से अयलय एक नटिनियाँ रे जान,
जान, कवने सांवर गोदना गोदैतै रे जान।


(यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।इससे पहले के मासिक अंक अप्रैल और मई यहाँ क्लिक कर पढ़े जा हैं।आप सभी साथियों की तरफ से मिल रहे अबाध सहयोग के लिए शुक्रिया कहना बहुत छोटी बात होगी।-सम्पादक)

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