साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट |
उस महामानव के विषय में मै क्या कह सकता हूँ जो आज भी पहाड़ो के हृदय में धड़कन बनकर धड़कता है, जिसने पहाड़ों को चीरकर उनसे निकलने वाली सांेधी खुशबु को हृदय में समा रखा था। उसी प्रकृति के बीच अपना जीवन गुजारने वाले, अनेक कष्टों को हृदय पर झेलते हुए, उस देव-भूमि को सामंती शासन के घोर अत्याचारों से आजाद कराने वाले विद्यासागर नौटियाल अपने नाम और गुण के अनुरूप थे। वह बचपन से लेकर अपने जीवन के आखिरी पड़ाव तक पढ़ते ही आ रहे थे। शिक्षा से उनका गहरा जुड़ाव था। सरस्वती की उन पर अपार कृपा थी इसलिए उन्हें विद्या का सागर कहा जाता था। वे प्रेमचन्द के बाद हमारे समय के सबसे बड़े कलम के सिपाही थे। वे जनक्रान्ति के वाहक थे। उन्होने टिहरी रियासत के विरुद्ध संघर्ष का झण्डा बुलंद किया था। वे जीवन पर्यंत किसान और ग्रामीण जीवन से जुड़ी समस्याओं, आकांक्षाओं व संघर्षों को अपने साहित्य के माध्यम से मुखरित करते रहे। वह पहाड़ों पर बसने वाले लोगों की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं से भली-भाँति परिचित थे। पहाड़ों में घूम-घूमकर क्रान्ति की अलख जगाने वाले सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। उनके रोम-रोम में पहाड़, उसके निवासी तथा उनके दुख-दर्द बसते थे। उन्होंने पहाड़ के लोगों का, उनकी गरीबी का, उनकी पीड़ाओं का, उन पर सरकारी, गैर-सरकारी लोगों द्वारा किए गए अत्याचारों का तथा शोषण का सूक्ष्म अध्ययन किया था। स्वयं नौटियाल ने भी इन्हीं तमाम कठिनाइयों का एक योद्धा की तरह डटकर मुकाबला किया था। वे सच्चे कलम के सिपाही थे। उनका जीवन संघर्षों का दस्तावेज था।
अपने इन्हीं विरोधी तेवर के कारण उन्हें कई बार जेल की यात्राा करनी पड़ी। वे पहाड़ के प्रेमचन्द थे। पहाड़ के आचार-विचार, रीति-रिवाज तथा रहन-सहन से वे जितने प्रभावित दिखाई देते थे, उतना शायद कोई दूसरा साहित्यकार नहीं था, जो पहाड़ के रंग में इस तरह रंगा हो। जब-जब भी पहाड़ को केन्द्र में रखकर साहित्य लिखा जाएगा तब-तब नौटियाल की कमी खलती रहेगी। उनके योगदान को सदा स्मरण किया जाएगा। नौटियाल का सम्पूर्ण साहित्य पहाड़ को समर्पित है, उनका साहित्य प्रासांगिकता के साथ-साथ प्रेरणादायी भी है। उनके साहित्य में उनके अनुभव और उनका अध्ययन साफ झलकता है, परन्तु बड़े अफसोस की बात है कि पहाड़ का यह जगमगाता सितारा अपने अनुभवों और अध्ययन को हिन्दी साहित्य में और आगे नहीं ले जा सका। दिनाँक 12 फरवरी 2012 को 76 वर्ष की उम्र में इस महान साहित्यकार ने हमसे सदा के लिए आँखे पेQर ली। साहित्याकाश का यह जगमगाता सितारा सदैव के लिए हमसे ओझल हो गया। उनके अचानक इस तरह चले जाने से पहाड़ और साहित्य में घोर रोष व्याप्त है। उनकी रिक्तता को शायद कभी कोई अन्य पूरा नहीं कर पायेगा।

नौटियाल ने अमेरिका, यूरोप, व सोवियत सेघ की कई यात्रााएं की। उनकी पहली कहानी फ्भैंस का कट्याय् 1954 में इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली साहित्यक पत्रिाका ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई। इससे पूर्व वे ‘मूक बलिदान’ नामक कहानी लिख चुके थे। उनका पहला उपन्यास ‘उल्झे रिश्ते’ था। नौटियाल के भीम अकेला, सूरज सबका है, उत्तर बायां है, झुण्ड से बिछुड़ा, यमुना के बागी बेटे तथा स्वर्ग दद्दा! पाणि,पाणि। चर्चित उपन्यास है।
नौटियाल की रचनाओं में प्रेमचन्द की यथार्थवादी परम्परा का सार्थक विस्तार मिलता है। वे दबे-कुचलों की आवाज थे। वे साहित्य ही नहीं, राजनीति में भी उन्हीं के हक की आवाज बुलन्द करते रहें। वे संवेदना के कथाकार थे, जिसे उनके साहित्य में स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। उनकी कलम हमेशा शोषण व असमानता के खिलाफ चली और यही उनका स्वभाव भी था।
नौटियाल की ‘घास‘ नामक कहानी में नारी पात्रा ‘रूपसा’ का जिस प्रकार शोषण होता है, वह पूरे भारतीय समाज को शर्मशार करने वाली घटना है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन फौज द्वारा युद्ध में बन्दी बना लिए गए एक गढवाली सैनिक की स्त्राी की कहानी है। कहानी में विकट परिस्थितियों से जूझती पर्वतीय स्त्राी की अक्षुण्ण जिजीविषा छिपी है। जीवित रहने के लिए दुर्दांत, भीषण कष्ट सहते जाना विद्यमान व्यवस्था के अन्तर्गत उसकी नियति बन चुका है। सहते जाने की इस स्थिति का खिंचाव उस आखिरी बिंदु तक उसे ला देता है, जहाँ तीन प्राणियों की जिन्दगी की डोर या पतरोल की कमर से बंधी डोर में से उसे एक को चुनना है।
कहानी का आरम्भ बिस्तर से होता है तथा अंत भी। एक बिस्तर उसका है जो बेहद चीकट और मैला है। बक्से में एक साफ-सुथरी रजाई है जो उसके पति के फौज की नौकरी से घर आने पर ही ओढ़ी जाती है, अर्थात् उसके पति का बिस्तर है और एक बिस्तर वह स्वयं है। उसे स्वयं बिस्तर बनना पड़ता है। कोठरी में पुलिस वालों के लिए, वन में पतरोल के लिए। जब-जब रूपसा प्रतिरोध करना चाहती है उसे बीमार भैंस की याद आती है-फ्रूपसा को लगा की उसे अपने भैंस नामक जानवर को जिंदा रखना है तो उसे हर प्रकार के हमलावर जानवर के सामने खामोश रहना होगा। पतरोल का दूसरा हाथ घास के गट्ठर से बंधी डोरी को खोलने के लिए लपका। पतरोल का हाथ अपनी कमर की और गया। वहाँ एक डोर खुली उसके खुलते ही घास का गट्ठर बंधा-बंधाया रह गया लेकिन घसियारिन जमीन पर खुलकर बिछ गईं।”
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मुकेश कुमार,शोधार्थी, जनता वैदिक कॉलेज,बडौत, बागपत,उत्तर प्रदेश ई-मेल: rs.sharma642@gmail.com मो-9968503336 |
भूकम्प का झटका आए, तगड़ा भूचाल और इस पहाड़ का जोड़-जोड़ हिल उठे। पंचधार खंड-खंड हो जाए.
प्रस्तुत कहानियाँ ‘घास’ तथा ‘फट जा पंचधार’ में ‘विद्यासागर नौटियाल’ ने ‘रूपसा’ और ‘रख्खी’ के शोषण का तथा पहाड़ के जन-जीवन और समाज का जो चित्राण प्रस्तुत किया है, वह आज भी प्रत्येक भारतीय समाज में देखने को मिलता है। बहुत सी स्त्रिायाँ आज भी शोषण और अत्याचार का शिकार होने को मजबूर है। वह चाहकर भी अपने ऊपर हुए अत्याचार का विरोध नहीं कर पा रही है।
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