समीक्षा:भूमण्डलीकरण से बदलता हमारा परिवेश/डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                         
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
कविता को मनुष्यता की मातृभाषा माना जाता है। कविता की जब कभी आलोचना होती है, तब मनुष्य की उपेक्षा संभव नहीं है। इसी कारण कविता को लोकसापेक्ष माना गया है। इसके अभाव में कविता का कोई अस्तित्व नहीं है। बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध कविता के कालखण्ड में विशिष्ट स्थान रखता है। यह समय भारत में आर्थिक उदारवाद का रहा, जिसने न केवल आर्थिक ढाँचे को बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को बहुत हद तक प्रभावित किया। कवित हरीश पाठक का कविता संग्रह ‘पहले ऐसा नहीं था’ भूमंडलीकरण जनित आर्थिक परतंत्रता और बाजारवादी शक्तियों के उन परिणामों का संकेत करता है, जो मानव-जीवन को प्रभावित कर रही हैं।


यह सच है कि भूमंडलीकरण से उत्पन्न पूँजीवादी व्यवस्था का जब हमारे जीवन में प्रवेश होता है, तब बाजार का घेरा आम आदमी को अपनी फाँस में ले ही लेता है। ‘वे कह रहे हैं उजाड़कर’, ‘रेत का जहाज’, ‘पहले ऐसा नहीं था’ आदि कविताओं में कवि स्पष्ट संकेत देता है कि सब कुछ उजाड़कर हम बाजार की नुमाइश में शामिल हो रहे हैं - वे कह रहे हैं उजाड़कर। चलो वहाँ दूर चलें / वहँा कपड़ों की चीजों की खूबसूरत अजीज़ों की/ नुमाइश लगी है....। (वे कह रहे हैं उजाड़कर, पृ. 27)

पूंजीवादी व्यवस्था के प्रवेश के साथ ही हमारा जीवन यंात्रिक सभ्यता में बदल दिया गया है। इस सभ्य बाज़ार में मनुष्यों की बजाय वस्तुओं में अधिक निवेश किया गया है। इस स्थिति में हमारे पास अब क्या बचा है? ‘फिर वही जंगल’, ‘अभावस में मर गए हैं पेड़’, ‘धुएँ में’, ‘फिर वहीं जंगल’, नीम का पेड़ आदि कविताओं में कवि का दर्द उभर आया है। - सायरन बज रहा है/ नाला बन रहा है/ उठती हैं इमारतें / सड़क चल रही है / बूढ़ा खाँसता है / आँखें ढूँढ रही  हैं /नीम का पेड़/ और पक्का चबूतरा / खो गया इमारतों की भीड में। (नीम का पेड, पृ. 11)

 आर्थिक उदारीकरण के बाद आवारा पूँजी के प्रभाव में यदि हमने कुछ खोया है तो वह है - रिश्तों की बुनियाद। शहरों में चारों ओर कंक्रीट के जंगल उग गये हैं। मानवीय रिश्ते इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं। बुजुर्गों से भरी शहरी कॉलोनियाँ उसकी गवाह हैं। ‘घर-सफर’, ‘माँ तुम्हें याद है ना’, ‘मैं उन्हें दुनिया दिखाना चाहता हूँ’, ‘भीतर से बाहर तक’ कविताएँ सामयिक यथार्थ की अभिव्यक्ति करती हैं। जहाँ कवि कह उठता है - बहुत कुछ कहना चाहता है वह / मगर कहे किससे / उसके आस-पास अब/ सब कुछ उजाड़ है। (पहले ऐसा नहीं था, पृ. 22) यह उजाड़ रिश्तों की हकीकत बयां करता है।

आज भागदौड़ भरी जिन्दगी में विश्राम नहीं है। मानवीय रिश्ते स्वार्थ में बदल रहे हैं, हिंसक वृत्तियाँ उभर रही हैं। कवि को लगता है कि अब तो सभ्यताओं को भी धर्म का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है, जहाँ प्रेम, भाईचारा नहीं है। आपसी द्वेष की आँच एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच रही है। इसीलिए कवि को अब सावन की मोहक बूँदों में काना सावन नज़र आता है, क्योंकि उसकी स्मृति में इसी दिन पिछले बरस गोलियाँ चली थी, शेष है। एक माँ का यह कथन इस पीड़ा को उजागर कर देता है - सुन / पार साल, कितने घायल हुए थे सावन में / कितनों को गोलियाँ लगी / कितनों पर पेड़ गिर पड़े / कितने धारा में बह गये। (कहाँ जाऊँ खेलने, पृ. 12) कवि यहाँ प्रश्न खड़े करता है। खासकर प्रयोगवादियों से, जिन्होंने कविता को समाज से काटकर व्यक्तिगत स्वार्थ तक सीमित कर दिया। वह पूछता है - कवि, / कितनी नावों में / कितनी बार / सफर किये तुमने। (ऐसा क्यों है कवि, पृ. 78) यह कहकर तत्काल कवियों की शाब्दिक अठखेलियों पर व्यंग्य करता हुआ उस कविता को निरूद्देश्य बताता है जो लोकधर्म की रक्षा न कर सका।



डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी

युवा समीक्षक

हिन्दी प्राध्यापक हैं।

स्पिक मैके,चित्तौड़गढ़ के

उपाध्यक्ष


मो.9828608270
सी-79,प्रताप नगर,
चित्तौड़गढ़
परन्तु, यह कवि अब नई सदी में प्रविष्ट हो रहा  है। वह समाजशास्त्री बनकर कभी नये मूल्यों को स्वीकार कर रहा है, तो कभी एक्टिविस्ट बनकर नया पथ निर्मित कर रहा है। जब तक परिवर्तन नहीं होता, वह चुप बैठना नहीं चाहता। वह कहता है अब ओर किसका इन्तजार किया जाये। क्रांति का आह्वान करता है - उठो / भूखे और पराजित लोगों / सपना उगाते लोगों उठो/ करोड़ों हाथ लहराकर उठो। (अब और किसका इंतजार, पृ. 69) इसके अतिरिक्त ‘चिड़िया ने गीत गाना शुरू ही किया था’, ‘न जाने कितनी नदियों का संगम है’, ‘पसीना एक शब्द है’ आदि कविताओं में श्रम के महत्व को उजागर किया है। साथ ही ‘कुत्ते की दुम एक किवंदन्ती है’, ‘दीवार’ आदि में सामाजिक सक्रियता का पक्ष लिया है। ‘भीतर वहाँ’ में कवि निराश नहीं है। वह जानता है कि जमीन खोदने पर पानी का झरना अवश्य फूटेगा।

कविता की भाषा भावों के अनुरूप हैं। परम्परागत प्रतीकों के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति ही नहीं है, वरन् सम्बोधन शैली में व्यक्त कविताएँ बरबस आकर्षित करती हैं और कभी-कभी स्वाभाविक पीड़ा को उजागर करती विम्बात्मक शब्दावली चित्रमय दृश्य उत्पन्न कर देती है। यथा- जमीन में बाँस उगने लगे/ टंगने लगीं उन पर रोटियाँ/धँसती दुनिया ‘स्टिल लाइफ’ बन गई। (रेत का जहाज, पृ. 63) साथ ही कविताओं में विद्यमान आंतरिक लय आश्वस्त करती है कि समकालीन कविता में पूर्ण रूप से गद्यकाव्य नहीं बना है।

समग्रतः कवि ने युगानुकूल परिदृश्य को अपनी कविता में बखूबी उकेरा है। उसका समय दो सदियों की संक्रमणकालीन परिस्थितियों का साक्षी है, जिसकी पहचान उसने कर ली है। भूमंडलीकरण के फलस्वरूप बदलते परिवेश को उसने बखूबी व्यक्त किया और उसके भावी दुष्परिणामों का संकेत कर कवि-समय का निर्वाह किया है।

पहले ऐसा नहीं थाः हरीश पाठक,(कविता संग्रह), नमन प्रकाशन,नई दिल्ली-2, पृ. 84, मूल्य-100/-

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