समीक्षा:मोहनदास में अभिव्यक्त जीवन संघर्ष – गोपाल कुमार

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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समीक्षा:मोहनदास में अभिव्यक्त जीवन संघर्ष – गोपाल कुमार

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
आज का युग भौतिकवादी युग है। भूमंडलीकरण एवं बाजारीकरण के इस युग ने जहाँ आम आदमी के जीवन में सुख-सुविधाओं के ढेर लगा दिये हैं, वहीं आम आदमी के सामने कई नई चुनौतियाँ भी पेश की हैं।आज का युवा वर्ग रोजगार की खोज में, बेहतर जीवन की आशा लिये गाँव से नगर और नगर से महानगर की ओर आता है। लेकिन गाँव के खुले वातावरण में रहने का अभ्यस्त इंसान भी नगरों और महानगरों के घुटन-भरे माहौल में रहने को बाध्य हो जाता है।

देश-काल के सुख-दुःख से खुद को जोड़ लेना किसी भी लेखक के लिए आसान नहीं होता। विजयदेव नारायण साही ने सही ही लिखा है – “समसामयिकता एक असुविधाजनक सच्चाई है जो हमें ठोस, सार्थक शब्दों में सोचने को बाध्य करती है, आदर्श और यथार्थ के बीच उग्र सार्थकता का सम्बन्ध स्थापित करने की माँग रखती है और हमारी निर्लिप्त आत्मतुष्टि की नींव को हिला देती है। नैतिकता और मानव-मूल्य निर्जीव, सुभाषित वाक्य-मात्र नहीं रह जाते, बल्कि वे जीवन्त प्रश्न बन जाते हैं। इसलिए यह हमारे लिए दायित्व ही नहीं, नैतिक दायित्व है।”1

उदय प्रकाश द्वारा एक युवा के अस्तित्व-बोध पर आए संकटों एवं विडम्बनाओं का जीवन्त दस्तावेज़ है – ‘मोहनदास’। इसमें जीवन के कई रंग हैं। रचना का आरंभ ‘डर’ के रंग से होता है। लेखक ‘डर’ के रंग का अनुमान लगाता है और यह भी बतलाता है कि अच्छे से अच्छा अभिनेता भी उस ‘डर’ को अपने अभिनय में व्यक्त कर पाने में अक्षम होगा। वैसा ही अकल्पनीय डर मोहनदास के चेहरे पर दीखता है।

लेखक ने अपनी इस रचना में पात्रों एवं स्थानों के नाम भी बहुत सोच-विचारकर रखे हैं। इस रचना का मूल पात्र मोहनदास सत्य और अहिंसा के प्रतीक महात्मा गाँधी का वास्तविक नाम है। मोहनदास के साथ हुए अन्याय, वास्तव में आधुनिक युग में गाँधीवादी आदर्शों के बेमानी होने की स्थिति को दर्शाते हैं। मोहनदास पूरी रचना में बेहद लाचार नज़र आता है। लाचारी केवल उस तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसके पूरे परिवार पर छायी हुई है।

लेखक ने मोहनदास को केन्द्र में रखकर सरकारी कार्यालयों में होने वाले भ्रष्टाचारों पर निगाहें दौड़ायी हैं। मोहनदास का बाप टी.बी. का मरीज़ है। सरकारी अस्पतालों में टी.बी. की मुफ़्त में मिलने वाली दवा भी उसे तब तक ही मिल पाती है जब तक एक ईमानदार डॉक्टर उस अस्पताल में ड्यूटी पर होता है। बाद में वह भी मिलनी बंद हो जाती है। इस एक उदाहरण से लेखक ने सभी सरकारी कार्यालयों के हालात बयाँ कर दिये हैं जहाँ आम जनता को मुफ़्त में मिलने वाली चीजों के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है।

मोहनदास में यह साफ दिखाया दिखाया गया है कि अभी भी नगर हों या महानगर, जातिगत विद्वेष की भावना का अंत नहीं हुआ है। खासकर नियुक्तियों के साक्षात्कारों के दौरान यह भावना किसी न किसी रूप में सामने आ ही जाती है। साथ ही इस रचना में समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं एवं ‘आर्थिक ताकत’ को भी दर्शाया गया है।

मोहनदास के गाँव का नाम ‘बिछिया’ है जहाँ का नगेन्द्रनाथ और उसका पुत्र विश्वनाथ इस रचना में खलनायकों के रूप में सामने आते हैं। ‘बिछिया’ शब्द ‘बिच्छू’ से मिलता-जुलता है जिसे डंक मारने के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। विश्वनाथ को लोग ‘बिसनाथ’ कहना ज्यादा उचित समझते हैं। बाप को लोग ‘नागनाथ’ समझते हैं तो बेटे को ‘साँपनाथ’।

मोहनदास एक ग्रेजुएट है, वह भी फर्स्ट क्लास, अपने महाविद्यालय में मेरिट में दूसरा स्थान, लेकिन उसमें मौजूद एक अच्छा गुण ही उसके लिए सबसे बड़ा बाधक बन जाता है और वह ‘अच्छा’ गुण है – ईमानदारी। वह एक सीधा, सच्चा, संकोची और स्वाभिमानी स्वभाव का व्यक्ति है। उसके पास सोर्स-सिफ़ारिश, जोड़-तोड़, रिश्वत, संपर्क, जालसाजी वगैरह की ‘क्षमता’ नहीं, यही उसकी सबसे बड़ी दिक्कत है। उसने कभी किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण नहीं की, यह भी उसकी एक कमजोरी रही। यही वजह थी कि “मोहनदास हर जगह जाता। लिखित परीक्षा में सबसे ऊपर रहता लेकिन जब इंटरव्यू होता तब ख़ारिज़ कर दिया जाता। वह पाता कि उसकी जगह आठवीं-दसवीं पास, थर्ड-सेकेंड डिविज़न बी.ए. वाले लड़के नौकरियों में ले लिए जाते। उनमें से हर किसी के पास कोई न कोई सिफारिश रहती थी।”2

वह जान गया था कि “स्कूल-कॉलेज के बाहर की जिंदगी दरअसल खेल का एक ऐसा मैदान है, जहाँ वही गोल बनाता है, जिसके पास दूसरे को लंगड़ी मारने की ताकत होती है।”3

पूरी योग्यता के बावजूद नौकरी न मिल पाना किसी भी युवा के लिए सबसे दुःखदायी होता है। ऊपर से बिरादरी वालों का बार-बार पूछना कि ‘क्या सब चल रहा है आजकल?’ किसी को बेरोजगार युवा को भीतर तक झकझोर देता है।मोहनदास के बेटे देवदास का जब जन्म होता है, तो मोहनदास को ‘बाप बनने’ की खुशी से ज्यादा इस बात का ग़म होता है कि “एक और पेट ने आज के दिन घर में जन्म ले लिया।”4 एक फर्स्ट क्लास ग्रेजुएट नौजवान के लिए इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है?

अंततः अंतिम आशा के रूप में ओरिएंटल कोल माइंस में उसकी नौकरी पक्की हो जाती है पर यहाँ भी भ्रष्टाचार ने अपना ‘रंग’ दिखा ही दिया। उसके सारे सर्टिफिकेट रखवा लिए गए और ‘ज्वाइनिंग लेटर’ का इंतज़ार करने को कहा गया। कोल माइंस के बाबू ने उसके मार्क्स शीट को देखकर टिप्पणी की – “अरे तुम अब तक नौकरी कैसे नहीं जुगाड़ पाए? इसमें तो तुम्हें बस थोड़ी-बहुत लमरा-पहुँची से ही कोई अच्छी-खासी नौकरी मिल सकती थी।”5 कोल माइंस के बाबू की टिप्पणी से साफ़ स्पष्ट था कि ‘एक योग्य उम्मीदवार को भी बिना सोर्स-सिफ़ारिश के नौकरी नहीं लग सकती।’ इसके साथ ही लेखक की टिप्पणी भी ध्यान देने योग्य है – “अगर उसके पास कुछ नकदी जमा पूँजी होती तो किसी दलाल से मिलकर रुपये ऊपर तक पहुँचाकर वह यह नौकरी प्राप्त कर सकता था।”6 यहाँ ‘ऊपर’ से क्या तात्पर्य है, पाठक स्वयं ही समझ सकते हैं!

मोहनदास को चार साल बाद पता चलता है कि उसी के सर्टिफीकेट पर उसी के गाँव का विश्वनाथ उसी के नाम से नौकरी कर रहा है। मोहनदास पूरा जोर लगाता है, पर सब बेकार! मोहनदास खुद को ‘मोहनदास’ साबित भी नहीं कर पाता। किसी का ‘अस्तित्व’ ही खत्म हो जाए, इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है?

विश्वनाथ को जिस मुहल्ले में फ्लैट मिलता है, उस मुहल्ले का नाम लेखक ने दिया है – ‘लेनिननगर’। वैसे तो ब्लादिमीर इल्यीच उल्यानोव ‘लेनिन’ रूस में समाजवादी क्रांति के सूत्रधार माने जाते हैं लेकिन उन्हीं के नाम पर बसा मुहल्ला ‘लेनिननगर’ केवल नाम का ही लेनिननगर है। विश्वनाथ की बीबी अमिता खुद को ‘सोशल वर्कर’ बताती है। लेकिन सवाल यह उठता है कि जो लोग वास्तव में ‘सोशल’ भी नहीं हैं, वे ‘सोशल वर्कर’ कहाँ से होंगे?

लेनिननगर में ही नंद किशोर नामक व्यक्ति ने एक भोजनालय खोला और उसका नाम दिया – ‘लक्ष्मी वैष्णव भोजनालय’। उसके बारे में लेखक ने कथा-पात्र विश्वनाथ के मुँह से कहलवाया है – “ये नंद किशोर है तो भखार का ढीमर, लेकिन यहाँ बांभन बन के वैष्णव होटल चला रहा है। सजनपुर के चौबे घराने से बहू भी बियाह लाया है ससुर।”7

यहाँ दो बातें सामने आती हैं। एक तो यह कि पूँजी के जोर पर आदमी की ‘जाति’ भी बदल सकती है। आदमी यदि झूठ बोलना सीख जाए तो उसके काम बन सकते हैं और यदि सच बोलता रहे तो उसके बनने वाले काम भी बिगड़ सकते हैं। जैसे नंद किशोर झूठ बोलकर चौबे खानदान की बहू बियाह लाता है जबकि ‘जूठन’ के लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी वास्तविक जाति का नाम बताकर अपनी ब्राह्मण-प्रेमिका को सदा के लिए खो देते हैं।

हालाँकि इससे एक दूसरी बात यह भी सामने आती है कि पूँजीवाद के आने से खासकर नगरों और महानगरों में जाति के बंधन ढीले हुए हैं और इससे जाति-प्रथा एवं जातिगत विद्वेष की भावना भले ही खत्म न हुई हो, लेकिन इसमें गिरावट जरूर आई है।मोहनदास की मुलाकात उसके सहपाठियों विश्वनाथ और विजय तिवारी से होती है लेकिन दोनों उसका उपहास करके चले जाते हैं। लेखक के शब्दों में – “मोहनदास के मुँह पर टाटा सुमो धूल और धुआँ छोड़ती हुई चली गई।”8 वास्तव में इस दृश्य के माध्यम से पूँजीवाद द्वारा समाजवाद और गाँधीवाद का उपहास दिखाया गया है। मोहनदास के मुँह पर टाटा सुमो द्वारा धूल और धुआँ छोड़ना प्रतीकात्मक रूप में बेईमान प्रशासनिक अधिकारी (बिसनाथ) और भ्रष्ट पुलिस अधिकारी (विजय तिवारी) द्वारा आम जनता (मोहनदास) के शोषण को दिखाना है।

अंततः मोहनदास को न्यायिक तंत्र पर विश्वास होता है। लेकिन गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ जैसा एक ईमानदार जज भी उसे न्याय दिला पाता, इससे पहले ही जज का ट्रांसफर करा दिया जाता है। अंत में मोहनदास को ‘मोहनदास’ होने की सजा मिलती है और विश्वनाथ द्वारा की गई जालसाजी की सजा उसी को दी जाती है और वह यह कहने को बाध्य हो जाता है – “मैं नहीं हूँ मोहनदास।”मोहनदास के जीवन में कई विडम्बनाएँ आईं। उसने नदी के किनारे खेती भी की पर वहाँ बाँध बना दिया गया जिससे मोहनदास के रूप में एक विस्थापित की संख्या और बढ़ गई। बाँध की बिजली से उसे कोई लाभ मिला या नहीं, पता नहीं, पर इतना जरूर हुआ कि उसकी आजीविका का अंतिम आधार भी उससे छिन गया। इस प्रसंग के माध्यम से लेखक ने सरकारी बाँध-परियोजनाओं में विस्थापित हुए लोगों का दर्द दिखाया है जिनकी संख्या लाखों नहीं, करोड़ों में है। सरकारी तंत्र के पास इन विस्थापितों के लिए न कोई योजना है और न ही इनके पुनर्वास का कोई इरादा ही।

लेखक ने इस ओर ध्यान आकृष्ट कराया है कि “अंग्रेजों द्वारा गुलाम भारत पर शासन के लिए तैयार किए गए नौकरशाही के इस जंग खाए लौह-ढाँचे ने, आजादी के साठ साल बाद, आधिकारिक सरकारी दस्तावेज़ पर, विश्वनाथ वल्द नगेंद्रनाथ को मोहनदास वल्द काबा दास बना दिया।”9 लेखक की ये पंक्तियाँ इस बात की ओर इशारा करती हैं कि स्वतंत्रता के पश्चात् अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई शासन-व्यवस्था को बदला जाना चाहिए था। दरअसल अंग्रेजों ने भारत में जो शासन-प्रणाली स्थापित की थी, उसका उद्देश्य भारतीय जनता का शोषण करना था एवं स्वतंत्रता के बाद भी नेताओं ने वैसी ही शासन-व्यवस्था को कायम रखा ताकि जनता का शोषण कर अपना उल्लू सीधा किया जा सके और अपना जातिगत एवं वर्गगत वर्चस्व कायम रखा जा सके।

संदर्भ सूची :-

  1. विपिन कुमार शर्मा, प्रेमचंद के विवेचनात्मक गद्य में स्वराज्य की अवधारणा, समुच्चय (पत्रिका, अंक 2), पृ. 224 (उद्धृत)
  2. उदय प्रकाश, मोहनदास (संस्करण – 2009), पृ. 13
  3. वही, पृ. 14
  4. वही, पृ. 17
  5. वही, पृ. 19
  6. वही, पृ. 21
  7. वही, पृ. 42
  8. वही
  9. वही, पृ. 70


गोपाल कुमार
 शोधार्थी (हिन्दी), हिन्दी विभाग, अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद-500 007 संपर्क-7893736097, gopal.eflu@gmail.com

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