‘रेहन पर रग्घू’ में ग्रामीण परिवेश/मंजुल शर्मा

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
रेहन पर रग्घूमें ग्रामीण परिवेश/मंजुल शर्मा

                      
रेहन पर रग्घूकाशीनाथ सिंह द्वारा रचित एक बहुचर्चित उपन्यास है| इसका प्रकाशन 2008 में हुआ तथा 2011 में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया| भूमंडलीकरण एवं बाजारवाद ने महानगरों एवं शहरों को तो प्रभावित किया ही है, गाँव भी उससे अछूते नहीं रहे हैं| गाँव के भौगोलिक वातावरण एवं पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के बीच परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, जिसका प्रामाणिक एवं सजीव चित्रण इस उपन्यास में हुआ है| नामवर सिंह के शब्दों में, “रेहन पर रग्घू सच पूछिए तो एक गाँव की कहानी नहीं है, बल्कि पहाड़पुर से लेकर बनारस तथा कैलिफोर्निया तक, यानी भारत के एक गाँव से अमेरिका तक फैली हुई कहानी है| इसके जरिये, इस बीच में जो बदलाव आया है उसका जायजा लिया गया है| जिसको हम भूमंडलीकरण या बाजारवाद कहते हैं, उसके चलते गाँव में रहने वालों की जिन्दगी पर क्या प्रभाव पड़ा है| रिश्ते बदले हैं, इन्सान बदला है|”[1] बदलाव जनमन में जनचेतना जगा रहा है| यह उपन्यास पारम्परिक गाँव में आये बदलाव की पड़ताल करता है|

         रघुनाथ किसान होने के साथ-साथ पड़ोस के कस्बे के कॉलेज में अध्यापक हैं| रघुनाथ जो इस उपन्यास के नायक हैं, किसान संस्कृति के प्रतिनिधि चरित्र हैं| पहाड़पुर में हो रहे तीव्र परिवर्तनों के मध्य वे किसान संस्कृति के अवसान के महाख्यान के साक्षी बनते हैं| पहाड़पुर का इतिहास-भूगोल भी बदल रहा है, और बदल रहे हैं मानव मूल्य भी|”[2] रघुनाथ के परिवार में पत्नी शीला, बेटी सरला तथा दो बेटे संजय और धनंजय हैं| बेटी पढ़-लिखकर मिर्जापुर में नौकरी करती है| बड़ा बेटा संजय कंप्यूटर इंजिनियर है जो सोनल से शादी करके अमेरिका चला जाता है तथा छोटा बेटा धनंजय नॉएडा से एम. बी. . कर रहा है|
        गाँव में एक ओर ऐसे किसान हैं जो स्वयं खेतों में काम नहीं करते, मजदूरों से काम कराते हैं| उनके बच्चे भी शहरों में पढ़ रहे है या नौकरी कर रहे हैं| रघुनाथ अन्य ठाकुर इसी प्रकार के किसान हैं| दूसरी ओर ऐसे किसान हैं जो बड़े किसानों की खेती आध-बंटाई या अधिया के आधार पर करते हैं| इस प्रणाली में फसल का आधा हिस्सा भू-स्वामी को और आधा हिस्सा खेती करने वाले को मिलता है| रघुनाथ की खेती पहले गनपत हलवाहा करता था| रिटायरमेंट के बाद लोगों की देखा देखी रघुनाथ ने भी अपनी खेती बारी की दूसरी व्यवस्था की! उन्होंने अपने खेत सनेही को अधिया पर दे दिए! सनेही उनके कालेज का चपरासी था ......”[3]

              खेती श्रम आधारित कार्य है| किसान एवं उसका परिवार मिलकर करते हैं| जो बड़े एवं साधन संपन्न किसान हैं वे अपना काम हलवाहे एवं खेतिहार मजदूरों से कराते हैं| इन ग्रामीण मजदूरों को तो पूरे वर्ष काम मिलता है और ही उचित मजदूरी| वे काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं| अधिकांश मजदूर दलित या पिछड़े वर्ग के हैं कुछ हलवाहे तो शहर चले गएरिक्शा खींचने के इरादे से या देहाड़ी पर काम करने के इरादे से...”[4] इसलिए खेती में ट्रैक्टरथ्रेशर अन्य उपकरणों का प्रयोग होने लगा है| जब पहाड़पुर के हलवाहे उचित मजदूरी की मांग के लिए हड़ताल पर चले जाते हैं, तो पहाड़पुर के दशरथ का बेटा जसवंत एक ट्रैक्टर खरीद लाता है| “ट्रैक्टर खलिहान में खड़ा था-ट्राली, कल्टीवेटर, हार्वेस्टर और थ्रेशर के साथ! गेंदे की मालाएं पहने|”[5] जसवंत नेसबके खेत जोते भाड़े पर| एक दिन भी उसका ट्रैक्टर बैठा नहीं रहा| सबके जुआठ धरे रह गए! उसने सबको अहसास करा दिया कि बैल सिरदर्द और बोझ हैं, फालतू हैं, दुआर गन्दा करते हैं, उन्हें हटाओ! उनके गोबर भी किस काम के? उनसे उपजाऊ तो यूरिया है!”[6] यह खेती करने के संसाधनों में बदलाव को दर्शाता है| इससे किसान की सोच में भी परिवर्तन हो रहा है| खेती में नई तकनीक के साथ-साथ रासायनिक खादों का प्रयोग भी बढ़ा है|

            ग्रामीण क्षेत्र में किसानों की एक बड़ी समस्या उनकी ऋण-ग्रस्तता है| जिसके कारण आये दिन समाचार-पत्रों में किसानों की आत्महत्या की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं| प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसलों का ख़राब हो जाना एवं उपज का सही दाम मिलने के कारण समय पर कर्ज की अदायगी कर पाने के कारण निराश होकर किसान आत्म हत्या कर लेते हैं| रघुनाथ जो कि किसान होने के साथ-साथ नौकरी भी करते हैं, उनको भी अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए अपने खेत रेहन (गिरवी) रखने पड़े थे| सीमांत किसान भूमिहीन ग्रामीणों को आय की कमी होने के कारण साहूकारों से ब्याज पर कर्ज लेना ही पड़ता है, चाहे साहूकार बनिये हों या ठाकुर या अहीर| पहाड़पुर के जो हलवाहे मजदूरी करने शहर चले गए उनकी औरतेंराशन पानी के गरज से अनाज के लिए उन्होंने ठकुरान में जाना बंद कर दिया था और सूद पर जसवंत से या अहिरान से रूपये लेने लगीं|”[7] कर्ज के कारण किसान की मृत्यु प्रेमचंद के गोदान से आज तक चली रही है| गोदान का होरी मृत्युपर्यंत कर्जदार बना रहा| रेहन पर रग्घू का रघुनाथ उससे कुछ बेहतर है क्योंकि वह किसान के साथ-साथ अध्यापक भी है| जिन लोगों का कृषि के आलावा आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है, उनकी स्थिति आज भी शोचनीय है|

वर्तमान समय में पहाड़पुर अन्य गांवों में भौगोलिक स्तर पर भी बहुत अधिक परिवर्तन हो रहे हैं| बिजली, पंखे, टी.वी., मोबाइल आदि अब गाँव की जिंदगी का हिस्सा बनते जा रहे हैं| “आम्बेडकर गाँव हो जाने के बाद पहाड़पुर तेजी से बदल रहा था! गाँव में बिजली गई थी, केबुल की लाइनें बिछ गई थीं, अख़बार लेकर हाकर आने लगे थे! छौरे पर खडंजा बिछा दिया गया था| खपरैलों के कुछ ही मकान रह गए थे, बाकी सब पक्के थे| जो पक्के नहीं थे, उनके आगे ईंटें गिरी नजर आती थीं|”[8] अख़बार, टी. वी. एवं संचार के नए माध्यमों ने ग्रामीण लोगों में नई चेतना का संचार किया है लेकिन आज भी अनेक गांवों में बिजली, पीने का पानी, सड़क, स्कूल, चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी है| आर्थिक संसाधनों के अभाव में गरीब किसान अपने  बच्चों को शहर भेजकर पढ़ाने में असमर्थ है|

            बदलते हुए सामाजिक परिवेश में नैतिक मूल्यों में भी परिवर्तन हुआ है| रघुनाथ के भतीजे केवल उनकी जमीन हड़पने का प्रयास करते हैं, बल्कि उनके साथ गाली-गलौच तथा मारपीट भी करते हैं| बाद में वे रघुनाथ से उनकी जमीन से सम्बन्धित कागजों पर जबरदस्ती हस्तक्षर करवाने के लिए दो बदमाश भी भेजते हैं| यह घटना नैतिक मूल्यों में आयी गिरावट का प्रतीक है|
             उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है किसानों को अपने जीवन में बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है| किसान का जीविकोपार्जन बहुत ही कष्टसाध्य और श्रमसाध्य है| काशीनाथ सिंह ने इस उपन्यास में किसानों एवं ग्रामीणों की समस्याओं एवं बदलते जीवन मूल्यों को यथार्थवादी ढंग से प्रस्तुत किया है| चौथीराम यादव के अनुसार, “सामंतवादी और पूंजीवादी संस्कृतियों की टकराहट में किसान संस्कृति पिस रही है| प्रेमचंद के किसान आज लाखों की संख्या में आत्महत्याएं कर रहे हैं| आधुनिकीकरण के चलते गांवों में होने वाले बदलाव को लेखक ने पहाड़पुर के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है|”[9] भूमंडलीकरण एवं बाजारवाद के चलते गाँव तेजी से बदल रहे हैं| यह परिवर्तन भौगोलिक स्तर पर तो है ही, सामाजिक एवं जीवन-मूल्य भी बदल रहे हैं|

संदर्भ:

[1]नामवर सिंह, बदलते यथार्थ की कहानी, चौपाल, अंक 1, वर्ष 1, 2014, पृष्ठ संख्या 27
[2]ऋषिकेश राय, भूमंडलीकरण के दौर में गाँव घर, चौपाल पृष्ठ संख्या 156
[3]काशीनाथ सिंह, रेहन पर रग्घू, पृष्ठ संख्या 79
[4]वही, पृष्ठ संख्या 79
[5]वही, पृष्ठ संख्या 66
[6]वही, पृष्ठ संख्या 79
[7]वही, पृष्ठ संख्या 79
[8]वही, पृष्ठ संख्या 61
[9]चौथीराम यादव, रेहन पर – ‘रग्घू या इक्कीसवीं सदी का गाँव-घर?’, चौपाल पृष्ठ संख्या 31

मंजुल शर्मा
शोधार्थी, हिंदी विभाग,शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,(जीवाजी विश्वविद्यालय,ग्वालियर)
मो-9818442310,  ई-मेल manjulsharma03@gmail.com

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