आलेखमाला: पीसा और भारतीय शिक्षा व्यवस्था का मूल्यांकन / कुमार माधव

                     पीसा और भारतीय शिक्षा व्यवस्था का मूल्यांकन 

इक्कीसवीं सदी में भारत की उपस्थिति कई क्षेत्रों में हो रही है। जिसके कारण भारत का वैश्विक संबंध सभी देशों के साथ प्रगाढ़ होने की बात की जाती है। वैश्विक संबंध व्यापार से मजबूत होता है। किन्तु जब इन व्यापारिक सम्बन्धों का मूल्यांकन किया जाता है तो आर्थिक विशेषज्ञ सरप्लस से अधिक डेफ़िसिट (घाटा) की बात करते है। इसी तरह देश में एडुकेशन डेफ़िसिट अर्थात शिक्षा संकट भी चल रहा है जिसकी चर्चा वैश्विक मंच पर तो होती है किन्तु घरेलू मंच इसकी चर्चा नगण्य है या पुस्तकलाय के किसी पन्ने पर है। जिस प्रकार उन्नीसवीं सदी ब्रिटेन का और बीसवीं सदी अमेरिका का था उसी प्रकार इक्कीसवीं सदी एशिया का होगा यह सभी मानते है। किन्तु एशिया में भारत का स्थान होगा! इस पर प्रश्न चिह्न लगा हुआ है।
                
यह चिह्न और अधिक मजबूत हो गया जब भारत ने वर्ष 2009 अंतर्राष्ट्रीय छात्र मूल्यांकन कार्यक्रम (Program for International Student Assessment) अर्थात पीसा (PISA) में भाग लिया और इसके परिणाम ने शिक्षा नीति पर ताल ठोकने वालों के पैर तले से जमीन खिसका दी थी। इस मूल्यांकन में हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु के चार सौ विद्यालय के सोलह सौ छात्रों ने भाग लिया था और इसमें भारत को नीचे से दूसरा स्थान अर्थात भाग लेने वाले 74 देशों में 72 वां स्थान प्राप्त हुआ। ऐसी स्थिति को ही शिक्षा व्यवस्था की त्रासदी कह सकते है। किन्तु यदि पूरे देश के छात्र ऐसे सर्वेक्षण में शामिल हो जाए तो स्थिति क्या हो सकती है इसकी कल्पना आप कीजिये। इस सर्वेक्षण में यह स्थान भारत के उन विद्यालयों को प्राप्त हुआ, जिसे भारत का गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाला विद्यालय और राज्य माना जाता है। स्थिति में सुधार के बजाय भारत ने अवलोकन पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिए और स्वयं को इससे किनारा कर लिया। किन्तु इसका एक महत्वपूर्ण परिणाम निकला इसी वर्ष शिक्षा सभी बच्चों (6 से 14 वर्ष) तक केमौलिक अधिकारबना दिया गया। जिसकी उम्मीद पिछले साठ वर्षों से की जा रही थी।

 बारह वर्ष के वनवास के बाद भारत ने यह फैसला किया है कि हमारे छात्र पढ़ाई के मामले में दुनिया के अन्य देशों के छात्रों से कम नहीं हैं। इसी को दर्शाने के लिये केंद्र सरकार ने 2021 में आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय छात्र मूल्यांकन कार्यक्रम (Program for International Student Assessment)(PISA) में भाग लेने का निर्णय लिया है। इस प्रक्रिया के लिये भारत सरकार और आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (Organisation for Economic Cooperation and Development)(OECD) के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं।

पीसा (PISA) और भारत के शिक्षा व्यवस्था का संबंध

अंतर्राष्ट्रीय छात्र मूल्यांकन या पिसा एक प्रकार का सर्वेक्षण है जिसमें विश्व के महत्वपूर्ण देश के छात्र भाग लेते है। भाषाई दक्षता, विज्ञान और गणित के दक्षता के आधार पर छात्रों का अवलोकन किया जाता है। इन विषय से प्राप्त परिणाम के आधार पर अन्य देशों के साथ इसका तुलनात्मक मूल्यांकन किया जाता है जिससे शिक्षा नीति की मजबूती और कमजोरी का पता चलता है। इसमें पूछे जाने वाले प्रश्न भाग लेने वाले देश के शिक्षाविदों द्वारा तैयार किया जाता है। प्रश्न का प्रारूप सृजनात्मक ज्ञान के आधार पर समस्या को दूर करना होता है, न कि रटंत विद्या पर आधारित होता है । छात्रों का यह अवलोकन आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) द्वारा किया जाता है। यह 36 देशों का एक समूह है और भारत इस समूह का सदस्य देश नहीं है। किन्तु गैर-सदस्य देश के छात्र भी इसमें भाग ले सकते है। पीसा का आयोजन प्रत्येक तीन वर्ष के उपरांत किया जाता है। पिसा में वर्ष 2018 में चीन और उससे पूर्व वर्ष 2015 में सिंगापुर पहले स्थान पर रहा था। यह दोनों देश एशिया महाद्वीप के देश है। आगामी पीसा का आयोजन वर्ष 2021 में होगा इस आयोजन में भारत हिस्सा लेगा। जिसकी सूचना पहले भी दिया गया है।

पिसा (PISA) और भारतीय स्कूल
भारत में अधिकांश विद्यालय में होने वाले परीक्षाओं के विपरीत, इसमें छात्र की स्मृति और पाठ्यचर्या आधारित ज्ञान का परीक्षण नहीं किया जाता है। इसका उदाहरण कुछ इस प्रकार हो सकता है-
PISA का विज्ञान परीक्षण तीन दक्षताओं पर केन्द्रित होता है। छात्रों में वैज्ञानिक घटनाओं को समझने की क्षमता, छात्रों में डेटा एवं साक्ष्यों की वैज्ञानिक व्याख्या तथा वैज्ञानिक जिज्ञासाओं को डिज़ाइन और मूल्यांकन करने की क्षमता।









उपर्युक्त प्रश्न की भाषा अंग्रेजी है। भारत के सामने शिक्षा क्षेत्र में अंग्रेजी भी एक बड़ी चुनौती है। यह बताना आवशयक है कि अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी भाषा को लेकर शिक्षा जगत में मतभेद है। स्थिति यह है कि बुनयादी भाषिक क्षमता बोलना, लिखना और पढ़ना ही जहां कमजोर है, वहाँ दूसरी भाषा अंग्रेजी में भाषिक कुशलता की बुनियाद मजबूत होना दिन में तारे देखने जैसा है। ऐसे में जब भारत की शिक्षा व्यवस्था पर नजर डाले तो स्थितियाँ इससे कोसों दूर है। देश के उत्कृष्ट विद्यालय में भी चॉक एंड टॉक प्रविधि को अपना कर कार्य किया जाता है। ऐसे में महत्वपूर्ण प्रश्न यह है क्या भारत पीसा सर्वेक्षण के लिए तैयार है?” इस प्रकार के सर्वे के लिए जिन आंकड़ों का सहारा लिया जाएगा उसे उचित माना जा सकता है। वर्ष 2021 में आयोजित होने वाली इस कार्यक्रम भारत का प्रतिष्ठित संस्था केंद्रीय विद्यालय संगठन, नवोदय विद्यालय समिति द्वारा संचालित विद्यालय तथा केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ के विद्यालय भाग लेंगे। किन्तु इसमें सभी विद्यालय के छात्र शामिल नहीं होंगे। देश में ऐसे विद्यालयों की संख्या कुछ इस प्रकार है-



                नवोदय विद्यालय समिति द्वारा संचालित विद्यालय-        588
                केंद्रीय विद्यालय संगठन-                              1228
                केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ के विद्यालय                     115
                कुल विद्यालय                                       1931
                               

उपर्युक्त विद्यालय की स्थिति के आधार पीसा में भाग लेने वाले इन विद्यालय को भारतीय शिक्षा व्यवस्था का दर्पण नहीं माना जा सकता है। क्योंकि इन विद्यालयों की संख्या का अनुपात देश के कुल विद्यालयों की संख्या के अनुपात से बहुत कम है। इस सर्वेक्षण से यही उम्मीद किया जा सकता है कि सरकर इसे इवैंट न बनाए बल्कि चीन और सिंगापूर के विद्यालय मॉडल को समझे। 

पीसा(PISA) से बाहर देश की शिक्षा व्यवस्था:

शिक्षा और भाषा
भारतीय संविधान में विधायी विषयों का बँटवारा किया गया है। संविधान के सातवीं अनुसूची में केंद्र एवं राज्यों के इन विषयों को तीन भागों में विभाजित किया गया है - सूची-1. संघ सूची, सूची-2. राज्य सूची और सूची-3. समवर्ती सूची।
वर्ष 1976 से पहले शिक्षा राज्य सूची में शामिल था, किन्तु संविधान के 42 वें संशोधन में इसे समवर्ती सूची में शामिल किया गया। यदि केंद्र और राज्य के बीच किसी विषय पर टकराहट होती है, तो फैसला केंद्र के पक्ष में जाएगा।

शिक्षा को समवर्ती सूची में लाना भी कोई सरल कार्य नहीं था। फिर भी केंद्र ने राज्यों के स्थूल रवैये कारण यह कार्य किया। वर्ष 1976 से 2017 तक केंद्र में सरकार किसी की भी रही हो लेकिन शिक्षा के प्रति सभी दलों की सरकारों ने उदासीनता ही बरती है।
रवीन्द्र नाथ ठाकुर शिक्षा में मानव मूल्य और मानव धर्म की बात की बात की थी किन्तु आज की शिक्षा नीति मानव को एक संसाधन के रूप में देखती है। इसलिए आज की शिक्षा मानव संसाधन दोहन की शिक्षा है। जिसका वृक्ष हिंदुस्तान में है और इसका जड़ पहले ब्रिटेन में था अब यह अमरीका चला गया है।

संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार, "भारत में प्राथमिक शिक्षा पाने के योग्य एक तिहाई बच्चे ही चौथी कक्षा तक पहुँच पाते हैं और बुनियादी शिक्षा ले पाते हैं| वहीं एक तिहाई अन्य बच्चे चौथी कक्षा तक तो पहुँचते हैं लेकिन वो बुनियादी शिक्षा नहीं ले पाते|  जबकि एक तिहाई बच्चे न तो चौथी कक्षा तक पहुंच पाते हैं और न ही बुनियादी शिक्षा हासिल कर पाते हैं|"

इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के आधे से भी कम बच्चों को बुनियादी शिक्षा हासिल हो पाती है|यूनेस्को के 'सबके लिए शिक्षा' (ईएफए) से जुड़ी ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट में ये बात सामने आई है कि भारत में अनपढ़ वयस्कों की संख्या सबसे ज्यादा है।

भारत को आजाद हुए सात दशक से ज्यादा हो गया है। किन्तु आज भी शिक्षा तक सब की पहुँच नहीं हो पायी है। देश में गरीबी और भुखमरी यह एक कारण हो सकता है। इसके साथ जहां पहुंची है वहाँ यह मानवीय संवेदना स्थापित करने में असफल रही है। इसका अनुमान भारत के सकल नामांकन अनुपात (Gross Enrolment Ratio) (GER) से लगाया जा सकता है। जहाँ एक तरफ भारत का GER लगभग 25.8 प्रतिशत है, वहीं दूसरी तरफ जातिगत आँकड़ों का तथ्य लें तो अनुसूचित जाति (SC)के लिये यह 21.8 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिये यह 15.9 प्रतिशत है। इस संबंध में प्रसिद्ध पुस्तक शिक्षा और जन आंदोलनकी लेखिका साधना सक्सेनालिखती है आज भी हमारे देश में स्कूल जाने वाले उम्र के आधे से ज्यादा बच्चे स्कूली तंत्र के बाहर ही रह जाते हैं। तंत्र से बाहर छूटे इन बच्चों को सरकारी भाषा में ड्रॉपआउट और लेफ्ट आउट कहा जाता है।”  राष्ट्र शिक्षा नीति में भी ड्रॉप आउट को कम करने की चर्चा हुई है किन्तु जमीनी हकीकत कुछ अलग ही है। स्थिति अनुकूल न होकर प्रतिकूल अधिक है इसलिए भारत सरकार द्वरा वर्ष 2024 तक सकल नामांकन अनुपात (Gross Enrolment Ratio)(GER) को 40 प्रतिशत तक बढ़ाने का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया गया है।

इसी संदर्भ में साधना सक्सेनालिखती है आजादी के बाद भारत के संविधान में प्राथमिक शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई गई थी। इसके तहत संविधान के अनुच्छेद 45 में लिखा गया था कि राजसत्ता, संविधान लागू होने के 10 वर्षों के भीतर ही 14 वर्ष की उम्र के सभी बच्चों के लिए मुफ्त प्राथमिक शिक्षा (पहली से आठवीं तक) का प्रावधान करेगी यानी 1960 तक यह काम पूरा हो जाना चाहिए था। पिछले एक दो दशकों में इस बात का हवाला देना एक रस्म जैसा बन गया है। इसे इतनी बार दोहराया जाता है कि अब यह एक अर्थहीन- सा वाक्य शबदाडंबर लगने लगा है। इसलिए कि इसके बाद राजसत्ता द्वारा ऐसी कई तारीखे तय की गई और बीत गई पर न तो शिक्षा का सर्व व्यापी करण हुआ और न ही इस असफलता की गहरी पड़ताल हुई। ऐसी स्थिति में प्राथमिक शिक्षा की सर्वव्यापी करण के प्रयासों की गंभीरता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है।

इसके साथ यह भी वह लिखती है वास्तविकता यह है कि अधिकतर गरीब, उत्पीड़ित, पिछड़े हुए और दलित लोग बच्चे तथा बड़े लड़कियां और औरतें ही वर्तमान शिक्षा तंत्र की बाहर रह जाते हैं, बावजूद शिक्षा तंत्र में अभूतपूर्व प्रसार की आजादी के बाद इस स्थिति में कुछ विशेष परिवर्तन नहीं आया है।
इसलिए इक्कीसवीं सदी में साहित्यिक शिक्षा का महत्व समाप्त हो रहा है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि देश वासियों न तो मानवता शिक्षा, न संसाधनवादी शिक्षा और पूंजीवादी शिक्षा मिल पायी।

निष्कर्ष:
 यदि भारत का डंका आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (Organisation for Economic Cooperation and Development)(OECD) द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय छात्र मूल्यांकन कार्यक्रम (Program for International Student Assessment)(PISA) में वर्ष 2021 में बजता भी तो उससे भारत की शिक्षा वैसी ही रहेगी जैसे वर्तमान में है। क्योंकि अधिकतम छात्र और शिक्षक इस प्रकार के आयोजन से पहले ही बाहर है। एक तरफ जहां शिक्षक कई महत्वपूर्ण चुनौतियों से जूझ रहा है जिसमें  शिक्षक में उम्मीद की कमी, भौतिक परिवेश का अभाव, शिक्षण प्रशिक्षण का अभाव, अभिभावक और समुदाय का शिक्षा से न जुड़ना, न बदलने की प्रवृति, पलायन, कृषि प्रधान समाज, पाठ्यपुस्तक का समाज से न जुड़ पाना। यह स्थिति प्राथमिक विद्यालय से प्रारंभ होकर विषविद्यालय तक जाती है। हो सकता है कि आप के पास कुछ उदाहरण हो किन्तु इन उदाहरणों को सामाजिक विम्ब नहीं माना जा सकता है। इन उदाहरण के आधार पर शिक्षा क्षेत्र में उम्मीद का दीपक जल रहा है। एक दिन परिवर्तन आवश्य होगा। 

सहायक ग्रंथ

1.  साधना सक्सेना; शिक्षा और जन आंदोलन; प्रकाशन; ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड; दिल्ली।
2.  रवीन्द्र ठाकुर; अनुवादक(गोपाल प्रधान) प्रकाशन; ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड; दिल्ली।
3. हेनरी गीरु; संस्कृतिकर्मी और शिक्षा की राजनीति; प्रकाशन; ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड; दिल्ली।
4.   JohnHolt;HowChildrenFail;AMerloydLawrenceBook;NewYark

सहायक ग्रंथ (इंटरनेट)

1.  http://chdeducation.gov.in/?q=node/4
2.  https://writeonlinebookreview.files.wordpress.com/2019/07/pisa-for-development-mathematics-framework.pdf
3.  https://www.oecd.org/pisa/ 


कुमार माधव
अजीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन,डुंगरपुर
संपर्क 965204290


          अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

1 टिप्पणियाँ

  1. भारतीय शिक्षा व्यवस्था के हकीकत पर लिखा गया अच्छा लेख है।

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