आलेख : स्‍वाधीनता और युगबोध के कतिपय संदर्भ / डॉ. राजकुमार व्‍यास

                        आलेख : स्‍वाधीनता और युगबोध के कतिपय संदर्भ / डॉ. राजकुमार व्‍यास    


    अपने समय की संज्ञा को अपने अनुभव के सर्वनाम में बदलने की क्षमता ही युगबोध है, शेष तो अजनबीपन है, अपनी अज्ञानता और अपने समय के अल्‍प परिचय को छिपाने के साहस के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं। छद्म आधुनिकता के कटु यथार्थ को दबाने-ढाँकने का कार्य उत्‍तर आधुनिक विमर्श हो गया है। अंतर्विरोध का विरोध अपनी स्‍वीकार्यता के कारण दीर्घजीवी है और समावेशी विकास को चिढ़ाता है। एब्‍सर्ड के अर्थबोध को रेखांकित करना आलोचना कर्म है और ऊलजलूल की सैद्धांतिकी को स्‍थापित करना बौद्धिकता की स्‍थायी शर्त। आधुनिक भावबोध में स्‍वाधीनता का मूल्‍य प्रमुख है और समाजशास्‍त्रीय विवेचना दूसरी अनिवार्य आवश्‍यकता है। आधुनिकता में कालबोध की उपस्थिति सर्वविदित है। आधुनिकता का एक सिरा पुरातनता को छूता है। व्‍यक्ति का भाव बोध अपने समय की राजनीतिक प्रक्रियाओं से बहुत गहरे तक प्रभावित होता है। राजनीति के सिद्धांत लोकतंत्र और राजतंत्र के घटक और कारक गिनाते रहते हैं। व्‍यवहार और सिद्धांत समय सापेक्ष हैं, साहित्‍यकार के लिए इतिहास और भविष्‍य के मध्‍य कोई दूरी नहीं है, उसकी विराट कल्‍पना बात की बात में कालजयी रचना उपस्थित कर देती है। भारतीय साहित्‍य में स्‍वाधीनता का संघर्ष एक काल निरपेक्ष संदर्भ है। कितना भी समय बीत जाए भारतीय जनमानस में वह एक प्रस्‍थान बिंदु है। स्‍वाधीनता के प्रकाश में साम्‍प्रदायिकता की परछाई भी उभरती है। स्‍वातंत्र्य के यज्ञ की फलश्रुति में विभाजन की दारुण गाथा मौजूद है।


    व्यक्‍त‍ि और समष्टि के निकष स्‍वतंत्रता के लिए नित नये दायरे कायम करते हैं। समाजशास्‍त्र की सैद्धांतिकी साहित्‍य के लिए वस्‍तुगत आचार संहिता स्‍थापित करती है। रचनाकार अपनी रचना प्रक्रिया में इस यांत्रिक दबाव के प्रति विद्रोह करता हैयथावत के प्रति संदेहशील रहता है। विगत और वर्तमान के अंतर्विरोध उसकी सामयिकता को उजागर करते हैं। अंतर्विरोध की पहचान और स्‍वीकार्यता के साथ अभिव्‍यक्ति का दायित्‍व ही किसी रचनाकार के युगबोध के आकलन की कसौटी हो सकती है। रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं-’’ आधुनिक भावबोध के समग्र साहित्य की एक प्रमुख विशेषता उसका स्वचेतन होना है। परिवर्तन और विकास के बीच प्रधान अंतर चेतनता का है। परिवर्तन सहज हैविकास प्रयत्न-साध्य हैऔर आधुनिकता विकास का स्वचेतन प्रयत्न है।’’[1] प्रयत्‍न साध्‍य विकास के लिए साधन की शुचिता का प्रश्‍न बेमानी है। प्रयत्‍न के लिए जिस शक्ति की आवश्‍यकता है वह राजनीति से प्रेरित है और लोकतंत्र में राजनीति के अनेक परोक्ष संदर्भ हैं जिनमें लोकमानस प्रमुख है। साधन पर आधिपत्‍य लोकमानस को मनचाही दशा और दिशा में गतिशील कर सकता है और इस प्रक्रिया का निष्‍कर्ष यह है कि यह सप्रयास किया गया परिर्वतन सहज दिखाई देता है। सहजता के लिए शक्ति‍ का प्रयोग होने पर स्‍वचेतन के लिए अधिक अवकाश नहीं रह जाता है। यहीं पर आधुनिकता ठिठक जाती हैविकल हो उठती हैपरिवर्तन को मचलते उसके वेगवान रथ की गति धीमी पड़ने लगती है।


    इतिहास बोध साधारण परिचय से गहन अध्‍ययन तक की अपेक्षा रखता है। दंतकथाओं से सम्‍बद्ध सूचनाएँ समय के साथ झूठी-सच्‍ची होने लगती हैं। लोकमन अपने महानायकों के लिए अनेक किंवदंतियाँ रचता है। भारत की आजादी के अनेक करिश्‍माई नेता थे और आजादी उनके अथक परिश्रम और कुर्बानियों के फलस्‍वरूप हासिल हुई। लेकिन इस संघर्ष का एक प्रतिपक्ष भी तो था। साम्राज्‍यवाद। वह तो अब भी कायम है।- “भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम के अपने सबक हैं। इन्हें इस अवसर पर याद कर लेना और भी जरुरी है। यह इसलिए भी सामयिक महत्व का है कि नव-उपनिवेशवाद और नवसाम्राज्यवाद आज जिस तरह उभर रहा हैवह गंभीर चिंता का कारण है।’’[2] पंकज बिष्‍ट यहाँ उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के आंदोलन की बात कर रहे हैं जिन अर्थों में 1857 का गदर प्रासंगिक है उन्‍हीं अर्थों में बीसवीं शताब्‍दी की आजादी और देश का विभाजन भी। नव उपनिवेशवाद के खतरे और नवसाम्राज्‍यवाद का डर अब तीनों देशों के लिए आसन्‍न संकट की तरह है। गदर और आजादी का संघर्ष भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक साझा इतिहास है। इक्‍कीसवीं सदी की रचनात्‍मकता के लिए यदि स्‍वाधीनता एक समकालीन संदर्भ है तो उसके निहितार्थ बहुआयामी और बहुस्‍तरीय हैं।


    आधुनिक युग ने भारतीय लोकमानस को नये मानवीय मूल्‍यों से संबद्ध किया और उसके रचनात्‍मक विवेक के लिए नये निकष प्रस्‍तुत किए। व्‍यक्ति और समाज के संबंधों में समता और स्‍वाधीनता के मूल्‍य नवोन्‍मेष की अपेक्षा रखने लगे। राजा दयालु या न्‍याय प्रिय था के स्‍थान पर व्‍यक्ति‍ के दयालु और प्रगतिशील होने की धारणा को विमर्श के केन्‍द्र में लाया जाने लगा। परम्‍परागत विचार सरणियों के लिए यह विमर्श नूतन-पुरातन के संघर्ष का अखाड़ा बन गया। राधावल्लभ त्रिपाठी का यह कथन दृष्टव्य है- ‘‘परम्परा को लेकर तीन दृष्टियाँ इन रचनाकारों में उभरती हैं- परम्परावादीपरम्पराविरोधी और परम्पराविस्तारक। पहली आस्था की दृष्टि हैजिसमें परम्परा गूँथी हुईपिरोई हुई और रचनाकार को अपनी सीमाओं में बाँधती हुई साथ लगी रहती है। दूसरी दृष्टि परम्परा को छोड़ने और तोड़ने की है। तीसरी दृष्टि परम्परा को छोड़े और तोड़े बगैर नए से जोड़कर विस्तारित और परिष्कृत करने की है। ...इन तीनों दृष्टियों के जोड़ से कुछ रचनाकारों ने अपने रचना संसार का त्रिभुज रचा।’’[3] रचना विगत के विस्‍तार का संकल्‍प लेकर चलती है तो अपने स्‍वरूप में भी स्‍वाधीन होती है और प्रभाव में भी स्‍वाधीनता का संदेश प्रसारित करती है।है। आस्‍था का पक्ष व्‍यतीत के अनुभवों से शक्ति‍ प्राप्‍त करता हैक्रांति की क्रियान्विति वर्तमान पर आश्रित है और परम्‍परावित्‍स्‍तारक भविष्‍य को लक्ष्‍य करता है।


    राजत्‍व की भारतीय अवधारणा और आधुनिक लोकतंत्र की चुनौतियों में परस्‍पर संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। लोकतंत्र राजव्‍यवस्‍था की कुंजी है और समाज व्‍यवस्‍था में उसके परिणाम बहुत देर से उजागर होते हैं। डॉ. श्यामाचरण दूबे ने कहा है कि- भारतीय समाज अंतर्विरोधों का पिटारा है जिसके कुछ पहलू अत्यंत पेचीदा हैं।’’[4] समाज के वे ही पहलू बहस में शामिल हैं जहाँ तक बौद्धिक जगत की दृष्टि पहुँच पाई है। जो पहलू अभी उजागर भी नहीं हुए उनकी पेचीदगी की समीक्षा समय आने पर हो सकेगी। सवाल यह है कि समाज के इस पिटारे पर मालिकाना हक किसका है ? परिवार तो अपने अधिकार छोड़ चुका है और किसी व्‍यक्ति‍ को हक दिए जाने का रिवाज ही नहीं हैसमूह के हक पर शिष्‍ट मंडल का एकाधिकार है। इस क्रम में गुलाबराय का यह कथन दिलासा देता प्रतीत होता है- ‘‘हमारा एक जातीय व्यक्तित्व है। वह हमारी जातीय मनोवृत्तिजीवन-मीमांसारहन-सहनरीति-रिवाजउठने-बैठने के ढंगचाल-ढ़ालवेश-भूषासाहित्यसंगीत और कला में अभिव्यक्त होता है। विदेशी प्रभाव पड़ने पर भी वह बहुत अंशों में अक्षुण्ण बना हुआ है। वही हमारी एकता का मूल सूत्र है।’’[5] यह अक्षुण्‍ण व्‍यक्तित्‍व अब पुरानी बात हो गई है। इक्‍कीसवीं सदी में हमारे जातीय व्‍यक्तित्‍व की खंडित पहचान करना कोई मुश्किल काम नहीं है। अशोक वाजपेयी लिखते हैं-’’भारत में जिस आधुनिकता का आरंभ उन्नीसवीं सदी में हुआ था वह पश्चिम से प्रभावित उत्तेजित थीलेकिन उसमें अपनी परम्परा के जीवंत और गतिशील तत्वों को समाहित और पुनस्संयोजित करने का जतन भी था।’’[6] भारतीय समाज इस जतन की प्रक्रिया में पहले तो पराधीनता से जूझता है और फिर साम्‍प्रदायिकता से। तीसरी दुनिया के देश जैसे पेबंद से तो बाद की कई पीढि़याँ जूझती रहीं। तीसरी दुनिया के देशों में इक्‍कीसवीं सदी का युगबोध पराधीनता की लंबी और कठिन ऐतिहासिक प्रक्रिया को भुलाने के प्रयास के सिवाय कुछ और नहीं है। अपनी इतिहास चेतना से पूरी तरह कटा हुआ वर्तमान ही हिंसा का सबसे बड़ा प्रमाण है।


    वर्तमान की समस्‍याओं को इतिहास के अखाड़े में घसीटने से एक आपाधापी का माहौल बन गया है जहाँ स्‍वस्‍थ लोकतंत्र के लिए चुनौतियाँ बहुत बढ़ गईं हैं। यह समय साहित्‍य के लिए भी नई नियमावली लेकर उपस्थित है। रामविलास शर्मा ने रचनाकारों के युगबोध को साम्राज्‍यवाद के संदर्भ में देखा है- जहाँ तक हिन्दुस्तान का संबंध हैउसके सबसे बडे शत्रु अंग्रेज साम्राज्यवादी ही रहे हैं। उनके अत्याचारों का इतिहास भारतीय जनता के रक्त से लिखा गया है।...हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय चेतना सीधे अंग्रेज डाकुओं के कारनामों का विरोध करके आगे बढ़ी हैइसलिए हिन्दुस्तान की तमाम भावनाओं का नया राष्ट्रीय साहित्य अंग्रेजी राज्य का विरोधी है।[7] अंग्रेजी राज्‍य का विरोध राष्ट्रीय साहित्य का एक पक्ष था। राष्‍ट्र की दशा राष्ट्रीय साहित्य साहित्‍य में उजागर होती हैलेकिन राष्‍ट्र की दिशा का उत्‍त्‍रदायित्‍व भी तो राष्ट्रीय साहित्य का ही है। अपने समय और समाज की दिशाहीनता पर राष्ट्रीय साहित्य के पास अधिक सामग्री नहीं हैकोरे आदर्शवाद ने यथार्थ को बहुत पीछे धकेल दिया है। उपचार का आधार निदान है। हमारी राष्ट्रीय समस्‍याओं का परोक्ष संकेत हमें प्रत्‍यक्ष समाधान के समीप पहुँचा सकता है। लेकिन स्‍वाधीनता आंदोलन के दौर में उपजे इतिहास बोध ने आनेवाली पीढि़यों के वर्तमान के लिए कोई ठोस आधार प्रस्‍तुत नहीं किया। पक्ष-विपक्ष की रस्‍साकशी में कोई न्‍यूनतम साझा संकल्‍प ही नहीं है। कोई लक्ष्‍य नहीं और कोई योजना नहीं। राजनीतिक परिवेश में सत्‍ता ही सत्‍य है और उसे येनकेन हासिल करना ही ध्‍येय है। इसके लिए विगत का वैभव वर्तमान के विकल्‍प की तरह प्रस्‍तुत किया जाता है।

 

    वैश्‍वीकरण के बाद का राजनीतिक परिवेश राष्‍ट्रीय चेतना के आधारभूत पक्षों को विमर्श से बाहर करने के लिए लामबंद है। भारतीय बौद्धिक वर्ग के लिए मानव संसाधन के रूप में विश्‍व अर्थ व्‍यवस्‍था में स्‍थान बनाए रखना अधिक महत्‍वपूर्ण है। कुछ समय पूर्व तक डॉ. रामविलास शर्मा इन शब्दों में भारतीय बौद्धिक वर्ग के अवदान की और संकेत कर रहे थे- ‘‘जातीय चेतना वह उत्स है जिसे देश प्रेम और मानव प्रेम की धाराएँ फूटती हैं..... जातीय चेतना केवल भाषागतप्रदेशगत चेतना नहीं है। इसमें साम्राज्य विरोधसामंती रूढ़ियों का विरोध तथा समाज को पुनर्गठित करने की धारणाएँ शामिल हैं।’’[8] आज के समय में नयी पूँजीवादी नीतियों का स्‍वीकार प्रकारांतर से साम्राज्‍य का स्‍वीकार हैनये सामंती वातावरण में सामंती रूढ़ियों के प्रति सर्व-स्‍वीकार्यता के भाव को प्रश्रय दिया जा रहा है और समाज के स्‍थान पर जातियों का पुनर्गठन दबाव समूहों के रूप में हो गया है। देश प्रेम और मानव प्रेम की धाराओं में कितनी तरलता शेष है ? यह दीगर प्रश्‍न है।


    व्यक्ति और समष्टि के संघर्ष के भारतीय और पाश्‍चात्‍य संदर्भ अनेक जटिलताएँ लिए हुए हैं। भारतीय साहित्‍य की प्राण शक्ति‍ कर्मवाद में निहित है। राष्‍ट्र के लिए प्राणोत्‍सर्ग की गौरवशाली परम्‍पराएँ हैंपराधीनता के विरुद्ध संघर्ष में एक पक्ष उन परम्‍पराओं का भी है। रामधारीसिंह दिनकर ने यूरोपीय प्रभावों और स्वाधीनता को इतिहास को युगपरिवर्तन के समकक्ष रखा है। “...भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियाँ हुईं हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों का इतिहास है। पहली क्रांति तब हुई जब आर्य भारत में आये अथवा जब भारत का सम्पर्क आर्येतर जातियों से हुआ।.........दूसरी क्रांति तब हुईजब महावीर और गौतम बुद्ध ने स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिंताधारा को खींचकर वे अपनी मनोवांछित दिशा की ओर ले गए।.....तीसरी क्रांति उस समय हुई जब इस्लामविजेताओं के धर्म के रूप में भारत पहुँचा और इस देश में हिन्दुत्व के साथ उसका सम्पर्क हुआ और चौथी क्रांति हमारे अपने समय में हुई जब भारतं में यूरोप का आगमन हुआ।’’[9] वैचारिकी की संस्‍थापना के लिए सुदूर विगत का स्‍मरण बहुत बार उपयोगी सिद्ध होता है। स्‍वाधीनता के संघर्ष में आत्‍म गौरव का बोध भी साहित्‍यकारों और इतिहासकारों के दायित्‍व में शामिल था। दिनकार यहाँ युगांतकारी घटनाओं को क्रांति कह रहे हैं। यूरोप का आगमन चौथी क्रांति कहा गया है तो यूरोपीय अहंकार का शमन और भारत की स्‍वाधीनता पाँचवी क्रांति कही जा सकती थीलेकिन विभाजन के कारण इसके संकल्‍प खंडित हो गए और इसे अधूरा इंकलाब कहा गया। हिन्दुस्तान की कहानी में जवाहरलाल नेहरु लिखते हैं-’’ आर्य समाजइस्लाम और ईसाई धर्म कीखासतौर से इस्लाम कीप्रतिक्रिया के रूप में साथ था। यह भीतरी सुधार का एक और जिहादी आंदोलन था और साथ ही बाहरी हमलों के खिलाफ हिफाजत के लिए यह एक सुरक्षा संगठन था। इसने हिन्दू धर्म में विधर्मियों की शुद्धि करके अपनाने की प्रथा डाली।’’[10] क्रांतिकारी आंदोलन की पृष्‍ठभूमि में आर्य समाज की भूमिका थी। धर्म सुधार आंदोलनों ने राष्‍ट्रीय एकता की बुनियाद को मजबूत बनाने का कार्य किया। सामाजिक कुरीतियों और दकियानूसी विचारों का विरोध धीरे-धीरे व्‍यापक आकार लेने लगा। औद्योगिक शहरों में सामाजिक परिवर्तन की गति गाँवों की अपेक्षा तेज थी। आजादी के बाद वोट की ताकत शहरों की अपेक्षा गाँवों में केन्द्रित हो गई। वोट बैंक के लिए दबाव समूह बनने लगे और आधुनिकता हवा हो गई।


    स्‍वतंत्रता के कुछ समय बाद राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक धारा सूखने लगी और देश भक्ति‍ की कविताओं को कवि सम्‍मेलन के मंचों पर स्‍थान खोजने पडे़ और व्‍यवसायिकता में सना हुआ वीर-रस का कवि राष्‍ट्रीय उत्‍सवों की बाट जोहने लगा। देशभक्ति एक पारिभाषिक शब्‍द होते-होते रह गया। राष्‍ट्रीय कविता के लिए अंतरराष्‍ट्रीय संदर्भ तलाशने पड़ रहे थे। अतीत के गौरव-गान से स्‍वाधीनता मिलनी थीमिल गई। वस्‍तु स्थिति के सामने इतिहास फीका पड़ने लगा। इसी संदर्भ में प्रभाष जोशी का यह कथन उल्लेखनीय है-‘‘जो कहते हैं कि भारतीयों में इतिहास बोध नहीं हैवे जानते नहीं कि सबके इतिहास-बोध एक पश्चिम योरोपीय ढंग के नहीं होते और यूरोप की सभ्यता कोई सबसे पुरानी और समृद्ध सभ्यता नहीं है जो उसके इतिहास बोध को ही प्रमाण मान लिया जाय।’’[11] स्‍वाधीन भारत को इतिहास का आश्रय प्रतिक्रि‍या से अधिक कुछ दे भी क्‍या सकता था। विभाजन का संदर्भ हमेशा सामने ही रहेगा और विभाजन तो एक उपाय था। दरारें और भी थीं जो समय और अवसर पाकर सामने आने लगी। डॉ. रामविलास शर्मा ने इसी ओर संकेत किया है- अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों को राजभक्ति सिखाईउनके अन्दर फूट की आग सुलगाई उन्हें एक दूसरे का खून बहाना सिखायायहाँ की संस्कृति और भाषाओं को पैरों तले रौंदा।’’[12] आजादी के बाद राजभक्ति से ज्‍यादा आकर्षण तो राज करने में था। राजनीतिक दलों ने सत्‍ता के अनुकूलन में कोई कसर नहीं रखी। यही मोह भंग रचनाकारों के लिए आवश्‍यक सामग्री उपलब्‍ध कराता है। नामवर सिंह कहते हैं- राजनीतिक कविताकविता के रूप मेंअपेक्षया ही नहीं बल्कि अशक्ततया सपाट होती है। इसका अर्थ है कि ऐसी कविता कभी-कभी तो प्रभावशाली हो सकती हैकिन्तु अन्ततः अच्छी नहीं हो सकतीक्योंकि हमारा अच्छाई का प्रतिमान जितने आंतरिक और सूक्ष्म विवेकवाले गुणों से निर्मित है उतने की गुंजाइश राजनीति नहीं छोड़ती।’’[13] शुभता के प्रतिमान बुनियादी जरुरतों के लिए संघर्षरत व्‍यक्ति‍ के रोजमर्रा के जीवन को और भी जटिल बना देते हैं। जीवन की जटिलताओं से जूझता साधारण मनुष्‍य प्रभावशाली कविता से भी प्रभावित नहीं होता तो सपाट संवेदनाओं में भी खुरदरापन तलाश ही लेता है।


    राजनीतिक कविता अंतत: अच्‍छी नहीं हो सकेगी। उसके अच्‍छे या बुरे हो सकने से साधारणजन पर क्‍या प्रभाव पड़ता है। प्रभाव को नियंत्रित करने के अनेक नये माध्‍यमों का उपयोग होने लगा है। जनसंचार के उपयोगी माध्‍यमों में कविता की गिनती ही नहीं है। शक्ति प्रभावी उपयोग के सूत्र और शैली सब बदल गए हैं- ‘‘वह स्थिति जिसमें कोई शक्तिशाली राष्ट्र सांस्कृतिक उपकरणों (जैसे कि विचारोंजीवन-शैलीसाहित्य कलाकृतियों और दूरदरर्शन-कार्यक्रमों) की सहायता से दूसरे देशों के लोगों के मन पर अपने सांस्कृतिक वर्चस्व की छाप छोड़ता है। यह दूसरे देशों पर प्रभुत्व स्थापित करने का ऐसा गूढ़ तरीका है जिसमें सैनिकआर्थिक या राजनीतिक शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता।’’[14] कोमलकांत अभिव्‍यक्तियों के अनेक संजाल सांस्‍कृतिक जीवन में शामिल हैं और स्‍वीकार्य भी हैं। पराधीनता और प्रभुत्‍व की परिभाषाएँ बदल गईं है। सांस्‍कृतिक प्रभुत्‍व राजनीतिक स्‍वाधीनता को चिढ़ा रहा है। ऐसे में समकालीन रचनाशीलता के लिए स्‍वाधीनता का संदर्भ साम्राज्‍यवाद और नवउपनिवेशवाद के गूढ़ अर्थों को उजागर करने का माध्‍यम है। सांस्कृतिक वर्चस्व में बड़ा आकर्षण है जो व्‍यक्ति को आकर्षित करता हैव्‍यक्ति‍ जो नागरिक भी है। राष्‍ट्रीयता इस सांस्कृतिक वर्चस्व से जूझ रही है।


    अस्मितामूलक विमर्श सांस्कृतिक वर्चस्व में समाधान की तलाश करते हैं। सांस्कृतिक उपनिवेश पर नियंत्रण के लिए राष्‍ट्रीयता बाधा उपस्थित करती है इसलिए स्‍वाधीनता के पार्श्‍व में साम्‍प्रदायिकता की परछाई बड़ी होती जाती है। आधुनिक भावबोध में स्‍वाधीनता एक प्रमुख मूल्‍य है लेकिन सांस्‍कृतिक वैविध्‍य का राष्‍ट्रीय रूपक जय-पराजय की परिभाषाओं से परे है। कालजयी है। समकालीन रचनात्‍मकता इसी अजस्र स्रोत से ऊर्जा ग्रहण कर रही है। अनेकता में एकता का ध्‍येय वाक्‍य स्‍वाधीनता के युगबोध विषयक संदर्भ को एक विराट फलक प्रदान करता है। अस्मितामूलक विमर्श और साम्‍प्रदायिकता की परछाई कितनी भी बड़ी हो जाए रचनाशीलता के आकाश में हमेशा उजाला रहेगा। लोकमानस इसी उजाले की आराधना करता है जो अपनी प्रवृत्ति‍ में ही शाश्‍वत है। 


संदर्भ


[1] रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 268, इलाहाबाद, सं.2001

[2] पंकज बिष्ट, इतिहास और साहित्य का संबंध, वागर्थ, जून, 2008

[3] राधावल्लभ त्रिपाठी, समकालीन भारतीय साहित्य, पृ. 24, मई-जून-2011, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली

[4] श्यामाचरण दूबे, भारतीय समाज, अनुवाद- वंदना मिश्र, पृ. 107, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, सं. 2011

[5] गुलाबराय, भारत की सांस्कृतिक एकता,सं. मूलचंद गौतम, भारतीय साहित्य, पृ. 21, दिल्ली, सं. 2009

[6] अशोक वाजपेयी, सम्पादकीय, नटरंग, पृ. 4,जनवरी-मार्च-2012

[7] रामविलास शर्मा, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ, पृ. 65-66, दिल्ली, सं. 2004

[8] रामविलास शर्मा, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, भाग द्वितीय, भूमिका,पृ.7, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण

[9] रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, भूमिका, इलाहाबाद, सं. 2005,

[10] जवाहरलाल नेहरु, हिन्दुतान की कहानी, पृ. 389, दिल्ली, सं. 2010

[11] जनसत्ता, दिल्‍ली संस्‍करण, 14 अक्टूबर, 1999

[12] डॉ. रामविलास शर्मा, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ, पृ. 65, दिल्ली, सं. 2004

[13] नामवर सिंह, वाद-विवाद-संवाद, पृ. 114, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण

[14] ओमप्रकाश गाबा, तुलनात्मक राजनीति की रूपरेखा, पृ. 350 मयूर पेपरबैक्स,  नोएडा, सं.-2005


डॉ. राजकुमार व्‍यास

सहायक प्रोफेसर, हिन्‍दी विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्‍वविद्यालयउदयपुर, राजस्‍थान

सम्पर्क: ईमेल rajkumarvyas@gmail.comमो. 99287-88995

                                  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी

                                       'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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