शोध : बाबासाहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर के चिंतन में धर्म / डॉ. भारती सागर

                          बाबासाहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर के चिंतन में धर्म / डॉ. भारती सागर


शोध-सार :

    उच्च शिक्षित एवं प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की बौद्धिक क्षमताओं का लोहा भारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व स्वीकार कर चुका है। यह उनका नेतृत्व ही था जिसने दलितों में अन्याय और भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा दी और उनके मार्गदर्शन में दलितों ने अपने मानवाधिकारों को प्राप्त करने की एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी। अपनी बौद्धिक क्षमताओं के अंतिम सीमा तक अंबेडकर ने दलितों के मानवाधिकार के साथ-साथ उन्हें सशक्त करने के जो उपाय दिए वे पूरे सैद्धांतिक ना होकर व्यवहारिकता, तार्किकता और मानवता के धरातल पर खरे उतरे इसका उन्होंने पूरा ख्याल रखा। अस्पृश्यता के उन्मूलन की खोज ने उन्हें हिंदू धर्म के मनन मंथन के लिए बाध्य किया, क्योंकि अस्पृश्यता को उन्होंने धर्म सम्मत पाया। वह धर्म जो अस्पृश्यता को धर्म सम्मत बनाता है, उस धर्म का यानी हिंदू धर्म और उसके दर्शन का विश्लेषण परिणाम स्वरूप उनके मनन मंथन का केंद्र बिंदु बन गए। वे आजीवन इस धर्म में मौजूद शोषण, असमानता, अंधविश्वास, जैसी समस्याओं का मंथन करते रहे और इनके निराकरण के लिए आवश्यक संभव सुधार भी अपने लेखों, अपने भाषण और विभिन्न पदों पर होते हुए पूरी शक्ति के साथ अमल में लाने और लागू करने की कोशिश की। प्रस्तुत लेख में बाबासाहेब अंबेडकर की धर्म को लेकर क्या सोच थी, क्या दर्शन था, धर्म क्या है, यह सामाजिक जीवन को कैसे प्रभावित करता है और कैसे यह एक श्रेष्ठ समतावादी, न्याय पूर्ण समाज का सृजन कर सकता है? इन पहलुओं पर डॉ. अंबेडकर के नजरिए से प्रकाश डाला गया है।

 

बीज-शब्द : बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर, धर्म, दर्शन, जाति, समाज।

 

मूल आलेख :

   बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर एक उच्च शिक्षित एवं बौद्धिक रूप से प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। यह उनका नेतृत्व ही था जिसने दलितों में अन्याय एवं भेदभाव के विरुद्ध चेतना को जागृत कर संघर्ष करने की प्रेरणा दी। आज भी यह दीपस्तंभ दलितों के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर शिक्षा, संगठन और संघर्ष के मूल मंत्र से प्रगति का रास्ता दिखाने वाली शक्ति के रूप में दलितों के ह्रदय में मौजूद है। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की बौद्धिक क्षमताओं का लोहा भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व स्वीकार कर चुका है। अपनी बौद्धिक क्षमताओं की अंतिम सीमा तक डॉ. अंबेडकर पूरी शक्ति से दलितों और पीड़ितों के मानवाधिकारों के साथ-साथ उन्हें सशक्त करने के उपाय आजीवन अपने भाषणों, लेखों, निबंधों और पुस्तकों में देते रहे। दलित उत्थान से जुड़ा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हो या धार्मिक मसला उन्होंने दलितों के हितार्थ जो उपाय सुझाए कोरे सैद्धांतिक ना होकर व्यवहारिकता तार्किकता एवं मानवीयता के धरातल पर भी खरे उतरे इसका उन्होंने पूरा ख्याल रखा।

 

    अस्पृश्यता के उन्मूलन की खोज ने उन्हें धर्म के मनन मंथन को बाध्य किया क्योंकि अस्पृश्यता को उन्होंने अस्पृश्यता को धर्म सम्मत पाया। वह धर्म जो अस्पृश्यता को धर्मसम्मत बनाता है, उस धर्म का यानी हिंदू धर्म और उसके दर्शन का विश्लेषण उनके अध्ययन का केंद्र बिंदु बन गए। प्रस्तुत लेख में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की धर्म को लेकर क्या सोच थी, धर्म ने जिन सामाजिक बुराइयों को जन्म दिया है उससे समाज को कैसे मुक्त किया जाए और धर्म की शक्ति से कैसे एक श्रेष्ठ समाज की रचना की जा सकती है जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।

 

धर्म की अवधारणा :

    सामान्यतः धर्म अलौकिक शक्ति में विश्वासो और व्यवहारों की एक व्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। दुर्खीम कहते हैं धर्म पूजा करने वालों को जोड़ता हैएक एकमात्र नैतिक समुदाय के रूप में”1 इस तरह धर्म नैतिकता के साथ पारलौकिक विषयों, प्रतीकों, मिथकों की एक विस्तृत व्यवस्था से जुड़ी हुई संकल्पना के रूप में देखा जा सकता है, पर डॉ. अंबेडकर ने अपने चिंतन में धर्म का किसी भी रूप में पारलौकिक या अलौकिक शक्ति के रूप में विवेचन नहीं किया बल्कि उन्होंने इसे एक सामाजिक शक्ति के रूप में देखाविभिन्न समाजों में धर्म को जिस रूप में प्रतिष्ठित देखते हैं और उससे जो भाव ग्रहण करते हैं उसे इस रूप में स्पष्ट करते हैंधर्म का अर्थ देवीय शासन की आदर्श योजना का प्रतिपादन करना है, जिसका उद्देश्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनाना है जिसमें मनुष्य नैतिक जीवन व्यतीत कर सकें। धर्म से मैं यही भाव ग्रहण करता हूं।”2

 

       यानी धर्म ईश्वर द्वारा निर्मित शासन है। इसका उद्देश्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था देना है, जो मनुष्य के लिए नैतिक जीवन की व्यवस्था के लक्ष्य को पूरा करती है। साथ ही डॉ अंबेडकर धर्म का विश्लेषण करते समय उपरोक्त संदर्भ में यह भी सिद्ध करते हैं कि धर्म की उत्पत्ति में आदिम समाजों में ईश्वर की कल्पना धर्म का अभिन्न अंग नहीं थी। इसकी पुष्टि हेतु वे धर्म की उत्पत्ति से जुड़े प्रचलित विचारों जादू, टोना, निषेध, प्रतीकों, संस्कारो, उत्सवों में ईश्वरीय सत्ता के महत्त्व को नकारते हुए स्पष्ट करते हैं कि इन क्रियाओं की उत्पत्ति और निरंतरता के पीछे जीव और जीवन की रक्षा का भाव और उद्देश निहित है और इस समय ईश्वरवाद मौजूद नहीं था, पर धर्म धार्मिक क्रियाएं मौजूद थी। इस प्रकार ईश्वर की कल्पना या ईश्वर का तत्व आदिम समाज में आदिम धर्म का अभिन्न अंग नहीं था। यह बाद में प्रस्फुटित हुआ। जीव और जीवन की रक्षा के भाव पहले आया यहीं से धर्म में उत्पत्ति हुई जो कि धर्म, नैतिकता और नैतिक जीवन में अभिन्न संबंध को दर्शाती है। यही वह नैतिक तथ्य हैं जो कि सभी धर्मों का सार है चाहे वह आदिम समाज हो या आधुनिक समाज। दोनों में डॉ आंबेडकर की दृष्टि मेंधर्म के हित का केंद्र बिंदु यानी जीवन की वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति की रक्षा होती है और उसके वंश का संचालन होता है एक ही है।”3 डॉ अंबेडकर के अनुसार अपने मूल रूप से धर्म का संबंध ईश्वर से ना होकर धर्म का मूल तत्व या सार जीव और जीवन की रक्षा है, जीव और जीवन की रक्षा कि इस प्रक्रिया में नैतिकता और धर्म में स्वाभाविक और दृढ़ अभिन्न संबंध कब स्थापित हुआ बताना कठिन है, पर ईश्वर की संकल्पना का धर्म में समावेश डॉ. अंबेडकर की नजर में मानव समाज में एक क्रांतिकारी घटना से कम नहीं है।

 

     प्रश्न उठता है कि अगर ईश्वर धर्म का अभिन्न अंग नहीं है तो धर्म में ईश्वर की कल्पना का उदय कब और कैसे हुआ? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ अंबेडकर दो संभावनाओं को व्यक्त करते हैं, एक यह कि ईश्वर की कल्पना के मूल में समाज के महान व्यक्ति की पूजा हो सकती है, जिनके प्रति श्रद्धा से ईश्वरवाद का उदय हुआ। दूसरी संभावना डॉ अंबेडकर उस दार्शनिक विचार की उत्पत्ति में देखते हैं जिसमें इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास रहा है की, यह जीवन किसने बनाया, किसने सृष्टि का निर्माण किया? और इस प्रश्न के उत्तर में ईश्वरबाद का जन्म हुआ और ईश्वर के शासन एवं योजना को जन्म दिया। वस्तुस्थिति जो भी हो इससे यह स्पष्ट होता है कि डॉ. अंबेडकर की नजर में सभ्य समाज में ईश्वर का धर्म की योजना में समावेश है …... सभ्य समाज में नैतिकता को धर्म के कारण पवित्रता प्राप्त होती है।”4 अतः जीवन के विभिन्न अवसरों पर एवं अवस्थाओं में जीवन की रक्षा के उद्देश्य से विभिन्न नियमों को गढ़ा गया और उन्हें ईश्वर से जोड़ दिया गया। यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि डॉ. अंबेडकर ने देवी-देवताओं उनकी कहानियों त्योहारों, समारोह को धर्म के अर्थ में कोई स्थान नहीं दिया। वे उस आचरण और नियमों की व्यवस्था को धर्म में स्थान देते हैं जो एक अपने समाज के लिए स्थापित करता है, इसे वे नियमों का धर्म कहते है। डॉ आंबेडकर स्पष्ट करते हैं कि नियमों के धर्म का पालन व्यक्ति जन्म से ही करना सीखने लगता है। व्यक्ति जिस समुदाय में जन्म लेता है उसमें उसके परिवार सगे संबंधियों को ही नहीं उस समुदाय के देवी देवताओं को भी अंगीकार करता है, जिसकी देवीय शासन योजना के अनुसार व्यक्ति आचरण संहिता का पालन समाज का सदस्य होने के कारण करता है। अतः डॉ. अंबेडकर की दृष्टि मेंधर्म का क्षेत्र और सामान्य जीवन दोनों के साथ संबंध होता है क्योंकि सामाजिक संरचना केवल मनुष्य से ही नहीं बल्कि मनुष्य और देवता दोनों से मिलकर की गई थीपर आगे से कहते हैं की आधुनिक समाज ने देवताओं को अपने सामाजिक संरचना से अलग कर दिया है। अब उसमें केवल मनुष्यों का समावेश है।”5 धर्म की अवधारणा में यह परिवर्तन डॉ अंबेडकर की दृष्टि में अतीत में घटित धार्मिक धार्मिक क्रांतियो का प्रतिफल है जिसमें धर्म का दर्शन गढ़ा, संशोधित और सृजित किया गया। इसके परिणामस्वरूप आधुनिक समाज मैं धर्म की अवधारणा अपने परिवर्तित स्वरूप में कुछ ऐसी है कि अब धार्मिक आदर्शों का लक्ष्य समूह या समाज ना होकर व्यक्ति है, और धार्मिक नियमों की कसौटी, उनकी उपयोगिता से हटकर न्यायसंगतता में निहित है। यानी धर्म की सार्थकता व्यक्ति और उसके लिए न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में निहित है।


धर्म और समाज :

    अतः डॉ अंबेडकर के लिए धर्म व्यक्तिगत या निजी मामला नहीं है बल्कि उसकी एक सामाजिक उपयोगिता है। उनके अनुसार धर्म में ईश्वर का स्थान जीवन रक्षक के साधन के रूप में है और धर्म साध्य है सामाजिक जीवन का परिरक्षण और पवित्रीकरण है। उनके शब्दों मेंधर्म जब व्यक्तिगत निजी और जाति का मामला बना रहता है तो वह यदि खतरे का नहीं तो प्रत्यक्ष शरारत का सबब तो बन ही जाता हैसही दृष्टि यह है कि भाषा की भांति धर्म भी समाज के लिए है और व्यक्ति को उसे अपनाना ही पड़ता है क्योंकि उसके बिना वह सामाजिक जीवन में भाग नहीं ले सकता।”6 यानी मार्क्सवादियों की तरह की तरह डॉ आंबेडकर धर्म को समाज एवं व्यक्ति के लिए अनुपयोगी या हानिकारक नहीं मानते बल्कि उनकी दृष्टि में धर्म सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति की सहभागिता को आधार प्रदान करता है। संक्षेप में डॉ. अंबेडकर के अनुसार-

    धर्म सामाजिक मूल्यों को स्थापित करता है, उन्हें सर्वव्यापी बनाता है। यह समाज को एकता में बांधते हैं।

     धर्म सामाजिक मूल्यों को अध्यात्म से जोड़ता है। इन आध्यात्मिक मूल्यों का प्रक्षेपण सर्वव्यापी यथार्थ जगत में करता है।

     सभी धर्म यहां तक कि अनीश्वरवादी भी आध्यात्मिकता पर बल देते हैं, उसकी सत्ता पर विश्वास करते हैं, और उसी विजय की कामना करते हैं।

    धर्म समाज के लिए सामाजिक नियंत्रण की एक एजेंसी के रूप में कार्य करता है। इस मामले में डॉ. अंबेडकर धर्म को राज्य और सरकार से अधिक प्रभावशाली मानते हैं। उनके अनुसारधर्म का कर्म भी वही है जो कानून और सरकार का है जिसके द्वारा समाज व्यवस्था को बनाए रखने के लिए समाज व्यक्ति के आचरण पर अंकुश रखता है।”7 आगे वे लिखते हैंधर्म सर्वाधिक सशक्त सामूहिक गुरुत्वाकर्षण है और उसके बिना समाज व्यवस्था को उसके परिक्रमा पथ पर रखना संभव ना होगा।”8

 

    इस प्रकार डॉ. अंबेडकर के चिंतन में धर्म एक सामाजिक यथार्थ है, एक सामाजिक शक्ति है, इसका एक विशिष्ट सामाजिक प्रयोजन है, और एक निश्चित सामाजिक कृत्य है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। यहां यह स्मरणीय है कि डॉ आंबेडकर धर्म के सामाजिक महत्व को स्वीकारते हैं पर साथ ही कहते हैं यदि धर्म के कारण समाज में असमानता भेदभाव एवं शोषण को प्रशय मिलता है तो ऐसे धर्म का प्रतिकार किया जाना चाहिए।

 

हिंदू धर्म, जाति व्यवस्था और धर्मशास्त्र :

    यहां यह ध्यान देने योग्य है कि डॉ. अंबेडकर के लिए धर्म पारलौकिक विषय से जुड़ा मुद्दा नहीं है उनके लिए यह विशुद्ध सामाजिक प्रघटना है जो सामाजिक संरचना और संस्थाओं को संभव बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, उदाहरण के लिए हिंदू धर्म में जाति संस्था इसका एक परिणाम है। हिंदू धर्म के विषय में डॉ अंबेडकर का विचार है कि यह एक परिपूर्ण धर्म है अर्थात इनकी मूल उत्पत्ति उन धर्मगुरुओं के उपदेशों से होती है जो एक अन्य साक्षात्कार के रूप में बोलते हैं, जागृत प्रयासों से उत्पन्न होने के कारण परिपूर्ण धर्म का दर्शन जानना और उसका वर्णन करना सरल है। हिंदू धर्म, यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म के समान परिपूर्ण धर्म है। हिंदू धर्म के देवीय शासन को तलाश करने की आवश्यकता नहीं। देवीय शासन की हिंदुत्व की योजना को एक लिखित संविधान में स्थापित किया गया। यदि कोई उसे अपनाना चाहे तो वह पवित्र पुस्तक को देख सकता है जिसेमनुस्मृतिके नाम से जाना जाता है।”9

 

    डॉ. अंबेडकर कहते हैं हिंदू धर्म नियमों का धर्म है। धर्मशास्त्रों विशेषत: मनुस्मृति आदि में दीक्षा, गायत्रीमंत्र, संस्कारों और संबंधित नियमों के विश्लेषण द्वारा वे स्पष्ट कहते हैं कि हिंदू धर्म धार्मिक अनुष्ठान और नियमों का संग्रह है जो संस्तरण और अस्पृश्यता की वैचारिकी पर आधारित है। सिद्धांत और व्यवहार दोनों में ही भेदभावपूर्ण, अन्यायपूर्ण और शोषणकारी है और जाति जैसी भेदभावपूर्ण संस्था को प्रतिफलित करता है। नियमों का यह धर्म अपने सभी सदस्यों के जीवन की रक्षा के प्रयोजन को समान रूप से पूर्ण नहीं करता है। दलितों-पीड़ितों के लिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण है डॉ. अंबेडकर के चिंतन में इसी प्रश्न के उत्तर में धर्मांतरण की पृष्ठभूमि तैयार होती है। अतः हिंदू धर्म में सुधार की आवश्यकता है। वह सुधार के लिए क्रांतिकारी उपाय सुझाते हैं। वह यह कि इन भेदभाव को नियमों को पोषित करने वाली जाति संस्था का ही उन्मूलन कर दिया जाए बजाय इसके कि इसमें सुधार कार्य हो जैसा कि गांधीजी का मत था। ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ में वे यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि राजनैतिक एवं संवैधानिक सुधार तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक कि सामाजिक सुधार ना हो जाए। अस्पृश्यता का उन्मूलन करने के लिए वास्तविक सामाजिक सुधार यही होगा कि जाति का उन्मूलन किया जाए क्योंकि इसे सुधारा नहीं जा सकता। जाति ने हम सबको इतनी गहराई से बांटा है कि जुड़ने के रास्ते खत्म हो चुके हैं और बाबासाहेब इस सत्य को अच्छे से देख पा रहे थे। उन्होंने इस स्थिति को ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ में बड़े कड़े शब्दों में उद्घाटित किया। वह स्पष्ट देख पा रहे थे कि जाति के अंदर सौहार्द, समानता भाईचारे की संभावना शून्य है। यह देश के नागरिकों को बांटने वाली शक्ति के रूप में विद्यमान है, इसलिए राष्ट्रीय एकता और सशक्त राष्ट्र के निर्माण के लिए जाति का विनाश होना आवश्यक है।

 

       जाति के उन्मूलन के लिए डॉ. अंबेडकर अंतरजातीय विवाह और सहभोज का सुझाव देते हैं साथ ही उस हिंदू वैचारिकी को समाप्त करने पर बल देते हैं जो धर्मशास्त्रों और स्मृतियों से निर्मित होती है।10 उनकी दृष्टि में जाति की प्रकृति सामाजिक से कहीं ज्यादा मनोवैज्ञानिक है या मानसिक है जिसे इन धर्म ग्रंथों में व्यवस्थित किया गया। अतः अस्पृश्यता के अंत एवं जातिगत भेदभाव तथा अलगाव से मुक्ति हेतु जरूरी है कि उन धार्मिक मान्यताओं, धर्मशास्त्रों को समाप्त किया जाए जिस पर जाति आधारित है, इसीलिए उन्होंने मनुस्मृति सहित अन्य धर्मशास्त्रों का बहिष्कार करने के लिए कहा। जिससे इनके द्वारा दी गई मानसिक गुलामी से मुक्त हो सके फिटजगेरालड लिखते हैं “इस अवस्था में डॉ. अंबेडकर की दृष्टि फैले हुए कर्मकांड वाद पर केंद्रित थी जिसे मनुस्मृति के धार्मिक सिद्धांतों में सर्वाधिक प्रभावशाली कुटबद्धता प्रदान की गई।”11 उनका यह मानना था कि हिंदू जाति का पालन इसलिए नहीं करते कि वे अमानुष अथवा भ्रात मस्तिष्क के हैं। वे जाति का पालन इसलिए करते हैं क्योंकि वे गहनतापूर्वक धार्मिक हैं। अतः जिस शत्रु से भिड़ना चाहिए वह व्यक्ति नहीं बल्कि जाति संस्था है और धर्मशास्त्र है, जो उन्हें ऐसी अमानवीयता और भेदभाव की शिक्षा देते हैं।

 

डॉ. अंबेडकर का आदर्श धर्म :

    डॉ. अंबेडकर एक समतावादी समाज के निर्माण के लिए हिंदू धर्म द्वारा दी गई मूल्य व्यवस्था को जो जाति संस्था से संचालित होती है उसका विनाश करके उसके स्थान पर नई मूल्य व्यवस्था की स्थापना का आग्रह करते हैं। जिसमें भेदभाव और संस्तरण के स्थान पर समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा के सार्वभौमिक मूल्य हो। उनकी दृष्टि में यही वास्तविक धर्म है जो सार्वभौमिक है। हिंदू धर्म में भी यह वैचारिकी उपनिषदों में पाई जाती है। फिट्जगेराल्ड लिखते हैंयहां अंबेडकर की यह अंतर्दृष्टि थी कि जिन सिद्धांतों एवं मूल्यों को सामान्यता धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है वे उतने ही पवित्र होते हैं जितना उन्हें पारंपरिक रूप से धार्मिक कहा जाता है।”12 एक बेहतर समाज की रचना के लिए डॉ अंबेडकर हिंदू धर्म में इस परिवर्तन को आवश्यक मानते हैं, जिसका नैतिक आधार और औचित्य उनके इस विचार में देखा जा सकता है कि वे ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ में वे अपने गुरु डिवी के विचार को रेखांकित करते हुए कहते हैंप्रत्येक समाज पर यह भार होता है कि वह अपने अतीत में से तुच्छ चीजों का जो अवांछित हैं उन्हें नष्ट करें और जो सकारात्मक है उनका संरक्षण करें…... जिससे बेहतर भविष्य का निर्माण हो सके।’13 अंबेडकर भेदभावपूर्ण जाति संस्था के उन्मूलन को इसी नजरिए से देखते हुए इसके उन्मूलन को नैतिक दृष्टि से उचित मानते हैं और एक श्रेष्ठ समाज के निर्माण के लिए धर्मनिरपेक्षता, समानता, स्वतंत्रता भाईचारा के सार्वभौमिक मूल्यों की स्थापना की पैरवी करते हैं। उनका यह मानना है कि धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता, समानता भाईचारा ऐसे मूल्य हैं जो सार्वभौमिक हैं और सभी पर समान रूप से लागू होते हैं। जबकि हिंदू धर्म के मूल्य विशिष्टवादी हैं। जाति के अनुसार अधिकारों और नियमों में विशिष्टता रखते हैं समाज में भेदभाव और शोषण को पोषित करता है। जबकि समानता स्वतंत्रता एवं भ्रातृत्व के धार्मिक सिद्धांत एक धर्मनिरपेक्ष (विरोधाभासी) समाज को संभव बनाते हैं। जिसमें धर्म एक व्यक्तिगत प्रतिबद्धता एवं पसंद की विषय वस्तु बन जाता है। धर्म की यह भिन्न अवधारणा डॉ. अंबेडकर के ‘बुद्धा एंड द फ्यूचर ऑफ हीज रिलीजन’ में अंतर्निहित है। जहां वे बौद्ध मत, ईसाई मत, इस्लाम एवं हिंदू धर्म की तार्किकता एवं नैतिक सिद्धांतों की एक तुलनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं और बौद्ध धर्म के पक्ष में निष्कर्ष निकालते हैं।”14 उनकी दृष्टि में यही वह धर्म है जो सबसे अधिक तार्किक वैज्ञानिक और नैतिक है। वह दूसरों को भी इस धर्म को अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। 14 अक्टूबर 1956 को अपने 500000 से अधिक अनुयायियों के साथ अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म को अंगीकार करना इन सिद्धांतों को वास्तविकता का धरातल प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था। उनकी पुस्तकबुद्ध और उनका धम्मइस विषय में उनके विचारों को समझने में मददगार है। डॉ आंबेडकर धर्म और धम्म की संकल्पना में अंतर करते हैं वे कहते हैं कि पारंपरिक धर्म में नैतिकता और जीव और जीव के रक्षण का भाव प्रमुख था, जबकि धम्म में नैतिकता ही धम्म है। प्रज्ञा और करुणा से अद्भुत यह धम्म समाज को एक सूत्र में बांधने वाली शक्ति के रूप में काम करता है। अतः डॉक्टर अंबेडकर धम्म की संकल्पना के विश्लेषण में इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि प्रेम, भाईचारा और समानता के मूल्यों पर आधारित समाज के सृजन के लिए धम्म की शक्ति का होना परम आवश्यक है। धर्म व्यक्तिगत जीवन की जरूरत है तो धम्म सद्भावपूर्ण समाज के निर्माण के लिए परमआवश्यक है।’15 अतः बौद्ध धर्म डॉ. अंबेडकर के चिंतन में नए सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार एवं व्यक्तिगत दृष्टि से सर्वाधिक तार्किक नैतिक एवं समतावादी धर्म के रूप में स्थित है।

 

       संक्षेप में फिट्जगेराल्ड के शब्दों में यह कह सकते हैं कि डॉ. अंबेडकर के चिंतन में धर्म की जो अवधारणा निहित है आवश्यक रूप से पारलौकिक प्राणियों के विषय में है। अनुभवातीत संसार अथवा मृत्यु के बाद एक जीवन में आध्यात्मिक मोक्ष नहीं है। यह उन मूलभूत मूल्यों के विषय में है जो विभिन्न प्रकार की संस्थाओं को संभव बनाते हैं, एक दृष्टांत में जाति की संस्था (नियमों का धर्म) और दूसरे में प्रजातांत्रिक संस्थाएं जो स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारा के पवित्र सिद्धांतों (वास्तविक धर्म) पर आधारित है।”16 इसी वैचारिकी में जीव और जीवन की रक्षा का वास्तविक भाव निहित है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि नैतिकता और नैतिक विवेक डॉ. अंबेडकर ने अपने चिंतन में कभी भी अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया। समाज में नैतिक विवेक कैसा होगा यह धर्म से निर्धारित होता है क्योंकि इस नैतिक विवेक, नैतिक तथ्य और नैतिक जीवन की उत्पत्ति का स्रोत स्वयं धर्म है, उसके द्वारा जनित संस्थाओं में है। अतः उनकी दृष्टि में धर्म द्वारा जनित संस्थाएं जो मनुष्य के नैतिक जीवन के साध्य को पूर्ण करने में असमर्थ हों उनका उन्मूलन ही उचित है। उनके स्थान पर स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा जैसे सार्वभौमिक सिद्धांतों पर आधारित मूल्यों की स्थापना श्रेष्ठ और सशक्त राष्ट्र के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करती हैं। इस मामले में उन्होंने बौद्ध धर्म को सर्वाधिक उपयुक्त पाया। अंत में कह सकते हैं किइस विषय में कोई शंका नहीं है कि डॉ. अंबेडकर करुणा, न्याय और समानता जैसे मूल्यों एवं सिद्धांतों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के अर्थ में अत्यधिक धार्मिक व्यक्ति थे।”17 निश्चय ही धर्म की शक्ति के महत्व पर उनकी समझ गहरी, प्रशंसनीय और अद्भुत है।

 

संदर्भ :


1.   एस. सेलवम., “भारत एवं हिंदुत्व का समाजशास्त्र: एक पद्धति की ओर”, आधुनिक भारत में दलित दृष्टि एवं मूल्य (संपादक एस .एम. माइकल), सेज एवं रावत पब्लिकेशन नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2010, (प्र. सं.1999) पृ.160

 2.   बी.आर.अंबेडकर., बाबासाहेब डॉक्टर अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय: हिंदुत्व का दर्शन, खंड 6, (सातवां संस्करण) डॉक्टर अंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय नई दिल्ली, सातवां संस्करण, 2013, (प्र. सं.1996), पृ.69

 3.   बी. आर.अंबेडकर., बाबासाहेब डॉक्टर अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय: अस्पृश्य का विद्रोह गांधी और उनका अनशन पूना पैक्ट, खंड 10, डॉक्टर अंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय नई दिल्ली, सातवां संस्करण, 2013,(प्र. सं.1996),(प्र. सं.1996), पृ. 26

 4.   बी.आर.अंबेडकर., बाबासाहेब डॉक्टर अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय: हिंदुत्व का दर्शन, खंड 6,डॉक्टर अंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय नई दिल्ली, सातवां संस्करण, 2013,(प्र. सं.1996), पृ.27

 5.   वही, पृ.29

 6.   बी.आर.अंबेडकर., बाबासाहेब डॉक्टर अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय: अस्पृश्य का विद्रोह गांधी और उनका अनशन पूना पैक्ट, खंड 10, डॉक्टर अंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय नई दिल्ली ,सातवां संस्करण, 2013,(प्र. सं.1996) पृ. 339-340.

 7.   वही, पृ.342

 8.    वही, पृ.342

 9.   वही।

 10.  टी. फिट्जगेराल्ड, “अंबेडकर बौद्ध मत एवं धर्म की अवधारणा”, आधुनिक भारत में दलित दृष्टि एवं मूल्य (संपा. एस.एम. माइकल), दलित इन मॉडर्न इंडिया विजन एंड वैल्यूज - अनुवादक विनय कुमार पंत, सेज एवं रावत पब्लिकेशन नई दिल्ली, पृ.116

 11. उपरोक्त, पृ.116

 12. उपरोक्त, पृ.114

 13.  इग्नू. बी.आर. अंबेडकर: विचारक, उनका समय, BAB - 101, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, (2018), पृ.90 .

 14. टी. फिट्जगेराल्ड, “अंबेडकर बौद्ध मत एवं धर्म की अवधारणा”, आधुनिक भारत में दलित दृष्टि एवं मूल्य (संपा. एस.एम. माइकल), दलित इन मॉडर्न इंडिया विजन एंड वैल्यूज - अनुवादक विनय कुमार पंत, सेज एवं रावत पब्लिकेशन नई दिल्ली, पृ.119

 15. डी.आर.सिरसवाल,“रोल ऑफ रिलिजन एंड स्पिरिचुअल वैल्यू इन शेपिंग ह्यूमैनिटी (ए स्टडी डॉक्टर बीआर अंबेडकर रिलीजियस थॉट्स)”, माइलस्टोन एजुकेशन रिव्यू,,वर्ष-07 नं. 01,अप्रैल 2016, पृ. 13- 15, https://phlpapers.org/archve/SRTRO-2.pdf से प्राप्त

 16.  टी. फिट्जगेराल्ड, “अंबेडकर बौद्ध मत एवं धर्म की अवधारणा”, आधुनिक भारत में दलित दृष्टि एवं मूल्य (संपा. एस.एम. माइकल), दलित इन मॉडर्न इंडिया विजन एंड वैल्यूज - अनुवादक विनय कुमार पंत, सेज एवं रावत पब्लिकेशन नई दिल्ली, पृ.118

 17. वही, पृ.121



डॉ
. भारती सागर

       सहायक आचार्य एवं विभागाध्यक्ष

समाजशास्त्र, आर.सी.ए. कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय मथुरा

bharatisagar01@gmail.com

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)

अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue 

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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