आलेख : भारतीय किसान : मिथक बनाम यथार्थ / प्रो. गजेन्द्र पाठक

भारतीय किसान : मिथक बनाम यथार्थ / प्रो. गजेन्द्र पाठक 

       संस्कृति आकाश से नहीं धरती से पैदा होती है। रेमंड विलियम्स ने जब कल्चर को एग्रीकल्चर की देन माना होगा तब शायद उन्हें इस बात का अंदेशा नहीं रहा होगा कि भारत का आदि कवि इस बात से हजारों साल पहले परिचित था। रामायण की सीता जो भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी और गतिशील प्रतीक सिद्ध हुईं उनके जन्म के रूपक से ही यह प्रमाणित हो जाता है कि संस्कृति खेत और खेती की ऊपज है। 

    आज जब सावन-भादो में हम कंप्यूटर के सामने बैठ कर खेतों में धान रोप कर अगहन का बेसब्री से इंतजार कर रहे है, किसान और उसकी यंत्रणा और यातना की साहित्यिक परिणति पर बात कर रहे हैं, तब मुझे एक जमाने में देश के उत्तर सीमांत पर खेतों में हल चलाते हुए विदेह राज जनक दिखाई पड़ रहे हैं। याद करें गोदानके राय साहब ने होरी को जेठ दशहरे के धनुष यज्ञ में राजा जनक का माली बनने का आदेश दिया था। अपने देश के कई लोकगीतों में विवाह के हर आयोजन में बेटी का बाप जनक के रूप में चित्रित होता है। श्रम और त्याग की प्रतिमूर्ति। हम लोगों में से बहुत लोगों ने अपने बचपन में दादी से कुछ ऐसी कहानियां जरूर सुनी हैं जिसमें एक राजा होता था और वह इतना गरीब होता था कि उसे अपनी जीविका के लिए हल चलाना पड़ता था। थोड़ा सयानापन इन कहानियों को कपोल काल्पनिक मानकर इनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश करने लगा लेकिन आज जब मैं उन कहानियों को याद करता हूं तो मुझे लगता है कि ऐसी कहानियों के प्रेरणा स्रोत राजा जनक जैसे लोग ही रहे होंगे। यह अपने देश की संस्कृति थी। क्या हुआ जो किसी राज के प्रमुख हैं? अन्न के लिए खेती तो करनी ही है। वैदिक साहित्य में, पुराणों में, उपनिषदों में ऐसी अनेक कथाएं मिलेंगीं जो पुकार पुकार कर कहती हैं कि खेती करना, पढ़ाई करने से हीन कार्य कभी नहीं रहा है। जिनकी जिह्वा से मंत्र निकलते थे वे अपने हाथों में कुदाल लेने में कभी संकोच नहीं करते थे। एक हाथ में मंत्र की ताकत तो दूसरे हाथ में यन्त्र की। यह यन्त्र हल हो या धनुष, इसका संदेश यही था कि अपने शरीर की रक्षा के लिए अन्न भी जरूरी है और दुश्मनों से बचने के लिए के लिए हथियार भी। महाभारत के बलिराम के हाथ का हल दोनों काम करता है। हमारी प्राचीन ज्ञान परम्परा श्रम की उपेक्षा पर आधारित नहीं थी। पेट की रक्षा के लिए भी परिश्रम की जरूरत है और देश की रक्षा के लिए भी, यह बात हमारी ज्ञान मीमांसा का अनिवार्य हिस्सा थी। गुरुकुलों में शास्त्र के साथ साथ शस्त्र की दीक्षा का अनिवार्य प्रावधान और हमारे राम और कृष्ण जैसे ज्ञानी लोकनायकों के मानस में शास्त्र और हाथ में शस्त्र भी इस बात के प्रमाण हैं कि बुद्धिजीवियों की कमजोर शारीरिक संरचना और सामाजिक उपस्थिति की जो पहचान बनी वह बाद की बात है। ऋषियों के पास ज्ञान था, साथ ही क्रोध भी था और वे वरदान और शाप देना जानते थे। वे ईश्वर पर भरोसा करके चुप बैठ जाने वाले भक्त नहीं थे या कविता लिखकर संतोष कर जाने कवि मात्र नहीं थे। कहने का आशय यह कि शक्ति सरंचना के आधार पर यदि विचार करें तो ज्ञान, धर्म, कृषि, सत्ता की समन्वित परिधि में संतुलन की पर्याप्त और निरंतर साधना चलती रही। हाथ पर हाथ धरकर कोई ऐसे ही बेहतरी का इंतजार नहीं कर रहा था। 

    गुरुकुल में प्रवेश के लिए जो बुनियादी शर्त थी वह आज की इस बाजारू शिक्षा व्यवस्था के लिए भी एक चुनौती है। आप भले ही कृष्ण हों या सुदामा गुरुकुल में एक साथ एक जैसे रहना था। अन्नोपर्जन पहले करना था फिर ज्ञानोपार्जन। खेत में अन्न पैदा करने का हुनर जब तक नहीं आयेगा, मस्तिष्क में मंत्र को सिद्ध करने की कला भी नहीं आयेगी। महाभारत के ही एक महान ऋषि आयोद धाम्य के आश्रम के आरुणि की वह मशहूर कथा याद करें। उस कथा में सिर्फ गुरु की अंध भक्ति ही नहीं उस चिन्ता को भी रेखांकित किया जाना चाहिए जो शरद की उस रात में अपने को मेड़ के रूप में तब्दील कर अन्न के लिए खेत में पानी बचा लेने की जुगत में शहीद होने की हद तक कुर्बान होने की प्रेरणा देती है। यह वह शिक्षा थी जो खेती को आपद धर्म की तरह समझती थी। बारिश का पानी बह गया तो फिर वापस नहीं आयेगा। दुनिया की सारी चीज़ें इंतजार कर सकती हैं, खेती नहीं कर सकती। खेती का एक ताव होता है। खेती के लिए भी वैसे ही शहीद होना पड़ता है जैसे देश के लिए। जैसे प्रेम के लिए। जैसे लहना सिंह होना होता है। जैसे होरी होना होता है। जैसे, हल्कू होना होता है। 

    भादो में किसान के घर की स्थिति क्या होती है इसे कोई किसान ही समझ सकता है। वह किसान जो अपने साल भर की जमा पूंजी को खेतों में समर्पित कर भविष्य के सपनों में अपने तात्कालिक कष्टों को काटने और भूलने में, बाढ़ या अकाल की आशंका में दिन रात आकाश की तरफ टकटकी लगाए रहता है। धरती और आकाश पर कविता लिखने वाले किसान की उस मनोदशा से शायद होड़ लेने की कोशिश में रहे जो धरती और आकाश को एक दूसरे का विरोधी नहीं बल्कि पूरक मानती है। धरती में धँसकर और आकाश को चीर कर घन आंनद को सुजान मिले या नहीं मिले यह तो कह पाना मुश्किल है लेकिन इसी धरती और आकाश को पढ़कर किसानों के सबसे बड़े कवि घाघ ने किसानों के दुख और प्रकृति के साथ उनके राग विराग का जो चित्र खींचा है वह उत्तर भारत के किसानों के लिए जीवन मंत्र से कम नहीं है। हवाओं के रुख से मौसम का मिजाज जानने वाले इस कवि ने राम और कृष्ण पर कविताएं तो नहीं लिखी लेकिन उनके देश में पैदा किसानों के लिए उम्मीद और धैर्य का एक ऐसा संसार रचा जिसकी बुनियाद पर हिदुस्तान की यह कायनात टिकी है। 

    मुझे किसान पर होने वाली हर बातचीत में आदि शंकराचार्य की याद आती है। मैंने उनकी जन्मभूमि देखी है। वह नदी पूर्णा देखी है जो एक जनश्रुति के अनुसार उनकी पुकार पर  उनकी मां से मिलने चली आईं थीं। शंकर ने उस नदी को भी अपनी माँ माना था। शंकराचार्य की एक तीसरी माँ भी उनके व्यापक रचना संसार में मौजूद हैं जिनका नाम अन्नपूर्णा है। बनारस में शायद उन्होंने वह मंदिर भी देखा था। माता अन्नपूर्णा पर उनकी कविता में भूख और अन्न के युग्म से पैदा हुई वह मार्मिक वेदना दिखाई पड़ती है जिसे कोई भूखा व्यक्ति ही महसूस कर सकता है। अपने काशी प्रवास में उन्हें शायद इस माँ के माहात्म्य का भी आभास हुआ हो जिसके अनुसार काशी में कोई भूखे पेट नहीं सोता। इसी अन्नपूर्णा की छाया उन्हें भारत के किसानों में दिखाई पड़ी थी। उन्हें इस बात को लेकर कोई भ्रम नहीं था कि संन्यासी को भी भूख लगती है और उस भूख का समाधान आध्यात्म के पास नहीं है बल्कि किसानों के पास है। शंकराचार्य ने इसीलिए किसानों के जीवन को सर्वाधिक सार्थक और महान माना था। भारतीय ज्ञान मीमांसा में वेद और उपनिषदों के पास चलें तो एक बात दिखाई पड़ेगी कि हमारी गुरुकुल परम्परा में ज्ञान और श्रम के बीच आज की तरह इतनी बड़ी खाई नहीं थी। बुद्धिजीवी और श्रमजीवी के बीच जो इतनी बड़ी खाई पैदा हुई है उसी का परिणाम है कि प्रवासन और विस्थापन की समान पीड़ा से गुजरने के बावजूद प्रवासी विशेषण सिर्फ श्रमजीवी समुदाय के साथ चस्पा हुआ है। 

    मानसिक श्रम को कीमती और शारीरिक श्रम को उपेक्षित सिद्ध करने की हजारों साल पुरानी साजिश के तहत ही अपने देश में उस काम को अपवित्र मान लिया गया जिसमें पसीने से दुर्गन्ध आती थी। खेती का काम भी उसी तरह का काम था। खेत के पैदा हुए अन्न से जीवित रहने के बावजूद खेती के काम से जुडे़ हुए लोगों की जो लंबे समय तक उपेक्षा हुई है उसी का परिणाम है अपने देश में किसानों और मजदूरों की दुर्दशा। कालिदास के मेघ को इन किसानों के पास जाने का सुख तो दिखाई पड़ता है लेकिन जिस देश की सांस्कृतिक विरासत में राजा जनक जैसे लोग हल चलाने में किसी लज्जा का अनुभव नहीं करते उसी देश में होरी जैसे किसान का बेटा खेती करके शहर में मजूरी करने को बेहतर समझता है तो यह देश के लिए चिंता का विषय है। जिस देश में खेती को उत्तम, व्यापार को मध्यम और नौकरी को अधम माना गया हो उस देश में नौकरी के पीछे गोबर की पीढ़ी से लेकर अब तक निरंतर बढ़ती हुई लाचारी भी खेती के निरन्तर बदतर होते जा रहे हालात का एक बड़ा प्रमाण है। 

    प्रेमचंद ने अकबर के समय के भारत के किसानों की दशा पर विचार करते हुए लिखा था कि, “हिंदुस्तान विशेष रूप से कृषि प्रधान देश है और किसानों की दशा परखने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं है कि उस समय कृषि कानूनों का विहंगावलोकन किया जाय। अकबर के युग से पहले खेती की दशा बहुत खराब थी। न लगान का कोई नियत शुल्क था, उसे वसूल करने का कोई निश्चित समय था। अकबर के युग में ये सभी असंगतियाँ दूर कर दी गईं। जमीन की पैमाइश की गई, उसे उपज की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त किया गया और औसत निकाल कर प्रत्येक भूखंड पर लगान की धनराशि निर्धारित की गई। गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति के माध्यम से वसूली होती थी। ईख और ऐसी जिंसों पर जिनमें अधिक मेहनत लगती है, लगान औसत उपज का पाँचवाँ, छठा या सातवाँ भागनिर्धारित किया गया। शेष रबी तथा खरीफ की अन्य जिंसों पर राज्याधिकार एक चौथाई से अधिक नहीं था। स्थान स्थान पर कुँए बनवाये गए। अकाल के समय में किसानों की सहायता करने का प्रबंध किया गया। किसानों को अधिकार था कि लगान चाहे उपज के रूप में दें अथवा नकद। उन कानूनों की जब हम आज के कानूनों से तुलना करते हैं तो सिद्ध होता है कि उस समय के किसानों की दशा इतनी बिगड़ी हुई नहीं थी। विशेषकर इस कारण से कि उनकी आवश्यकताएं तुलनात्मक रूप से बहुत सीमित थीं और वे भी बहुत आसानी से पूरी हो जाती थीं क्योंकि आज की तुलना में वस्तुओं के दाम बहुत कम थे। प्रेमचंद ने अपने समय के भारत को देखते हुए अकबर कालीन भारत में किसानों की स्थिति को बेहतर माना था। अकबर के समय भारत के किसानों की स्थिति पर बात करते हुए भक्ति काल के हमारे कवियों के काव्य संसार में मौजूद कृषि जीवन प्रसंगों पर विचार किया जाना चाहिए। 

    तुलसी की कविता में मौजूद खेती की दशा और दुर्दशा के चित्रों की अक्सर चर्चा होती है और उस चर्चा से सूरदास की कविता में मौजूद उस रूपक पर विचार करें जिसमें बादल ही खेत चर जा रहे हैं तब यह बात समझ में आएगी किखेती किसानको से लेकरकहें एक एकन सों कहाँ जाईं, का करींअकबर के इतने प्रयासों के बावजूद एक कटु सत्य था। सूरदास किसान जीवन के बड़े कवि हैं या तुलसीदास इस बात पर भी लम्बी बहस चली है। इस बहस में आश्चर्य जनक रूप से उस कवि की उपेक्षा हुई है जो उत्तर भारत के किसानों के बीच एक चिर परिचित मार्गदर्शक और एक किम्वदंती पुरुष का दर्जा पा चुके हैं। कहते हैं कि घाघ अकबर के समकालीन थे। अकबर के समय घाघ जैसे कवि का होना और अकबर द्वारा उनका सम्मानित होना भी इस बात का प्रमाण है कि प्रेमचन्द ने अकबर की कृषि नीति की जो तारीफ की है उसके ठोस आधार थे। घाघ ने एक जगह लिखा है कि “कीजै खेती ऊख कपास अर्थात गन्ने की खेती और कपास की खेती उस ज़माने में फायदे की खेती मानी जाती थी। प्रेमचंद ने जिन अकबर कालीन ब्रिटिश यात्रियों के संस्मरणों के आधार पर अकबर के समय में उन्नत वस्त्र उद्योग का वर्णन किया है उसकी सत्यता भी घाघ की इस कविता से प्रमाणित होती है। घाघ और अकबर से पहले कबीर को यह पता था कि, "बाबू ऐसा है संसार तिहारो, इहैं कलि ब्यौहारो/को अब अनरव सहत प्रतिदिन को, नाहिन रहनि हमारो" ये ऐसे किसानों के दुःख हैं जिन्हें शासन ने विद्रोही मान कर इनके गाँव को ही मवास के रूप में चिन्हित किया था। फिर यहां यह कहने की ज़रूरत है कि प्रेमचन्द ने अगर यह लिखा है कि अकबर के पहले किसानों के हालात अच्छे नहीं थे तो कोई गलत नहीं लिखा था। कबीर उसी दौर के किसानों की बात कर रहे थे। कबीर जिस पेशे से थे वह पेशा किसानों के बगैर सम्भव ही नहीं था। कपास अगर खेत से बाजार होते हुए करघे तक पहुंचता है तभी कबीर का तनना बुनना संभव होता है। तुलसी के समय में कपास का महत्व क्या था इसका पता रामचरितमानस के बालकाण्ड के एक प्रसंग से चलता है। उन्होंने निर्गुण संत कवियों की तुलना कपास से की है। संत का स्वभाव कपास की तरह होना संत के महत्व के साथ साथ कपास के महत्त्व को भी रेखांकित करता है।     

आप याद करें कि ब्रह्मा के बाद अपने को सबसे महत्वपूर्ण पेशे से जुडी हुई जाति अगर बुनकर समुदाय मानता था तो उसका कारण यही था कि कपडे के बगैर मनुष्य और पशु में कोई फर्क नहीं है। यह कपड़ा बनाने वाली जाती अगर एक प्रक्रिया के तहत अपवित्र सिद्ध कर दी गई तो उसके समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र पर ध्यान दिया जाना चाहिए। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर काम करते हुए वर्णाश्रम और साम्प्रदायिकता के मुहावरों में भारत की लम्बी पराधीनता की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर विचार किया है। बहरहाल, कपास के पेशे से जुड़े हुए कबीर (बुनकर), दादू (धुनिया) और नामदेव (दरजी) जैसे संत कवियों के जरिये तुलसीदास ने एक ऐसे प्रतीक की रचना की है जिसका सम्बन्ध कविता और कपास के आंतरिक संबंधों का खुबसूरत उदाहरण है। हमने जब तक कपास की इज्जत की तब तक हम पूरी दुनिया को कपड़ा पहनाते रहे। जब हमने इसकी इज्जत करनी बंद कर दी तब भारतेंदु के शब्दों में, “कहाँ तो वह समय था कि हम पूरी दुनिया को कपड़ा पहनाते थे और कहाँ अब कि हमारा। अंग्रेजों ने हमारा कपास लूटकर अपना मैनचेस्टर बाद में बनाया यह काम हम उसके बहुत पहले कपास पैदा करने वालों से लेकर उससे कपड़ा बुनने वालों को अपमानित कर शुरू कर चुके थे। गाँधी ने अपने देश की इस भूल गलती को जब स्वाधीनता आन्दोलन का एक अनिवार्य अभियान बनाया तब उनके दिमाग में यही बात थी कि स्वाधीनता और आत्मनिर्भरता का रास्ता कपास के खेतों से होकर करघे से गुजरता है। कपास के किसान आज बहुत कष्ट में हैं। कपास और गन्ने की खेती घाघ के जमाने में फायदे की रही होगी, आज यह बहुत कठिन और घाटे की खेती है। खेती का काम कितना मुश्किल है इसे हम जैसे किसान के बेटे समझ सकते हैं। खेत कम हो गए हैं। गाँव में भी संयुक्त परिवार बहुत तेजी से बिखर रहे हैं। औसत से ऊपर किसान परिवारों में बंटवारे के बाद तीन चार बीघा से ज्यादा जमीन नहीं मिलती। इतनी जमीन के लिए ट्रेक्टर तो दूर आप बैल भी नहीं रख सकते। उस स्थिति में खेत को बन्दोवस्त करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। बन्दोवस्ती के पैसे से एक एकल परिवार का साल भर गुजारा गाँव में भी मुमकिन नहीं है। जिनके पास पूंजी है वे नकदी बन्दोवस्ती पर कई लोगों की जमीन लेकर अपना काम चला ले रहे हैं लेकिन जिनके पास पूंजी और स्वास्थ्य का अभाव है उनके दुःख राजा जनक से अलग हैं जिन्हें किसी नए वाल्मीकि या प्रेमचंद का इंतजार है। 

सन्दर्भ –

  1. प्रेमचंद रचनावली
  2. सूर संचयिता -संपादक, मेनेजर पाण्डेय
  3. रामचरित मानस -तुलसीदास
  4. महाकवि घाघ और भड्डरी की कहावतें


प्रो. गजेन्द्र पाठक, प्रोफ़ेसर,हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद (तेलंगाना)

           अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)अंक-35-36, जनवरी-जून 2021 चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल'  ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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