शोध : ‘गवरी’ में ऐतिहासिक खेल ‘राणा पूंजा भील’ : कलात्मक दृश्य बिम्ब / डॉ. संदीप कुमार मेघवाल

         गवरी में ऐतिहासिक खेल राणा पूंजा भील’ : कलात्मक दृश्य बिम्ब / डॉ. संदीप कुमार मेघवाल


शोध-सार -


    लोक नाट्य में लोक नायकों पर केन्द्रित कथानकों का मंचन प्रमुखता से होता आया हैं। हर क्षेत्र विशेष में कोई न कोई बड़ा लोक नायक जरुर होता हैं। मेवाड़ के जनजाति लोगों के सन्दर्भ में बात करें तो राणा पूंजा भील का नाम सर्वोपरी हैं। यह महाराणा प्रताप के भील सेना नायक थे। हल्दी घाटी युद्ध में इन्होने अपने अद्भुत युद्ध कौशल का परिचय दिया था। राणा पूंजा भील को साधारण बोलचाल की भाषा में भीलू राणा कहा जाता हैं। लोक सांस्कृतिक बिम्ब के माध्यम से लोक नायकों का योगदान सदैव याद किया जाता रहा हैं। जैसे गीत-संगीत, चित्र, काव्य, कविता, नाटक इत्यादि। लोक नाटक माध्यम समाज को दशा व दिशा देने के सहज माध्यम रहे हैं। मेवाड़ क्षेत्र में भी ‘गवरी’ नामक आदि लोक नाट्य प्रचलित हैं, जिसमे भीलू राणा खेल की लघु नाटिका का मंचन किया जाता हैं। इसमें मेवाड़ी लोगों की वीरता, साहस, पराक्रम, आत्मसम्मान, युद्धकौशल का प्रसार जनसामान्य में किया जाता हैं। ताकि आने वाली पीढियाँ इन योद्धाओं के राष्ट्र के लिए संघर्ष को सदैव याद कर सके एवं अपने निजी जीवन में अपनाने का प्रण लेवें।


बीज-शब्द : राणा पूंजा भील, गवरी, गौरी, शिव शंकर, महाराणा प्रताप, भील, कला संस्कृति, मेवाड़, जनजाति, आदि नाट्य, लोक नाट्य, गीत संगीत।

मूल आलेख -


चित्र-1 गवरी नाट्य अभिनय में भीलू राणा पूंजा सेना और मुगल सेना के बीच युद्ध के दृश्य

    भारत में नाट्य लेखन-मंचन की शास्त्रीय परम्परा रही हैं। आचार्य भरतमुनि का नाट्यशास्त्र सबसे अच्छा उदाहरण हैं। मेवाड़ क्षेत्र भी इन शास्त्रीय परम्पराओं से अछुता नहीं हैं। यहां अरावली पर्वतमाला में बसे जनजाति समुदाय के लोग अद्भुत कला एवं संस्कृति को संजोए हुए हैं। शास्त्रीय नाट्य परम्पराओं में यहां के भील जनजाति ‘गवरी’ नाट्य का मंचन करते हैं। गवरी एक पवित्र संस्कार पूर्ण नाटिकोत्सव है जिसका केंद्र शंकर व पार्वती की कहानी हैं जो बुड़ियाराई के नाम से जाने जाते हैं। नाटिका के मुख्य व गोण अभिनेता होते हैं। मुख्य पात्र बूड़िया, राई, भोपा, पुजारी व बुड़िया नाटक का नायक होता हैं, और शंकर माना जाता हैं। वह अपने मुंह पर मिट्टी का बना हुआ मुखौटा पहनता हैं, जो डरावना सा लगता हैं। राई इस नाटिका की नायिका होती हैं जिसका स्थानीय नाम गवरी गौरी या पार्वती हैं। नाटिका गौरी को प्रसन्न रखने के लिए खेली जाती हैं, ऐसा विश्वास है कि गौरी स्वयं भीलों मे प्रवेश कर उत्सव निहारती हैं। भोपा जादुई क्रीआओं द्वारा विभिन्न देवियों को जागृत करते हैं तथा पुजारी देवस्थान को साफ करने का काम करते हैं।’’(1) गवरी आदिम लोक नाट्य की परम्परा रही हैं। यह मेवाड़ क्षेत्र के भील जनजाति पुरुषों द्वारा खेला जाता हैं। यह आस-पास के गाँव देहात में अपने परिवार की ब्याही बहन बेटियों के यहाँ जाकर खेलते हैं। हालाकि वैश्वीकरण के दौर में यह प्रतिमान अब टूटने लगे हैं, गवरी ने व्यवसायिक रूप लिया हैं। मेवाड़ क्षेत्र से बाहर भी मंचन होने लगा हैं। “इस सांस्कृतिक कार्य में स्त्रियों को कभी भाग नहीं लेने दिया जाता है। यह विश्वास किया जाता है कि ऐसा करने से कृषि की फसल अच्छी होती है तथा उनकी आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक स्थिति पर ख़राब असर नहीं पड़ता है। पुरुष स्त्री का अभिनय निश्चित निषेधों के निर्देशन के आधार पर करता है। भाद्रपद में उत्सव प्रारम्भ होने के 3 दिन पूर्व से पुरुषों को स्त्री गमन, मांस खाना, शराब पीना, हरी सब्जी खाना मना होता हैं।’’(2) स्त्रियाँ गवरी मंचन नहीं करती लेकिन सबसे ज्यादा दर्शकों की संख्या व आस्था इन्ही की होती हैं। गवरी को उत्सव की तरह लिया जाता हैं। शुभ कार्य सिद्धि के लिए गवरी मंचन की बोलामा (किसी कार्य की सिद्दी पर गवरी मंचन कराने प्रण लेना) ली जाती हैं। स्त्रियाँ संतान प्राप्ति के लिए आराधना करती हैं। गवरी के भोपा नारियल देकर शुभ आशीर्वाद देते हैं। संतान प्राप्ति पर अगले वर्ष गवरी मंचन कराया जाता हैं। 


“राजस्थानी भीली क्षेत्र का गौरी नाट्य, महाकौशल का आदिम नाट्य नाच एवं गरासियों की गौर सभी बाह्य प्रभावों से अपने को अछुता रखकर आदिम संस्कृति का पुरातन सूत्र आज भी मजबूती से पकड़े हुए हैं। उन पर किसी प्रकार का बाह्य प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। महाराष्ट्र का तमाशा, दशावतार एवं गोंधल लोकनाट्य दक्षिण एवं उत्तर भारत की सांस्कृतिक कड़ी के रूप में विद्यमान हैं। उनमे हिन्दू मुस्लिम संस्कृति का मिश्रण बहुत ही सुन्दर ढंग से हुआ हैं। पुरुष पात्रों के मुगलिया भग्गे एवं उनकी पगड़ियाँ विजातीय प्रभाव से ओतप्रोत हैं तो स्त्रियों की नौ हाथ लम्बी धोती महाराष्ट्र की अपनी विशेषता प्रकट करती हैं। वे भाषा के प्रयोग में भी अपनी विशेषता कायम रखते हुए फारसी शब्दों का बड़े सुन्दर ढंग से प्रयोग करते हैं। गीतों में उनका पवाड़ा एवं लावणी राजस्थानी पवाड़ो एवं लावनियो से बिलकुल भिन्न हैं। अपने संगत-वाद्यों के संबंध में भी वे तुनतुना, ढपली, अपंग एवं चंग जैसे स्थानीय साजों को प्रधानता देते हैं।’’(3) गवरी प्रतिवर्ष राखी त्यौंहार के बाद ठंडी राखी से प्रारम्भ होता है। गवरी शिव पार्वती की आराधना में पूरे दिन खेला जाता हैं। इस नाट्य में मेवाड़ के इतिहास में महाराणा प्रताप काल से सम्बंधित प्रसिद्ध वीर योद्धा राणा पूंजा भील पर आधारित ‘भीलू राणा’ खेल भी खेला जाता हैं। यह वृतांत मेवाड़ की आण बान शान का प्रतीक हैं।


चित्र-2 नृत्य के साथ तलवारबाजी का प्रदर्शन करते हुए कलाकार| 


मेवाड़ राज्य को मुगल शासक अकबर अपने अधीन करना चाहता था। इसलिए महाराणा प्रताप और मुगल के बीच लम्बे समय तक सिहासी संघर्ष चले। लेकिन महाराणा प्रताप ने कभी मुगल अधीनता स्वीकार नहीं की। जून 1576 को हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप और अकबर की मुगल सेना से मानसिंह के बीच युद्ध लड़ा गया। इसमें मुगल अपने उद्देश्य में कामयाब नहीं हो पाए। महाराणा प्रताप के पास हिन्दू राजा एवं स्थानीय आदिवासी भील समाज के लोगों का भरपूर सहयोग था। भीलों के सेनापति राणा पूंजा भील थे। यह भोमट क्षेत्र के राजा थे इन्होने महाराणा प्रताप के साथ मातृभूमि की रक्षा के लिए सहयोग किया। भीलु राणा पूंजा के नेतृत्व में हल्दीघाटी युद्ध में अपार पराक्रम एवं साहस का परिचय दिया। इसी ऐतिहासिक वृतांत की याद में गवरी नाट्य में भील जनजाति के लोग अपने नायक ‘भीलू राणा का खेल’ नाम से गवरी का मंचन करते हैं।


इतिहास में गवरी का उदभव “1600 ई. के आसपास कहा गया है परन्तु इस घटना के प्रमाणित स्रोत नहीं मिलते हैं। कुछ लोग वल्लभनगर को गवरी का उद्गम स्थल मानते है। यह स्थान उदयपुर से 40 किलोमीटर पूर्व में है।”(4) इन संदर्भो से ज्ञात होता है कि गवरी नाट्य महाराणा प्रताप काल खण्ड के समकालीन हैं। इसलिए भीलू राणा खेल को इस गवरी में नाटिका के रूप में शामिल किया हैं। लोक नाट्य सामाजिक जाग्रति प्रसार के सहज माध्यम रहे हैं। गवरी माध्यम से राणा पूंजा भील की वीरता पराक्रम साहस जनमानस में प्रसारित करते हैं। यह मेवाड़ के लिए गौरव का विषय है कि राणा पूंजा भील एवं महाराणा प्रताप के अद्भुत साहस पराक्रम की गौरव गाथा इस गवरी के माध्यम से जनसामान्य में पहुचाई जा रही हैं। गवरी में देवी प्रतिक की स्थापना कर वृताकार नाट्य अभिनय चलता हैं। भीलू राणा खेल में मुगल सेनिकों का समूह का रंगमंच पर प्रवेश होता हैं। मानों किसी फ़िल्मी कलाकारों की स्पेशल एंट्री हो। मादल, थाली वाद्ययंत्र पांव पर बंधे गुन्गरू दृश्य बड़े रौचक होते हैं। तभी विदूषक यानि प्रस्तुतकर्ता से संवाद होता हैं। गवरी में संवाद गीत-संगीत बोल से होता हैं। अंतराल के बाद नाचते हैं। मुगल को स्थानीय भाषा ज्ञानबोध के अभाव का जमकर फायदा उठाया जाता हैं। मुगलों से संवाद में हास्यरस का प्रयोग होता हैं। यह दर्शकों को विषय में बांधने एवं नाट्य कौशल के उदहारण हैं।

चित्र-3 मुग़ल सेनिक को हंटर मारते हुए राणा 


    पहनाव में मुगल ने लंबा काला धारीदार कुर्ता, टोपी, चस्मा, आधुनिक हथियार बंदूक से लबरेज है। भील पारम्परिक वेशभूषा में होते है। प्राकृतिक नीम की पत्तियों का अलंकार, धोती कुर्ता, मेवाड़ी पाग, लुगडे को बंधी हुई छाती इत्यादि। रंगमंच पर चित्तौडगढ़ किले का सुंदर प्रतिक स्थापित किया जाता हैं। देवी कालका रूपधर कलाकर की उपस्थिति पुरे नाट्य में विद्यमान रहती हैं। यह आध्यत्मिक दर्शन कलाकार को अभिनय की ताकत देता हैं। (चित्र संख्या-1, 2) प्राथमिक भूमिका में नाट्य वृतांत महाराणा उदयसिंह और अकबर के समय से प्रारम्भ होता हैं। मुगल सेनिक चित्तौड़गढ़ का किला तोड़ने आते हैं। तर्क देते कि चित्तौडगढ़ किले की परछाई दिल्ली पर पड़ती हैं, जिससे हमारी आधी दिल्ली काली पड़ गई हैं। नाट्य अभिनय में हास्य, अतिश्योक्तिपूर्ण संवाद दर्शकों को बांधने की ताकत देते हैं। ऐसे संवाद विषय महत्व को स्थापित करते हैं कि मुगल के लिए चित्तौड़गढ़ कितना महत्वपूर्ण हैं। गवरी में चित्तौड़ की सुन्दरता एवं भव्यता का बखान किया हैं। विदूषक कहता हैं कि इस किले में 9 लाख देवी देवता, 52 भेरू, 64 जोग जोगनिया, माँ कालका माता, कांगरे कांगरे देवी देवता का निवास है। तुम इस किले को नहीं तोड़ पाओगे लौट जाओ। “लोक नाटको मे विदूषक की परंपरा बड़ी महत्वपूर्ण है। वह विविध लोकनाट्यों में नाना प्रकार से प्रकट होता है। वह नाट्य रचयिता के मन की बात व्यंग्य रुप में प्रस्तुत करके नाट्य की सार्थकता स्थापित करता है।’’(5) नाट्य में मुग़ल सेनिक आगे बढ़कर चित्तोड़ किले में स्थित मंदिरों में पूजा की सामग्री के लिए नियुक्त महिला को बहन बनाकर भेद जानते हैं। किले में स्थित पवित्र कुंड को अपवित्र करने की योजना अनुसार मुगल कामयाब होते हैं।


नाट्य की इसी कड़ी में महाराणा प्रताप कालीन हल्दीघाटी युद्ध वृतांत प्रारम्भ होता हैं। नायक भीलू राणा पूंजा और मुग़ल सेना का गीत से संवाद से होता हैं। दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध होता हैं। तनी हुई धनुषबाण, तलवार, भाला, छुरी, हंटरो की बोछार मानों अभी मार देंगे सबकुछ इतना जीवंत अभिनय है। (चित्र संख्या-1, 2, 3) इस समय सभी भोपे-भोपियों के शरीर में भाव आ जाते हैं। अभिनय एवं आध्यात्म का समन्वित माहौल सच में अद्भुत होता हैं। कलाकार, भोपे-भोपी एवं दर्शक भी रंगमच पर वीर रस में भावविभोर होते हैं। देवी-देवता, भीलू राणा, महाराणा प्रताप के जयकारें, गीत-संगीत लगातार गूंजते हैं। मूल नाटक की पृष्ठभूमि में एक साथ कई दृश्य चल रहे होते हैं। दर्शक कहीं से भी बोर नहीं होते हैं। नाट्य कौशल वीररस प्रधान आक्रामक रूप में होता हैं। मानो हम साक्षात युद्ध दृश्य को देख रहे हैं। कलाकार पूरी तरह से किरदार में गुस जाता हैं। अध्यात्मिक दर्शन की धुरी इस नाटक में किरदार को जीवंत करती हैं। शरीर में देवी-देवताओं के भाव आने के बावजूद अभिनय अनवरत चलता हैं। वाकई इनके आक्रामक रूप असाधारण एवं डरावने होते हैं। हथियारों से लबरेज किरदार से लगता है, कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। हथियार चलाने का अद्भुत कौशल का प्रदर्शन होता हैं। (चित्र संख्या-2) नाटक की चरम अवस्था में भीलू राणा एवं मुगल सेना से हथियार छीन लेते हैं। बाद में वह हाथों से ही आपस में लड़ पड़ते हैं। मिट्टी में लोटपोट हो जाते है। इस समय यह किरदार को पूरी तरह भूल चुके होते हैं। दर्शकों की आंखे फटी मुट्ठी तनी हुई होती हैं। महसूस करते हैं कि हम हल्दीघाटी में ही जीवंत नाटक देख रहे हैं। सभी मातृभूमि की रक्षा के लिए तनमन से शामिल है। भोपा लोग अपनी पीठ पर सांखले बरसाते हैं। संख्या ज्यादा होने से सांखल मारने के भी नंबर लगते हैं। इतना जीवंत नाट्य कौशल किसी अकादमिक कलाकार में भी कठिन परिश्रम के बाद आता हैं। इसके लिए बड़ी रंगमंच की संस्थाओं में पढ़ाई करनी पड़ती हैं। जबकि यहां यह भील आदिवासी बिना किसी ट्रेनिग के अच्छे नाट्य कलाकार हैं।



    “राजस्थानी लोकजीवन को गवरी नाट्य की जो देन रही है
, वह कई दृष्टियों से बड़े महत्व की है। इसने जहां एक ओर सामुदायिक जीवन को सुसंगठित, सुदृढ़ तथा सुव्यवस्थित किया है वहां आपसी हेलमेल, रागरंग तथा मानवीय जीवन के लोकानुरंजन को एक समानधर्मी मंच पर प्रस्तुत कर, वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श को मूर्तरूप दिया है। आनंद और उल्लास के अवसरों पर सार्व-वर्णिक एवं सार्व-धार्मिक रूप में एकत्र हो, स्वछन्दतापुर्वक अनुरंजन प्राप्त करने से आत्मा का विकास होता है। मन की ग्रन्थियां खुलती हैं। कुंठाए हल्की होती हैं तथा वैयक्तिक जीवन की सारी प्रवृत्तियाँ समष्टि हित की ओर उन्मुख होती हैं। इससे आस पास का जीवन भी उल्लास, आनंद एवं स्फूर्तिमय बन पाता है। एक दुसरे के हेलमेल से संस्कृतियों का आदान- प्रदान होता है साथ ही सहानुभूति, सद्भावना तथा सहकर जैसे गुणों का विकास होता हैं। गवरी नाट्य में इन तत्वों का पूर्णत दिग्दर्शन मिलता है। इसने जहाँ लोकजीवन को अपने धर्म-कर्म के प्रति आस्थावान बनाया है, वहीँ उसकी परम्परा और रूढ़ियों को भी पोषित किया है। अतः यह कहा जा सकता है कि संस्कृति के संगीत, नृत्य, कला आदि प्रत्येक क्षेत्र में, राजस्थानी लोकजीवन को गवरी नाट्य की अक्षुण देन रही हैं।’’(6)


निष्कर्ष -


यह कह सकते है कि गवरी ऐतिहासिक सन्दर्भों को आधार बनाकर एक शानदार नाट्य मंचन हैं। यह आधुनिक रंगमंच के अकादमिक कलाकारों की तुलना से भी बहु कौशल सम्पन्न नाट्य कलाकार माने जा सकते हैं। यह नाट्य कौशल के उच्च मानकों पर खरा उतरता हैं। महाराणा प्रताप एवं सहयोगी राणा पूंजा भील के संघर्ष को आमजन तक पहुचानें का सहज माध्यम हैं। यह ठेठ गाँव देहात एवं स्थानीय भाषा का नाटक हैं। इसकी सरल विषयवस्तु को बहुत आसानी से समझा जा सकता हैं। इससे आमजन में देशभक्ति की भावना जाग्रत होती हैं। ताकि आने वाली पीढयों के बीच देश भक्ति व समर्पण का भाव विकसित हो सके। आत्म सम्मान एवं नेकी पर चलने का रास्ता चुन सके। कुटिलता से किए कार्य के परिणाम बहुत बुरे होते हैं। एसी अनेकों प्रेरणा इस गवरी नाटक से हमें मिलती हैं।                        

सन्दर्भ-

  1. नरेंद्र व्यास : ‘आदिवासी राजस्थान’, आदिम जाति शोध संस्थान प्रकाशन उदयपुर, 1979,
  2. बृजराज चौहान, दौलतसिंह चेलावत : ‘भील गवरी’, भील सांस्कृतिक परिपेक्ष्य में, (सं नरेंद्र व्यास), माणिक्य लाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान उदयपुर, 1979, पृ. 62
  3. देवीलाल सामर : ‘भारतीय लोक नाट्य वस्तु और शिल्प, भारतीय लोक कला मंडल, उदयपुर, 1976, पृ. 2
  4. महेंद्र भानावत : ‘आदिवासी लोक’, सुभद्रा पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर दिल्ली, 2015, पृ. 124
  5. देवीलाल सामर : ‘भारतीय लोक नाट्य वस्तु और शिल्प, भारतीय लोक कला मंडल, उदयपुर, 1976, पृ. 32
  6. महेंद्र भानावत : ‘आदिवासी लोक’, सुभद्रा पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर दिल्ली, 2015, पृ. 132

 ( नोट :- शोध लेख गवरी नाट्य को देखकर प्राथमिक सन्दर्भ द्वारा कलाकारों से साक्षात्कार विधि, फोटो, वीडियो को आधार बनाकर लिखा हैं, यह अप्रकाशित सामग्री लेखक के पास सुरक्षित हैं। )

    

डॉ. संदीप कुमार मेघवाल

गातोड(जयसमंद), तहसीलसराडा, जिला- उदयपुर 

sandeepart01@gmail.com, 9024443502

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)

अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue 

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 


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