बतकही : दलित साहित्यकार प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन से माणिक की बातचीत

बतकही : दलित आत्मकथाओं के साथ इतिहास भी लाना होगा” -श्यौराज सिंह बेचैन

( दलित साहित्यकार प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन से माणिक की बातचीत )


महानगर और देहात में से किसी एक को चुनना पड़े तो किसे चुनेंगे और  क्यों?

महानगर और देहात में से किसी एक को चुनना हो तो मैं महानगर को चुनूँगा इसलिए कि   देहात में दलित जीविका, सम्मान और विश्वास के रास्ते बंद हैं। देहात खुली जेल है। खासकर   मेरे जैसों के लिए जिनके पास गाँव में भूमि-भवन, शिक्षा और स्वास्थ्य कुछ भी नहीं है। ऊपर   से घृणा और जातिभेद की मार है।

दलित आत्मकथाओं में जातिगत नाम वाले शब्दों को गालियों के रूप में इस्तेमाल किया गया है, इस पर आपकी प्रतिकिया?

आत्मकथाकार का उद्देश्य गालियाँ देना नहीं है। हाँ, जिस परिवेश से लेखक आता है यदि बचपन से उसके चेतन-अवचेतन में उसे गालियाँ मिली हैं तो उसका लेखन जल के प्रतिबिम्ब या प्रतिध्वनि की भाँति है। उन्हीं शब्दों में अभिव्यक्ति लौटने लगती है। यदि उसे घृणा और गालियाँ न मिली होती तो वह उनका सृजन तो नहीं करता है।


दलितों में पर्यावरणीय चेतना अपेक्षाकृत ज्यादा अनुभव हुई क्या वजहें रही होंगी? आपकी आत्मकथा वाला नीम के पेड़ का विवरण याद आ रहा है।

पर्यावरण, वनस्पति, पशुधन, वृक्ष, सूअर, कुत्ते, भैंसें, गाय इत्यादि दलित जीवन के हिस्से हैं। वह अपने परिवेश से ही बना है। यह स्वाभाविक है कि इन सब के प्रति इनका जुड़ाव, लगाव व प्रेम होगा। मेरा भी जहाँ तक बे फले नीम, बबूल आदि पेड़ों की वजह यह हैं कि दलितों के आम, अमरूद, सेब इत्यादि पेड़ों को तो अक्सर दबंग जातियों के लोग लूट ले जाते हैं। इसलिए वे अपने नीम-बबूल से ही संतोष कर पाते हैं।

किताबों की चोरी सुनने में अजीब लगती है। आपकी आत्मकथा का एक अंश है। आज क्या कहना है?

किताबों की चोरी, पढ़ने की अतिशय इच्छा और खरीदने के लिए पैसा नहीं। ऐसी स्थिति में मजबूरीवश ऐसा होता है। मेरे साथ ऐसा हुआ है। मैं अपना अनुभव आत्मकथा में विस्तार से लिख चुका हूँ। आप वहाँ से ले सकते हैं।

आपकी आत्मकथा में आपकी मातृभाषा में कई संवाद आए हैं। यह सप्रयास हुआ या अनायास। भाषा आपको अतीत की तरफ कैसे ले जाती है?

आत्मकथा में मातृभाषा के प्रति बल्कि स्थानीय सामुदायिक बोलियाँ आना आनायास भी हैं और स्मृतियों के बचे रहने के कारण संचित शब्द संपदा भी हैं।


क्या अब दलित जातिगत आधार पर नियत धंधे छोड़कर सामाजिक भेदभाव के दंश से मुक्ति पा रहे हैं? अगर हाँ तो कैसे?

चमारों के काम छूटे हैं। लैदर का धंधा मुसलमानों के ठेके में गया। स्वछ्कारों में जो बच्चे पढ़ गए या चमारों के बच्चे भी जो छोटी-मोटी नौकरी पा गए वे पुश्तैनी पेशों से बाहर निकले हैं। परन्तु अब जब से दलितों की आबादी वाली गाँव बस्तियों के सरकारी स्कूलों की हत्या करके गैर दलितों के स्वामित्व में निजी स्कूलों की दुकानें खुली हैं। दलितों के लिए बच्चे पढ़ाना मुश्किल हो रहा है। साथ ही प्राइवेट क्षेत्र में नौकरियाँ सवर्णों के लिए अघोषित रिजर्वेशन में चली गई हैं। अब पढ़ा-लिखा दलित भी बेरोजगार है। बुरी मार है।

सन् 2009 में आपकी आत्मकथा का पहला संस्करण आया। क्या इस आत्मकथा का अगला भाग लिखने का दबाव है? हाँ तो वह पहली से कैसे अलग होगी?

पहली से दूसरे भाग की आत्मकथा निरंतरता में यात्रा के अगले पड़ावों की बात है।

आत्मकथा लेखन की परम्परा पर आपके विचार क्या हैं?

जब तक कोई अपनी जड़ें नहीं देख लेता तब तक वह वृक्ष फलता-फूलता नहीं है, आगे नहीं बढ़ता है, उसे ताकत नहीं मिलती। हमें अपनी दलित आत्मकथाओं के साथ इतिहास भी लाना होगा, प्रामाणिक इतिहास लाना होगा। एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को दें और दूसरी पीढ़ी उसे और आगे हस्तांतरण करें। जैसे मैंने अपने समय का लिख दिया और आगे का इतिहास आगे के बच्चे लिखेंगे-जोड़ेंगे। हाँ, मैं मानता हूँ कि आत्मकथा में ईमानदारी बहुत जरूरी है। कुछ लोग बदले की भावना से लिख देते हैं। आत्मकथा बहुत जिम्मेदारी से लिखी जानी चाहिए। आत्मकथा को लिखते समय क्या लिखना है और उसमें क्या नहीं लिखना है यह भी सोच-समझकर ही लिखना जरूरी है। आत्मकथा में लिखने से ज्यादा नहीं यह लिखना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि हमें क्या लिखना है? और क्या नहीं लिखना है?, यह तय करना बहुत आवश्यक है। यह बहुत ही विवेक-संगत बात है। किसी चीज को निर्मम हो कर छोड़ देना भी गलत है। आत्मकथा हमेशा उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए। अगर साहित्यकार ने लिखी है तो साहित्य उसमें झलकना चाहिए जैसे राजनेता की आत्मकथा में राजनीति का पुट होता है। उसी प्रकार साहित्यकार की आत्मकथा में साहित्य का होना बहुत ही जरूरी है।

अच्छा एक और बात कि अभी जिस सिनेरियो में आप रह रहे हैं, दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं तो जो आज का शिक्षित समाज है, ऐसा कहते हैं कि जैसे-जैसे शिक्षा आती है वैसे वैसे हम एक बेहतर इंसान बनते हैं। पढ़ने-पढ़ाने वालों के बीच में आपको कैसा महसूस होता है? जो सामाजिक भेदभाव है क्या वो अभी भी किसी दूसरे रूप में कायम है?

नहीं, वह ऐसा नहीं होता है कि लोगों के दिलों से इतनी जल्दी चीजें निकल जाए। एक तरह से प्रैक्टिस हो जाती है किसी का अपमान करना, भेदभाव करना। यह सब एक तरह के संस्कार बन जाते हैं जो सहज ही निकल नहीं पाते। लेकिन ऐसा है कि कुछ कानून का, कुछ सभ्यता का, कुछ आधुनिकता का दबाव होता है, उस दबाव के तहत हर कोई यह दिखाना चाहता है कि मैं प्रोग्रेसिव हूँ, प्रगतिशील हूँ और वह भेदभाव करता नहीं है। मैं संवैधानिक मूल्यों को मानता हूँ, जहाँ समानता-स्वतंत्रता की बात है तो जैसे मैं ऐसे संस्थान में हूँ जहाँ प्रोटोकॉल मानना पड़ेगा। मैं प्रोफेसर हूँ तो अन्य को मेरा सम्मान करना पड़ेगा। एक प्रोफेसर का सम्मान हमारे कायदे-कानून के अनुसार करना पड़ता है। अपने सीनियर्स का सम्मान करना पड़ेगा या जो वाइस चांसलर है, मेरे डिपार्टमेंट हेड है तो उनका सम्मान मुझे करना पड़ेगा, उनका सम्मान मैं करता हूँ। इसका फायदा यह भी है कि मन में जो धारणाएँ बनी होती हैं नफरत करने के लिए वो धारणाएँ भी टूटती हैं। जब हम मिलते हैं तो ऐसा नहीं कर पाते, जो पूर्वाग्रह होता है। जैसे एक फ्रेम हमने अपने मन में बना रखी होती है; यह तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं। यहाँ शिक्षा से बहुत कुछ बदलता तो है लेकिन जो सीधे-सीधे हमले होते हैं वह तो शिक्षण संस्थाओं में संभव नहीं है। उसमें यह भी है कि कुछ लोग हमले करते भी हैं तो कुछ लोग बचाव में भी आते हैं। कुछ सुधरे हुए लोग भी होते हैं। यही फर्क है गैर शिक्षण संस्थाओं और शिक्षण संस्थानों में।

जो दलित युवा हैं उनकी दिशा क्या है?

दलित युवा के सामने समस्या यह है कि उसको लगता है कि कहीं से उसको कोई जीने का आधार मिल जाता है तो वह विचार से भी समझौता कर लेता है। उसका वह व्यवहार भी कुछ ऐसा करना चाहता है और उसके पास जाना चाहता है जिससे उसे कुछ मिल जाए लेकिन उसमें यह है कि उसे पाना तो उसका अधिकार है लेकिन उसके तरीके में एक ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है कि कई बार वह अपना व्यक्तित्व गवाँ देता है। अपना व्यक्तित्व बना रहे, अपनी सोच बनी रहे, उसके लिए बहुत जरूरी है कि जो अपना विचार, अपनी पृष्ठभूमि, हमारा संविधान है, मनुष्य का अधिकार है, जो हमारे मानवीय अधिकार हैं उनको थोड़ा-सा समझकर चलेगा तो उसका आत्मसम्मान बना रहेगा। उसमें आत्मसम्मान बना रहना बहुत जरूरी है। अगर युवा आत्मसम्मान खो देता है तो उसका व्यक्तित्व नहीं बन पाता, वह कोई आइडेंटिटी नहीं बना सकता। उसकी अभिव्यक्ति में दम नहीं आ सकता। यह एक संकट दिखाई पड़ता है।

दलित साहित्य में सभी विधाओं में लिखा जा रहा हैं फिर भी आपको क्या कमी अनुभव होती है?

ऐसा है देखिए, आज से 20-25 वर्ष पहले हम बार-बार कहते थे कि हमारे पास साहित्य का अभाव है। रचनाएँ नहीं हैं तो हम कैसे कहें कि आप इसे इसमें लगाइए, आप इसे उसमें लगाइए। कुछ नई रचनाएँ आई लेकिन उनमें काफी कुछ रचनाएँ कच्ची थीं। उनको पकाना जरूरी था। मैं यह सोचता हूँ कि दलित साहित्यकार बनने के लिए, अच्छा साहित्यकार बनने के लिए थोड़ा धैर्य रखना बहुत जरूरी है। फास्ट फूड की तरह आप जो रचनाएँ लाएँगे या विचार लाएँगे तो वह ठीक नहीं है। आप उसे थोड़ा पकाकर लाएँगे तो वह लंबा चलेगा। जितना जल्दी में आप लाएँगे, उतना ही जल्दी वह नष्ट हो जाएगा। तो इसलिए मैं यह कहना चाहता हूँ कि बड़ों का सम्मान नहीं करेंगे, परंपरा से सीखेंगे नहीं तो आप अपना सम्मान करने की स्थिति भी पैदा नहीं कर पाएँगे। तो जो सीनियर्स हैं उन्होंने क्या किया है, उन्होंने चाहे हमसे कम लिखा या उनको प्रसिद्धि कम मिली लेकिन वह हमारे बड़े थे। हमने उनसे कुछ ना कुछ सीखा। हमसे उन्होंने नहीं सीखा। वह हमको देकर गए। हमने उन्हें नहीं दिया इसीलिए चाहे किसी ने एक संस्मरण भी लिखा और मैंने 400 पेज की आत्मकथा लिखी तो भी उनका संस्मरण जो है वह मुझे ज्यादा महत्त्वपूर्ण लग रहा है, क्योंकि वह जड़(मूल) थी। उसका मैंने आगे विस्तार कर लिया, लेकिन अब कुछ लोग ऐसे पैदा हो गए हैं जो गलत प्रवृत्ति वाले हैं। वह सोचते हैं कि हम फटाफट ख्याति प्राप्त कर लें। उस पर पर्दा डाल दें जो कंटिन्यूटी है, जो इतिहास है। यह गलत बात है। उस इतिहास का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना है, उनका संदर्भ देते हुए आगे बढ़ना है। कई बार एक-दूसरे की रचनाओं की बातें करेंगे किसी दूसरे की रचनाओं की बात करेंगे कि इस विधा पर, इन रचनाओं पर इससे पहले किसी ने काम नहीं किया। मैंने काम किया। यह बहुत गलत बात है। तो मैं बार-बार यह कोशिश करता हूँ कि इतिहास की तरफ जाऊँ। हमसे पहले लेखक कौन है?, लिखा क्या है?, उनकी क्या कठिनाइयाँ थी?, क्या योगदान थे?, जहाँ तक खोज सकता हूँ, खोजने का प्रयास करता हूँ। देखिए, मैं एडवांस स्टडी में दलित साहित्य का इतिहास लिख रहा था। 3 वर्ष तक मैं पत्रकार था तो मैंने देशभर से पत्रकारों को खोज-खोजकर जानकारी जुटाई। उस इतिहास में डॉक्टर अम्बेडकर का प्रभाव शामिल किया। मुझे उससे कोई मतलब नहीं कि वह मुझे अच्छा लगता है या बुरा लगता है लेकिन उसने क्या लिखा यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। उसका सम्मान करता हूँ। व्यक्तिगत रूप से किसी से राग-द्वेष हो सकता है लेकिन किसी ने भी समाज के लिए कंट्रीब्यूशन किया है उसको नोटिस में लेना बहुत जरूरी है। क्योंकि वही रहेगा, मनुष्य चले जाने हैं। आप भी चले जाएँगे, हम भी चले जाएँगे।

मुझे लगता है कि आत्मकथा विधा जो है वह साहित्य से ज्यादा इतिहास है। पाठकों को आप क्या कहना चाहेंगे कि दलित आत्मकथाएँ क्यों पढ़ें?

पढ़ना तो इसलिए चाहिए कि कोई भी साहित्य जिस वर्ग से, जिस समुदाय से आ रहा है वह उसके जीवन अनुभव को लेकर आ रहा है। दलित समाज भारत का एक बहुत बड़ा हिस्सा है और उसके जीवन अनुभवों को आप समझेंगे नहीं तो आप अपने विचार बदल नहीं पाएँगे। न उससे प्रेरणा ले पाएँगे और दूसरी विधाओं में वह अनुभव ठीक से आ नहीं पा रहा है क्योंकि कविता में देखिए, वह अपनी शर्तों पर आती है तो आप उसमें तुक मिलाने की कोशिश करेंगे। लेकिन गद्य में जो आत्मकथा आती है, टोन में जो चीजें लिखी जाती हैं वह बातें ठीक से समझ में आ जाती हैं। आत्मकथा इसलिए नहीं पढ़नी है कि हम आत्मकथाकार पर कोई उपकार कर रहे हैं। हम इतिहास ही अगर माने तो नया इतिहास बनाने के लिए पुराना इतिहास जानना बहुत जरूरी होता है। अगर आप इतिहास रचेंगे, इतिहास क्रिएट करेंगे तो इतिहास क्या था? वह आपको लाना पड़ेगा, पढ़ना पड़ेगा। इस तरह आगे का इतिहास लिखने के लिए पुराने इतिहास को जाना पड़ेगा।

ऐसी कोई बात जो हम आपसे पूछना भूल गए हों और आप कहना चाहें?

मैं यह कहना चाहता हूँ कि जो आप इतिहास की बात कह रहे थे और वह इसलिए बहुत महत्त्वपूर्ण है कि लोग यह कहते हैं भाई आप अगर साहित्य में आ गए हैं तो साहित्यकार तब हो सकते हैं जब आपके पास 100 या 200 वर्ष का बैकग्राउंड हो। आप की पृष्ठभूमि हो। नहीं तो आप साहित्यकार कैसे हो सकते हैं? दलित लेखकों को अभी मौका मिला है तो इस दृष्टि से तो वह साहित्यकार ही नहीं है लेकिन हम उन्हें पूरी तरह नकार नहीं सकते। इतना हम मान सकते हैं कि हमें अपनी पृष्ठभूमि को लेकर आना चाहिए। दूसरा यह जो लोग कहते हैं कि गैर दलितों के पास हजारों वर्ष का ज्ञान है और हजारों वर्ष का ज्ञान होने के कारण वह साहित्य में है और वह शिक्षा में है तो मैं यह बात कहता हूँ कि ठीक है आपके पास हजार वर्ष का ज्ञान हैं। लेकिन आप देखिए किसी जनरल का, किसी ब्राह्मण का, किसी क्षत्रिय का बेटा उतने ही मार्क्स से पास होता है जितने से दलित का बच्चा होता है, तो दलित का बच्चा है वह 50 वर्ष की परंपरा में आपके बराबर आ रहा है। आप हजार वर्ष की परंपरा में उसके बराबर अंक लाए हैं तो इसका मतलब यह है आप तीव्र बुद्धि नहीं हैं। कोई दलित का बच्चा 5 वर्ष से 10 वर्ष में रिकवर करता है, आजादी के 50 वर्ष बाद रिकवर कर रहा है तो 400 वर्ष वाले का मुकाबला वह कर रहा है। इससे साबित होता है कि यह तीव्र बुद्धि है और इनकी तीव्र बुद्धि का इस्तेमाल देश की ज्ञान व्यवस्था में, नॉलेज सिस्टम को विकसित करने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यह मुझे एक महत्त्वपूर्ण बात लगती है।

गौतम बुद्ध, महात्मा फुले और डॉ. अम्बेडकर के बाद जिनसे प्रभावित हुआ जा सकता है। ऐसा कोई व्यक्तित्व नजर आता है?

अंबेडकर के बाद राजनीतिक दृष्टि से हम कह सकते हैं कि कांशीराम ने वो काम किया है लेकिन साहित्य को वह भी उतना प्रोत्साहित नहीं कर पाए। सामाजिक साहित्य लेखन और मीडिया दोनों को उतना प्रभावित नहीं कर पाए। बाबा साहब ने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, जनता-समता जैसे अखबार निकाले और कांशीराम भी यह शुरू करना चाह रहे थे, लेकिन वह नहीं चला पाए। हमारे विचारक या नेता अपनी पत्र-पत्रिकाएँ, अपना मीडिया खड़ा नहीं करते तो वह अपने विचारों को विस्तृत नहीं कर पाते। उनके विचार सुरक्षित नहीं रह पाते। तो वह काम हमारे देश में उस मुकाबले पर तो नहीं हो रहा और जो थोड़ा बहुत हो भी रहा है तो वह बहुत सीमित उद्देश्य के लिए हो रहा है। स्थिति और आवश्यकता यह है कि हमारा एक से दो बड़े राष्ट्रीय दैनिक पत्र होना चाहिए। हमारी जो साहित्यिक पत्रिकाएँ निकल रही हैं उनमें भी यह है कि रचाव की अभी बहुत जरूरत है। बहुत-सी पत्रिका निकालने के बजाय आप एक या दो पत्रिका निकालिए लेकिन उनमें क्वालिटी विकसित करनी चाहिए। फिर भी काम तो बहुत हो रहा है लेकिन मैं किसी एक व्यक्ति को चिह्नित कर दूँ कि यह बाबासाहेब के बाद उनका उत्तराधिकारी है तो वह मुझे नहीं लग रहा। मेरी जानकारी सीमित हो सकती है। कोई कहीं कर रहा हो तो सोचा जाए लेकिन अभी तक ऐसा नेता सामने नहीं आया। नेता बहुत सारे उभर रहे हैं लेकिन उनके काम की जो शैली है वह राजनीतिक है। सामाजिक चेतना को लेकर चलने वाले, बौद्धिक चेतना को लेकर चलने वाले, साहित्य को लेकर चलने वाले, एक बड़ी दृष्टि को लेकर चलने वाले नेताओं का अभाव है। यह दु:खद बात है।                                      

बहुत-बहुत शुक्रिया बेचैन जी। 



















श्यौराज सिंह बेचैन, प्रसिद्ध दलित रचनाकार एवं आलोचक
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
संपर्क-sheorajsinghbechain@gmail.com

डॉ. माणिक, संस्कृतिकर्मी,कंचन-मोहन हाऊस,1, उदय विहार, महेशपुरम रोड़,चित्तौड़गढ़-312001,राजस्थान

सम्पर्क : 9460711896, manik@spicmacay.com

           अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)

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