शोध : सुरमई हरीतिमा / डॉ. अनुपमा श्रीवास्तव

सुरमई हरीतिमा / डॉ. अनुपमा श्रीवास्तव

 

 


शोध-सार  

    मनुष्य और पर्यावरण का अंत:सम्बन्ध न केवल सतत विकास की प्रक्रिया में अपितु मनुष्यता को बचाए रखने का मूलभूत आधार है। इंसान अपने जीवन की कठिनाइयों और विडम्बना को सुलझाने के लिए वे प्रयास करता है जो दरअसल उसे अतिशय भौतिकतावादी और उपभोगवादी दृष्टिकोण से प्राप्त होते हैं। इसलिए अक्सर वह समस्या को सुलझाने में असफल रहता है। यथार्थ से बहुत दूर वह अपने बनाए हुए मानदंडो के आधार पर जीवन को सफल बनाने की चेष्टा लगातार करता रहता है। प्रगति और विकास के नाम पर लगातार प्रकृति का दोहन करते रहना वास्तव में मनुष्य के घृणित लालच और लालसा को दर्शाता है। जिस चीज़ की मनुष्य में हमेशा कमी रहती है, वह है संतोष। प्रकृति के सानिंध्य में जीवन का समुचित रूप में फलना फूलना और अपनी अंधी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु उसका विनाश करना वास्तव में अपना ही विनाश करना है। इसकी चिंता साहित्य में भी प्रदर्शित हुई है। समय-समय पर लेखकों और कवियों ने प्रकृति के संरक्षण और मनुष्यता के विकास के अंतर्संबंधों को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। इस आलेख में इन्ही दो बिन्दुओं पर विचार करते हुए हिन्दी साहित्य की दो रचनाओं के आधार पर कुछ प्रश्न और कुछ बिंदु उद्घृत किये गए हैं। विकास कुमार झा की ‘वर्षावन की रूपकथा’ और काशीनाथ सिंह की ‘जंगल-जातकम’ इस कार्य के आधार साहित्य हैं। दोनों ही लेखकों ने इस विषय को अपने अलग-अलग अंदाज़ में प्रस्तुत करते हुए पर्यावरण और मनुष्य से सम्बन्ध के विभिन्न पहलुओं को प्रस्त्तुत किया है।
 
शोध प्रविधि मूलत: गुणात्मक है जो विषय की विशेषताओं की परख पर आधारित है। दोनों ही रचनाओं की विभिन्न स्थितियां और दशाएं विभिन्न बिन्दुओं को परिभाषित करने के लिए उद्धरण के तौर पर ली गयी हैं। इन दोनों ही रचनाओं पर कुछेक आलोचनात्मक कार्य हुआ है इसलिए सन्दर्भ के तौर अधिकतर पर केवल उनकी रचनाओं को ही लिया गया है तथा सभी उद्भावनाएँ मौलिक हैं।
 
बीज-शब्द : वर्षावन की रूपकथा, जंगल जातकम, पर्यावरण, अगुम्बा, काशीनाथ सिंह, अनुपमा श्रीवास्तव, मालगुडी डेज़
 
मूल आलेख 
 
    आधुनिक कथा साहित्य अपने साथ विविध प्रवृत्तियों को संजोये हुए है। विषय और संरचना की मौलिक उद्भावनाएं लगभग सभी रचनाओं में उपस्थित हुए हैं। 21वीं सदी का कथा साहित्य कई युगानुकूल प्रश्नों, चिंताओं और विमर्शों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है जिनमें पर्यावरण के प्रति चिंता विशेष रूप से परिलक्षित हुई है। इस शोध आलेख में कहानी ‘जंगलजातकम’ और उपन्यास ‘वर्षावन की रूपकथा’ पर इस विषय पर संक्षेप में विचार किया गया है।
 
    ‘जंगल जातकम’ के लेखक काशीनाथ सिंह कहानी के उस दौर के लेखक हैं जहां लेखक बनी बनायी अवधारणाओं की अपेक्षा अपनी आसपास के परिचित जीवन को अधिक खुली दृष्टि से देखने का प्रयास कर रहे थे। इनकी विशेषता यह कि वे सामाजिक अन्याय का चित्रण करते हुए प्रतिपक्ष को भी बराबर महत्त्व देते हैं। ‘जंगलजातकम’ इनकी एक ऎसी कहानी है जिसका आधार जातक कथाएँ हैं और इस सन्दर्भ में वे पर्यावरण नाश के दुष्परिणामों का प्रभावशाली चित्रण करते हैं। यह कहानी अपनी संरचनात्मक विशेषताओं में भले ही किसी जातक कथा से समानता रखती है, परन्तु इसकी प्रासंगिकता पूरी तरह से आधुनिक है और इसकी व्यंजना पूर्णत: आधुनिक भाव–बोध को रूपायित करती है। यह कहानी पुराने रचना रूपों का पुनर्संस्कार करके, आधुनिक सन्दर्भों के संयत उपयोग पर बल देती है। जनवादी कहानी की चर्चा जिन कहानियों में आरम्भ हुई थी, यह उन्हें में से एक है।
 
प्रकृति का ह्रास और नष्ट होती मानवीयता :- कहानी का केन्द्रीय भाव मनुष्य की स्वार्थपरता, अहंवादिता के कारण तेज़ी से नष्ट हो रही मानवता है, जिसका दुष्परिणाम सबसे अधिक प्रकृति को भुगतना पड़ रहा है और इसकी चपेट में मनुष्य भी आ रहा है।इसी विषय को प्रतीकात्मक शैली में लिखी गयी कहानी मनुष्य-समाज-व्यवस्था तीनो ही स्तरों पर मूल्यों के ह्रास का चित्रण करती है। ये अमानवीय स्थितियां वास्तव में पर्यावरण के प्रति असहिष्णुता को दर्शाती हैं। पर्यावरण का नाश केवल प्रकृति का नाश नही अपितु सम्पूर्ण वातावरण का नाश है। जब तक पर्यावरण में समन्वय रहता है वहाँ सभी विरोधी प्रतीत होने वाले तत्त्व भी एक दूसरे के साथ मिल-जुल कर रहते हैं। दिखने में भयानक लेकिन अपने साथ दूसरों का ख़याल सा रखते हुए प्रतीत होते हैं। “आम, महुवे, बबूल, नीम, सेमल, पलाश, चिलबिल, बरगद, बाँस और ढेर सारे पेड़ों की बस्तियाँ इनकी अपनी दुनिया थी, अपने मज़े थे। ये लोग बारिश में नाचते थे, बसंत में गाते थे, हवा में झूमते थे और ओलों और आँधियों का एकजुट होकर सामना करते  थे। इनमें आपस में कोई झगड़ा नहीं था और न कोई अदावत। एक-दूसरे से बेहद प्यार था और मुसीबत में एक-दूसरे की मदद की भावना। कभी दुबली-पतली लतरों और बेलों की मदद पेड़ों ने कर दी और पेड़ो तनों की झाड़-झंखाड़ों ने।”[i] जिसकी जितनी क्षमता है वह उसी मर्यादा में अपना जीवनयापन करता है। जातक कथाओं की संरचनात्मक विशेषताओं को लिए हुए यह कहानी सभी पेड़–पौधों के स्वभाव के अनुसार उनमें मानवीय वृत्तियों का रूपक रचती है। इसमें सभी वृक्ष अपनी उम्र और काया के अनुसार मर्यादित जीवन व्यतीत करते हैं। प्रकृति का अनुशासित स्वरूप आधुनिक  मनुष्य के लिए शिक्षा के समान है। उसकी बेलगाम क्षुद्रताएं एक दिन उसका ही नाश कर देंगी।
 
क्षुद्रताओं के प्रतीकात्मक रूप:- कहानी में ‘धमोच’ जो वास्तव में मनुष्य की इन्ही क्षुद्रताओं का प्रतीक हैं। ये अंधी महत्त्वाकांक्षाएं मनुष्य को बरगलाती हैं और जिस प्रकार कहानी में भी प्रदर्शित किया गया है कि अंतत: इनका परिणाम ‘धमोच’ के लिए ही हितकारी होता है, उसमें इंसान का भला कभी नहीं होता है। यह धमोच अपनी प्रबल महत्त्वाकांक्षा में इतना वज़नी हो गया है कि वह जिस शक्तिशाली घोड़े पर बैठा है उसी से उसका वज़न उठाया नहीं जा रहा। सांकेतिक दृष्टि से यह दृश्य वास्तव में भय की सृष्टि करता है जिससे कहानी में तो पेड़ भयभीत हो उठी हैं पर वास्तव में यह भय मनुष्यता के लिए है। “सांस रोके पेड़ चुपचाप भय से इस आलम को देखते रहे। यह उनकी जिंदगानी का नया अनुभव था।...काले धब्बे पठार को पार कर जंगल में घुसे। गाते बजाते और काफी हहास के साथ। वे कौवे न थे। वे थे बिना बेंट के लोहे के वज़नी फल-कुल्हाड़े। उनकी काफिले के आगे दो जीव थे–एक जो तोंद्दार धमोच था, घोड़े पर बैठा था और उस की वजह से घोड़ा टट्टू हो गया था, यहाँ तक कि उससे चला भी नहीं जा रहा था।”[ii] इस धमोच का स्वरुप इतना विद्रूप हो चुका है कि वह मनुष्य होते हुए भी मनुष्य नहीं रह गया है। अर्थात वे इच्छाएं जो मनुष्य को मनुष्य बनाती हैं उनका अविवेकपूर्ण विस्तार उसे मनुष्यता से ही दूर कर कर देता है। काशीनाथ जी ने मनुष्य और पशु में पर्याप्त अंतर उसके विवेकशीलता के कारण ही बताया है। इसलिए वह पशु को नियंत्रित कर सकता है लेकिन यदि वह स्वयं ही पशुवत हो जाए तो? पेड़ो के पूछने पर उनके बुज़ुर्ग बरगद बताते हैं, “सौम्य ! जो जानवर की लगाम अपने हाथ में ले, वह मनुष्य है...उसके गाल इतने फूले हैं कि आँखें लुप्त हो गयी हैं। उसकी लाद इतनी निकली है कि टाँगे अदृश्य हो गयी हैं, उसके बदन का भार इतना है कि घोड़ा मेढक हो गया है। हे सौम्य! ऐसे को मनुष्य नहीं कहते।”[iii]
 
जंगल के मूल्य:-
 
    इस कहानी में जंगल एक समरस और आत्मनिर्भर समाज के प्रतीक के रूप में प्रसुत किया गया है। परन्तु विकास की एकांगी सोच के कारण सतत विकास की अवधारणा नष्ट हो जाती है। इस कहानी में मनुष्य की स्वार्थपरता और लोभ तथा अज्ञानता  के विभिन्न चित्र उभर कर प्रस्तुत हुए हैं जैसे मनुष्य को कोई खरीद नहीं सकता, कोई गुलाम नहीं बना सकता आदि। बावजूद इसके पेड़ उनके स्वागत की बात सोचते है, उनके लिए कंद-मूल आदि भेंट करने की बात करते करते हैं।
 
    बिगड़ी हुई स्थिति से भयभीत पेड़ अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित होते हैं। उनकी चिंताओं को मानवीकरणकृत रूप में प्रस्त्तुत किया गया है। बिना ‘बेंट’ की कुल्हाड़ियाँ आत्मिक बल के अभाव की सूचक हैं, मूल्यहीनता की प्रतीक हैं, विवेकहीन शक्ति-प्रदर्शन का प्रतीक हैं अत: वे प्रत्यक्ष आक्रमण से वृक्षों से हार जाते हैं परन्तु क्षुद्र चालों के कारण पेड़ों को ध्वस्त कर पाने में सफल हो ही जाते हैं।
 
    कहानी आदमी के जंगल और प्रकृति से आत्मिक रिश्ते की बात करती है। इनका वास्तविक जंगल असली जंगल की प्राकृतिक व्यवस्था से है, वह नहीं जिसे मनुष्य ने परिभाषित किया है। वह तो आज की कुरूपावस्था के कारण जन्मी व्यवस्था है। वास्तविक अर्थ में जंगल वह है जहाँ व्यक्ति स्वतंत्र है, उसकी स्वतंत्रता पर किसी की क्षुद्रता का शासन नहीं है। चाहे आदमी हो या पेड़ या मशीन, सभी यदि अनुशासित हों तो जंगल मंगलमय हो सकता है। परन्तु जब आदमी की क्षुद्रता पेड़ को पेड़ के खिलाफ और मशीन को मशीन के खिलाफ भड़काती है, तब केवल नाश ही नाश होता है। इस प्रकार काशीनाथ जी ने इस मर्मस्पर्शी कहानी के माध्यम से बड़े ही रोचक ढंग से एक गंभीर विषय को अंजाम दिया है जो निश्चित ही पर्यावरण के सन्दर्भों को रूपायित करने में मील का पत्थर है।
 
    इसी प्रकार उपन्यास ‘वर्षावन की रूपकथा’ प्रकृति के मनुष्य के साथ ताल-मेल के रिश्ते को उद्घाटित करता है। उपन्यास के लेखक विजय कुमार झा इस उपन्यास का विधान एक ऐसे गाँव से करते हैं जहाँ प्रकृति अपने सहज-सरल सौन्दर्य के माध्यम से मधुर रागिनियाँ बिखेरती है। यह एक ऐसा स्थान है जो जीवन की सरल-सुगम वीथियों से होकर गुज़रती हुई स्वाभाविक स्थितियों से रु-ब-रु कराता हुआ ‘शंकर नाग’ का आर०के०नारायण द्वारा लिखित ‘मालगुडी-डेज़’ सीरियल के स्वरुप धारण करता है। अंधी-महत्त्वाकांक्षाओं और बाज़ारवाद के इस दौर में भी इस गाँव में मनुष्यता स्वत:स्फूर्त स्वरूप में अपना महत्त्वपूर्ण मकाम बनाए हुए है। प्रकृति के विभिन्न अवयवों का अद्भुत तालमेल मानो यहाँ के लोगों की सद्भावना में विद्यमान हो गया है। जीवन और व्यक्ति से सम्बंधित एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पक्ष इस उपन्यास में उपस्थित हुआ है। वर्णन प्रधान शैली में लिखे गए इस उपन्यास में प्रकृति बादलों पर सवार होकर हरियाली के सैकड़ों रंग बिखेरती जाती है और पाठक उसके हरे रंग के ही विभिन्न शेड्स के मोती चुनता जाता है और बाद में अंतर्मन के कोने में बैठ कर उसकी माला बनाता है। भारत के दूसरे चेरापूंजी कहे जाने वाले गाँव अगुम्बा की पृष्ठभूमि पर लिखे गये इस यात्रा वृतांत-नुमा उपन्यास में जीवन, व्यवस्था, सम्बन्ध और मनुष्य से सम्बंधित ढेर सारे पक्षों को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है मानो कि इन सभी के होने में वहाँ प्रकृति के क्रिया-कलापों की खूबसूरत और अत्यंत प्रभावशाली भूमिका है। यहाँ के लोग बड़े ही स्वाभाविक रूप से इनको अपने जीवन में संजोये हुए हैं। वर्षावन की आर्द्रता और असहनीय गरमी की रंगतें भी इनके यहाँ मिलती हैं जो जीवन के कठोर संघर्षों को निरुपित करते हुए मानो ये दर्शाती हैं कि किसी भी सुन्दर और सुखद  परिणाम के लिए असह्य सृजन की वेदना से गुज़रना होता है। मानव ह्रदय के विविधमुखी आयाम इसी प्रकृति के क्रिया-कलाप जैसे ही होते हैं। सृष्टि और विनाश अवश्यम्भावी प्रक्रियाएं हैं जिनके बिना गतिशीलता साम्भव नहीं और बिना गति और दिशा के जीवन संभव नहीं। जैसे एक हरा भरा वृक्ष सालों-साल प्रकृति के सभी परिवर्तनों के मध्य अपने अस्तित्व को बनाए रखता है जब तक उसके अवयवों में ऊर्जा प्रवाहित होती रहती है, उसी प्रकार मनुष्य और उसके जीवन की गतिविधियाँ भी होती हैं। सुख-दुःख, आनन्द-विषाद और उल्लास-निराशा वास्तव में उसे आगे बढ़ने के लिए ऊर्जा प्रदान करते हैं। जब प्रकृति के स्वरुप में स्थिरता नहीं तो मनुष्य के जीवन में यह कैसे संभव हो कि कोई परिवर्तन ही न हो? आवश्यक यह है कि कैसे वह इन आती-जाती लहरों में खुद को रमा पाता है संजो पाता है। जिसके लिए उसी प्रवाह में बहना होता है और वर्षावन इसका अप्रतिम उदाहरण है। इसमें आधुनिक-तकनीकी समय और प्रकृति के साथ मनुष्य की सांझेदारी के सुन्दर उदहारण उपस्थित हुए हैं जिन पर विचार किया जा सकता है।
 
1.  परम्परित हरित-मूल्य संरक्षण :- प्रकृति के सहज क्रिया-कलाप को अपने जीवन का अंग मानकर वैसा ही सहज जीवन बिताना यहाँ के निवासियों की विशेषता है। जिस प्रकार से अनगढ़ प्राकृतिक सुषमा यहाँ सहज ही अपनी सुन्दरता को बिखेरे हुए है उसी प्रकार मनुष्य के स्वाभावोचित आदर्श और मूल्य यहाँ के लोगों के अन्दर हैं। वह सरलता आज के व्यवसायिक संसार में प्राय: दुर्लभ है। जम्बू द्वीप के भारत खंड में कावेरी से गोदावरी नदी तक फैले द्वीप, टापू, अंतरीप, जंगल और पठार की शोभा से भरपूर कर्नाटक प्रदेश के शिमोगा जिले और तीर्थहल्ली तालुका के अंतर्गत सघन वर्षावन के के मध्य स्थित शिव कंठ की छवि सरीखे मेघ ग्राम अगुम्बे के लोग परम मृदुल-मधुर हैं। जीवन की मिठास यहाँ कण कण में व्याप्त है। अपने शीर्षक के अनुरूप इस रचना में वर्षा की भव्यता के दर्शन होते हैं। विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधों का वर्णन हो या उनसे निर्मित परिवेश का, सभी जीवन के स्वस्थ मूल्यों का परिचय अनायास ही करा देते हैं। ‘दोडडमने’ परम्परा और उसमें निहित मानवीय मूल्यों का सूचक है जिसने लगभग 150 की वर्षा ऋतु को झेल लिया है जो अब भी अपनी सुदृढ़ता को बनाए हुए है।दोडडमने का स्नानगृह मोहनजोदड़ो और हड़प्पाकालीन सभ्यता के दिनों की तर्ज़ पर है भी। इसका फर्श बड़ी-बड़ी चट्टानों से निर्मित है।”[iv] प्राकृतिक सुषमा से सुशोभित यह स्थान अगुम्बे का गन्धर्व कहा जाता है। इसकी देख-रेख करने वाली कस्तूरी राव भी ऎसी ही सबल व्यक्तित्व की पहचान है जो तथाकथित-प्रगति और समृद्धि की परिभाषा से परे हैं। फिर चाहे उनका जीवन कठिन परिस्थितियों से क्यों न भरा हुआ हो उन्होंने अपनी शालीनता और गरिमा को हमेशा बनाए रखा। संघर्ष तो हर मनुष्य की स्थिति है। कस्तूरी राव स्वयं उसका जीता-जागता उदाहरण है।...इस प्रकार कस्तूरी राव ने इस बड़े घर को और बड़ा बना दिया। पहाड़ पर वर्षावन के बीच बसा दुनिया भर के लोगों का बेहद अपना प्यारा प्राचीन घर।”[v] देश के दूसरे चेरापूंजी कहे जाने वाले इस छोटे से गाँव का अद्वितीय रूप और गोडडमने की प्राचीन भव्यता केवल देश ही नहीं बल्कि विदेशी पर्यटकों को कभी किंग कोबरा पर रिसर्च करने तो कभी ट्रेकिंग करने के लिए आकर्षित करती रही है। दोडडमने की ‘दो बूढ़ी बच्चियाँ’ विशेषण दरअसल प्राचीन भव्यता में अपने अस्तित्व को बनाए हुए सदाबहार उल्लसित और उर्जस्वित धारा है जो यहाँ की नस-नस में निरंतर बह रही है सादा जीवन और उसके प्रभाव का परिचय यहाँ के परिवेश के कण-कण में व्याप्त है। ‘सिंपल लिविंग और हाई थिंकिंग’ को सही मायनों में चरितार्थ करता हुआ यहाँ का जीवन अपने-आप में विलक्षण है।
 
2.  उल्लासमयी आशा :- जीवन की उर्जस्विता:- शंकर नाग के ‘मालगुडी डेज़’ की बनी बनायी तस्वीर अगुम्बे में वास्तविक जीवन भी वैसा ही है जैसा मालगुडी डेज़ की कहानियों में प्रस्तुत हुआ है। यहाँ का एक-एक घर, गली-कूचा और लोग बिलकुल स्वाभाविक रूप से इस सीरियल में आये हैं। इसी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनका जीवन मुख्यधारा से भले सीधे न जुड़ता हो पर यहाँ के लोगों की सजगता और बुद्धिमत्ता उनकी उल्लासमयी चेतना में दिखती है। इनके लिए प्रकृति का एक एक उपादान सुन्दर रचना है। “गजानन नागप्रसाद यदि कवि होते, तो कह सकते थे कि उनके गाँव का नक्शा तितली के पंख पर बनी कलाकृति सरीखा है।”[vi] यहाँ के किसान और उनके वनस्पति प्रेम की झलक इस उपन्यास में कयी स्थलों पर प्रदर्शित हुई है। पद्माकर एक सीधा-सरल किसान है जिसे तुलसी की विभिन्न प्रजातियों के लिए अगुम्बे का वातावरण बहुत पसंद आता है। उसके इस प्रेम के कारण उसे पद्माकर-तुलसी के नाम से पुकारा जाता है। शुभांकर बेंगलुरु में रहते हुए भी जब भी अत्यधिक वर्षा और तूफ़ान को देखता है तो उसे अपने गाँव के किसानों की फ़िक्र होती है।
 
  1. समरसता :- प्रकृति और जीवन:- जिस प्रकार प्रकृति यहाँ विनिर्मुक्त भाव से अपनी सौंदर्य की छटा बिखेरती है उसी प्रकार यहाँ की व्यवस्था सामाजिक संतुलन का उत्तम उदाहरण है। आज के दौर में भी जब मुख्य राजनीति व्यवस्था में कुछ अभाव नज़र आते हैं, यहाँ की पंचायती व्यवस्था सुव्यवस्थित ढंग से चलती है। “सामाजिक संतुलन के निर्वहन में अगुम्बे का उदाहरण दिया जाता है। मनुष्य की पाँचों उंगलिया बराबर न होने के बावजूद जिस तरह हथेली के संग तालमेल बनाकर रहती हैं, अगुम्बे के गौड़ सारस्वत और कोंकणी ब्राह्मणों से लेकर वोक्कालिग्गा, इदिगास, मोगेविरा, दलित और नगण्य आबादीवाले मुस्लिमों में हमेशा से कुछ वैसा ही सामंजस्य है।”[vii] बगैर किसी विवाद के अगुम्बे की यह व्यवस्था आज भी वैसी चल रही है। अपने पराग के हस्तान्तरण के लिए जैसे फूलों के तल में मकरंद निर्मित होता है उसी प्रकार मनुष्य के ह्रदय की स्वाभाविकता भी इकठ्ठा करके दूसरों को देने में ही पूर्ण होती है। अपरिग्रह के सन्देश को इस परिवेश में महसूस किया जा सकता है। “मनुष्य की भांति पेड़-पौधों की भी ह्रदय से कामना होती है कि उनकी संतति खूब फैले और वर्षावन सदैव हरा-भरा बना रहे।...वर्षावन के वृक्ष तो खासकर इस कला में माहिर होते हैं।”[viii] ऐसा नहीं कि यहाँ पर मानवीय क्षुद्रता के दर्शन नहीं होते। चार सूखे पेड़ों को काटने के बहाने चार-सौ पेड़ काट लिए जाते हैं। इस बात से यहाँ के लोग बेहद नाराज़ रहते हैं और यथासंभव इन्हें बचाने की कोशिश करते हैं। “अथि मधुरा अनुरागा”[ix] नामक अंक में संगीत और गीतों के प्रति सरसता इस बात को सपष्ट करती है कि कैसे यहाँ का जीवन तमाम भौतिक अभावों के भी समरसता से परिपूर्ण है। संतुष्टि यहाँ के पोर-पोर में बसी हुई है। ह्रदय को समझने की कला में यहाँ के लोग दक्ष हैं। इसलिए कई ऐसे पक्ष देखने को मिलते हैं जहाँ भावों की गहनता और प्रेम का उदात्त रूप प्रस्तुत हुआ है। उपन्यास का “छोटा दर्पण”[x] अंक व्यक्तित्व की विशालता का परिचायक है जहाँ एक स्त्री के मन के यथासंभव विश्लेषण के माध्यम से यह बताया गया है कि कैसे एक व्यक्ति अपने गुणों से बड़ा या छोटा होता है किसी बाह्य कारण से नहीं। उसकी विशेषता उसके गुणों में है न कि उसके बाहरी व्यक्तित्व या पद-प्रतिष्ठा में।

 

4.  प्रगति का सूचक :- प्राकृतिक सम्पन्नता:- यूं तो अगुम्बे की प्राकृतिक छटा अपने आप में आकर्षण का केंद्र है परन्तु इसके अलावा और भी कई प्रमुख कारण हैं जो पूरी दुनिया में इसकी प्रसिद्धि को बनाये हुए है। इसके सघन वन में रहने वाले ‘किंग कोबरा’ के कारण पूरी दुनिया भर के सर्प विज्ञानी यहाँ आ कर न केवल शोध कार्य करते हैं बल्कि यही पर स्थायी रूप से रहना भी शुरू कर देते हैं तो यहाँ के उच्च पदासीन लोग भी यहाँ के वातावरण में अपने आप को समृद्ध और सबसे संपन्न मानते हैं। उनके लिए एक एक वृक्ष मानो उनकी अपनी संताने हो। शिवप्रसाद ने ही अपने दोनों पोतो के नाम अक्षयवट और वनराज रखा। ये वृक्ष उनके परिवार की परम्परा के महान धरोहर के रूप में उनके घर में मौजूद हैं। यहाँ के पेड़-पौधों में औषिधीय विशेषताएं भी है जो सही मायनों में यहाँ के लोगों कीं हमदर्द हैं। “लता-पत्ता और झाड़-झंखाड़ और जंगली जड़ी-बूटियों की विशेषताओं को वे बता सकते हैं।.....अहा! राम्पत्री से बने धूप और अगरबत्ती की क्या अद्भुत स्वर्गिक सुगंधी होती है। उनको सब कंठस्थ है।”[xi] “ओंदानोंदु काल्दाल्ली उर्फ़ वंस अपॉन ए टाइम”[xii] अंक  में थिएटर और कलाकारोंके माध्यम से यहाँ के लोगों की सुरुचिपूर्ण मानसिकता का पता चलता है तो ’ए मासे नाटका’ के प्लेटफार्म पर बदलते भारतीय गाँवों के स्वरुप को दर्शाया गया है। कैसे नए समय में गाँवों में बदलाव आ रहा है तो मन और भावों में भी वह बदलाव दृष्टिगत हुआ है और इसलिए रंगभाषा में भी पर्याप्त बदलाव हुआ। इस प्रकार यहाँ परम्परा के साथ-साथ नए समय को समझने की प्रवृत्ति भी परिलक्षित हुई है।

 

5.  कर्मशीलता और सहिष्णुता:- आज के दौड़-भाग और दाव-पेंच से अपना काम साध लेने वाले समय में भी अगुम्बे के लोग इस बात की मिसाल हैं कि अपना फायदा उठाने के लिए वे किसी शॉर्ट-कट को नहीं अपनाते और साथ ही काम करते समय उस कार्य से जुड़े सभी लोगो को समान रूप से महत्त्व देते हैं। उपन्यास के ‘भीगा माचिस’ नामक अध्याय के लिंगराज और उसके कामथ होटल के प्रसंग से इस बात को अच्छी तरह से समझा सकता है कि महत्वाकांक्षा की अंतहीन दौड़ में कभी भी इन्सानियत से समझौता नही करना चाहिए।

 

 

6.  कभी धूप कभी छाँव :- इस उपन्यास में प्रकृति के सानिंध्य में जीवन के गहनतम उतार-चढ़ाव को भी देखा जा सकता है। कलाकारों और लेखकों के आकर्षण का केंद्र अगुम्बा उनके लिए कई बार खूबसूरत अवसर प्रदान करता रहा है तो कभी उनके समक्ष चुनौतियों को भी खड़ा किया है। “मोक्ष-विधान”[xiii] और ‘रंग-शुभंकर’ अंक के ‘कुंद्रादि’ प्रसंग जीवन के घोर कष्ट का सामना करने की नसीहत देते हैं तो कहीं राजनीति और बाज़ार का प्रभाव कैसे कला और कलाकारों पर पड़ता है इसका भी हल्का सा ज़िक्र हुआ है।

 


निष्कर्ष –

 

इस प्रकार ‘वर्षावन की रूपकथा’ प्रकृति के प्रति रूमानियत और रूहानियत दोनों ही उत्पन्न करती है जिसकी तलाश मनुष्य को हर स्थिति में रहती है और उसके अस्तित्व को सही मायनों में परिभाषित करने की यही ज़रूरत है। ज़िंदगी की कठिनाइयों और रुसवाइयों का बोझ ढोते ढोते हम इन्हें ही जीवन की सच्चाई समझने लगते हैं, जबकि जीवन का जो सबसे खुशनुमा पहलू है उसे किसी ऐसे कारण की ज़रूरत नहीं जिसे केवल धन से या धन के द्वारा प्राप्त साधनों से पूरा किया जा सकता है। जीवन का सार और संतुष्टि का आधार तो विशुद्ध रूप से हमारे ही अस्तित्व का विराटतम रूप है, जिसे प्रकृति कहा गया है। आनंदमयी ऊर्जा के रूप में उसे समझने और उससे जुड़ने की आवश्यकता है। आधुनिक सभ्यता के सम्मुख मनुष्य के अस्तित्व को सुदृढ़ रूप प्रदान करने में अवश्य ही पर्यावरण और उससे जुड़े मुद्दे हमारे समक्ष चिंतन का विषय हैं। यदि इंसान ने अभी भी अपनी क्षुद्रताओं का त्याग नहीं किया तो निश्चित ही अपनी जीवन शैली सम्पूर्ण मानवता खतरे में पड़ जाएगी। हालांकि उसके विनाशकारी रूप हमें हमेशा ही देखने को मिलते रहे हैं तथापि मनुष्य उससे कोई बड़ी सीख नहीं लेता है। वर्तमान में भी मनुष्यता ऐसे ही दुष्परिणामों का सामना कर रही है कोरोना संकट के ऊपर अत्यंत भावुक लेखन भी बहुत हो रहा है परन्तु इसके ऊपर आधारित गहन संवेदनशील रचना तभी संभव है जब पर्यावरण और प्रकृति से अपनी सांझी अस्मिता के प्रति किसी रचनाकार के गहन भावों को लिए मानवीय चित्तवृत्तियों का विस्तार होगा। जब प्रकृति स्वयं लेखनी बन कर अपनी स्थिति को बयान करेगी तभी इस प्रकार के सृजन का प्रभाव चिरस्थायी हो सकेगा और यही बानगी ‘जंगल जातकम’ और ‘वर्षावन की रूपकथा’ में दिखाई देती हैहिंदी साहित्य सृजनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में अवश्य ही इस दिशा में अपनी सार्थक भूमिका निभा रहा है


सन्दर्भ -


[i]जंगल जातकम, काशीनाथ सिंह, हिंदीसमय.कॉम

[ii]जंगल जातकम, काशीनाथ सिंह, हिंदीसमय.कॉम

[iii]जंगल जातकम, काशीनाथ सिंह, हिंदी कहानी संचयन, सं.हरीश अरोड़ा, सतीश बुक डिपो, नई दिल्ली, 2013, पृ.216

[iv]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ.163

[v]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ.171

[vi]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ.38

[vii]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ.25

[viii]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 2016, पृ.97

[ix]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 2016, पृ.243

[x]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 2016, पृ.218

[xi]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 2016, पृ.96

[xii]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 2016, पृ.209

[xiii]वर्षावन की रूपकथा, विकास कुमार झा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 2016, पृ.276

 

डॉ. अनुपमा श्रीवास्तव

जीसस एंड मेरी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

dranupamasrivastava.jmc@gmail.com9811585089

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)

अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue 

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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