शोध आलेख : संत कबीर और भगताही पंथ / धनंजय कुमार

संत कबीर और भगताही पंथ

- धनंजय कुमार


शोध सार : भारत में नवजागरण के अग्रदूत गौतम बुद्ध से होते हुए गोरखनाथ की परंपरा में मानवता, समानता के साथ-साथ नवीन जागरण के एक स्वर्णिम युग की शुरुआत होती है। उसी समय कबीर की उत्पत्ति होती हैI इतने विराट व्यक्तित्त्व के साथ-साथ  जो मुखरता कबीर में मिलती है वह हज़ारों वर्षों के हिंदी साहित्य के इतिहास में कहीं नहीं मिलती। कबीर साहित्याकाश में चमकते सूर्य के समान  समादृत हैं। असाधारण प्रतिभा और सच कहने का अप्रतिम साहस बुद्ध तथा गोरखनाथ से होते हुए एक व्यापक रूप में कबीर में प्रस्फुटित होता है।

            सिद्धों, नाथों तथा योगियों की निर्गुण-निराकार ब्रह्म-रूप की भक्ति को कबीर के द्वारा एक नया आयाम मिलता है।  काशी से बाहर निकलकर देश के अलग-अलग भागों में जाकर विभिन्न जगहों की यात्राएॅं कबीर ने कीं। कबीर ने हिन्दू-संप्रदायों के संतों, मुस्लिम-पीरों, फकीरों,नाथ-पंथियों, औघड़ों से मिलकर और ज़रुरत हुई तो टकराकर समाज के भीतर भक्ति के एक नवीन रूप का अनहद नाद जागृत करने का काम किया।

            इसी क्रम में वह बुंदेलखंड के कलिंजर के पिथौराबाद शहर के एक हरीव्यासी -संप्रदाय के मंदिर में पहुॅंचते हैं। इसकी अनेक शाखाएॅं थीं और निंबाकाचार्य की परंपरा में विकसित यह सम्प्रदाय जनता में बहुत लोकप्रिय था। यहाॅं पर सोचने- समझने की परंपराएॅं सुरक्षित थीं और धर्म, जड़ता तथा रूढ़ियों से ग्रस्त नहीं थाI वहीं पर कबीर साहब से भगवान गोसाईं प्रभावित हुए और कबीर साहब के साथ चल पड़े। भगवान गोसाईं के बारे में कहा जाता है कि वह ब्राह्मण थे कुछ लोग उन्हें 'अहीरभी बताते हैं।

बीज शब्द : निर्गुण, निराकार, पंथ, बीजक, मठ, लोकवृत्ति

मूल आलेख :

कबीर पंथ का निर्माण और भगवान गोसाईं -

            कबीर साहब धर्म का विरोध करते रहे लेकिन पंथ का निर्माण उन्हीं के शिष्य कहलाने वाले भगवान गोसाईं द्वारा अपहरण कर लिया गया ऐसा कहा जाता है। इसलिए उन्हें कहीं-कहीं भग्गोदास भी कहा गया है। लेकिन ये विद्वान और शास्त्रों के ज्ञाता थे, इसलिए कबीर साहब के साथ रहते हुए मूल वचनों को रात में छिपकर लिखते रहे, जिसमें  रमैनी, सबदी, साखी और सबदी के विभिन्न रूपों चांचरी, बेली, बिरहुली, चौंतीसा इत्यादि को संकलित कर उन्होंने ने इस ग्रंथ-गुटखा का नामबीजकरखा।  अपना पंथ बनाते समय उन परनिंबार्क संतोंका प्रभाव था, जिसके कारण उन्होंने वहाॅं से कुछ सूत्रों को लेकर संतों के मार्ग में भक्ति को स्थापित किया। और उनका मार्ग "भगताही पंथ" कहलाया।

भागूदास की ख़बर जनाई। ले चरणामृत साधु पिआई।।
कोऊ आप कह कलिंजर गयऊ। बीजक ग्रंथ चोराई ले गयऊ।।
सद्गुरु,कह वह निगुरापंथी। काम भयो लै बीजक ग्रंथि1

 

            भगवान गोसाईं, कबीर साहब के बानियों को संग्रहीत कर बीजक का रूप दे चुके थे। विलियम क्रुक (1896) -’दि ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ नॉर्थ वेस्टर्न इंडियामें कबीर पंथियों के बारे में लिखते हैं कि -

            तुलसीदास की रामायण को छोड़कर शायद ही किसी अन्य रचना को उतर भारत के हिंदुओं के बीच वैसी लोकप्रियता हासिल नही हैं जैसी कबीर के बीजक को2   अन्य संतों के द्वारा यह पोथी माॅंगने पर तथा किन्हीं अन्य कारणों से भगवान गोसाईं ने इस ग्रंथ को छुपा दिया, जिसके कारण उन्हें उस समय पुस्तक-चोर कहा गया। इसी बीच भगवान गोसाईं इस संग्रहीत ग्रंथ को लेकर काशी में गंगा तट होते हुए नारायणी नदी के समीप पहुॅंचते हैं और नारायणी नदी के किनारे-किनारे भ्रमण करते हुए चंपारण के एक स्थान 'चटियापहुॅंचते हैं। जहाॅं पर इस 'बीजक' को केंद्र में रखकर उपदेश देना प्रारंभ करते हैं और यही चंपारण का 'चटिया ' भगताही शाखा का मूल स्थानप्रज्ञा तीर्थबना, जिसेबोध स्थानभी कहा जाता है। हालाॅंकि उन्हें पिथौराबाद का भी ध्यान रहता है, जिसे ध्यान में रखकर वह अपने एकमात्र चेला घनश्याम गोस्वामी को पंथ की शिक्षा देते हैं।

            हालाॅंकि यहाॅं एक शब्द भगताही का अर्थ स्पष्ट कर देना चाहता हूॅं- 'भगत' शब्द का प्रयोग विशेषकर उनके लिए होता है जो गृहस्थ होते हुए भी भक्ति में रुचि रखते हैं।

            कोरी हो या ब्राह्मण इस लोकवृत्त में समानधर्मा लोग 'भगत' के रूप में पहचाने जाते थे, अभी भी पहचाने जाते हैं3  विद्या में निपुणता के कारण भगवान गोसाईं को 'चोर', 'भागो' तथा 'भगत' कहा गया और उनके अनुयायियों को भगताही।  एफ. . केई जो कबीर के बारे में अध्ययन कर रहे थे, जब वह धनौती मठ पहुॅंचे, तो उन्हें यह मठ, पंथ से संबंधित हस्तलिखित लेखों का बड़ा संग्रह मालूम पड़ा।

            इसके बारे में वर्तमान महंत जी कहते हैं कि, यह मठ किसी दूसरे जगह से आए महंत जी ने बनवाया था। उनका संबंध वह कोइरी (कुशवाहा) जाति से बताते हैं। वर्तमान का यह विशाल खंडहर जो दिखाई पड़ता है, उन्हीं का बनवाया है।

            नियम के अनुसार सबसे योग्य भीषम गोस्वामी को महंत बनना था लेकिन वो ब्राह्मण जाति से नही आते थे, वह  कोइरी (कुशवाहा) जाति से थे, इसलिए बेतिया राज के हस्तक्षेप से  वरीयता में उनसे निचले क्रम में आने वाले बनवारी गोस्वामी जी के शिष्य नयन गोस्वामी को महंत बनाया गया जो जाति से ब्राह्मण थे। 

            तब  भीषम गोस्वामी वहाॅं से अपने गाॅंव धनौती आकर झोपड़ा  बनाकर रहने लगे। धीरे-धीरे उनका प्रभाव इस क्षेत्र में बढ़ने लगा, ख्याति फैली और आसपास के जमींदारों ने ज़मीनें दान देना शुरू किया। देखते-देखते कुछ ही दिनों में पूरे क्षेत्र में उनका प्रभाव हो गया। ये एक विद्वान व्यक्ति थे।

            अन्य सभी मठों में सबसे विशाल और प्रभावशाली मठ होने के कारण बीसवीं सदी के चौथे दशक में आनेवाले लोगों ने धनौती मठ को ही मुख्य मान लिया।

भीषम गोस्वामी और धनौती मठ -

            हजारी प्रसाद द्विवेदी जी अपनी पुस्तक 'कबीर' में लिखते हैं कि  “भगवानदास की शिष्य-परंपरा अभी जीवित है और छपरा (बिहार) जिले का धनौती मठ उसका मुख्य स्थान है इन लोगों ने ' बीजक' भी प्रकाशित कराया है4 हजारी प्रसाद द्विवेदी जी यहाॅं मुख्य स्थान के रूप में धनौती मठ को बताते हैं लेकिन भगताही शाखा का मूल स्थापना यहीं  हुई यह कहीं मालूम नहीं पड़ता जो आचार्य द्विवेदी अपनी स्थापना में स्थापित करते हैं।

           भीषम गोस्वामी, धनौती  मठ के प्रथम और चटिया बड़हरवा मठ के ग्यारहवें आचार्य हुए। इनसे पहले दस आचार्य गद्दी सॅंभाल चुके थे। भीषम गोस्वामी चटिया बड़हरवा मठ इसलिए बुलाए गए क्योंकि चटिया बड़हरवा के आचार्य नयन गोस्वामी(ब्राह्मण) जो बेतिया राज की अनुकंपा से महंत बने थे, वह भीषम गोस्वामी से कम योग्य थे जिसके कारण यहाॅं धनौती मठ का प्रभाव ज्यादा बढ़ गया और बनवारी गोस्वामी को लगने लगा की अगर भीषम गोस्वामी को आचार्य-महंत नहीं बनाया गया तो पंथ टूट जायेगा।

            इसलिए उन्होंने बहुत प्रयत्न करके भीषम गोवामी को वापस बुलाया। भीषम गोस्वामी और धनौती मठ के उनके शिष्यों ने छियालीस अलग-अलग मठों की स्थापना कर दी थी। ये निर्गुण के उपासक थे और इन्हें लगता था कि लोकमाताओं के साथ अमर मनुष्यों के संस्मरण से चरित्र को बल मिलता है इसलिए इन्होंने गौरी, विजया, जया लोकमाताओं में आस्था को भी महत्त्व प्रदान किया। महंत जी ख़ासकर अपने ज्ञान और आचरण को लेकर श्रमजीवी वर्ग ( आम किसान , पशुपालक वर्ग, ) के बीच अत्यधिक लोकप्रिय थे। भीषम गोस्वामी ने अपने पंथ के शिष्यों को सलाह दी और इस बात पर बार-बार ज़ोर देकर कहा कि मठों में जाति-बल का विकास नहीं होना चाहिए इसलिए क्योंकि वो ख़ुद जाति का उत्पीड़न झेल चुके थे। इनके इन प्रयासों से समाज का कमज़ोर वर्ग और निर्गुण भक्ति के गीत गाने वाली तमाम जातियों में पंथ का प्रसार तेजी से बढ़ा।

            इन्होंने बीजक को सामूहिक रूप से पाठ करने की परम्परा का विकास किया साथ- साथ भंडारा का आयोजन करने का निर्णय लिया जिसके कारण आपसी मेल-मिलाप मठों के बीच मजबूत हो। ये आयुर्वेद के भी ज्ञाता थे और इसका प्रसार भी इनके द्वारा करवाया गया। इस प्रकार एक महान संत व्यक्तित्त्व के कारण धनौती को समाज में व्यापक रूप से प्रतिष्ठा मिली और यहभगताही पंथका मुख्यालय बनता गया।

बीजक और भगताही शाखा से संबंधित जनजीवन और उसके लोकगीत -

            कबीरपंथियों में कबीरदास के स्वयंवेद के चार भेद बताए गए हैं -

            (1) कूटवाणी (2) टकसार (3) मूल ज्ञान (4) बीजक -वाणी।

            इसी प्रकार कबीरदास से संबंधित लोक गीतों और आम जनमानस के मुख से गाए जाने वाले गीतों का एक संग्रह श्री क्षितिमोहन सेन द्वारा संपादित 'कबीर के पद' जिसमें भक्तों के मुख से सुनकर पदों को संग्रहीत किया गया है। श्रुति परंपरा से आते रहने के कारण इन पदों की भाषा ज़रूर बदल गई होगी लेकिन उसमें विद्यमान भावों की प्रामाणिकता ज़रूर है। गायन शैली और वाचन तंत्र की दृष्टि से चांचरि, बेलि, बिरहुलि, ज्ञान-चौंतीसा बसंत और विप्ररमतिसी नाम से इन पदों में भेद किया गया है।

            बेइल जो राजस्थान में लोकप्रिय है। 'चाॅंचरिवर्तमान काल में ' चरचरी ' के रूप में लोक में जीवित है। यह होली के समय फाल्गुन महीने में गाया जाता है।

            कबीरपंथी मठों पर कबीर के पदों को 'निर्गुण, बिरहा' के रूप में भी गाया जाता है, जो ख़ासकर बनारस, ग़ाज़ीपुर, छपरा, गोपालगंज, सीवान, देवरिया आदि भोजपुरी भाषी (बिहार-यूपी के सीमावर्ती) क्षेत्रों  जहाॅं भगताही मठों का प्रभाव है उनसे भी जुड़ता है, कुछ उदाहरण के रूप में लोक गीत-

"एक डाल दो पंछी बैठा, कौन गुरु कौन चेला
गुरु कि करनी गुरु भोगेगा, चेला की करनी चेला।। 
रे साधु भाई उड़ जा हंस अकेला।
 
माटि चुन - चुन महल बनाया, लोग कहे घर मेरा
घर तेरा घर मेरा, चिड़िया रैन बसेरा रे साधु भाई
उड़ जा हंस अकेला रे "5

 

निर्गुण संत कवियों को किसी का भी भरोसा नहीं है। इसीलिए वह विकट समय में कहते हैं-

"तोहि मोहि लगन लगाये रे फकिरवाँ
सोवत ही मैं अपने मंदिर सबदन मारि जगाए रे फकिरवाँ
बूड़त ही भव के सागर में बहियाॅं पकरि समझाय रे फकिरवाँ
एके वचन वचन नहिं दूजा तुम मोसे बन्द छुड़ाये रे फकिरवाँ
कहे कबीर सुनो भाई साधो
प्रानन प्रान लगाये रे फकिरवाँ "6


            कबीरपंथ निर्गुण भक्ति के संतों ने इन मठों और स्थानों से संचालित होने वाले अनेक विद्वानों और उनके शिष्यों ने लोक-जन में गायन के विस्तार में अहम भूमिका निभाई। इन गीतों को अलग-अलग प्रतिष्ठित करने में इन्होंने भी सहायता की। एक और निर्गुण गीत जो लोक में गाया जाता है -

"सब दिन होत एक समाना एक दिन राजा हरिश्चंद्र गृह कंचन भरे ख़ज़ाना,
एक दिन भरे डोम घर पानी मरघट गहे निशाना।
 सब दिन...
एक दिन बालक भयो गोदिया में
एक दिन भयो समाना
एक दिन चीना जटे मरघट पे
धुॅंआ जात आसमाना...
कहत कबीर सुनो भाई साधो7
" बाड़ी छोटी अबही उमरिया विधाता
दिनवा धई दिहले राम...
सजना सेयान हम नादान, कइसे के गवानवा जाइब राम
बाबा मोर अइसन निर्मोहिया...”8


            इन कबीर के पदों को अन्य भगताही पंथ के संतों द्वारा एक व्यापक रूप में गाया जाता है, जिसमें भोजपुरी भाषा का प्रभाव मिलता है -

1. ‘महंथ घनश्याम गोस्वामीद्वारा ध्यान मुद्रा में पंचम सुर का यह निर्गुण गीत,

"करब हम कौन बहाना, गवान हमरो नगिचाना
सब सखियां में मैली चुनरिया, हमरो पिया घर जाना "9
" एक डर लागे मोरे सासू ननद के
दूसरे पिया मारे ताना
बटिया चलत मोहिं सद्गुरू मिली गए
राम नाम को बखाना"10

 

2. एक दूसरे संतगुणाकर गोस्वामीभी लोक भाषा में  निर्गुण गायन करते हैं-

" फुलवा भार सहि सके , कहे सखिन से रोय
ज्यों ज्यों भींजे कमरी , त्यों त्यों भारी होय"11


3. महंथरामरूप गोस्वामीजी भगताही शाखा के प्रमुख विद्वान संत थे, जिनकी कविता का उल्लेख चंपारण के प्रमुख लोक कवि श्री धनुषधारी कुशवाहा जी के द्वारा लिखित 'अजगुत कबीर' खंडकाव्य में  मिलता है।

बानगी देखिए-

निंदक निमन एह दुनियाँ में, जानेला सब कोई
आदमी छुई आकाश के, जबले निन्दा होई।"12

 

भगताही पंथ के प्रमुख संतों का जीवन, व्यक्तित्त्व और योगदान -

            पंथ प्रवर्तक भगवान गोस्वामी के बारे में चर्चा की जा चुकी है। इनके द्वारा संपादित 'बीजक' कबीर परम्परा का पहला लिखित ग्रंथ हैं। भगवान गोसाई एक प्रभावशाली संत-महात्मा थे।  उनके बारे में चमत्कार की जनुश्रुति रही है। उदाहरण के तौर पर चटिया तीर्थ स्थान का उनका चबूतरा का अनेक बार बाढ़ आने के बावजूद  ज्यों का त्यों सुरक्षित रहना इत्यादि। भगताही पंथ को एक नया रूप देकर समाज  में विस्तार देने वाले भीषम गोस्वामी की भी हम चर्चा कर चुके हैं।  भगताही शाखा के दूसरे महंत आचार्य के रूप मेंघनश्याम गोस्वामीजी का नाम आता है। इनका जन्मस्थान चंपारण में ही नेपाल के तराई क्षेत्र में पड़ता है।  इनको कोई 'कोरी' वंश से, तो कोई थारू तथा शेखनपुरा के आसपास के किसान उन्हें कोइरी (कुशवाहा) जाति से बताते हैं। भगवान गोस्वामी के एकमात्र शिष्य यही हुए और चटिया गद्दी के आचार्य हुए। इसलिए भगवान गोस्वामी पंथ के प्रवर्तक हैं तो घनश्याम गोस्वामी उसके प्रथम संचालक। फिर वो घूमते-घूमते खेमसर और वैराटपुर में ही रहे जहाॅं उन्हें संत उद्दोरण गोस्वामी से भेंट हुई।उद्दोरण गोस्वामीसे इनकी भेंट चटिया में हुई। ये विद्यापति के पदों को बहुत सुंदर गाते थे -

मोरा रे अगनवां चनन के री गाछीया, ताहि बइठि कुरुरई काग रे13


            विद्याज्ञान के क्षेत्र में इनका नाम सार्थक हुआ इसलिए इनका नाम उद्दोरण हो गया, लेकिन इनका नामश्रीकेतुथा बीजक इन्हें कंठस्थ था। इन्होंने नियम बनाया कि 'बीजक' श्रमजीवी और कर्मजीवी संत की वाणी है। आप श्रम करते हुए, कुआँ से पानी निकालते हुए, हल चलाते हुए, तथा पशु चराते हुए बीजक के पाठ का वाचन कर सकते हैं। इन्होंने कबीर साहब द्वारा चलाए गए श्रम और काव्य के आपसी संबंध का विकास किया। इनको लोग 'उधो बाबा' के नाम से भी पुकारते थे। निर्गुण संत होते हुए कृष्ण भक्ति में इनकी आस्था थी।जब बीजक पाठ करते थे तो ये शुरू में चांचरी के पद गाते थे। देखिए एक पद -

खेलती माया मोहिनी। जेर कियो संसार।।
रच्यो रंग तिनि चुनरी। सुंदर पहिरे आय14।।


उद्दोरण गोस्वामी के तीन शिष्य थेगणेश गोस्वामी’, ‘दवन गोस्वामीऔरअनु गोस्वामी

            दवन गोस्वामी इन तीनों में सबसे योग्य थे, इसलिये चटिया की गद्दी उन्हें  सौंपी गयी। ये नेपाल के पासनेवारजाति से ताल्लुक़ रखते थे। इनके आचार्य होने से नेवार समुदाय में जात-पाॅंत, छुआ-छूत, छोटे - बड़े का भेदभाव कम हुआ। पाखंड के प्रति लोगों में आस्था घटी। इनके शिष्य परम्परा मेंगुणाकार गोस्वामीहुए। गुणाकार गोस्वामी, दवन गोस्वामी के शिष्य थे। ये शास्त्र -विद्याप्रेम के कारण साधुओं में सम्मानित थे। अच्छे निर्गुनिया गायक होने के साथ-साथ इन्हें कथा-उपदेश की बेहतर जानकारी थी। ये जाति से मांझी थे और इनका मूल नाम बटोरन मांझी था। इनके एक उपदेश से पता चलता है कि विद्या-गायन में निपुण थे-

"देखो कुमति की चतुराई, अमृत में विष घोलि पियै रे
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, यह विष संतन के झारे झरे रे"15


            गुणाकार गोस्वामी के प्रभाव से उत्तर बिहार में अनेक मठ, आश्रम, टीले, झोंपड़े और चौरे बने।  ये  कथा के माध्यम से अपनी बात कहते थे। गोस्वामी जी की एक सुंदर वाणी दृष्टव्य है-

"फुलवा भार सहि सके, कहे सखिन से रोय
ज्यों -ज्यों भीजे कामरी, त्यों -त्यों भारी होय।।16


            गनेश गोस्वामीके समय कबीर पंथ की भगताही शाखा लोगों के मध्य व्यापक रूप में इसलिए लोकप्रिय हुयी, क्योंकि इनके द्वारा बड़े पैमाने पर सुधार किए गए तथा एक नए सिरे से पंथ को संगठित किया गया, जिसमें 'साहब बंदगी', ‘सम्बन्धी अनुशासन’ , ‘तीन प्रणाम’, ‘सामूहिक बीजक पाठऔरब्राह्मण विद्या,’ ‘संस्कृत के प्रति आकर्षणआदि बेहतर हुआ। बनवारी गोस्वामी बहुत ही प्रतिभावान थे और उन्होंने बेतिया राज से कोकिल गोस्वामी के लिए बड़हरवां में भूमि ली और झोंपड़ा बनवा दिया और बड़हरवां गद्दी के संस्थापक महंत हुए।

            ये थोड़ा सुस्त रहते थे।  जिसके कारण इन्हें लोगो नेउदासी बाबाभी कहना शुरू किया।बनवारी गोसाईंने दरभंगा में रहकर संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की थी और यहगुणकार गोसाईंके शिष्य हो गए। बनवारी गोसाईं के चार शिष्य ही हुए-  ‘दया गोस्वामी’, ‘केवल गोस्वामी’, ‘भीषम गोस्वामीऔरनयन गोस्वामीजिनकी चर्चा की जा चुकी है।

            इनके समय भगताही आचार्य पीठ की महत्त्वपूर्ण शाखाएॅं बन गई थीं। इनमें 'चटिया गादी' को आचार्य पीठ का महत्त्व प्राप्त था। लेकिन लगभग सन् 1720 ईसवी  तक तीन परंपराएॅं अपने वर्चस्व के लिए अस्तित्त्व में गई थीं।

            भीषम गोस्वामी जी के बारे में बताया जा चुका है येजीववादके समर्थक थे। कबीरपंथ में सवर्णवादी व्यवस्था का प्रवेश उन्हें कभी अच्छा नही लगता था।  ये भगताही पंथ के परम सात्विक संत माने जाते हैं। अपने प्रिय शिष्यभूपाल गोस्वामीको यह निर्देश दिया कि मठ और 'गादी ' को लेकर कोई विवाद नही होना चाहिए। इनका मानना था कि जाति-बल, कंठी, माला, तिलक, यज्ञोपवीत जैसे समाज को खंड-खंड करने वाले पाखंडों को ख़त्म करना चाहिए। इनके समय में भगताही पंथ में कबीर साहब के निर्गुण पदों को गाने वाली अनेक जातियाॅं भी जुटीं। जोगी, जंगम, मलंग, मॅंगता और करीखहा आदि अक्सर भीषम गोस्वामी से मिलने आते थे। इन्होंने घी, दूध, मधु को हिंसापूर्ण भोजन घोषित किया।

            इन्होंने साधुता की परम्परा को  सजीवता प्रदान की। इन्होंने एक नवीन चेतना के साथ समाज में भगताही पंथ के विकास में  योगदान दिया।

            भोपाल गोस्वामीसन् 1763 . मेंचटिया तीर्थके आचार्य घोषित किए गए। इनके पासबड़हरवाऔरधनौतीदोनों मठ अधीन थे।  लेकिन धनौती पर विशेष ध्यान था, जिनमें इनके शिष्य जो

            भीषम गोस्वामी द्वारा स्थापित मठों में रहते थे। इनके समय में भगताही पंथ में 218 मठों की स्थापना की जा चुकी थी। इनके बाद ही उन्ही की व्यवस्था से  ‘भगताही गादीमेंधनौती’, ‘बड़हरवा’, ‘दानापुरजैसे कई मठों में कुर्सीनामा की व्यवस्था बनी जो कई प्रमुख शिष्यों का मण्डल होता था। इसी समय से  'भगत' कहने की एक  परम्परा चल पड़ी।

            ये बहुत ही सच्चे साधु और राजयोगी थे उन्हें भगताही परम्परा का राजा जनक भी कहा जाता है। इनके समय में ही इस पंथ में शाही प्रणाली की पांच बन्दगी , गुरु महंथ की पूजा, गोसाईं, भगत जैसी तथा नाम साहब जैसी उपाधियाँ को विशेष महत्त्व मिला16

            छत्त़र गोसाईजो बेतिया के रहने वाले भट्ट कुलीन थे। भोपाल गोस्वामी ने उन्हे दरभंगा संस्कृत पढ़ने के लिए भेजा इन पर बेतिया राजघराने का प्रभाव था, क्योंकि ये चाहते थे की महंत कोई   अब्राह्मण नही बने और इनपर हमारा प्रभाव बना रहे। हालाॅंकि इनके समय में प्रभाव से ब्राह्मणेतर जातियों के लोग भी कबीरसाहब के भगताही पंथ की तरफ़ आए और कर्मकांडो को ख़ुद से दूर ले जाने की तरफ़ मुड़े।  इसके बाद महंत बनेरामप्रसाद गोसाईंजो कि चंपारण के ही निवासी बताए जाते हैं  और ये लहेजी के जैमन गोसाई के शिष्यों द्वारा स्थापित चौंतीस मठों सहित भोपाल गोस्वामी द्वारा स्थापित मठों पर भ्रमण करते रहे।

            तुला गोसाई’ - गाजीपुर के रहने वाले थे। मठों के विकास में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनके ज़माने में लगभग 100 मठ ऐसे थे जिनकी स्वतंत्र शाखा-प्रशाखा की अपनी अलग अलग गिनती करती थी।कबीर व्यापक लोक- मान्यता के प्रत्यक्ष सम्पर्क में पहले- पहल अंग्रेज अफसर विद्वान नही बल्कि उत्तरी बिहार में आकर बसे रोमन कैथोलिक, इटालियन पादरी आए थे। उन्होंने कबीरपंथ का व्यापक प्रभाव देखा। यह बात है ईसा की अठाहरवीं सदी की16 1873 के हस्तलिखित ॅंकड़े के अनुसार भगताही पंथ की 214 इकाइयों के 1151 मठों का संचालन होता था जिसकी संख्या अभी भी बढ़ती जा रही थी।  गोपाल गोस्वामी, लहेजी के जैमन भगत के शिष्य थे। इनकी साधुता की चर्चा सुनकरतुला गोसाईंने उन्हें बुलाया और चादर -पंजा दिया, महंथ बनाया और छपरा, रघुनाथपुर भेज दिया। मंहतगोपाल गोसाईंऐसे महंत हुए जिन्होंने कोई मठ बनाया कोई मठ बनाने की प्रेरणा दी। वह अक्सर एक पक्ति बोलते थे -

'हंसा सिंघल द्वीप का चलि आया परदेश। रतन पांवरी ना चुगें, सुमिरे आपन देश'17


            रामलगन गोसाईंके बारे में लोगों का मत है कि कोहरगढ़ के कोइरी (कुशवाहा) थे।  कुछ लोग परसा वैरागी मठ के पाल बताते हैं, तो कुछ छपरा का कनौजिया, बनिया। हालाॅंकि ये लहेजी के जैमन भगत के शिष्य कहे जाते हैं और धनौती के छोटे मठ पर रहते थे।  ये भ्रमण करने में बहुत प्रवीण थे। इन्होंने पंथ में 'पदचर्या 'मठ- अटन', ‘आहार-संयम' और लोक ज्ञान पर जोर दिया।

            इनके बादमहंथ रामखेलावन गोसाईंजिनका जन्म नेपाल के परसा में हुआ वहाॅं पर एक कुटिया थी बकरा खेटा, फुलवरिया मठ बहुत प्रसिद्ध थे। इन्होंने भगताही पंथ का कुर्सीनामा लिखा और तत्कालीन महंथरामधारी गोसाईंसे इसकी पुष्टि कराई। इसके पहले इनकी एक पुस्तक 'शंका - समाधान मयंकछप चुकी थी रामखेलावन गोसाईं को रामलगन गोसाईं ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और वे 11 अगस्त 1948 को चटिया के आचार्य बने और भगताही मठों के महंथ 28 जून 1971 तक संचालित किया। उन्हे काशी में संस्कृत विद्या पढ़ रहेयदुवंश गोसाईमिले जिनका जन्म 1920 . में गोपालगंज से 10 किलोमीटर पश्चिमदक्षिण,आरना गांव में हुआ जो मेरे गांव त्रिलोकपुर से 4 किमी पूर्व में स्थित है। 10 जुलाई 1951 को अपने अधीन सभी मठों का मठाधीश बना दिया। अपने गुरु रामखेलावन गोसाईं के निर्देश पर अपना सारा कार्य  संचालित करते रहे। अचानक 10 मार्च 1967 को ईसवी संध्या 5 बजे इनका  स्वर्गवास हो गया। कम ही समय में ये अच्छे वक्ता और अच्छे संत के रूप में प्रसिद्ध हो गए थे।

            जिन दिनों रामखेलावन गोसाईं अपने प्रिय शिष्ययदुवंशी गोसाईंके अचानक निधन से आहत थे, उसी समय उनका ध्यानरामरूप गोसाईंकी ओर गया।  रामरूप गोसाईं जी का जन्म 24 जनवरी 1927 को दरभंगा जिले के बहेड़ी ग्राम में हुआ था। ये अत्यंत कर्मठ, शीलवान और स्वस्थ साधु थे। इसलिए महंतहरिनाम गोसाईंकी प्रेरणा से इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और छपरा के राजेंद्र कॉलेज से इंटरमीडिएट, फिर छात्रसंघ का चुनाव लड़ छात्र संघ के अध्यक्ष बने जब वो बीए ऑनर्स के छात्र थे।

            इनके गुरु केदारनाथ लाभ से ज्ञात हुआ कि  शुकदेव सिंह बिहार विश्विद्यालय मुज़्ज़फ़रपुर में कबीर साहब पर शोध कर रहे हैं तब बीजक' के जो हस्तलेखों का संकलन मिला, शुकदेव सिंह जी के पास इन्होंने भिजवाया। रामरूप गोसाईं सन् 1967 में चटिया के आचार्य और महंथ बने। महंथ के रूप में हिंदी और इतिहास विषयों में एम.. की परीक्षा दी। इन्होंने अनेक विद्यालय खोले, बेतिया चौराहे परजे सी इण्टर कॉलेजके सहयोग से संत कबीर की पहली मूर्ति लगवाई जिसके मुख्य अतिथि शुकदेव सिंह थे।

            रामरूप गोसाईं जी कवि, चिंतक, आकाशवाणी के नियमित वार्ताकार थे। उन्होंने कबीर  बीजक के मूल सिद्धांतों पर 'बीजक शिक्षा सार' नामक एक काव्य पुस्तिका लिखी जो खड़ी बोली साधु हिन्दी में है। एक पुस्तिका जिनमे 'समतावादी संत कबीर ' रेडियों वार्ताओं का संकलन है और शुकदेव सिंह जी और वासुदेव सिंह जी के निबंधों का संकलन भी है।

भगताही पंथ का वर्तमान स्वरूप -

राह विचारी क्या करै, पंथी चलै विचार।
अपना मारग छोड़ कै फिरै उजार उजार17


            कबीरदास के विचार, जो समाज को एक नए युग में प्रवेश कराते थे आज उन्हीं के महंत और चेले  बदलती परिस्थितियों को समझ नहीं पाए। धनौती जो अपनी संपन्नता और वैभव के चलते सबका मुख्यालय बन गया था आज खंडहर और वीरान पड़ा है। आसपास के अन्य मठों की भी यही स्थिति है। जिस जाति-धर्म के खिलाफ कबीरदास जी जीवन भर उपदेश देते रहे वही आज इसकी जकड़ में है।  लालच और धन के लिए मठ हत्याओं का केंद्र बना हुआ है। जहां संत रहते थे, अब अधिकांश मठ अपराधियों के शरण का केंद्र बना हुए हैं। मठों के आचार्यों और गुरुओं के अंदर पनपते भाई-भतीजावाद और जातिवाद ने इन ऐतिहासिक महत्व के स्थानों को रसातल में पहुॅंचा दिया।  बड़े-छोटे मठों, जिनके पास अकूत ज़मीनें थीं, उन पर अपराधियों, नेताओं सहित सब नज़रें गड़ाए बैठे हैं। दर्जनों मुक़दमें चल रहे हैं। आए दिन महंतों की हत्या हो रही है। धनौती महंत भावुक होकर कहते हैं कि पिछले 32 वर्षों में कोई अकादमिक रूप से बात करने आया है। पिछली बार एकसावजी आए थे और उसके बाद आप हैं। अकादमिक रूप से भी हमलोग उदासीन भाव रखे हुए हैं। महंत जी को उम्मीद है कि सरकार कुछ कदम उठाएगी और जन-चेतना के द्वारा फिर से मठों की अहमियत बढ़ेगी।

निष्कर्ष : कबीर पंथ और भगताही शाखा के संतों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और वर्तमान स्वरूप पर अध्ययन के दौरान मुझे कबीरदास जी के 'बीजक' जो भगवान गोस्वामी द्वारा लिखा गया था, पढ़ने को मिला।भगताही शाखा के मठों द्वारा समाज में एकता, समरसता और बंधुत्व को बल मिला।  भगवान गोसाईं के द्वारा ही कबीर दास जी की वाणी को संकलित किया गया, जिसका व्यापक प्रचार भगताही शाखा के मठों और आचार्यों द्वारा किया गया।  विशेष रूप से सिद्धों, नाथों और योगियों ने समाज में समानता का प्रसार किया। उसी रूप में भगताही पंथों के आचार्य-गुरुओं ने भी  किया, जिसमें भीषम गोस्वामी और रामरूप गोस्वामी, भोपाल गोस्वामी का नाम सर्वोपरि है।  इन्होंने अपनी समन्वयकारी नीतियों के माध्यम से पंथ को समाज के साथ जोड़ा। जो पहले मठों में तक सीमित था वह प्रत्येक व्यक्ति के पास पहुॅंचा।


संदर्भ :

1. कबीर , हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ -27 अठाईसावां संस्करण 2022
2. दी ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ नॉर्थ वेस्टर्न इंडिया, विलियम ब्रुक, संस्करण - 1896
3. दी ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ नॉर्थ वेस्टर्न इंडिया, विलियम ब्रुक, संस्करण - 1896
4.कबीर , हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, अठाईसावां संस्करण 2022
5. धनौती महंत के गाए लोकगीत-गीत दिनांक -2 जुलाई 2023
6. धनौती महंत के गाए लोकगीत-गीत दिनांक -2 जुलाई 2023
7. धनौती महंत के गाए लोकगीत-गीत दिनांक -2 जुलाई 2023
8 भोजपुरी भाषा के आदि कवि कबीर (www.@jogira.com)और धनौती महंथ के गाए गीतों दिनांक -2 जुलाई 2023
9. संत कबीर और भगताही पंथ, शुकदेव सिंह, प्रकाशक: विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ -65, 1998
10. संत कबीर और भगताही पंथ, शुकदेव सिंह, प्रकाशक: विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ -48, 1998
11.संत कबीर और भगताही पंथ, शुकदेव सिंह, प्रकाशक: विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ -64, 1998
12.चौरासी, भोजपुरी काव्य संग्रह, कवि महंथ रामरूप गोस्वामी, प्रकाशन: धनुषधारी कुशवाहा  पृष्ठ -24 वर्ष विक्रम संवत 2056
13,14,15,16,17 संत कबीर और भगताही पंथ, शुकदेव सिंह, प्रकाशक: विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ -50, पृष्ठ- 54, पृष्ठ-64, पृष्ठ-65


धनंजय कुमार
हैदराबाद विश्वविद्यालय
22hhma19@uohyd.ac.in, 8271234049
 
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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