शोध आलेख : शैवभक्ति - विलोपन : कारण एवं निहितार्थ / कमलानंद झा

शैवभक्ति - विलोपन : कारण एवं  निहितार्थ
- कमलानंद झा

 


उत्पन्ना द्रविड़े साहं वृद्धिं कर्णाटके  गता|
क्कचित्क्कचिंन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता||48||
तत्र घोरकलेर्योगात्पा खंडे: खंडितांगका
दुर्बलाहं चिरं याता पुत्राभ्यां सह मंदताम||49||
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरुपिणी|”


            (मैं द्रविण देश में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बढ़ी,कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई, किन्तु गुजरात में मुझको बुढ़ापे ने घेरा|वहाँ घोर कलियुग के प्रभाव से पाखंडियों ने मुझे अंग-भंग कर दिया| चिरकाल तक यह अवस्था रहने के कारण मैं अपने पुत्रों के साथ दुर्बल और निस्तेज हो गयी| अब जब से मैं वृन्दावन आयी, तब से पुनः परम सुन्दरी रूपवती नवयुवती हो गयी हूँश्रीमद्भागवत महापुराण, प्रथम खण्डः, अथ प्रथमोध्यायः

            हिंदी साहित्य के इतिहास में कुछ महत्वपूर्ण चुनी हुई चुप्पियाँ हैं जिनमें एक है - शैव साहित्य के प्रति चुप्पी। हिंदी साहित्य में यह स्थापित मान्यता है कि उत्तर भारत में भक्ति की धारा दक्षिण भारत से आई। दक्षिण भारत में चौथी से दसवीं  शताब्दी के मध्य आलवार एवं नायनार भक्ति अपने चरम पर थी। आलवार भक्ति का सरोकार जहाँ  वैष्णव भक्ति से है वहीं नायनार भक्ति का सरोकार शैवभक्ति से।  हिंदी साहित्य में आज तक यह रहस्य बना हुआ है कि आलवार भक्ति साहित्य की धारा का विकास  हिंदी में वैष्णव भक्ति (रामभक्ति शाखा और कृष्णभक्ति शाखा) के रूप में प्रचुर मात्रा में हुआ किंतु नायनार  भक्ति अर्थात शिवभक्ति साहित्य की धारा पता नहीं कहाँ विलुप्त हो गई! यक्ष प्रश्न यह है कि दक्षिण से सिर्फ आलवार भक्ति ही उत्तर भारत में आई या नायनार  भक्ति  (शिवभक्ति) का विलोपन सायास हुआ। ऐसा नहीं है कि उत्तर भारत के समाज में शिवभक्ति का प्रचार-प्रसार नहीं रहा है। संपूर्ण उत्तर भारत में शैवभक्ति की सर्वाधिक लोकप्रियता रही है। विष्णु, कृष्ण और राम मंदिर के बरअक्स शिव मंदिरों की प्रचुरता इस बात के पक्के सबूत हैं। तब यह कम आश्चर्य का विषय नहीं है कि हिंदी साहित्य और इतिहास में शिवभक्ति की चर्चा मात्र क्यों है? यह बात विश्वसनीयता के साथ नहीं कही जा सकती  कि समाज में तो शिवभक्ति की प्रबलता थी किंतु साहित्य में नहीं।

            शुक्ल जी ने अपने इतिहास में लिखा है कि "प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ  की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है।" शिवभक्ति 'जनता की चित्तवृत्ति' में संचित थी तो फिर साहित्य में यह चुप्पी क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि साहित्य में भी शिवभक्ति रही हो किंतु कई पूर्वाग्रहों के कारण साहित्येतिहासकारों ने इसकी नोटिस ली हो। शिवभक्ति की कविताएँ या तो खोजी ही गई हो या सायास खोजने का प्रयास किया गया हो। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जिस  बनारस में बैठकर हिंदी साहित्य का इतिहास लिख रहे थे, उसी बनारस में बाबा विश्वनाथ का विश्वप्रसिद्ध मंदिर शिवभक्ति की लोकप्रियता की गवाही दे रहा था। किंतु इस लोकप्रियता से विमुख शुक्लजी ने अपने इतिहास में शिवभक्ति के प्रति मौन साध लिया।

             आदिकाल के एकमात्र शैवभक्त विद्यापति को शुक्लजी ने 'फुटकल खाते' में डाल दिया। सबसे बड़ी बात है कि आदिकाल के सर्वाधिक प्रामाणिक कवि को 'फुटकल खाता' नसीब हुआ।  एक तो उन्होंने विद्यापति की शैवभक्ति की चर्चा करना उचित नहीं समझा और जिस कृष्णभक्ति की चर्चा की उसे  भक्ति के सांचे से 'आध्यात्मिक रंग के चश्मे बहुत सस्ते हो गए हैं' कहकर खारिज ही कर दिया। शुक्लजी के प्रशंसक आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने भी  उनके इस 'आध्यात्मिक रंग के चश्मे' वाली अवधारणा की तीखी आलोचना करते हुए 'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास' नामक पुस्तक में लिखा है कि "आचार्य शुक्ल यहाँ इस अनुभव तक नहीं पहुँचते हैं कि विद्यापति के ये पद अपनी श्रृंगार भावना के साथ सच्चे रूप में ऐहिक हैं और उनकी तन्मयता की गहरी अनुभूति  उन्हें आध्यात्मिक स्तर पर रूपांतरित कर देती हैं। इसके लिए पाठक या आलोचक को आध्यात्मिक रंग की चश्मे की जरूरत नहीं रहती। विद्यापति में वैष्णव की मर्यादा और शैव का तादात्म्य-भाव दोनों एक साथ मिलते हैं। काम भाव और शरीर का सौंदर्य उनके यहाँ उत्सव रूप में है। इसलिए चिरपरिचित होते हुए भी वे चिर नवीन हैं। यही कारण है जिसके मिलते-जुलते शारीरिक अनुभवों की अलग-अलग पदों में आवृत्ति होने पर भी अपने तन्मयता-भाव से वे सभी विशिष्ट हो उठते हैं।"[i]

            'नाथ सम्प्रदायमें हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 'बारहवीं  शताब्दी में लगभग समूचे भारत में शैवभक्ति का प्राबल्य था। उत्तर में उसका एक प्रधान और महत्वपूर्ण रूप नाथमत था।[ii]  नाथ मत के सभी अनुयायियों के इष्ट शिव हैं। संत ज्ञानेश्वर की सूची में आदिनाथ का नाम प्रथम है। परवर्ती  संतों ने आदिनाथ को शिव ही माना है।हठयोग प्रदीपिकाकी टीका में ब्रह्मानंद ने लिखा है कि सब नाथों में प्रथम आदिनाथ हैं जो स्वयं शिव ही हैं।  ऐसा नाथ संप्रदाय वालों का विश्वास है।[iii]हिन्दी साहित्य में इन नाथों को निर्गुण शाखा में रखा गया है| ये नाथ शिवभक्ति परंपरा के  निर्गुण भक्त कवि हैं| दक्षिण में वीरशैव भक्त वसवन्ना, अक्क महादेवी, अल्लमा प्रभु और देवरा रासीमाया आदि निर्गुण शिवभक्त ही थे| दक्षिण भक्ति साहित्य के विरल विद्वान्  के रामाजु ने अपनी पुस्तकस्पीकिंग ऑफ़ शिवामें लिखा है कि इन भक्त कवियों के शिव पौराणिक शिव नहीं हैं| मुख्य रूप से वीरशैव निर्गुणपंथी शैवभक्त थे जो व्यक्तिगत और  भावगत दोनों धरातलों पर निराकार ब्रह्म से जुड़े थे|[iv]जब ये निर्गुण वीरशैव शिवभक्ति परम्परा में हो सकते हैं तो निर्गुण नाथ क्यों नहीं?

            गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ का वर्ण्य-विषय शिवभक्ति ही है। गोरखनाथ अत्यंत महत्वपूर्ण शिवभक्त के रूप में प्रख्यात रहे हैं। शिवभक्त गोरखनाथ की महत्ता प्रतिपादित करते हुए द्विवेदी जी लिखते हैं, "शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमामंडित महापुरुष भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायी आज भी पाए जाते हैं। भक्ति आंदोलन के पूर्व सबसे अधिक शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का भक्तिमार्ग ही है। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता हैं।"[v]

            नाथ साहित्य/शैव साहित्य में वर्णव्यवस्था की तीखी आलोचना की गई है और  धार्मिक वह्याडम्बरों का विरोध किया गया है। वर्णव्यवस्था की तीखी आलोचना शुक्ल जी को पसंद है गोस्वामी तुलसीदास को। आचार्य रामचंद्र शुक्ल दुखी होकर अपने इतिहास में लिखते हैं "नाथ संप्रदाय के सिद्धांत ग्रंथों में ईश्वरोपासना के वाह्य  विधानों के प्रति उपेक्षा प्रकट की गई। घट के भीतर ही ईश्वर को प्राप्त करने पर जोर दिया गया है।  वेदशास्त्र का अध्ययन व्यर्थ ठहरा कर विद्वानों के प्रति अश्रद्धा प्रकट की गई हैतीर्थाटन आदि निष्फल कहे गए हैं।"[vi]भक्ति आंदोलन का एक महत्व इस रुप में भी प्रतिपादित किया गया है कि इसने वर्ण व्यवस्था की दीवार को तोड़ने में एक धक्का लगाया है।  आमजन को बुरी तरह जकड़े हुए धार्मिक वह्याडम्बरों  से मुक्ति की आकांक्षा भक्ति आंदोलन की मूल संवेदना रही है। लेकिन यह क्रांतिकारी प्रवृत्ति नाथ/ शिवभक्ति का हिंदी साहित्य से निष्कासन का एक मजबूत आधार बना। रामचंद्र शुक्ल सिद्धों  और नाथों के प्रति अपनी नाराजगी को और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, "84 सिद्धों में बहुत से मछुएचमार, धोबीलकड़हारेदरजी  तथा बहुत से शूद्र कहे जाने वाले लोग थे।  अतः  जाति-पाँति के खंडन तो वे आप ही थे।  नाथ संप्रदाय जब फैला तब उसमें भी जनता की नीच और अशिक्षित श्रेणियों के बहुत से लोग आए जो शास्त्रज्ञान संपन्न थेजिनकी बुद्धि का विकास बहुत सामान्य कोटि का था। पर अपने को रहस्यदर्शी प्रदर्शित करने के लिए शास्त्रज्ञ पंडितों और विद्वानों को फटकारना भी वे जरूरी समझते थे|”[vii]  नाथ सम्प्रदाय के प्रति अभिजात्यवादी आलोचकों की नाराजगी का एक कारण यह भी था कि इसमें मुसलमान योगियों की संख्या भी काफी थी| जार्ज वेस्टन ब्रिग्स अपनी पुस्तकगोरखनाथ एंड कनफटा योगीजमें 38137 मुसलमान योगियों का हवाला दिया है|[viii]

            शुक्लजी के यहाँ 'जनता' का अर्थ 'शिक्षित जनता' है। जब 'शिक्षित जनसमूह की बदली हुई प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके' हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परियोजना तैयार की जाएगी  तो उसमें 'अशिक्षित और नीच श्रेणियोंके बहुत से लोगों  के प्रति संवेदनशीलता कैसे प्रकट की जा सकती हैयह भी कम आश्चर्यजनक तथ्य नहीं है कि इसी नाथ साहित्य का विकास निर्गुण भक्ति कविता में होती है जिसे 'ज्ञानमार्गी' कहा गया। यह विडंबना ही है कि  'सामान्य कोटि के बुद्धि वाले' आगे चलकर  ज्ञानमार्गी कैसे कहलाए। इस शैव/नाथ सम्प्रदाय के प्रति चुप्पियों के  निहितार्थ को समझना कठिन नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास ने 'गोरख जगायो जोग भगति भगाया लोगकहकर योगियों की भरपूर निंदा की है।  गोस्वामी तुलसीदास को शिव तो प्रिय हैं किंतु वर्णव्यवस्था विरोधी शिवभक्त बिल्कुल नापसंद हैं।

            हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल वैष्णवभक्ति का पर्याय है।  यहाँ से वहाँ  तक वैष्णवभक्ति।  साहित्य के इतिहासकारों का वैष्णवभक्ति के प्रति अतिरिक्त राग से इनकार नहीं किया जा सकता है। वाह्य रुप से समानता की बात करते हुए भी वैष्णव भक्ति में वर्णव्यवस्था की स्वीकृति थी।  शिवभक्ति अपेक्षाकृत वर्णव्यवस्था विरोधी थी। विद्यापति ने अपनी रचना शैवसर्वस्वसार में शैवभक्ति  के लिए वर्ण की पाबंदी नहीं रखी है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि शैवभक्ति शूद्रों और स्त्रियों तक के लिए है।  वैष्णव भक्ति की महत्वपूर्ण पुस्तक 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में कई वार्ताएं ऐसी हैं जो वर्णव्यवस्था का समर्थन करती हैं। स्वयं शुक्लजी से भी यह तथ्य ओझल नहीं था। वे अपने इतिहास में नोट करते हैं कि "श्रीनाथजी के मंदिर में और इस संप्रदाय में भक्ति के क्षेत्र में तो जाति भेद नहीं था लेकिन खान-पीन में यह भेद बदस्तूर जारी था।"[ix]

             चौरासी वैष्णवन की वार्तामें एक शूद्रा गंगाबाई की दृष्टि श्रीनाथ जी के भोग पर पड़ जाती।  फलस्वरूप वह इस भोग को स्वीकार नहीं करते। जब गुसाई जी स्वयं भोग बनाकर चढ़ाते हैं, तब उसे स्वीकार किया जाता है-शूद्र भक्तिन  के देखने भर से भोग अपवित्र और अस्पृश्य हो जाता है- "तब श्रीनाथजी नें कहीं जो सामग्रीपरतो  गंगाबाई की दृष्टि परी तातें में नाहीं  आरोग्यो तब श्री गुसाईं जी सुनतही तत्काल स्नानकरिकें..." अत्यंत विस्तार से शूद्रा गंगाबाई की कथा  'कृष्णदास अधिकारी तिनकी वार्ता' में कही गई है।[x] एक सवाल यह है कि साहित्य के इतिहास में शैवभक्ति के विलोपन का कारण उसकी वर्णव्यवस्था को लेकर परिवर्तनकामी सोच तो नहींक्योंकि वैष्णव और शैवमतों में एक महत्वपूर्ण अंतर यह था कि धीरे-धीरे वैष्णव ब्राह्मण परंपरा से संबद्ध हो गए थे जबकि शैव शूद्रों से। शैवमत स्वीकार करनेवालों में शूद्रों की संख्या अधिक थी और जो ब्राह्मण शैव होते थे उन्हें भी शूद्रवत मान लिया जाता था।  आलोचक बजरंगबिहारी तिवारी भंडारकर के हवाले लिखते हैं, "एक आंदोलन के रूप में शैवमत का उदय बहुलांश  में ब्राह्मणवाद के विरोध में हुआ था। ब्राह्मणवादी शक्तियों और दीगर महत्वाकांक्षी संप्रदायों से शैवों  के कई खूनी संघर्ष हुए। शैवों ने विरोधियों से जमकर मुकाबला किया, तो उनका भी बड़े पैमाने पर कत्लेआम हुआ।" उत्तर भारत में ब्राह्मणवादी शक्तियां ज्यादा मजबूत स्थिति में थीं। भक्ति आंदोलन में यहां शैवों की लगभग अनुपस्थिति का एक कारण यह भी था।"[xi]  वैष्णव और  शैवमत का संघर्ष इतिहास का सच है। 'भारतीय दर्शन का इतिहासमें एसएन दासगुप्ता लिखते हैं, दसवीं  शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक शैव और वैष्णव दक्षिण में एक साथ रहे जहाँ शैव मतानुयायी राजाओं ने वैष्णव को सताया और उनके मंदिर के देवताओं की अवहेलना की और वैष्णव पंथी राजाओं ने शैव और उनके मंदिर के देवताओं से भी उसी प्रकार का व्यवहार किया।[xii]

            रामचरितमानस में तुलसीदास ने लंका चढ़ाई से पूर्व रामचन्द्र जी द्वारा शिव की पूजा करवाई है लिंग थापि विधिवत कर पूजाऔर कहा है कि 'शिव समान प्रिय मोहि दूजा'  उन्होंने यह भी कहा है कि 'शिवद्रोही मम दास कहावा सो नर सपनेहुँ मोहि पावा'  'जानकी मंगलके साथ उन्होंने 'पार्वती मंगल' की भी रचना की। लेकिन तुलसीदास की  शिवभक्तों के प्रति कोई सहानुभूति नजर नहीं आती। मानस के उत्तरकांड में कागभुसुंडि बताते हैं कि वे किसी पूर्वजन्म में  शिवभक्त थे और शूद्र वर्ण में पैदा हुए थे-

तेहिं कलिजुग कोसलपुर जाई जनमत भयउँ  सूद्र तनु पाई
सिव सेवक मन -क्रम अरुबानी।  आन देव निंदक अभिमानी...


            अधम जाति में विद्या पाए भयउँ जथा अहि दूध पियाये।तुलसीदास के अनुसार वह 'सिव- सेवक' था तो वैष्णव द्रोही होगा ही।  उसके बाद तुलसीदास ने उस शिवभक्त को  अवगुणों का खान बता दिया।  और उसे मुक्ति तब मिलती है जब वह रामभक्ति के संपर्क में आता है। तुलसीदास की कलात्मकता यह है कि यह सारी बात कागभुसुंडि स्वयं बोलते हैं- आत्मकथात्मक शैली में।इस प्रसंग में  तुलसीदास का शिवभक्तों के प्रति क्रोध देखते ही बनता है। वैष्णव-शैव के संघर्ष की जानकारी इस प्रसंग से हो जाती है। 

             शैव साहित्य में भी वैष्णवों  के प्रति इसी प्रकार का रोषभाव देखने को मिलता है। शैव परंपरा में एक आकर ग्रंथ 'सिद्धांत शिखामणि' (तेरहवीं सदी)  का निर्देश है कि जो शिव की निंदा करते हैं उनका वध कर दिया जाना चाहिए-

            शिव निंदा करं दृष्ट्वा घातयेनथवा शपेत स्थानं वा तत  परित्यज्य गच्छेद्ददि अक्षमो भवेता।शैव साहित्य में मात्रात्मक रूप में  यह वैष्णव वैमनस्य भाव अपेक्षाकृत कम है।  इसका कारण कदाचित यह हो सकता है कि शिवभक्ति परंपरा में शिक्षितों, विद्वानों, पंडितों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी, इस वजह से ग्रंथों में यह संघर्ष कम दिखता है।  ये शिवभक्त सीधे-सीधे वैष्णवों से निपटने में यकीन रखते थे। जिसकी ओर एस एन दास गुप्ता आदि ने ध्यान दिलाया है। बसवन्ना दक्षिण के एक बड़े शिवभक्त और शैवमत के प्रचारक थे। उन्होंने अपने 'वचनों' में वर्णव्यवस्था का पुरजोर विरोध किया।  धार्मिक वह्याडम्बरों की निरर्थकता और पंडितों की स्वार्थपरता को दो टूक लिखा। परिणामस्वरूप वर्णव्यवस्था समर्थकों से उनका जबरदस्त संघर्ष हुआ। वैष्णवों के अतिरिक्त वर्णव्यवस्था के पोषक तत्वों ने उन्हें खूब सताया प्रतिक्रिया स्वरूप शैव समर्थकों ने अपने को संगठित करके विरोधियों से बदला लिया। 

             मिथिला में 1097 से 1324 .तक कर्णाटवंश (कर्नाटक) का शासन था।और यहाँ  शिवभक्ति की धारा सर्वाधिक मजबूत रही है। कर्णाटवंशी मिथिला के प्रथम नरेश नान्यदेव दाक्षिणात्य थे। लगभग सवा दो सौ साल तक  दक्षिण के कर्णाटवंशियों  का शासन मिथिला में रहा। कहने की आवश्यकता नहीं कि दक्षिण भारत में आलवार (वैष्णव) और नायनार (शिवभक्ति) भक्ति की धूम थी। हिंदी साहित्य के इतिहास में नायनार अर्थात शिवभक्ति के स्रोत के प्रति खामोशी  व्याप्त है| संभव है मिथिला में शैवभक्ति की धारा इन्हीं कर्णाटवंशियों   के साथ   आई  हो|कर्नाटक में शिवभक्ति की अत्यंत सुदीर्घ और मजबूत परंपरा रही हैअक्क  महादेवी से लेकर बसव  तक श्रेष्ठ शिवभक्त कर्नाटक में रहे हैंमिथिला के  शैवभक्त विद्यापति  का संबंध कर्णाटवंश तथा उसके तुरंत बाद के ओईनवार वंश के शासकों से बहुत गहरे रूप से जुड़ा हुआ था|  विद्यापति के बाद मिथिला में कई कवियों की शैवभक्ति की  कविताएं हमें देखने को मिलती हैं| मिथिला का इतिहास इस बात को रेखांकित करता है कि कर्णाटवंशी राजाओं ने मिथिला में कई शिव मंदिर बनवाए|

            दक्षिण भारत की शैवभक्ति परंपरा और मिथिला की शैवभक्ति परंपरा में कुछ विशेष समानताएं हैं तो कुछ भिन्नताएँ भी है| देश (स्थान की विविधता) काल (समय-अंतराल)  और परिस्थिति (राजनैतिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक) अदि  के कारण भक्ति के स्वरुप में भिन्नता स्वाभाविक है|पाँचवीं से दसवीं शताब्दी तक दक्षिण में ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव लगभग एक समान था|  यदि किसी एक धर्म का कुछ ज्यादा समय तक प्रभाव  रहा तो वह जैन धर्म का था|शैव साहित्य के गंभीर अध्येयता डॉ  यदुवंशी लिखते हैं, “इस समय से इस तीनों  धर्मों  में उत्कट  संघर्ष चला और अंत में शैवमत की विजय हुईइसी कारण पुराणेत्तरकाल  में दक्षिण भारत में शैवमत का जो सबसे प्रमुख लक्षण है, वह उसका संघर्षात्मक  स्वरुप और अन्य मतों के प्रति उसकी असहिष्णुता है| उत्तर भारत में जो मनोवृत्ति  केवल कट्टरपंथी शैवों  की थी दक्षिण में वही मनोवृत्ति सामान्य हो गई| और  शैवमत ने बौद्ध  और  जैनधर्म के विरुद्ध एक विकट संग्राम छेड़ दियाइस  संग्राम का अंत तभी हुआ जब दक्षिण में इन दोनों धर्मों का पूर्ण रुप से ह्रास हो  गया|  उस समय के समस्त शैव  साहित्य पर इस संघर्ष का प्रभाव पड़ा|[xiii]

            दक्षिण भारत के इतिहास से ज्ञात होता है  कि नायनार भक्त कवियों को जैन मतानुयायियों  का दमन झेलना पड़ा था|[xiv]  तिरुज्ञानसंबंधर प्रसिद्ध  नायनारों में एक थे| उनके बारे में प्रचलित है कि उनके प्रभाव को कम करने के लिए जैन धर्मावलंबियों ने उनके निवास स्थल को आग लगा दी| ज्ञानसंबंधरने शिव  की  आराधना कीइस आग का प्रभाव राजा पर पड़ाराजा के शरीर में आग  से तडपने की अनुभूति होने लगीजैन साधु राजा को स्वस्थ करने में असफल रहे|  रानी और मंत्री ने ज्ञानसंबंधर को कष्ट निवारण हेतु बुलाया|  राजा के समक्ष जैन आचार्य के साथ धर्म चर्चा चली|  धर्म-चर्चा  में जैनों  को पराजित करने के बाद ज्ञानसंबंधर राजा के उपचार में लगे|   ज्ञनसंबंधरने उक्त मौके पर यह पद गाकर शिव को सुनाया -

विभूति मंत्र है, देवों के लेप विभूति है

देह को सुंदर बनाने वाली विभूति है

स्तुति का साकार रुप विभूति है ...” शिव की महिमा गाते हुए राजा के शरीर पर विभूति का लेपन कियाराजा की जलन, पीड़ा  सब ठीक हो गई


                ज्ञानसंबंधर,सुंदरर, माणिक्कवाचकर और तिरुनावुक्करशर (अप्पर)चतुष्टय (नाल्वर)   शिवभक्त माने जाते हैंतिरेसठ नायनारों  में सर्वश्रेष्ठ  भक्तशिवभक्त ज्ञानसंबंधर के सामान ही तिरुनावुक्करशर  की रचनाओं में भी जैन धर्म के प्रति नकारात्मक दृष्टि का पता चलता है| आप पहले जैन धर्म के प्रचारक थे| जैन धर्मावलंबी इन्हें धर्मसेन के नाम से बुलाते थे| शैवधर्म मतानुसार इनकी बहन तिलकवती शैव  भक्त थी| वह चाहती थी कि ये शैव भक्त हो जाएँ|  कुछ चमत्कार से प्रभावित होकर (असहनीय शूलरोग की पीड़ा) आप  शिवभक्त हो गए| इनकी शिवभक्ति के कारण जैनाचार्यों  के आदेश पर अप्पर  को चूने की भट्टी  में डाल दिया गया| अप्पर  गदगद होकरश्वेत भस्मवाले आनादि भगवान के चरणों में गीत गाने लगे| शिव के महात्म्य  से अप्पर  की रक्षा हुईएक बार उन्हें भोजन में विष  भी दिया गया,  लेकिन प्रभु की कृपा से विष  का कोई प्रभाव नहीं पड़ा|  सुंदरर ने अपने  एक पद में लिखा है -

हमें अहित चाहनेवालों के प्रति कोईभय  नहीं है

            प्रभु मेरे हृदय  में सदा विद्यमान रहकर आनंद नृत्य करने वाले हैं|”[xv]शैवों पर जैनों  के अत्याचारों या  आपसी प्रतिद्वंदिता का वर्णन नायनार  भक्त कवियों की स्वयं रचनाओं में कदाचित नहीं, परवर्ती जीवनीकारों में अधिक मिलती हैं|  कदाचित इसलिए कि ना. सुंदरम संपादित शैव साहित्य संचयन (साहित्य अकादमी, नई दिल्ली)  में नायनार  शिवभक्तों के सौ से अधिक पद  संकलित है लेकिन उनमें  जैन या  बौद्ध धर्म के प्रति इस तरह की कटुतापूर्ण बात नहीं कही गई हैऐसा प्रतीत होता है कि परवर्ती जीवनीकारों  ने तत्कालीन राजनीतिक-धार्मिक परिस्थितियों को देखते हुए शैवभक्तों के जीवन में इस तरह की घटनाओं को जोड़ दिया हो|  संभव है उनकी कुछ बातें सही भी हों। लेकिन जितनी प्रमुखता से जैन मतानुयायियों का अत्याचार प्राचीन जीवनीकारों ने  दिखलाया है वह अगर पूर्णतः सही होता तो उनकी रचनाओं में भी उसका समावेश प्रमुखता से होतालेकिन ऐसा है नहीं|

            विद्यापति  की शिवभक्तिपरककविताओं में  कहीं कोई संघर्षात्मक  रूप नहीं है| बल्कि इसके विपरीत विद्यापति में समन्वय भावना की प्रबलता है। विद्यापति से पूर्व और उनके समय में नाथ और सिद्धों का प्रभाव मिथिला में जरूर थाकिंतु उनके आराध्य भी शिव थे, इसलिए विद्यापति की पदावली में जैन या बौद्ध धर्म की आलोचना नहीं मिलती। प्राचीनकाल में  भारत  में वैष्णव और शैव  का संघर्ष अवश्य था किंतु विद्यापति के पदों में वैष्णव और शैव धर्म में समन्वय की विराट चेष्टा देखने को मिलती है| उन्होंने तो सर्वाधिक पद राधा और कृष्ण के प्रेम और श्रृंगार-भाव  परही  लिखा है| विद्यापति के कुछ पदों में विष्णु एवं शिव की एकात्मकता के दर्शन होते हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने अपने एक पद में कहा है कि तुम ही विष्णु हो तुम ही शिव हो, तुम ही  कभी पीतवस्त्र धारण कर विष्णु बन जाते हो तो कभी बाघंबर पहनकर शिवधार्मिक असहिष्णुता के माहौल में दक्षिण की शिवभक्ति और मिथिला में विद्यापति की शिवभक्ति में धार्मिक सहिष्णुता  की भावना देखने को मिलती हैदोनों प्रदेश की शिवभक्ति में यह समानता रेखांकित करने वाली हैविद्यापति ने इस पद में शिवभक्ति और वैष्णवभक्ति का एक साथ महिमाशाली बना दिया है-

भल हर भल  हरि भल तुअकल|  खन पित वसन खानहिं बगछला||


            खन पंचानना खन भुज चारि| खन संकर खन देव मुरारि||[xvi] मिथिला में आज भी  कई धार्मिक व्यक्ति ऐसे मिल जाते थे जो भस्म त्रिपुंड (शिवभक्ति), श्रीखंड चन्दन (वैष्णव भक्ति) और सिन्दूर विन्दु (साक्तभक्ति) एक साथ धारण करते हैं| यह विलक्षण साम्यता दक्षिण (कर्नाटकसे महाराष्ट्र आये पुंडलीक की भक्ति पद्धति में देखने को मिलती है| महाराष्ट्र के पंढरीपुर आकर इन्होंने भीमा नदी के किनारे विष्णु और शिव के मिले-जुले रूप में विट्ठल भगवान की मूर्ति की प्रतिष्ठा की| ज्ञानदेव के भाई निवृत्तिनाथ ने इस तथ्य को बड़े गौरव के साथ उजागर किया है| पुंडलीक के भाग्य का इस चराचर जगत में कौन वर्णन कर सकता है जिसने विष्णु सहित शिव को लाकर पंढरीपुर में सबके दर्शनार्थ स्थापित कर दिया| इस बारकरी सम्प्रदाय के संतों में विष्णु और शिव के नाम में कोई भेद नहीं है|  ध्यान देने की बात यह है कि पंढरीपुर में विट्ठल अर्थात विष्णु भगवान की जो मूर्ति है उसके मस्तक पर शिव का लिंग बना हुआ है- रूपहला डालसू पाहता गोपवेषु

महिमा  वर्णिता महेश जेणे मस्तक वंदिला|[xvii]

 

            दक्षिण भारत की शिवभक्ति में भी वैष्णव भक्ति के प्रति विरोध या प्रतिद्वंदिता नहीं के बराबर दिखाई देतीहै|यह प्रतिद्वंद्विता या विरोध सैद्धांतिक और शास्त्रीय ग्रंथों में जितना उग्र रूप में दिखाई देता है उतना उग्र रूप में भक्ति कविता में नहीं| कई नायनार शिवभक्त  की कविता में ब्रह्मा, विष्णु और शिव के प्रति अभेद  दृष्टि अपनाई गई है|  महान शैवभक्त अप्पर ने अपने एक पद में  कहा है, “प्रभु (शिव) ब्रह्मा, विष्णु दोनों रूपों में प्रतिष्ठित हैं| वे रूद्र,महेश्वर, सदाशिव आदि  त्रिमूर्ति में सुशोभित हैं|”[xviii]मुख्य रूप से नयनार भक्तों ने शिव की ही वंदना की है किंतु वैष्णव आराध्यों  के प्रति वैमनस्य भाव नजर नहीं आता है| कई पदों में वैष्णव रूपों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की गई है| शिवभक्त तिरुमूलर भी ब्रह्मा, विष्णु और शिव में अभेद  तत्व देखते हैं- “परम ज्योति ही ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, शिव आदि  रूपों में परिणत हो जाते हैं|[xix]तिरुमूलर रचिततिरुमंदिरतमिल में शैव-सिद्धांत का प्रामाणिक ग्रंथ है| तिरुमूलर की यह रचना तमिल शैव-सिद्धांत का स्रोत ग्रंथ है और विश्व साहित्य में इसका अप्रतिम स्थान है|[xx]

            दक्षिण  (नायनार) और मिथिला (विद्यापति) की शैव-भावना में एक बड़ा फर्क यह है कि जहाँ  दक्षिण की शैव भक्ति में आक्रामकता के दर्शन होते हैं वही विद्यापति की पदावली में किसी के प्रति रुक्षता  या आक्रामकता नजर नहीं आती|  दक्षिण में शैव-भक्ति की लंबी अवधि रही है|इस लंबी अवधि में  ऐसे दौर  भी आए जब अन्य धार्मिक संगठनों के साथ उनका भयंकर संघर्ष हुआ। यह आक्रामकता इसी संघर्ष का परिणाम है। ध्यान देने की बात यह है कि यह आक्रामकता दक्षिणी की शैवभक्ति की प्रमुख प्रवृत्ति नहीं है, आंशिक प्रवृत्ति है|  और यह आंशिक प्रवृत्ति भी शैव भक्तों की रचनाओं में कम उनके जीवन की घटनाओं में जीवनीकारों (12वीं शताब्दी और उसके पूर्व के जीवनीकार भक्तकवि)ने अधिक दिखलाए हैं|

            चोल राजा की राजधानी करूवूर  में एरिपत  नामक एक शिवभक्त रहते थे| शिव भक्तों को कष्ट देने वालों को वे तत्काल दंडित करते थे| एक शिवभक्त महिला के पुष्प की डाली को राजा के हाथी ने अपने सूंड से उलीच दिया घटना की जानकारी मिलते ही एरिपत ने  उस हाथी का सूंड  अपने परसु  से काट दिया|[xxi]शरिभार एक कट्टर शिवभक्त थेयदि कोई शिव या शिव भक्तों के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता था तो वे तुरंत अपनी कटार से उसकी जीभ काट लेते थे|  इसलिए उनको देखकर सब कांपते थे|[xxii] कलर शिंगर पल्लव कुल के प्रसिद्ध राजा थे साथ ही अनन्य शिवभक्त भी| इनकी हिंसक प्रवृत्ति  अद्भुत है। वे पत्नी के साथ तिरुवारूर के आराध्यदेव बाल्मीकिनाथ के मंदिर की परिक्रमा की। रानी ने मंदिर की प्रथा से अनभिज्ञता के कारण वहाँ रखे पुष्पों को सूंघ लिया। इसे वहाँ  का एक भक्त ने देख लिया| इस अपराध के कारण उसने अविलंब रानी की नाक काट ली। शिवभक्त राजा को यह बात ज्ञात हुई तो उन्हें यह सजा अपराध के अनुसार कम मालूम हुई| इसलिए उन्होंने रानी का हाथ भी काट लिया।पेरियपुराणमप्रसिद्ध शिवभक्त शैक्किलार (12वीं सदी) की रचना है| इसे बारहवाँतिरुमुरे कहा जाता है| इसमें 8 वीं शती तक के 63 शिवभक्त जिन्हें नायन्मार कहा जाता है,की जीवनी है| इसमें  उनके जीवन, उनकी भक्ति त्याग तथा कठोर शिवभक्ति का विशद वर्णन है| पेरियपुराण में उन्होंने अपने को सभी शिवभक्तों का दास कहा है -

वैश्य कुल  में जन्मे
भक्तों की सेवा करने से इनकार करनेवाली
पत्नी का हाथ काटने वाले कलिक्कम्बर का दास हूँ|[xxiii]


            इस घटना से यह पता चलता है कि कलिक्कम्बर  ने अपनी पत्नी का हाथ महज इसलिए काट दिया था कि वह किसी विशेष शिवभक्त का पांव धोने से मना कर दी थी। विद्यापति या इनके परवर्ती मैथिली शिवभक्तों में इस तरह की हिंसक प्रवृत्ति कहीं भी दिखाई नहीं देती है| विद्यापति योद्धा अवश्य थे, उन्होंने कई राजनीतिक लड़ाइयां भी लड़ी थी किंतु भक्ति के क्षेत्र में उनकी शालीनता और विनीतभाव अद्भुत और विलक्षण है।

            दक्षिण भारत की शैवभक्ति और मिथिला की  शैवभक्ति में एक महत्वपूर्ण भिन्नता यह दिखती है कि दक्षिण की शैवभक्ति में चमत्कारप्रियता अधिक है किंतु मिथिला की शैवभक्ति में यह चमत्कारप्रियता के बराबर है। निश्चित रूप से यह भिन्नता समय के लंबे अंतराल के कारण है क्योंकि दक्षिण की शैवभक्ति अत्यंत आरंभिक दौर की है| चौथी  से  दसवीं  सदी तक| और मिथिला (विद्यापति) की भक्ति 15वीं सदी कीपूर्व के लोगों में चमत्कार के प्रति आकर्षण अधिक रहा हैशैव साहित्य के विद्वान्  डॉ  यदुवंशी की राय भी इसी तरह की है, “इनमें से कुछ जीवनवृत्त में कहा गया है कि उसने अपने प्रतिद्वंद्वियों से अधिक महान चमत्कार दिखाकर शैवधर्म को उत्कृष्टता का प्रमाण दिया था|  ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय जनसाधारण का ऐसे चमत्कारों  पर बड़ा विश्वास था और उन्हीं को वे  किसी भी मत की उत्कृष्टता अथवा हीनता की कसौटी मानते थे|”[xxiv]

            दक्षिणात्य शैवभक्ति की कृपा से कोई रोगी ठीक हो जाता है (ज्ञानसंबंधर ने किसी राजा को शिव का भस्म लगाकर रोग मुक्त कर दिया था और किसी मरे हुए व्यापारी को शिव के पद सुनाकर  जिला दिया थामहान शिवभक्त सुंदरर की आंख की ज्योति चली जाती है किंतु शिव की कृपा से वह ज्योति वापस  जाती है| आँख की ज्योति चले जाने के बाद  सुंदरर  ने अपनी वेदनामय पीड़ा को शिव  के समक्ष विलक्षण तरीके से रखा हैआँख  की ज्योति के बदले सहारे के लिए वह एक छड़ी की माँग शिव से करते हैं -

त्रिनेत्री प्रभु!
यदि मुझे, अपने प्रिय दास को
आँख  की ज्योति से वंचित करना ही आपका नियम है
तो कम से कम मेरे ऊपर यह कृपा करो
एक छड़ी  तो प्रदान करो[xxv]


            शिव की कृपा से सुंदरर को वैशाखी मिल जाती है|पहले एक आँख  की ज्योति वापस हुई और कुछ दिनों के बाद दूसरी आँख की|

            विद्यापति की पदावली में शिव की महिमा का खूब वर्णन हुआ है और यह भी कहा गया है कि शिव की भक्ति से सभी तरह के कष्टों से मुक्ति पाई जा सकती है| किंतु उनकी पदावली में चमत्कार नहीं है|  विद्यापति की जीवनी में चमत्कार भरने का प्रयास बाद में अवश्य किया गया है| उगना की अवधारणा और सुनसान जंगल में उगना के मार्फत से गंगाजल का सेवन विद्यापति के जीवन से जुड़े प्रमुख चमत्कार हैं| उनके अंतिम समय में गंगा का फूटकर उनके निकट चले आना भी रोचक चमत्कार है|  गंगा के प्रति विद्यापति की अनन्य भक्ति के कारण आमचित्त  में इस तरह के चमत्कारों को सफलतापूर्वक जगह  मिल गई होगी| विद्यापति अपने अंतिम समय में पूरी भक्तिभाव से गंगा  का स्मरण  करते हैं| अंतिम समय में गंगा का साथ-सानिध्य छूटने की पीड़ा आंसुओं के रूप में उनकी आंखों से बह रही है-

कत सुख सार पाओल तुअ तीरे||
भनइ विद्यापति समदओ तोही
अंत काल जनु बिसरह मोही||[xxvi]

             

            शैव साहित्य के बारे में एक आम धारणा यह है कि इसमें वेद-पुराण की तीखी आलोचना की गई है और ब्राह्मणों की  निंदा भी| लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है| कई प्राचीन शैवभक्तों (नायनार) की रचना में इस स्थापना के विपरीत वेद, पुराण की महिमा का गान किया गया है और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता भी बतायी गयी है|यहाँ  तक कि शिवजी को ब्राह्मणकुलोद्भव और   यज्ञोपवीतधारी बताया गया है|ऐसी ही प्रवृत्तियों को लक्षित करते हए इतिहासकार सतीशचन्द्र लिखते हैं,सर्वविदित है कि दक्षिण का भक्ति आन्दोलन दसवीं सदी में अपने उत्कर्ष पर पहुँच चूका था| इसके बाद, वह ढ़ी-धीरे पारंपरिक हिन्दू-धर्म की लीक पर चलने लगा क्योंकि उसने वर्णाश्रम व्यवस्था, ब्राह्मणों की उच्चता और उनके कर्मकाण्ड को स्वीकार कर लिया|”[xxvii]श्रेष्ठतम शिवभक्त अप्पर अपने एक पद में लिखते हैं-

प्रभु त्रिपुंडधारी

वे स्वर्णिमवर्णवाले हैं

वे यज्ञोपवीतधारी हैं

प्रभु वेदविज्ञ प्रभुचंद्रकला धारी हैं|[xxviii] एक पद में उन्होंने शिव कोप्रभु वेदपाठी  हैं’  भी कहा  है| अपने एक दूसरे पद में अप्पर ब्राह्मणों को वैदिक तरीके से शिव की वंदना करते देखते हैं -

सुंदर कुश को हाथ में लेकर वेदधर्म में विदित  मंत्रोच्चारण कर

मंगलाशासन करने वाले ब्राह्मण लोग प्रभु की स्तुति कर रहे हैं|[xxix]


एक दूसरे महत्वपूर्ण शिवभक्त ज्ञानसंबंधर अपनी एक रचना में कहते हैं-


वेद द्वारा वंदित प्रभु

नरैयूर में प्रतिष्ठित हैं|


नायनार तिरुमूलर की आस्था पूर्ण वैदिक है| उन्होंने अपनी रचनाओं में मुक्तकंठ से वेदों की महिमा का वर्णन किया है, साथ ही वेद  और आगम के सामंजस्य को दिखाने का प्रयत्न किया है-


वेदों में व्याप्त धर्म के अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है

धर्म का मूल तत्व वेद ही बतलाते हैं

पंडितों ने वेदों की महान ऋचाओं को गाया है

वेदविज्ञ आपसी कलह-द्वेष से बच जाते हैं

और संघर्ष में विजयी  हो मुक्ति पाते हैं[xxx]

 

            विद्यापति की पदावली में नायनारों की तरह वेदादि  की बात नहीं की गई है| कुछ पदों में विवाह की बेदी  पर स्त्रियों द्वारा शिव को यज्ञोपवीत धारण करवाने से संबंधित पद अवश्य मिलते हैं, लेकिन अन्यत्र नहींदूसरी तरफ  विद्यापति ने शैवमत  से संबंधित शास्त्रीय ग्रंथ की रचना भी की है, जिसमें शिवपूजा की विधि बताई गई है|   इसमें पौराणिक ग्रंथों का आश्रय लिया गया है|  विद्यापति साहित्य के विद्वान प्रोफेसर इंद्रकांत झा लिखते हैं, “ शैवसर्वस्वसारशिव विषयक धार्मिक निबंध है|  इस पुस्तक में शिव की पूजा,  अर्चना के संबद्ध विभिन्न पुराणों, उपपुराणों और अन्य  धार्मिक कृत्यपरक  ग्रंथों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया गया है|  मुख्य रूप से स्कंदपुराण, लिंगपुराण, कालिकापुराण, भविष्यपुराण,कर्म्मपुराण, शिवपुराण, शिवधर्म, शिवरहस्य, हरिवंश, पंचरात्र, रामायण एवं महाभारत के वचनों का आधार लिया गया है|[xxxi]

            दक्षिण की शिवभक्ति और विद्यापति के बहाने मिथिला की शिवभक्ति में एक समानता यह है कि दोनों भक्ति में वर्णाश्रम व्यवस्था कोख़ारिज किया गया  है| तात्पर्य यह कि शिवभक्ति का मैदान सभी वर्णों और लिंगों के लिए खुला हुआ है। 63 नायनारों में कई शूद्र और निम्न जाति के शिवभक्त भी हैं| इनमें कुम्हार (तिरुनीलकंठ),अहीर (आनाचर)  हरिजन (तिरुनालेप्पोवार और तिरुनीलकंठचालपाणर),  धोबी ( तिरुक्करिपु),   मछुआरा (अतियपत्तर)  तेली ( कालियर),  नेसर (बुनकर)   आदि जाति के लोग शामिल हैं| कदाचित इसी प्रकार की सूची और इनमें निम्न वर्ण के अनुयायियों के कारण हिंदी साहित्य में शैवभक्ति के प्रति उत्साह का अभाव दिखता  है|यद्दपि अष्टछाप में भी निम्न जाति के भक्त हैं लेकिनचौरासी वैष्णवन की वार्तासे साफ पता चलता है कि वहाँवर्णश्रेष्ठता की भावना व्यापक रूप से व्याप्त थी| इसके समानांतर तीसरी से आठवीं शताब्दी के नायनार भक्तों ने  वेद के प्रति आस्थावान होते हुए भी शैवभक्ति में वर्ण-समानता को ही तरजीह दी है|

             पेरियपुराणसे दक्षिण की शैवभक्ति में  जिन कुछ नई प्रवृत्तियों का शुभारंभ होता है, वह है उपरियुक्त वर्णित वर्णाश्रम का अस्वीकारडॉक्टर यदुवंशी इसकी पृष्ठभूमि की पड़ताल करते हुए लिखते हैं,  “संभवत वह द्रविड़ जाति की अपेक्षाकृत अधिक भावुकता और तज्जन्य  धार्मिक उत्साह का ही फल था कि उन्होंने पेरियपुराण भक्तिवाद के सिद्धांत से यह स्वाभाविक निष्कर्ष निकाला कि सच्चे भक्तों में वर्ण  और लिंग का कोई भेद  नहीं किया जा सकता ; क्योंकि सबसे सच्चे भक्त भगवान की दृष्टि में समान होते हैं। अतः कुछ अधिक उत्साहित शैवों  ने वर्ण  और लिंग के भेद को तोड़ डाला और सब सच्चे शैवों  की संपूर्ण क्षमता का प्रचार किया। एक निकृष्ट वर्ण के व्यक्ति को भी,  यदि वह सच्चा भक्त था, उसी सम्मान का अधिकारी था जो एक उच्च वर्ण के भक्तों को दिया जाता था।पेरियपुराणमें स्वयं नायनारों  के संबंध में कहा गया है कि इनमें  कुछ ब्राह्मण थे, कुछ वेल्लाल और कुछ तो आदिवासी जातियों के थे। एक आदि शैव  ब्राहमणसुंदरमूर्ति ने निम्न वर्ण के नायनारसेदमन पेरूमलके साथ भोजन करने में कोई संकोच नहीं किया था। एक और उच्च वर्ण के नायनार सुन्दरर  ने एक नर्तकी से विवाह किया था और उनको उतना ही पुनीत माना जाता था जितना श्रेष्ठ कुल के ब्राह्मणों को। इसके अतिरिक्त इसी पुराण में ब्राह्मण शिवभक्त नाभिनंद अफिगल  की कथा भी आती है, जिसको सब वर्णों के स्पर्श  से दूषित होने का संकोच हुआ और इसीलिए भगवान ने स्वयं उसकी भर्त्सना की| तब उसे स्वप्न में भगवान ने दर्शन दिए और कहा कि जिन लोगों का जन्म तिरुवारूर (उस निम्नवर्ण भक्त का जन्मस्थान ) में हुआ है वह सब के सब  शिव के गण हैं|”[xxxii]

            वर्णाश्रम समर्थित रामराज्य का यूटोपिया जहां 16वीं शताब्दी के वैष्णव भक्तकवि तुलसीदास का था वहीं समतापरक राज्य का यूटोपिया  12वीं शताब्दी के कर्नाटक के शिवभक्त बसवन्ना का थाबसव ने सभीवृत्तिऔर वर्ण  को एक समान महत्व देने की बात की। सभी व्यक्तियों को आपस में एक-दूसरे के बराबर समझा। उनके अनुसार वेदों को पढ़कर शास्त्री बनना उतना ही महत्व रखता है जितना कि कपड़ों को धोकर धोबी बनना। शौचगृह शुद्ध करने वाले की वृत्ति भी उतनी ही पवित्र है जितनी कि जंगम बनकर दीक्षा  देना| तभी तो उन्होंने लिखा

            लोहा गरमाने से लोहार बना, कपड़ा धोने से धोबी बना, बुनने से जुलाहा बना, वेद पढ़ने से ब्राह्मण बना, कामों से जन्मलेने वाला कोई है संसार में| बसव(12वीं शताब्दी) वर्णाश्रम के ध्रुव विरोधी थे| यही वह समय है जब कर्णाटवंश का शासन मिथिला में था| 14वीं शताब्दी में मिथिला में शिवभक्त विद्यापति हुए जिनकी  शिवभक्तिपरक कविता ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण पदावली में वर्णाश्रम  व्यवस्था संबंधी कोई बात नहीं कही गई है| महेशवाणी और नचारी में वर्णश्रेष्ठता  का बोध कहीं भी नजर नहीं आता है| उन्होंने अपनेशैवसर्वस्वसारनामक पुस्तक में लिखा है कि शैवभक्ति सभी वर्णों और लिंगों के लिए स्वीकार्य है|

             उपरियुक्त कुछ समानताओं और भिन्नताओं के अतिरिक्त दक्षिण और मिथिला की शैवभक्ति में ऐसी कुछ रोचक और महत्त्पूर्ण समानताएं हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि द्रविण देश की शिवभक्ति (नयनार) उत्तरभारत के हिंदी क्षेत्रों में फ़ैली|विद्यापति ने जिस तरह शिव  का भिखारी रूप और विचित्र वेशभूषा को केंद्र में रखकर शिवपदों की रचना की है, नायनार के कुछ शिवपदों में भी शिव का भिखारी तथा विचित्र वेशभूषावाले रूपों से साक्षात्कार होता है| सुप्रसिद्ध नायनार भक्त कवयित्री कारेक्काल अम्मेयार  अपने एक पद में लिखती हैं-

मेरे प्रिय आराध्य देव!

तुम भिक्षा ग्रहण कर जीवन यापन करते हो

पर यह बहुत बड़ा अपराध नहीं है

पर आभूषण के रूप में तुमने सर्प  को धारण किया है

यह सब के लिए भय का विषय है, आप सर्प  धारण करना छोड़ दें

तुम्हें भिक्षा देना चाहती हैं हमारी सुंदर स्त्रियाँ

पर वह भी तुम्हारे शरीर पर सर्प  को रेंगते  हुए देखकर डर रही हैं

इस कारण तुम्हारे पास आकर भिक्षा देने में अधिक डर रही हैं

कृपा करो प्रभु[xxxiii]


परणदेव नायनार की रचनाओं में भी शिव का भिक्षुक रूप सामने आता है| एक सुंदर स्त्री जब भिक्षा देने जाती है तो कामदेव उस पर आक्रमण कर देता है -

भिक्षापात्र हाथ में लेकर भिक्षा लेनेवाले

कपाल को लेकर भिक्षा लेनेवाले

भूतगणों के साथ घर-घर जाकरभवति भिक्षां देहिकहते हैं

जब मैंने भिक्षा डाली तो मनमथ ने अपने पांचों वाणों को मेरे ऊपर चला दिया है

हाय मैं क्या करूं[xxxiv]


            विद्यापति की पदावली में भी कई पद ऐसे हैं जिसमें शिव-विवाह प्रसंग में मैना आदि स्त्रियाँ शिव के गले में विषधर तथा उनके विचित्र रूप को देखकर डर जाती हैं| एक पद में तो स्वयं महादेव पार्वती से कहते हैं कि जब साँप और मृगछाल से जीवित हो उठे बाघ  को देखकर तुम  डरकर भाग ही जाओगी  तो फिर मेरा नृत्य कौन देखेगा-

सिरसं ससरत साँप पुहुमि लोटायत हे...मुंडमाल  टुटि  खसत, मसानी जागत है

तोहें गौरी जएबह पड़ाए, नाच के देखत हे||[xxxv]शिव के विचित्र रूप और उनके भिक्षु पेशे से पार्वती की माता मैनाअत्यंत दुखी होती हैंकारेक्काल नायनार के पद में भी कवियित्री शिव के भिक्षुक पेशे से दुखी नजर आती है|

            विद्यापति के बारे में प्रचलित है कि साक्षात महादेवउगना’(किशोर उम्र का)  उनका सेवक था। लोकोक्ति है कि विद्यापति की रचनाओं को स्वयं कवि के मुख  से सुनने के कारण शिव विद्यापति के यहां चाकर बनकर रहते थे। दक्षिण की शैवभक्ति में भी किसी किसी रूप में साक्षात शिव  सेवक या दूत के रूप में शिवभक्तों के यहाँ मिल जाते हैं। दक्षिण और मिथिला की शिवभक्ति मेंयह विलक्षण साम्यता है| कालिकम्बर नायनार  के घर कुछ शिवभक्त भोजन पर आमंत्रित होते हैं। नियमानुसार पति-पत्नी सभी भक्तों का चरण पखारते हैं। पत्नी की नजर एक शिवभक्त पर जाती है तो वह अकचका जाती है क्योंकि वह उनका पूर्व में नौकर था। पत्नी सोच में पड़ गई कि नौकर का पाँव  पखारे या नहीं। कालिकंबर ने यह देखकर पत्नी को चरण सेवा से वंचित कर दिया। पत्नी की वजह से ही शिवरूप उगना विद्यापति को छोड़कर चले गए थेविद्यापति को किसी जंगल में प्यास लगी तो महादेव वेशधारी उगना ने उन्हें अपने जटा से गंगाजल निकालकर पिलाया था परिणामस्वरुप विद्यापति की विकट  प्यास बुझी थी|दक्षिण के महाशिवभक्त सुंदरर एक बार प्रभुदर्शन-यात्रा में भूख से पीड़ित हो गए। शिव ने भक्त की भूख मिटाने के लिए ब्राह्मण वेश धारण कर उनसे कहाआप भूख से पीड़ित हैं, आपकी भूख मिटाने के लिए अभी जाकर भिक्षा ले आता हूँ|[xxxvi]जिस तरह उगना दूर जाकर जटा से गंगाजल लेकर आया उसी प्रकार वह ब्राह्मण वेशधारी शिव  अपने भक्तके लिए भोजन लेकर जाते हैं आकर अपने भक्त से कहाभरपेट खाइए’| कहकर अंतर्ध्यान हो गए|[xxxvii] अंतर सिर्फ़ इतना है कि विद्यापति को बहुत  जोर की प्यास लगती है और सुन्दरर को भूख| कुछ समय के लिए साक्षात शिव भक्त सुंदरर के नौकर भी बने| उनकी पत्नी किसी बात से रुष्ट थी| सुंदरर ने परवैयार के प्रतिष्ठित प्रभु वाल्मीकिनाथ प्रभु को अपनी पत्नी परवै के पास दूत के रूप में भेजा|प्रभु ने इस दायित्व को स्वीकार कर लियायह बात मालूम होते हैं कि प्रभु को नौकर के रूप में सुंदरर ने दूत  बनाकर भेजा है अन्य शिवभक्त क्रुद्ध  हो गए। बाद में उन शिवभक्तों को अपने क्रोध पर अफसोस हुआ क्योंकि स्वप्न में उनलोगों ने देखा कि सुन्दरर की चाकरी से शिव अत्यंत प्रसन्न हैं|[xxxviii]संभव है शिव का सेवक रूप दक्षिण के  भक्तों के साथ मिथिला तक पहुँची हो और  विद्यापति को शिव का यह रूप आकर्षित कर गया हो| और उन्होंने अपनी मौलिक कल्पना से अपने सेवक उगना में शिव का रूप देखा हो|   उगना के चले जाने के बाद विद्यापति की विरहावस्था अत्यंत कारुणिक है|अत्यंत दुखी होकर वे  उगना की खोज करते हैं -

उगना रे मोर कतय गेला| कतय गेला शिव किदहु भेला|


            मिथिला  ही नहीं बल्कि संपूर्ण उत्तर भारत में शिवभक्ति की उत्कट आकांक्षानमः शिवायमें अभिव्यक्त होती है। यह मंत्र की तरफ जपा  जाता है। यहनमः शिवायदक्षिण की शिवभक्ति की उपज है, क्योंकि  चौथी से आठवीं शताब्दी के नायनार  शिवभक्तों ने सर्वप्रथमनमः शिवायकी महिमा गाई है। ना. सुंदरम ने अपनी पुस्तक शैव साहित्य संचयनमें लिखा है कि सभी शिवभक्तों नेनमः शिवायपंचाक्षर के महत्व का पालन किया हैसोलह वर्ष की आयु में जीवन के अंतिम समय में ज्ञानसंबंधर विवाह मंडप में थे| उस समय द्रवीभूत होकर आनंदानुभूति  में ज्ञानसंबंधर ने गाया -

जब भक्त नमः शिवाय का जाप करते हैं

तो सत्य मार्ग प्रशस्त हो जाता है

चारों वेदों का सार तत्व इस नमः शिवाय मंत्र में है।

सरसिजा  ब्रह्मा ने इस नमः शिवाय का गायन किया|

ब्रह्मा, विष्णु दोनों के लिए जब प्रभु अगोचर रहे

इस नमः शिवाय मंत्र का गान किया

जिसके कंठ में विष स्थित है

जिस प्रभु ने देवताओं की प्रार्थना पर

विष  का अमृतसम पान किया वह नमः शिवाय है|[xxxix]

 

            शिव साहित्य बारह भागों में विभाजित है। यह बारह तिरुमुरै कहलाता है। इस विभाजन में तिरुमूलर रचित तिरुमंदिर का स्थान दसवाँ  है। तिरु मंदिर को  भक्त कवि तिरुमूलर ने नौ अध्यायों में विभक्त किया है, जिसे उन्होंने मंत्र की संज्ञा दी है। नौवां  मंत्रनमः शिवायके महात्म्य का विस्तार वर्णन करता है। इस पंचाक्षर की महिमा बताते हुए वे कहते हैं किशिवाय नमः कहते हुए अपने विचारों को केंद्रित कीजिए। सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएँगे|‘शिवाय नमःअक्षर निस्संदेह  शिवशक्ति,जीव, मल और माया के सूचक हैं| उनका जाप करते ही पाँच पाश और मल अपने आप नष्ट हो जाएंगेजबनमः शिवायजपकर शिव और जीव एक हो जाते हैं तो क्लेश  पैदा करने वाले पाश दूर हो जाते हैं|”[xl]तात्पर्य है कि उत्तर भारत की शिव भक्ति मेंनमः शिवायकहीं कहीं दक्षिण की शैवभक्ति से आई हुई प्रतीत होती  है|

         मिथिलांचलमेंप्रातीगाने की प्रथा भी कर्नाटवंश से आयातीत प्रतीत होती है|मिथिला के गाँव में आज भी सुबह-सुबह वृद्ध-वृद्धा  और लड़कियां विद्यापति की महेशवाणी-नचारी को प्राती  के रूप में गाते हैं। दक्षिण की भक्ति मेंप्रभातीका विशेष महत्व है| सर्वाधिक महत्वपूर्ण चार दक्षिण के शिवभक्तों में एक माणिक्कवाचकर के गीत  प्रभाती के रूप में अत्यंत लोकप्रिय रहे हैं। प्रभाती गीतों का उनकी रचनातिरूवाचकममें  विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। इसे तमिल प्रदेश में  मार्गशीर्ष महीने में सभी लोग श्रद्धा भक्ति के साथ प्रातःकाल गाते हैं। इसमें प्रातः शिव को जगाने का उपक्रम किया जाता है| मिथिलांचल में भक्ति के अतिरिक्त विद्यापति के श्रृंगारिक  पदों को नए दूल्हे-दुल्हन को (कोहबर में)जगाने के लिए भी प्रभाती गाए जाते हैं|दक्षिणात्य शैवमतानुसार प्रभाती गीतों के पदों में सत्य का आह्वान होता  है| प्रथम जगी कन्या सखियों को जगाती हैं| आस्थावान लड़कियाँ प्रातःकाल पौ फटने के पूर्व जागकर जलाशय में स्नान कर आराध्य देव की स्तुति करती हैं| एक सखी दूसरी सखी को जगाते हुए कहती हैं -

हम आदि अंतहीन दिव्य ज्योति की स्तुति गाती जा रही हैं

तीक्ष्ण नयनोंवाली सखी इसे श्रवण करने के बाद भी तुम सोती रहोगी?

क्या तुम्हारे कान बहरे हैं...

उस मधुर गीत को सुनकर कोई (सखी) भावावेष में सिसक-सिसक रो पड़ी (मूर्छित अवस्था  में)शैय्या  पर अस्तव्यस्त पड़ी है!

यह कैसी दशा है!

क्या करूँ सखी...[xli]


            दक्षिणा और मिथिला की शिवभक्ति की एक अद्भुत समानता यह भी है कि दक्षिण के कुछ शैवपदों को विवाह के अवसर पर गाया जाता है और मिथिला में तो विद्यापति की पदावली विवाह में गाए ही जाते हैं|  ‘तिरुप्पल्लाडू’  एक प्रकार का स्रोत गीत है| ना. सुंदरम के अनुसारइंडोनेशिया जैसे विदेशों में बसे तमिल भक्त विवाहोत्सव  आदि  समयो में इन गीतों को गाते हैं|”[xlii]

            विद्यापति ने महादेव-पार्वती के अभावमय जीवन के बहाने तदयुगीन मिथिला के अभाव को दर्शाया है| महादेव बहुत बड़े भिखारी हैं-‘जगत भिखारी’| प्रतिदिन भीख माँग कर लाते हैं- ‘निते मांयों जायो भीखिआनओ माँगि’| दो-चार  तामा (छोटा बर्तन) अन्न कहीं से  शिव माँग लाते हैं- ‘माँगि-चाँगि लयलाह माई तामा|’दक्षिण प्रदेश की शैवभक्ति में भी अभाव और दरिद्रता का अत्यंत मार्मिक  वर्णन मिलता है| वैष्णव भक्ति में कदाचित इस अभाव का वर्णन नहीं है। शिवभक्त सुंदरर का परिवार दाने-दाने का मोहताज है| वे शिव से प्रार्थना करते हैं कि यदि धान उपलब्ध नहीं हुआ तो उनकी पत्नी मर जाएगी| येन-केन प्रकारेण  किसी ने धान उपलब्ध करवाया भी तो उसे लाने वाला कोई नहीं है| सुंदरर अपने शिव प्रभु से ही निवेदन करते हैं कि वह धान घर तक पहुँचाने की व्यवस्था करे दें-

तिरुकोकली में प्रतिष्ठित प्रभु!

बरछे सम आँखोंवाली मेरी भार्या  धान समय पर पाकर

जीवन व्यतीत करने में असमर्थ है| दुखी है|

दुख निवारण हेतु कुडैयूर में धान पाया

धान को उसके पास पहुँचाने के लिए मेरे पास आदमी नहीं है

मैं तो सदा तुम्हारा नाम स्मरण करता रहता हूँ

मैं किससे प्रार्थना करूँ

उसके पास धन पहुँचाने के लिए किसी को आज्ञा दो[xliii]

एक-दूसरे पद में वे कहते हैं-

काजल लगी आंखों वाली मेरी पत्नी परवै

अन्न के अभाव में तड़प रही है

उसका दुख निवारण कीजिए

मेरे दुख दूर करने हेतु स्वर्ण प्रदान कीजिए[xliv]


                विद्यापति की पदावली में शिव का एक रूप किसान का भी है-‘ नहि बुढ़बा जगत किसाने| एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पदावली में पार्वती भिक्षाटन छोड़कर खेती-किसानी करने के लिए शिव पर जोर डालती हैंकरिसी करिए मन लाइये’| भक्तिकालीन कविता में शिव का किसान रूप कवि का कृषि-कर्म के प्रति सम्मान-भाव का सूचक है| दक्षिण के नायनार भक्तों की रचना में भी कहीं-कहीं शिव का किसान रूप झलक जाता है| दसवाँ तिरुमुरै में एक पद है जिसमें साक्षात शिव फसल की रखवाली करने कीजिम्मेदारी स्वीकार करते हैं-

किसान ने हल चलाया और आसमान से वर्षा हुई,

किसान के हल चलाने से फसल हरित हुई.

किसान ने फिर अपनी पत्नी को फसल की देखभाल

रखवाली और सुरक्षा की जिमीदारी डाल दी

प्रभु ने उनकी जिमीदारी ले ली और किसान हमेशा के लिए

आगे हल चलाना छोड़ दिया|[xlv]

 

            शिव और पार्वती का प्रेम अद्भुत और विलक्षण रहा है| विवाह पूर्व प्रेम का वर्णन दक्षिण और मिथिला की शैवभक्ति में लगभग एक समान की गई  है|  इन दोनों परंपराओं में पार्वती अपनी माँ से ही इस पूर्वराग का इजहार करती है| दक्षिणा के श्रेष्ठ शिवभक्त मणिक्कवाचकर केतिरुवाचकममें पार्वती अपनी माँ  से कहती है उस सर्पधारी शिव  को देखकर पता नहीं क्यों मेरा मन उसके लिए तड़पने लगता है-

माँ वे फण फैलाकर खेलनेवाले सर्प मणिधारी हैं

व्याघ्र चर्मधार, पूरे शरीर में पवित्र भस्म धारण करनेवाला

वेषधारी के सदृश दीखते हैं|

माँ, मैं यह समझ ही नहीं पा रही हूँ कि

उस वेषधारी को देखकर क्यों मेरा मन उसके प्रति तरसता है|[xlvi]


            विद्यापति की गौरी (पार्वती) अपनी माँ से शिव के प्रथम दर्शन की बात कहती है। वह कहती है कि  मेरे प्रति अनुरक्त शिव  की  आंखेंटकटकी लगाकर मेरी ओर  ताकती रहती हैं

माँ कहह पुछों तोही

ओहि तपोवन तापसि भेटल कुसुम तोरए देल मोही

आंजलि भरि कुसुम तोड़ल जे जत अछल जाँहाँ[xlvii]


                विद्यापति की गौरी की दशा प्रेम के पूर्वराग में ऐसी हो जाती है कि शिव को देखते ही अपने वश में नहीं रह पाती|   भखारीवेश में शिव आये हुए हैं और पार्वती भिक्षा देने निकलती है| भिखारी वेशधारी  शिव से नजर मिलते ही पार्वती मूर्छित हो जाती है| दक्षिण के शिवभक्त पुरुषोत्तम नांबि  नायिका विरह में मूर्छित होने लगती है इस मूर्छा में उसके हाथ के कंगन ढीले होने लगते हैं-

आपके दासों  के प्रभु!

आपके विरह में पीड़ित स्त्रियाँ  आगे जीवित ना रहेंगी|

आप माता से बढ़कर कृपा प्रदान करने वाले हो

लेकिन स्त्रियों की विरह दशा पर ध्यान नहीं देते हो

हमें श्रेयस पदान करने वाले प्रभु!

भयंकर बघचर्म  को धारण करने वाले प्रभु!

तुम्हारे नूपुरयुक्त पादों को उछलते-उछलते चलते समय

तुमसे प्रेमाधिक्य  में यह नायिका विरह से पीड़ित होकर तड़प रही है

विरह पीड़ित इस नायिका के हाथ के कंकण

ढीले होकर गिर पड़े हैं

क्या कहूँ वह चूड़ियों से वंचित हो गई|[xlviii]


            विद्यापति की गौरी की प्रेमपूर्व राग में ऐसी दशा हो जाती है की सखियां कहती हैं, इस गौरी को उसी भिखारी शिव के हवाले कर दो| पार्वती इसी शिव की  होकर रहेगी-

आजे अकामिक आयल भेखधारी|

भिषि भुगुति लए चललि कुमारी||...

उमा सखि संगे, निकहि अछ्ली

ओहि जोगिया देषि मुरुछि पलली||...

केओ बोल जोगिआही देहे बहु आनी|

हुनिकिओ भए बरु जिबिओ भवानी||[xlix]

 

            दक्षिण की शिवभक्ति की एक विशेषता कुछ कवियों की कविताओं में ख़ास तरह की निर्भीकता के रूप में नजर आती है। उनका मानना है कि वास्तविक भक्तों को दुनिया की कोई ताकत वह राजा  हो या रोगी डरा नहीं सकतीऐसे भक्त अपने प्रभु के अतिरिक्त किसी का दासत्व  स्वीकार नहीं करते तिरुनावुक्करशर अपने पद में कहते हैं-

हम किसी के दास नहीं हैं,

यहाँ तक कि मृत्यु का भी भय नहीं है,

नरक में हम यंत्रणा नहीं भोगेंगे,

हम सदा के लिए रोगों से मुक्त हो गए हैं,

हम किसी के आगे शीश नहीं झुकाएँगे,

रोग हमारा क्या करेगा?

हमारा लक्ष्य तो परम आनंद को प्राप्त करना है,

दुख हमारे लिए कुछ नहीं है,

हम किसी के दास नहीं, हमें मृत्यु का भय नहीं है|[l]


            सुंदरर अपने कुछ पदों में कवियों द्वारा मिथ्यावादियों की तारीफ करने की प्रवृत्ति की तीखी आलोचना करते हैं| सत्तामुखापेक्षी मिथ्यावादियों की अनावश्यक प्रशंसा उन्हें रास नहीं आती| दरअसल दक्षिण की शैवभक्ति में कई नायनार राजा (अय्यडिगल काडवरकोन, मेयप्पोरुलार, चेरमान पेरुमल, कुटरुवर,कलर शिंगर, निन्रसीर नेडूमारन) सेनापति (एयरकोन कलिक्कामर) मंत्री रहे हैं और कुछ राजकुल से संबंधित भी| इस प्रकार सत्ता के साथ दक्षिण शैवभक्ति का अन्योन्याश्रित संबंध रहा हैइन्हीं संबंधों को देखकर कदाचित सुंदरर ने इन सत्ता प्रशंसकों को मिथ्यावादी  कहा होगा-

प्रिय भक्तों!

भले ही आप उनकी प्रशंसा करें

उनके निकट रहकर सेवा करें

उनसे मिल-जुल कर रहने का प्रयत्न करें,

परंतु मिथ्यावादी आपको कुछ भी नहीं देंगे|

इन मिथ्यावादियों की प्रशंसा मत कीजिए

कविगण! मेरे पुकलूर प्रतिष्ठित प्रभु का गुणगान कीजिए|[li]


          विद्यापति के भी कई राजाओं के दरबार में अत्यंत प्रतिष्ठित पदों पर रहे, किंतु उनकी पदावली में नामोच्चार  के अतिरिक्तमिथ्यावादियोंकी तारीफ नहीं की गई है। बल्कि उनकी पदावली में राजसत्ता और राजतंत्र की नोटिस ही नहीं ली गई है| सुंदरर को कवियों की जी-हुजूरी ना-काबिले-बर्दाश्त है | उन्होंने जिस लहजे में झूठी प्रशंसा करनेवाले कवियों को लताड़ा है उससे यह चौथी -आठवीं शताब्दी की कविता आधुनिककाल की लगती है-

कविगण!

भले ही आप असुंदर व्यक्ति को सुंदर कहें,

बूढ़े को कुमार कहें,

अकुलीन व्यक्ति को उच्च कुलवाले कहें,

उनकी झूठी प्रशस्ति  करें, तो भी आपको कुछ नहीं मिलेगा

इसलिए खेतों से घिरे, वाटिकाओं में सुगंधित कम से आवृत

तिरुप्पुकलूर में प्रतिष्ठित प्रभु का

गुणगान कीजिए|[lii]

 

            भक्त और भगवान के बीच का संबंध अव्याख्येय होता है| अपने आराध्य के प्रति पूज्यभाव ही नहीं भक्त की  नाराजगी भी देखते बनती है। यह नाराजगी बच्चों की तरह भगवान के साथकुट्टीतक चली जाती है। सुंदररकी जब आंख की ज्योति चली जाती है तो वे इसका दोष प्रभु को ही देते हैं| घोर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहते हैं-

मैं केवल गिरवी नहीं

हाँ, आप चाहें तो मुझे बेच  सकते हैं

स्वयं मैं  स्वेच्छा से आपका दास बना हूँ

मैंने कोई अपराध नहीं किया है|

निर्दयता के साथ आपने मुझे अंधा बना दिया

मेरे प्रियतम! आपने मेरी आंखों की ज्योति अपहरण कर ली|

इससे आप ही दोषी बने|

मुझ पर दया करके दाहिनी आंख की ज्योति नहीं लौटाई

तो कोई बात नहीं है,

जाओ आप दीर्घायु हों|[liii]


                विद्यापति की पदावली में शिव का रूप अनार्य  और आदिवासी का है| गौर से देखने पर शिव का यह रूप वैष्णव ईश्वर के अभिजात्य रूप का विलोम रचता है| सुंदरर अपने एक पद में बंजारन स्त्रियों का वर्णन और उस पूरे  परिवेश का चित्रण करते हैं, जहाँ शिव विराजमान हैं| आदिवासी परिवेश में शिव की उपस्थिति अत्यंत मोहक दिखती है-

सुंदर आंखोंवाली तथा मितभाषी बंजारिनस्त्रियाँ

फसलों की रखवाली के समय आयो-आयो कहकर

तोतो को ढेलों से भगाती  हैं|

तब भी तोतेभयभीत होकर भाग जाते हैं|

उनके उड़ने की ध्वनि  सर्वत्र गूंजती  है,

ऐसे दृश्यों  से सुशोभित

हमारे  शिव का श्री शैलम पहाड़ है|[liv]

 

                इस प्रकार हम देखते हैं कि दक्षिण की शैवभक्ति  और उत्तर भारत विशेषकर मिथिला की शैवभक्ति में कुछ भिन्नताएँ हैं तो कई विलक्षण समानताएँ भी हैं| मिथिला में लम्बे समय तक  कर्नाटवंश का शासन रहा| कर्नाट की शैवभक्ति अलग-अलग तरीके से कर्नाटवंशियों के साथ मिथिला भी आयी होगी| यहाँ की भक्ति के साथ उनका समन्वय- सामंजस्य हुआ होगा| इसलिए जब कहा  जाता है कि भक्ति की धारा दक्षिण से उत्तर आयी तो इसमें संदेह की बहुत गंजाइश नहीं बनती है कि दक्षिण भारत की शैवभक्ति अपने थोड़े-बहुत बदले स्वरूप  के साथ सम्पूर्ण उत्तर भारत, विशेषकर मिथिला (विद्यापति) में विकसित हुई हो|


सन्दर्भ :

 [i]हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास-रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1986,  29 वां संस्करणपृष्ठ 29
[ii]हिंदी साहित्य का आदिकाल-हजारी प्रसाद द्विवेदी, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2000, पृष्ठ-63
[iii]नाथ संप्रदाय-हजारी प्रसाद द्विवेदीहिंदुस्तान अकैडमी, 1950, पृष्ठ-1
[iv]Nirgunna bhakti is personal devotion offered to an impersonal attributeless godhead (Nirguna) , without ‘body, parts of passion; though he may bear a name like Siva, he does not have a mythology, he is not the Siva of mythology. By and large the Virasaiva saints are Nirguna bhakts, relating personally and passionatelyto the Infinite Absolute, Saguna bhakti is bhakti for a particular god with attributes(saguna),Like Krishna.” Speaking Of S’iva- A. K Ramanujan, Penguin Books, 1973, Reprinted 1985, Page-35
[v]नाथ संप्रदाय-हजारी प्रसाद द्विवेदीहिंदुस्तान अकैडमी, 1950,पृष्ठ-
[vi]हिंदी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कमल प्रकाशन, संस्करण- नवीनतमपृष्ठ-25
[vii]उपर्युक्त पृष्ठ 26
[viii]नाथ संप्रदाय-हजारी प्रसाद द्विवेदीहिंदुस्तान अकैडमी, 1950, पृष्ठ-10
[ix]हिंदी साहित्य का इतिहास-आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कमल प्रकाशन, संस्करण-नवीनतम, पृष्ठ
[x]चौरासी वैष्णवन की वार्ता- संपादक-ओमप्रकाश सिंह / दीप शिखा सिंपुस्तक प्रतिष्ठान, नई दिल्ली,  2018 पृष्ठ-195
[xi]मध्यकालीन सत्ता विमर्श का एक पहलू-बजरंग बिहारी तिवारी, तद्भव, अंक- अप्रैल 2003, पृष्ठ-82
[xii]भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग 5, एसएन दासगुप्ता, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, 1989 पृष्ठ 424
[xiii]शैवमत मत- डॉ यदुवंशी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, संस्करण 1998 पृष्ठ 147
[xiv]उपरियुक्त, पृष्ठ 147
[xv]शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 55
[xvi]विद्यापति की पदावली, संपादक रामवृक्ष बेनीपुरी, पर संख्या 131पुस्तक भंडार,  पटना पृष्ठ-131
[xvii]भक्ति आन्दोलन और भक्ति काव्य- शिवकुमार मिश्र, लोकभारती प्रकाशन,  संस्करण 2010,  पृष्ठ-31-32
[xviii]शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 57
[xix]उपरियुक्त पृष्ठ- 146
[xx]उपर्युक्त पृष्ठ 144
[xxi]उपर्युक्त 187
[xxii]उपर्युक्त पृष्ठ 202
[xxiii]उपर्युक्त पृष्ठ 182
[xxiv]शैवमत मत- डॉ यदुवंशी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, संस्करण 1998 पृष्ठ 149
[xxv]शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 79
[xxvi]गीत विद्यापति- डॉ महेन्द्रनाथ दुबे, साहित्य सहकार प्रकाशन, संस्करण 2011, पृष्ठ 727
[xxvii]उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के उदय कीऐतिहासिक  पृष्ठभूमि-सतीशचन्द्र, पुस्तक-भक्ति आन्दोलन के सामाजिक आधार, संपादक-गोपेश्वर सिंह, जगत राम एंड संस, संस्करण 2018, पृष्ठ 69
[xxviii]शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 57
[xxix]उपर्युक्त पृष्ठ 66
[xxx]दसवाँ तिरुमुरे पद-11, उद्धृत-उपर्युक्त पृष्ठ 153
[xxxi]विद्यापति साहित्यालोचन- प्रोफेसर इंद्रकांत झा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, 2020पृष्ठ 293
[xxxii]शैवमत मत- डॉ यदुवंशी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, संस्करण 1998 पृष्ठ 151
[xxxiii]111वाँ तिरुमुरे, पद 100, उद्धृत-शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 169
[xxxiv]ग्यारहवाँ तिरुमुरै पद 766,उद्धृत-शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010,पृष्ठ 174-175
[xxxv]विद्यापति पदावली, संपादक-रामवृक्ष बेनीपुरी, पुस्तक भंडार,  पटना पृष्ठ 135
[xxxvi]शैव साहित्य संचयन,संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 97
[xxxvii]उपरियुक्त, पृष्ठ 98
[xxxviii]उपरियुक्त, पृष्ठ 80
[xxxix]उपरियुक्त, पृष्ठ 23
[xl]उपरियुक्त,पृष्ठ 150
[xli]उपरियुक्त,पृष्ठ 116-117
[xlii]उद्धृत-शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 136
[xliii]तिरुक्कोलिलि, पद संख्या 20/199,उद्धृत-शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010पृष्ठ 77
[xliv]उपरियुक्त,पृष्ठ 78
[xlv]दसवाँ तिरमुरै, पद 1619,उद्धृत-शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010 पृष्ठ 160
[xlvi]तिरुवाचकम, माता दशक, उद्धृत,शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010 पृष्ठ 124
[xlvii]मैथिली शैव साहित्य-डॉ रामदेव झा, मैथिली अकादमी, पटना-1979, पृष्ठ 41
[xlviii]नौवां तिरुमुरै, पद 264, उद्धृत,शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010 पृष्ठ 142
[xlix]मैथिली शैव साहित्य-डॉ रामदेव झा, मैथिली अकादमी, पटना-1979, पृष्ठ 43
[l]शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010पृष्ठ 44
[li]तिरुप्पुकलूर, पद संख्या 34/340, उद्धृत,शैव साहित्य संचयन, संपादक ना. सुन्दरम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2010
[lii]सप्तम तिरुमुरै, तिरुप्पुकलूर,  पद345उद्धृत उपरियुक्त,पृष्ठ 96
[liii]तिरुवारूर, पद संख्या 95/965, उद्धृत उपरियुक्त,पृष्ठ 79
[liv]सप्तम तिरुमुरै, तिरुप्परुप्पदम, पद 805, उद्धृत उपरियुक्त,पृष्ठ 104


- कमलानंद झा

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
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