शोध आलेख : भारतीय संस्कृति की चिंता-धारा और संत रज्जब का काव्य / संत कीनाराम त्रिपाठी


भारतीय संस्कृति की चिंता-धारा और संत रज्जब का काव्य
 - संत कीनाराम त्रिपाठी

शोध सार : यह आलेख मध्यकालीन निर्गुण धारा के अल्पख्यात संत रज्जब के सांस्कृतिक अवदान को रेखांकित करता है। संत रज्जब दादूपंथ के एक महत्वपूर्ण संत थे, जिन्होंने केवल विपुल साहित्य की रचना की; बल्कि अपने से पूर्ववर्ती संतों की बानियों का संपादन भी किया। इस तरह वे हिन्दी के पहले संपादक भी हैं। औपचारिक शिक्षण होते हुए भी उनकी रचनाओं में मनुष्यमात्र के प्रति चिंता और काव्य-सुलभ गांभीर्य का निदर्शन होता है। सदियों के अंतराल के बावजूद उनका काव्य आज भी मनुष्यता का मार्गदर्शन करने में समर्थ है और इसी दृष्टि से उनका पुनर्पाठ आवश्यक है।

बीज शब्द : भारतीय संस्कृति, मूल्य, भक्ति, मध्यकाल, परंपरा, ज्ञान, अद्वैत

मूल आलेख : राबर्तो कलासो अपनी पुस्तक ऑडोर का आरम्भ करते हुए यह लिखते हैं कि ज्ञान प्राप्त करने की अनिवार्य आवश्यकता है- तप। टू नो, वन मस्ट बर्न। यह अकारण नहीं है कि भारतीय संस्कृति के मूल में तप का अधिष्ठान सुनिश्चित किया गया है1. अन्यथा प्राप्त सम्पूर्ण ज्ञान राशि निरर्थक हो जाती है, क्योंकि अनायास एवं तपहीन होने से ज्ञान भंगुरता को प्राप्त होता है। इसलिए तैत्तिरीय श्रुतितपश्च स्वाध्यायप्रवचने 2. के द्वारा तप के अनन्तर ही प्रवचन का उपदेश करती है, क्योंकि तपरहित वाणी भी निष्प्रभ होती है और मिथ्याचरण को जन्म देती है। इसलिए जब भारतीय संस्कृति को आर्ष-चिन्तन की निर्मिति के रूप में देखा जाता है तो इसका आशय यही है कि इस संस्कृति के निर्माण में उन आध्यात्मिक मूल्यों का दाय है जिन्हें इस संस्कृति के उन्नायक महापुरुषों ने अपने आचरण द्वारा सिद्ध किया था। आचरणसिद्ध होने से ही उनकी वाणी समयांतराल को अतिक्रांत कर प्रत्येक समय में दिग्भ्रांत मनुष्यता को समुचित मार्ग का निदर्शन कराने में समर्थ रही है। जब-जब मनुष्यता पर संकट आता है, आधारभूत मानवीय मूल्य तिरस्कृत होने लगते हैं, धर्म के अभिभव से आचरण एवं मूल्य के मध्य द्वैतभित्ति खड़ी होने लगती है तब भगवत्ता स्वयं को विविध रूपों में अभिव्यक्त करती है और इस द्वैत का निरसन करती है।3. मध्यकाल ऐसे ही संकट का समय था जब आश्रयहीन मनुष्यता दिग्भ्रांत हो चली थी और इतिहास के क्रूरतम दुश्चक्र ने भारतीय जीवनमूल्यों को ध्वंस के कगार पर ला खड़ा किया था तब उस काल में हुए संत भगवत्ता के स्वरूपोद्घाटन का माध्यम बने। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, “जिस समय मुसलमान भारत में आए उस समय सच्चे धर्मभाव का बहुत कुछ ह्रास हो गया था। परिवर्तन के लिए बहुत कड़े धक्के की आवश्यकता थी। कालदर्शी भक्त कवि जनता के हृदय को सँभालने और लीन रखने के लिए दबी हुई शक्ति को जगाने लगे। क्रमशः भक्ति का प्रवाह ऐसा विकसित और प्रबल होता गया कि उसकी लपेट में केवल हिन्दू जनता ही नहीं, देश में बसने वाले सहृदय मुसलमानों में से भी जाने कितने गए।4.  अनेक तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आघातों से जर्जर हो चले भारतीय समाज के भीतर वर्ण-जाति-धर्म सभी के भेद को तिरोहित करके इन संतों ने व्यक्ति में मानवता की गरिमा की पुनर्प्रतिष्ठा का प्रयत्न किया। संत का आशय ही यही है कि जो सर्वत्र परमात्मा के अस्तित्व का दर्शन करे और उसे अनुभूति के स्तर पर जानने में समर्थ हो। मध्यकाल में ऐसे अनेक संत हुए जिन्होंने जीवमात्र को परम् चेतना की अभिव्यक्ति जानकर भेद-भावना से मुक्ति के लिए अथक प्रयत्न किया और अनेक अपघातों से उद्विग्न हो रहे समाज को संबल देने का प्रयास किया। इन संतों ने अद्वयानुभूति में बाधा बन रही समस्याओं को दुहरे स्तर पर संबोधित किया, जिसके कारण द्वैत-प्रपंच के विकराल साम्राज्य का उपशमन कठिन हो गया है। ये सभी समस्याएँ अंतर्बाह्य के भेद से दो कोटि की हैं। आन्तरिक समस्याएँ वे हैं जिन्होंने मनुष्य के अन्तःकरण को मलिन कर दिया है और उसकी मनोदशा योगसूत्र में वर्णित विक्षिप्त जैसी हो गई है, जिससे वह सत्य का साक्षात्कार करने में असमर्थ हो गया है। मानव-मन की इन अशुद्धियों को षड्विकार का नाम दिया गया है। काम, क्रोध, मद, मात्सर्य जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ इसी श्रेणी के अंतर्गत आती हैं। बाहरी समस्याएँ सामाजिक विभेद के मूल में विद्यमान हैं और अस्पृश्यता, जातिवाद, पंक्तिबद्धता, श्रेष्ठताबोध और मजहबी कट्टरपंथ के रूप में दृश्य हैं। यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो सामाजिक समस्याएँ भी मनुष्य के भीतरी कल्मष का बाह्य प्रकटन मात्र है जो सामूहिक एवं संस्थागत तौर पर दृश्य हो रहा है। इसलिए संतों ने सामाजिक समस्याओं के निदान हेतु भी मानव-मन के परिष्कार को साधनभूत स्वीकार किया है। साथ ही साथ इन संतों की वाणी में भारतीय संस्कृति के उन मूल्यों का प्रतिबिम्बन सहज ही गोचर होता है, जो अव्याहत हम तक प्रवाहित होते चले आए हैं और जिनके कारण यह संस्कृति अन्यों से विशिष्ट बनी हुई है।

        मध्यकालीन संत परम्परा के मध्य संत रज्जब का व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति एवं साधना की एक महत् उपलब्धि के रूप में दृष्टिगोचर होता है। संत दादूदयाल के जिन बावन शिष्यों की चर्चा की जाती है, उनमें संत रज्जब का व्यक्तित्व मणि-मुकुट की भाँति दैदीप्यमान है। दादूपंथ इस मामले में सभी मध्यकालीन पंथों से भिन्न रहा है कि इस पंथ से संबद्ध सभी महात्मा विलक्षण कवित्वशक्ति संपन्न थे और जितनी संख्या में संत दादूदयाल के शिष्य बने, किसी अन्य संत के नहीं। साथ ही साथ इस पंथ में एक बड़ी संख्या सुशिक्षित महात्माओं की रही है, चाहे वह सुन्दरदास जैसे वेदांत के प्रकांड पंडित हों, साधु निश्चलदास हों या संत जगजीवनदास जी जैसे दार्शनिक। इस पंथ की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी रही कि इसने अपने अन्य पूर्ववर्तियों यथा कबीर आदि की भाँति आक्रामक होकर कुरीतियों पर प्रहार नहीं किया, बल्कि बड़े कोमल ढंग से समाज को समझाने का प्रयत्न किया, इस पंथ के संतों की भाषा हर परिस्थिति में विनीत बनी रही। विनय का रसायन विचार की संप्रेषणीयता को तलस्पर्शी बना देता है, इस पंथ के महात्मा इससे परिचित थे और उन्होंने इसे निबाहने का भरसक प्रयास किया। बाह्याचार, पशुबलि और अस्पृश्यता आदि का विरोध करते हुए ये संत कभी वाक्-संयम कि सीमा लाँघकर उद्दंड नहीं होते। सौम्य भाव से एक तटस्थ चिंतक की तरह उन्होंने अपनी बात रखी है; किन्तु इससे उनकी सामाजिक संलग्नता प्रश्नांकित नहीं की जा सकती। समाज के प्रति उनकी संवेदना एवं चिंताएँ किसी भी समकालीन संत से कम नहीं हैं। लेकिन यह आश्चर्य एवं शोध का विषय है कि कैसे इतने शांत एवं संवेदनशील संप्रदाय का रूपांतरण एक सैन्य संगठन में हो जाता है, जैसा कि इस पंथ के कालांतर का इतिहास देखने पर पता चलता है।5. इस तरह अपनी संरचना एवं इतिहास में यह संप्रदाय भक्तिकालीन सभी संप्रदायों से विशिष्ट है। मध्व के ब्रह्म संप्रदाय से पार्थक्य एवं महत्व सूचित करने के लिए दादूपंथियों ने इसका एक नाम परब्रह्म संप्रदाय भी रखा क्योंकि इसमें परमात्मा के निर्गुण एवं परस्वरूप की उपासना का विशेष विधान किया गया था।6.

        1567 . के लगभग सांगानेर के एक पठान परिवार मे जन्मे रज्जब इसी दादूपंथ में दीक्षित संत थे।7.  राघवदास के भक्तमाल में साधु चतुरदास जी द्वारा की गई टीका में इनका अत्यंत सम्मानपूर्वक नाम स्मरण किया गया है। ऐसा कहा गया है कि इनकी उपस्थिति के कारण इस पंथ का प्रकाश चतुर्दिक फैल गया है- “रज्जबदायक दास मोहन चारह्यूँ प्रकाशा॥8.  दादूपंथ में इनके दीक्षित होने का प्रसंग भी अत्यंत रोचक है। ऐसा प्रसिद्ध है कि रज्जब विवाह करने सांगनेर से आंबेर जा रहे थे। आंबेर में ही दादूदयाल की गद्दी पड़ती थी। जब दादूदयाल की दृष्टि घोड़ी पर सवार रज्जब पर पड़ी तो उन्होंने यह दोहा कहा-

रज्जब तैं गज्जब किया, सिर पर बाँधा मौर।
आया था हरि भजन को, करे नरक की ठौर॥9.   


            इतना सुनना था कि रज्जब घोड़ी से उतरे और बारात छोड़कर दादू के साथ चले गए और फिर नहीं लौटे। उस कन्या के साथ रज्जब के छोटे भाई का विवाह हुआ। आचार्य रजनीश ने इस प्रसंग का अत्यन्त मार्मिक वर्णन किया है। इस प्रसंग के एक अन्य संस्करण में ऐसी कथा आती है कि विवाह के लिए जाते हुए रज्जब की इच्छा संत दादू की दर्शन की हुई। जब वे आश्रम में पहुँचे तो दादूदयाल ध्यानमग्न थे। रज्जब वहीं बैठकर ध्यान टूटने की प्रतीक्षा करने लगे। जब संत का ध्यान टूटा तो उन्होंने अपने समक्ष एक मुसलमान नवयुवक को दूल्हे के वेश में प्रतीक्षारत पाया। युवक की उत्कट जिज्ञासा को देखते हुए संत दादूदयाल ने मात्र एक दोहे में यह उपदेश किया-

कीया था शुभ काम को, सेवा कारण साज।
दादू भूला बंदगी, सरे एकहू काज॥10.  


            अर्थात् ईश्वर ने जिस शुभ कार्य के संपादन हेतु तुम्हारे जीवन की सृष्टि की है, उस बंदगी को भूलकर तुम जिस कार्य (विवाह) को करने जा रहे हो उससे तुम्हारा तनिक भी कल्याण होने की संभावना नहीं है। दादूदयाल के इस एकमात्र वचन का रज्जबजी पर ऐसा चमत्कारी प्रभाव पड़ा कि उन्होंने आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करते हुए ईश-भजन में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। रामसनेही संप्रदाय के महात्मा रामचरणदासजी ने इस प्रसंग पर ठीक ही कहा है-

दादू जैसा गुरु मिले शिष्य रज्जब सा जाण।
एक शब्द में उद्धरा, रही खेचा तान॥11.  


            अर्थात् एक बार में ही गुरु की वाणी सुनकर रज्जब के मन का द्वन्द्व जाता रहा। किसी तरह का संशय या विपर्यय निःशेष हो गया। एक बार रज्जब की परीक्षा लेने के लिए दादूदयाल जी ने उन्हें प्रवृत्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए गृहस्थ आश्रम मे प्रवेश लेने की सलाह दी। दादू की इस तरह की बातों को सुनकर संत रज्जब ने बड़ी विनम्रता एवं दृढ़ता के साथ उत्तर देते हुए कहा-

रज्जब घर घरणी तजे, परघरणी सुहाय।
अहि तज अपनी कंचुकी, काकी पहरे जाय॥12.   


            अर्थात् जिस प्रकार सर्प अपनी केंचुली त्यागने के बाद उसे दुबारा धारण नहीं करता, उसी तरह मैंने अपनी स्त्री का त्याग कर दिया है अब मैं किसी भी परस्त्री का स्पर्श नहीं कर सकता। मेरे लिए संसार की सभी स्त्रियाँ माँ की तरह हैं-जितनी जनमी जगत में, सब रज्जब की मात।


            संत रज्जबजी ने विपुल साहित्य की रचना की है। उनके नाम से तीन ग्रंथ प्रचलित हैं- 1. रज्जब बानी 2. सर्वंगी या सर्वांग योग तथा 3. अंगबधू रज्जब बानी जहाँ संत रज्जब की मौलिक कृति है वहीं सर्वंगी और अंगबधू उनके द्वारा संपादित हैं। सर्वंगी में पूर्ववर्ती संत कवियों तथा अंगबधू में रज्जब ने अपने गुरु दादूदयाल की बानियाँ संकलित की हैं। अंगबधू पर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का मत है, “रज्जबजी की यह तीसरी कृतिअंगबधूके नाम से प्रसिद्ध है जो वास्तव में दादूदयाल की रचनाओं का एक संग्रह मात्र है। यह सिक्खों के प्रसिद्ध पूज्य ग्रंथआदिग्रंथसे प्रायः दस वर्ष पहले संगृहीत हुआ था जिस कारण यह अपने ढंग के ग्रंथों का प्रथम आदर्श स्वरूप भी कहा जा सकता है।13. रज्जब बानी रज्जब की रचनाओं का विशाल संकलन है। इसके साखी भाग के अंतर्गत 193 अंगों में 5352 छंद सम्मिलित हैं, पदों की संख्या 209 है तथा 26 अंगों में 117 सवैये सम्मिलित हैं। इसके अलावा चौपाई छंद में निबद्ध 15 लघु ग्रंथ तथा 40 अंगों में कुल 89 छप्पय भी रज्जबजी द्वारा रचे गए हैं।

            

            यद्यपि अन्य निर्गुण संतों की भाँति संत रज्जब की भी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी। कृपाराम जी साधु ने रज्जब बानी की भूमिका में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि रज्जबजी संस्कृत के पूर्ण विद्वान थे, किन्तु यह धारणा भ्रामक प्रतीत होती है और इसकी पुष्टि रज्जब द्वारा बानी के आरंभ में लिखे गुरु-वंदना के श्लोक से स्पष्ट हो जाता है-

दादू नमो नमो निरंजनं नमस्कार गुरु देवतः।
बंदनं  सर्व  साधवा  प्रणामं  पारंगतः 14.  


            विभक्ति, कारक एवं क्रियादि संबंधी ऐसी त्रुटियाँ संस्कृत का सामान्य विद्यार्थी भी नहीं करेगा। इससे स्पष्ट है कि रज्जबजी ने विधिवत शिक्षा नहीं ग्रहण की थी, लेकिन उनकी रचनाओं मे व्याप्त विचारों से स्पष्ट है कि वे बहुश्रुत थे और उन्होंने साधु-संग के माध्यम से श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त आध्यात्मिक विचारों का गंभीर आलोड़न किया था। उनके गुरुभाई सुंदरदास जी षड्दर्शन में निष्णात महात्मा थे और वे रज्जबजी के प्रति विशेष श्रद्धाभाव रखते थे एवं उनसे सत्संग करने के लिए बहुधा सांगनेर आया करते थे।15. सुंदरदासजी ने बानियों को समझने में रज्जबजी की सहायता ली थी तो निश्चित ही सुंदरदास से रज्जबजी ने उपनिषद एवं अन्य शास्त्रों का श्रवण किया होगा। उनकी रचनाओं में अनेक औपनिषदिक एवं शास्त्रीय संदर्भ बिखरे पड़े हैं, जिन्हें अपनी प्रतिभा के बल पर रज्जब ने कविता में बदल दिया है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस संदर्भ में उचित कहा है किरज्जबदास निश्चय ही दादू के शिष्यों में सबसे अधिक कवित्व लेकर उत्पन्न हुए थेलोग जिसको कई पद में कहते हैं, रज्जब उस तत्त्व को सहज ही छोटे दोहे में कह जाते हैं।16.           


            रज्जब के काव्य में अधिकांश वर्ण्य-विषय वेदान्त से गृहीत हैं और आरंभ गुरु-उपसदन से होता है। वेदान्त में गुरु की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। मानसोल्लासकार ने तो ईश्वरो गुरुरात्मेति कहकर तीनों में समन्वय स्थापित कर दिया है। छान्दोग्य उपनिषद की श्रुति स्पष्ट कहती है कि गुरुप्राप्त व्यक्ति ही तत्त्व के रहस्य को जान सकता है- अचार्यवान् पुरुषो वेद (6.14.2) इसे रज्जब अपने शब्दों में कहते हैं -

सकल कर्म ताला भये, जीव जड्या ता माहिं।
रज्जब गुरु कूँची बिना, कबहूँ खूँटे नाहिं (गुरुदेव का अंग


            पूर्वकृत् सभी कर्म ताला हैं और उनमें जीव निबद्ध है, बिना गुरुकृपा की कुंजी के जीव की मुक्ति असंभव है। इसलिए रज्जब गुरु के प्रति श्रद्धा आवश्यक बताते हैं। वे कहते हैं कि जब तक शिष्य अपने भीतर पात्रता विकसित नहीं कर लेता तब तक गुरु उसे चाह कर भी कुछ नहीं दे सकते। परंपरा में यह प्रसिद्ध तथ्य है कि श्रद्धा ही पात्रता है- श्रत्+धा अर्थात सत्य को धारण करने की क्षमता इसीलिए श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है- श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्। इस तथ्य को रज्जब यूँ कहते हैं-

गुरु घर माहे धन धरा सिख संग्रह्या जाय।
जब लग लक्षन लेण के, जुगति उपजे आय॥ ( गुरुदेव का अंग )


            जब तक शिष्य को लेने की युक्ति आएगी तब तक गुरु के संग्रह में स्थित अपार धन वह नहीं ले सकता। और वह युक्ति क्या है, इसका प्रतिपादन मुंडकश्रुति ने इस प्रकार किया है- तद्विज्ञानार्थं गुरुमेवाभिगच्छेत्‌ (1.12 ) और श्रीमद्भगवद्गीता में इसका विस्तार करते हुए व्यास ने लिखा है-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।


            तत्त्वदर्शी गुरुओं के समीप जाकर श्रद्धापूर्वक प्रश्न पूछते हुए सेवा करने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। श्रद्धा के इस महत्व को रज्जबदास जी प्रतिपादित करते हैं-

शिष्य सही सोई भया गहै सीख में सोय।
रज्जब श्रद्धा सीख सूं दूजा कदे होय॥ ( गुरुदेव का अंग )


            लेकिन रज्जब अंधभक्ति के प्रति सचेत भी हैं। वे कहते हैं कि गुरु का चयन सोच-समझकर करना चाहिए, अन्यथा विभूतिविहीन गुरु केवल स्वयं की हानि करता है अपितु साथ ही शिष्य को भी ले डूबता है। अविद्या के कूप में धँसा हुआ गुरु शिष्य को और गहरे तमस में धकेल देता है। श्रुति कहती है -

अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितंमन्यमानाः
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः॥ 17.


अंधा अंधे ठेलिया के इस न्याय को रज्जब इस तरह व्यक्त करते हैं-

रज्जब चेला चखिहुँ बिन, गुरु मिला जा अंध।
कूपमयी यह कुंभनी क्यूँ पावहिं प्रभु पंध


            अर्थात् श्रद्धा का वरण करते हुए भी विवेक का तिरस्कार नहीं। श्रद्धा और विवेक की सम्यक युति का निर्वाह करते हुए साधक संसार-सागर पार हो जाता है।

            ब्रह्म एवं आत्मतत्त्व को अभिव्यक्त करते हुए संत रज्जब को दुहरे संकट से गुजरना पड़ा है। प्रथमतः यह कि जो अनुभव और तत्त्व भाषा की परिधि में नहीं सकता, केवल अपरोक्ष रूप से अनुभूति का विषय भर बन सकता है और जिसे अनिर्वचनीय औरगूंगे केरी शर्कराकहकर मौन हो जाना पड़ता है, उसका संकेत कैसे किया जाय? और दूसरा संकट यह है कि यह संकेत करते हुए अभिव्यक्ति बोझिल बन जाय, शास्त्रीयता के भार से दबकर उसकी काव्यात्मकता नष्ट हो जाय। क्योंकि अंततः वे ऐसा काव्य रच रहें हैं जो सामान्य एवं निरक्षर जनता के मध्य संप्रेषणीय बना रहे। इन दोनों काव्य-संकटों से उत्तीर्ण होने के लिए संत रज्जब जगह-जगह पर बेहद सटीक दृष्टांतों एवं रूपकों का प्रयोग किया है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने कहा है किदृष्टांतों के प्रयोग में तो ये इतने कुशल थे कि इनकी बराबरी का कोई कदाचित् ही मिलेगा।18.  रज्जब के लिए उनके शिष्य संत मोहनदास ने कहा भी है कि उनके समक्ष सभी दृष्टांत हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं- ऐसी ही भाँति सबै दृष्टांत हो आगे खड़े रहैं रज्जबजी के। वस्तुतः संप्रदाय में शिक्षण की जो विधि है, वह सिद्धांत, युक्ति और दृष्टांत के भेद से उत्तम, मध्यम और सामान्य अधिकारी को ध्यान में रखते हुए प्रचलित है। रज्जब इससे भली भाँति परिचित हैं। उदाहरण के लिए लिए जब उन्हें ब्रह्म की निर्लेपता का आख्यान करना होता है तो वे दर्पण का दृष्टांत देते हुए समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार दर्पण स्वयं में प्रतिबिंबित हो रहे वस्तुओं से सदैव अस्पृष्ट बना रहा रहता है, उसी प्रकार ब्रह्म स्वयं में भास रही सृष्टि से असंपृक्त रहा करता है -

दर्पन में दीसै सब देसा, ताकूँ भार नाहि दुख लेसा।
यूं गुण रहित अंतरजामी, ता माहैं खेलें सब कामी॥ 
इसी तरह वे सृष्टि को समझाने के लिए ब्रह्मवृक्ष के रूपक की कल्पना करते हैं-
संतों वसुधा वृक्ष समाई।
अद्भुत बात कही को माने कोण पतीजे भाई


            वे कहते हैं कि यह पृथ्वी ब्रह्मवृक्ष में ही स्थित है। यह वृक्ष ऐसा है कि इसका वर्णन सुनकर कोई इस पर विश्वास ही नहीं करेगा, यह वृक्ष जड़ और शाखा विहीन है अर्थात् यह तो किसी का कारण है, ही किसी का कार्य है। ब्रह्मवृक्ष के इस रूपक की विस्तृत व्याख्या कठवल्ली एवं भगवद्गीता के 15 वें अध्याय में आचार्य शंकर नेब्रह्मवृक्षः सनातनः’  ऐसा पौराणिक उद्धरण देते हुए की है, इससे स्पष्ट है कि संत रज्जब केवल नवीन रूपकों के निर्माण में सिद्धहस्त थे, अपितु वे पारंपरिक एवं सांप्रदायिक रूपकों से भलीभाँति परिचित थे।

            संत रज्जब की एक सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है, उनकी समन्वय-भावना। इसके दो बड़े ठोस एवं महत्वपूर्ण प्रमाण उनके काव्य में प्राप्त होते हैं। यह जगजाहिर बात है कि ये संत निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और अवतारवाद का खंडन करते थे लेकिन रज्जब जब नवधा भक्ति को व्याख्यायित करते हैं तो वे जो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, वे सब के सब सगुण भक्तों के हैं। नवधा भक्ति के सिद्धांत का मूल स्रोत श्रीमद्भागवत का यह श्लोक बताया जाता है -

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्
इति पुंसार्पिता विष्णो भक्तिश्चेनवलक्षणा।19.  
रज्जबदास जी इनके उदाहरण देते हुए कहते हैं-
श्रवण परीक्षित रूप, शबद शुकदेव सु गावैं।
पवन भजन प्रहलाद सु, मनसा श्रीपद ध्यावैं॥
पूजा अरच पृथु प्रेम, अंकुर अकुर सु वंदन।
हेत दास हनुमंत, प्राण पारथ सु प्रीति पन॥
बलि ज्यूँ बल बलिहारि कर, रज्जब रामहिं दीजिए।
इहि प्रकार नौधा भगति, सु आतम अंतर कीजिए॥ 20.


            सूची में वर्णित सभी भक्त सगुण परंपरा के ही हैं, उस समय जबकि सगुण और निर्गुणपंथियों के मध्य संघर्ष जारी था, तब निर्गुण संत होते हुए भी रज्जबजी द्वारा सगुण भक्तों को उदाहरणस्वरूप उद्धृत करना उनकी विराट दृष्टि का सूचक है। उनकी समन्वय भावना का दूसरा उदाहरण निम्नलिखित छंद में दिखाई देता है, जहाँ वे यह उद्घोष करते हैं कि ईश्वर की उपासना चाहे किसी भी मार्ग से की जाय, अंततः वह उसी अद्वय निर्विकार ब्रह्म के पास पहुँचती है। जिस प्रकार अनेकानेक मार्गों से आने वाली नदियाँ समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी तरह साधना के सभी मार्ग उसी परम् तत्त्व में समा जाते हैं। वे कहते हैं -

जैन जोग और शेख संन्यासी, सु भक्त बौद्ध भगवंत हिं धावैं।
बोवत बीज परै धर क्यों हूँ, अंकूर उदै होय ऊँचे ही आवैं॥
नौं कुली नाग परे नव खंड में, पंख लहैं सोइ चंदन जावैं।
दशों दिशि नीर बहैं सरिता सब रज्जब सोई समुद्र समावैं॥


           यह छंद मूलतः शिवमहिम्नस्तोत्र के उस प्रसिद्ध श्लोक का समयानुकूल निर्वचन है, जिसे शिकागो धर्म-सम्मेलन के दौरान स्वामी विवेकानंद ने उद्धृत किया था और समन्वय का हेतु स्वीकार किया था। वह श्लोक है-

त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥21.


            विवेकानंदजी ने इसका अनुवाद यूँ किया था कि जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है। ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं। ठीक यही बात रज्जबदास जी ने अपने सवैये में कही है।

            इस तरह यदि देखा जाय तो संत रज्जब भारतीय संस्कृति की महाधारा के स्नातक हैं, जो श्रुति से होती हुई आधुनिक काल में स्वामी विवेकानंद और श्रीअरविन्द तक अबाधित प्रवाहित होती चली आई है, जिसमें सबको सम्मिलित कर लेने का महाभाव विद्यमान है। आधुनिक काल में जब तकनीक और विज्ञान के संयोग से एक विचित्र किस्म का मनुष्य पैदा हो गया है, जो शुष्कता और अजनबीयत की व्याधि से ग्रस्त है तो ऐसे में संत रज्जब की वाणी वह औषधि है जो उसे पुनः मनुष्यत्व की गरिमा में पुनर्प्रतिष्ठित कर सकती है। संत रज्जब की वाणी एक प्रेरणा, एक चुनौती है और उनका चरित्र एक आदर्श है, जिसे देखकर हम अपनी आत्मछवि सुधारने का प्रयत्न कर सकते हैं।

सन्दर्भ :

  1. Ardor, Roberto Calasso, Penguin Random House, United Kingdom, 2015, p. 25
  2. तैत्तिरीय उपनिषद, शीक्षाध्याय, नवमोऽनुवाकः, प्रथम मन्त्र.
  3. श्रीमद्भगवद्गीता, 4.7
  4. हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 2012, पृ. 62
  5. The Bhakti Movement : Renaissance or Revivalism, P. Govind Pillai, Routledge, London, 2023, p. 234
  6. निर्गुण काव्य दर्शन, सिद्धिनाथ तिवारी, अजंता प्रेस लिमिटेड, पटना, 1953, पृ. 206  
  7. दादूपंथ के शिखर संत, नन्द किशोर पाण्डेय, सामयिक पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2021, पृ. 61
  8. राघवदास कृत भक्तमाल, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1965, पृ. 185
  9. हमारे मुस्लिम संत कवि, कृष्ण गोपाल वानखड़े गुरुजी, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1984, पृ. 51
  10.  भारत के महान संत, बलदेव वंशी, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, डिजिटल संस्करण, पृ. 64.
  11. हमारे मुस्लिम संत कवि, कृष्ण गोपाल वानखड़े गुरुजी, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1984, पृ. 51
  12. संत रज्जब, नंदकिशोर पाण्डेय, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2014, पृ. 72
  13. उत्तरी भारत की संत परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2020, पृ. 301
  14. रज्जब बानी, संपादक- व्रजलाल वर्मा, उपमा प्रकाशन, कानपुर, 1963, पृ. 1
  15.  उत्तरी भारत की संत परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2020, पृ. 303.  
  16. हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ. 103.
  17. कठोपनिषद, 2.5, कैलास आश्रम, ऋषिकेश, 2020
  18.  उत्तरी भारत की संत परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2020, पृ. 300
  19.  श्रीमद्भागवत, 7/5/23-24
  20. रज्जब बानी, कबित्त उपदेश का अंग
  21. शिवमहिम्नस्तोत्र, पुष्पदन्त, गीताप्रेस, गोरखपुर   


संत कीनाराम त्रिपाठी,
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय,
916777864

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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