शोध आलेख: लहरों के राजहंसः आध्यात्मिकता और भौतिकता का द्वन्द्व / अर्चना गायतोंडे

लहरों के राजहंसः आध्यात्मिकता और भौतिकता का द्वन्द्व
- अर्चना गायतोंडे

शोध सार: मोहन राकेश का नाटक ‘लहरों के राजहंस’ आध्यात्मिकता और भौतिकता के बीच जूझते मानव मन के द्वन्द्व को प्रस्तुत करता है। यह नाटक गौतम बुद्ध के सौतेले भाई नंद के माध्यम से उस मानसिक उथल-पुथल को उजागर करता है, जिसमें व्यक्ति एक ओर आत्मिक शांति और वैराग्य की ओर आकर्षित होता है, तो वहीं दूसरी ओर सांसारिक आकर्षण और भोग-विलास उसे बाँधे रखते हैं। नंद का यह द्वन्द्व आधुनिक मानव की चेतना का प्रतीक है। नाटक में प्रयुक्त प्रतीकात्मकता, संवाद और दृश्य योजनाएँ व्यक्ति की मानसिक स्थितियों और अंतर्द्वन्द्व को गहराई से ध्वनित करती हैं। यह शोध नाटक की घटनाओं, प्रतीकों और चरित्रों के माध्यम से यह स्पष्ट करता है कि जब तक व्यक्ति की भावनाएँ और विचार अस्पष्ट रहते हैं, तब तक जीवन में अस्थिरता और अशांति बनी रहती है।

बीज शब्द: आध्यात्मिकता, सांसारिकता, अंतर्द्वन्द्व, प्रतीकात्मकता, आधुनिक चेतना, मानसिक संघर्ष, आत्मविनाश।

मूल आलेख: मोहन राकेश का नाटक ‘लहरों के राजहंस’ 1963 में लिखा गया। इस नाटक की कथा का आधार अश्वघोष का ‘सौंदरनन्द’ काव्य है, जिसमें गौतम बुद्ध के सोतेले भाई नन्द और उनकी पत्नी सुन्दरी के जीवन के कुछ अंश को लिया गया है। नाटककार के अनुसार भले ही इस कथा का आधार ऐतिहासिक है, किन्तु यह नाटक आधुनिक मानव के अंतर्द्वन्द्व को उजागर करता है, जो आध्यात्मिकता और भौतिकता के बीच किसे अपनाए और किसे छोड़े की कश्मकश में उलझा रहता है।

आध्यात्मिकता और भौतिकता जीवन जीने के दो अलग मार्ग माने गये हैं। आध्यात्मिकता को मनीषियों ने अपने अपने ढंग से समझाया है। उनके अनुसार यदि हम सृष्टि में सभी जीवों में परम ईश्वर के अंश को देखते हैं और हम ये समझते हैं कि अपने दुख, क्रोध या क्लेश का कारण और निर्माता कोई और नहीं, बल्कि हम खुद हैं, हमारे द्वारा किए गए हर कार्य में यदि सभी की भलाई निहित है, तो हम आध्यात्मिक हैं। बाहरी परिस्थिति जैसी भी है, किन्तु हम भीतर से प्रसन्न और आनन्दित हैं, तो हम आध्यात्मिक हैं। आध्यात्मिकता मंदिर, मस्जिद, चर्च में नहीं, बल्कि हमारे अंदर घटित होने वाली प्रक्रिया है। आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य अपने बारे में, अपने स्वरूप के बारे में जानना है। वहीं भौतिकता से अर्थ भौतिक वस्तुओं से सुख प्राप्त करना है। आध्यात्मिक मामलों से परे धन दौलत, सुख, विलासिता जैसी भौतिक संपत्ति को पाने की इच्छा भौतिकता है।

प्रस्तुत नाटक में गौतमबुद्ध के भाई नन्द के द्वारा व्यक्ति की द्वन्द्वात्मक स्थिति को व्यंजित किया गया है। नन्द का मन गौतम बुद्ध के आध्यात्मिक दर्शन की ओर सहज आकर्षित होता है, तो वह पत्नी सुंदरी की सुन्दरता के आकर्षण से भी जकड़ा हुआ है। पूरा कथानक नन्द के मन की चंचलता को दिखाता है। इसलिए जब वह पत्नी के सानिध्य में रहता है तो गौतम बुद्ध के दर्शन की ओर आकृष्ट होता है और वहीं बुद्ध के सानिध्य में उसे पत्नी सुंदरी याद आने लगती है। यही नन्द का द्वन्द्व है। स्वामी यतीश्वरानन्द अपनी पुस्तक ध्यान और आध्यात्मिक जीवन में लिखते हैं – “हम पूरा-पूरा सांसारिक जीवन और उच्चतर जीवन एक साथ नहीं जी सकते। हम सांसारिक प्रेम की तरफ भागते रहें और साथ ही उच्चतर प्रेम भी प्राप्त कर ले – यह नहीं हो सकता।”1 नाटक में नंद भी दोनों प्रवृत्तियों को पाना चाहता है और कभी न अंत होने वाले अंतर्द्वन्द्व से घिर जाता है। नाटककार मोहन राकेश लहरों के राजहंस नाटक की भूमिका में कहते हैं – “बहुत पहले से एक बिंब मन में था, दो दीपाधार एक ऊँचे शिखर पर पुरुषमूर्ति, बाहें फैली हुई, तथा आँखें आकाश की ओर उठी हुईं, दूसरे छोटे शिखर पर नारी मूर्ति बाहें सिमटी हुई तथा आँखें धरती की ओर झुकी हुईं।”2 नाटककार ने नन्द के द्वन्द्व को कई प्रतीकों के माध्यम से दिखलाने का प्रयास किया है। नन्द का यह द्वन्द्व केवल नन्द का ही नहीं है, बल्कि आज के मानव समाज का द्वन्द्व है। मन की शांति के लिए कभी व्यक्ति भौतिकता को आधार बनाता है तो कभी आध्यात्मिकता को अपनाने का प्रयास करता है।

मोहन राकेश का नाटक ‘लहरों के राजहंस’ का शीर्षक अपने आप में प्रतीकात्मक है। ‘लहरों के राजहंस’ में लहरें – नंद के जीवन की परिस्थितियाँ है और हंस का दार्शनिक अर्थ ही आत्मा होता है। अर्थात् राजहंस प्रतीक है - नंद की आत्मा का। नाटक में लहरें और राजहंस का प्रसंग बार-बार आता है। राजहंस कभी इस लहर पर कभी उस लहर पर डोलता है। नंद भी परिस्थिति रूपी लहरों में डोलता रहता है और अंत तक तय नहीं कर पाता कि उसे जाना कहाँ है। कभी बुद्ध के प्रभाव से प्रभावित होता है तो कभी सुन्दरी के रूपाकर्षण में बंधता है।

नाटक की कथा की शुरुआत सुन्दरी द्वारा आयोजित कामोत्सव की तैयारी से होती है। जिस रात कामोत्सव का आयोजन होना है, उसी सुबह गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने वाली हैं। यह दोनों ही विपरित परिस्थितयाँ हैं, जहाँ एक ओर सुख, नृत्य और आपानक हैं, वहीं दूसरी ओर वैराग्य है। नन्द आखेट के समय दिन भर जिस मृग का पीछा करता है उसे ही मृत देख कर विचलित हो जाता है, क्योंकि वह किसी बाण के आघात से नहीं बल्कि अपने ही भटकाव भरी दौड़ की थकान से मर गया था। यह थकान जितनी शारीरिक है उससे कहीं अधिक मानसिक थकान है। नाटककार नन्द के मन के भटकाव को मृग के माध्यम से बताने का प्रयास करता है।

नाटक का एक पात्र श्यामांग है जिसके व्यवहार से नंद के आंतरिक उथल-पुथल को समझा जा सकता है। श्यामांग कामोत्सव की तैयारी को देखकर असमंजस में है। वह श्वेतांग से कहता है – “पिछले वसंत आम कैसे बौराए थे! पेड़ों की डालियाँ अपने आप हाथों पर झुक जाती थीं। ...परंतु तब यहाँ कामोत्सव का आयोजन नहीं किया गया। आयोजन किया गया इस बार जब आम के वृक्षों ने भिक्षुओं का भेष धारण कर रखा है। ...कल प्रातः देवी यशोधरा भिक्षुणी के रूप में दीक्षा ग्रहण करेंगी और यहाँ ....यहाँ रात भर नृत्य होगा, आपानक चलेगा।”3 महल का कर्मचारी श्यामांग एकसाथ कामोत्सव और वैराग्य को होता देख बड़े आश्चर्य में है। उसके अनुसार जब लोग उल्लासित जीवन व्यतीत कर रहे थे, तब तो कामोत्सव नहीं मनाया गया। अब जबकि लोग गौतम बुद्ध की ओर आकर्षित हो रहे हैं तब कामोत्सव का आयोजन करना सभी को असमंजस में डाल रहा है। यह घटना सुंदरी के भौतिकवादी होने को स्पष्ट करता है। भौतिकता मानव चेतना को प्रतिक्रियावादी या ईर्ष्यालु बनाता है। दीक्षा वाले दिन सुंदरी द्वारा कामोत्सव का आयोजन करना उसकी ईर्ष्या और मद को दर्शाता है। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इस उत्सव के समर्थन में नहीं था। नंद भी कामोत्सव का समर्थन नहीं करता है किंतु सुन्दरी के रूपाकर्षण के कारण मुखर होकर विरोध नहीं कर पाता।

नंद का अंतर्द्वन्द्व तब और अधिक प्रबल हो उठता है, जब वह होता तो सुन्दरी के पास है और उसके प्रसाधन में उसकी मदद भी करता है, तभी अलका उसे यह संदेश देती है कि गौतम बुद्ध भिक्षा पात्र लेकर नंद के द्वार पर खड़े थे, किन्तु उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा। इस बात से नन्द बेचैन हो उठता है। ‘बुद्धम् शरणम् गच्छामि’ के संवेत स्वर को सुनकर नंद के हाथ में थामे हुए दर्पण का गिरकर टूटना यह दर्शाता है कि उसके अस्थिर मन में सांसारिकता और आध्यात्मिकता का द्वन्द्व चल रहा है। वह क्षमा-याचना हेतु बुद्ध के पीछे जाता है। गौतम बुद्ध उसे दीक्षा देते हैं और दीक्षा प्राप्त करने के लिए भिक्षु आनंद को नंद के केश काटने की आज्ञा देते हैं। नंद का बुद्ध के पास जाना और उसी समय कमल ताल से राजहंसों का उड़ जाना अपने आप में प्रतीक है बदलती परिस्थितियों का। राजहंसों के उड़ जाने का कारण उनका घायल होना था। दोनों में से एक तो अवश्य घायल था। राजहंस का घायल होना नंद के मानसिक घायल होने को दिखाता है। बुद्ध के पास जाकर भी नंद का मन अस्थिर है, जिसे सुन्दरी के इस वाक्य से समझा जा सकता है – “क्या उनके पंखों में इतनी शक्ति रही होगी कि अपनी इच्छा से उड़कर कहीं चले जाते? और जिस ताल में इतने दिनों से थे, उसका अभ्यास, उसका आकर्षण... क्या इतनी आसानी से छूट सकता था?”4 मानो वह कहना चाह रही है कि नंद सुंदरी के साथ विलास वासनामय वातावरण में रहने के आदी हैं। वे इसे त्यागकर अध्यात्म की ओर अग्रसर हो जाए, यह असंभव सी घटना है। अतः स्पष्ट है कि इस बदली हुई परिस्थिति को नंद एकदम से स्वीकार करने में असमर्थ है।

यह तो स्पष्ट है कि बुद्ध के आकर्षण के कारण ही नंद बुद्ध के पीछे गए थे, फिर अपने केश-कर्तन से विक्षुब्ध क्यों हो गए? व्याकुल होकर निहत्थे ही जंगल की ओर क्यों चले गए और व्याघ्र से क्यों भिड़ गए। केश काटने के समय विरोध प्रकट न कर पाने की छटपटाहट को दिखलाता है, किन्तु भिक्षु आनंद के अनुसार यह प्रश्न नंद को स्वयं अपने आप से पूछना होगा। सुंदरी के सामने जिस विश्वास के साथ नंद अब तक खड़ा होता था, केश के कट जाने के बाद उसे लगता है जैसे गौतम बुद्ध ने वह विश्वास उससे ले लिया है। वह पुनः सुन्दरी के विषय में सोचने लगता है और अपने आप से कहता है – “जिस सामर्थ्य और विश्वास के बल पर जी रहा था, उसी के सामने मुझे असमर्थ और असहाय बनाकर फेंक दिया गया है।”5 ये नंद के सांसारिक आकर्षण को दिखाता है।

नंद की रुण्ड-मुण्ड आकृति को देखकर सुन्दरी का विश्वास भी डगमगाने लगता है। सुन्दरी का वाक्य है जो वह यशोधरा के लिए कहा करती थी कि – “नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है, तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध बना देता है।”6 इसलिए उसे विश्वास नहीं होता है कि जो लौटकर आया है वह कुमार (नंद) ही है, उसके अनुसार कोई दूसरा ही व्यक्ति है। सुंदरी की बात से आहत होकर नंद मानसिक उलझन के कारण छटपटाता है। उसकी उलझन को नाटककार ज्वरग्रस्त श्यामांग के प्रलाप द्वारा चित्रित करता है - “इन लहरों पर से ...लहरों पर से... वह छाया हटा दो... मुझसे... यह छाया नहीं ओढ़ी जाती।”7 यहाँ लहरों पर पड़ती छाया बुद्ध के दर्शन की छाया है। अर्थात् नंद पर बुद्ध का प्रभाव हावी हो रहा है, किन्तु नंद स्वयं इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और छाया रूपी दबाव को वह सहन नहीं कर पा रहा है। आगे वह कहता है – “सब-कुछ आवर्त में घूम रहा है... एक चील.. एक चील सब-कुछ झपटकर लिए जा रही है... इसे रोको... इसे रोको...।”8 चील नंद के मन का अंतर्द्वन्द्व है, जो तड़प के रूप में अनवरत चलती रहती है, लेकिन नंद में इतना साहस नहीं है कि वह चील रूपी अंतर्द्वन्द्व को हरा दे। वह इस असहाय स्थित से निकल मन की शांति चाहता है। अष्टावक्र संहिता में कहा गया है कि – “इच्छा और चेष्टारहित हुए बिना कोई भी शांति को प्राप्त नहीं होता है।”9 अर्थात् आसक्ति या कामना रहित होकर मन की शांति को पाया जा सकता है, जो नंद में दिखाई नहीं देता। इसलिए द्वन्द्व की स्थिति है। नंद कहता है – “कुछ है जो चेतना पर कुण्डली मारे बैठा रहता है, और मुझे अपने से मुक्त नहीं होने देता। मैं उससे मुक्त होना चाहता हूँ।”10 वह गौतम बुद्ध से बहुत कुछ पूछना चाहता है पर वह क्या पूछे यह भी उसका द्वन्द्वग्रस्त भौतिक मन जानता ही नहीं। वह लक्ष्यहीन भटक रहा है वह मानता है कि उसे “अभी और लडना है, बहुत लड़ना है... ऐसे किसी से जिसके पास लड़ने के लिए भुजाएँ नहीं है।”11 नंद की यह लड़ाई उसके अस्तित्व के लिए है। यह मानव प्रवृत्ति है कि वह एक जैसा जीवन बिताकर ऊब जाता है और फिर नए की तलाश में भटकता रहता है। नंद के इस असमंजस को सुन्दरी के इस कथन से समझा जा सकता है – “बहुत दिन तक एक तार जीवन बिताकर लोग अपने से ऊब जाते हैं। तब जहाँ कुछ भी नवीनता दिखाई दे, वे उसी ओर उमड़ पड़ते हैं।”12 यही कारण है कि अनेक दार्शनिक विचारधाराओं के होते हुए भी मानव मन द्वारा नए दर्शन की तलाश जारी रहती है।

नंद में कहीं ठहराव नहीं दिखता है। पूरे नाटक में मृत मृग को याद करते रहना, सुन्दरी के साथ सुखद क्षण बिताना, बौद्ध नारों के घोष से नंद के मन का बुद्ध की ओर भागना, दर्पण का टूटना, बुद्ध से क्षमा मांगने जाना, केश-कर्तन का मुखर विरोध न करना, जंगल की ओर पलायन, व्याघ्र से लडना... यह सब.. नंद अपने मन की अस्थिरता को इस प्रकार व्यक्त करता है – “जानता था कि यह प्रवृत्ति आत्मविनाश की है, परंतु इस प्रवृत्ति को मैं रोक क्यों नहीं सका? क्यों मैंने जानबूझकर आत्मविनाश को निमंत्रित किया, और फिर स्वयं ही आत्मरक्षा के लिए उस तरह लड़ गया।”13 कहा जा सकता है कि नंद के मन के अतंर्द्वन्द्व की दो स्थितियाँ हैं – आत्मविनाश और आत्मरक्षा की। जानबूझकर विनाश को निमंत्रण देना और स्वयं की रक्षा के लिए व्याघ्र से लड़ जाना उसके व्याकुल मन को व्यक्त करता है। बुद्ध के पास जाना, वहाँ से व्याकुल होकर लौट आना फिर सुंदरी के पास जाना और वहाँ से भी पलायन कर लेना, उसके अशांत मन का द्योतक है। उसकी स्थिति लहरों पर डोलते राजहंस जैसी है। स्वामी यतीश्वरानंद के अनुसार – “जब तक हमारे सभी विचार और भावनाएँ अस्पष्ट, धूमिल और काल्पनिक बनी रहेंगी, तब तक हमारे जीवन में निरंतर द्वन्द्व होते रहेंगे।”14 नंद पर एक ओर बुद्ध का प्रभाव है तो दूसरी ओर सुंदरी का रूपाकर्षण। उसकी भावनाएँ अस्पष्ट हैं और विचार धुमिल हैं। इसलिए द्वन्द्व की स्थिति है। डॉ. सुरेश अवस्थी नाटक की भूमिका में लिखते हैं – “बुद्ध का गौरव उसे अपनी ओर खींच रहा था, और सुंदरी का अनुराग अपनी ओर। इसी दुविधा में उससे न जाते बन रहा था न रुकते, उसकी स्थिति लहरों पर डोलते हुए राजहंस की-सी हो रही थी।”15 बुद्ध और सुंदरी दो व्यक्ति नहीं बल्कि दो परिस्थितियाँ है, दो विचारधाराएँ है। जिसमें से नंद किसी एक का चुनाव नहीं कर पा रहा है।

भाषा की बात की जाए तो नाटक की भाषा और शैली ऐतिहासिक कथा के अनुरूप होते हुए भी आधुनिक मानव के अंतर्द्वन्द्व को उजागर करने में सक्षम है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि नाटककार अंत तक किसी निश्चित विचारधारा का समर्थन नहीं करता है, किन्तु ऐसा महसूस होता है कि नाटककार का झुकाव भौतिकता की ओर अधिक है। यहाँ यह तो स्पष्ट है कि नंद न ही तो बुद्ध के निवृत्ति मार्ग को पूरी तरह से अपनाने के लिए तैयार है और न ही सुंदरी की सुंदरता में पूरी तरह लीन है। वह अपने लिए कोई स्वतंत्र मार्ग की तलाश में है, जहाँ वह अपने अस्तित्व को पा सके।

संदर्भ:
  1. स्वामी यतीश्वरानन्द, ध्यान और आध्यात्मिक जीवन, जयकृष्ण ऑफसेट, नागपुर, 2005, पृ.सं.- 79
  2. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1963, पृ.सं. – 24
  3. वही, पृ.सं. - 11
  4. वही, पृ.सं. – 103
  5. वही, पृ.सं. – 135
  6. वही, पृ.सं. – 29
  7. वही, पृ.सं. – 100
  8. वही, पृ.सं. – 65
  9. अष्टावक्र संहिता (अध्याय 15, श्लोक 17)
  10. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1963, पृ.सं. - 86
  11. वही, पृ.सं. – 135
  12. वही, पृ.सं. – 30
  13. वही, पृ.सं. – 124
  14. स्वामी यतीश्वरानन्द, ध्यान और आध्यात्मिक जीवन, जयकृष्ण ऑफसेट, नागपुर, 2005, पृ.सं.- 103
  15. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1963, पृ.सं. - 1
अर्चना गायतोंडे
सहायक प्राध्यापक, गणपत पार्सेकर कॉलेज ऑफ एजुकेशन, हरमल-गोवा

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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