शोध:सामाजिक मूल्य और मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा/स्वीटी यादव

अपनी माटी             (ISSN 2322-0724 Apni Maati)              वर्ष-2, अंक-18,                   अप्रैल-जून, 2015


यूँ तो ‘सामाजिक मूल्य’ शब्द उन नियमों को परिभाषित करता है, जिन्हें मनुष्य जीवन के हित में रखा जाता है। समाज ने जो नियम बनाए हैं, वे सभी ऐसे व्यवहारगत नहीं हैं, जो प्रत्येक मनुष्य के लिए सुखदायी या कल्याणकारी हों। समाज द्वारा निर्धारित मूल्य मनुष्य-जीवन के अनुकूल भी हो सकते हैं और प्रतिकूल भी। मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा कहीं सामाजिक मूल्यों में हस्तक्षेप करती है तो कहीं समर्थन की मुद्रा में खड़ी हो जाती है। आत्मकथा के बहाने मैत्रेयी पुष्पा नए मूल्यों को गढ़ती हैं। लेखिका उन्हीं मूल्यों को स्वीकार करती है, जो वर्तमान संदर्भों में भी प्रासंगिक हों। मैत्रेयी एक ऐसा विमर्श खड़ा करती हैं, जो सिद्धांतों से गढ़ा न होकर समाज की सच्चाइयों से पूरी तरह लैस है। यहाँ बात नियमों की नहीं, जीवन की वास्तविकताओं की है।मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा कलाकृति से बढ़कर ‘जीवन की घुटन’ है। मैत्रेयी जिन्दगी के धूल-धक्कड़ से लड़ते हुए गिरकर भी, फिर उठने का हौसला रखती है। वह आज की पीढ़ी को एक नया खुला आकाश देना चाहती है। आत्मकथा का पहला भाग ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ स्त्री के हक में कस्तूरी और मैत्रेयी का अविश्रांत युद्ध है। दूसरा भाग ”‘गुड़िया-भीतर-गुड़िया’ सभ्यता में निहित असभ्यताओं का एक ऐसा दर्दनाक दस्तावेज है, जिसके पन्ने ‘सदाचार’ के खून से लाल हैं, लेकिन जिसकी लाली (मैत्रेयी का नाम है) एक नए सूर्योदय की अरूणिमा की ओर इशारा करती है।“1

एक ओर उत्पीड़न, यातना और अपमान का प्रत्यक्ष चित्रण, दूसरी ओर आत्मविश्वास और स्वाभिमान का हौसला, एक ऐसी संस्कृति का निर्माण करता है, जो परंपराओं में जकड़े वर्चस्ववादी समाज को पूरी तरह से झकझोरती है। मैत्रेयी अपने जीवन के अँधेरों को दूसरों के सामने रखकर जीने का हौसला देती है। लाज-शर्म के पर्दे ऐसे फटे कि तन के साथ मन भी समाज द्वारा बनायी गई चौखटों को लांघकर एक नयी संस्कृति की निर्मिति चाहने लगा। बुंदेलखंड में पली-बढ़ी मैत्रेयी को यदि साहित्य की ‘लक्ष्मीबाई’ कहा जाए, तो गलत न होगा।

वास्तव में, यह आत्मकथा समाज को परिवर्तित करने के उद्देश्य से लिखी गई है। मैत्रेयी समाज के उन नियमों में बदलाव चाहती है, जो स्त्री को एक सजी-सँवरी गुड़िया मानते हैं। स्त्री का अपना अस्तित्व भी होता है। यह आत्मकथा उसी अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। आत्मकथा में मैत्रेयी परंपरा, रूढ़ि, पाखंड और यथास्थितिवाद के स्थान पर आधुनिकता और परिवर्तनशीलता को महत्त्व देती हैं। मैत्रेयी ऐसा समाज चाहती है, जहाँ आदर्शवादी मानसिकता न होकर समय के अनुसार परिवर्तित होने की विशाल आकांक्षा हो। बदलाव, परिवर्तनशीलता के बिना समाज धीरे-धीरे अपना अर्थ खोने लगता है। समय के बदलते तापमान में सामाजिक-संदर्भों का बदलना न केवल महत्त्वपूर्ण बल्कि आवश्यक भी है। स्त्री के जीवन को परखती यह आत्मकथा सामाजिक रीतियों-कुरीतियों के अनेक पक्षों को अपने में समेटे हुए है। मन पीड़ा से भर उठता है कि कब तक हमारा समाज स्त्री को अयोग्य ठहराता रहेगा ? आज स्त्री उन क्षेत्रों में भी अपने कदम रख रही है, जो उसके लिए अब तक वर्जित माने गए थे। पुरुष सत्ता को चुनौती देती यह स्त्री समाज द्वारा सभ्य कहे जाने वाले संस्कारों और आचरणों में प्रशिक्षित होने के बजाए अपने संस्कारों को स्वयं गढ़ने का माद्दा रखती है। मैत्रेयी अपनी उस स्वाभाविकता को कहने में भी नहीं हिचकिचाती, जिसे छिपाने के लिए स्त्री को बाध्य किया जाता है।स्त्री की नियति की लक्ष्मण रेखाओं को लांघती मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा अस्तित्व की एक नयी कहानी कहती है। ”मैत्रेयी सच्चाइयों के भीतर छिपी वास्तविक सच्चाइयों से रू-ब-रू हो जिन टीसों-कचोटों-अपमानों से दंशित होती है, उन्हें औसत भारतीय नारी की तरह अपने अंतर्मन में विधि की काई नहीं संजोती, बाहर उलीच देती हैं।“2

स्त्री के लिए समाज की पहली शर्त ‘मर्यादा’ है, जिसे उसका जीवन मूल्य माना गया है। इस जीवनमूल्य को वह कभी स्वीकार करती है, तो कभी अस्वीकार। जब वह अस्वीकार करती है, तो एकप्रकार से समाज की दोषी हो जाती है। यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या थोपी हुई मर्यादा वाकई जीवनमूल्य है ? क्या उसे ‘सामाजिक मूल्य’ कहा जा सकता है? ‘मर्यादा’-मनुष्य का आंतरिक संवेदनात्मक पहलू, जिसके तहत वह अपने जीवन को गुणात्मक मूल्यों से जोड़ता है। इसी मर्यादा के नाम पर वह मनुष्यता के लिए सहयोग देने का वादा भी अपने-आप से करता है। मर्यादा के तहत दूसरों को कष्ट न देने की बात की जाती है, सवाल है कि यह कैसी मर्यादा है जहाँ ‘सीता’ को महज लक्ष्मण रेखा लांघने पर ही इतनी बड़ी सजा दे दी जाती है। मैत्रेयी की आत्मकथा में सीता की अग्नि-परीक्षा जैसी मर्यादाओं का निषेध है, द्रौपदी द्वारा पाँच पतियों के वरण का अस्वीकार है। पतिव्रता की परिभाषा के तहत जो मूल्य स्त्री के अस्तित्व से लेकर व्यक्तित्व तक को शिकंजे में कसते हैं उनके लिए आत्मकथा में कोई जगह नहीं छोड़ी गई है।सामाजिक मूल्यों के तहत ‘नैतिकता’ को भी एक जरूरी मूल्य माना गया है। नैतिकता के तहत मनुष्य स्वंय को मनुष्यता के गुणों से सम्पन्न करते हुए खुद को संयमित भी करता है। बात जब स्त्री की आती है, तो समाज द्वारा उस पर ‘नैतिकता’ को जबरन थोप दिया जाता है। उसके लिए ‘नैतिकता’ स्वतंत्र निर्णय का नहीं, बल्कि दबाव और जबरदस्ती का प्रश्न बना दिया जाता है। समाज द्वारा स्त्री के लिए जो नैतिकता गढ़ी गई है, उसका उद्देश्य उसके जीवन के विकास को अवरूद्ध करने में ही निहित है। उसकी दसों इन्द्रियों पर पुरुष सत्ता का अधिकार मानते हुए सामाजिक मूल्यों का निर्धारण किया जाता है। आँख, नाक, कान ये सारी इन्द्रियाँ नैतिकता के नाम पर समाज द्वारा बंधक रही हैं। समाज द्वारा ‘स्त्री-शिक्षा’ को नहीं, बल्कि ‘स्त्री-कर्तव्य’ को मूल्य बनाया गया है। घूँघट के अन्दर रहने वाली स्त्री, ‘नैतिकता’ की पोषक हो जाती है और घूँघट उघाड़ने वाली अनैतिक ? यह है समाज का पैमाना, जहाँ विचार नहीं, व्यवहार नहीं बल्कि जीने का ढंग मूल्यों का अनिवार्य पैमाना बना दिया जाता है।

स्त्री को भी गति और विस्तार चाहिए, ताकि वह भी सामाजिक गतिविधियों में अपनी तरफ से हस्तक्षेप कर सके। मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में यही हुआ है। यहाँ हम मर्यादाओं और नैतिकताओं को नयी नजर से देखने लगते हैं। तथाकथित आदर्श क्षतिग्रस्त होना शुरू हो जाते हैं। आत्मकथा पढ़कर लगता है, जैसे यह स्त्री की सामाजिक मूल्यों से मुठभेड़ हो। आत्मकथा में अभिव्यक्त स्त्री बने-बनाये नियमों को तोड़-फोड़कर एक नवीन निर्माण करती है। स्त्री का यह बदलाव समाज को रास कहाँ आता है ? यह सच है कि बिना टूटे-फूटे नया नहीं बनता। वह नया तो बिल्कुल नहीं, जो गुलामी से स्वतंत्रता की ओर ले जाता हो। यह आत्मकथा उसी नए के निर्माण के लिए प्रयत्नरत दिखाई देती है।
समाज द्वारा स्त्री के लिए तीन बातें मुकर्रर की गई हैं, जिनसे उसका जीवन शांत ढर्रे पर चल सकता है। ये हैं - सेवा, श्रम और सेक्स। इन तीनों चीजों से यदि वह पुरुष या परिवार को संतुष्ट कर सकती है, तो वह तथाकथित सामाजिक मूल्यों पर खरी उतरती है। दूसरी और यदि वह अपनी तर्क-बुद्धि से इस दायरे में काम लेने लगती है, तब वह समाज-विद्वेष से जोड़ दी जाती है। समाज का यह नजरिया स्त्री के लिए सकारात्मक हो ही नहीं सकता। मैत्रेयी स्त्री के इन्हीं जन्मसिद्ध अधिकारों के लिए लड़ती हैं।आत्मकथा के माध्यम से मैत्रेयी पुष्पा समाज द्वारा निर्धारित मूल्यों पर नए ढंग से विचार करती हैं। बहुत से मूल्य बदले हैं और बहुत से मुद्दे ऐसे जुड़े हैं, जो पुरुषवादी वर्चस्व को पूरी तरह से तोड़ते हैं। पितृसत्ता ने स्त्री पर शुचिता, पवित्रता और अक्षुण्ण कौमार्य का जो विधान कानून की तरह लगाया है, उसमें दरार पड़ने लगती है। स्त्री-धर्म का सिंहासन हिलने लगता है, क्योंकि अब वह बनी-बनायी मूर्ति से मनुष्य होने की प्रक्रिया में अपने-आपको देखने लगी है। यही स्त्री जब माँ की भूमिका में आती है, तो अपनी अगली पीढ़ी को वे सपने दिखाती है, जो उसकी अपनी आँखों में हैं। भविष्य की आकांक्षाओं के सपने और अपनी पहचान सिद्ध करने के सपने।

‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ की भूमिका में लेखिका ने लिखा है -  ”हाँ लिखकर ही तो मैंने जाना कि न मैं धर्म के खिलाफ थी न नैतिकता के विरुद्ध, मैं तो सदियों से चली आ रही तथाकथित सामाजिक व्यवस्था से खुद को मुक्त कर रही थी।“3 च्नतपजल और टपतहपदपजल से बँधे स्त्री समाज की मौन चुप्पी को मैत्रेयी तोड़ना चाहती हैं। वह स्वपहचान की बात करती है। इतिहास औरतों की कुर्बानी का पुलिंदा रहा है। आने वाले समय का इतिहास बदलना चाहिए, मैत्रेयी इसके लिए काफी हद तक जद्दोजहद भी करती है। मैत्रेयी का शंखनाद है - ”मैंने अपने समाज में लोकतांत्रिक विधान की घोषणा की है कि औरत को हर तरह से सह नागरिक का दर्जा मिलना चाहिए।” 4

समाज के अनुसार स्त्री को न आर्थिक-आत्मनिर्भरता सुखी बना सकती है और न चेतन सम्पन्नता। पारंपरिक कर्मकांड ही उसे सुरक्षित और सुखी रहने की गाँरटी दे सकते हैं। वर्ण-व्यवस्था की बेड़ियों को काट फेंकने का साहस मैत्रेयी को नए और ऊर्जावान संकल्पों से पूरी तरह भर देता है। अपने सपनों को हकीकत में बदल देने की यही दृढ़ता मैत्रेयी से नए मूल्यों का निर्माण करवाती है। आत्मकथा में लेखिका ने अपने जीवन की हर उस घटना को खोला है जो स्त्री को दोयम दर्जे में रखने की बात करती हैं। यह कैसा मूल्य है जहाँ स्त्री को बेटे की माँ होना अनिवार्य माना जाता है ? स्त्री की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति पुत्र के होने पर ही क्यों निर्भर करती है ? ‘बेटा’ वंशवृद्धि का कारक बन जाता है और ‘बेटी’ कुलविनाश का प्रश्न? मैत्रेयी समाज के इन मूल्यों में बदलाव चाहती हैं। मैत्रेयी के ये शब्द समाज के सच को उजागर कर देते हैं, जब वह अपनी बेटी से कहती है - ”बबली तेरेे पिता के परिवार की परंपरा क्या है ? यह परिवार उस समाज का हिस्सा है, जहाँ औरतें केवल शरीर रूप में होती हैं जो पुरुषों की सेवा सुविधा के लिए श्रम कर सकें। इसके अलावा वे योनि रूप में होती हैं, पुत्रवती होकर वंश बेल बढ़ाएँ, बेटी पैदा करें तो अगली पुरुष पीढ़ी के लिए काम आएँ।“5 

स्त्री को अपने ‘स्व’ को स्थापित करने के लिए इस समाज से लड़ना होगा। मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा समाज को यही संदेश देती है।मैत्रेयी की आत्मकथा मूल्यों की नहीं, बल्कि जीवनमूल्यों की बात कहती है। ऐसे मूल्य, जो जीवन को गतिशीलता दें, न कि उसे जड़ बनाएँ। समाज के लिए ‘मानस’ आज भी आदर्श है - राम जैसा मर्यादा पुरुष, सीता जैसी पत्नी, भरत जैसा भाई आदि...। बेशक ये आदर्श भारतीय संस्कृति को ‘गौरव’ तो प्रदान करते हैं, लेकिन ‘जीवन’ नहीं। व्यक्ति का जीवन मानस की चौपाई भर नहीं है। यदि ये मूल्य व्यक्ति को जीने की आजादी नहीं देते, तो व्यर्थ हैं। मैत्रेयी की आत्मकथा ऐसे ही मूल्यों के स्वीकार और अस्वीकार के प्रश्नों से उलझती है।समाज के लिए स्त्री वह ‘सती’ है, जो अपना तन-मन बारकर पति और परिवार के चरणों में सेक्स और श्रम के साथ अर्पित कर दी जाती है। स्त्री के प्रेम को व्यभिचार से जोड़ दिया जाता है। ”‘प्रेम जो प्रेमी का स्पर्श करना चाहता है, उसके दुखदर्द को छूना चाहता है, उसको तकलीफों और प्राणलेवा हमलों से बचाना चाहता है किसी भी मनुष्य के अधिकार में आता है तो फिर स्त्री के हक में क्यों नहीं ?”6  मैत्रेयी संबंधों के खोखलेपन को पूरी तरह से उजागर कर देती हैं। उनका मानना है कि आर्थिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता तब तक बेमानी ही रहेगी, जब तक संबंधों के स्वीकार और अस्वीकार का साहस एक स्त्री के अंदर पैदा नहीं हो जाता।

स्त्री के लिए ‘लज्जा’ एक बहुमूल्य गुण माना गया है। सेक्स के नाम पर उसका शोषण तो किया जाता है, लेकिन सेक्स की बात पर उसे चुप रहना सिखाया जाता है। यहाँ लज्जा आड़े आ जाती है। यही लज्जा स्त्री के भीतर मानसिक तौर पर भय और आतंक का रूप ले लेती है। बात जब सच्चाई की आती है, तो हुकूमत का सिंहासन हिलने लगता है। मैत्रेयी की आत्मकथा में बुर्के और घूँघट में लिपटी औरत नहीं, बल्कि अपनी सांसों के लिए छटपटाती औरत है। समाज ऐसी स्त्री को अपराधी मानता है, जो अपनी कर्मेद्रियों के साथ ही ज्ञानेंद्रियों को भी दासत्व से मुक्त कराने में लगी हो। प्रेम के हरेक क्षण को शुभ मुहर्त मानती मैत्रेयी उन मूल्यों को ध्वस्त करती नजर आती हैं, जिसके तहत धर्म और जाति के नाम पर पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बंवडर खड़ा कर दिया जाता है। स्त्री के प्रेम को हक के साथ ही आजादी भी मिलनी चाहिए। बंदिशें, स्त्री के लिए ही क्यों ? ऐसे सवालों से आत्मकथा सीधे मुठभेड़ करती है। वही मूल्य हमारे लिए उपयोगी हैं, जो हमारे जीवन को गति और विस्तार दें। ऐसे मूल्यों का क्या महत्त्व, जो हमारी सोच को संकुचित कर हमसे जीने का हक ही छीन लें ? आत्मकथा के माध्यम से मैत्रेयी पुष्पा ऐसे मूल्यों को पूरी तरह से ध्वस्त कर देती हैं। जीवन बंदिशों का नहीं, बल्कि स्वेच्छाओं का प्रश्न होता है। मैत्रेयी ऐसे ही जीवन की माँग करती हैं जहाँ अस्वीकार और निषेध नहीं बल्कि वरण और स्वीकार का मिला-जुला रूप हो।

स्त्री की स्वाभाविकता के विरुद्ध उसी से कराए जाने वाले कृत्य सामाजिक मूल्य हो जाते हैं ? ऐसे मूल्य, जो उसे ढक-बांधकर उसकी इंद्रियों को सुन्न करके कारगर साबित होते हैं। ऐसे ही मूल्यों से, समाज सदियों से सक्रिय है। समाज के इन्हीं मूल्यों को संस्कृति का रूप दे दिया गया। क्या कभी एक स्त्री से यह पूछा गया कि उसे ये मूल्य कितना सुख देते हैं ? मूल्यों के ऐसे ही कटघरे स्त्री के लिए सुरक्षा घर बना दिए गए हैं। ”‘अपनी आचारसंहिता के शब्दकोष में से रंडी, वेश्या, पुश्चली और बदकार, बदलचन जैसे शब्द निकालकर उसके वजूद पर दे मारें। यह शब्द खासतौर पर उस औरत के लिए सुरक्षित और आरक्षित हैं, जो मनुष्य होने के नाते अपनी इच्छाओं का इजहार करती है। सपनों का हक रखती है।“7 स्त्री-पुरुष संबंधों की नियमावली में भी शर्तें इतनी कि स्त्री के वजूद को ही मिटा दिया जाता है। पुरुष संबंध बनाता है और स्त्री संबंधी बना दी जाती है। ऐसी संबंधी, जो अपनी चेतना को शून्य कर दे।मैत्रेयी चेतना शून्य नहीं, बल्कि चेतना-संपन्न स्त्री को अपना आदर्श मानती हैं। स्त्री को अपने मूल्य स्वयं निर्धारित करने होंगे, क्योंकि ”रामराज्य की सीमाओं के भीतर सीताओं का गुजर नहीं।“8 आत्मकथा में ऐसे अनेकों प्रसंग हैं, जब मैत्रेयी समाज द्वारा थोपे गए मूल्यों को न अपनाकर अपने मूल्य स्वयं गढ़ती है। चाहे वह विवाह-संबंधी प्रसंग हो या फिर सुहागरात में उल्टी रति-क्रिया संबंधी प्रसंग।समाज द्वारा निर्धारित मूल्यों ने स्त्री को सिर्फ लिंग माना है। जब वह इन मूल्यों को अस्वीकृत कर देती है, तो सजाएँ इतनी कठोर दी जाती हैं कि उसका जीना भी कठिन हो जाता है। 

स्त्री के लिए ‘नेम ंदक जीतवू’ का निमय आज से नहीं, सदियों से जारी है। मैत्रेयी परिवर्तन चाहती है। आत्मकथा में लेखिका ने लिखा है - ”मुझे स्त्री-जीवन की वह छवि पेश नहीं करनी है जो मर्यादा, शील-शुचिता और इज्जत के नाम पर स्त्री की नकली तस्वीर है, दमन और दबाव के कारण आंखें झुकाए हुए ....आवाज को घूंटे हुए ...मैं....उनमें से एक सेवा, श्रम और सेक्स के लिए समर्पित ... बदलाव चाहिए ही चाहिए।“9 मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा एक स्त्री की कथा भर नहीं, बल्कि बंधनों और वर्जनाओं से जूझती एक स्त्री का आत्मीय संवाद भी है। गृहस्थी के नाम पर बाँधती भूमिकाएँ हर स्त्री के भीतर एक मैत्रेयी को जन्म देती हैं। ऐसी मैत्रेयी, जो ज्ञान और संस्कारों की बड़ी-बड़ी बातें नहीं कहती, बल्कि अपने जीवन के अनुभवों को हमारे सामने रखती है। मैत्रेयी समर्पण करना भी जानती है लेकिन तभी तक, जबतक उसकी भावनाओं का सम्मान किया जाए। समाज द्वारा स्त्री के लिए निर्धारित मूल्य ‘समर्पण’ के नए और व्यापक अर्थ को मैत्रेयी हमारे सामने रखती हैं। मैत्रेयी के अनुसार ‘समर्पण’ का अर्थ स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे के प्रति सम्मान और सहयोग है। यदि स्त्री पुरुष की भावनाओं का सम्मान कर सकती है, तब फिर पुरुष स्त्री की भावनाओं का सम्मान क्यों नहीं कर सकता ?

संकल्प, नई राहों की खोज और गढ़ी गई नयी भूमिकाएँ जीवन का ऐसा चित्र खींचती हैं कि सृजन का पूरा संसार आंखों के सामने उपस्थित हो उठता है। सती प्रथा की परंपरा को ध्वस्त करती मैत्रेयी अपनी संस्कृति खुद गढ़ती हैं। हर विकार और वासना को ताल-ठोक कर सबके सामने उघाड़ देने की ईमानदारी, मखमली आवरणों में ढंकी सच्चाइयों पर से पर्दा उठाने की जिद और शास्त्रों द्वारा गढ़े गए मूल्यों को खंड-खंड कर देने का साहस! तन और मन को अलग-अलग करने वाले दायित्वों के अस्वीकार का साहस। सुरक्षा के नाम पर स्त्री को बचपन से ही पुरुष की शरण में रहना सिखाया जाता है। मैत्रेयी स्त्री की इसी वस्तुमय प्रतिष्ठा को पूरी तरह तोड़ देती हैं।  मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा स्त्री की अपनी उपलब्धि का एक प्रामाणिक दस्तावेज है।आखिर क्यों यह समाज मानता है कि स्त्री, पुरुष को मीत नहीं ईश्वर की तरह पूजे और अपने प्रेम को मारती चली जाए?  स्त्री की इसी नैसर्गिकता को पाप कहा गया। स्त्री के प्रेम को अवैध कहना उसका अपमान नहीं तो और क्या है ? वह तो उस पति को भी अपने प्रेम का भागीदार बना लती है, जो उसके जीवन में उसकी अपनी मरजी से आया ही नहीं। स्त्री अगर प्रेम दे सकती है तो लेने की हकदार क्यों नहीं ? देह पर प्रतिबंध और शक्ति पर विश्वास नहीं। औरत कितने बड़े कारागार में है ? इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। कहीं मूल्य तो कहीं मान-मर्यादा जैसे प्रश्नों से उसे जोड़ दिया जाता है। 

आत्मकथा के माध्यम से मैत्रेयी पुष्पा स्त्री की स्वतंत्रता, इच्छा और अस्मिता जैसे नए मूल्यों को समाज के समक्ष खड़ा करती हैं। स्त्री के अस्तित्वहीन व्यक्तित्व को प्रमुख और निर्णायक व्यक्तित्व में बदलने के लिए वह समाज से भी लड़ती हैं।बुंदेलखंड, जहाँ आज भी स्त्री शिक्षा को उतनी महत्ता प्रदान नहीं की जाती, जितनी कि पुरुष शिक्षा को। ‘खिल्ली’गाँव में पलने-बढ़ने वाली मैत्रेयी न केवल ‘शिक्षा’, बल्कि ‘राजनीति’ को भी स्त्री के अधिकारों में शामिल कर देती हैं। यहाँ मैत्रेयी का सवाल यह है कि क्या ज्ञान पर पुरुषों ने अपना पेटेन्ट करवा रखा है ? मैत्रेयी जैसा साहस आज हर स्त्री को करना होगा। स्त्री को बनी-बनायी परंपरा में देखने की बात तो समाज करता है लेकिन उन परंपराओं से उबारने की नहीं। आखिर क्यों ? कब यह समाज स्त्री को उसका हक देगा ? उसे भी मनुष्य समझेगा ? आखिर कब ? मैत्रेयी स्त्री के इन्हीं अधिकारों के लिए लड़ती हैं।समानता, न्याय, आजादी, हक, अधिकार, अस्तित्व और आत्मनिर्भरता जैसे नए मूल्यों को गढ़ती यह आत्मकथा अपने वर्तमान संदर्भों के कारण आज भी प्रासंगिक है। मैत्रेयी की लड़ाई समाज से नहीं, बल्कि उन नियमों, उन मूल्यों से है, जो उसे चैन से जीने नहीं देते। तरह-तरह के फतवे जो उससे जीने का हक ही छीन लेेते हैं। मैत्रेयी पुष्पा की यह आत्मकथा ऐसे ही फतवों का निषेध करती है।

संदर्भ

1 विजय बहादुर सिंह - मैत्रेयी पुष्पा स्त्री होने की कथा, पृ. 267
2 पहल, अंक-73, पृ. 256
3 मैत्रेयी पुष्पा - गुड़िया भीतर गुड़िया, भूमिका
4 कथाक्रम, सितम्बर 2009, पृ. 102
5 मैत्रेयी पुष्पा - गुड़िया भीतर गुड़िया, पृ. 131
6 हंस, सितम्बर 2005, पृ. 30
 7 हंस, नवम्बर 2005, पृ. 63
 8 वही, पृ. 63
9  मैत्रेयी पुष्पा - गुड़िया भीतर गुड़िया, पृ. 338


स्वीटी यादव,शोध-छात्रा भारतीय भाषा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

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