आलेख:लाजै दूदाजी रो मेड़तों जी, कोई चोथी गढ़ चीतोड़/कालूलाल कुलमी

अपनी माटी             (ISSN 2322-0724 Apni Maati)              वर्ष-2, अंक-18,                अप्रैल-जून, 2015


चित्रांकन
संदीप कुमार मेघवाल
मीरा मध्यकाल की ऐसी स्त्री कवि है जिनके यहां जीवन और जीवन के हर्षोल्लास और विषाद के विविध आयाम हैं। उनकी कविता में लोक जीवन के बहुआयामी पहलू हैं। जैसे मीरा को लोक जीवन से गहरा प्रेम और प्रेरणा रही है। वे लोक जीवन से ही अपनी स्वतंत्रता का चुुनाव करती है। उनके यहां अपनी बात कहने का साहस और प्रतिवाद उनकी प्रबिद्धता को दर्शाता है। वे चुनौती देने में यकीन रखती हैं। ऐसा कम ही होता है हैं कि एक स्त्री अपनी उस सत्ता को चुनौती दे रही हैं जहां स्त्री के लिए जगह तो हैं लेकिन उसका कहीं कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। राजपूताने की रियासतें स्त्री की स्वतंत्रता को लेकर कई तरह के संदर्भ देती रही हैं। उसके पास ऐसे कई प्रमाण भी रहे हैं जिनके सहारे वे स्त्री की आजादी और सम्मान को लेकर कई दावे करते रहे हैं। लेकिन वे दावे कितने सही है इनकी स्वतंत्र व्याख्या अभी की जानी है। दरबारी इतिहासकारों की व्याख्या की बात करने का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि उनकी व्याख्या सदैव सत्ता सापेक्ष ही रही है। 
मीरा में प्रेम की गहरी तड़प है। वे अपने प्रिय का इंतजार करते थकती भी कहां है? 

आवो आवो जी रंगभीना म्हारे म्हैल,
प्यालो तो लियां हाजर खड़ी।
तसजुग में सूती रही, त्रेता लई जगाय 
द्वापर में समझी नहीं, कलजुग पोंहच्या आय।।
सतगुरु शब्द उच्चरिया जी, बिनती करों सुनाय।
मीरा नैं गिरधर मिल्या जी, निरभै मंगल गाय।।

मीरा अपने प्रिय को प्रेम निमत्रंण दे रही है। यह  मीरा का स्वतंत्र निर्णय भी है और चुनाव भी। वे अपने प्रिय के मंगल गान गाी है। उकी याद में उनके नैन दुखते भी लगते हैं। यह मीरा का अपने को उस रूप में प्रस्तुत करना है जिस तरह से उसका दिल कहता है। यहां किसी का दुराव नहीं है तो किसी बात का डर भी नहीं है। यह निडरता ही मीरा को मीरा बनाती चलती है। जहां वह तमाम बंधनों से मुक्त होती जाती है। अपने रंगमहल में अपने प्रिय को जैसे चाहती है बुलाती है। मीरा अपने प्रिय के साथ रास रचाती है रंग खेलती हैं। वे जिस तरह चाहती है रहती है। अपने मन की बात कहती है।

मीरा के यहां लोक जीवन की मुक्तता का गहरा अनुभव है। वे कृष्ण के उस रुप को याद करती है जहां वह प्रेम में हैं। मीरा कहीं भी उस रुप को याद नहीं करती जहां कृष्ण महाभारत के युद्ध में एक नायक के रुप में खड़े हैं। जबकि मीरा तो राजरानी थी उनको तो अपने राज्य के लिए नायक की आवश्यकता थी। लेकिन वे प्रेमी को याद करती है। उसकेा ही अपना सबकुछ मानती है। उसे वह कहती है और उस तरह से कहती है जैसे कहना है। 

आज अनारी ले गयो सारी, बैठि कदम की डारी हे माय। 
म्हारे गैल परयो गिरधारी हे माय, आज अनारी ले गयो सारी। 
मैं जल जमुना भरन गई थी,आ गयो कृष्णमुरारी हे माय। 
ले गयो सारी म्हारी अनारी, जल में खड़ी उघारी हे माय।
सखी सयानी मोरी हॅसत हैं, हंसि हंसि देवै तारी हे माय,
सास बुरी अरु ननद हठीली, लरि लरि दे मोहिं गारी हे माय।। 

मीरा का प्रेम प्रेमी प्रेमिका का है। वहां प्रेमी के साथ हंसना, रोना सब होता है। अपने प्रेम के लिए वह सब जतन करती है जो आवश्यक है। जिनके बगैर उसका काम नहीं चलता है। मीरा का काम भी नहीं चलता। अपने पति के साथ रहते हुए भी वह यही करती और उनके बाद भी वह अमर चुड़ला पहनती है। वह अपने प्रेम के साथ अमर होना चाहती है। इसी कारण मुक्त होकर अपनी बात कहती है। उनका प्रेम लौकिक ही ज्यादा है। वे चाहे उसको किसी भी तरह से याद करती हैं लेकिन उनके यहां ऐसा कुछ भी नहीं जिससे यह लगता हो कि मीरा अपने को दबा रही है या फिर अपने प्रेम को कहीं न कहीं गुमनामी में ले जा रही है। यह मीरा की सबसे बड़ी साहसिकता है कि वह अपनी बात को कहती जाती है। याद को भी और लोक जीवन की सुखद उत्सवधर्मिता को भी वह आनंद से व्यक्त करती है। यह मीरा के लिए आसान न हरहा इसी कारण उनको अपने लिए प्रेम का चुनाव करना पड़ा और जीवन को हर परिस्थिति में जीने का साहस जुटाना पड़ा। 

करना फकीरी क्या दिलगीरी, सदा मगन न रहना रे। 
कोई दिन बाड़ी तो कोई दिन बंगला, कोई दिन जंगल रहना रे
कोई दिन हाथी कोई दिन घोड़ा, कोई दिन पांवों से चलना रे। 
केाई दिन गादी केाई दिन तकिया, कोई दिन भोय में पड़ना रेे।
कोई दिन खाना तो कोई दिन पीना, कोई दिन भूखे ही मरना रे। 
कोई दिन पहनॉ तो कोई दिन ओढ़ा, कोई दिन चिथरा पथरना रे। 
मीरॉ कहै प्रभु गिरधरनागर, ऐसा कूॅता करना रे।।

यह उन लोगों के लिए है जो अपने रास्ते खुद चुनते हैं उनके लिए सबसे बड़ी बात यही होती है कि वे जीवन में हर तरह की स्थिति के लिए तैयार रहते हैं। मीरा ने भी वही राह चुनी, जहां कितने ही कष्ट हो लेकिन चलना तो है ही। अपने को जिस राह का राही बनाया उस पर तो चलना ही है चाहे जो हो जाए। वे लोग जो विद्रोह को ही जीवन के रुप में चुनते हैं। जिनके पास उस राह की हर राह को खोजना होता है। वे चाहते हुए भी नहीं बल्कि अपनी राह को चुनते हुए सदैव अपनी तरह से ही बढ़ते हैं वे हर तरह का जीवन जी सकते हैं। उसका प्रतिवाद कर सकते हैं। 

कछु लेना न देना मगन रहना
नाहिं किसी की कॉनॉ सुएानी, नाहिं किसी कूं { अपनी}कहना।
गहरी नदिया नाव पुरानी नाव पुरानी, खेवटिये सूॅ मिलता रहना।
मीरॉ के प्रभु गिरधरनागर सॅवरिया {के} चरणॉ चित देना।। 

मीरा का यह प्रेम अपने प्रिय के प्रति एक निष्ठ है। वह कहीं भी डगमगाता नहीं है। इसी कारण वे उसके लिए किसी की परवाह भी नहीं करता। मध्यकाल में एक स्त्री के लिए ईश्वर की ओट ही थी वर्ना वह आज की तरह अपने प्रेम का स्वतंत्र इजहार नहीं कर पाती। वैसे तो वह स्वतंत्र ही इजहार कर रही है लेकिन उसको लोकलाज की परवाह नहीं है वह तो पहले ही कहती है कि लोकलाज तो पहले ही खो दी है। उसमें न कुछ भी रखा हुआ नहीं है। मुझे मेरे प्रिय से मतलब है वही मेरा है और उसके सहारे ही मैं अपने को अभिव्यक्त कर रही हूं। 

समाजशास्त्र की दृष्टि से मीरा की पीड़ा स्त्री की पीड़ा और उसका प्रविाद सत्ता के खिलाफ स्त्री की स्वतंत्रता का इजहार है। वह भी लोक जीवन में आकर लोक के बीच आकर एक दलित को अपना गुरु बताते हुए यह कहना कि मेरी प्रितम तो एक ही है। मैं उसके लिए कुछ भी कर सकती हूं। मीरा कहीं भी लोक से बाहर नहीं है। उसकी स्मृतियां लोक में ही जीवित रही है। वहीं उसको जिंदा भी रखा गया वर्ना मेवाड़ के इतिहास के पृष्ठों में मीरा का कहीं कोई निशान नहीं है। सत्ता का यही चरित्र ही होता है।

जो तुम तोड़ो प्रिया मैं नहिं तोड़ूॅ
तेरी प्रीत तोड़ि प्रभु कौन सॅग जोडू।
तुम भये तरुवर मैं भई पॅखियां
तुम भये सरवर मैं तेरी मछियॉ
तुम भये गिरवर मैं भई मोरा,
तुम भये चंदा भई मैं चकोरा
तुम भये मोती, {तो}मैं भई धागा।
तुम भये सोना, भई मैं सुहागा।
बाई मीरॉ के प्रभु ब्रज के बासी,
तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी।। 

सबसे बड़ी बात यह हैं कि मीरा अपने प्रभु का ध्यान अटूट बंधन के लिए करती है। जहां किसी तरह का कोई संदेह नहीं है। कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे वह दुराव करे। वह अपने को वही देखती हैं और उसी के साथ देखती है जहां से उसका जीवन सार्थक है। अपने इस अटूट बंधन को वह सदैव बनाये रखती है। वह उस प्रभु की दासी है जिसे वह चाहती है। यह सब मीरा अपने समाज के बीच करती है। लोक जीवन की बहुुमुखी परम्पराओं का ज्ञान मीरा की लोक के बीच पैठ को भी स्पष्ट करता है। मध्यकाल के तमाम संत तरह-तरह से प्रतिवाद करते हैं। कबीर का प्रतिवाद स्पष्ट है। वे समाज की बुराईयों को चुनौती देते हैं, वे मनुष्य के मनुष्य होेने को सबसे अहम मानते हैं। मीरा के साथ स्त्री होना और वह भी आजाद स्त्री सत्ता के और समाज के सामने सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा करना है। यहीं से मीरा अपनी राह पर चलती है। यहीं से उसके सामने तरह-तरह के संकट पैदा होते हैं और वह विद्रोहीणी बनती जाती है। उसके भीतर का विवेकबोध उसको स्पष्ट राह दिखाता चलता है और वह अपनी बात रखती चलती है। 

मीरॉ रंग लाग्यों हो नॉम हरी, और रंग अटकि परि।
गिरधर गास्यॉ सती न होस्यॉ, मन मोहया घण नामी।
जेठ बहू को नहिं राणाजी, थे सेवक म्हे स्वामी।
चोरी करॉ नहिं जीव सतावॉ, कॉईं करैगौ म्हॉको कोई
गज सॅू उतरि गधे नहिं चढस्यां, या तो बात न होई।
चूडों तिलक दोवड़ो माला, सील वरत सिणगारॉ
और वस्त रत नहीं मुहिं भावै हो राणाजी! यह गुरग्यान हमारा।
भावै केाई निंदो भावै केाई बिंदों, म्हे तो गुण गोविंदजी रा गास्या।
जीं मारग वै संत गया छै जीं मारग म्हे जास्या।
राज करंत नरक पड़ंता भोगी जोरे लीया।
जोग करंत मुकति पहुंत, जोगी जुग-जुग जीया। 
गिरधर धनी धनी मेरे गिरधर, मात पिता सुत भाई। 
थे थॉके म्हे म्हॉकै हो राणाजी यूॅ कहै मीरॉ बाई। 

उसे न तो सत्ता चाहिए न किसी तरह का पद। उसे अपने जीवन में जितना कुछ है वह चाहिए। जिसके जिए वह अपनी पक्षधरता रख रही है। वह न तो सती होना चाहती है न अपनी मर्जी के खिलाफ कुछ चाहती है। वह केवल अपनी आजादी चाहती है। उसे उसका कृष्ण प्रेम चाहिए और संतों का साथ चाहिए। उसके लिए चाहे उसे कुछ भी करना पड़े। वह किसी से भी लड़ने केा तैयार है। यह एक स्त्री का साहस है। उस समाज में जहां स्त्री का बोलना भी एक अपराध हुआ करता हो वहां यइि वह अपनी आजादी के साथ बोल रही है और उस आजादी को प्राप्त भी कर रही है वहां यह बहुत बड़ा प्रतिवाद है। मीरा भक्त के रुप में चाहं जो हो वह एक स्त्री की आवाज है। उसे केवल भक्तिन बनाकर मंदिरों में सीमित नहीं रखा जा सकता? वह समाज के बीच स्त्री की आवाज है। जहां से वह पितृसत्ता और राजसत्ता को चुनौती देती है। जहां वह मुखर होकर बोलती है। जहां उसकी आवाज युगीन आवाज बनती है। जहां से मीरा की पहचान बनती है। अगर मीरा तमाम महलों की रानियों की तरह रानी बनकर रहती तो मीरा मीरा कैसे हो सकती थी? यह मीरा की फितरत थी कि उसने प्रतिवाद किया। उसने अपने को अपनी आवाज के साथ रखा। जहां मीरा सबकुछ छोड़ कर साधु संगति करती है और मर्यादाओं को त्याग देती है वहां वह स्त्री को सम्मान भी प्रदान करती है। स्त्री को सम्मान और गरिमा के साथ वह जबान भी देती है। 

मैं तो सुमरया छै मदनगोपाल, राणॉजी म्हारो कॉई करसी।
मीरॉ बैठया महल में जी, छापा तिलक लगाया।
आया राणाजी महल में जी, कोप करयो छै मन मॉय।
मीरॉ महलॉ से ऊतरया जी,ऊॅटॉ भार कसाय।
डावो छोडयो मेड़तों, केाई सुदा द्वारका जाय।
राणाजी सॉडयो भेजियो जी, पाछा लावो मोड़।
घर की नार इस्तरी चाली {छै} मुड़ राठोड़।
लाजै पीहर सासरो जी, लाजै मायर बाप।
लाजै दूदाजी रो मेड़तों जी, कोई चोथी गढ़ चीतोड़।
त्यॉरू पीहर सासरों जी,त्यारू मायरे बाप।
त्यारू दूदाजी रो मेड़तों, कोई चोथी गढ़ चीतोड़।
{राणॉजी} विष का प्याला भेजिया जी, द्यो मीरॉ के हाथ।
कर चरणअमृत पी गयी जी, आप जानो दीनानाथ।
पेयॉ नाग छोड़ियों जी, छोड़ो मीरॉ के महल।
हिवड़े हार हिंडोलिया, कोई तुम जानो रघुवर।।

मीरा का आजाद होना और रहना जाहिर है उस शान के लिखाफ था जिसको वह व्यवस्था ढो रही थी, और मीरा इसको खारिज करती है। यह बात राणा को अच्छी नहीं लगती। उनकी कुल की वंश की लाज को बट्टा लग रहा था और इस की सजा थी मौत। इसी कारण मीरा को मारने का उपक्रम होने लगे। यह आज के समाज में देखा जा सकता है। चाहे खाप पंचायत हो या फिर अंतरजातीय विवाह की बात हो। वहां प्रतिवाद करने का अर्थ केवल मौत ही है। पितृसता में पुरूष के लिए समस्या उतनी नहीं है लेकिन स्त्री के लिए तो यह मौत की डगर है।  मीरा के साथ भी यही किया जाता है। लेकिन मीरा ने कभी किसी की परवाह नहीं की। उसके साथ उसका खुदा था। उसको अपनी राह पर यकीन था और वह अपनी राह पर चल रही थी। उसे किसी का डर नहीं था। ऐसे में मीरा को केवल भक्त की खोल में नहीं देखा जा सकता। मीरा के पास यह एक युगीन रास्ता था। जिसकी राह अनंत है। वह उस समय किसको अपना प्रेमी कहती? किसी सामान्य इंसान को कहना कठिन था और राजघराने में उसके लिए कोई था नहीं फिर उसको वहां से पलायन करना था, जिसके लिए उसे कोई चाहिए था वह कृष्ण ही था। जिसके प्यार को वह सहज ही स्वीकार भी कर सकती थी और अपने को उसमें डूबों भी सकती थी। असल बात मीरा की पदचाप की है। मीरा की आवाज आज भी लोक और जीवन में हैं जबकि सामा्रज्य धराशायी हो गए है। किले खण्डहर बनकर रह गए। लेकिन मीरा के गीत आज भी वही दर्द का अहसास कराते हैं। जैसे मीरा आज भी वहीं खडी है। एक नवयुवती की तरह अपने प्रेम में पागल। वह युवती जो प्रेम करती हैं और प्रेम का इजहार भी करती है और तमाम युवाओं को अपने प्रेम के लिए आंदोलित कर रही है। पांच सौं साल की यह युवा जिंदगी के अर्थ उस तरह से खोलती है जिस तरह से एक की युवती खोलती है। उसके पास चुनौती देने का साहस है। लड़ने की अदम्य क्षमता है। वह राणा को मनुष्य की विविधता के बारे में बता रही है। यह भी कितने आश्चर्य की बात है कि मीरा की कविता में राणा की तरह से क्या कहा गया? ऐसा जिसमें मीरा को बचाने की बात हो या फिर उनको सम्मान सब कुछ देने की बात हो कहीं जिक्र नहीं है। वहां तों मीरा एक अपराधी ही है। उसके लिए सजा तय है। मीरा के राजद्रोह का दण्ड उनको देश निकाला ही मिला। अगर वह देशनिकाला न लेती तो उनकी हत्या राज्य में ही होती। वैसे भी मीरा का अंत क्या हुआ इसका कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता। मीरा की वही तस्वीर हमारे सामने हैं जिसमें मीरा युवती है। मीरा की इसके अलावा कहीं कोई छवि नहीं है। यह भी सवाल तो है। मीरा का मंदिर बनाकर उसको पूजने का क्या अर्थ है? मीरा मंदिरों में नहीं मीरा स्त्री की आवाज में हैं। जहां से वह अपने को अपनी पहचान के साथ अभिव्यक्त कर सकती है। 
राणॉजी कर्मा रो सॅगाती, कुल में केाई नहीं।

एक तो माता रै दोय दोय डीकरा, ज्यॉकी न्यारी न्यारी भॉत,
वॉकी न्यारी न्यारी करमॉ रेष। राणा।
एक तो राजाजी री गद्दी बैठियां, दूजो हलर बैल भरतो पेट।
एक तो माता रै दोय दोय डीकरी,ज्यॉकी न्यारी न्यारी भॉत।
ज्यॉकी न्यारी न्यारी करमॉ रेष।
एक तो मोतियन मॉग भरावती, दूजी घर-घर की पनिहार।

राणॉजी तें जहर दियो मैं जाणी।
जैसे कंचन दहत अगिन में,निकसत बाराबॉणी।
लोकलाज कुलकाण जगत की, दी बहाय ज्यूं पॉणी।
अपने घर का परदा कर लो, मैं अबला बौराणी।
तरकस तीर लग्यो मेरे हियरे, गरक गयो सनकाणी।
सब संतन पर तन मन वारों, चरणकमल लपटॉणी।
मीरॉ के प्रभु राख लई है, दासी अपनी जाणी।।

राणोंजी मेवाड़ों म्हारों काईं करसी,
म्हे तो  गोबिंद  रा गुण गास्यॉ, हे   माय।
राणोंजी रूससी गॉव राखसी,
राणोंजी मेवाड़ों म्हारों काईं करसी।

डॉ.कालूलाल कुलमी
युवा समीक्षक
ई-मेल:paati.kalu@gmail.com
मो-8285636868
मीरा की यह चुनौती एक स्त्री की चुनौती है। जिसको तमाम बंधनों से आजादी चाहिए। जहां वह किसी भी तरह की लोकलाज का वहन करने को तैयार नहीं है। वह अपने आत्मसम्मान से बढ़कर किसी भी सत्ता को स्वीकार करे यह उसके लिए मृत्यु से भी बढ़कर है। मीरा के काव्य में यह विद्रोह एक कवि का तो है ही उससे बढ़कर स्त्री कवि का है। एक ऐसी स्त्री जो प्रेम करना चाहती है। अपनी मर्जी से जीना चाहती है। अपने को तमाम सीमाओं से परे मनुष्य के रुप में देखना चाहती है। जिसके लिए थोपे गए मूल्य और बंधन केाई महत्व नहीं रखते बल्कि उसके लिए सबसे अहम है उसकी अपनी सोच। जहां वह निर्भय और निडर है। मीरा की कविता एक निर्भय और साहसी युवती की सत्ता और जड़ समाज के विरोध में सशक्त अभिव्यक्ति है। 

सभी संदर्भ
मीरा माधव {सं नंदकिशोर आचार्य} पुस्तक से लिये गये हैं.वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर पुन.प्रस 2003, 2013

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