'अगम बहै दरियाव' में चित्रित लोक-संस्कृति
- अखिलेश कुमार मौर्य

भारतीय साहित्य में 'लोक' शब्द बहुत प्राचीन काल से प्रयुक्त होता आ रहा है। 'लोक' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की 'लोकृदर्शन' धातु में 'धत्र' प्रत्यय जोड़ने से हुई है। 'लोकृदर्शने' धातु का अर्थ है देखना। अतः 'लोक' शब्द का मूल अर्थ हुआ देखने वाला'। परन्तु व्यवहार में 'लोक' शब्द का प्रयोग सम्पूर्ण जनमानस' के लिए होता है। ऋग्वेद में 'लोक' शब्द का प्रयोग 'जन' के पर्यायवाची शब्द के रूप में किया गया है।
हिंदी साहित्य में भी परंपरागत रूप में, सामान्य जनता के अर्थ में 'लोक' शब्द का प्रयोग किया गया है।
लोक शब्द को विभिन्न विद्वानों ने अपने तरीके से परिभाषित किया है। डा. सत्येन्द्र ने लोक साहित्य ने लोक साहित्य को कुछ इस तरह परिभाषित किया है- "लोक साहित्य के अन्तर्गत वह समस्त बोली या भाषागत अभिव्यक्ति आती है, जिसमें (अ) आदिम-मानस के अवशेष उपलब्ध हों। (आ) परम्परागत मौखिक क्रम से उपलब्ध बोली या भाषागत उपलब्धि हो, जिसे किसी की कृति न कहा जा सके, जिसे श्रुति ही माना जाता हो और जो लोक-मानस की प्रवृत्ति में समाई हुई हो। (इ) कृतित्व हो, किन्तु वह लोक मानस के सामान्य तत्वों से युक्त हो, कि उसके किसी व्यक्तित्व के साथ सम्बद्ध रहते हुए भी लोक उसे अपने ही व्यक्तित्व की कृति स्वीकार करो।" (1)
डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय के मत के अनुसार 'लोक' की परिभाषा निम्नलिखित है- “आधुनिक सभ्यता से दूर, अपने प्राकृतिक परिवेश में निवास करने वाली, तथाकथित अशिक्षित एवं असंस्कृत जनता को 'लोक' कहते हैं जिनका आचार-विचार एवं जीवन परम्परायुक्त नियमों से नियंत्रित होता है।“(2)
प्राचीन भारतीय साहित्य के अध्ययन से यह पता चलता है कि प्राचीन समय से ही देश में संस्कृति की दो धाराएं थी -
1.शिष्ट संस्कृति
2.लोक संस्कृति
शिष्ट संस्कृति का तात्पर्य उस अभिजात संस्कृति से है जो की बौद्धिक विकास में आगे था और जिसकी संस्कृति का स्रोत वेद और शास्त्र थे। लोक संस्कृति से तात्पर्य उस संस्कृति से है जो अपनी प्रेरणा लोक से लेते हैं।
शिवमूर्ति के सृजनात्मक व्यक्तित्व का विकास ग्रामीण परिवेश में हुआ। वास्तव में शिवमूर्ति ग्रामीण परिवेश में पले- बढ़े एवं उसी में रचे-बसे कथाकार हैं। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार- "शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के विश्वसनीय कथाकार हैं। किसान जीवन को अपनी रचना का विषय उन्होंने किसी साहित्यिक प्रवृत्ति या साहित्यिक आकांक्षा के तहत नहीं अपनाया है। वे ग्रामीण एवं किसान जीवन के सहज रचनाकार हैं। उनका व्यक्तित्व, रहन-सहन, बोली-बानी सब कुछ ग्रामीण और किसानी है। एक आंतरिक ठसक के साथ। वे जितने विनम्र हैं उतने ही दृढ़! यह भी लगता है कि उन्हें अपने लेखन के प्रति आत्मविश्वास भी है। इस आत्मविश्वास का आधार रचित वस्तु की गहरी सूक्ष्म और व्यापक जानकारी है निजी फर्स्ट हैंड जानकारी।"(3)
'अगम बहै दरियाव' शिवमूर्ति का एक ऐसा उपन्यास है जिसमें लोक-संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है। इस उपन्यास में लोक-गीत, लोक-कथा, लोकोक्ति, मुहावरे, पहेली आदि का खूब प्रयोग किया गया है । लोक-गीतों में जो श्रृंगार का वर्णन उपलब्ध होता है वह पवित्र, संयत और शुद्ध होता है। हिंदी के रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार रस का जो अश्लील प्रदर्शन अपनी कविताओं में किया था उसका यहां नितांत अभाव है। इस उपन्यास में प्रेम के दोनों पक्षों संयोग और वियोग को दिखाया गया है। प्रेमी किस तरह प्रेमिका को रिझाने के लिए गीत के माध्यम से अपनी बात कहता है-
“घमवा औ सिथिया परै न देबै देहियाँ
अरे जोगइ के राखब ना
अपनी पुतरी की छहियाँ
तोहैं जोगइ के राखब ना।“(4)
यानी- मैं तुम्हारी देह पर धूप और शीत नहीं पड़ने दूँगा। तुम्हें अपनी पुतलियों की छाया में सँभालकर रखूँगा। पान के पत्ते की तरह फेरूँगा। रोज सबेरे महोबिया पान खिलाऊँगा।
प्रेमी के प्रश्न पर प्रेमिका भी उसी तरह जवाब देती है
“चार दिना ले राजा पनवा खिअउब्या
फिर उतारि देब्या ना
जैसे गोड़वा की पनहिया
राजा उतारि देब्या ना।“(5)
अर्थात चार दिन तक पान खिलाओगे फिर जैसे लोग पैर से पनही(जूता) उतार देते हैं उसी तरह तुम मुझे अपने दिल से उतार दोगे।
भारतीय साहित्य में संयोग का जितना महत्व है उतना ही वियोग को भी महत्व दिया गया है। प्रियतम के परदेश चले जाने पर पत्नी के लिए सारा संसार सूना लगता है। घर काटने को दौड़ता है। प्रियतम के प्रवास के समय समस्त प्रकृति में एक अनोखी विषमता का साम्राज्य छाया हुआ रहता है। जब बोधा परदेश जाने की बात करते हैं तो उनकी पत्नी परेशान हो जाती है और अपना दुःख गीत के माध्यम से बताती हैं-
“जेठवा न सामी छाया बखरिया
अदरा न बोया धान
चढ़त जवनिया भग्या परदेसवा
तीनों तरक गई मारि।“(6)
यानी- हे स्वामी अगर आपने बरसात आने के पहले जेठ के महीने में अपना घर नहीं छा लिया, आद्रा नक्षत्र में धान नहीं बो दिया और चढ़ती जवानी में परदेश भाग गए तो समझिए कि आपने तीनों मौके खो दिए यह तीनों अवसर खोने वाले दुनिया के सबसे बड़े अभागे माने जाते हैं।
विवाह हमारा सबसे प्राचीन और प्रधान संस्कार है। संसार की सभी जातियों में विवाह बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। वेदों में लिखा है कि जो मनुष्य अविवाहित है उसका जीवन अधूरा है। वह किसी यज्ञ का विधान नहीं कर सकता अतः भारतीय समाज में विवाह हमारे धार्मिक जीवन का आवश्यक अंग है। विवाह के गीत वर और कन्या दोनों के घर में गाए जाते हैं। इस उपन्यास में भी पहलवान के शादी के अवसर पर महिलाएं गीत गा रही हैं-
“सुनु सुनु कारे भँवरवा
नेवता लइ जाउ
होय मोरे पूत के वियहवा
नेवता दई आउ।“(7)
यानी- हे काली भंवरे, सुनो! मेरे बेटे का विवाह हो रहा है। जाकर सबको नेवता दे आओ।
इस गीत को पहली बार तेल-पूजन के मौके पर गया जाता है और उसी दिन से रिश्तेदारी में नेवता भेजने की शुरुआत होती है।
विवाह में गारी गीत गाने की एक परंपरा रही है। खेलावन के बेटे की बारात में महिलाएँ माठा बाबा को गारी गीत न्योछावर करती हैं-
“कहाँ जाबे भेड़वा अकेलवा रे
तोरी मुली मुली अखियां
जाबे त जाबे माठा बाबा की
बहिनी की सेजरिया
खाइ का दुइ पूड़ी पउबे
चौदे का मजूरी पउबे
देहरी पर से लांड़ देखइबै
चला अइबै अपनी बखरिया रे
तोरी मुली मुली अखियाँ।“(8)
फागुन मास के होली के सार्वजनिक उत्सव पर जो गीत गाए जाते हैं उसे 'होली' कहते हैं। फाल्गुन में गाए जाने के कारण भोजपुरी प्रदेश में इसे फगुआ या फाग के नाम से भी जाना जाता है। होली आनंद और उत्सव का त्यौहार है। ऐसी मंगल अवसर पर गीतों में हर्ष का होना स्वाभाविक है। इन गीतों में कहीं राधा और कृष्ण होली खेलते हुए दिखाई देते हैं, तो कहीं शिवजी भी होली का आनंद लेते नजर आते हैं। कहीं राम और सीता सोने के पिचकारी से एक दूसरे पर रंग डाल रहे हैं, तो कहीं हनुमान लंका में 'होरी मचाते' हुए पाए जाते हैं।
'अगम बहै दरियाव' उपन्यास में होली का चित्रण लेखक ने बखूबी किया है। बसंत का आगमन हो रहा है उस समय बनकट गाँव कुछ ऐसा दिखाई दे रहा है- "नदीपार पहाड़ी का जंगल पलाश के फूलों से लाल हो गया है। नदी की धारा पतली और पानी पारदर्शी हो गया है। नीम, महुआ और पीपल अपने पुराने पत्ते झाड़ चुके हैं। नीम फूल रहा है। महुआ कूच रहा है और आम के बौर की खुशबू पूरे इलाके में फैल रही है।"(9)
बनकट गाँव में भी होली पर फगुआ गाने की परंपरा रही है यह त्यौहार वहां बहुत हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। करिया सिंह के दुआर पर टीड़ी सिंह की मंडली फगुआ गा रही है। ढोल की तड़तड़ाहट और झाँझ की सैंयक-सैंयक माइक से कई गुनी होकर पूरे गाँव में विस्तारित हो रही है। आधा गाँव करिया सिंह के दुआर पर उमड़ आया है।
“रहिया कै चलना जुलुम होइगा दइया
नारि नीक देखि राह रोकैं कन्हड्या
डारें गलियवा मा डाऽकाऽ
अरे, डारें गलियवा मा डाका कन्हड्या
डारें गलियवा मा डाऽकाऽ।“(10)
लोक साहित्य में जनता के सामाजिक जीवन के चित्रण के साथ ही आर्थिक पक्ष का भी चित्रण होता है। एक तरफ ग्रामीण जीवन में जहां सुख और समृद्धि पाई जाती है वहीं दूसरी तरफ घोर निर्धनता दिखाई है। जहाँ गीतों में सोने की थाली में भोजन करने की बात होती है लेकिन हकीकत में बरसात में टपकते हुए छप्पर दिखाई पड़ते हैं।
'अगम बहै दरियाव' उपन्यास में भी गाँव की गरीबी का बखूबी वर्णन किया गया है। बनकट गांव में रहने वाले मजदूरों की स्थिति काफी दयनीय है। मजदूरों से ज्यादा काम कराकर उन्हें कम मजदूरी दिया जाता है, जिससे उनका घर भी चलाना मुश्किल हो जाता है। खेतिहर मजदूरों का दर्द उनके गीतों में दिखाई पड़ता है-
“बाबू कै बखार भरी कइके हलवाही
बिटिया बहिन मिली करैं लगवाही
कइसे गुजारा होये दुइ अँजुरी मा?
दलित सतावा जाए एहि नगरी मा।“(11)
गरीब जब भी सताया जाता है और उसको कहीं से न्याय नहीं मिलता तो वह भगवान से गुहार लगाता है। उसे लगता है एक दिन उसके उपर जिसने भी जुल्म किया है उसको भगवान सजा जरूर देंगे। संतोखी के जमीन पर गाँव के ठाकुर छत्रधारी ने कब्जा कर लिया है। संतोखी छत्रधारी के खिलाफ मुकदमा दायर करता है मुकदमे काफी समय तक चलता है, लेकिन छत्रधारी के पैसे और पावर के आगे संतोखी को अपने ही जमीन पर कब्जा नहीं मिल नहीं पा रहा है। कोर्ट से आदेश आने के बाद भी छत्रधारी कभी कोर्ट से स्टे, कभी झूठ गवाहों के दम पर मुकदमे को खींचते रहते हैं। संतोखी को अब ये लगने लगा है कि अब उनकी जमीन मिलने से रही। वह सूनी सड़क की पटरी पकड़े उदास मन थाने की ओर चले जा रहे हैं और और अपना दुःख व्यक्त कर रहे हैं-
“तोहरे पाप से धरती हाली
हंकार से आसमान
बहुत दिना ले बाबू हमका सताया
अबै सुनत नाही ना भगवान
कभौ बिलाइ जाब्या ना
राम का अइहें जौ दरेगवा
बाबू बिलाइ जाब्या ना।“(12)
यानी- तुम्हारे पाप से धरती और अहंकार से आसमान हिलने लगा है। बहुत दिनों से मुझे सता रहे हो। अभी भगवान सुन नहीं रहे हैं, लेकिन जिस दिन राम को दरेग आ गया, तुम मिट जाओगे।
लोक साहित्य के अध्ययन में लोक कथाओं का स्थान महत्वपूर्ण है। व्यापकता और प्रचुरता की दृष्टि से इनका मूल्य अत्यधिक है। भारतीय लोक साहित्य में लोक कथाओं की संख्या अनंत है।
व्यक्ति जब परेशान होता है तो अपने को सहारा देने के लिए वह लोग कथाओं का सहारा लेता है। वह स्मरण करता है कि हमारे पूर्वज किस तरह दुःख में अपना जीवन व्यतीत करते थे। इस उपन्यास में पांडे के जीवन में जब दुःख आता है तो इसी कथा से अपने मन को बहलाते है- "यह किस्सा तो सुना ही होगा कि राजा हरिश्चन्द्र जब बिकने के लिए काशी जा रहे थे तो कई दिन भूखे रहने से पेट कलकला रहा था। नहीं सहा गया तो एक तालाब में मछली मारने उतरे। राजा थे। मछली मारने की आदत तो थी नहीं। बड़ी मेहनत से एक मछली पकड़ पाए। उसे सूखी पत्तियों की आग में भूना और जब भोग लगाने बैठे तो मछली उछलकर पानी में कूद गई।"(13)
ग्रामीण जनता अपने दैनिक जीवन में अनेक लोकोक्तियों, मुहावरों, पहेलियों का प्रयोग करती है। लोकोक्ति का प्रयोग करने से बात का वजन बढ़ जाता है और सामने वाले पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। मुहावरों के प्रयोग से भाषा में नयापन आ जाता है और उसका स्वरूप सुंदर बन जाता है। पहेलियों को पूछ कर लोग एक दूसरे का बुद्धि परीक्षण करते हैं।
लोक साहित्य में लोकोक्तियों का स्थान महत्वपूर्ण है। लोकोक्तियां पुरखों के अनुभवसिद्ध ज्ञान का धन है। इसकी परंपरा अत्यंत प्राचीन है। वेदों में भी इनकी सत्ता का पता चलता है।
'अगम बहै दरियाव' उपन्यास में शिवमूर्ति ने लोकोक्तियों, मुहावरों का सुंदर प्रयोग किया है। छत्रधारी सिंह फर्जी डॉक्यूमेंट बनाकर गांव के लोगों की जमीन हड़प लेते हैं। उनके लिए नीति-नियम कोई मायने नहीं रखता है।छत्रधारी सिंह का मानना है कि नियम कमजोरों के लिए होता है। कमजोर हमेशा बलवानों का आहार बनता है। उनका मानना है 'सिंह' नाम में लगाने का क्या मतलब? इसका मतलब है कि हम शिकार करके खाने में विश्वास करते हैं। कहते हैं-
“ठग, ठाकुर औ बीग, सोनार
धाए धूप करैं अहार।“(14)
अर्थात ठग, ठाकुर, भेड़िया और सोनार दौड़ धूप करें अपना आहार प्राप्त करते हैं। इन चारों की सफलता में चल का योगदान होता है। इसमें धर्म-अधर्म विचारणीय नहीं होता। उद्देश्य होता है लक्ष्य की प्राप्ति।
मनुष्य का मन स्वभाव से ही रहस्यात्मक है। जब वह चाहता है कि उसके कहे गए बात को सामान्य लोग ना समझ सके तो ऐसी भाषा का प्रयोग करता है जो बोलचाल में प्रचलित नहीं होती है और यही पहेली का रूप धारण कर लेती है। मनुष्य की गोपनीय प्रवृत्ति है पहेलियों की उत्पत्ति का कारण है।पहेलियों की उत्पत्ति का एक और कारण मनोरंजन है। किसान दिन भर खेतों में कठिन परिश्रम करता है और परिश्रम से उसका शरीर थक जाता है। शाम को इन पहेलियों के द्वारा वह मनोरंजन करता है और अपने दिमाग को मानसिक शांति प्रदान करता है। गाँव में मनोरंजन का दूसरा साधन न होने के कारण पहेलियां इन कृषको के लिए एक मनोरंजन का साधन भी है।
इस उपन्यास में भी लेखक ने पहेलियों का यथा स्थान उपयोग किया है। खेलावन के बेटे के बारात में वर पक्ष और कन्या पक्ष पहेलियों के माध्यम से एक दूसरे का ज्ञान परख रहे हैं। कन्या पक्ष के एक बुजुर्ग वर्ग पक्ष से एक पहेली पूछ रहे हैं-
“हर जुवाठ खेत मा, बरदा गाय के पेट मा
हलवाहे कै जनमै नांय, कलेवा धरा खेत मा।“(15)
अतः निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं कि 'अगम बहै दरियाव' उपन्यास बनकट गाँव के लोक संस्कृति को बखूबी दर्शाती है। लेखक ने लोक-संस्कृति के विभिन्न पक्षों को इस उपन्यास में समाहित किया है। लोक-गीत, लोक-कथा, लोकोक्ति, पहेली इत्यादि के माध्यम से लेखक ने गाँव की जीवन को दिखाया है। बनकट गाँव के किसान अपने दुःख और व्यथा की बावजूद अपनी संस्कृति से प्यार करते हैं। जब किसान अपने गरीबी और अत्याचार से टूटा है तो वह अपने को लोक-गीत और लोक-कथा के माध्यम से सम्बल देता है। वह जिंदगी के विभिन्न रंगों, छवियों और गीत संगीत से समृद्ध जीवन जीते हैं और उसे बचाने का प्रयास करते हैं।
समीक्षित कृति : शिवमूर्ति, अगम बहै दरियाव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2023
सन्दर्भ :
- डॉ सत्येंद्र, लोक साहित्य विज्ञान, शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा, द्वितीय संस्करण, 1971, पृष्ठ संख्या-5
- डॉ कृष्णदेव उपाध्याय, लोक-साहित्य की भूमिका, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2019, पृष्ठ सं 11
- संपादक मयंक खरे, अतिथि संपादक संजीव, मंच, जनवरी-मार्च, 2011 पृष्ठ सं-32
- शिवमूर्ति, अगम बहै दरियाव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2023, पृष्ठ सं-228
- वही, पृष्ठ सं- 228
- वही, पृष्ठ सं- 40
- वही, पृष्ठ सं- 130
- वही, पृष्ठ सं- 463
- वही, पृष्ठ सं- 339
- वही, पृष्ठ सं- 339
- वही, पृष्ठ सं- 48
- वही, पृष्ठ सं- 190
- वही, पृष्ठ सं- 447
- वही, पृष्ठ सं- 21
- वही, पृष्ठ सं- 455
अखिलेश कुमार मौर्य
शोधार्थी, हिंदी विभाग, एम. एम. एच. कॉलेज, ग़ाज़ियाबाद
akhileshutsav298@gmail.com, 7318497241
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
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