शोध आलेख : हिंदी कहानियों में चित्रित थर्ड जेंडर विमर्श - इंदिरा व डॉ. विमलेश शर्मा

शोध आलेख : हिंदी कहानियों में चित्रित थर्ड जेंडर विमर्श

इंदिरा व डॉ. विमलेश शर्मा


शोध सार :


    हिंदी साहित्य में थर्ड जेंडर विमर्श का विकास सामान्यतः कथा साहित्य में देखा जा सकता है। हालाँकि मुख्यधारा समाज से अलग-थलग कर दिए जाने के कारण गुमनाम जीवन व्यतीत करने वाले इस समुदाय की संरचना काफी जटिल है। बाहरी लोग भी इनके निजी जीवन में दखल नहीं कर पाते हैं। वहीं, द्विलिंगी सामाजिक व्यवस्था में इनके प्रति सामाजिक स्वीकृति का अभाव है। हिंदी साहित्य इस वर्ग की समस्याओं को विभिन्न साहित्यिक विधाओं, विशेष रूप से कथा साहित्य द्वारा केंद्र में लेकर आने की दिशा में प्रयासरत है। इस शोध आलेख में शिवप्रसाद सिंह की बिंदा महाराज, राही मासूम रज़ा की ख़लीक़ अहमद बूआ, डॉ. विमलेश शर्मा की मन मरीचिका, सलाम बिन रज़ाक की बीच के लोग, एस. आर. हरनोट की किन्नर, कुसुम अंसल की ई मुर्दन का गाँव, किरण सिंह की संझा, डॉ. पद्मा वर्मा की इज्ज़त के रहबर, अंजना वर्मा की कौन तार से बीनी चदरिया, महेन्द्र भीष्म की त्रासदी आदि कहानियों का संदर्भ लिया गया है।

 

बीज शब्द : थर्ड जेंडर, किन्नर, हिजड़ा, अस्मिता, सामाजिक पहचान, संत्रास, वंचना, तिरस्कार, लिंग-दोष, यौन अभिव्यक्ति, लैंगिक विकलांगता, विस्थापित जीवन।

 

मूल आलेखकिसी भी समाज के साहित्य को उस समाज का दर्पण माना जाता है और जो साहित्य अपने परिवेश को उकेरता है, वही साहित्य उस समाज का प्रतिनिधि कहलाने का अधिकारी होता है। हिंदी साहित्य की बात करें तो इसकी प्रवाहमान धारा विभिन्न सामाजिक सरोकारों से जुड़ी रही है। साहित्य के सामाजिक परिदृश्य में समाज का हर वर्ग अपना स्थान प्राप्त करता है। इसी क्रम में हिंदी साहित्य में कई विमर्श उभर कर हमारे सामने आए। समाज के वंचित और दमित वर्गों की आवाज़ को साहित्य में स्थान देने के लिए कई अस्मितामूलक विमर्श जैसे स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श सामने आए। इसी कड़ी में थर्ड जेंडर विमर्श हिंदी साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करा रहा है। थर्ड जेंडर विमर्श केंद्रित पहली कहानी बलभद्र प्रसाद दीक्षित द्वारा लिखित चमेली जान 1938 में आयी। हालाँकि, विडंबना है कि यह कहानी किसी गंभीर पत्रिका में स्थान प्राप्त न कर चकलस नामक हास्य-व्यंग्य प्रधान पत्रिका में प्रकाशित होती है। वर्तमान परिदृश्य में हिंदी साहित्य थर्ड जेंडर विमर्श को लेकर सजग हुआ है। हिंदी साहित्य थर्ड जेंडर जैसे हाशिए के वर्ग से मुँह नहीं मोड़ रहा है।

 

हिंदी साहित्य की थर्ड जेंडर विमर्श धारा में शिवप्रसाद सिंह की कहानी बिंदा महाराज संभवतः शुरूआती प्रमुख कहानियों में से एक है। यह कहानी नयी कहानी आंदोलन के परिवेश में लिखी गयी है। इस कहानी में बिंदा महाराज नामक हिजड़ा पात्र के त्रासद जीवन का चित्रण है। हिजड़ा होने के कारण उपेक्षित जीवन व्यतीत करना उसकी नियति बन जाती है। बिन्दा महाराज का कोमल मन प्रेम और अपनत्व के लिए प्यासा रहता है। दीपू मिसिर के साथ प्रेम संबंधों की उड़ती कहानियों पर वह सोचने लगता है कि क्या सचमुच ऐसा सम्भव है! क्या उससे भी कोई मुहब्बत कर सकता है! वही दूसरी तरफ, इन सबसे अलग बिन्दा महाराज का मन मिसिर के बेटे मुन्ना के प्रति ममता से भरा हुआ था। वह उसके लिए बतासे, रेवड़ियाँ, मिठाई लाया करता। जिस दिन मुन्ना बीमार होकर दुनिया से चल बसा, समाज ने हिजड़ा के संसर्ग को इसका ज़िम्मेदार माना। लोगों के शब्द बिंदा महाराज के हृदय को छलनी करते – हिंजड़े के साथ का असर है भाई... सोने जैसा लड़का हवा हो गया।1 उसे डायन कहकर तिरस्कृत किया गया।

 

द्विलिंगी समाज के असमान सामाजिक और नैतिक मूल्यों से उत्पन्न यातना, संत्रास और उपेक्षित जीवन की पीड़ा को इस कहानी में मार्मिकता से चित्रित किया गया है। बिन्दा महाराज के अकेलेपन की पीड़ा को इन शब्दों से भलीभाँति समझा जा सकता है – दुनिया के सारे नाते-रिश्ते केवल पुरुष और स्त्री से हैं... विपरीत लिंगों का आकर्षण, एक के दायरे की तमाम वस्तुएँ दूसरे से उसी प्रकार संबद्ध। बिन्दा महाराज का दुनिया में कोई रिश्ता नहीं, हो भी तो कैसे, न तो वह मर्द है न औरत।2

 

बिन्दा महाराज जैसे पात्र को गढ़ने के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए शिवप्रसाद सिंह कहते हैं – बिन्दा महाराज जैसे पात्र तो हर जगह आते-जाते हुए दिखाई पड़ते रहते हैं... इस कहानी में बिन्दा महाराज की जो पीड़ा उभरी है, वह किसी एक व्यक्ति में नहीं देखी गयी, बल्कि सिचुएशन्स के द्वारा क्रिएट की गई है। इस चरित्र के माध्यम से, मैं उस उपेक्षित जीवन को भी एक मूल्य देना चाहता था, जिसके अन्दर पीड़ा का बोध, मानवीय पीड़ा को भी लाँघ जाता है। जो पुरुष नहीं दे पाता, नारी नहीं दे पाती, वह एक हिजड़ा दे जाता है।3

 

राही मासूम रज़ा द्वारा लिखित ख़लीक़ अहमद बूआ कहानी के माध्यम से किन्नर समुदाय की मानवीय संवेदनाओं को उकेरने का प्रयास किया गया है। कहानी की मुख्य पात्र ख़लीक़ अहमद बूआ स्वयं अपने परिवार के बारे में नहीं जानती लेकिन रुस्तम खाँ को ही अपना परिवार मानती है। रुस्तम खाँ से अनुरक्ति का कारण यही है कि समाज तथा परिवार द्वारा बहिष्कृत अहमद बूआ को स्नेह और प्रेम की उम्मीद किसी ओर से नहीं रही। वह अपनी रोजी-रोटी के लिए रुस्तम खाँ पर आश्रित नहीं है, इसके विपरित बूआ ही उसकी जीविका चलाती है। ख़लीक़ अहमद बूआ को सिर्फ़ अपनत्व और प्रेम के आलंबन की आवश्यकता है। गली-मौहल्ले के बच्चे अहमद बूआ को मरने के नाम से चिढ़ाते हैं तो वह नाराज होने के बजाए इससे अपने अकेलेपन को दूर करती है। दुपहरी के समय सुनसान गली में वो अपने जीवन और हृदय की छवि देखने से घबरा उठती है। इससे ख़लीक़ अहमद बूआ के जीवन में अकेलेपन के अंधकार को महसूस किया जा सकता है–ख़लीक़ अहमद बूआ के दिल में मौत का यह डर क्यों था, यह तो मुझे नहीं मालूम, सम्भव है कि वह मौत से नहीं, तन्हाई से डरते रहे हो। क्योंकि उनके आगे-पीछे तो कोई था नहीं।4

 

रुस्तम खाँ के साथ आयी ख़लीक़ अहमद बूआ ग़ाजीपुर में लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गयी थी और सभी से हँस कर बात करना उनका व्यवहार था। प्रेम से वंचित अहमद बूआ का रुस्तम खाँ के प्रति पूर्ण-समर्पण तथा वफ़ादारी थी। वह उसे अपना सुहाग मानकर सभी जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करती थी। वहीं, दूसरी तरफ अहमद खाँ मौका देखकर बूआ को छोड़कर पुखराज बाई के पास चला जाता है। इस बात को बूआ सहन नहीं कर पाती है और रुस्तम खाँ की हत्या कर देती है। यह इस बात को दर्शाता है कि भले ही हमारा समाज लिंग के आधार पर इस समुदाय के लोगों को घर से बहिष्कृत कर देता है लेकिन इनमें भी प्रेम, आकर्षण, वफ़ादारी जैसे मानवीय गुण होते हैं। अहमद बूआ में हम स्त्रीत्व के गुण पाते हैं और उनका रुस्तम खाँ से सहज ही पत्नी तुल्य प्रेम तथा आकर्षण है। लिंग द्वैत में उलझा हमारा समाज भूल जाता है कि इनकी भी सत्ता है जो सहज मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत होते हैं। अहमद बूआ के एकनिष्ठ और समर्पित प्रेम ने ही रुस्तम की जान लेने को मज़बूर किया होगा। सामाजिक रिश्ते सभी के लिए समान होते हैं चाहे वह व्यक्ति हिजड़ा कह कर समाज द्वारा त्याग दिया गया हो।

 

मन मरीचिका कहानी में डॉ. विमलेश शर्मा ने मानव से मानवी बनने की यात्रा को संजीदगी से उकेरा है। सुलोचना और मानव का रिश्ता दैहिक प्रेम की सीमाओं को लाँघ कर उस ऊँचाई तक पहुँच जाता है जहाँ दो आत्माएँ मिलती है। सुलोचना मानव की ओर आकर्षित होकर प्रेम से ओत-प्रोत थी जबकि मानव ट्रांसजेंडर होने के कारण अपनी भावनाओं से निरंतर युद्ध कर रहा था। मानव के अनगिनत कष्ट उसकी डायरी में दर्ज़ होते गए – पाँच बहनों में सबसे छोटा था मैं। उन्हीं के साथ पला-बढ़ा। उन्हीं की बातें, व्यवहार, रहन-सहन सब मेरे व्यवहार में है। मुझे काँच की चूड़ियाँ, लाल बिंदी औऱ सूरमा पसंद है जो दीदी लगाती थी। लहरिये का सूट पहनने की मुझे भी इच्छा होती है। आज मैंने यहाँ यह सब किया तो सबने मेरा मजाक उड़ाया।5

 

इस कहानी में मानव की सहज भावनाओं और उसकी घुटन का तो सजीव वर्णन है ही, इसके साथ ही ट्रांसजेंडर समुदाय से संबंधित विभिन्न परिभाषाओं, श्रेणियों, वर्गों जैसे एम.एस.एम (मेन हू हेव सेक्स विद मेन), हिजड़ा, कोठी, पंथी आदि का वैज्ञानिक ब्योरा भी दिया गया है। मानव के संबंध में मनोवैज्ञानिक डॉ. बसु कहते हैं – जितना समझ पाया हूँ, दिस इज द केस ऑफ ए कोठी ट्रांसजेंडर। कोठी वो मेल होते हैं जो जैविक रूप से तो पुरुष होते हैं पर परिवेश या मनोवैज्ञानिक कारणों से अपने पुरुषत्व को खारिज करते हैं। ऐसे में विपरीत लिंग जैसा आचरण करते हैं।6  इस कहानी में थर्ड जेंडर व्यक्तियों को उपेक्षित और हाशिए पर धकेलने के स्थान पर उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए वैज्ञानिक और चिकित्सकीय राह दिखायी गयी है। मुख्यधारा समाज में विभिन्न यौन अभिव्यक्तियों के प्रति सहजता रखते हुए जटिलताओं को कम करके समतामूलक समाज की ओर बढ़ा जा सकता है।

 

सलाम बिन रज़ाक द्वारा लिखित कहानी बीच के लोग व्यंग्यात्मक है जो समाज की विसंगतियों का पर्दाफ़ाश करती है। कहानी एक जुलूस से शुरू होती है जो सभ्य तथा संभ्रांत वर्ग के लिए हास्यास्पद तथा विचित्र प्रदर्शन है। यह जुलूस किन्नर समुदाय द्वारा अपने अधिकारों और मागो को पूरा करवाने के लिए निकाला जा रहा है। इस जुलूस में समाज का वह वंचित वर्ग शामिल है जो हाशिए पर कर दिए गए हैं और स्थायी रूप से निर्वासित जीवन जीने को मजबूर है। वेशभूषा के आधार पर लेखक ने इनकी तुलना स्पार्टा के सिपाहियों से की जो कि अपनी बहादुरी, अनुशासन तथा वफ़ादारी के लिए इतिहास-प्रसिद्ध है। बिना आस्तीन के जैकेट, कमर में काठ की तलवारें, हाथों में चूड़ियाँ, बालों की चोटियाँ, नाक में कीलें तथा माथे पर बिंदियाँ लगाये किन्नर समुदाय का यह जुलूस लोगों को विचित्र जान पड़ रहा था। इनके बैनर पर लिखे गए नारे अस्तित्व और सामाजिक पहचान के संकट से जूझ रहे इस वर्ग की व्यथा को बताते हैं। जैसे –कल संसार हिजड़ों का होगा, हम से जो टकरायेगा, हम जैसा हो जायेगा।7

 

अपनी मांगों के लिए नारे लगा रहे जुलूस पर व्यंग्य करते हुए अन्य लोग कहते हैं कि शायद ये लोग सरकार बनाना चाहते हैं। ये लोग सरकार बना कर क्या करेंगे? तालियां बजायेंगे और हांजी-हांजी करेंगे! सरकार ने इन लोगों को काफी छूट दे रखी है। लोग अपनी नपुंसकता को भुनाने की कला भी जान गये हैं।8 इस तरह की टिप्पणियाँ हमारे समाज की संवेदनहीनता को प्रदर्शित करती हैं जो उपेक्षित तथा परित्यक्त वर्ग के द्वारा समाज में अपने अस्तित्व की तलाश कर रहे लोगों के प्रति अस्वीकृति भाव को दिखाती हैं। यह जुलूस अन्य लोगों के लिए जिज्ञासा और कुतूहल का विषय भी रहता है क्योंकि एक तरफ यह वर्ग समाज से विस्थापित भी है, साथ ही किन्नर समुदाय द्वारा अधिकारों की मांग करना भी इनके लिए हास्यास्पद है।

 

यह कहानी प्रतीकात्मक स्तर पर व्यंग्य करते हुए सामाजिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक चरित्र की विसंगतियों को दिखाती है। आंदोलन कर रहे किन्नर समुदाय से रिपोर्टर द्वारा उनके लेफ्टिस्ट या राइटिस्ट तथा पोलिटिकल बैकग्राउंड पर सवाल किया जाना यह दर्शाता है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी इस संवेदनशील वर्ग के माध्यम से अपने लिए सनसनीखेज़ सामग्री देखता है न कि दबे-कुचले वर्ग की आवाज़ को सरकार तक पहुँचाने का माध्यम बनने का इच्छुक है। पुलिस-प्रशासन जुलूस को रोकने में नाकाम रहता है। पुलिस के पुरुष कांस्टेबल जुलूस को गिरफ्तार करने से मना कर देते हैं तो महिला पुलिस को बुलाया जाता है। पुलिस एस.पी. द्वारा इसके लिए तर्क दिया जाता है कि स्त्रियों और हिजड़ों में अंतर नहीं है तो महिला इंस्पेक्टर द्वारा भी पुरूषों और हिंजडों को एक-समान बताया जाता है। एक तरफ किन्नर समुदाय अपने हक और अस्तित्व के लिए आंदोलन कर रहा है। दूसरी तरफ, प्रशासन की यह मानसिकता हमारे समाज की कुरूपता और भद्दी सोच को इंगित करती है जो इस वर्ग को समाज द्वारा निर्धारित किसी लैंगिक खांचे में नहीं आने पर उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लगा देती है।

 

कहानी के अंत में जुलूस की भयावह पूर्ण स्थिति दिखाई देती है। संभवतः पुलिस को गली में समुदाय के नेताओं के सशस्त्र छुपे होने की आशंका होती है। जुलूस पर गोलियाँ चला कर इनके संघर्ष का करूणामय अंत कर दिया जाता है। इस वर्ग के प्रति यही नफरत, घृणा, हिंसा इन्हें समाज से दूर कर रही है। वैधानिक और शांतिपूर्ण जुलूस पर हिंसात्मक कार्रवाई करना संवैधानिक अधिकारों के हनन को दिखाता है। इस तरह, कहानी में प्रशासन, सत्ता, समाज पर व्यंग्य करते हुए किन्नर वर्ग की त्रासद और वंचित स्थिति को दिखाया गया है।

 

एस आर हरनोट की किन्नर कहानी हिजड़ा वर्ग के लिए किन्नर शब्द का प्रयोग करने के बाद हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में रहने वाली किन्नर अनुसूचित जनजाति के अस्मिता संकट के कथानक पर आधारित है। कहानी के लेखक हिमाचल प्रदेश से ही संबंध रखते हैं और थर्ड जेंडर के लिए किन्नर शब्द के प्रयोग पर कहते हैं – यह मजाक न केवल किन्नौर वासियों का था बल्कि हिमाचल की संस्कृति के साथ हमारे वेदों-पुराणों, रामायण, महाभारत, महापंडित राहुल सांकृत्यायन के साथ उन विद्वान, साहित्यकारों, इतिहासकारों का भी अपमान था जिन्होंने किन्नर पर दर्जनों शोध ग्रन्थ और पुस्तकें लिखी हैं।9

 

इसके साथ ही हमें जाने-अनजाने समाज-राजनीति का एक वह चेहरा भी दिखाई देता है जो हिजड़ा वर्ग का मजाक बनाते हैं। कहानी में शबनम मौसी के चुनाव जीत जाने के बाद बेलीराम किन्नर को पता चलता है कि हिजड़ा वर्ग के लिए किन्नर शब्द का प्रयोग किया जाने लगा है। इसे पूरी किन्नर जनजाति के लिए अपमान मानते हुए अपनी अस्मिता के लिए बेलीराम किन्नर द्वारा संघर्ष किया जाता है। यह कहानी किन्नर जनजाति के इतिहास को खँगालने के प्रयास में थर्ड जेंडर के प्रति समाज के नजरिए और संवेदनहीनता की तस्वीर को भी प्रस्तुत करती है। विधानसभा में किन्नर शब्द के प्रयोग पर बहस के दौरान नेताओं द्वारा कमर मटकाते हुए टिप्पणी करना थर्ड-जेंडर वर्ग के प्रति सामाजिक क्रूरता का प्रदर्शन है। इसके साथ, हम यह भी पाते हैं कि हिजड़ा शब्द के प्रति समाज, मीडिया का सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं है। संभवतः इस शब्द का अर्थ नपुसंकता से लेते हुए उपहास सूचक मान लिया गया है जो कि अनुचित है। दूसरी तरफ, किन्नर जनजाति भी थर्ड-जेंडर के लिए किन्नर शब्द का इस्तेमाल किए जाने को अपना अपमान मानते हैं। चूँकि हमारा समाज और व्यवस्था बरसों से पितृसत्ता में जकड़े हुए है, पुरुष को शक्ति, सम्मान का प्रतीक मान लिया गया है। अतः उभयलिंगी वर्ग समाज से स्थायी निर्वासन को झेल रहे हैं और अस्तित्वहीन जीवन जीने को बाध्य है। समाज की पुरूष-प्रधानता के कारण हमारी भाषा, बोली, व्यवहार और व्यवस्था का झुकाव पहले से ही पुल्लिंग की तरफ है, ऐसे में तीसरे लिंग के लिए किस तरह की व्यवस्था है, यह चिंतनीय है। हमारे सामाजिक कार्यकर्ताओं, भाषा वैज्ञानिकों, वैयाकरणों आदि विद्वानों द्वारा तीसरे लिंग के लिए स्वीकार्य ‘संज्ञा तथा सामाजिक पहुँच को बढ़ाए जाने के उपायों पर विचार करना चाहिए।

 

कुसुम अंसल के द्वारा लिखित ई मुर्दन का गाँवमार्मिक कहानी है जिसमें लैंगिक विकृति से पीड़ित बलदेव(बीलू) वर्मा के माध्यम से दिखाया है कि यदि हमारा समाज इन्हें सहज स्वीकार करें तो ये भी अपने कौशल से समाज में योगदान दे सकते हैं। कहानी में बीलू के द्वारा बाल मनौविज्ञान को भी समझने की कोशिश की गई है। बीलू अपने माँ-बाप के लिए बेटा है लेकिन उसकी आत्मा स्त्रीत्व भाव से सराबोर है। उसे नीलिमा के साथ गुड़ियों से खेलना अच्छा लगता है, लेकिन उसे इसकी इज़ाजत नहीं है। उसके शरीर में होने वाले अनजान परिवर्तनों को स्वीकार करने की क्षमता न उसके परिवार में है, न ही समाज में इसकी गुंज़ाइश है। उसके साथ दमन, जबरदस्ती, पाबंदी, कठोरता-पूर्ण व्यवहार किया जाता है जो उसके व्यवहार में प्रतिध्वनित होता रहता है। वह अपने हमउम्र बच्चों से दूर होकर अकेला हो जाता है। इन सबके बावजूद, बीलू के माता-पिता परिवेश और समाज की परिस्थितियों से वाकिफ़ थे। वे अपने बेटे को उज्ज्वल भविष्य के लिए विदेश भेज देते हैं जो आगे जाकर फ़ैशन डिजाइनर बनता है। वहीं, इसके समानांतर गुरु जया, सलीमा, बद्री के अंधकारमय जीवन को रेखांकित करते हुए उन ट्रांसजेंडर्स की दशा का मार्मिक वर्णन किया गया है जिन्हें लिंगदोष के कारण अपने परिवार का त्याग करके गुमनाम जीवन जीने को बाध्य होना पड़ रहा है। शहर के रहस्यमय इलाके में रहने वाली सलीमा उदास आँखों से कहती है – भाग्य की बात है, हम सब अलिंगी पैदा हुए हैं, एसेक्सुअल, इसी से यहाँ रहने को मजबूर हैं10

 

क्या हमारा समाज इस दर्द को महसूस कर सकता है? इसके लिए ज़रूरी है कि लिंगदोषी को भी मनुष्य के रूप में देखा जाए। वंचना, तिरस्कार, अपमान को झेलते हुए ये मानसिक स्तर पर खंडित जीवन भोगने को बाध्य होते हैं। बद्री के इस कथन से इस वर्ग की व्यथा को समझा जा सकता है – शरीर तो मर्द जैसा पर दिल औरतों जैसा है बाबू, क्या काम करेंगे हम? कोई भी अधूरा आदमी क्या काम कर सकता है?”11

 

उत्तर आधुनिक चिंतक जाक देरिदा ने अपने विखंडनवाद सिद्धांत में भाषा तंत्र के अंतर्गत बाइनरी अर्थ को नामंज़ूर करते हुए अर्थ के विस्तृत और बिखरे रूप को स्वीकार किया। उन्होंने किसी भी परिभाषित दायरे से बाहर स्थित भिन्नता को स्वीकार करने की बात की। यही बात मनुष्य समाज में बने-बनाए नियमों के सापेक्ष लागू होती है। हमारा समाज पितृसत्तामक होने के साथ-साथ लिंग पूजक भी है जहाँ लिंग को दो निर्धारित खाँचों में बाँट दिया गया है। इस व्यवस्था ने उन मनुष्यों को जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया जो इसके अनुसार ठीक तरह से अंटते नहीं हैं। लिंगदोषी बच्चे मुख्यधारा समाज से विलग होकर उस गुमनाम दुनिया में किस तरह पहुँच जाते है, इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए, इन सब पर सोच-विचार किया जाना चाहिए। बद्री बताता भी हैः - हस्पताल की नर्स, दाइयों, जमादारिनों से हमारा काण्ट्रेक्ट है बाकायदा, हर खबर के वो लोग पैसे लेते हैं।12 इसके साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मानसिक जड़ता के कारण मुख्यधारा समाज में लिंगदोषी व्यक्ति के लिए आत्मसम्मान पूर्ण जीवन जीना कठिन है। ऐसे में, थर्ड जेंडर समुदाय द्वारा लिंगदोषी बच्चों को अपनी दुनिया में ले जाना आश्चर्यजनक नहीं लगता।

 

किरण सिंह की ‘संझाकहानी ट्रासजेंडर लड़की संझा के जीवन पर आधारित मार्मिक कथा है जो जन्मजात लिंगदोषी है। संझा के माता-पिता समाज की मानसिकता से वाकिफ़ है कि समाज इस रूप में संझा को स्वीकार नहीं करेगा। अपनी बेटी को दुनिया की नजरों से बचाकर घर में ही रखने की कोशिशों में उनकी मनोव्यथा को बारीकी से चित्रित किया गया है। मात्र जन्मजात लिंगदोष के आधार पर इन्हें अपना बचपन चहारदीवारी में व्यतीत करना पड़ता है, क्यों उन्हें मूलभूत अधिकारों से वंचित होना पड़ता है, क्या यह इतना बड़ा दोष है? समाज की इस जड़ मानसिकता पर संझा प्रश्न-चिह्न लगाते हुए कहती है – जीवन के लिए सबसे जरूरी तो आँख हैं। जोगी चाचा अंधे पैदा हुए। जरूरी तो हाथ है। बिन्दा बुआ का दाहिना हाथ कोहनी से कटा है। रामाधा भइया तो शुरू से खटिया पर पड़े हैं, रीढ़ की हड्डी बेकार है। बिसम्भर तो पागल है, जनम से बिना दिमाग का। क्या...वो...वो आँख, कान, हाथ, पाँव दिमाग से भी बढ़ कर होता है?”13

 

लिंग को वंश वृद्धि से जोड़कर लिंगदोषी मनुष्यों को नारकीय जीवन जीने को बाध्य करना किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं हो सकता है। यदि मुख्यधारा समाज में शारीरिक रूप से विकलांगों के प्रति संवेदनशील नज़रिया अपनाया जाता है तो लिंगदोषियों के साथ भी यही भाव अपनाते हुए समावेशी समाज का निर्माण किया जाना चाहिए। अपनी वास्तविकता पर पर्दा रखते हुए संझा समाज को बहुत कुछ देती है। एक दिन, वही समाज संझा के लिंगदोष होने की सच्चाई जान कर इसे पचा नहीं पाता है। भले ही उसने बीमार लोगों को औषधि देकर इलाज किया, ललिता महाराज के घर को सँभाला, गाँव के प्रति सहयोग और उदारतापूर्ण रही। यह कहानी संझा की कथा के माध्यम से लिंगदोषी समुदाय के प्रति मुख्यधारा समाज के अमानुषिक आचरण की तस्वीर पेशकरते हुए थर्ड जेंडर विमर्श को नए आयाम देने का प्रयास करती है।

 

कादंबरी मेहरा की कहानी हिजड़ाके द्वारा समाज में व्याप्त शोषण के कई स्तरों की धानबीन करने का प्रयास किया गया है। रागिनी श्रीवास्तव के माध्यम से लिंग, रंग, आर्थिक आधारों पर होने वाले शोषण तथा सामाजिक मानसिकता का चेहरा दिखाया गया है। समाज के घिसे-पिटे सौंदर्य पैमानों, यौन-शोषण तथा आर्थिक तंगी के कारण आजीविका के लिए रागिनी को हिजड़ा बन कर नाच-गाने को मजबूर होना पड़ा।

 

डॉ. पद्मा शर्मा द्वारा लिखित इज्ज़त के रहबर कहानी में थर्ड जेंडर समुदाय के निजी जीवन में अश्लील भाषा और फूहड़ता, काम-वासना, जीवन से जुड़ी भ्राँतियों, सार्वजनिक जीवन में उनकी भूमिका तथा संवेदना के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। सोफिया तथा अन्य किन्नर शादी-विवाह, जन्मोत्सव जैसे अवसरों पर नाच-गाने की बधाई से आजीविका चलाते हैं। मनचाहा नेग न मिलने पर अश्लील प्रदर्शन करने की मज़बूरी के बीच भी उनके नियम है। गरीब से ज्यादा पैसे न लेना इनमें से एक है। मुख्यधारा समाज से विलग होने के साथ ही सम्प्रदायवाद जैसे बंधनों से आज़ाद होकर मिलजुल कर रहते हैं – इस खेमे में आकर नये नाम पा लेने से इनका भूतकाल समाप्त हो जाता था। साम्प्रदायिक सद्भाव की अनोखी मिसाल थी इनके झुण्ड में। हिंदू के मुस्लिम नाम और मुस्लिमों के हिंदू नाम रखे जाते थे।14

 

वहीं दूसरी तरफ, कारगिल युद्ध के समय फौजियों के लिए दान देने के अवसर पर सोफिया सबसे आगे रहती है। वह सामाजिक जीवन में थर्ड जेंडर समुदाय की भूमिका को पुनः परिभाषित करती है, भले ही उन्हें लिंगदोष के कारण समाज से उखाड़ कर फेंक दिया जाता है। फिर बात चाहे सड़क पर मरते हुए व्यक्ति की जान बचानी हो, बल्लू जैसे अनाथ बच्चे को पालना हो, या श्रीलाल की बेटी प्रतिभा के साथ बलात्कार करने वाले का लिंग-भंग करके सजा देनी हो। अक्सर किन्नर समुदाय की फूहड़ हरकतों और अश्लील भाषा से उनकी असभ्यता तय कर ली जाती है लेकिन यह नहीं देखा जाता है कि जिस समुदाय को समाज की मुख्यधारा से निर्ममता से विलग कर दिया गया है, उनकी सभ्यता और सामाजिकीकरण को कैसे आँका जा सकता है? इसके ज़िम्मेदार कारणों पर गंभीर बहस होनी चाहिए।

 

कौन तार से बीनी चदरियाअंजना वर्मा द्वारा लिखित भावुक कहानी है। इसमें सुंदरी (मूल नाम माया) के जीवन के माध्यम से थर्ड जेंडर समुदाय के विस्थापित जीवन के संघर्षों का मर्मोद्घाटन किया गया है। सुंदरी और कुसुम बधाई गा कर और ट्रेन-बसों में नाच कर पैसे माँगने को मज़बूर है। उन्हें देखकर कुछ लोग मुँह बनाते हुए उपहास-सूचक हँसी उड़ाते हैं या बधाई माँगने पर अपने घर से बाहर ही नहीं निकलते हैं। लोगों की संवेदनहीनता अब उनके लिए सामान्य हो गयी है। सुंदरी और कुसुम के संवादों में किन्नर जीवन के संघर्ष को बारीकी से दिखाने का प्रयास हुआ है। सुंदरी बार-बार तिरस्कार से परेशान होकर कहती है – फिर हमें सबसे अलग क्यों रखा गया, जैसे अछूत हैं हम? हमें कौन गुदानता है? रास्ते चलते सब देखिकै हँस देते हैं? का हम हँसने की चीज हैं?”15

 

सुंदरी जब अपनी माँ से मिलने जाती है तो उसकी माँ चाह कर भी अपने सामने खड़ी बेटी को गले नहीं लगा पाती है। थर्ड जेंडर समुदाय के सामाजिक जीवन पर वर्जना थोप दी गई है। उनकी सार्वजनिक उपस्थिति से लोग असहज हो उठते हैं। कुसुम के समान न जाने कितनों को अपने घर-परिवार, माँ-बाप के बारे में पता तक नहीं है। इस कहानी के द्वारा समाज में स्वीकृत द्विलिंगी से इतर मनुष्यों के गुमनाम जीवन के संघर्ष को प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही मुख्यधारा समाज से संवेदनशील होने की अपेक्षा भी इस कहानी में है।

 

महेन्द्र भीष्मद्वारा लिखित त्रासदी कहानी में लेखक ने सुन्दरी नामक हिजड़े के जीवन के त्रासदीपूर्ण अंत को चित्रित किया है। रति को बलात्कारियों से बचाने वाली सुन्दरी रति के बेटे दीपक से कभी भी सम्मान भाव प्राप्त नहीं कर सकी। सुन्दरी को रति द्वारा अपने घर में पनाह देना दीपक को कभी स्वीकार्य नहीं रहा। आस-पास के लोगों के तानों और हँसी-मजाक का पात्र बन जाने की भय से परेशान होकर उसने सुन्दरी की हत्या कर दी। यह त्रासद अंत मात्र सुन्दरी का नहीं है, बल्कि हमारे मूल्यों, संवदनाओं और मानवता का भी है जो थर्ड जेंडर वर्ग की समाज में उपस्थिति को स्वीकार नहीं कर पाने में असमर्थ है।

 

ललित शर्मा द्वारा लिखित रतियावन की चेलीनामक आत्मकथात्मक कहानी में पार्वती के किन्नर जीवन के संघर्ष और समाज के सहयोग का वर्णन किया गया है। पार्वती के संबंध स्नेहमयी रहे जिसके कारण उन्हें समाज से प्यार और सहयोग भी मिला। पार्वती की कहानी के माध्यम से बताया गया है कि हिजड़ा होने पर समाज का तिरस्कार झेलना पड़ता है तो वही समाज सम्मान भी करता है। पार्वती को लिंग दोष के कारण घर से जबरन बेदखल होना पड़ा लेकिन अपने मृदु व्यवहार और आत्मीयता के कारण सम्मान भी प्राप्त किया।

 

निष्कर्ष : 

हिंदी कहानियों के थर्ड जेंडर विमर्श में इस समुदाय की व्यथा, वंचना और उपेक्षित जीवन को पर्याप्त स्थान दिया है। हालाँकि इस दिशा में अभी भी कई संभावनाएँ हैं। मुख्यधारा समाज से विलग रहने के कारण इनके जीवन की विस्तृत जानकारी भी दुर्लभ हो जाती है। इसके कारण इस समुदाय के प्रति कई तरह की गलत धारणाएँ भी चल पड़ी है। हालाँकि मानवीय संवेदना और सहानुभूति आधारित साहित्य की रचना करके इस वर्ग की सामाजिक स्वीकार्यता के लिए हिंदी साहित्य प्रयासरत है। इसके अलावा थर्ड जेंडर समुदाय के लोगों द्वारा स्वानुभूत आधारित साहित्य लिखे जाने की आवश्यकता है ताकि प्रामाणिक अभिव्यक्ति सामने आए। इसके लिए इस वर्ग की शिक्षा जैसी मूलभूत अधिकार तक पहुँच को आसान करना होगा। बदलते हुए सामाजिक परिदृश्य में तृतीय लिंगी समाज के मानवीय अधिकारों और सम्मानजनक स्थिति के लिए उम्मीद की जा सकती है। उत्तर आधुनिक काल में प्रौद्योगिकी और तकनीकी के बढ़ते प्रयोग से द्विलिंगी समाज (जेंडर बाइनरी) की सीमाओं को तोड़ कर एक समावेशी समाज के निर्माण का अवसर भी है। समाज के एक बड़े तबके तक पहुँच बनाते हुए हिंदी कहानियों का स्थान इस दिशा में काफी महत्वपूर्ण हो जाता है।

 

संदर्भ :

 

  1. थर्ड जेंडर :चर्चित कहानियाँ, सम्पादक – डॉ. विमल ग्यानोबाराव सूर्यवंशी, रोशनी पब्लिकेशंस, कानपुर, प्रथम संस्करण, 2018, पृष्ठ17
  2. वही, पृष्ठ 11
  3. मेरे साक्षात्कार – शिवप्रसाद सिंह, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1995, पृष्ठ 51

https://books.google.co.in/books?id=27sHi11gumAC&printsec=frontcover&source=gbs_ge_summary_r&cad=0#v=onepage&q=%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%BE%20%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C&f=false(देखा गया दिनांक 13.12.2021)

  1. वाङ्मय त्रैमासिक पत्रिका (जनवरी-मार्च 2017), सम्पादकः डॉ. एम. फ़ीरोज़ अहमद, नवमान आफसेट प्रिंटर्स अलीगढ़ में मुद्रित, ई-3, अब्दुल्लाह क्वाटर्स, लाल बहादुर शास्त्री मार्ग अलीगढ़ से प्रकाशित, पृष्ठ 15
  2. थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ, सम्पादकः डॉ. एम. फीरोज़ खान, प्रकाशकः अनुसंधान पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, कानपूर, संस्करणः प्रथम 2017, पृष्ठ 92
  3. वही, पृष्ठ 95
  4. वाङ्मय त्रैमासिक पत्रिका (जनवरी-मार्च 2017), सम्पादकः डॉ. एम. फ़ीरोज़ अहमद, नवमान आफसेट प्रिंटर्स अलीगढ़ में मुद्रित, ई-3, अब्दुल्लाह क्वाटर्स, लाल बहादुर शास्त्री मार्ग अलीगढ़ से प्रकाशित, पृष्ठ 17
  5. वही,पृष्ठ 18
  6. सृजन सरोकार के सौजन्य से

https://www.srijansarokar.page/2018/07/sanskrti-kinnar-es-aar-haranot-hRvjPC.html(देखा गया दिनांक 12.12.2021)

  1. वाङ्मय त्रैमासिक पत्रिका (जनवरी-मार्च 2017), सम्पादकः डॉ. एम. फ़ीरोज़ अहमद, नवमान आफसेट प्रिंटर्स अलीगढ़ में मुद्रित, ई-3, अब्दुल्लाह क्वाटर्स, लाल बहादुर शास्त्री मार्ग अलीगढ़ से प्रकाशित, पृष्ठ 28
  2. वही, पृष्ठ 28
  3. वही, पृष्ठ 29
  4. थर्ड जेंडर :चर्चित कहानियाँ, सम्पादक – डॉ. विमल ग्यानोबाराव सूर्यवंशी, रोशनी पब्लिकेशंस, कानपुर, प्रथम संस्करण, 2018, पृष्ठ31
  5. वाङ्मय त्रैमासिक पत्रिका (जनवरी-मार्च 2017), सम्पादकः डॉ. एम. फ़ीरोज़ अहमद, नवमान आफसेट प्रिंटर्स अलीगढ़ में मुद्रित, ई-3, अब्दुल्लाह क्वाटर्स, लाल बहादुर शास्त्री मार्ग अलीगढ़ से प्रकाशित, पृष्ठ45
  6. वही, पृष्ठ 51
  7. * https://www.gnttv.com/india/story/who-sonam-kinnar-cm-yogi-appoints-vice-chairperson-transgender-welfare-board-315027-2021-11-18

(देखा गया दिनांक 13.12.2021)

  1. ** https://newswing.com/unique-initiative-to-bring-eunuchs-into-the-mainstream-tata-steel-gave-jobs-to-14-eunuchs/322391/ (देखा गया दिनांक 14.12.2021)


 

इन्दिरा

शोधार्थी, हिंदी विभाग, महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर

पताः आथूणा बास, गाँव – खाटू खुर्द, तहसील – डीडवाना, नागौर, राजस्थान (341302)

ichaudhary247@gmail.com, 8882719790


डॉ. विमलेश शर्मा

(शोध निर्देशक), राजकीय कन्या महाविद्यालय, महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर

vimlesh27@gmail.com


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : वर्षा झाला, Student of MA Fine Arts, varsha jhala, MLSU UDAIPUR

UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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