आलोचकीय:विज्ञापन और उपभोक्तावाद – मीना

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
-------------------------
आलोचकीय:विज्ञापन और उपभोक्तावाद –  मीना

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
लंदन टाइम्स के संपादक एवं संसद सदस्य एफ.पी.बिशप ने 1949 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में विज्ञापन की आलोचना की थी कि “वह अनावश्यक इच्छाएँ जगाता है‚ उपभोक्ता को गुमराह करता है तथा उपभोक्तावाद को बढ़ावा देता है।”1 आज विज्ञापनों की अपनी दुनिया है, अपना बाज़ार है। जहां जाएं, जिधर जाएं, जहां रहें , जैसे रहें इन विज्ञापनों की लपेट से नही बचा जा सकता। जब टी.वी. चलेगा तो कार्यक्रम कुछ भी हो, विज्ञापन होंगें ही। कभी-कभी विज्ञापन इतने अधिक होते हैं कि अधिक समय भी ले लेते हैं और कार्यक्रम के लिए समय कम पड़ जाता है। आज जीवन का कोई भी ऐसा कोना नहीं, जो विज्ञापनों के प्रभाव से बचा हो। विज्ञापन हमारी इन्द्रियों से होते हुए और दिल-दिमाग पर राज़ करते हुए हमारे चयन को प्रभावित करते हैं।2 इस अत्याधुनिक दौर में छोटी-बड़ी सभी वस्तुओं के लिए विज्ञापन हमारी कोमल भावनाओं को लुभाने की हर संभव कोशिश करते  हैं। 
    
ये विज्ञापन सृजनात्मक‚ कल्पनाशील‚ संदेशवाहक और रचनात्मक सब तरह के होते हैं और विज्ञापनों में जो थोड़े ही में अधिक कह देने की क्षमता होती है। उसके आगे उपभोक्ता हार मान लेता है। यह भी मनोवैज्ञानिक सत्य है कि देखी गई बात का सुनी गई बात से ज़्यादा असर होता है। तभी तो श्रव्य-दृश्य का अपना महत्व है विज्ञापन आपको दिखाते हैं और सुनाते भी हैं यही कारण है कि उनका असर बच्चों से लेकर बड़ों तक‚ सभी पर होता है।3

1961 में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थॉमस गैरेट अपने एक लेख में कहते हैं कि विज्ञापन के माध्यम से लुभाने की जो कोशिश की जाती है उसका मकसद सहज बुद्धि को दरकिनार करना तथा तार्किकता को घटाना है।4 बहुत पहले किसी वस्तु की गुणवत्ता और उपयोगिता बताने के लिए किसी तामझाम अथवा बाह्याडंबर की जरूरत नही पड़ती थी परन्तु बदलते समय के साथ- साथ गुणों के स्थान पर प्रचार-मंत्र और विज्ञापन मुख्य हो गए। प्रचार द्वारा उस वस्तु के गुणों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाने लगा5 और कभी-कभी ऐसी शैली में भी प्रस्तुत किया जाता है जिसमें सिर्फ भावना होती है तर्क नहीं। जैसे ‘सफेदी की चमकार‚ बार-बार लगातार’…. ‘पहले इस्तेमाल करें फिर विश्वास करें’। इस तरह के विज्ञापनों में भावनाएं तो होती हैं‚ उत्पाद की गुणवत्ता वाला प्रश्न बाद में आता है। कहने का अर्थ है कि उपभोक्ता को उत्पादों की खूबियां इस तरह से बताई जाती हैं कि वह उस सामान को खरीदने के लिए विवश हो जाए। फिर चाहे अब उपभोक्ता को विवश करने के लिए भावुकता का सहारा लेना हो या फिर उसकी जरूरत बताना हो इस के लिए वह तरह-तरह के हथकंडों को अपनाते हैं।

आज के संचार युग में विज्ञापन उत्पाद बेचने का हथियार है। उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। विज्ञापनों पर करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाते हैं। यही कारण है कि आज बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी और फिल्मी हस्तियां जिन्हें ‘सेलिब्रिटी’ कहा जाता है विज्ञापनों में नज़र आ रहे हैं। वे जानते हैं कि वे समाजसेवा या धर्मार्थ नहीं, बल्कि धंधा कर रहे हैं। सैफ अली खान, अमिताभ बच्चन, महेंद्र सिंह धोनी, शाहरूख खान, जॉन इब्राहिम, सलमान खान ऐसे तमाम कलाकारों को कंपनियां विज्ञापनों में आने के लिए करोड़ों रूपये तक दे रही हैं। एक विज्ञापन में सैफ अली खान ‘माच्चो’ अंडर-वियर बनियान पहनने की सलाह देते हैं, अक्षय कुमार मोटर साईकिल बेचते नजर आते हैं, अमिताभ बच्चन तनाव दूर करने के लिए ‘नवरत्न’ तेल लगाने की सलाह देते दिखे और महेंद्र सिंह धोनी ‘पेप्सी’ पीने के लिए कह रहे थे। दीपिका पादुकोण ‘तनिष्क’ के आभूषण खरीदने के साथ साथ एक्सिस बैंक के ग्राहक बनने की सलाह देती हैं। उधर शाहरूख खान का कहना है कि मर्दों वाली क्रीम तो जॉन अब्राहम मर्दों वाला डियोड्रेंट लगाने के लिए कहते हैं।6 इस तरह के ढ़ेरों विज्ञापन हम रोज़ देखते हैं इन्हें विज्ञापनों में ऐसे पेश किया जाता है‚ जैसे यह अनेक व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित हों। जबकि दिलचस्प बात यह है कि अपने द्वारा विज्ञापित उत्पाद को वे खुद निजी स्तर पर इस्तेमाल नही करते। इस तरह, तमाम जानी-मानी हस्तियां भी लालच के वशीभूत अपने प्रशंसकों से धोखा करती दिखती हैं। भला कोई करोड़ों में खेलने वाला शख्स भारतीय मध्यम वर्ग को लक्षित उत्पादों का इस्तेमाल भला क्यों करेगा? चाहे खाने-पीने‚ पहनने की चीज हो‚ सौंदर्य प्रसाधन या कुछ और?7

अखबार में छ्पे विज्ञापन उतने नुकसानदायक नहीं होते‚ जितने टी.वी. एवं नए माध्यमों के विज्ञापन होते हैं। आज सभी को गोरी त्वचा चाहिए। उसके लिए फेयर एण्ड लवली‚ डाबर के फेम फेयरनेस नेचुरल ब्लीच का विज्ञापन। वीट‚ ऐन फ्रैंच (ब्लीच जो मेरी त्वचा को गोरा बनाए‚ अब कोमल त्वचा पाना कितना आसान)। ऐसी ना जाने कितनी फेसक्रीम व ब्लीचों का विज्ञापन किया जाता है। जिसमें गोरे होने का‚ चमकती‚ दमकती त्वचा का भी दावा किया जाता है। उनके दावे कितने सच्चे होते हैं वो तो जग जाहिर हैं। कहने की आवश्यकता नहीं इन विज्ञापनों ने रंगभेद को बढ़ावा ही दिया है। 

इसके अतिरिक्त दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं के लिए भी ढेरों विज्ञापन हैं। उनमें अधिकतर विज्ञापन गहने‚ साबुन‚ मोबाईल‚ टूथपेस्ट‚ शैम्पू‚ क्रीम और पाउडर जैसे सौंदर्य प्रसाधनों के होते हैं। कंपनियां भी जानती हैं कि लोग इन्हें देखना चाहते हैं और इनकी बात सुनकर वे इनके द्वारा सुझाई गई चीज़ों की ओर आकर्षित होंगे। जैसे टूथपेस्ट और साबुन को ही ले लीजिए। पहले लोग दातुन का प्रयोग करते थे लेकिन आज बाज़ार में दातुन का स्थान टुथपेस्ट ने ले लिया और उन  टूथपेस्टों के अपने-अपने विचित्र दावे हैं। कोई लाँग वाला है, कोई नमक वाला, कोई दांतों को चमकीला बनाता है‚ कोई मुँह की दुर्गंध हटाता है‚ कोई मसूड़ों को मजबूत बनाता है‚ किसी का मैजिक फार्मूला है। कोई बबूल या नीम के गुणों से भरपूर‚ ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत खनिज तत्वों द्वारा बना है आदि।8 उनमें से हम किसी को भी अपनी सुविधानुसार चुन सकते हैं। बिना ब्रुश के पेस्ट का क्या उपयोग यदि आप का पेस्ट अच्छा है तो ब्रुश भी अच्छा होना चाहिए। बच्चों का अलग है, बड़ों का अलग फिर उनके आकार‚ रंग‚ बनावट‚ पहुँच और सफाई के गुण-गान गाए जाते हैं। ‘यह ब्रश वहां तक पहुँचे जहां अन्य ब्रश ना पहुँच पाएं।’ अब तो मुँह की दुर्गंध दूर करने के लिए माउथ-वाश भी आ गया है। 

साबुन की विशेषता का तो कहना ही क्या? कपड़े धोने वाली, नहाने वाली, मुँह धोने वाली, बर्तन धोने वाली आदि। कपड़े धोने वाली साबुन की बात करें तो मानो साबुन ना होकर कोई जादू की छड़ी हो। टी.वी. पर टिकिया इधर से उधर गई नहीं कि कपड़े झकाझक सफेद।9 नहाने वाली साबुन के विज्ञापनों में किसी की हल्की खुशबू‚ किसी की तेज‚ कोई गंगाजल से बना है तो कोई चमड़ी में चमक लाता है। अब तो फेश-वॉश का ज़माना है। आखिर विज्ञापनकर्ता ही तय करते हैं कि महक क्या लगाएं‚ क्या खाएं‚ क्या पहनें‚ कौन-सा टूथपेस्ट करें अथवा किस साबुन से नहाएं। ऐसा लगता है प्रात: काल उठने से लेकर रात्रि सोने तक सारे क्रिया-कलाप विज्ञापनों द्वारा ही चालित होते हैं।    

टी.वी.‚ अखबार‚ मोबाईल‚ इंटरनेट‚ पत्र-पत्रिकाएं आदि के द्वारा विज्ञापनों को आम जनता तक पहुँचाया जा रहा है। आज वह हर चीज़ विज्ञापन के दायरे में है जो बाज़ार का हिस्सा बन बिक सकती है। विज्ञापनों ने जनमानस के चिंतन को ऐसा बदला है कि उन्हें हर चीज़ चाहे वह उपयोग की है अथवा नही उसे भी अनिवार्य बना दिया है। जहाँ पहले लोग अपने बच्चों के विवाह के लिए धन इक्ट्ठा करते थे लेकिन अब वे इसे मध्यम-वर्ग की मानसिकता समझते हैं। टी.वी.‚ कार‚ फ्रिज‚ टेलीफोन‚ एयर कंडीशन जैसी वस्तुएं अब विलासिता की वस्तुएं ना रहकर जीवन की अनिवार्यताएं बन गई हैं।10 पहले घड़ी का प्रयोग समय देखने के लिए होता था, परन्तु आज हैसियत दिखाने के लिए होता है। दूसरों पर रोब डालने के लिए कीमती म्यूज़िक सिस्टम‚ कंप्यूटर भी जरूरी हो गए हैं। सौंदर्य प्रसाधन महंगे वस्त्रों के लिए बड़े-बड़े मॉल हैं। खाने के लिए‚ विवाह के लिए होटल हैं। आज उन्मुक्त प्रदर्शन समाज पर हावी होते जा रहे हैं।

     निरंकार सिंह ने अपने एक लेख ‘गांघी का सपना और आज के गांव’ में बताया कि महात्मा गांघी ने देश की आज़ादी के लिए जिस तरह के गांव की कल्पना की थी या जिस तरह के गांव का सपना देखा था। उसमें एक बात यह भी थी कि हर एक गांव को अपने पांव पर खड़ा होना होगा अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होंगी ताकि वह अपना कारोबार खुद चला सके। तमाम सारी योजनाएं हमारे गांवों के परम्परागत उद्योग-धंधों को नही बचा सकीं जो कभी उनकी जीविका और अर्थव्यवस्था के आधार थे। शहरों की उपभोक्तावादी ऐसी संस्कृति का प्रचार- प्रसार हुआ जो गांव के लोगों की बदहाली और बेरोज़गारी की वजह बन गई है। उदाहरण के लिए, दातुन के बदले तरह-तरह के दंत मंजन, पेस्ट, टूथब्रश ; गुड़ और राब की जगह मिल की सफेद चीनी; लकड़ी की सुतली या निवाड़ से बनी खाट या पलंग के बदले लोहे के पाइप या छ्ड़ के पलंग ; खपरैल की जगह टिन ; सन, पटुए, मूंज आदि की रस्सियों की जगह तार और प्लास्टिक की डोरियां ; देहाती चटाई के बदले चीनी और जापानी चटाईयां ; गांवों में बांस या घास के बने हुए सूप, दौरे-दौरी, पिटारी आदि के स्थान पर टिन या प्लास्टिक के सूप, ड्ब्बे आदि ; पेड़ों के पत्तों से बनी पत्तल की जगह प्लास्टिक की पत्तलें ; कुम्हार के घड़े, सुराही, कुल्हड़ की जगह प्लास्टिक के गिलास, थर्मस आदि ; देहाती लुहार या कसेरे की बनाई जंजीर, कड़ियों, हत्थे के बदले मशीन के बने तार या पत्तर की वैसी ही कमजोर मगर आकर्षक चीज़ें ; देहात के सुनहार के बनाए गहनों की जगह शहरों में मशीनों से तैयार हुए गहने ; देहाती महिलाओं द्वारा गूंथे पंखे, कढ़े आसन, जाजिम, शॉल आदि ; रीठा, शिकाकाई आदि प्राकृतिक वस्तुओं के बदले सुगंधित साबुन और शैम्पू ; नरकट के बदले तरह तरह के बाल और जेल पैन और उनके फलस्वरूप देहाती रोशनाई के बदले, रासायनिक रोशनाईयां ; देहात के कागज़ के बदले मशीन के कागज़ ; घरेलू ताजे काढ़े की और अर्कों के बदले तैयार दवाईयों की बोतलें आदि11 ने गांव को भी बदल कर रख दिया। हमारी इस उपभोक्तावादी प्रवृति ने यह साबित कर दिया है कि अब हम उत्पादक नही रहे सिर्फ और सिर्फ उपभोक्ता बन गए हैं तभी हम अपनी ज़्यादातर उपभोग में आने वाली वस्तुओं के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आश्रित हैं।

विडंबना यह है कि उत्पादों के गुण-दोषों से किसी को कोई लेना देना नहीं। यह खरीददार पर निर्भर करता है कि वह किस ब्रांड का चुनाव करे। अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत है। किसी उत्पाद की कीमत इस आधार पर तय होती है कि उस पर लगा मानव श्रम कितना है। इससे अधिक लिया गया मूल्य ‘सरप्लस वैल्यू’ यानी अतिरिक्त मुनाफा है, जो शोषण की श्रेणी में आता है। लेकिन आज उस अतिरिक्त मुनाफे के साथ-साथ किसी उत्पाद के अनुपादक खर्च को भी उपभोक्ताओं की जेब से वसूला जाता है।12 इस तरह की चालाकियों को उपभोक्ता समझ नही पाता और लुटता चला जाता है। 

      समय का तेजगति से बढ़ना और बढ़ते समय के साथ-साथ लोगों की सोच का बदलना लाजमी है। क्रियाशील मनुष्य ने भी इस सूचना तंत्र के जाल को अपना लिया है। उत्पादनों की भरमार ने इंसान के दिमाग को खोखला कर दिया है। यही कारण है कि सारे उत्पादनो को हमारे उपभोग के लिए बताकर हमें ठगा जा रहा है। जाने-अनजाने आज के मौहाल में हम उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं। उत्पादकता उपभोग में बदल गई। कहने की आवश्यकता नही विज्ञापनों ने हमें उपभोक्तावादी बना दिया है। 


संदर्भ :-
1∙  उपभोक्ता संस्कृति और बाज़ारवाद – ललित सुरजन 
2∙  झूठ के विज्ञापन –पुंज प्रकाश (जनसत्ता ), 4 मार्च, 2014 पृ. 6
3∙  विज्ञापन का जादू – सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी (जनसत्ता) 14 अगस्त, 2014, पृ. 6 
4∙  उपभोक्ता संस्कृति और बाज़ारवाद - ललित सुरजन 
5∙  संस्कृति का संकट और जन संचार माध्यम – (नव उन्नयन) – डॉ विनीता कुमारी, पृ. 17
6∙  विज्ञापन की विकृत छवियां – प्रतिक्षा पांडेय, (जनसत्ता )17 अक्तूबर, 2015, पृ. 6  
7∙  झूठ के विज्ञापन -  पुंज प्रकाश (जनसत्ता, 4मार्च, 2014), पृ. 6
8∙  उपभोक्तावद की संस्कृति - श्यामाचरण दूबे,गद्य बोध, पृ. 93  
9∙  झूठ के विज्ञापन -  पुंज प्रकाश (जनसत्ता, 4मार्च, 2014), पृ.6
10∙ संस्कृति का संकट और जन संचार माध्यम– (नव उन्नयन) – डॉ विनीता कुमारी, पृ. 17
11∙ गांधी का सपना और आज के गांव - निरंकार सिंह (जनसत्ता) 2 अक्तूबर, 2015, पृ. 6 
12∙ विज्ञापन का परदा – केसी बब्बर , (जनसत्ता) 18 अगस्त ,2015, पृ. 6 

मीना
गार्गी कॉलेज,सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग ,दिल्ली विश्वविद्यालय
सम्पर्क;meenahindi101@gmail.com,9910100438  
                   

1 टिप्पणियाँ

  1. Hello mam, mein vigyapan par research kar rhi hu, mera aapse vinamr aagrah hai ki aap mujhe vigyapan ka samaj or upbhoakta ke liye sakaratmak pahlu par lekh de, kripya mere aagrah ko svikar kare 🙏

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने