धरोहर:किसानों के दोस्त और दुश्मन / स्वामी सहजानन्द सरस्वती

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
धरोहर:किसानों के दोस्त और दुश्मन / स्वामी सहजानन्द सरस्वती

                
जयपुर,मो.90240 98384किसानों के दोस्त और दुश्मन
मैं नहीं चाहता कि शिष्टाचार के आडम्बर में पड़कर आपका अमूल्य समय एक क्षण भी गँवाऊँ। इसीलिए काम की बातें करने में लग जाता हूँ। ज्यों-ज्यों किसान आन्दोलन मजबूत हो रहा है और किसान सभा लोकप्रिय होती जा रही है त्यों-त्यों इस पर आक्रमण भी मुस्तैदी के साथ होने लगे हैं। कल तक जो हमारे परम मित्र थेसमर्थक थे वे भी सशंक हो रहे हैं और फूँक-फूँक कर पाँव देने लगे हैं। वे लोग ऐसी बातें बोलने लगे हैं जिससे पता चलता है कि इस आन्दोलन को वे बढ़ने देना नहीं चाहतेइसमें उन्हें खतरा नजर आने लगा है। चाहे और लोग इसे जो समझेंमगर मुझे तो उनके ऐसे कामों को देखकर खुशी होती है क्योंकि यह हमारी बढ़ती हुई ताकत का सबूत है। हमारे अधकचरे मित्रों का धीरे-धीरे पर्दाफाश हो रहा है और हम आज कहाँ हैंइसका पता हमें चलने लगा हैयह भी अच्छा ही हो रहा है कि किसी भी आन्दोलन के शुरू में ही असली शत्रु-मित्रों की पहचान हो जाने से उसमें मजबूती आती है और आगे चलकर धोखे की गुंजाइश कम ही रह जाती है। आज की इस स्थिति का हमें दिल से स्वागत करना चाहिए।

                इस सम्बन्ध में खुशी की एक और बात है। आमतौर से नौजवान और विद्यार्थीगण किसान आन्दोलन में खास दिलचस्पी रखने लगे हैं और इधर जेलों से रिहा होने वाले प्रायः सभी राजनीतिक बन्दी इस काम में दिलोजान से पड़ गए और पड़ रहे हैं। जिन लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्यशाही को हिलाया और थर्राया हैमेरा विश्वास हैउनके सहयोग से किसान आन्दोलन शीघ्र ही साम्राज्यशाहीजमींदारशाहीमहाजनशाही और पूँजीशाही का अन्त करने में सफल होगा। मैं चाहता हूँ कि किसान और किसान सेवक अपने सच्चे दोस्तों और दुश्मनों की ठीक-ठीक पहचान करें और इस महान आन्दोलन को उन खतरों से बचाएँ जो आगे बढ़ने पर सभी प्रगतिशील आन्दोलनों के रास्ते में आया करते हैं। कारण – प्रारम्भ के दोस्त ही दुश्मन का काम करने लग जाते हैं और उनकी पहचान देर और दिक्कत से होती है। हमें सबसे प्रथम अपने असली स्वार्थ को देखना चाहिए और उसकी सिद्धि के लिए अपने ही त्याग तथा बलिदान का भरोसा करना चाहिए। गैरों के त्याग और बलिदान पर लट्टू बनके अपने हिताहित का विचार न करना और आँख मूँदकर उनकी या किसी की बातें माननाआत्मघात के बराबर है। अन्ध परम्परा को छोड़ हमें नेताओं और उपदेशकों की हर बात को अपने (किसान-मजदूरों के) सामूहिक स्वार्थ की कसौटी पर कसकर उसकी कड़ी जाँच करनी चाहिए। इतना ही नहींकभी-कभी नेताओं को जो लम्बी दलीलें दिया करते हैंहक्का-बक्का भी करना चाहिएजैसा कि रूस या अन्य देशों की जनता ने समय-समय पर किया है – Reasonable leaders of the Soviet were paralysed by the masses. और जैसा कि अभी हाल में ही कानपुर के मजदूरों ने किया है। इसका नतीजा यह होता है कि जनता को भेड़ों की तरह मूड़ने की हिम्मत छोड़कर नेता लोग सँभल जाते हैं। हमें नेताओं के उपदेशों को ही सुनना न चाहिएवरन् उनके कामों पर भी कड़ी निगाह रखनी चाहिए और देखना चाहिए कि कहीं हमारे शत्रुओं से भीतर ही भीतर वे लोग घुल-मिलकर बातें तो नहीं करते। यह निहायत जरूरी है। उनके कामों पर कड़ी नजर रखे बिना हमेशा धोखा हुआ है और आगे भी होगा।

जमींदारी का खात्मा क्यों?

                 यद्यपि जब तक किसान-मजदूर राज्य या कमाने वालों का राज्य सारे देश में कायम नहीं हो जाता और शासन की बागडोर कमाने वालों के हाथ में नहीं आ जातीतब तक हमारे कष्टों का अन्त नहीं हो सकताअतएव वही राज्य हमारा परम लक्ष्य है और वही असली स्वराज है। तथापि उसकी प्राप्ति में साम्राज्यशाही की ही तरह या उससे भी शायद बढ़कर जमींदार और साहूकारी बाधक है। अतएव इन दोनों का अन्त जल्द से जल्द करना किसान सभा का तत्कालीन लक्ष्य है। साम्राज्यशाही तो भले-बुरे कानूनों के बल पर टिकी है लेकिन यह जमींदारी तो केवल जोर-जुल्मों के सहारे कानूनों का गला घोंट-घोंटकर या उनकी आँखों में धूल झोंक-झोंककर ही खड़ी है। एक तो साम्राज्यशाही या अंग्रेजी शासन के कानून यों ही मालदारों के ही अधिक लाभ के लिए बने हैं। दूसरेउन्हें भी यह जमींदारी पाँव तले दिन-दहाड़े रौंदती है। तिस पर तुर्रा यह कि रुपये के बल से जमींदारों का बाल बाँका हो नहीं सकावे निर्भय विचरते हैं। सन् 1993 ई. के 22 मार्च को लॉर्ड कार्नवालिस के एक फतवे (Regulation) के अनुसार इस जमींदारी रुपी पूतना का जन्म हुआ और इतिहास के जानकारों ने लिखा है कि उसके बाद जो पाँचवेंसातवेंग्यारहवें आदि फतवे निकाले गए और उन्हें जस्टिस फील्ड जैसे अंग्रेज सज्जन तक ने काला सातवें आदि फतवे’ कहा हैउन्हीं के आधार पर किसानों की जानमाल और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत पर आक्रमण करके इस जमींदारी की रक्षा की गई हैउसे पाला-पोसा गया है। वे सभी फतवे इसलिए निकाले गए थे कि बिना अदालत की शरण लिये ही जमींदार का मामूली नौकर किसान के जनानखाने तक में बेधड़क घुसकर तलाशी ले सकता और बकाया लगान में चीज-वस्तु जब्त कर सकता था। यहाँ तक कि पड़ोसी के द्वार पर पड़े हुए गल्लेजानवर आदि को भी इस शक में जब्त कर सकता था कि यह चीजें उसी किसान की है जिसके जिम्मे लगान बाकी है। ऐसी नादिरशाही के बीच यह जमींदारी प्रथा सयानी और तगड़ी होकर अब बूढ़ी हो चली हैमरणासन्न है क्योंकि उसकी उम्र का 145वाँ वर्ष गुजर रहा है। कस के एक धक्का लगा कि खत्म हुआ। आज तो जमींदारों के जुल्मों की कहानियाँ छपा करती हैं। उनकी जड़ तो इस जमींदारी की ही जड़ में है। ये जुल्म शुरू से ही चले आ रहे हैं और कानून के बदल जाने पर भी वे बन्द नहीं हुए क्योंकि पुरानी आदत आसानी से छूटती नहींछूट सकती नहीं।

                एक बात और है। यदि जुल्म और अत्याचार बन्द हो जाए तो जमींदारी एक मिनट भी टिक नहीं सकती। तब तो किसान निर्भय और हिम्मतवर बनके जमींदार का मुकाबला जब न तब कर बैठेंगे और वह उनसे पार न पा सकेगा। अदालतों में दावे करके यदि सबों से लगान वसूल करना हो तो कुछ ही साल में जमींदारी खत्म हो जाए। इसीलिए हजार रोज जुल्म और गैर-कानूनी तरीके से किसानों को पस्त और तीन-तेरह कर दिया गया है। यदि जमींदार अपने अमलों को काफी वेतन देता है और आबपाशी आदि का पूरा प्रबंध करता है तो मोटर दौड़ाने और महल सजाने के लिए उसे बचेगा ही क्याइसीलिए भूखे शिकारी कुत्तों की तरह दो-दो चार-चार रुपये के नौकर रखता हैजिसका काम होता है कदम-कदम पर सैकड़ों प्रकार से किसानों को नोचते रहना। जमींदार के खर्च भी समयानुसार बढ़ते जाते हैं और शहरों में रहनेसैर-सपाटे करनेबड़ी-बड़ी पार्टियाँ देनेचुनावों में लड़ने और फैशन करने से खर्च तो बढ़ते ही जाते हैं। मगर जमींदारी और आमदनी तो बढ़ती नहींइसीलिए बीसियों प्रकार की गैर-कानूनी वसूलियाँ जारी की गई हैं। गंगा के किनारे तो गंगशिकस्त और गंग बरार के करते महाराज डुमराँव तथा दूसरे जमींदारों की पाँचों उँगलियाँ घी में हैं। जो जमीन गंगा की धार में जाने के बाद फिर बाहर आईउसका नए सिरे से बंदोबस्त किया जाता है और इससे खूब चढ़ा-ऊपरी कराई जाती है। कभी-कभी तो एक से ज्यादा लोगों के साथ बंदोबस्त करके किसानों को ही आपस में गुत्थमगुत्था करने का मौका दिया जाता है। यदि जमींदारों को यह सब करने न दिया जाय तो उसकी आमदनी ही जाती रहेउसका मजा किरकिरा हो जाए और अंत में किसानों की संगठित शक्ति और मुकाबले के सामने जमींदारी की अन्त्येष्टि ही हो जाएगी। जमींदारी प्रथा का यह भीतरी विरोध (internal contradiction) है। इसीलिए शीघ्र से शीघ्र उसका अन्त होने में ही कल्याण है।

                जमींदारी पैदा करने में अंग्रेजी सरकार का स्वार्थ कई प्रकार से सिद्ध हुआ। एक तो हमारे देश की सम्पत्तिवाणिज्य-व्यापार में न लगकर जमीन में खरीदने में लगी और इस प्रकार विदेशी व्यापार के लिए यहाँ काफी गुंजाइश रही। दूसरेसरकार और जनता के बीच में एक ऊँची दीवार खड़ी हो गईजिसके पीछे रहके सरकार अपना सारा काम चलाती रही और जनता जल्दी से देख न सकीइसीलिए उस पर आक्रमण भी न कर सकी। जोर-जुल्म और दमन कार्य तो जमींदारों के द्वारा हो ही जाता था। सरकार के लिए कानून के खिलाफ खुल के काम करना आसान नहीं था। मगर उसके दोस्त और एजेंट ये जमींदार सब कुछ कर सकते थेकर सकते हैं। इस प्रकार देश के भीतर दो परस्पर विरोध स्वार्थ पैदा हो गए। साथ हीजमींदारी मशीनरी के जरिये आसानी से अस्सी से लेकर नब्बे फीसदी किसान नामर्द और पस्त हिम्मत बना दिये गए। फिर सल्तनत का मुकाबला कौन करेजमींदार और उनके अमले किसानों की छाती पर बचपन से लेकर मरने तक किस प्रकार सवार रहते और रह-रह कर कोदो दलते रहते हैंइसका कटु अनुभव द्वारा सभाओं के बहस मुबाहसोंअखबारों की लीपापोती और किसानों के पड़ने से नहीं हो सकता। इसे तो किसानों के जले दिलउसकी भीगी आँखेंउसकी पस्ती और बेबसी ही बता सकती हैसो भी उन्हें जो सदस्य हैंजो आहों और मूक वेदनाओं को जान सकते हैंजानने की योग्यता रखते हैं।

                इस प्रथा में एक बड़ा दोष यह है कि इसने निठल्ले लोगों का एक खासा दल पैदा कर दिया है जो रईस और भले मानस कहाते हैं। जो लोग रोजगार-व्यापार में पैसे लगाते हैं उन्हें फिक्र बनी रहती है कि किस वस्तु का व्यापार कहाँ है और वहाँ औरों के साथ मुकाबला कैसा है। इसीलिए बड़ी मुस्तैदी और तत्परता से चीजें तैयार कराते और बाजार में पहुँचाते हैं। कच्चे माल की भी चिंता उन्हें रहती है। उधर अपनी शाख (प्रतिष्ठा) भी बनाए रखना पड़ता है। इतने पर भी घाटे का डर बराबर बना रहता है। कभी-कभी घाटा होता है और पूँजी भी डूब जाती है। विपरीत इसके जमींदारों को न तो कोई फिक्र हैन चिंतान कुछ सोचना हैन विचारना हैमगर चिंता है तो केवल मौज करने की। घाटा तो कभी होता नहीं। यदि लगान न मिला तो सरकारी न्यायालय वसूल करवा देने के लिए तैयार रहते ही हैं और इसके लिए उन्हें मेहनताना भी जमींदारों को देना नहीं पड़तावह तो किसान से ही वसूल कर लिया जाता है। कितना सुंदर ... है। फिर जमींदारी में रुपया न लगाकर व्यापार में कौन लगाएगाअपनी चैन में खलल कौन डालेपरिणाम यह हुआ कि देश के धन और दिमाग में एक प्रकार का जंग लग गयायह कुंद पड़ गया। इस प्रकार हमारे देश की व्यापारिक और मानसिक समुन्नति के लिए यह जमींदारी अभिशाप हो गई।

                जो लोग अंग्रेजी सरकार से लड़ते और लड़ना चाहते हैंउन्हें जमींदारी के खिलाफ जो आनाकानी होती हैवह हमारी समझ में नहीं आती। आम तौर से देहातों में अंग्रेजी सरकार का तो कहीं पता नहीं रहतामगर जमींदार सरकार तो हर गाँव में विराजती है और किसानों तथा गरीबों का शोषण और उत्पीड़न सैकड़ों प्रकार के करती रहती है। फलतः इस शत्रु का अनुभव किसान बराबर करता रहता है। जब हम निरंतर छाती पर सवार रहने वाले शत्रु से लड़ाई करने की बात नहीं करके मेल की बात करते हैं और उस शत्रु से लड़ना चाहते हैंजिसका अनुभव दैनिक जीवन में सर्वसाधारण किसान मजदूरों के बराबर नहीं होतातो वह लोग हमारी बात समझ नहीं सकते और आश्चर्य में पड़ जाते हैंमौत सदा सिर पर सवार है और उसका दुःख सबसे ज्यादा होता भी है। मगर उससे बचने की कोशिश कौन करता हैयहाँ जब बीमारी होती हैतभी यत्न किया जाता है। लेकिन जूते की काँटी बराबर चुभती है तो जान से उसे दूर करने की कोशिश की जाती है। जमींदारी जूते की काँटी और विदेशी शासन मौत का दुःख हैयह हमें भूलना न चाहिए।

                एक बात औरबिहार में अंग्रेजी सरकार को हम करीब पाँच करोड़ देते हैं जिनका एक बड़ा हिस्सा या अधिकांश किसानों से ही लिया जाता है। इस रकम में एक अच्छा हिस्सा बड़ी-बड़ी तनख्वाहों में खर्च होता है बेशक और उसे हम रोक भी नहीं सकते। फिर भी बहुत बड़ा हिस्सा स्कूलकालिजअस्पतालदवाखाना औषधालयसफाईसड़ककुएँनगर आदि में खर्च होता है जिससे जनता की भलाई है। पुलिसकचहरियों का खर्च भी बहुत अंश में जनता के हित में है। मगर जमींदार लोग तो 20 करोड़ से कम वसूल नहीं करते और इसमें से भरसक एक पैसा भी जनता के काम में खर्च करना नहीं चाहतेखर्च नहीं करते। हाँटायटिल और उपाधि के लिए या अधिकारियों को खुश करने के खयाल से भले ही कुछ दे दिया करते हैं या स्कूल और अस्पताल बनवा दिया करते हैं। कितने जमींदार हैं जिन्होंने देहातों के बीच केवल किसानों के ही लाभ के लिए औषधालय या स्कूल खोले हैंअपने और अपने नौकरों-चाकरों के लिए स्कूल और अस्पताल बनवा दिया और उससे यदि कुछ गरीबों का भी लाभ हो गया तो उससे क्यायह तो मजबूरी की बात हो गई। यहाँ तक देखा जाता है कि यदि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की ओर से दवाखाने या अस्पताल खुलते हैं तो यह भी जमींदारों के घरों और महलों के ही पास खुले ऐसी कोशिश होती है। स्कूलों और सड़कों के बारे में भी यही होता है। यह भी देखा जाता है कि स्कूल और अस्पताल खुलवाते हैंजमींदार अपने नाम से और खर्च वसूल होता है किसान से। यदि गाँव में चोरी-डकैती हो तो अंग्रेजी सरकार की पुलिस खबर पाते ही दौड़ पड़ती है। मगर हजार खबर देने पर भी जमींदार अपना यह फर्ज भी नहीं समझता कि उस जगह पर जाए। ऐसी दशा में यदि सरकार से युद्ध करते हैं तो उससे कई गुना भीषण युद्ध मुफ्तखोर की संस्था’ जमींदारी के खिलाफ छेड़ना चाहिए। सरकार तो पाँच करोड़ का हिसाब पेश करती और उसकी मंजूरी लेती है। मगर ये बीस करोड़ हजम करने वाले जमींदारइन्हें हिसाब-किताब से क्या काम?
                कुछ लोग मुंशी जी वाला हिसाब लगाकर बताते हैं कि जमींदारों की कुल आमदनी ग्यारह करोड़ है और उसमें माल (Revenue) और वसूली का खर्च मिलाकर तीन करोड़ से कम नहीं है। ऐसी हालत में छः से कुछ भी ज्यादा उन्हें बचता है और यदि जमींदारी मिट जाए तो बिहार की साढ़े तीन करोड़ जनता में उस आमदनी को बाँटने से औसतन की आमदनी साल में दो रुपये होगी। लेकिन इससे गरीबी दूर हो नहीं सकती। अतः जमींदारी मिटाने का प्रश्न छोड़कर देश की समृद्धि बढ़ाने का दूसरा उपाय सोचना चाहिए। इस प्रश्न से घरेलू झगड़ा भी पैदा होता है और इस प्रकार स्वराज्य की लड़ाई में बाधा होती है। ऐसे लोग पूर्व में बताई गई मौलिक बातों का कतई खयाल नहीं करते। हमारा तो खयाल है कि जमींदारी सड़ा हुआ मुर्दा है और जब तक जला या दफना न देंगेइससे बराबर दुर्गन्ध आती और बीमारी फैलती रहेगी। और अगर आदमी साल में दो रुपया भी बचा जाता है तो गरीबों के लिए यही क्या कम हैमुफ्तखोर यह दो रुपया भी हमारा क्यों ले जाएँक्या हम मुफ्त में एक कौड़ी भी बर्दाश्त करते हैंऔर फिर ऐसे लोग हमारे ही रुपये से मौज करेंहमें ही पस्त और पामाल बनाएँ। क्या पैसे देकर ऐसे लोगों की जरूरत तैयार होने देना ठीक है जो सदा से देशद्रोही तथा कांग्रेसद्रोही रहे हैं और आगे भी रहेंगेअगर आज ये कांग्रेस में आए हैं या आ रहे हैं तो सिर्फ इसीलिए कि भीतर से ही हमला करें और कमजोर बनाएँ। पं. जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में – “कांग्रेस में आकर न तो स्वराज्य लेने को ही उत्सुक हैं और न स्वतंत्रता संग्राम में भाग ही लेने को। इन्हें तो अपना मतलब साधना है Who were not eager to achieve Swaraj of join fight but were serving personal gains,”.

                और इनके साथ घरेलू झगड़े का क्या सवालये सदा किसानोंगरीबों और कांग्रेस पर हमला करते ही रहे हैं। ये तो हमारे पुराने दुश्मन हैं। बिहार में तो इन्होंने गत चुनाव में केवल संगठित रूप से विरोध ही नहीं किया किन्तु जहाँ तक जमींदारों के वोट से चुने जाने की बात थीएक भी कांग्रेसी उम्मीदवार को असेम्बली या कौंसिल में चुने जाने नहीं दिया। फिर इनके साथ रिआयत कैसीइनका हमला तो आज भी किसानों पर पूर्ववत् जारी है। तो क्या हमलोग हमले के जवाब न देंइससे अपनी (सान करें) यह तो गैरमुमकिन है। ऐसा उपदेश देने वालों पर आज यदि कोई आक्रमण करे तो क्या वे चुपचाप बर्दाश्त कर लेंगेउनका घर या धन कोई लूटे तो क्या लुटेरे का मुकाबला न करेंगेयदि किसान का भाई या पड़ोसी लूटने आए तो किसान रोके नहींक्या स्वराज्य और उसकी लड़ाई का यही अर्थ है कि हमारे घर और देश के आदमी हमें लूटते और अपमानित करते रहें और हम चूँ न करेंऐसे स्वराज्य से तो हम बहुत डरते हैं और उसे दूर से प्रणाम करते हैं। जो लोग ऐसा उपदेश देते हैंअसल में वे जमींदारी जुल्म के शिकार हैं नहींया यदि हैं तो मुर्दे और आत्मसम्मानहीन हैं। हम जानते हैं कि जिनके पाँव न फटे बिवाईसो क्या जाने पीर पराई’ के किसानों की तकलीफों को समझने की कोशिश भी नहीं करतेयह और भी दर्दनाक बात है।

                जो लोग एकै साधे सब सधै’ का गीत गाकर कहा करते हैं कि स्वराज्य मिलने पर ये सभी झगड़े अपने आप मिट जाएँगेवे हमारी आँखों में धूल झोंकना चाहते हैं। दुनिया के सभी देशों में स्वराज्य हो गया सो भी सैकड़ों वर्षों से मगर रूस को छोड़ ये सभी झगड़े सभी देशों में मिटने के बजाय दिनोंदिन भयंकर होते चले जाते हैं। यदि जमींदारपूँजीवाले और साहूकार स्वराज्य आने पर भी रहे तो वह स्वराज्य गरीबों के लिए एक कौड़ी का भी न होगा। किसानमजदूर और पीड़ित लोग साधु फकीरों के कहने से स्वर्ग या बैकुण्ठ को इसीलिए अच्छा और अपने रहने लायक समझते हैं कि वहाँ जमींदारसूदखोर और पूँजीपति नहीं रहतेऐसी उनकी धारणा है। यदि उन्हें पता लग जाए कि ये जमींदार वगैरह मरकर वहाँ भी जाएँगे और अपना काम करेंगे तो गरीब लोग स्वर्ग बैकुण्ठ का नाम भी न लेंबल्कि नरक को ही अच्छा समझें यदि वहाँ जमींदारों की गुंजाइश न हो।

                जो लोग उन भूखे किसानों से जिनकी जमीनें धड़ाधड़ जमींदारोंसाहूकारों और बैंकों द्वारा नीलाम हो रही हों और जिनके बाल-बच्चे अन्नवस्त्रदवा के बिना तड़पते होंआजादी की लड़ाई लड़ पाने की आशा करते हैंउनकी समझ की बलिहारी है। जिस सिपाही की ऐसी दशा हो वह मैदान छोड़ भाग आता है और जब तक यह हालत रहे जाता नहीं। सत्याग्रह करने जा रहे हैंमगर बीच में ही पेट में दर्द हो जाए या बुखार आ जाए तो हम सत्याग्रह की बात भूलकर पेट की दवा करते और ज्वर का उपचार करते हैं और हमारे दूसरे साथी भी इसी काम में फँस जाते हैं। सख्त भूख लगने पर भगवान और सत्याग्रह भूल जाता है सिर्फ यह याद आता हैयह अप्रिय सत्य है। किसान आन्दोलन इसी भूख और बीमारी की दवा का उपाय है। हम इसके जरिये जमींदारी और साहूकारी जुल्म हटाकर किसान को थोड़ा आराम पहुँचाना चाहते हैं और इस प्रकार अपने नेतृत्व में अमली तौर से उसका विश्वास पैदा करके उसे आजादी की लड़ाई के लिए कमर बाँधकर तैयार करना चाहते हैं।

                रह गई हिसाब की बात सो तो गलत है। अगर हम भूलते नहीं तो सरकारी रेवेन्यू (माल) 135 लाख है। 1931-32 वाली बिहारउड़ीसा की शासन रिपोर्ट में लिखा है कि सरकार जमीन के मुनाफे का प्रायः 90 फीसदी जमींदारों के लिए छोड़ देती है – ‘Today the state relinquished nearly ninety percent of the profits to the land owners.’ ऐसी दशा में सरकारी बयान के ही अनुसार साढ़े तेरह करोड़ की आमदनी जमींदारों की होती है। मगर अवली में जो लूट किसानों की होती है उसका हिसाब सरकार के पास क्या हैदक्षिण बिहार में तो अवली बहुत ज्यादा है सो भी अधिकांश दलबन्दीजिसमें जमींदार का हिस्सा 16 सेर से 9 सेर है। तिस पर भी बढ़ई वगैरह कई अबवाब (सलामीतवान) सूदजुर्माना के रूप में अपार धन जमींदारों के पास चला जाता है। (अन्ती तौजीघाटचरसामहाल आदि) पचासों वसूलियाँ अलग हैं। जल करफल कर वगैरह भी हैं। जंगल के कर जुदा हैं। लकड़ियों और बाँसों की बिक्री से खासी आमदनी जंगलों के जरिये होती है। अबरक और कोयला तो बिहार की खास चीज है। पत्थर की बिक्री भी होती है। लोहा भी यहीं निकलता है। यदि यह सब आमदनी मिला दी जाय तो क्या लगान की आधी भी न होगीहमने कई जगह हिसाब लगा के देखा है तो सिर्फ गैर-कानूनी वसूलियाँ लगान के पाँचवें हिस्से के बराबर हो जाती हैं। बेगारी या कम मजदूरी देकर काम करवाना यह तो आम बात है। इसके सिवाय जमींदारों के दर्जनों नौकर हर गाँव में रहते और साग तरकारीघीदूधदहीरसऊखचनामटरबकरा-बकरीमुर्गीअण्डाजूताकम्बलतेलबर्तन वगैरह चीजें बराबर लेते रहते हैं। यदि साल-भर की इनकी लूट भी उसमें जोड़ दी जाय तो यह रकम बीस करोड़ से कहीं ज्यादा हो जाएगी। जमींदारी प्रथा का खात्मा होने पर 135 लाख के सिवाय बाकी तो किसानों के पास ही रहेगा जो प्रायः ढाई करोड़ किसानों में बाँटने पर भी आदमी करीब आठ रुपये और पाँच जनों के परिवार के लिए चालीस रुपया सालाना होगा। यह गरीबों के लिए बैठे-बैठाए बहुत ज्यादा है। चरखे की आमदनी किसी भी परिवार कोजिसमें पाँच मनुष्य होंइतनी शायद ही हो और होगी भी तो उसके लिए अलग परिश्रम होगा। उसमें यदि वह चालीस रुपये मिल जाएँ तो कितना सुन्दर हो। जोरजुल्मआतंक का जो अन्त हो जाएगा जमींदारी के साथ ही सो तो अलग ही है।

                इतने पर भी जो लोग दलीलें दिया करते हैं कि जमींदारी मिट जाने पर भी खासमहाल में किसानों की तकलीफें ज्यों की त्यों हैं और बम्बई या मद्रास के इलाके में जमींदारी प्रथा के न रहने पर भी किसानों के दुःख दूर न हुएउनसे हमारा निवेदन है कि वे जमींदारी मिटाने का अर्थ समझने की कोशिश करें। वे भारी भूल करते हैं कि यदि खासमहाल की जमींदारी ही है और आम तौर से खासमहाल का जमींदार कलेक्टर समझा जाता हैफर्क इतना ही है कि अन्य जमींदार जहाँ और जमीनों के मालिक हैं तहाँ खासमहाल का मालिक सरकार ही है। इसीलिए उसे खास कहे हैं। तो भी खासमहाल और जमींदारियों से अच्छा इसलिए है कि वहाँ बेगारी या अववाब नहीं चलते हैं और गैर-कानूनी जुल्म नहीं होते। रह गई बम्बई आदि में प्रचलित रैयतवारी की बात। यह ठीक है कि वहाँ जमींदारी नहीं है लेकिन इसके बहाने खेती प्रथाईनामदारीजागीरदारी जन्मी प्रथा और साहूकार जमींदार प्रणाली प्रचलित हैसारांश यह कि सरकार और किसानों के बीच कोई न कोई शोषक दल सर्वत्र है। अन्ततोगत्वा कहीं-कहीं किसान ही हजारों एकड़ जमीन रखते हं  और दूसरों के साथ शिकमी बन्दोबस्त करते हैं और जमींदारी प्रथा के खत्म करने का अर्थ है कि खेती करने वाले (किसान) और सरकार के बीच में कोई न रहे जो किसान से लगान लेकर कुछ स्वयं हजम करे और कुछ सरकार को दे। हर किसान के पास उसके परिवार के गुजारे के लायक काफी जमीन हो और उसे सरकार को नाममात्र का माल या कर देना पड़े। असल में किसान ही अपनी जोत का मालिक हो और इन्कम टैक्स की तरह उसे अपनी एक निश्चित आमदनी से अधिक आमद पर सिर्फ टैक्स लगेंलेकिन इतने से ही उसकी तकलीफें दूर न हो जाएँगीइसके लिए उतो उसे किसान-मजदूर राज्य स्थापित करना होगा जैसा कि पहले कह चुके हैं। जैसे अनेक बीमारियाँ होती हैं और एक के दूर हो जाने पर भी दूसरी से कष्ट है इसीलिए पहली का हटाना बेकार है। किसानों के कष्टों के कारणों में एक प्रधान कारण जमींदारी प्रथा है और इसे दूर करना हैबस यही अर्थ है। इसके बाद कष्ट के और कारणों का पता लगाकर उन्हें भी दूर किया जाएगा।

                जो लोग जमींदारी के सुधारने की बात करते हैं और उसके मिटाने का विरोध करते हैं या यों कहते हैं कि उसके सुधार की कोशिश की जाय और यदि न सुधरेगी तो स्वयं मिट जाएगीउनसे हम पूछते हैं कि साम्राज्यशाही के मिटाने की बात भी वे क्यों नहीं छोड़ देतेउसे भी सिर्फ सुधारने में ही लग जाएँ। यदि वह न सुधरेगी तो समय पाकर स्वयं मिट जाएगी। जिस प्रकार जमींदारी एक निन्दित प्रथा है कि उसी प्रकार साम्राज्यशाही भी पूँजीवाद रूपी प्रथा का अत्यन्त विकसित और भयंकर रूप है। यदि साम्राज्यशाही सुधर नहीं सकती तो जमींदारी कैसे सुधरेगी जिसका जन्म ही पापमय हैजमींदारी के सुधरने की आशा करना कोयले को साबुन से धोकर सफेद करने या बालू से तेल निकालने की आशा के समान ही है। यह कहना कि खेती करने वाले की ही तरह उसमें रुपया और सामग्री (Money and material) जुटाने वाले को भी साझीदार समझना चाहिए तो यह बात समझ में आती भी। मगर वह तो ऐसा कुछ करता नहीं। वह तो मुफ्त ही किसान की कमाई को हड़प लेना चाहता हैहड़प लेता है। चाहे फसल मारी जाएमगर वह तो पाई-पाई लगान सूद के साथ वसूलता ही है। यही साझीदारी हैया वह खेती में लगेयदि दूसरा कोई पूँजी लगाना चाहता है तो वह स्वयं खेत लेकर उसमें लगाए और खेती करे। पैसे के बल से दूसरे की कमाई खाने का सिद्धान्त ठीक नहीं है। यह तो सिर्फ सरकार का काम है कि किसान के लिए जमीन और पूँजी की व्यवस्था कर दे और उससे थोड़ा-सा टैक्स सिर्फ इसलिए ले कि फिर उसी की भलाई में खर्च करे।

                यदि जमींदारीसाहूकारी और पूँजी के द्वारा होने वाला शोषण बन्द न होगा और स्वराज्य के समय भी ये रहेंगी तो किसानों की गरीबी भी रहेगी ही क्योंकि स्वराज्य होने पर जमीन में घीदूध या गेहूँचावल की न तो वर्षा ही होगी और न पनाले ही फूटेंगे। ऐसी हालत में जो पैदावार होगी वह तो जमींदारों और साहूकारों आदि के हाथ में आज की ही तरह जाएगी। फिर किसान क्या खाएगाकल कारखाने खोलकरगरीबी दूर करने की बात मनोमोदक मात्र है। चीनी के पचासों कारखाने बिहार में खुल गए मगर क्या किसानों की गरीबी और तकलीफ घटीया कि उल्टे बढ़ीये कारखाने तो बेकारी को बढ़ाते और किसानों को सताते हैं। हाँपूँजीवाद न हो और सभी कारखानेकिसान मजदूरों और उनमें काम करने वालों के हो जाएँ तो बात ही दूसरी है। मगर पूँजीवाद का अन्त करने से पूर्व जमीन्दारी का अन्त करना ही जरूरी होगा।

मुआवजा और कीमत देकर

                बहुत लोगों का कहना है कि जमींदारी प्रथा का अन्त तो जरूर होमगर जमींदारों को उसकी कीमत (मुआवजा) दी जाय। लेकिन हमारी समझ में यह बात नहीं आती। उन्हें कीमत किस बात की मिलेगीक्या 1793 में उन्होंने किसानों से जमींदारी कीमत देकर खरीदी थीइतिहास का कोई पन्ना क्या इसका साक्षी हैकलम की एक नोंक से किसानों की सारी जमीन छीनकर जमींदारों को सौंप दी गई – उन्हीं लोगों को जो पहले मुगल सरकार के जमाने में सरकारी मालगुजारी की वसूली में कमीशन एजेण्ट थे और जिन्हें आज भी नेपाल में जिम्मेदार कहते हैंजिम्मेदार का अर्थ है कि सरकार ने अपनी वसूली के लिए उनको कुछ मौजों को जिम्मेदार बना दिया था और वसूली के मुताबिक फी सैकड़ा पाँच से दस रुपये तक कमीशन उन्हें देती थी। यही बात हाल में संयुक्त प्रान्तीय असेम्बली में वहाँ के माल मन्त्री ने भी कही थी। इस प्रकार यह जमींदारी तो एक प्रकार से चोरी या लूट का माल ठहरा और यदि आज हमें उसका पता लग गया तो पुराने मालिकों को वह वापस तो मिल जाना ही चाहिए। कीमत की बात कैसीजिन लोगों ने दाम देकर पीछे औरों से जमींदारी खरीदी हैउन्हें भी कीमत का दावा करने का हक नहीं। आखिर चोरी या लूट का माल जो खरीदता है वह भी गुनहगार ही है। हाँयदि जमींदारी की पैदाइश जोर-जुल्म या छीना-झपटी से न हुई रहती और खरीद-बिक्री के द्वारा ही इसकी उत्पत्ति हुई रहती तो बात दूसरी थी। मगर यह तो जबर्दस्ती छीनी गई है और इसका इतिहास साक्षी है। इतने पर भी यदि जमींदार कीमत माँगते हैं तो किसान गुजश्ता 145 वर्षों का वासिलात क्यों न माँगेऔर अगर ऐसा हो तो उन्हें तो लेने के देने पड़ जाएँगे। ऐसी हालत में अपनी परवरिश के लिए जमीनरोजगार तथा रुपया-पैसा अगर जमींदार चाहे तो यह चीज समझ में अच्छी तरह आ जाती है और उनकी यह माँग पूरी की जा सकती है बशर्ते कि शान्ति के साथ वे लोग इस जमींदारी का नामोनिसान मटियामेट करने दें।

                लेकिन कीमत की तरह में कई गम्भीर और पेचीदा बातें भी हैं जिनका विचार निहायत जरूरी है। आखिर जमींदारों को यह कीमत देगा कौन और कहाँ सेबिहार की समूची जमींदारी की कीमत कम से कम एक अरब रुपया बताई जाती है। यह एक अरब कौन देगाबड़े-बड़े पूँजी वाले और बैंक ही तो देंगे। परिणाम यह होगा कि हम जो जनता के हाथ में शासन-सूत्र लाना चाहते हैं वह न होगा और स्वराज्य के पहले ही यहाँ की सरकार पूँजी वालों के हाथ में बंधक हो जाएगीउनके शिकंजे में कर्जदार की तरह जकड़ जाएगी। दूसरी ओर उस रुपये से आज के जमींदार कल-कारखाने खोलकर मालामाल बनेंगे और जमींदारी के स्थान पर देश का सारा कार-बार उन्हीं के हाथ में चला जाएगा। फलतः मालदारों को दोनों तरफ से लाभ ही होगा। एक ओर बैंक और धनियों का दबावदूसरी ओर कल-कारखानेदारों का जोरइन दोनों के बीच स्वराज्य सरकार की कचूमर निकल जाएगी। साथ हीजो जमींदार अपनी जमींदारी के जरिये किसानों पर जुल्म करते थेवही अब एक ओर कच्चा माल खरीदने में और दूसरी ओर मिलों में काम करने वालों के साथ व्यवहार करने में वही अत्याचार करेंगेबल्कि वह और भी शोषक हो जाएगासुसंगठित बन जाएगा। इस प्रकार रोजा को गएनमाज गले पड़ी’ वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी।

                जो लोग राय देते हैं कि जमींदारों को केवल साढ़े तीन या चार रुपया सैकड़ासालाना सूद ही उनकी कीमत पर दिया जायवे तो सोचते नहीं कि सालाना यह चार करोड़ कहाँ से आएगा। बिहार सरकार तो स्वयमेव अर्थ संकट से तबाह रहती है। ऐसी हालत में बराबर कर्ज लेकर देते रहने का भी वही अर्थ हुआ। बल्कि अन्ततोगत्वा इसका असर एक बार देने की अपेक्षा और भी बुरा होगा। यदि सरकार ही जमींदारियों से लेकर इन्तजाम करे तो यह जमींदारी का मिटना कैसे हुआआखिर खासमहाल का जमा भी किसान चख ही चुके हैं। अतएव बिना कीमत या मुआवजा के ही जमींदारी का अन्त करना होगा और किसान सभा का यही लक्ष्य है।

ऋण और बकाया लगान का अन्त   

                इसी प्रकार किसानों और गरीबों की छाती पर चक्की की तरह लदे ऋण की भी इतिश्री किये बिना गुजर नहीं। एक तो किसान इस ऋण को दे नहीं सकता। उसकी तो कमर और रीढ़ टूट चुकी है। अब इस बोझ को वह बर्दाश्त नहीं कर सकता। अतएव सदा के लिए उसका पिंड इससे जल्द से जल्द छूट जाए इसी में कल्याण है और इसका एक ही तरीका है कि सरकारी कलम की नोंक से ही किसानों के सभी ऋण खत्म कर दिये जाएँ। यदि देखा जाय तो पता चले कि महाजनों ने सौ की जगह हजार और इससे भी ज्यादा वसूल कर लिया हैफिर भी उनकी बही में बाकी दर्ज है। एक तो सूद की दर बहुत ज्यादा हैखासकर गल्ले की। दूसरे दर सूद के चलते वह और भी खतरनाक हो जाती है। एक पैसे और एक आने से लेकर चार आने फी रुपये तक सूद लिया जाता है। तिस पर भी दर सूद। सौ रुपये का ऋण लिया तो डेढ़ और दो सौ का दस्तावेज लिखाया जाता है। अतएव इस अन्धेर खाते का खात्मा एक ही धक्के में कर डालना ठीक है। महाजनों और बैंकों ने गरीबों को काफी लूटा है। पटना जिले में हमने देखा कि एक जगह बहुत बढ़िया खेत 25-30 रुपये बीघे में ही को-आपरेटिव बैंक ने नीलाम करवा लिया है जिसकी कीमत आज भी पाँच सौ रुपये बीघे से कम नहीं हो सकती। महाजन लोग ऐसा ही करते हैं और किसान की बेबसी से अनुचित लाभ उठाते हैं। फलतः किसानों को उनके आज तक के कर्ज से बरी कर देना ही ठीक है। हाँयदि किसी का कर्ज ऐसा हो जो चुकता न हुआ हो तो उसको चुकता करने की जिम्मेदारी सरकार अपने ऊपर ले सकती है। जबकि इंग्लैण्ड और फ्रांस आदि की सरकारों ने नरसंहार के लिए लिया हुआ जर्मन युद्ध का महत्व देने से इनकार कर दिया तो किसान की क्या बातउसने तो जमींदारों को देने के ही लिए या बीज और बैल आदि के ही लिए अधिकांश कर्ज लिया है।

                एक बात औरबिहार की कुल जमीनजंगलपहाड़नदी वगैरह मिलाकर इस समय 44324173 एकड़ हैजिसमें खेती वाली 20301900 एकड़ है। यहाँ की जनसंख्या करीब साढ़े तीन करोड़ है जिनमें करीब ढाई करोड़ किसान हैं। इस प्रकार हिसाब लगाकर देखने से फी किसान औसतन पौन एकड़ से भी कुछ ही ज्यादा पड़ती है। इधर सरकारी रिपोर्ट देखने से पता चलता है कि एक एकड़ की औसतन कीमत सवा सौ और डेढ़ सौ के बीच में है। 1929 में वह 128 रुपया, 1930 में वह 122 रुपया और 1932 में 134 रुपया थी। इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रत्येक किसान के हिस्से में जो जमीन पड़ती हैयदि उसे बेच डाले तो 100 रुपया भी मुश्किल से ही उसे मिलेंगे। इधर कर्ज की हालत यह है कि बिहार के गाँवों का कुल ऋण जो 1929-30 में 155 करोड़ था उसमें किसानों का हिस्सा 129 करोड़ माना गया है। यह सरकारी कमिटी या हिसाब है। हमारे हिसाब से तो इससे कहीं ज्यादा है। जानकारों का यह भी कहना है कि बैंकिंग कमिटी ने भारत के गाँवों का कुल ऋण जो करीब 9 अरब 1929-30 में कूता थावह 1936-37 में प्रायः 15 अरब और 1938 में 17-18 अरब से कम नहीं है अर्थात् गत 9 वर्षों में करीब दूना हो गया है। इस हिसाब से बिहार के किसानों का ऋण भार 129 करोड़ से बढ़कर प्रायः ढाई अरब जरूर हो गया है जो प्रति किसान औसतन 100 रुपया पड़ता है। नतीजा यह होगा कि यदि सारी जमीन बेचकर सिर्फ कर्ज चुकाना चाहें तो भी किसान कठिनाई से पार पा सकते हैं।

                इसीलिए जहाँ तक एक ओर इस भयंकर कर्ज को रद्द कर देने के अलावा और कोई भी चारा ही नहीं वहाँ दूसरी ओर सरकार की ओर से अधिक से अधिक 5 या 6 रुपये सैकड़ा सालाना की दर से किसानों को कर्ज मिलने की व्यवस्था होनी चाहिए। केवल सूद की दर कानून के जरिये घटा देने से काम न चलेगा। चालाक सूदखोर पहले भी ऐसा करते थे और अब तो और भी सौ रुपये देकर दो-तीन सौ के कागज लिखाया करेंगे। हाँजिस प्रकार बनियों के लिए दिवालिया कानून हैवैसा ही अगर बहुत आसान दिवालिया कानून किसानों के लिए भी हो तो उससे कुछ सहायता मिल सकती है।
               
 इसी प्रकार किसानों के ऊपर जो बकाया लगान हैचाहे उसकी डिक्री हुई है या नहींउसको भी कलम की एक नोंक से रद्द किये बिना गुजर नहीं है। चाहे हजार कोशिश की जाए मगर किसान दे नहीं सकताउतने पर भी यदि उसे बार-बार दबाया और दिक किया जाएगा तो वह निश्चय ही अधीर (Desperate) हो जाएगा और उसका परिणाम किसी के लिए अच्छा न होगा। यदि जमींदारों के साथ कदम-कदम पर संघर्ष होने न देना है तो पिछली गन्दगी का खात्मा होना चाहिए और बकाए को रद्द करके नये सिरे से देने पावने का सिलसिला जारी करना चाहिएबकाए में थोड़ी या ज्यादा कमी करने से अब काम चलने का नहीं। गत नौ वर्षों की सस्ती के समय में जमींदारों ने किसानों को इस कदर बेरहमी से कानून की छत्र-छाया में चूसा और पस्त किया है कि अब उनके पास कुछ रह ही नहीं गया है। खूबी तो यह कि आज भी किसानों के लगान की कमी को वे बर्दाश्त नहीं कर सकते और सारी शक्ति लगाकर उसे रोकना चाहते हैं।

लगान और नहर रेट में काफी कमी की जाय

                इस प्रकार कर्ज और बकाया लगान को रद्द करने के बाद भी जब तक आगे के लिए लगान में काफी कमी न होगी किसान पनप नहीं सकतेलगान नहीं चुका सकते। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार गल्ले की कीमत 60 फीसदी से घट गई है यानी जितना गल्ला बेचने पर पहले ढाई रुपया मिलता थाउसी का अब एक रुपया मिलता है। फलतः आम तौर से यदि ढाई की जगह एक हो तो दो की जगह एक तो होना ही चाहिए और जहाँ ज्यादा लगान हो वहाँ तिहाई या चौथाई मात्र रख के बाकी अंश सदा के लिए खत्म किया जाना चाहिए। दृष्टान्त के लिए 15 रुपया हो तो 4 रुपया या 5 रुपया से ज्यादा लगान नहीं रहना चाहिए और इसके घटाने का तरीका क्या होक्या बारह आने के स्टाम्प पर फी किता दरखास्त दी जाय और वकील रखे जाएँहर्गिज हर्गिज नहीं। यह बात किसान के सामर्थ्य से बाहर की है और ऐसा करने में जमींदार डराते-धमकाते तथा फुसलाते हैं। तरीका यही है कि सरकार घोषणा कर दे कि किस हिसाब से लगान घटेगा और हाकिम मुकर्रर कर दे तो एक ओर से खतियान या रिकॉर्ड उठाकर आँख मूँद के घटाते चले जाएँ। उसमें किसी के बोलने या आगे चीं-चपड़ की गुंजाइश न हो। आज तो एक विचित्र लीला है। एक ओर लगान घटाया जाता है और दूसरी ओर काश्तकारी कानून की 104 धारा को दर्जनों उपधाराओं के अन्दर अपील के जरिये किसान को तंग करने और घटाए लगान को फिर बढ़ाने की कोशिश जमींदार करते हैं। आखिर मुकदमेबाजी की घुड़दौड़ में गरीब किसान कहाँ तक टिक सकता है। क्या कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने इसे विचारा हैकिसान को जो भी मिले वह सीधे और साफ हो। यह नहीं कि एक ओर तो देखने और कहने के लिए मिले और दूसरी ओर छिन जाए और किसान को सिर्फ खर्चपरेशानी और निराशा हाथ लगे।

                नहर रेट की बात भी कुछ ऐसी ही है। बड़ी चिल्लपों और परेशानी के बाद फी रुपये करीब एक आने की छूट मिली है। पहाड़ खोदकर चुहिया निकली। ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती। एक ओर तो सरकार कहती और कानून बनाती है कि जिस दर से गल्ले का दाम गिरा है उसी दर से लगान में कमी होनी चाहिए। ठीक ही है। किसान दे कैसे सकता हैलेकिन जब नहर रेट की कमी का प्रश्न आया तो यह दलील भूल गई और प्रायः 30 लाख की वसूली में दो लाख की छूट दे दी गई। क्या मतलबकिसान कहाँ से देगायह दोमुँही चाल कैसीयह भी नहीं कि नहर में घाटा हो। अब तो काफी बचत है। उड़ीसा में तो घाटा सहकर भी नहर रेट में कमी की गई थी। तो यहाँ क्यों न की जायउड़ीसा जब साथ था तो घाटा देकर भी 4 सैकड़ा बचत थी। अब तो वह अलग हो गया तो काफी बचत है। यह दलील की घाटे के जमाने में और मदों से इसकी पूर्ति होती थी, ‘अतः अब इस मद से उठाकर पूर्ति की जानी चाहिए’ ठीक नहीं। किसान सबों की रीढ़ है और वह टूट चुका है। अतः उस पर भार देना खतरे को खामख्वाह बुलाना है और दूसरे मदों में भी तो घूम-घुमाकर किसान का ही पैसा आता है। आखिर जमींदारसाहूकार या पूँजीवाले जो कुछ सरकार को देते हैंवह किसान से ही लेकर और स्टाम्प वगैरह में भी घुमा-फिराकर यही पैसे देता है। असल में यह दलील कोई चीज नहीं है कि कांग्रेसी मंत्रिमंडल ऋण के मामले में और इस नहर रेट के मामले में मालूम होता हैफैजपुर के प्रस्ताव में काफी कमी’ (Substantial reduction) को भूल गया है। हमें इस बारे में ऐसा जबर्दस्त आन्दोलन करना चाहिए कि उसे मजबूर होकर याद करना पड़ेक्योंकि रुपये में एक आने की कमी को कोई भी काफी कमी’ कहने की हिम्मत नहीं कर सकता। साथ हीनहर विभाग के सनातन अत्याचार ज्यों के त्यों बने हैंउन्हें भी बन्द करने के लिए किसानों को कमर कसना ही होगादूसरा रास्ता नहीं।

बकाश्त जमीन और सर्टिफिकेट

                किसानों के सामने दो और विकट समस्याएँ हैंबकाश्त जमीन की वापसी और जमींदारों को सर्टिफिकेट का अधिकार कतई नहीं मिलना। सर्टिफिकेट का अधिकार किसानों को किस तरह तबाह कर सकता हैइसका ताजा उदाहरण महाराज डुमराँव का वह जुल्म है जिसके शिकार इसी सर्टिफिकेट की ओट मेंभोजपुर कदीम सिमरी और ढकाइच के और खासकर सिमरी के किसान हाल में ही हो चुके हैं। पं. यमुना कार्यी ने जो असेम्बली में सवाल इस सम्बन्ध में किये थेउनके उत्तरों से इस जुल्म पर काफी प्रकाश पड़ता हैयों तो हमलोग अच्छी तरह जानते ही हैं। निस्सन्देह इन्ही सब जुल्मों के भंडाफोड़ और बिहार प्रान्तीय किसान सभा के निरन्तर आन्दोलन ने सरकार को विवश किया है कि वह जमींदारों को भविष्य में यह अधिकार न देने की घोषणा करे और जिन्हें यह अधिकार दिया गया हैउनसे भी छीन ले। लेकिन आसानी से लगान की वसूली की नाम की कोशिश हो रही है और कानून बनने जा रहा है। यह जानकर किस किसान और किसान हितैषी को मर्मान्तक वेदना न होगीहम इस चीज को बर्दाश्त नहीं कर सकते। हम साफ पूछना चाहते हैं कि लगान की आसानी से वसूली (Speedy realization) के नाम पर जो कुछ संशोधन किया जाता हैवह सर्टिफिकेट का असली खतरनाक हिस्सा नहीं है तो और क्याखास मुंसिफ रहेगासर्टिफिकेट आफिस की जगह। एक महीने की नोटिस ठीक वैसी ही देगा। नोटिस की तामील का तरीका वही पुराना होगा और किसान को पता लगा या न लगा क्योंकि मुंसिफ के केसों में अक्सर नहीं लगता और डिक्री तथा तीन महीने के भीतर वारा-न्यारा हो जाएगा। किसी भी हालत में छः महीने से ज्यादा समय नहीं लग सकता। बिना पूरी रकम जमा किये नोटिस न मिलने का उज्र सुना न जाएगा। ये सब बातें आए कानून में डाल दी गईं तो फिर सर्टिफिकेट का क्या बचा रहेगायदि ऐसा हुआ तो किसानों को इसके विरोध में प्राणपण से कोशिश करनी होगी। हमें तो अभी सजग हो जाना चाहिए कि ऐसा होने ही न पाएनहीं तो किसान खत्म हो जाएँगे। बकाश्त जमीन का प्रश्न भी टेढ़ा है। असल में इसके बारे में जमींदारों ने हमेशा बेईमानी और धोखेबाजी से काम लिया हैआज भी उससे बाज आना नहीं चाहते। बिहार काश्तकारी कानून की 20, 21 धाराओं के पढ़ने सेजो पहले से ही बनी हैंसाफ मालूम होता है कि किसी भी मौजे में लगातार 12 वर्ष तक जिसके परिवार की खेती होती रहे और वह खेती चाहे एक ही खेत में होती हो या अनेक खेतों में और चाहे हर साल वह खेत बदलते ही क्यों न रहते होंवह किसान सेटल्ड (Settled) रैयत कहा जाता है और जो बकाश्त उसे जोतने को दी गई वह फौरन उसकी हो गई जिससे वह बेदखल नहीं किया जा सकता जब तक उसका लगान देता रहे। 99 फीसदी बकाश्त जमीनें ऐसी ही हैं और उन पर किसानों का मौसमी हक हो गया है। मगर जमींदार इस बात का कोई कागजी सबूत किसान के पास रहने नहीं देता और मौके पर इन्कार कर देता है कि हमने वह जमीन किसान को नहीं दी हैहम स्वयं जोतते हैंऐसा झूठा दावा करता है और जाल-फरेब से उस जगह सफल भी हो जाता है। जब तक किसानों का पूरा संगठन न हो और अपने हक पर वे मरने-मिटने को तैयार न हो जाएँयह बात बराबर होती ही रहेगीइसका दूसरा उपाय नहीं है। कानून कुछ नहीं कर सकता। वह भी तो धन और शक्ति का ही साथी हैउसी का मददगार है।

                आज बकाश्त जमीन लौटाने के नाम पर जो समझौता कांग्रेस के नाम पर हुआ बताया जाता है उसका मतलब यदि पूर्वोक्त बकाश्त जमीनों के लौटाने से है तो उसमें सरासर धोखा हैक्योंकि वे जमीनें तो कानूनन किसानों की ही हैंफिर उन्हें किसानों को लौटाने की क्या बातऔर उन्हीं के लिए पुरानी डिक्री का आधा किसान क्यों देने लगेयदि यह समझौता दूसरी बकाश्त जमीनों के बारे में है जो 1929 और 1936 के बीच नीलाम हुई हैं जो आठ या दस हजार या ज्यादा सालाना आमदनी वाले जमींदारों के पास हैं और जिन्हें उन्होंने ता. 22.3.38 तक किसी के साथ पक्का बन्दोबस्त नहीं किया है सो भी सिर्फ वही जमीनें जिन पर इज़ाफा हुआ था या जिनकी अवली में नगदी हुई थी तो हमारा फिर भी यही कहना है कि इसमें भी वही धोखा है। एक तो थोड़े से ही बड़े जमींदारों की थोड़ी-सी जमीनें हैं जो भी उन्होंने प्रायः सभी को दूसरों के हाथ पहले ही बन्दोबस्त कर दिया हैफिर कानून बनाने की जरूरत क्यों कीइस दि-दोरे से क्या लाभ कि बकाश्त जमीन लौटाई जाएगीयदि कानून ही बनाना है तो ऐसा बनाइए कि सर्वे के बाद से लेकर आज तक छोटे-बड़े सभी जमींदारों ने बकाया लगान में जो जमीनें नीलाम इस्तीफा वैनामे के जरिये बकाश्त बना ली हैंसभी वापस मिल आएँ। नहीं तो रहने दीजिए।

चार काम करने होंगे

                यही तो संक्षेप में किसानों के मुख्य-मुख्य तात्कालिक प्रश्न हैं और इन्हीं के साथ किसान मजदूर राज्य या असली राज्य का प्रश्न लगा हुआ है। यदि हम इनका हल करने में मुस्तैदी से लग जाएँ तो हमारी मुसीबतें भाग जाएँ और किसान सुखी हो जाएँ। मगर मुस्तैदी से लगने का अर्थ क्या है यह समझ लेना चाहिए। हमें इसके लिए किसान सभा का जबर्दस्त संगठन करना होगा। जो सोता हैव लुट जाता है और जगने वाले को लूटना आसान काम नहीं है। हमें अपने जागरण का सबूत देना होगा। मुर्दे को या तो जलाते या गाड़ देते हैं। हमारी भी हालत अब तक यही रही है। हमारे शत्रु हमें सदा जलाने और गाड़ने की कोशिश वंश-परम्परा से करते आए हैं – नहींनहींउन्होंने हमें जलाया या गाड़ दिया है। फिर भी आश्चर्य है कि हम न जाने कैसे अब तक बचे हैं। असल में उन्हें हमारी जरूरत है। बिना हमारे उनका काम चल नहीं सकता। हमीं तो बासमतीगेहूँघीदूधमलाई उपजाते हैं और वे खाते हैं। हमीं तो उनकी शारीरिक सेवानौकर-चाकर के रूप में करते हैं। यदि हम न रहें तो वे बिना मौत मर जाएँ। इसीलिए मरैं न मीताय’ के अनुसार हमें किसी प्रकार उन्होंने जिन्दा रखा है।
                
लेकिन हमारा क्या फर्ज हैक्या यों ही नारकीय जीवन बिताते रहें और मुर्दा बने रहेंनहींमहें जिन्दा होने का सबूत देकर इस नारकीय जीवन को मिटाकर इसे सुखमय जीवन बनाना चाहिए। मगर इसके लिए रास्ता क्या है?  जिनका स्वार्थ हमारे स्वार्थ से विपरीत हैवे हमें कदापि करने न देंगे। वे पहले से ही काफी चतुर और संगठित हैं। अतएव सफलतापूर्वक उनका मुकाबला करने के लिए हमें चतुर और संगठित बनना पड़ेगा। दूसरा मार्ग है ही नहीं। यही है किसान सभा का रहस्य। बिना इसके जमींदारों का मुकाबला कर नहीं सकते। हमें गोल-मोल बातों में न पड़ श्रेणीगत स्वार्थ (Class interest) के आधार पर अपना सुदृढ़ संगठन बनाना होगा। हमें मोर्चेबन्दी करनी होगी। इसके विपरीत जो बोले वह तो हमारा शत्रु होगा या शत्रुओं का दोस्त और मददगार। उसकी बात में भूलकर ही हम दम लेंगे। फिर सारी बाधाएँ विलीन हो जाएँगी। दृढ़ संकल्प और अध्यवसाय के सामने बाधाएँ टिक नहीं सकती हैंपहाड़ भी पिघल जाते हैंयह कर्मयोगियों का सनातन अनुभव है।

                इस संगठन के दौरान हमें चार काम उठकर करने होंगे।

(1)          किसान सभा के लाखों मेम्बर हर जिले में बनाने होंगे। कोशिश यह होगी कि हर बालिग मर्द और औरत किसान सभा के मेम्बर बन जाएँ। कम से कम हर थाने में 20-25 मेम्बर बनें और इस प्रकार किसान सभा की मेम्बरी का रजिस्टर पहाड़ा की तरह शत्रुओं का डरावना प्रतीत हो और वे ठंडे पड़ जाएँ। जो मेम्बर होंगे और एक आना पैसा साल में देंगे उन्हें समाज से ममता होगीघनिष्ठता होगी जिससे सभा की ताकत बढ़ेगी।

(2)          किसान सेवक दल कायम करना होगा। हर आने में ढाई सौ सुशिक्षित किसान सेवकों का दल बनना चाहिए जिनका काम हो कि गाँवों में चक्कर लगाते रहें और पहरा दें। उन्हें देखकर किसानों में हिम्मत होगी और दुश्मन दहल जाएँगे। सेवक दल के बिना किसान सभा का जोरदार काम बाकायदे चल नहीं सकता।

(3)          किसान कोष का संग्रह करना होगा। आखिर इन किसान सेवकों को खिलाना-पिलाना और कपड़ा-लत्ता देना ही होगा। उनके रहने का प्रबन्ध भी करना होगा। घर में खाकर यह काम भाड़े पर कब तक चलेगाकिसान सभा का ऑफिस भी चलाना होगा ठिकाने से और यह बिना धन के हो नहीं सकता। इसलिए हर किसान का फर्ज है - विवाहश्राद्धउपनयनखेतखलिहान - हर मौके पर इस कोष के लिए कुछ न कुछ निकाले और किसान सभा में दे।

(4)          ‘जनता’ का घर-घर और गाँव-गाँव प्रचार करना होगा। बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ और उनमें किसानों की बातें भी पाई जाती हैं। मगर जनता’ किसानों की अपनी है। यह बेमुरव्वत होकर बेलाग किसानों की बातें लिखती और उनके लिए पग-पग पर युद्ध करती हैइसीलिए इसका जन्म हुआ है। इसमें किसानों का दर्द हैउनकी आह हैउनकी चीख हैऔर सभी से ऋण पाने का मन्त्र और उपाय भी इसके पन्ने-पन्ने में है। अतएव हमें प्रण लेना चाहिए इसके लाखों ग्राहक बनाकर ही दम लेंगे और आप तथा दुनिया साश्चर्य नेत्रों से देखेगी कि आप कहाँ से कहाँ जा बढ़ेआपकी मुसीबतें न जाने कहाँ भाग गईं।

श्रेणी युद्ध और खयाली खतरे

                लेकिन यहाँ पर हमारे अनेक दोस्त चौंक पड़ते हैं और कहते हैं कि यह तो श्रेणी युद्ध की तैयारी हो रही है जिसमें हिसा ही हिंसा है। साथ ही किसान सभा में कांग्रेस के समानान्तर या मुकाबले की संस्था बन रही है या बन जाएगी और इस प्रकार आजादी की लड़ाई में बाधा होगी। लेकिन उन्हें समझ लेना चाहिए कि आजादी की सबसे ज्यादा जरूरत किसानों को ही है क्योंकि उनके लिए इस आजादी के साथ रोटी और कपड़े काजीवन-मरण का प्रश्न लगा हुआ है। यह बात जमींदार और मालदार के साथ नहीं है। उनके लिए आजादी का प्रश्न या तो कौतूहल की चीज है या अपने शोषण को भी पक्का और वैज्ञानिक बनाने का साधन है। फिर कोई भी किसान या उसका सच्चा हितैषी उस आजादी के संग्राम में बाधा पहुँचाने की बात सोचकर या काम करके अपने पाँव में कुल्हाड़ी क्यों मारेगायदि किसान सभा के कार्यकर्ता सच्चे किसान हितैषी नहीं हैं तो जो ऐसे हों वही यह काम क्यों नहीं चलातेन तो स्वयं करना न दूसरों को करने देनायह तो बेजा बात है। रह गई श्रेणीयुद्ध की बात। हमें उसकी तैयारी क्यावह तो सदा से जारी है। अन्तर यही है कि धनिक श्रेणी अब तक असहाय असंख्य कमाने वाली है पर निष्ठुर आक्रमण करती रही है और किसी ने चूँ तक नहीं की। पर ज्यों ही ये कमाने वाले उस आक्रमण को रोकने की तैयारी करने लगे कि श्रेणी युद्ध का बावेला मच गया। यह तो बेईमानी और पक्षपात हैठीक ही है कि हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम। वह कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती।’ आखिर जमींदारों और पूँजीपतियों की संगठित लूट श्रेणीयुद्ध नहीं है तो है क्याक्या यह गरीबों की पूजा प्रतिष्ठा हैश्रेणियों और उनके स्वार्थों को सुनकर भी श्रेणीयुद्ध से आँख मूँदना गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज’ करना है। हमारे देश या दुनिया में जमींदार किसान आदि श्रेणियों से कौन इन्कार कर सकता है और उनके स्वार्थ विरोधी हैंयह ठोस सत्य है। इजीफा हटेलगान घटेबाकी रद्द होबेगार जार जुल्म हटे तो किसान का हित है। मगर जमींदार छाती पीटता है और उसका स्वार्थ ही उल्टा है। फिर तो विरोधी स्वार्थों का संघर्ष होगा ही और यही श्रेणी युद्ध या वर्ग युद्ध। जमींदार और पूँजी मिटा दीजिए और यह युद्ध स्वयं खत्म हो जाएगा। लेकिन इन चीजों को रखके वर्ग युद्ध मिटाने की बात मनोरंजन मात्र है।

                हिंसा का भूत सर्वत्र देखने वालों की बुद्धि पर हमें तरस आता है। जो लोग अहिंसा के बड़े पुजारी बने हैंक्या वे आत्मरक्षा के कानूनी और नैतिक हक को छोड़कर अपनी और अपनी जान-माल की रक्षा कर सकते हैंयदि उनका पड़ोसी हमला करे और लूटपाट मचा दे तो क्या आत्मरक्षा में वे बल प्रयोग न करेंगेकहना आसान हैकरना असम्भव है। तो आखिर किसानों का संगठन क्या हैसिवाय दुश्मनों की संगठित हिंसा के विपरीत अपनी रक्षा कैसे की तैयारी के?

                समानान्तर या मुकाबले की संस्था होने का भूत बराबर देखने से काम न चलेगा। किसने 1885 में सोचा था कि कांग्रेस साम्राज्यशाही से सफलतापूर्वक मिलेगी और इसका अन्त करने पर तुल जाएगीभविष्यवक्ता बनना बड़ा खतरनाक काम है खासकर राजनीति में किसी बात का बार-बार याद दिलाना और उसी के आधार पर तानाजनी करना भी बुरा है। इसी तानाजनी ने रूस के किसानों और मजदूरों को बोल्शेविक बनायाजबकि वे जानते तक न थे कि बोल्शेविक या बोल्शेविज्म कौन चिड़िया है। समानान्तर होने के खतरे को रोकने का उपाय किसान सभा का विरोध नहीं हैकिन्तु एक ओर कांग्रेस के तपे-तपाए सिपाही किसान सभा की बागडोर अपने हाथ में लें और दूसरी ओर किसानों की माँग का बेखटके और बेमुरव्वत होके कांग्रेस समर्थन करे सक्रिय रूप से। यदि इतने पर भी मुकाबले का डर हो तब तो मानना ही पड़ेगा कि कुछ और कसर है। यदि सामूहिक रूप से कांग्रेस पके-पकाए कार्यकर्ताकिसान सभा में रह के भी यह बात रोक नहीं सकते तब तो मानना पड़ेगा कि यह अवश्यम्भावी और जरूरी चीज है और इसकी कोई दवा नहींबल्कि विरोध करने पर ही इसका ज्यादा खतरा है।

Post a Comment

और नया पुराने